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अरंगेत्रम्: मेधाविनी वरखेडी का रंगमंच प्रवेश - संगीता गुन्देचा | Arangetram: Medhavini Varakhedi - Sangeeta Gundecha

नृत्य का संसार कलाओं में बेहद ऊंचा है। हम अधिकतर उसकी बाहरी काया को तो देख पा रहे होते हैं शायद इस बात से अज्ञान की नृत्य की रूह में संसार का रचयिता विद्यमान है। विदुषी संगीता गुन्देचा को पढ़िए और देखिए उसे। ~ सं0 

अगर खिलेगा तो देखा जाएगा — आलोक पराड़कर @AlokParadkar


कला परख 

आलोक पराड़कर


कला की भी एक सत्ता हो, शब्दों की भी एक दुनिया हो

 — देव प्रकाश चौधरी


देश विदेश के महत्वपूर्ण प्रकाशकों के लिए काम करते हुए देव प्रकाश चौधरी  हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि कवि या लेखक के शब्दों को उनकी कला समानांतर रूप से सजाए। कला की भी एक सत्ता हो, शब्दों की भी एक दुनिया हो। दोनों साथ आएं तो आंखों से आत्मा तक एक झंकार-सा बजे। ऐसा लगे मानो कहीं कुछ घट रहा हो, कुछ खिल रहा हो।



Deo Prakash Choudhary Shabdankan xxx1
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पुस्तकों के चयन में आखिर वे कौन सी बातें होती हैं जो पहले-पहल हमें आकर्षित करती हैं?  निश्चय ही लेखक, विधा, विषय जैसे कारण हमारे लिए महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन इन सबके बीच जो बात आरम्भ में ही हमें प्रभावित करती है, वह पुस्तकों का आवरण भी होता है। आवरण ही हैं जो सबसे पहले हमसे संवाद स्थापित करते हैं, हमारी भटकती निगाहों को ठहरने को कहते हैं। आवरण पुस्तकों के कलेवर की पहचान हैं, उस चेहरे की तरह हैं जो दिल का हाल देते हैं। और जब कभी ऐसा नहीं होता है तो यह या तो पुस्तकों के साथ अन्याय होता है या फिर पाठकों के साथ।

यह विडम्बना है कि प्रकाशन व्यवसाय की तमाम प्रगति और वर्ष में बड़ी संख्या में पुस्तकों के छपने-बेचने के सिलसिले के बावजूद आवरण डिजायन को किसी कला की तरह देखे जाने का चलन अभी हमारे यहां विकसित नहीं हो सका है। किसी कलाकार की किन्हीं कलाकृति को अक्सर किसी पुस्तक के आवरण को कलात्मक रूप देने के लिए प्रयोग में ले लिया जाता है। कई बार ऐसा छायाचित्रों के माध्यम से भी होता है । वैसे, इधर कम्प्यूटर ग्राफिक्स का प्रयोग भी बढ़ा है। लेकिन इन सबके बीच कुछ सवाल अनुत्तरित ही हैं। क्या ऐसे आवरण  कला से साहित्य का सेतु भी रचते हैं और  स्वतंत्र कलाकृति के तौर पर वे अपनी श्रेष्ठता चाहे जैसे स्थापित कर रहे हों लेकिन पुस्तक से उनका रिश्ता किस हद तक स्थापित हो पा रहा है? निश्चय ही श्रेष्ठ आवरण के निकष में ये बातें शामिल होनी चाहिए।
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देव प्रकाश चौधरी के बनाए आवरण इन प्रश्नों से टकराते हैं तो इसके अपने कई कारण भी है। चित्रकार होने के साथ ही वे लेखक-संपादक हैं। कला तथा लेखन दोनों ही अनुशासनों को भली प्रकार समझते हुए वह इनके बीच रिश्ता कायम करने का हुनर भी जानते हैं। वह मानते हैं कि आवरण को अपने आप में एक स्वतंत्र कला के तौर पर लिया जाना चाहिए। वह बखूबी जानते हैं कि आवरण बनाने का अर्थ किसी कलाकार द्वारा एक स्वतंत्र कलाकृति रच देने से अलग है। आवरण का तादात्म अपने ऊपर उभरे उस शीर्षक से वैसा ही गहरा है जैसा उस शीर्षक का  पुस्तक से, और इस प्रकार  आवरण का रिश्ता पुस्तक से है। देव प्रकाश कहते हैं-" आवरण किसी लेखक या कवि की सोच के समानांतर चलते हुए शब्दों को सजाने का काम करते हैं। लेकिन हिंदी में अक्सर यह होता है कि लेखक आवरण पर उन सारी चीजों को देखना चाहते हैं जो उनकी किताब के अंदर होता है। ऐसे में अच्छा आवरण बनना कठिन हो जाता है। कई बार तो लेखक ही तय करते हैं कि उनके किताब के आवरण पर क्या-क्या होगा, कोई कलाकार नहीं। जबकि किसी किताब का कवर तैयार करना अपने आप में एक स्वतंत्र विधा है।"

