अच्छा हुआ कि मित्र विवेक मिश्र से उनका मन्नूजी वाला यह इंटरव्यू मांग लिया। यह दरअसल एक टिपिकल इंटरव्यू नहीं है इसमें मन्नू भंडारीजी ने कई बातों का खुलासा तो किया ही है, साथ विवेक मिश्र ने अपनी कथाकार दृष्टि से बहुत रोचक बना दिया है। राजेन्द्र यादवजी भी इसे पढ़कर ज़रूर खुश होते, ठहाका लगाते ~ सं0
Rajendra Yadav, Ajit Kumar, Mannu Bhandari, Nirmala Verma Photo: Bharat Tiwari |
मन्नूजी से एक मुलाक़ात: यादों के आईने में...
–विवेक मिश्र
इस बातचीत से पहले साहित्यिक सभा-गोष्ठियों से इतर व्यक्तिगत रूप से मेरी मन्नूजी से दो-तीन बार ही मुलाक़ात हुई थी और वो भी बहुत संक्षिप्त और औपचारिक-सी। एक बार तो तब जब सुधा अरोरा जी दिल्ली आई थीं और उनसे मिलने मैं मन्नूजी के हौज़खास वाले फ्लैट पर गया था और दूसरी बार तब जब राजेन्द्रजी की तबीयत खराब चल रही थी और मन्नूजी, निर्मलाजी के साथ उन्हें देखने आई थीं।
इससे भी पहले मेरी उनसे एक बार फोन पर लम्बी बात हो चुकी थी, वह राजेन्द्रजी के चले जाने के एक-दो हफ़्ते पहले का ही समय था, मैं उन्हें देखने उनके घर गया हुआ था। उसी समय मन्नूजी का फोन आया। वह पिछली रात अचानक राजेन्द्रजी को उठी लम्बी खाँसी जो लगभग आधे घण्टे तक नहीं रुकी थी, को लेकर बहुत चिन्तित थीं। राजेन्द्रजी ने फोन मुझे पकड़ा दिया। उस दिन उन्होंने मुझसे लम्बी बात की जिसमें राजेन्द्रजी के अपने स्वास्थ्य के प्रति बरती जा लापरवाहियों की कई शिकायतें थीं।
उसके कुछ ही दिन बाद राजेन्द्रजी नहीं रहे, उनके चले जाने के बाद कई बार सोचा उन्हें फोन करूँ पर पता नहीं वो क्या था जिसने रोक लिया। पर राजेन्द्रजी के जाने के लगभग एक-डेढ़ महीने बाद उनसे बात भी हुई और मुलाक़ात भी और उसका सबब बने संजीव जी। उन्होंने कहा, ‘मन्नूजी से मिलने चलना है, पिछले दिनों कुछ अस्वस्थ थीं। चलिएगा? आप ‘दूसरी परम्परा’ का अंक उनको देने को कह रहे थे, तो वो भी दे दीजिएगा, साथ ही कुछ प्रश्न सोच के रखिएगा जिससे अगर वो स्वस्थ हुईं तो अगले अंक के लिए कुछ बात भी हो जाएगी।’ मैं तुरन्त तैयार हो गया।
उनसे मिलने के लिए शाम पाँच बजे का वक़्त तय था। हमें हौज़खास वाले फ्लैट पर पहुँचना था। ठण्ड का मौसम था, जल्दी ही अंधेरा घिरना शुरू हो गया। मैं और संजीव जी समय से पहुँचे। वह हमारा इन्तज़ार ही कर रही थीं। उनके घुटने में बहुत दर्द था और उठने-बैठने में खासी दिक्कत हो रही थी। वे थोड़ा ऊंचा सुन रही थीं। उन्होंने कान में सुनने वाली मशीन नहीं लगा रखी थी। उनका कहना था उससे कान में सीटियाँ बजती हैं। पहले कुछ औपचारिक-सी बातें हुईं। चाय आ गई। मैंने ‘दूसरी परम्परा’ का वह अंक जिसमें राजेन्द्रजी पर बलवंत कौर का लेख छपा था, उन्हें दे दिया। वह कुछ देर तक अंक पलटती रहीं।
