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अगर खिलेगा तो देखा जाएगा — आलोक पराड़कर @AlokParadkar


कला परख 

आलोक पराड़कर


कला की भी एक सत्ता हो, शब्दों की भी एक दुनिया हो

 — देव प्रकाश चौधरी


देश विदेश के महत्वपूर्ण प्रकाशकों के लिए काम करते हुए देव प्रकाश चौधरी  हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि कवि या लेखक के शब्दों को उनकी कला समानांतर रूप से सजाए। कला की भी एक सत्ता हो, शब्दों की भी एक दुनिया हो। दोनों साथ आएं तो आंखों से आत्मा तक एक झंकार-सा बजे। ऐसा लगे मानो कहीं कुछ घट रहा हो, कुछ खिल रहा हो।



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पुस्तकों के चयन में आखिर वे कौन सी बातें होती हैं जो पहले-पहल हमें आकर्षित करती हैं?  निश्चय ही लेखक, विधा, विषय जैसे कारण हमारे लिए महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन इन सबके बीच जो बात आरम्भ में ही हमें प्रभावित करती है, वह पुस्तकों का आवरण भी होता है। आवरण ही हैं जो सबसे पहले हमसे संवाद स्थापित करते हैं, हमारी भटकती निगाहों को ठहरने को कहते हैं। आवरण पुस्तकों के कलेवर की पहचान हैं, उस चेहरे की तरह हैं जो दिल का हाल देते हैं। और जब कभी ऐसा नहीं होता है तो यह या तो पुस्तकों के साथ अन्याय होता है या फिर पाठकों के साथ।

यह विडम्बना है कि प्रकाशन व्यवसाय की तमाम प्रगति और वर्ष में बड़ी संख्या में पुस्तकों के छपने-बेचने के सिलसिले के बावजूद आवरण डिजायन को किसी कला की तरह देखे जाने का चलन अभी हमारे यहां विकसित नहीं हो सका है। किसी कलाकार की किन्हीं कलाकृति को अक्सर किसी पुस्तक के आवरण को कलात्मक रूप देने के लिए प्रयोग में ले लिया जाता है। कई बार ऐसा छायाचित्रों के माध्यम से भी होता है । वैसे, इधर कम्प्यूटर ग्राफिक्स का प्रयोग भी बढ़ा है। लेकिन इन सबके बीच कुछ सवाल अनुत्तरित ही हैं। क्या ऐसे आवरण  कला से साहित्य का सेतु भी रचते हैं और  स्वतंत्र कलाकृति के तौर पर वे अपनी श्रेष्ठता चाहे जैसे स्थापित कर रहे हों लेकिन पुस्तक से उनका रिश्ता किस हद तक स्थापित हो पा रहा है? निश्चय ही श्रेष्ठ आवरण के निकष में ये बातें शामिल होनी चाहिए।
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देव प्रकाश चौधरी के बनाए आवरण इन प्रश्नों से टकराते हैं तो इसके अपने कई कारण भी है। चित्रकार होने के साथ ही वे लेखक-संपादक हैं। कला तथा लेखन दोनों ही अनुशासनों को भली प्रकार समझते हुए वह इनके बीच रिश्ता कायम करने का हुनर भी जानते हैं। वह मानते हैं कि आवरण को अपने आप में एक स्वतंत्र कला के तौर पर लिया जाना चाहिए। वह बखूबी जानते हैं कि आवरण बनाने का अर्थ किसी कलाकार द्वारा एक स्वतंत्र कलाकृति रच देने से अलग है। आवरण का तादात्म अपने ऊपर उभरे उस शीर्षक से वैसा ही गहरा है जैसा उस शीर्षक का  पुस्तक से, और इस प्रकार  आवरण का रिश्ता पुस्तक से है। देव प्रकाश कहते हैं-" आवरण किसी लेखक या कवि की सोच के समानांतर चलते हुए शब्दों को सजाने का काम करते हैं। लेकिन हिंदी में अक्सर यह होता है कि लेखक आवरण पर उन सारी चीजों को देखना चाहते हैं जो उनकी किताब के अंदर होता है। ऐसे में अच्छा आवरण बनना कठिन हो जाता है। कई बार तो लेखक ही तय करते हैं कि उनके किताब के आवरण पर क्या-क्या होगा, कोई कलाकार नहीं। जबकि किसी किताब का कवर तैयार करना अपने आप में एक स्वतंत्र विधा है।"

