मजबूत और सच्ची बात मसलन — "गांवों के चूल्हे की सोंधी महक/और शहर की फैक्टरी की दुर्गंध/मुझे इतना पागल नहीं करतीं/कि मैं कहूं गाँव शिक्षित हो चुके हैं/और शहरों में प्रसन्नता बसती है।" — कहती आकृति विज्ञा 'अर्पण' की कुछ अच्छी कविताएं पढ़ें। ~ सं0
शब्द व अन्य कविताएं
आकृति विज्ञा 'अर्पण'
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश / शोधार्थी: वनस्पति विज्ञान (वाराणसी में) / पुस्तक " लोकगीत सी लड़की" (प्रेम पत्र संग्रह,) प्रकाशित / आकाशवाणी, दूरदर्शन में सक्रिय / ईमेल: vigyakriti78@gmail.com
शब्द
मेरा इश्क़ और पुख़्ता हो रहा है
दीवारों से, तनहाई से, ख़ामोशी से।
इस प्रेम में जब ख़ामोशी चाह दे,
तो शब्द खनक उठते हैं।
तनहाई के इशारे पर
जुटती है एक मीठी सी भीड़,
गले लगती वैचारिकी,
स्पष्ट महसूसी जा सकती है।
क्रांति के चादर बीनता दिमाग़
भजन सुनकर सुस्ता लेता है।
भजन कभी भक्ति के,
भजन कभी इश्क़िया से।
मुझ पर पुरखों का पूरा हाथ है
तभी तो भोलापन मुझे चिढ़ाता नहीं
बल्कि दे देता है अनेक कारण
जहाँ मैं मौन होकर मुस्कुरा उठती हूँ।
किताबों की अनूठी संगत,
मुझे एक पहलू लेकर
कभी बिफरने नहीं देती।
मुझमें घर बनाने की जतन में
पूर्वाग्रह असफल हो चुके हैं।
गांवों के चूल्हे की सोंधी महक,
और शहर की फैक्टरी की दुर्गंध,
मुझे इतना पागल नहीं करतीं,
कि मैं कहूं गाँव शिक्षित हो चुके हैं,
और शहरों में प्रसन्नता बसती है।
लेकिन मैं महक लेती हूँ
शहर में घुटता गाँव
और गाँव में पनपता शहर
मैं ढूंढ लेती हूँ,
विलायती कविताओं में लोक
और लोकगीतों में बिदेश।
मुझे नहीं आता
एक वैचारिक भुनाने के लिये
कई विचारों का मिथानुवर्तन
लेकिन मैंने सीख लिया है
विचारों से काम की चीजें बीन लेना।
खुशी मुझमें पसर कर रहती है
कष्टों में चिल्लाकर रोती है
बातों को सोचती है
कभी ख़ूब गप्पे मारती
तो कभी यकायक मौन गंभीर।
उसका खिलखिलाकर हँसना
याद दिलाता है गंगावतरण,
उसका चुप होना आभास कराता है
किसी भोले ताण्डव की व्याकुलता का।
ये खुशी जानती है
कि शब्द छलावा हैं,
लेकिन बेहद आवश्यक।
मौन शाश्वत है लेकिन
आवश्यक है मौन का टूटना।
मैं ख़ुद से इतना प्रेम करती हूँ
कि महसूसने लगी हूँ,
प्रेम में बेखुदी का आनंद।
और यकीन है मेरा,
इस ब्रह्मवाक्य पर :
"कि जग का कोई एक ब्रह्मवाक्य है ही नहीं"
यद्यपि शब्द की सीमा मौन है,
किंतु मौन का चरम है शब्द!
अहो औरतों तुमसे जग है
अहो औरतों तुमसे जग है,
पैमानों को ध्वस्त करो।
फुदक-फुदक के खाओ पीओ
व्यस्त रहो तुम मस्त रहो
हंसती हो तो लगता है कि
गंगा मैया जारी हैं
दुनिया की ये सारी खुशियाँ
देखो देन तुम्हारी हैं
ख़ुशियों की तुम नदिया हो
बिन कारन न कष्ट सहो.....
फुदक फुदक कर खाओ पीओ
व्यस्त रहो तुम मस्त रहो......
मुस्कइया तुम्हरी सुन लो ना
जैसे फूल खिलन को हो
दोनो होठ सटे जैसे कि
जमुना गंग मिलन को हो
बाधाओं को ढाह चलो तुम
अपने मन की राह चलो तुम
टेंशन के अनगिनत किलों को
मार पैर से ध्वस्त करो......
फुदक फुदक कर खाओ पीओ
व्यस्त रहो तुम मस्त रहो...
खड़ी हुई तुम जहां सखी
वहां से लाइन शुरू हुई
पर्वत सा साहस तुममे है
तुम तुरुपन की ताग सुई
चँहक रहे मन की संतूरी
स्वस्थ रहो तुम यही जरूरी
थाल सभी को बहुत परोसे
अपनी थाली फस्ट करो.....
फुदक फुदक कर खाओ पीओ
व्यस्त रहो तुम मस्त रहो
तुम धरती के जैसी हो
जहां सर्जना स्वयं सजे
सारे राग भये नतमस्तक
पायलिया जब जहाँ बजे
जो होगा तुम हल कर लोगी
पानी से बादल कर लोगी
सब कुछ मुट्ठी के भीतर है
जहाँ लगे ऐडजस्ट करो.....