इसकी कई वजहें हैं। अंग्रेजी की बात छोड़ दें तो अन्य भारतीय भाषाओं में किताबों को कवर पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता। अंग्रेजी के प्रकाशक इस कला को गंभीरता से लेते हैं। वैसे तो देव प्रकाश चौधरी मूलतः चित्रकार रहे हैं हैं, लेकिन पिछले दो दशकों से वह किताबों के आवरण पर काम कर रहे हैं। देश विदेश के महत्वपूर्ण प्रकाशकों के लिए काम करते हुए वह हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि कवि या लेखक के शब्दों को उनकी कला समांनांतर रूप से सजाए। कला की भी एक सत्ता हो, शब्दों की भी एक दुनिया हो। दोनों साथ आएं तो आंखों से आत्मा तक एक झंकार सा बजे। ऐसा लगे मानो कहीं कुछ घट रहा हो। हाल के दिनों में इन्होंने महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘बहुवचन‘ को देखते-पढ़ते आए हैं वे उनकी इस प्रतिभा से ‌निश्चय ही परिचित होंगे। इसके तो कई सारे अंक उनके द्वारा बनाए आवरणों से सजे पडे हैं। चाहे वह आलोचना का विशेष अंक हो जहां वे पुस्तकों के बीच कागज पर लिखी पंक्तियों को काटते हुए प्रतीकात्मक ढंग से पत्रिका के विषय को उठाते हैं, या फ‌िर  मीडिया विशेषांक जिसके आवरण को कैमरों और दूसरे प्रतीकों के माध्यम से बनाते हैं। इन विशेषांकों से अलग सामान्य अंकों के उनके बनाए आवरण भी न सिर्फ खूबसूरत बल्कि विचारोत्तेजक हैं।

यह भी सुखद है कि हिन्दी साहित्य की कई महत्वपूर्ण कृतियों के आवरण देवप्रकाश चौधरी द्वारा ही बनाए हुए हैं। इनमें धूमिल के ‘संसद से सड़क तक’ के कई संस्करण, राही मासूम रजा का ‘कयामत’,  गिरिराज किशोर का ‘लोग’ के अतिरिक्त तुलसीराम का ‘मणिकर्णिका’, रामधारी सिंह दिवाकर का ‘दाखिल खारिज’,  मोहनलाल भास्कर का ‘मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था’, अरुण कुमार पासवान का ‘दी बर्निंग लाइफ’ सहित कई कृतियां शामिल हैं। जिन्होंने भी इन पुस्तकों को पढ़ा होगा उनकी स्मृतियों में वे पुस्तकें अपने प्रभावपूर्ण आवरण के साथ ही दर्ज होंगी।

