नृत्य का संसार कलाओं में बेहद ऊंचा है। हम अधिकतर उसकी बाहरी काया को तो देख पा रहे होते हैं शायद इस बात से अज्ञान की नृत्य की रूह में संसार का रचयिता विद्यमान है। विदुषी संगीता गुन्देचा को पढ़िए और देखिए उसे। ~ सं0
शिल्प जैसे ठहरा हुआ नृत्य
नृत्य मानो पिघला हुआ शिल्प
~ संगीता गुन्देचा ~
नाट्यशास्त्र की विदुषी, कवि, कथाकार, निबन्धकार और अनुवादक। सहायक आचार्य, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल। पुस्तकें : समकालीन रंगकर्म में नाट्यशास्त्र की उपस्थिति, नाट्यदर्शन (कावालम् नारायण पणिक्कर, हबीब तनवीर और रतन थियाम से संवाद), भास का रंगमंच, कावालम् नारायण पणिक्कर : परम्परा एवं समकालीनता, ’पडिक्कमा’ (काव्य संग्रह), एकान्त का मानचित्र (कविता-कहानियों का संयुक्त संग्रह), उदाहरण काव्य (प्राकृत-संस्कृत कविताओं के हिन्दी अनुवाद), मटमैली स्मृति में प्रशान्त समुद्र (जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा की कविताओं के हिन्दी अनुवाद), टोट बटोट (उर्दू लेखक सूफ़ी तबस्सुम की नज़्मों का सम्पादन)। अनुवाद : लेखन का अनुवाद ओड़िया, उर्दू, बांग्ला, मलयालम, अंग्रेज़ी, फ्रेंच और इतालवी में। अध्येतावृत्तियाँ : भारत सरकार के संस्कृति मन्त्रालय की अध्येतावृत्ति। उच्च अध्ययन केन्द्र नान्त (फ्रांस) की अध्येतावृत्ति। पुरस्कार : ’भोज पुरस्कार’, ’भास सम्मान’, ’कावालम् नारायण पणिक्कर कला-साधना सम्मान’, ’संस्कृत भूषण’, ’कृष्ण बलदेव वैद फैलोशिप सम्मान’, ’विशिष्ट महिला सम्मान।’ मो.- 9425674851 ई-मेल : sangeeta.g74@gmail.com
Arangetram: Medhavini Varakhedi | Photo Courtesy Arvind Shenoy |
संस्कृत नाटकों में यह मान्यता रही है कि रक्त अशोक का वृक्ष किसी कन्या के पैरों का स्पर्श पाकर पुष्पित-पल्लवित हो उठता है।
कालिदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में दो नाट्याचार्यों गणदत्त और हरदत्त के बीच वसन्तक (नाटक का विदूषक) यह विवाद कराने में सफल हो जाता है कि उनमें श्रेष्ठ कौन है? जब वे दोनों इसका निर्णय कराने राजा अग्निमित्र के पास जाते हैं, अग्निमित्र निर्णय का यह कार्य नाटक की एक चरित्र पण्डिता कौशिकी को सौंप देता है। पण्डिता कौशिकी कहती हैं कि नाट्यशास्त्र में तो प्रयोग की ही प्रधानता है, बातचीत से क्या लाभ? वे यह भी कहती हैं कि कोई स्वयं गुणी होता है, कोई गुणों को हस्तान्तरित करने में दक्ष होता है पर जिसमें ये दोनों गुण हों, वही श्रेष्ठ गुरु होता है। तय होता है कि गणदत्त और हरदत्त दोनों ‘उपदेश दर्शन’ यानि अपने शिष्यों का नृत्य प्रस्तुत करेंगे। गणदत्त अपनी श्रेष्ठ शिष्या मालविका की मंच पर नृत्य प्रस्तुति कराने का निर्णय लेते हैं।
