राजेन्द्र यादव जी के कमाल को समझना तकरीबन नामुमकिन है लेकिन प्रिय लेखक प्रियदर्शन का यह लेख यादवजी के कमाल को बहुत पास से दिखला गया। ~ सं0
PriyaDarshan on Rajendra Yadav Charisma |
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
~ प्रियदर्शन
मुलाकात
यह 1993 का साल रहा होगा जब राजेंद्र यादव से मैं पहली बार मिला। मुझे मेरे एक मित्र ने अक्षर प्रकाशन बुलाया था। ख़ुद उन्हें वहां पहुंचने में देर हो गई। मुझे मालूम था कि अक्षर प्रकाशन राजेंद्र यादव का है, लेकिन ये एहसास नहीं था कि मुझे वे वहां मिल जाएंगे। मैं बिल्कुल रोमांचित था। जिस लेखक को बचपन से पढ़ता रहा था, वह मेरे सामने बैठा है। 'सारा आकाश', 'अनदेखे अनजाने पुल', 'उखड़े हुए लोग' जैसे उपन्यास, उनकी कहानियां, उनके अनुवाद और उन दिनों लिखे गए उनके विचारोत्तेजक संपादकीय, सब जैसे ज़ेहन में नाच रहे थे। इतने बड़े लेखक से रूबरू होने का यह मेरा पहला अनुभव था।
क़रीब घंटे भर से ऊपर चली वह मुलाकात ख़त्म हुई तो दो बातें मेरी समझ में आईं। राजेंद्र यादव वक्ता ही नहीं, श्रोता भी बहुत अच्छे हैं। भले ही वे उन दिनों कहानियां न लिख रहे हों, लेकिन उनके भीतर का कहानीकार जैसे सामने वाले को कुरेदता रहता था। वे ध्यान से मुझे सुनते रहे। मैं भी अपना उन दिनों तक का पढ़ा-लिखा सारा ज्ञान जैसे उडेल देने पर आमादा था। अब कभी-कभी सोचता हूं— ख़ुद को कुछ साबित करने की वह बेताबी राजेंद्र यादव को कैसी लगी होगी? बहरहाल, उस दिन की चर्चा में उन्होंने मुझे एक उपन्यास दिया— विकास झा का 'मैक्लुस्कीगंज' कि मैं इसकी समीक्षा लिख दूं। मुझे याद है कि मैंने उस उपन्यास की बहुत तीखी आलोचना लिखी— अब समझ में आता है कि वह शायद कुछ असंतुलित भी हो गई थी, उन्होंने उसे छापा नहीं। मैं कुछ निराश हुआ। मैंने तय किया कि 'हंस' में आगे से नहीं लिखूंगा। लेकिन 'हंस' का आकर्षण दुर्निवार था। राजेंद्र यादव इधर-उधर कार्यक्रमों में मिलते रहे, मुझे दफ़्तर आने का न्योता देते रहे और उनसे लगातार संवाद बना रहा। इसके बाद उन्होंने फिर एक उपन्यास दिया— मराठी लेखक आनंद यादव का 'नटरंग।' इस बार मैंने यह उपन्यास पढ़ते हुए राजेंद्र यादव के पसंदीदा उपन्यास सुरेंद्र वर्मा के 'मुझे चांद चाहिए' से इसकी तुलना की और इसे बेहतर करार दिया।
राजेंद्र यादव के हाथ में समीक्षा सौंपते हुए जब मैंने इस बात की चर्चा उनसे की तो वे फिर कुछ निराश लगे— कहा कि दोनों दो अलग तरह के उपन्यास हैं, उनकी तुलना ठीक नहीं है। मैं फिर कुछ मायूस हुआ, लेकिन मैंने कहा कि वे इसे पढ़ लें। दो दिन बाद मैंने उनको फोन किया। उनकी आवाज़ बदली हुई थी— 'यार तुमने तो कमाल का लिखा है, पूरा छाप रहा हूं, तुम लगातार कुछ लिखा करो।'
सत्यानाश