उनके साहित्य से एक पाठक की तरह मेरा पुराना परिचय था और हरेक पाठक की तरह मेरे मन में भी उनकी एक छवि थी पर जब मैं उनसे मिला तो मैंने पाया कि उनका स्वर, उनका व्यक्तित्व मेरे भीतर बनी छवि से मेल नहीं खाता। वे मुझे बहुत घरेलू, आत्मीय और दुनिया जहान की चिन्ताओं से घिरी रहने वाली एक आम, सर्व साधारण बुज़ुर्ग महिला-सी लगीं। ज़रा भी नहीं लगा कि मैं ‘आपका बंटी’ या ‘महाभोज’ की लेखिका के सामने बैठा हूँ। उनके पास बीते दिनों की स्मृतियाँ तो थीं पर किसी भी वैचारिकी, किसी भी ज्ञान का अभिमान, उसका दम्भ, उससे उपजा आडम्बर बिलकुल भी नहीं था। वह आज भी अपनी सहजता, सरलता और मौलिकता को अपने में समेटे, अपने लेखन से ख़ुद को बिलगाए, सारी आपा धापी से दूर बैठीं, इस दुनिया को आश्चर्य से देखती जान पड़ती थीं।
संजीव जी ने कहा ‘विवेक जी कुछ पूछेंगे’
उन्होंने कहा, ‘पूछिए, अब क्या है कहने-सुनने को। आम तौर पर मैं साक्षात्कार देने से बचती हूँ। मैं जल्दी किसी चीज़ पर राय नहीं बना पाती। वैसे भी मेरा विचार पक्ष प्रबल नहीं है। बस कुछ स्मृतियाँ हैं।’
साक्षात्कार शुरू हुआ। पर प्रश्न नहीं पूछे गए।
उनकी गहरी निच्छवास…और चश्मे से सामने की बंद खिड़की की ओर देखती आँखों ने हमें स्मृतियों की पुरानी गलियों में पहुँचा दिया। जो प्रश्न पूछने का मन बनाया था वे समय और परिस्थिति से पैदा हुई कुछ जिज्ञासाएं भर थीं। सो वे बहुत पीछे छूटती चली गईं। बातें अपने आप हवा मैं तिरने लगीं। उनमें से कुछ को पकड़ के तरतीब देने की कोशिश करते हुए, हम उनके पीछे हो लिए। जिन रास्तों पे हम चल रहे थे, वो रास्ता सिर्फ़ उन्हें ही मालूम था। वह बीच-बीच में यह जानने के लिए कि हम उनके साथ आ रहे हैं या नहीं, हमें हमारे नाम से पुकारतीं। कई बार नाम भूल जातीं।
बस इतना ही कहती, ‘समझे न…?’
‘…अब यूँ तो कुछ ठीक से याद नहीं रहता, खास तौर से नाम भूल जाती हूँ। कहीं आने जाने का भी मन नहीं करता, ठीक से कुछ सुनाई नहीं देता। जो यहाँ पे आके कुछ सुना जाता है, सुन लेती हूँ। अभी तो कुछ दिनों से कोई आया भी नहीं। टिंकू(रचना यादव) ही आती है। वही यहाँ से वहाँ दौड़ती रहती है। सब संभाल रही है। गुड़गाँव में अपना घर, यहाँ मेरी तबियत, वहाँ दरियागंज में दफ़्तर(हंस)। लगता नहीं था कर पाएगी, पर कर रही है, किसी तरह…’
बोलते-बोलते वह धीरे से वर्तमान से अतीत में उतर गईं।
‘उन दिनों, …कलकत्ते में थे, हम लोग। मेरी बहिन ने इनसे (राजेन्द्रजी) पूछा कि क्या है तुम लोगों का। बोले ‘मैं एक आर्थिक आधार तैयार करना चाहता हूँ, वैसे भी कलकत्ते तो रहेंगे नहीं, दिल्ली ही रहना है तो जैसे ही एक आधार तैयार हो जाएगा, फिर मैं इसे बुला लूंगा। फिर जो छोटा-मोटा करना हो, रस्म-वस्म वो आप कर देना।’
उसके बाद ये चले गए। उसी समय, बीस दिन में मैंने एक उपन्यास लिख डाला। बाद में इनके साथ मेरा ‘एक इन्च मुस्कान’ जो आया है। वो मूलत: मेरा उपन्यास है। उसी को जब दोबारा पढ़ा तो मैंने निशान लगा दिए कि यहाँ-यहाँ कमजोर है, इसे दोबारा लिखूँगी। जब आए तो ये हैरान, ‘तुम्हें हो क्या गया है।’ उसे पूरा करने में बीस-पच्चीस दिन लगे होंगे जबकि मैं पढ़ाने भी जाती थी, घूमने भी जाती थी, अपने बहिन-बहनोई के साथ। पर उस समय लिखना इतना आसान था, सब कुछ चलता रहता था, उसी के बीच रात में बैठे और लिख दिया। ये कहते, ‘मुझे तो एक कहानी लिखनी होती है तो इतने दिन लगते हैं, बीसियों कप कॉफ़ी पी डालता हूँ, कितने लेख पढ़ता हूँ।’ पढ़के कहा, ‘थीम अच्छी है पर इसको रीराइट करने की जरूरत है, नायक के करेक्टर को, वो लेखक न हो, इसे फिर से करना पड़ेगा।’ मैंने कहा ‘मैंने तो ख़ुद निशान लगा रखे हैं। दरअसल उसे (नायक के करेक्टर को) अपने साथ आइडेन्टीफाई किया इन्होंने। इसके बाद फिर ये शादी-वादी हुई…’