गुरु-शिष्य परम्परा भारतीय समाज में विद्याओं और कलाओं को हस्तान्तरित करने की महत्वपूर्ण पारम्परिक संस्था रही है। इस पद्धति से कलाओं और विद्याओं का जीवन्त संरक्षण भी हो जाया करता है और साथ ही उनका अनिवार्य रूपान्तरण भी शिक्षण की इस पद्धति में हो जाता है। यह इनके संरक्षण का आधुनिक डिजिटल टेक्नालॉजी की तुलना में कहीं अधिक तात्विक और प्रभावी ढँग है। हमें इस पद्धति का कृतज्ञ होना चाहिए कि हमारी सभ्यता में विकसित अनेकानेक कलाओं और विद्याओं का इसने संरक्षण किया और उनमें सन्निहित सामूहिक स्मृति और कल्पना आज भी जीवन्त बने हुए हैं। ‘अरंगेत्रम्’ गुरु-शिष्य परम्परा का ऐसा ही आयाम है।
तमिल में ‘अरंगु’ का अर्थ ‘रंगमंच’ होता है और ‘एत्रम्’ का अर्थ है ‘चढ़ना या प्रवेश’। इस तरह अरंगेत्रम् का अर्थ हुआ रंगमंच पर (पहली बार) चढ़ना या प्रवेश।
गुरु को शिष्य पर जब यह भरोसा हो जाता है कि उसका शिष्य पर्याप्त योग्य हो चली/चला है, वह उसे अपनी कला को प्रस्तुत करने की अनुमति दे देती/देता है। ‘भरतनाट्यम्’, ‘मोहिनीअट्टम्’ आदि में इसे ‘अरंगेत्रम्’ कहते हैं। यह पद तमिल और मलयालम भाषा में भी प्रयोग किया जाता है। इसे कन्नड़ में ‘रंगप्रवेश’ और तेलगु में ‘रंगप्रवेशम्’ कहा जाता है। तमिल में ‘अरंगु’ का अर्थ ‘रंगमंच’ होता है और ‘एत्रम्’ का अर्थ है ‘चढ़ना या प्रवेश’। इस तरह अरंगेत्रम् का अर्थ हुआ रंगमंच पर (पहली बार) चढ़ना या प्रवेश। इस रिवायत को हम ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाटक में देख आये हैं, जहाँ गुरु गणदत्त राजमहल के रंगमंच पर मालविका का नृत्य रसिकों के समक्ष पहली बार प्रस्तुत करते हैं।
दाएं से श्रीमती निरुपमा राजेन्द्र, डा. पद्मा सुब्रमण्यम, सुश्री मेधाविनी वरखेड़ी, डॉ. संध्या पुरेचा |
मार्च 2023 में बैंगलुरू के ’श्रीहरि कोडय सेण्टर फ़ॉर परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स’ के मंच पर कथक और भरतनाट्यम् की सुविख्यात गुरु श्रीमती निरूपमा राजेन्द्र ने अपनी सुयोग्य शिष्या सुश्री मेधाविनी वरखेड़ी का नृत्य प्रस्तुत किया। अरंगेत्रम् की इस प्रस्तुति का आरम्भ राग अमृतवर्षिनी और आदि ताल में निबद्ध ‘पुष्पांजलि’ से किया गया था। मन्दिर के स्थापत्य से प्रभावित होकर बने खम्भों के पीछे से धीरे-धीरे सुश्री मेधाविनी ने जब मंच पर प्रवेश किया तो यह महसूस हुआ मानो निष्प्राण रंगमंच साँस लेने लगा हो। इस दृश्य में ऐसा प्रतीत हो रहा था कि करण आदि की जो नृत्य मुद्राएँ भरतनाट्यम् में मन्दिर के स्थापत्य से आयी हैं, उनका मानो प्रत्यक्ष सम्बन्ध पुष्पांजलि के माध्यम से प्रदर्शित किया जा रहा हो। यहाँ यह याद रखना चाहिए कि मन्दिरों में शिल्पित आकृतियाँ दरअसल नृत्यरत आकृतियाँ हैं। हम चाहे तो शिल्पों को ठहरा हुआ नृत्य कह सकते हैं और नृत्य को पिघला हुआ शिल्प।