इसके बाद लगातार लिखने का तो नहीं, लेकिन उनसे लगातार बातचीत करने का सिलसिला ऐसा बना जो उनसे फिर लगातार बना रहा। यहां इस बात का मुझे पूरा-पूरा एहसास है कि राजेंद्र यादव की मंडली बहुत बड़ी थी और बहुत सारे लोग ऐसे थे जो उनसे लगभग हर रोज़ मिला करते थे, लेकिन मुझसे उन्होंने एक अलग-सा रिश्ता बनाया था। हो सकता है कि यह एहसास भी बहुत सारे लोगों को हो कि उनसे राजेंद्र यादव का बिल्कुल अलग-सा रिश्ता रहा और इसे भी उनकी शख़्सियत की ख़ासियत की तरह देखा जाना चाहिए। बहरहाल, जब पहली बार एक शाम उन्होंने मुझे अपने घर भोजन का न्योता दिया तो खाने के पहले पीने की मेज़ सजी। जब मैंने उन्हें बताया कि इस मामले में मैं कच्चा-बच्चा जैसा कुछ हूं और नहीं पीता तो उन्होंने कहा— सत्यानाश। लेकिन इसके बाद उन्होंने मुझ पर पीने का दबाव नहीं डाला। मेरे लिए डाइट कोक मंगवाई और फिर हम घंटों बैठे रहे। इसके बाद भी उनके घर से मुझे न्योता आता रहा— लेकिन अक्सर नाश्ते का। हम पराठे-सब्ज़ी और तरह-तरह के अचारों और चाय के साथ दुनिया भर के साहित्य की सात्विक चर्चा किया करते।
हिंदी के किसी दूसरे लेखक के घर हम इतनी बार नहीं आए-गए जितना राजेंद्र यादव के घर। कुछ क़रीबी मित्रों के अलावा जो दूसरा ऐसा घर रहा जहां हम बात-बेबात बेहिचक जाते रहे, वह वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर का रहा। उनसे भी बिल्कुल आश्वस्तिकर पारिवारिक रिश्ते रहे। लेकिन इन दोनों को छोड़ किसी भी तीसरे लेखक के घर इस हद तक जाना नहीं हुआ।
वे बड़ी बारीकी से दूसरों से वह कहलवा लेते जो वे ख़ुद कहना चाहते थे
ज़ाहिर है, इस अपनेपन में राजेंद्र यादव की उस बहुख्यात लोकतांत्रिकता का बहुत बड़ा हाथ रहा जिसका ज़िक्र अक्सर सब लोग करते हैं। यह सच है कि वे बड़ी सहजता से हर किसी से बिल्कुल मित्रवत बात करते थे— कुछ इस तरह कि हर किसी के भीतर उनका क़रीबी होने का भाव पैदा हो जाता था। लेकिन ऐसा नहीं कि राजेंद्र यादव सिर्फ दिखावे के लिए ऐसा करते थे। वे वाकई इस मैत्री को बहुत ख़ास ढंग से निभाते भी थे। उनकी इस मित्र सूची में वैसे बहुत सारे युवा लेखक और पत्रकार थे जिनमें राजेंद्र यादव को कोई बौद्धिक संभावना दिखाई पड़ती थी। ऐसे लेखकों के लिए ‘हंस’ के पन्ने हमेशा सुलभ थे। लेकिन राजेंद्रजी के अपने वैचारिक खेल तब भी चलते रहते। कई बार वे बड़ी बारीकी से दूसरों से वह कहलवा लेते जो वे ख़ुद कहना चाहते थे। जब मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास 'चाक' छप कर आया तो उन्होंने मुझे उसे पढ़ने को कहा। उसके बाद अगले कई दिन तक वे मुझसे इस उपन्यास पर बात करते रहे— बताते रहे कि कैसे वह हिंदी में पहले लिखे गए उपन्यासों से अलग और आगे का है। इसके बाद उन्होंने मुझसे इसकी समीक्षा लिखवाई। इस क्रम में दो और किताबें— मैत्रेयीजी का ही 'इदन्नमम' और प्रभा खेतान की 'पीली आंधी' भी इसमें शामिल हो गई। 'चाक' पर तब तक छपी शायद वह पहली समीक्षा थी। मैंने उस उपन्यास की भूरि-भूरि तारीफ़ की। आज भी वह उपन्यास मुझे प्रिय है।
वे शायद ऐसा ही चाहते थे
लेकिन मैंने अपने उत्साह में पुरानी लेखिकाओं पर बहुत आक्रामक टिप्पणी की— कृष्णा सोबती और मृदुला गर्ग तक के बारे में लगभग अशिष्ट ढंग से लिखा। अब मुझे लगता है कि इससे बचना चाहिए था— सिर्फ शराफ़त या शिष्टता के तकाज़े से नहीं, बल्कि इस वजह से भी कि इन लेखिकाओं की रचनाओं के संदर्भ ऐसी सख़्त टिप्पणी उनके साथ न्याय नहीं थी। संभव है, कोई दूसरा संपादक होता तो वह इसे संपादित करता या कम से कम मुझे सुझाव देता कि इसे चाहूं तो बदल दूं। लेकिन राजेंद्र यादव ने ऐसा कुछ नहीं किया। वह समीक्षा जस की तस छपी। जाहिर है, वे शायद ऐसा ही चाहते थे।