फिर जैसे लम्बे समय अन्तराल को बिना कुछ कहे पार किया उन्होंने। हम किसी आहट को सुनने की कोशिश में चुपचाप बैठे रहे। फिर जैसे उन्होंने अपने भीतर से बाहर निकलने की कोशिश की। वे लौटीं पर आवाज़ थकी हुई थी।
‘उसी के बाद इनके ये सब प्रसंग सामने आए और फिर इतना वो… (इस ‘वो’ के लिए उनके पास कोई शब्द नहीं था) हो गया कि वो (उपन्यास) पड़ा रह गया…’
हमें लगा बात किसी बंद गली में डूब गई है। पर उनकी आवाज़ में फिर एक भराव आ गया। उसकी रिक्तता जाती रही। उन्हें बात का दूसरा सिरा मिल गया। लगा स्त्रियों में निराशा से जीवन में फिर-फिर लौट आने की अद्भुत शक्ति होती है, वह बोलीं, ‘फिर बाद में जब कुन्था जी और जैन साब आए। उन्होंने कहा, ‘एक प्रयोगवादी उपन्यास हमें दीजिए।’ मैंने तो मना कर दिया। क्योंकि उस समय मैंने कन्सीव कर लिया था। पर ये उछलकर ‘हाँ, हाँ, हो जाएगा’ कहके राजी हो गए। ‘हाँ, कर लेंगे’ मेरे से कहा, ‘मना क्यों कर रही हो?’ मैंने कहा, ‘देखो, छ: महीने बाद डिलीवरी होगी, मेरे से तो लिखा-विखा नहीं जाएगा।’ बोले, ‘तो हम बारह चैप्टर पहले ही लिखके रख लेंगे।’ मैंने कहा, ‘पहले कभी ऐसा हुआ है? वो बेचारे देवड़ा (शरद देवड़ा संपादक थे) आखिरी दिन तक चक्कर लगा-लगा के परेशान होते रहे हैं। कितनी मुश्किल से होता था।’ कहा ‘ऐसा करते हैं--एक थीम सोच लेते हैं। कहा ‘एक थीम बताऊँ?’ फिर बोले ‘अरे यह तुमसे निभेगी नहीं।’ मैं कोई चीज़ बताऊँ तो कहें ‘अरे ये तो बहुत कमजोर है।’ फिर अचानक ऐसे बोले जैसे इन्हें अभी-अभी स्ट्राइक किया हो, जबकि इनके दिमाग में पहले से ही था ‘तुम्हारा वो उपन्यास ले लेते हैं।’ मैंने कहा ‘वो मेरा उपन्यास है, वो मैं क्यों दूँगी?’ बोले, ‘देखो तुम तो लिखोगी-लिखाओगी नहीं और वो थीम बरबाद हो जाएगी।’
‘फिर पता नहीं…, उन दिनों ऐसेइ था। मैंने कहा, ‘अच्छा चलो ले लेते हैं।’ सोचा इस बहाने इनका (फिर से) लिखना शुरू हो जाएगा।‘
फिर किसी और गली में झांकती-सी बोलीं, ‘एक तो लिखने को लेके इतना फ्रस्ट्रेट करते थे- ‘अरे लिखा नहीं जा रा।’ मैंने कहा, ‘चलो ले लेते हैं।’ हालाँकि उस उपन्यास को (पहला ड्राफ़्ट) कहीं संभाल के नहीं रखा। शक्ति नगर वाले घर तक तो था पर बाद में जब सामान यहाँ से वहाँ हुआ तो उसमें बहुत गड़बड़ हुआ।’
जब वो छपा तब देवड़ा भी बदमाशी करता। वो पाठकों के पत्र लेके आता, कहता, ‘राजेन्द्रजी आपकी प्रशंसा का एकआध पत्र आए तो ठीक पर सारे पत्र मन्नूजी की तारीफ़ के आते हैं।’
संजीवजी ने बीच में टोका, ‘वो उस समय स्वेटर वाला क्या मामला था। आपने कहा था, ‘नाराज़ रहते थे, मैंने पूछा क्या हुआ तो बोले कि एक स्वेटर नहीं दिया बुनके.’
