अनामिका अनु के गद्य में बहुत रस होता है, इस आलेख में प्रेम की बात हो रही और वह और रसमय हो चला है। आनंद उठाइए ~ सं0
विचार और शब्द की जिज्ञासा, चुंबन पा लेने के आकर्षण से बहुत बड़ी होती है
~ अनामिका अनु
1 जनवरी 1982 को मुज़फ़्फ़रपुर में जन्मी डाॅ.अनामिका अनु को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (2020), राजस्थान पत्रिका वार्षिक सृजनात्मक पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ कवि, प्रथम पुरस्कार, 2021) और रज़ा फेलोशिप (2022) प्राप्त है। इन्हें 2023 का 'महेश अंजुम युवा कविता सम्मान' (केदार न्यास) मिल चुका है।उनके प्रकाशित काव्यसंग्रह का नाम है 'इंजीकरी' (वाणी प्रकाशन,रज़ा फाउंडेशन)है। उन्होंने 'यारेख : प्रेमपत्रों का संकलन' (पेंगुइन रैंडम हाउस,हिन्द पॉकेट बुक्स)का सम्पादन करने के अलावा 'केरल से अनामिका अनु : केरल के कवि और उनकी कविताएँ 'का भी सम्पादन किया है। इनकी किताब 'सिद्धार्थ और गिलहरी' को राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है जिसमें के सच्चिदानंदन की इक्यावन कविताओं का अनुवाद है। ईमेल: anamikabiology248@gmail.comShabd ko Pankti ka Prempatra - Anamika Anu |
प्रिय शब्द,
सात बजकर बत्तीस मिनट हो रहे हैं। महीना वही जुलाई का है और साल 2022। नीलमणि फूकन की कविताओं के बीच से तुम निकलकर आते हो और कुश की चटाई पर बैठ जाते हो। कुश की यह चटाई फणीश्वरनाथ रेणु के सिरचन ने बुनी है।
तुम सबसे ख़ूबसूरत नहीं हो, तुम्हारी चाह जो मेरे मन में है वह इस कायनात की सबसे चमकीली और कलात्मक चीज़ है। तुमने जितनी मूर्तियाँ अब तक बनायी हैं, उनमें सबसे रहस्यमयी मेरी मूर्ति है।
मेरा रिक्त शोर करता है, मैं उसे शब्दों से भरने की कोशिश करती हूँ। शब्द विप्लव करते हैं और रिक्त भी उन्हें धारण करना नहीं चाहता है। दोनों के बीच में तीखा द्वंद्व हो रहा है। मैं कलम उठाती हूँ और रिक्त काग़ज़ पर शब्दों को ठोकती जाती हूँ। खट-खट की आवाज़ और एक-एक कर धँसते शब्द। काग़ज़ सलीब है जिस पर हम येशु टाँकते हैं। वह हर शब्द प्रभु होता है जिसका स्रोत दुःख होता है।
लुंगलेई गए बहुत दिन हो गए। सात वर्ष पहले, अप्रैल और मई का महीना चिलौनी के फूल के साथ गुज़रा था। कभी चिलौनी के तने से मैं सटकर नहीं बैठी, एक तो सहारे से डर लगता है, दूसरी मुझे चुभती और काटती है। ग्रीक शब्द Schima का अर्थ छाया होता है न? यह ऊसर तपती ज़मीन पर भी ऐसे उग आती है मानो बिना गर्भावस्था के शिशु ने जन्म लिया हो। शायद तपती ज़मीन से ही छाया जन्म लेती होगी।
नीलमोहर की एक टहनी बादल की तरह मेरे कमरे की पश्चिमी खिड़की पर टंगी रहती है। हर रोज़ एक डुंडुल आकर उस पर बैठ जाता है।
मिट्टी का मेरा घर, बारिश में भीगी दीवारें, सांझ जैसा मेरा कमरा और चिड़ियों से फड़फड़ाते पन्ने। किताब के घोंसले में सुबकते, चहचहाते पन्ने। पीला बल्ब सूरज-सा लटका रहता है टेबुल के ठीक ऊपर, धूसर टेबुल माटी-सा तपता रहता है। कलम नदियों सी उलटती-पलटती रहती है।
वह पुरानी बाज़ार गली जिसमें लकड़ी की बनी छोटी-बड़ी कई दुकानें थीं। लाल लालटेनों से सजी उन्हीं गलियों में मैं भूल आई वह आसक्ति जो तुमने मुझे अफ़ीम की फ़िरोज़ा लगी डिबिया में बाँधकर कभी थमाई थी कानों में मंत्र-सा कुछ कहकर।
तुम्हारे घर के पीछे आकाश छूती अट्टालिकाएँ थी। पुल भी था। खाने-पीने की कितनी दुकानें थीं। छोड़ आई मैं उसी गली में वह मीठा चुंबन जो तुमने मधु के छत्ते में बांधकर दी थी मुझको।