बौद्धिक चौकन्नापन था, जो उदात्त नफ़ासत
बहरहाल, राजेंद्र यादव की बहुचर्चित लोकतांत्रिकता भर का मामला होता तो शायद उनके व्यक्तित्व में वह चुंबक नहीं होता जिसकी वजह से लोग उनकी ओर खिंचते चले जाते थे। हमारे बीच ऐसे बहुत सारे लोग होते हैं जो बिल्कुल दिल खोल कर मिलते हैं और यारबाश कहे जा सकते हैं। लेकिन राजेंद्र यादव की शख़्सियत में जो बौद्धिक चौकन्नापन था, जो उदात्त नफ़ासत थी— वह बाक़ी जगह दुर्लभ थी। वे अपनी उपस्थिति का कोई दबाव बनाए बिना अपना आभामंडल बनाए रखते थे। शायद यही वजह थी कि जिस भी महफ़िल में वे होते, महफ़िल के सिरमौर होते। वे पुरानी किताबों की चर्चा करते, नई घटनाओं पर बहस करते, जो लिखा या पढ़ा जा रहा है, उस पर उनकी बारीक नज़र होती, और अक्सर वे अपने काम की चीज़ निकाल लेते।
इसका एक उदाहरण भी याद आ रहा है। 1998 के आसपास मेरी पत्नी स्मिता ने एक कहानी लिखी— 'त्रिज्या'। कहानी मुझे सपाट लगी— शिल्पविहीन और कुछ बोल्ड। उसने राजेंद्र यादव को कहानी दी। यादव जी ने मुझसे पूछा कि कहानी कैसी है। मैंने अपनी राय बेलाग बता दी। यादव जी कहानी लौटाने लगे। स्मिता ने आग्रह किया— छोटी सी कहानी है, आप पढ़ तो लीजिए। शायद उसका मन रखने के लिए राजेंद्र यादव ने वह कहानी रख ली।
लेकिन अगली सुबह बिल्कुल सात-आठ बजे उनका फोन आया— मुझे अपने प्रिय संबोधन, राक्षस, दानव या कुंभकर्ण जैसे कुछ से नवाजते हुए उन्होंने घोषित किया कि स्मिता की कहानी बहुत ही अच्छी है। अगले अंक में वह कहानी छपी और उस पर जितनी चिट्ठियां आईं, शायद उतनी मेरी अब तक की सारी कहानियों पर नहीं आईं। मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका और दूर्वा सहाय जैसी लेखिकाएं उस कहानी को अब भी याद करती हैं।
अम्मी हुजूर
यह लिखते-लिखते एक और बात याद आ रही है जिससे उनकी रचनात्मक समझ का कुछ अंदाज़ा मिलता है। साल 1995 में मैं सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ का अनुवाद कर रहा था। यह बहुत जटिल उपन्यास था जिसमें कई जगहों पर उपयुक्त अनुवाद की चुनौती कलम रोक लेती थी। मैंने तय किया कि कुछ शब्दों पर दूसरों से राय लूंगा। ऐसा ही एक शब्द आया, ‘रेवरेंड मदर’। उपन्यास में यह अमीना नाम की एक महिला के लिए इस्तेमाल किया गया था जो अपनी उम्र के उत्तरार्ध में कुछ दबंग भी है, ख़ासी मोटी भी और कुछ कर्कश भी। उसे बाकी लोग ‘रेवरेंड मदर’ के नाम से पुकारते हैं। मैं तय़ नहीं कर पा रहा था कि इसका अनुवाद क्या करूं। पवित्र मां या पाक अम्मी जैसा अनुवाद बहुत अटपटा लग रहा था। हिंदी के एक विख्यात कवि-आलोचक और संपादक रहे लेखक ने सुझाव दिया कि इसको मुक़द्दस अम्मी कर दूं। लेकिन यह अनुवाद भी जंच नहीं रहा था। मैंने राजेंद्र यादव से बात की। उन्होंने चुटकी बजाने का भी समय नहीं लिया और कहा कि इसको ‘अम्मी हुजूर’ कर दो। मैं हैरान था, ऐसा उपयुक्त और लगभग शाब्दिक अनुवाद हममें से किसी और को क्यों नहीं सूझा?