सुश्री मेधाविनी वरखेड़ी के नृत्य की अगली प्रस्तुति शंकराचार्य रचित गणेश पंचकम् पर आधारित थी। जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि शंकराचार्य ने इसमें गणेश से सम्बन्धित पाँच पद कहे हैं। इन पदों का छन्द और उनकी गति-यति अत्यन्त ही प्रांजल है, उदाहरण के लिए यह पंक्ति -
नितान्त कान्त दन्त कान्तिमन्त कान्तकात्मजम्
इस प्रस्तुति की विशेषता यह थी कि इसे आरम्भ में नाट्यधर्मी मुद्राओं के साथ किन्तु अन्त में लोकधर्मी अभिनय के साथ प्रस्तुत किया गया। इसमें यह अभिनीत किया गया कि गणेश उत्सव के अवसर पर निकलने वाले जुलूस में किस तरह सड़कों पर रोशनी की जाती है। किस तरह गणेश उत्सव के मेले में साड़ियाँ और गहने खरीदे जाते हैं, किस तरह लोग नाचते और तरह-तरह के वाद्य बजाते हैं, यह सब लोकधर्मी नृत्य के माध्यम से दर्शाया गया था। जिसे हम लोकधर्मी कह रहे हैं, उसे मोटे तौर पर यथार्थवादी अभिनय कहा जा सकता है।
अरंगेत्रम् की अगली प्रस्तुति राग रीति गोला में उत्तकाडु वेंकट सुब्बयर की बंदिश ‘बृन्दावन निलय राधे’ थी। इस बन्दिश में अष्टनायिका भेद से राधा की ‘वासकसज्जा’ अवस्था को अभिनीत किया गया। इसमें कृष्ण से मिलने को आतुर राधा पहले ख़ुद को वस्त्र और गहनों से सजाती है और फिर ‘श्रृंगारोरसोल्लास चतुर’ राधा खेल-खेल में कृष्ण से यह कहती है कि वे उसके सौन्दर्य का वर्णन करें। यह कुछ ऐसा ही है मानो साक्षात् प्रकृति मनुष्यों से उसके सौन्दर्य का वर्णन कर उसे अनुभव करने का आग्रह कर रही हो। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि आधुनिक मनुष्य में प्रकृति के गहन सौन्दर्य को अनुभव करने का अभाव हो चला है, जिसका कारण उसका प्रकृति को उपयोगितावादी दृष्टि से देखना है। यह प्रस्तुति उस ओर ध्यान भी दिलाती है और उसे दुरूस्त करने की राह भी यहाँ से फूटती हुई महसूस होती है।
नृत्य की चौथी प्रस्तुति लालगुडी जयरामन् की प्रसिद्ध रचना ‘वर्णम्’ थी, जिसके बोल ‘इन्नुम येन मनम’ थे। यह राग चारुकेशि में निबद्ध थी। राग चारुकेशि दक्षिण भारत और उत्तर भारत में समान रूप से गाया-बजाया जाने वाला राग है। वर्णम् में विरहोत्कण्ठिता (यानि विरह से विह्वल नायिका का बारबार अपना कण्ठ उठाकर देखना) नायिका के हृदय में उठने वाले तरह-तरह के भावों का अभिनय मेधाविनी ने बहुत दक्षता के साथ प्रस्तुत किया। गुरु अनुपमा राजेन्द्र द्वारा बनाई गई इस नृत्य संरचना की विशेषता अभिनय में ‘जतियों’ और 'नृत्त’ पक्ष का बुना जाना है। इस नृत्य संरचना में उन 'करणों' और 'रेचकों' का बड़ी सुन्दरता के साथ प्रयोग किया गया है, जिन्हें डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम् ने नाट्यशास्त्र से ग्रहण कर उसे नृत्य प्रयोगों से जीवन्त बना दिया है। डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम् ने