‘हाँ, हाँ यही कहते थे, ‘इतनी निटिंग करती हो, मुझे तो एक स्वेटर बुनके नहीं दिया’ फिर मैंने बना दिया। पर असल बात उस समय वो उपन्यास था जो कि मेरा था और उसी को बाद में हम दोनों ने लिखा।’
‘एक कहानी यह भी’ में भी इस बारे में एक पूरा प्रसंग है। लिखा है मैंने। एक कहानी इन्होंने लिखी ‘यहाँ तक पहुँचने की दौड़’। बड़ी चर्चित हुई, वो कहानी। उसका सेन्ट्रल आइडिया मेरा लिखा हुआ था। कहा तो बहुत भन्नाए। मैं गई हुई थी कसौली। एक उपन्यास के पचास-साठ पन्ने लिखके लाई थी। सुनाया इन्हें। सुना इन्होंने। बोले, ‘पूरा करलो, पहले ही सुनाने बैठ जाती हो। सुनाने के बाद फिर आगे कैसे बढ़ा जाता है। मैं तो जो लिखता हूँ उस पर एक लाइन बात नहीं कर सकता’ मैंने कहा, ‘ये आपका नेचर है, मेरा ये है।’ पर यहाँ आकर नौकरी, घर, ये-वो, बस वो उपन्यास पड़ा रह गया। अब जब इनकी वो कहानी आ गई। चर्चित हो गई। मैंने पढ़ी। एकदम मुझे लगा अरे यह तो मेरे उपन्यास में था। फिर इसके बारे में जब मैंने लिखा तो उपन्यास ज्यों का त्यों कोट किया है। उसमें ये है कि कैसे एक लेखक जो कई दिनों से लिख नहीं रहा है। उसके पास एक इन्टरव्यूअर आता है। वो पूछता है कि आपका मुख्य उद्देश्य लिखना था और अब आप इतना भटक गए और चीज़ों में लगे रहते हैं। आपको इसकी तक़लीफ़ तो होती होगी। तो वो लेखक कहता है आप लोगों को ऐसा लगता होगा पर मैं भटका कहीं भी नहीं हूँ। आज भी मेरे मन में वो बात ज्यों कि त्यों है कि मेरा मुख्य काम लेखन है। ये मैं जानता हूँ। फिर उसे लगता है शायद उसकी बात इन्टरव्यूअर समझा नहीं तो वो एक उदाहरण देता है कि जैसे एक लड़ाई में कोई अपने बच्चे को साथ लेके, उसे छाती से बांधे भाग रहा हो। नदी-नाले पार कर रहा हो। पर बच्चे की सुरक्षा उसका पहला लक्ष्य है।’ इसपर वो इन्टरव्यूअर पूछता है कि वो लेखक कभी ये भी खोल के देखता है कि वो बच्चा ज़िन्दा भी है या मर गया। या छाती से लगाए भागता ही रहता है। ये प्रश्न जैसे ही वो पूछता है तो लेखक एकदम सन्न रह जाता है। वो एक इन्टरव्यू है जिसका एक हिस्सा इन्होंने ज्यों का त्यों ले लिया है।…बस इतना अन्तर किया है इन्होंने कि वो गुड़िया छाती से चिपकाए भागा जा रहा है। वहाँ लड़का नहीं है। तो इस तरह आइडिया टकराते थे। विचार भी। ख़ैर अब तो बातें हैं ये…’
एक छोटी चुप्पी के बाद, एक छाया कमरे में आ बैठी।
‘सोचा नहीं था ऐसे सब अचानक हो जाएगा। बल्कि पिछले साल आपको तो पता ही है कितने बीमार थे। लगता था उसी समय कुछ हो जाएगा पर ठीक हो गए। ऑपरेशन के बाद यहाँ भी रहे। दो-तीन दिन भी नहीं हुए थे बोले ‘मयूर विहार जाऊँगा’। उन्हें अकेले बैठना अच्छा नहीं लगता था। कोई चाहिए बात करने के लिए। मैं कहती थी, ‘आराम करो’। नहीं माने, चले गए पर फिर पन्द्रह-बीस दिन में ठीक हो गए। ऑफ़िस जाने लगे।
…अन्तिम समय में इतना तनाव न रहता तो शायद अचानक ऐसा कुछ न होता। वे विश्वास नहीं कर सकते थे कि कोई इतना निकट का व्यक्ति उनके साथ ऐसा कर सकता है। मान लो किसी के ख़िलाफ़ मन में कुछ हो भी तो इस तरह पीछे नहीं पड़ते थे। वे सब भूल के ख़ुद बात ख़त्म करते थे।
पिछले दिनों जो भी विवाद हुए, उससे यही लगता है कि एक गलत सपोर्ट आपको आगे बढ़ने से रोक देता है। महीने भर में सब शुरू हुआ और सब खत्म भी हो गया। ऐसा नहीं है कि मदद नहीं की जानी चाहिए पर लेखक में निज का भी बहुत कुछ होना चाहिए। इन्होंने कई लेखकों के लिए किया। उनमें कई महिलाएं भी थीं पर वे ख़ुद भी बहुत मेहनत करतीं थीं। उनकी अपनी तैयारी भी थी। नए लेखक की जबरदस्ती की आलोचना और जबरदस्ती का बढ़ावा, दोनो ही उसे नुकसान देते हैं। ख़ैर…’
‘आपके लेखन को लेके क्या भाव रहता था, उनके मन में?’