वे हंस रहे थे
आम तौर पर जिसे हम लोकतांत्रिकता कहते हैं, उसमें भी कई बार आलोचनाओं के लिए जगह नहीं होती। उदार से उदार लोग अपनी हल्की आलोचना को दिल पर ले बैठते हैं। लेकिन कम से कम मेरा अनुभव राजेंद्र यादव के मामले में भिन्न रहा। उनकी दो किताबों 'हासिल और अन्य कहानियां' तथा 'अब वे वहां नहीं रहते' की मैंने सहारा समय में बहुत तीखी आलोचना लिखी। अपने हिसाब से दोनों संग्रहों की धज्जियां उड़ा दीं। मुझे डर था कि राजेंद्र यादव नाराज़ होंगे। लेकिन वे हंस रहे थे। उन्होंने यह भी माना कि उनकी आलोचना में जो कुछ लिखा गया है, वह सही है।
शख्सियत
उनकी शख्सियत में कुछ था जो पकड़ में नहीं आता था, जो उनको दूसरों से अलग करता था। शायद मानव मन की सूक्ष्मताओं और जटिलताओं को वे कहीं बहुत गहराई से महसूस करते और पकड़ पाते थे। उनके पास बहुत ही समृद्ध भाषा थी जो बहुत जटिल और संश्लिष्ट स्थितियों को बड़ी आसानी से लिख सकती थी। वे मूलतः मध्यवर्गीय संस्कारों में पले-बढ़े और उनके साहित्य लेखन पर इन संस्कारों की बहुत गहरी छाप है। उनकी बहुत सारी अविस्मरणीय रचनाएं इन्हीं संस्कारों के साये में निकली हैं और हममें से बहुत सारे लोगों को अच्छी लगती हैं। इन कथाओं में जो विद्रोह है, वह भी मध्यवर्गीय चरित्र का है, और इसलिए लुभाता है। कई बार यह लगता है कि अपने मध्यवर्गीय जीवन से विद्रोह का रास्ता राजेंद्र यादव इसी मध्यवर्गीय साहित्य में खोजते हैं।
पाखंड से परदा हटाना
लेकिन धीरे-धीरे राजेंद्र यादव बदलते हैं। ख़ास कर स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर मध्यवर्गीय जीवन के पाखंड उनके भीतर असंतोष पैदा करते हैं। कहीं यह एहसास भी है कि इसी पाखंड की वजह से वे वह मनचाहा जीवन नहीं चुन पाए जो उनके लिए स्वाभाविक था। धीरे-धीरे वे इस पाखंड से परदा हटाते हैं। एकाध साक्षात्कारों में वे अपने निजी भटकावों का ज़िक्र करते हैं और उनसे उत्साहित हिंदी का पाखंडी मध्यवर्ग इसे अपने चरित्र पर टिप्पणी की तरह देखने की जगह राजेंद्र यादव के निजी भंडाफोड़ की तरह देखने लगता है। यह उन पर छींटाकशी की शुरुआत का दौर था। इस दौर में राजेंद्र यादव से मैं कई बार मिला। वे कुछ विचलित देखते थे, लेकिन अपने संशयों को जैसे एक ठहाके से बुहार देने की कोशिश करते थे। एक बार मैंने उनसे शिकायत की कि आपने जो मूल मुद्दे उठाए, वे पीछे रह गए, निजी विवाद और खुन्नस हावी हो गए। उन्होंने तत्काल कहा कि ये उनकी नहीं, हिंदी समाज की कमज़ोरी या सीमा है। अब तक उनकी संगत में मैं कुछ ढीठ हो चुका था। मैंने कहा कि मुझे लगता है कि उन्हें भी ऐसी निजी चर्चाओं और टिप्पणियों में सुख मिलता है। हमेशा की तरह इस सवाल का जवाब उन्होंने एक गगनभेदी ठहाके से दिया।