इसकी कई वजहें हैं। अंग्रेजी की बात छोड़ दें तो अन्य भारतीय भाषाओं में किताबों को कवर पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता। अंग्रेजी के प्रकाशक इस कला को गंभीरता से लेते हैं। वैसे तो देव प्रकाश चौधरी मूलतः चित्रकार रहे हैं हैं, लेकिन पिछले दो दशकों से वह किताबों के आवरण पर काम कर रहे हैं। देश विदेश के महत्वपूर्ण प्रकाशकों के लिए काम करते हुए वह हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि कवि या लेखक के शब्दों को उनकी कला समांनांतर रूप से सजाए। कला की भी एक सत्ता हो, शब्दों की भी एक दुनिया हो। दोनों साथ आएं तो आंखों से आत्मा तक एक झंकार सा बजे। ऐसा लगे मानो कहीं कुछ घट रहा हो। हाल के दिनों में इन्होंने महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘बहुवचन‘ को देखते-पढ़ते आए हैं वे उनकी इस प्रतिभा से ‌निश्चय ही परिचित होंगे। इसके तो कई सारे अंक उनके द्वारा बनाए आवरणों से सजे पडे हैं। चाहे वह आलोचना का विशेष अंक हो जहां वे पुस्तकों के बीच कागज पर लिखी पंक्तियों को काटते हुए प्रतीकात्मक ढंग से पत्रिका के विषय को उठाते हैं, या फ‌िर  मीडिया विशेषांक जिसके आवरण को कैमरों और दूसरे प्रतीकों के माध्यम से बनाते हैं। इन विशेषांकों से अलग सामान्य अंकों के उनके बनाए आवरण भी न सिर्फ खूबसूरत बल्कि विचारोत्तेजक हैं।

यह भी सुखद है कि हिन्दी साहित्य की कई महत्वपूर्ण कृतियों के आवरण देवप्रकाश चौधरी द्वारा ही बनाए हुए हैं। इनमें धूमिल के ‘संसद से सड़क तक’ के कई संस्करण, राही मासूम रजा का ‘कयामत’,  गिरिराज किशोर का ‘लोग’ के अतिरिक्त तुलसीराम का ‘मणिकर्णिका’, रामधारी सिंह दिवाकर का ‘दाखिल खारिज’,  मोहनलाल भास्कर का ‘मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था’, अरुण कुमार पासवान का ‘दी बर्निंग लाइफ’ सहित कई कृतियां शामिल हैं। जिन्होंने भी इन पुस्तकों को पढ़ा होगा उनकी स्मृतियों में वे पुस्तकें अपने प्रभावपूर्ण आवरण के साथ ही दर्ज होंगी।

जो देवप्रकाश चौधरी के आवरण नियमित तौर पर देखते रहे हैं वे उन्हें उनकी कई खूबियों से पहचान सकते हैं। रंगों के बरतने का उनका एक खास सलीका है। इसी प्रकार अक्सर वे कौओं को भी शामिल करते रहे हैं। कौए भारतीय समाज में कई तरह के प्रतीक लेकर आते हैं। कौओं को काफी चतुर माना गया है। वे किसी के आगमन का संदेश तो देते ही हैं, उनका लगातार कम होते जाना भी हमारे पर्यावरण के संकट से जुड़ा है। आवरण के मामले वह हमेशा एक ही बात कहते हैं- " किसी पुस्तक का आवरण अगर खिलेगा तो देखा जाएगा, पलटा जाएगा फिर पढ़ा जाएगा। " देव प्रकाश चौधरी के बनाए आवरणों का संसार लगातार समृद्ध होता जा रहा है और हमारे बीच उद्घाटित भी। उनके बनाए बुक कवर को http://indianbookcover.blogspot.in/ पर देखा जा सकता है।

आलोक पराड़कर
संप्रति-सम्पादक-कलास्रोत
संपर्क-3/51, विश्वास खंड, गोमतीनगर, लखनऊ - 226016 (उत्तर प्रदेश)


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