‘मेरी राजेन्द्र से पचासों शिक़ायतें हैं और वाज़िब हैं लेकिन जो अच्छा पक्ष था वो ये कि मेरे काम को लेके कभी उन्हें कॉम्पलैक्स नहीं था। मेरा कोई काम होता तो मुझसे ज्यादा उत्साहित होते थे। एक ऐसा समय आया था कि मैं जो भी कर रही थी सब हिट हो रहा था। चल रहा था। फिल्म बनी सिलवर जुबली, ‘महाभोज’ आया, कहानियों का मंचन हुआ, ‘त्रिशंकु’ कहानी आई, चर्चित हुई। ‘रजनी’ सीरियल की स्क्रिप्ट लिखी। हालाँकि इसमें मेरा कुछ नहीं, सब करने वालों का था। उसी समय टीवी के लिए एक स्क्रिप्ट आई बासु कोई सीरियल बना रहे थे। क्या नाम था उसका? जो साहित्यिक कहानियों पे था’
‘दर्पण’
‘हाँ, दर्पण। बासु ने कहा दर्पण धारावाहिक के लिए आप काम करेंगी। अब वासु से संबंध ऐसे थे और वे लगातार आग्रह किए जा रहे थे। बोले पहले तेरह कमलेश्वर से करवाए थे पर उनसे स्क्रिप्ट लेने में मेरे पैरों में पानी भर जाता था। जाओ तो कभी मिलते थे, कभी नहीं। कभी हुए भी तो छिप जाते। कभी थोड़ा-बहुत चार छ: लाइन करके दे दी। कभी गायत्री भाभी से कुछ करा दिया। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने कहा, ‘जब कमलेश्वर जी कर रहे हैं तो मैं नहीं करूंगी। उन्हें बुरा लगेगा।’ बोले, ‘मैं आपको दे रहा हूँ, आप छीन तो नहीं रही हो?’ मैंने कहा, ‘मैंने सीखा नहीं, जानती नहीं।’ बोले, ‘आप जो बिना सीखे करती हो, मुझे बहुत सूट करता है। मैं आपकी स्क्रिप्ट लेके सीधा सैट पर चला जाता हूँ।’ इस तरह वे नहीं माने। फिर मैंने किया।
अब मेरे आगे दूसरी दिक्कत थी कहानियाँ चुनने की। …और फिर हिन्दी की। मैंने अपनी कहानी नहीं ली। कहा ‘ये अच्छा नहीं लगता।’ सबने कहा ‘इसमें अच्छा-बुरा क्या है। सब जब काम करते हैं तो अपनी चीज़ तो रखते हैं।’ मैंने कहा ‘मैं अपनी नहीं रखूंगी।’ मैंने हिन्दी में राजी सेठ की कहानी ली। पर वासू ने कहा, ‘राजेन्द्र की कहानी बनी बनाई रखी है। इसलिए हिन्दी की नहीं चाहिए। मैंने कहा मेरा तो राजी सेठ की कहानी पे किया काम सब ख़राब हो गया। राजेन्द्र की ‘एक कमजोर लड़की की कहानी’ ली, जो बनी-बनाई रखी थी पर वो सबसे ख़राब बनी। मैंने कहा, ‘वासु दा आपने तो सत्यानाश कर दिया, मेरे पूरे काम का।’ एक बात बता दूँ, राजेन्द्र को विसुअल्स का कोई ज्ञान नहीं था। विचार हावी रहता था। कई बार कहानियाँ सुझाते। मैं कहती ‘यह स्क्रीन पर नहीं हो सकती।’ कहते ‘क्यों नहीं हो सकती?’ मैं कहती ‘ये बात विजुअल्स में कैसे दिखाओगे?’ इसपर बहुत बहस होती।
उन दिनों राजेन्द्र कुछ नहीं कर रहे थे। हंस निकला नहीं था। अक्षर तो जैसे चलाते थे, चलाई रहे थे। लोग कहते, ‘आप किसी को रॉयलटी नहीं देते। एक लेखक चंडीगढ़ से कुड़की ले आया। वो बात इन्होंने मुझे नहीं बताई। निर्मला जी से कहा ‘पाँच हजार दे दीजिए, मैं लौटा दूंगा।’ बाद में मुझे बताया। मैंने कहा, ‘आपने उनसे क्यूँ मांगे? मुझसे कहते।’ बोले, ‘नहीं तुम पर पहले ही बहुत बोझ है।’ मैंने कहा, ‘बाहर जाने से अच्छा था घर में ही मांगते।’…ये हाल था कुड़की तक आने लगी थी।