वैसे यह बाद की बात है। मध्यवर्गीय लेखक राजेंद्र यादव के रूपांतरण की प्रक्रिया इसके पहले ही शुरू हो चुकी थी। हंस के संपादक के तौर पर हिंदी साहित्य में पैठी मध्यवर्गीयता का अतिक्रमण कर उन्होंने स्त्री और दलित विमर्श की जो जगह बनाई, उसके लिए उनका शुरू में बहुत मज़ाक बनाया गया, कई लेखक उनके विरोध में हंस में न लिखने का एलान कर बैठे, लेकिन अंततः आज हम पाते हैं कि राजेंद्र यादव की दृष्टि ने साहित्य के नए इलाक़ों से जो नई पौध खड़ी की, उसकी उपेक्षा अब संभव नहीं है।
दरअसल यह एक बड़ी विडंबना रही कि राजेंद्र यादव जीवन और साहित्य के बीच का फासला पाटने की कोशिश करते रहे और बीच में कहीं कुचल दिए गए। उनकी मृत्यु से कुछ साल पहले उनके एक सम्मान के मौक़े पर आयोजित एक कार्यक्रम में अब दिवंगत दलित लेखक तुलसी राम ने धूमिल की कुछ पंक्तियां उद्धृत की थीं जिन्हें धूमिल ने राजकमल चौधरी के लिए लिखा था। तुलसी राम ने कहा कि इसे राजेंद्र यादव के संदर्भ में भी पढ़ा जा सकता है —
उसे ज़िंदगी और शायरी के बीच
कम से कम फ़ासला रखते हुए जीना था
यही वजह थी कि एक की निगाह में वो हीरा आदमी था
तो दूसरे की निगाह में कमीना था।
उस दिन भी राजेंद्र यादव यह सुन कर बाकी दर्शक दीर्घा के साथ ठठा कर हंसे थे। अपना तथाकथित खलनायकत्व उन्हें कभी-कभी एक परिपार्श्व जैसा लगता था जिसमें उनके भीतर के हीरे की चमक कुछ और निखर कर आती थी। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर केंद्रित जो एक मोटी-सी किताब साधना अग्रवाल और भारत भारद्वाज ने संपादित की, उसका नाम ही रखा— 'हमारे युग का खलनायक।' बहुत संभव है, यह नाम उन्हें राजेंद्र यादव ने सुझाया हो। वे ख़ुद रूसी कवि और उपन्यासकार लेर्मेंतेव के एक उपन्यास का अनुवाद 'मेरे युग का नायक' के नाम से कर चुके थे।
आत्मीयता
दरअसल यह उनका खुलापन, नए से नए लोगों से मिलने का उत्साह, उसको बिल्कुल अपना बना लेने की आत्मीयता— इन सब ख़ासियतों ने उन्हें बिल्कुल मौजूं बनाए रखा था। उनके पास हमेशा युवा लोगों का एक हुजूम होता। हालांकि राजेंद्र यादव ने यश के अलावा शायद ज़्यादा कुछ संचय नहीं किया। 'हंस' के नाम पर कुछ पुरस्कार भले लिए हों, लेकिन मोटे तौर पर पद और पुरस्कारों के मोह से बचे रहे। कायदे से उनको किसी भी कृति पर साहित्य अकादेमी सम्मान मिल सकता था, मगर नहीं मिला। दिल्ली सरकार के शिखर सम्मानों में भी कोई उनके हिस्से नहीं आया। उनके व्यक्तित्व में निहित एक प्रतिरोधी तत्व-सा था जो सत्ताओं को शायद बहुत रास नहीं आता था।
इन लड़कों को आनंद लेने दो, मेरे लिए बस यह एक नई दुनिया से परिचय भर का मामला है
मगर उन्हें प्रसार भारती का सदस्य बनाया गया। कई युवा लोगों को लगा कि यह तो बहुत बड़ी उपलब्धि है। ऐसी ही एक हल्की-फुल्की चर्चा के दौरान जब सब उनसे दावत मांग रहे थे तब मैंने अलग से उनसे पूछा— क्या वाकई उन्हें यह उपलब्धि उनके लेखन से बड़ी लगती है? उन्होंने इस अप्रत्याशित सवाल पर मेरी ओर चौंक कर देखा। मैंने कहा कि एक लेखक के तौर पर उनकी जो ख्याति और कीर्ति है, वह बनी रहेगी, लोग प्रसार भारती का यह पद भूल जाएंगे। वे हंसने लगे। उन्होंने कहा कि इन लड़कों को आनंद लेने दो, मेरे लिए बस यह एक नई दुनिया से परिचय भर का