जो देवप्रकाश चौधरी के आवरण नियमित तौर पर देखते रहे हैं वे उन्हें उनकी कई खूबियों से पहचान सकते हैं। रंगों के बरतने का उनका एक खास सलीका है। इसी प्रकार अक्सर वे कौओं को भी शामिल करते रहे हैं। कौए भारतीय समाज में कई तरह के प्रतीक लेकर आते हैं। कौओं को काफी चतुर माना गया है। वे किसी के आगमन का संदेश तो देते ही हैं, उनका लगातार कम होते जाना भी हमारे पर्यावरण के संकट से जुड़ा है। आवरण के मामले वह हमेशा एक ही बात कहते हैं- " किसी पुस्तक का आवरण अगर खिलेगा तो देखा जाएगा, पलटा जाएगा फिर पढ़ा जाएगा। " देव प्रकाश चौधरी के बनाए आवरणों का संसार लगातार समृद्ध होता जा रहा है और हमारे बीच उद्घाटित भी। उनके बनाए बुक कवर को http://indianbookcover.blogspot.in/ पर देखा जा सकता है।

आलोक पराड़कर
संप्रति-सम्पादक-कलास्रोत
संपर्क-3/51, विश्वास खंड, गोमतीनगर, लखनऊ - 226016 (उत्तर प्रदेश)


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मनोज कचंगल की कला : कुमार अनुपम

विदग्ध रंगमय आकाश में एक सलेटी चन्द्रमा


मनोज कचंगल की कला में उपस्थित जिस तत्त्व ने मुझे शुरू से आकर्षित किया, वह है - विनम्र सादगी। मनोज के चित्रों में रंगों की आत्मीय आभा भावक की दृष्टि को अपने 'सहज' सौन्दर्य से आकर्षित करती रही है। यह 'सहज' उतना सरल नहीं है। यह कबीर का 'सहज' है, जो निर्भय है और जटिल भी। मनोज कचंगल के चित्रों को प्राथमिक रूप से सुन्दर कहने का मन इसलिए ही नहीं होता कि यहाँ निर्दोष रंगों का व्यवहार है, बल्कि इसलिए कि इनका भाष्य मनुष्य के समकाल के अनेक अन्तर्द्वन्दों और विद्रोह की ऊर्जा से समृद्ध है। मनोज कचंगल तटस्थ और उदासीन रचनाकार नहीं हैं, यह उनके चित्रों के साथ तनिक देर बिताने वाला कोई भी दर्शक महसूस कर सकता है।

       किसी भी रचनाकार का जीवन-दर्शन उसकी रचना में उपस्थित होता है। मनोज कचंगल के चित्रों में भी उसे पहचाना और प्राप्त किया जा सकता है। अपने समय और सरोकारों के द्वन्द्वों और संघर्षों को कोई रचनाकार किस सलीके से व्यक्त करता है कि रचना की त्वचा पर कोई खरोंच तक न दिखे, यही कला-कौशल है। मनोज इसमें निपुण हैं। मनोज की कृतियों में एक भीषण पीड़ा और मनुष्यता की पुकार अनुराग की तरह व्यक्त होती रही है। ऐन्द्रिक आकर्षण और मानवीय मूल्यों का सन्तुलन मनोज कचंगल की कृतियों में प्रकृति के बहुवर्णी व्यवहार में घटित होता है। इसीलिए मनोज के भीतर का मनुष्य मूलतः नैसर्गिक परिवर्तन को महत्त्व प्रदान करता है। इस कथन का यह आशय कतई नहीं है कि रचनाकार इस आवश्यक परिवर्तन को अपनी निजी जैविक ज़िम्मेदारी नहीं मानता। मनोज कचंगल की कृतियों में हिंसा, उन्माद, अराजकता का स्पष्ट बहिष्कार मानवीय नैतिकता की पक्षधरता का प्रमाण है। रचनात्मकता की शक्ति में यह भरोसा ही है कि मनोज कचंगल सभी प्रश्नों, चिन्ताओं और समस्याओं का हल रचना के भीतर ही प्राप्त करना चाहते हैं।

       मनोज कचंगल सौन्दर्यवादी चित्रकार नहीं हैं, जैसा कुछ समीक्षक मानते रहे हैं। अतः दोबारा अर्ज़ कर रहा हूँ कि ऐसा मानना एक सतर्क और समर्थ रचनाकार की प्रतिभा और उसके प्रसार के साथ छल ही है।