…पर ऐसे में भी जब मेरी हर चीज़ हिट हो रही थी। और इनका नहीं हो रहा था। ये किसी भी हसबैन्ड के लिए बड़ी बात है। पर इन्होंने उसे कभी उस तरह से नहीं लिया। जैसा अभिमान फिल्म में था। जब मेरी फिल्म आई ‘रजनीगंधा’। बासु का फोन आया, ‘मैं फिल्म लेकर आ रहा हूँ। एक शो आपके दोस्तों के लिए रखेंगे। ये लगे फोन करने सबको। मैंने कहा, ‘अच्छा नहीं लगता, सबको कहो कि देखो मेरी फिल्म आ रही है, देखने आओ।’ बोले, ‘इसमें बुरा क्या है? ये मुझसे ज्यादा उत्साहित थे। ये एक प्लस प्वाइन्ट था, राजेन्द्र मे। मेरे संदर्भ में पचास चीज़ों पर मुझे एतराज़ था, पर इसे (मेरे काम को) कभी कॉम्पलैक्स नहीं बनाया, राजेन्द्र ने।
…और दूसरी चीज़ों के बहुत कॉम्पलैक्स थे। बाद में कहा न, ‘अरे उन दिनों तुम्हें तो पता है मैं कितने कॉम्पलैक्स में जी रहा था।’
कमरे की दीवारों पर नज़र डाली।
फिर घर के भीतर देखते हुए बोलीं, ‘यहाँ से जब गए तो गिरीष अस्थाना के यहाँ रहे। यहाँ इतने शान से कमरा बनवाया था। सबसे मन से इनका कमरा बनवाया था। सबसे ज्यादा खर्च भी उसी में हुआ था। गिरीराज किशोर और बासु चटर्जी मिलने गए, इन्हें इस हाल में देखा तो वहाँ से सीधे यहाँ आए, बोले, ‘गुस्सा थूको। हम उसको यहाँ ले आ रहे हैं। वो देखो कितनी परेशानी में है।’ ये वहाँ रहते तो इतनी चिन्ता करते थे उनकी। कभी नौ बजे से ज्यादा बाहर नहीं रुकते थे। मैं कहती ‘जब यहाँ रहते थे तब तो इतनी चिन्ता नहीं करते थे।’ पर तब भी मेरी चीज़ों पर मुझसे ज्यादा उत्साहित रहते थे।’
अब वे किसी ऐसी जगह खड़ी थीं जहाँ से ज़िन्दगी दो फांक होती थी। उन्होंने फिर दाहिने मुड़कर भीतर के कमरे की ओर देखा।
‘जब अलग हुए, उससे पहले मैंने एक सवाल पूछा और कहा, ‘सच बोल सकते हो तो बोलना, झूठ मत बोलना। …जो ज़िन्दगी आपने मुझे दी। ये सारी जिम्मेदारियाँ, घर-परिवार-बच्चा, सबके आने-जाने का करना, वो सब आपके ऊपर आ जातीं और मैं अपने मित्रों को लेकर बाहर घूमती रहती। तो क्या आप बर्दाश्त करते। एक मिनट सोचते रहे फिर बोले ‘मैं तो कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता था।’ मैंने पूछा, ‘फिर?’ मैं जानती थी ये कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते।
बस फिर अलग हो गए.... दो महीने का समय था। मैं बंबई चली गई। वहाँ किसी को नहीं बताया। रवाना होने से पहले बहिन के यहाँ से सुधा (सुधा अरोरा) के यहाँ चली गई। उसने कहा चलो कहीं घूमके आते हैं। समुद्र के किनारे जाके कहीं बैठ गए। तब उसे यह बात बताई। उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा, ‘ये क्या कह रही हैं आप?’