नाट्यशास्त्र और अंगकोरवट आदि मन्दिरों के शिल्पों का गहन अध्ययन कर समकालीन मार्गी नृत्यों के लिए नयी सम्भावनाओं के द्वार खोल दिये हैं। मेधाविनी के अरंगेत्रम् में भरतनाट्यम् नृत्यांगना और संगीत नाटक अकादेमी की अध्यक्षा डॉ. सन्ध्या पुरेचा, विद्वान् डॉ. शतावधानी गणेश जैसे विद्वत्समूह के साथ परम विदुषी और भरतनाट्यम् की नृत्यांगना डॉ. पद्मा सुब्रह्मण्यम् उपस्थित थीं। उपस्थित इन अतिथियों का बहुत आत्मीय स्वागत भारतीय दर्शन के विद्वान् प्रोफ़ेसर श्रीनिवास वरखेड़ी ने किया।
अगली प्रस्तुति में कवि पुरन्दरदास की कृति ‘जगदोद्धारणा अडिसीबल यशोधना’ की रचना के क्षण को अभिनीत किया गया था कि किस तरह पुरन्दरदास ने मन्दिर में प्रवेश कर जब बालक कृष्ण को देखा, वे कल्पना करने लगे कि यह बालक अपनी माँ यशोदा के साथ कैसी-कैसी क्रीड़ाएँ करता होगा। इस नृत्य रचना में मेधाविनी के अभिनय कौशल से यशोदा का वात्सल्य और कृष्ण की शरारतें दोनों ही अपने पूरे लाघव के साथ प्रकट हुए। वात्सल्य का अभिनय अपेक्षाकृत जटिल हुआ करता है। क्योंकि कल्पनाशीलता के अभाव में अमूमन वात्सल्य का अभिनय अपनी रुढ़ियों में फिसल जाता है। मेधाविनी ने अपने कल्पनाशील अभिनय से खुद को इन रुढ़ियों से बचाते हुए एक ऐसे संसार की सृष्टि की, जिसमें यशोदा और कृष्ण पुरातन लगते हुए भी नये जान पड़ रहे थे। मानो वे वहीं थे और मेधाविनी के नृत्य-स्पर्श से मंच पर जीवित हो उठे हों।
अरंगेत्रम् का समापन राग वसन्ता में उस अनूठे ‘तिल्लाना’ से हुआ, जिसमें निसर्ग के सौन्दर्य का आह्वान किया गया था; फूलों और मधुमक्खियों के बीच के सूक्ष्म लगाव का वर्णन किया गया था। तिल्लाना के बोल कर्नाटक के जाने-माने विद्वान् श्री शतावधानी गणेश ने लिखे थे, जिसकी विशेषता यह थी कि उसमें दोहद परम्परा के कई सन्दर्भों को उद्घाटित किया गया था। संस्कृत नाटकों में यह मान्यता रही है कि रक्त अशोक का वृक्ष किसी कन्या के पैरों का स्पर्श पाकर पुष्पित-पल्लवित हो उठता है। श्री शतावधानी गणेश ने अशोक के अलावा भी ऐसे कई वृक्षों के दोहदों का वर्णन अपने गीत में किया, जिनका उल्लेख ‘मेघदूतम्’ की मल्लिनाथ कृत टीका में मिलता है। मेधाविनी ने इसे बहुत ही सूक्ष्म अभिनय करते हुए प्रस्तुत किया। इस नृत्य-प्रस्तुति की यह विशेषता थी कि इसमें एक नयी नर्तकी ने, जो अपना पहला नृत्य-प्रदर्शन कर रही थी, सदियों पुरानी परम्परा को साकार कर दिया। इस तरह के रचनात्मक प्रयासों से परम्परा में हुए नये-नये अविष्कार पुनर्जीवित होकर समकालीन संस्कृति को समृद्ध करते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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उत्तम
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