फुदक फुदक कर खाओ पीओ
व्यस्त रहो तुम मस्त रहो
खुद ही तुम अब डील करोगी
अपनी वाली फील करोगी
कैरेक्टर के सब प्रश्नो को
मुसकाकर रीविल करोगी
समय बड़े घावों का हल है
ग़र हिम्मत साहस संबल है
सब सिचुएशन आलराइट है
चिल्ल अभी तुम जस्ट करो.....
फुदक फुदक कर खाओ पीओ
व्यस्त रहो तुम मस्त रहो....
प्रेम
दसबजिया के झुंड में
खिला हो एक गेंदें का फूल
ठीक वैसे ही जैसे
किताबों के बीच
दिख जाये अपनी पसंदीदा किताब।
बानपोखर के मेले में
कुछ ऐसे ही पहली बार दिखे थे तुम
जैसे ढइचां के खेत में
चुपचाप खड़ा हो सनई।
इंस्टा अकाउंट की पहली स्क्रालिंग में
बिजुरी सी चमकती दिखी थी तुम्हारी आइडी
अब प्रेम का ज़िक्र आते ही
आ जाता है तुम्हारा ध्यान।
शब्दों की गहमा-गहमी के बीच
चुन लेती हूँ मौन
वक़्त के चूल्हे पर पकते शब्द
कभी अचानक बन जाते हैं गीत।
जिसके नीचे की हमने एक दूसरे की प्रतीक्षा
अब कट गया वो पाकड़ का पेड़
बन गयी है एक पक्की सी सड़क
कुछ जोड़े उस राह से होकर जाते हैं विश्वविद्यालय।
कागज पर आंकड़ा दर्ज़ है
लगे हैं कुछ लाख पेड़
नज़र ढूंढती है मगर दिखते ही नहीं
ठीक वैसे ही जैसे फोन में सेव है तुम्हारा नंबर
"मेरे हमराज़"
आह्वान
सुनों बसंती हील उतारो
अपने मन की कील उतारो
नंगे पैर चलो धरती पर
बंजर पथ पर झील उतारो
जिनको तुम नाटी लगती हो
उनकी आँखें रोगग्रस्त हैं
उन्हें ज़रूरत है इलाज की
ख़ुद अपने से लोग ग्रस्त हैं
सच कहती हूँ सुनो साँवली
तुमसे ही तो रंग मिले सब
जब ऊँचे स्वर में हँसती हो
मानो सूखे फूल खिले सब
बिखरे बाल बनाती हो जब
पिन को आड़ा तिरछा करके
आस पास की सब चीज़ों को
रख देती हो अच्छा करके
मुझे नहीं मालूम बसंती
उक्त जगत का कौन नियंता
पर तुमको अर्पित यह उपमा
'स्वयं सिद्ध घोषित अभियंता'
तुमने स्वयं गढ़े जो रूपक
शब्द नहीं वो आलंबन है
अर्थों के मस्तक पे बढ़कर
अक्षर कर लेते चुम्बन हैं
जिसको नीची लगती हो तुम
उसकी सोच बहुत नीची है
सुनो बसंती हील उतारो
अपने मन की कील उतारो...
आम और बड़हड़
डार्विन की प्रसिद्धि के चरमकाल में
दुत्कारे गये मेंडल
जैसे आम के मौसम में
कौन ढूंढे बड़हड़ ?
फिर सोचती हूं
मेंडल के जाने बाद
पहचाने गये मेंडल
और प्रतीक्षा में हूँ
कि बच्चे बाजारों में ढूंढते मिलेंगे बड़हड़ ।
ठीक वैसे ही जैसे कि मैं
ढूंढती हूं विज्ञाधर द्विवेदी के गीत,
चूल्हाछुआई के दिन
गांव की लड़कियां ढूंढती हैं
माँ की डायरी के भजन ।
और माँ बनने वाली प्रसूताएं
जान लेना चाहती हैं सारे घरेलू नुस्खे।
आज जब विश्वनाथ मंदिर से गुजरते
नज़र पड़ी बड़हड़ के ठेले पर
तो महसूस हुआ मैं भी हूं एक प्रतीक्षा
और आम की हँसी के बीच
मुस्कुराता हुआ बड़हड़ ।
मुझे याद आये मेंडल
हाँ वही "Father of genetics"
लगा रही हूं आज बड़हड़ का पेड़
आम के बगीचे के बीचोबीच ।
याद आ रहे हैं वो सारे लड़के
जिन्हें होना पड़ा बड़हड़
और बेचते हैं आम
याद आ रही हैं वो सारी लड़कियां
जिन्हे व्याह ले गया आम
और चाहता रहा बड़हड़।
कमरे में लगा दी है मेंडल की तस्वीर
ठीक डार्विन के बगल में
और मन में आ रही है एक बात
कि हम सब समय समय पर हैं
आम और बड़हड़ ।
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4 टिप्पणियाँ
सभी सुंदर, शब्द, तुमसे जग है , प्रेम प्रभावित करती हैं. विज्ञा अर्पण को बधाई, भरत सर का आभार. सत्यदेव जांगिड
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙏🙏🙏
हटाएंफुदक फुदक कर खाओ पीयो, व्यस्त रहो तुम मस्त रहो,,बहुत सुन्दर,,सारी कविताएं लाजवाब है!!
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन
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