फिर जैसे आँखों में समुद्र की लहरों का कोलाहल गूँजने लगा। जैसे वहीं कुछ देर रुक गईं।
‘वापस पहुँचने पर टिंकू को लेने आना था, एयरपोर्ट। पहुँची तो देखा राजेन्द्र खड़े हैं। मैंने कहा, ‘आप?’ बोले, ‘क्यों मैं नहीं आ सकता?’ मैंने कहा, ‘आ तो सकते हैं।’ फिर यहाँ आए, मैं उतरने लगी। बोले, ‘एक कप कॉफ़ी तो साथ पी सकते हैं?’ मैंने कहा, ‘हाँ, आइए।’ जैसे ही भीतर आए। कमरे में झांका। कमरा खाली था। इनका सामान जा चुका था। पर उसके बाद जितने इन्टरव्यू दिए, यही कहा, ‘उसे लोगों का आना, उनका खाना-पीना पसंद नहीं था। इसलिए मैं निकल आया।
मेरी पक्षधरता करने वाले भी थे। ये तो था कि शाम की महफ़िलों में लोगों का आना-जाना होता था। पहले बैठे रहेंगे, दो लोगों का खाना बना होगा। कहेंगे, ‘अरे नहीं खाके जाइए। ये था इनका।
जब जवाहर चौधरी चले गए। कितना कर्ज़ा था। कभी मुझसे जिक्र नहीं किया। अक्षर के मामले में नेमी चन्द जैन और विष्णु प्रभाकर ने समझौता कराया। कहा या ‘अक्षर’ ले लीजिए। या रुपया दीजिए। किसी को उम्मीद नहीं थी कि ये संभालेंगे। अब ले तो लिया जो आर्थिक संकट था। उसके लिए बहुत काम करना था। एक भाई को बुलाया। तभी इनकी बहिन की डेथ हो गई। छोटी बहिन यहाँ हॉस्टल में रहके पढ़ती थी। उसे हॉस्टल से घर लाना पड़ा। दो जन और बढ़ गए।’
दो कथाकारों के जीवन की कहानी, हमारे सामने पर्त दर पर्त खुल रही थी। बताते-बताते उन्हें अचानक खाँसी आ गई। रुकी तो बीते समय के लम्बे दुख को थोड़े में ही समेटती हुई बोलीं, ‘बड़े संकट के दिन थे। ऐसे गुज़ारे है कि बस…
उनका यह तो तय था कि नौकरी नहीं करूंगा। मैं कलकत्ते से पहली बार दौलत राम कॉलेज में इन्टरव्यू देने आई थी। बैठी रही सारा दिन। कहा- रिजल्ट बता दिया जाएगा। नहीं हुआ। घर आकर कहा, ‘मैं नहीं आना चाहती थी, दिल्ली। कलकत्ते में लोग मुझे हथेलियों पे रखते थे। मैंने तो कह दिया था, ‘मैं दिल्ली में नौकरी नहीं करूंगी।’ फिर मिरांडा हॉउस में वेकेन्सी निकली। वहाँ हो भी गया। और दिल्ली आ गए। उसके बाद इन्हें कमाई को लेके कॉमप्लैक्स हो सकता है रहा हो पर मेरे लेखन को लेके बिलकुल नहीं था।
ये शीर्षक बहुत अच्छे देते थे। ‘त्रिशंकू’ का, ‘स्त्री सुबोधिनी’ का उनका ही दिया हुआ था। लिखने के बाद में कहती, ‘समझ नहीं आ रहा, क्या दूँ?’ ये पढ़कर बड़े ध्यान से शीर्षक देते। और मैंने भी इसका हर जगह जिक़्र किया। इसे एक्नॉलेज किया। इन्होंने औरों के भी रखे पर उन्होंने कभी एक्नॉलेज नहीं किया।
आपका बंटी’ सीरियलाइज होकर छपा। पूरा होते ही छपने दे दिया। उसे राजेन्द्र ने बाद में पढ़ा। ‘महाभोज,’ मैं शिमला से लिखके लाई थी। फाइनल यहाँ किया। वह इन्होंने पूरा होने पर पढ़ा। बहुत ध्यान से पढ़ते थे। तब आँख-वाँख अच्छी थी। पढ़ा और बहुत ठंडे से बोले, ‘अच्छी थीम है पर ‘बंटी’ वाली गहराई नहीं है।’ मैं थोड़ी हताश हुई। मुझे लगा कि इतनी मेहनत से लिखा है। उसके बाद (हमारे पारिवारिक मित्र) शर्मा जी आ गए। मैंने उन्हें दिया, पढ़ने के लिए। उन्होंने पढ़ा और बताया कि शुरू में थोड़ा घसीटना पड़ा लेकिन बाद में इसने ऐसा पकड़ा कि रात में दो बजे इसे खत्म करके ही सोया।’
‘इसकी प्रेरणा कहाँ से मिली?’ हमने पूछा।
‘बेल्ची कांड’ से ‘महाभोज’ की प्रेरणा मिली। तेरह हरिजनो को ज़िन्दा जला दिया गया था। एक बहुत मार्मिक रिपोर्ट छपी थी। एक भागते हुए बच्चे के बारे में लिखा था। दो रात सो नहीं पाई। उस समय यह बहुत भयंकर और बड़ी घटना थी। लिखा पर सोचा कि ये बहुत सेन्टीमेण्टल हो रहा है। इसे कोई वैचारिक आधार दिया जाना चाहिए। उसके बाद ही चुनाव था और वह आदमी जो दोषी था, वो थम्पिंग मजोरिटी से जीता। तब लगा ये क्या चुनाव प्रक्रिया है- हमारी।