       वैश्विक देशकाल और उसके भीतर तथा साथ ही भारतीय देशकाल में व्याप्त षड्यंत्रकारी शक्तियों की निरंकुश अराजकता किसी से भी छुपी नहीं है। मनुष्य की उदार सह्जातीयता, स्मृति, संवेदनशीलता तथा स्वप्नों के नष्टप्राय होते जाने का संकट इसी अराजकता का परिणाम है। यह स्थिति असहनीय होती गई है। मनोज के इन चित्रों में अपने पूर्व प्रदर्शित चित्रों की तुलना में अधिक स्पष्ट आक्रोश देखकर ख़ुशी हुई है। लाल और काले रंगों का ही व्यवहार नहीं बदला है बल्कि अन्य रंग भी अपनी नई भूमिका में आक्रामक रूप से उपस्थित हैं। ब्रश के अनियमित 'स्ट्रोक्स' में उस 'सतर्क लापरवाही' को आसानी से पहचाना जा सकता है, जो बाधाएँ पार करते समय दूर-दूर स्थित आधारों पर पाँव जमाने की कोशिश में होता है। आज के मनुष्य की स्थितियाँ क्या इस दशा से भिन्न हैं ?

       मनोज कचंगल के इन चित्रों में भारतीयता की छाप है। यहाँ छाया और प्रकाश का विवर्त गूढ़ रहस्यों की ओर हमें बरबस ही आमंत्रित करता है, यह रहस्य अलौकिक नहीं हैं, इनका सम्बन्ध हमारे जीवन के पर्यावरण से जुड़ा है। यह 'विस्थापन' का दंश है, जो प्रतिदिन हमारी एक-एक मामूली ख्वाहिश की जगह हमें अनचाहे ही मिलता है : "हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले" (ग़ालिब)। यह विस्थापन भौगोलिक विस्थापन भर नहीं है, आत्म-विस्थापन भी है। इस विचलन और व्याकुलता को मनोज कचंगल के चित्रों में पहचाना जा सकता है। यह सही राह खोजने का भटकाव है। इसीलिए मनोज को अपनी जड़ों, अपनी परम्परा, इतिहास और अनुभवजन्य अतीत में शरण मिलती है। और विदग्ध रंगमय आसमान में एक सलेटी चन्द्रमा आश्वस्ति की तरह झलकता है।

       कोई भी रचनाकार किसी समस्या का हल नहीं देता, (दे भी नहीं सकता है) बस वो यह करता है कि समस्या को बहुविधि बरत कर घिस देता है. कुछ सहनीय बना देता है. यह एक चर्चित उक्ति मुझे सटीक लगती रही है. मनोज कचंगल विरह की बेचैनी और दूरियों का सघन अंतराल भी रचते है तो यह भी अनुराग का ही एक समर्पण है. मनोज की कला में रंगों का शुद्ध प्रयोग एक प्रकाश की सृष्टि करता है जो हमारे अन्तरंग को उज्ज्वल आभा और मासूमियत से भर देता है. यह मासूमियत आज के चतुर, चपल समय में एक विलुप्त होता संस्कार है. प्रतियोगिताओं का मायाजाल हमें अपनों का ही प्रतिद्वन्द्वी बना देने पर आमादा है. मनोज कचंगल की कृतियों में इस तथाकथित आधुनिक व्यव्हार का बहिष्कार दर्ज है.
       

       एक कोई शोकगीत उनकी रचनात्मक चेष्टाओं में गहरे बजता रहता है, जिसकी धुन मधुर तो है किन्तु उसकी भाषा करुणा का महाख्यान समेटे है. मनोज के एक-एक तूलिकाघात में उनका पूरा आत्मविश्वास दीखता है, इसीलिए उनके चित्रों में एक 'सावधान बेचैनी' है. वे अपने आस पास से ही अपनी रचनाओं का विषय चुनते हैं. जिसका कारक मौसम हो सकता है, कोई विशेष स्थिति-परिस्थिति हो सकती है अथवा मन की ही कोई विशेष भाव-दशा. यह कहना अधिक ठीक होगा कि मनोज अनुभूति की संवेदना को चित्रित करते हैं न कि स्थितियों के तात्कालिक दृश्य को. भावक इन चित्रों को देखते हुए अपने जीवन-जगत से चित्रकार द्वारा सम्पादित कर दिए गए दृश्यों को प्राप्त कर सकता है.