याद है तुम्हें! वह सड़क जिसके दोनों तरफ़ खड़ी थीं सुंदर दीवारें, उन्हीं नीले, पीले, हरे चित्रों से पटी दीवारों के पास किसी पुरानी चवन्नी और अठन्नी-सी पड़ी होगी हमारी विमुद्रित प्रेमकथा।
बीते अप्रैल चेरी के फूलों से आच्छादित गलियों में छींट आई मैं कविता का दर्शन। मैं मुक्त हुई तुम्हारे दिए गए उन सभी ज्ञानों से जो अखरोट के भीतर बंद पड़े थे न जाने कितने वर्षों से।
कालगति आई थी, ब्रह्मकमल और जाफ़रान के पुष्प समेटे।
उसने सम्मोहित कर मुझसे ले ली वह नम गुलाबी चिट्ठी भी जो तुमने सघन प्रेम के सुस्त पखवारे में लिखी थी।
प्रेम क्यों करते हैं हम? कई बार सोचकर ऐसा लगता है कि प्रेम करना स्वयं को संबोधित करना है। जीवन की उठा-पटक में हम ख़ुद को भूलने की कगार पर होते हैं तब प्रेम अवतरित होता है और हम स्वयं से मिलना-जुलना शुरू कर देते हैं। दूसरे पर स्वयं का मिलना निर्भर करता है। यह बात बड़ी अजीब है।
दस दिन पहले चम्पाई गई थी। रिहदिल झील बहुत सुंदर है। चम्पाई की पुरानी गुफाओं और फलों के सुंदर बागों में तुम्हें याद करना कितना दुखद था। बता नहीं पाऊंगी।
विष्णुपुर के पंद्रहवीं शताब्दी वाले मंदिर के ईंटरंग के आस-पास एक उदास 'लांग टेल्ड ब्राॅउडबिल' देखी। लंबी दुम, शोख चटक हरा रंग मगर बेहद बेचैन वह चिड़िया उदास आँखों से मंदिर को देख रही थी।
आज करछी पूजा है। चतुर्दशा मंदिर के चौदहों देवी-देवता तैयार होकर बैठे हैं। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ। तुम तो न मीम कुट में आए, न पावल कुट में और चापचर में तो तुम कभी आते ही नहीं थे, जब से साहब बन गए तब से तुम्हारे उत्सव और पर्व ही बदल गये। आज नागेश्वर का फूल देखकर मन बहुत भारी हो गया।
पता है! एक दिन उज्जयंता महल के प्रांगण में हरा शाही कबूतर ऐसे विचर रहा है मानो प्रेम और ज्ञान से तृप्त कोई राजकुमार विचर रहा हो।
जब भी रूद्र सागर झील में नीर महल को देखती हूँ तुम्हारी बहुत याद आती है। रेज़ाबा में बुरांश के बाग देखकर नादर्न कार्डिनल की याद आती है। वह लाल चिड़िया ऐसे देखती थी मानो कोई रूठा बच्चा गाल फूलाकर देख रहा हो। उसे मेक्सिको के जंगल में देखा था। तुमने अमेरिका में देखा था और उस पर कविता लिखी थी। 'लाल चिड़िया', उस कविता में हर शब्द फुदकती हुई मालूम पड़ती है मुझको।
दुःखी आदमी को पृथ्वी कैसे ढो पाती है? दुनिया दुःख से भारी आदमी को ढोते-ढोते ही घिसी होगी न?
मैं मुलायम घासों का दुःख थी। मैं अन्न की दुश्मन और बिस्तर का भार थी। मैं ऋतुओं का सेवन करके बड़ी हुई और मैंने तारीखें पचा-पचा कर उम्र का देह भरा।
नहर के बगल की बस्तियों में मेरे दुःख की कहानियाँ और मेरी कविताएँ एक जैसी ही लोकप्रिय हैं। दुःख की हर जगह पर मेरी कविताएँ पहुँच जाती हैं। सुख की एक जगह थी जिसे तुम बांधकर और उठाकर ले गए मगर तुम्हारी अनुपस्थिति आज भी मेरे साथ है। प्रेम में प्रेमी की अनुपस्थिति से भी संवाद संभव है। प्रेम में तुम मैं हो, मैं तुम। मैं का विकल्प 'दूसरा मैं'। 'दूसरा' शब्द शायद ठीक नहीं है। 'दूसरा मैं' के स्थान पर 'आत्मीय मैं' कहना चाहिए।
विचार और शब्द की जिज्ञासा चुंबन पा लेने के आकर्षण से बहुत बड़ी होती है। प्रेम और जीवन कभी मेरे लिए छंद से सुंदर पगडंडी नहीं बना पाई। तुम मेरे साथ फफक कर कब रोओगे? आओ न मिलकर रोते हैं। आंसू कलयुग का गंगाजल है।
मैं कल हमेशा के लिए चली जाऊँगी और अगर लौटना संभव हुआ तो पक्षी बनकर लौटूंगी।
शब्द की प्रतीक्षा में
तुम्हारी पंक्ति
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ
बेहद खूबसूरत लगा शब्द का पंक्ति से प्रेमालाप, कई फ़ूलों के नाम पता चले पहली बार!!
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