मामला है— मैं इससे बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा होऊं, ऐसा कुछ नहीं है। आख़िरी वर्षों में वे बीमार भी रहने लगे थे। उनको कई बार अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आई। लेकिन यादव जी जीवट से सबका सामना करते रहे। इस युद्ध में बेशक, उनके बहुत सारे मुरीद उनके साथ रहे। उनको संजीव के नेतृत्व में कुछ उत्सााही मित्रों ने एक लाख रुपये की थैली भेंट करने का निश्चय किया। काम आगे बढ़ा, हालांकि यह बहुत बड़़ी रक़म नहीं थी, मगर इसके लिए पैसा जुटाना पड़ा और अंततः मयूर विहार पेज़-1 के आकाश दर्शन अपार्टमेंट के परिसर में उनके लिए एक छोटा सा आयोजन हुआ।
तो सफ़र यहां तक चला आया है
वे बड़ी मुश्किल से चल कर आए थे। उन्हें देखकर मेरा दिल बैठा जा रहा था। मुझे लगा कि शायद यह उनसे आख़िरी भेंट हो रही है। उन्होंने अपना वक्तव्य शुरू ही इस बात से किया—
'तो सफ़र यहां तक चला आया है।' वह एक आत्मीय दोपहर थी जिसमें नामवर जी भी शामिल थे।
लेकिन राजेंद्र यादव ने फिर अपने शुभचिंतकों को गलत साबित किया। वे न सिर्फ ठीक हुए, बल्कि अपनी सामान्य दिनचर्या तक भी लौटे। शायद इसलिए भी कि बीमारी के तनाव को वो अपने ऊपर हावी होने नहीं देते थे। एक बार जब वे अस्पताल से लौटे तो हम उनसे मिलने गए— हम, यानी मैं, स्मिता और हमारा बेटा प्रखर। उन दिनों उन पर खाने-पीने की बहुत सारी पाबंदियां थीं। बाकी वे मान ले रहे थे, सिगरेट की तलब उन्हें लग रही थी। उन्होंने हमसे शिकायत की कि ये जो किशन है— यानी उनका सहायक— उसने डॉक्टरों के कहने पर उन पर बहुत सारी पाबंदी लगा दी है, सिगरेट तक नहीं पीने देता। उन्होंने प्रखर को पास बुलाया, जेब से पैसे निकाल कर देते हुए धीरे से कहा कि वह सिगरेट का पैकेट ले आए।
हम असमंजस में थे। इस बहुत साफ समझ के बावजूद कि हमें यादव जी की बात नहीं माननी चाहिए, उनको ना करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैंने एकाध बार टालने की कोशिश की। फिर उठ कर गया, ख़ुद जाकर सिगरेट लाकर उन्हें दी। उन्होंने बस दो कश लिए और फिर उसे बुझा दिया। हालांकि किशन इससे भी कुछ आत्मीय ढंग से, उचित ही, बिगड़ता नज़र आया।
बहरहाल, ज़िंदगी अपने ढब पर लौट रही थी और राजेंद्र यादव भी अपने अंदाज में वापस आ रहे थे। उनकी ज़िंदगी फिर ‘हंस’, ‘हंस’ के लिए चुनी जाने वाली कहानियों और वहां बनने वाले किस्सों के बीच चल पड़ी थी।
उनके ख़िलाफ़ मुहिम
मगर जिस खल व्यक्तित्व को राजेंद्र यादव कभी-कभी मज़ाक में ओढ़ लिया करते थे, वह उनके आखिरी वर्षों में उनसे कुछ ज़्यादा ही चिपक गया था। इस दौर में उनके निजी भटकाव उनके वैचारिक आग्रहों पर हावी होते दिखे, पत्र-पत्रिकाओं में उन पर चटखारी चर्चा शुरू हो गई, उनके ख़िलाफ़ जैसे एक मुहिम चल पड़ी। इस मुहिम में बहुत कुछ योगदान उस किताब का था जिसे वे एक नवोदित लेखिका के ज़रिए लिखवा रहे थे और जिसे उनकी बची-खुची कुंठा का परिणाम माना जा रहा था। इन सबके बीच उन्हें एक पुलिस केस भी झेलना पड़ा, अपनों और परायों की लानत-मलामत भी। फिर एक सुबह किसी मित्र के आए फोन ने बताया कि वे अपनी भी और दूसरों की भी कुंठाओं का बोझ उतार कर चल दिए हैं— इस बार वापस न लौटने के लिए।