       मनोज कचंगल की कला जगत में उपस्थिति निश्चित रूप से एक प्रतिबद्ध युवा चित्रकार की बनी है. उन्होंने अपनी कला-भाषा और 'स्टाइल' प्राप्त कर ली है. यह देखना सुखद है कि उनके भीतर एक रचनात्मक साहसिकता अब भी सुरक्षित है. अपनी बहुप्रशंसित 'स्टाइल' के दायरे में बँध नहीं गए हैं, इसीलिए मनोज कचंगल नए प्रयोग करते हुए दीखते हैं. मनोज कचंगल के चित्रों की प्रदर्शनी "फ़िउरी ऑफ़ कलर्स " इस अर्थ में प्रशंसनीय है कि यहाँ मनोज की चित्र-भाषा और अनुभूति का दायरा विस्तृत हुआ है. वे उन स्थितियों से साक्षात् कर रहे हैं जो पहले या तो उनकी कला में अनुपस्थित थे या थे तो अल्प थे. प्रदर्शित चित्रों में मनोज का कथन अधिक भाव-प्रवण हुआ है. ऐसा बहुजन जीवन से उनके आत्मिक जुड़ाव और समानानुभूति के कारण संभव हुआ है. तभी उनके इन चित्रों में 'विस्थापन' की पीड़ा है तो साथ ही हिंसक समय में प्रतिवाद की तरह 'प्रेम' और 'प्रकृति'.

       मनोज की कला में प्रकृति-प्रेम पहले भी महत्त्व पाता रहा है किन्तु इन चित्रों में अभिव्यक्ति की भाषा बदली हुई है. हर भाषा के सहारे मनोज कचंगल का चित्रकार प्रकृति की बहुवर्णीयता को प्रदर्शित कर सभी के मन में प्रकृति के प्रति अनुराग उत्पन्न करने की मंगल कामना लिए है. प्रकृति, जो सृष्टि की जननी ही नहीं नियामक भी है. प्रकृति पर बढ़ते हुए ख़तरे और प्राकृतिक संसाधनों की जबरन लूट के बरक्स चित्रकार की इस मंशा को रेखांकित किया जाना आवश्यक है.

       हर चित्रकार एक कवि का ह्रदय रखता है और हर कवि में एक चित्रकार की आत्मा निवास करती है, ऐसा कहा जाता है.शब्द-भाषा निश्चित तौर पर चित्र-भाषा से मुखर होती है. इसका एक कारण यह भी है कि शब्द-भाषा को पढ़ने की विधियाँ ईजाद कर ली गई हैं, जबकि चित्र-भाषा के लिए ऐसी कोई तार्किक सुविधा उपलब्ध नहीं है. मनोज को अपनी चित्र-भाषा की वाग्मिता पर विश्वास है, और उसके प्रभावी अनुनाद पर भी. फिर भी, मनोज कचंगल ने कुछ मार्मिक कविताएँ लिखी हैं जिन्हें पहली बार उनके चित्रों के साथ कैटलाग में प्रकाशित किया गया है. पहली बार दर्शकों को मनोज कचंगल के इस गुण के बारे में जान कर अच्छा लगेगा। उन्हें यह भी पता है कि "ख़ामोशी भी भाषा है", इसीलिए मनोज कचंगल की कविताओं को उनके चित्रकार का पूरक नहीं, बल्कि उनके रचनात्मक व्यक्तित्व में अभिवृद्धि ही कहा जाना उचित होगा।

कुमार अनुपम 

मनोज कचंगल की कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ें !