यह एक महान नायक का त्रासद अंत था। शेक्सपियर की शोकांतिकाओ में जिस ‘फेटल फ्लॉ’— सांघातिक कमज़ोरी— की सैद्धांतिकी का ज़िक्र मिलता है, वह हमारे प्रिय लेखक के व्यक्तित्व में भी दिख रही थी। बहुत बहादुर और महान मैकबेथ, किंग लीयर, हेलमेट या ऑथेलो अपनी एक मानवीय कमज़ोरी की वजह से मारे गए— कोई अति महत्त्वाकांक्षी साबित हुआ, कोई अति संदेहवादी, कोई संशयवादी— और सबको जीवन की एक कमज़ोर घड़ी में नियति ने जक़ड लिया।
लेकिन राजेंद्र यादव की सांघातिक कमज़ोरी क्या थी— क्या लड़कियां, जैसा कि बहुत सारे लोग इशारा करते हैं? यह बहुत ही सतही समझ है। यह सच है कि भारतीय मध्यवर्ग में मर्दमदांधता की जो सड़ांध है, और जिसकी वजह से किसी पुरुष का लड़कियों से स्वाभाविक संबंध तक विकसित नहीं हो पाता और अंततः एक क्रूर पाखंड और नकली आदर्शवाद के सहारे जीवन और संबंधों को ढोते रहने का चलन आम मान लिया जाता है, वहां राजेंद्र यादव एक ऐसी दुनिया की कामना कर रहे थे जहां पारस्परिक बराबरी और सम्मान का संबंध हो। इस क्रम में वे उस पाखंड की धज्जियां भी उड़ा रहे थे जो उनके भीतर भी पैठा हुआ था और दूसरों में भी मौजूद है। लेकिन दूसरों ने सिर्फ उनका तमाशा देखा, अपना अंधेरा नहीं देखा। आख़िरी दिनों में उन पर लगभग संगसारी-सी की गई। वे अब नहीं हैं तो न कोई आईना दिखाने वाला बचा है और न पत्थर फेंकने वाला। क्या इत्तिफाक है कि इसी दौरान हिंदी समाज का कुंठावमन अपने चरम पर जारी है। यह कहना उचित नहीं होगा कि अच्छा हुआ वे चले गए, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि वे इस समय होते तो अपना पक्ष चुनते उनको समय नहीं लगता। दरअसल वे जीवन भर एक लेखक ही रहे— हमेशा अपने किरदार, अपनी स्थितियां, अपनी कहानी और अपना पक्ष चुनते हुए। उनमें कभी संशयग्रस्त हैमलेट दिखता और कभी मोहग्रस्त लीयर, कभी वे मोहन राकेश को बड़ी शिद्दत से याद करते, कभी कमलेश्वर की उदास आलोचना करते। लेकिन अंततः उनकी धूनी अक्षरों की दुनिया में ही रमनी थी। अक्षर भले उनके प्रकाशन का नाम हो, लेकिन उनके प्राण दरअसल अक्षरों में बसते थे। शायद यही बल था जिसकी वजह से वे जीवन में दी हुई सीमाओं का भी अतिक्रमण करते रहे और साहसपूर्वक सबका सामना भी करने की कोशिश की। शायद बार-बार दुहराया गया ग़ालिब का शेर उन पर भी सही उतरता था—
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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2 टिप्पणियाँ
आत्मीय बेलाग गहन अर्थ संभावनाओं से भरी स्मृतियां !
जवाब देंहटाएंराजेंद्र यादव को समझने के लिए इससे ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय संस्मरण और कोई नहीं हो सकता। प्रियदर्शन जी ही इतना अच्छा लिख सकते थे।
जवाब देंहटाएंपंकज चौधरी