ओम प्रकाश जी कबसे पीछे पड़े थे। उन्हें पहले ही वचन दिया था। उन्हें दो बार हार्ट अटैक हो चुका था। बहुत गिल्टी फील कर रही थी। एक बार जब शक्ति नगर वाले घर में आए तो मैं अचार बना रही थी। बोले, ‘अरे क्या ये सब करती रहती हो। आप तो लिखो। फिर बोले, ‘आप इनसे(अक्षर से) अपना ‘बंटी’ दिला दो फिर देखो मैं इसे कहाँ पहुंचा देता हूँ। मैं जानती थी- ये नहीं देंगे। मैंने कहा, ‘मैं आपको दूसरा लिख के दूंगी, नया उपन्यास।’ तो ये इस तरह उन्हीं को दे दिया। वो गए और दो हजार का चेक भेज दिया। मैंने वो चेक वापस भेज दिया। मैंने कहा वादा किया था तो कर दिया पैसे नहीं रखूंगी। नहीं माने उन्होंने फिर रुपए भेज दिए।
जब उन्होंने छापा तो पहली प्रति राजेन्द्रजी को दी और दूसरी कहा कि मन्नूजी को दे देना। कैसा इन्वाल्वमेन्ट था उनका! कई बार एक शब्द के करेक्शन के लिए मेरे घर तक आ जाते। एक-एक शब्द को लेके इतने परटिकुलर थे। इसे छाप के इतने खुश थे। और संयोग देखिए कि प्रति देने के बाद एक दिन बीच में गुज़रा और दूसरे दिन ओम जी खतम।…मेरा बहुत मन था कि ये सब बातें ओम जी के बारे में बताऊँ। आज भी लगता कि यदि वे ‘महाभोज’ पर हुआ नाटक देखते तो बहुत ख़ुश होते। इसके उषा गांगुली ने सौ शो किए थे। छोटी-बड़ी सब जगहों को मिलाकर। यहाँ वाला प्रोडक्शन जिसमें मनोहर सिंह बगैरह थे, अलाना ने जो किया था। वो अद्भुत था। जब अलाना ने किया तो उसने कहा, ‘मन्नूजी ये पक्का बैन हो जाएगा। इसलिए मित्रों को पहले दिन ही बुला लीजिए।
एक बार हम गए हुए थे, एनएसडी नाटक देखने। एक आदमी आया, ‘बोला अटल जी ने छ: टिकिट मंगवाए हैं।’ कहा, ‘टिकिट तो नहीं हैं, हाउसफुल है, उनसे क्षमा मांग लीजिए।’ थोड़ी देर बाद वो फिर आया, बोला ‘टिकिट मत दीजिए, ज़मीन पर बैठकर देख लेंगे। बस एन्ट्री करवा दीजिए।’ वे आए और वहीं नीचे सीढ़ी पे बैठ के नाटक देखा। अमला इसको बहुत जगह ले जाना चाहती थी पर कास्ट इतनी थी की सबको बाहर ले जाना संभव नहीं था। कन्नड़ में इसे कारन्त ने डायरेक्ट किया था।’
फिर जैसे ‘महाभोज’ में घटी घटना की पीड़ा उनके चेहरे पर उतर आई।
‘अभी कुछ लिख रही हैं?’ हमने पूछा।
वे फिर वर्तमान में लौटते हुए बोलीं। ‘अभी एक नाटक लिखा है। सोलह दिसम्बर की निर्भया वाली घटना के विरोध में इंडिया गेट पर भीड़ जुटी थी। ज्यादातर बच्चे थे। उनपर सरकार ने पानी छोड़ा। मैं रो पड़ी। ये सब अपने बच्चे हैं। वह कोई राजनीतिक भीड़ नहीं थी। स्वत:स्फूर्त भीड़ थी, कड़क सर्दी पड़ रही थी। मैंने ओम थानवी को फोन किया, पूछा ‘ये क्या हो रहा है। वे क्या मांग रहे हैं। मंत्रियों से मिलना ही तो चाहते थे। कड़े क़ानून चाहते थे।’ बहुत दुख हुआ तब एक नया नाटक लिखा। सोचा कविताओं में डॉयलॉग लिखूंगी। नाम रखा ‘उजली नगरी-चतुर राजा’- ऐसे नाटकों का सब मंचन नहीं कर सकते। वंशी कौल करते हैं, ऐसे नाटक। फिर त्रिपुरारी शर्मा को बुलाया। वो आईं। मैंने दिखाया। कहा बताओ कैसा है। अगर तुम कहोगी, तभी छपवाऊँगी। मुझे तो समझ नहीं आ रहा। बोलीं ‘मन्नूजी आपके दिमाग में ‘महाभोज’ बैठा हुआ है। यह बिलकुल उससे अलग है। तब छपने को दिया। जब दिल्ली चुनाव के रिज़ल्ट आए तो त्रिपुरारी का फोन आया, ‘मन्नूजी आपके नाटक का अन्त तो सच हो गया।’ मैंने अन्त यही लिखा था, ‘कि सिंहासन खाली करो की जनता आती है।’ पर लगता नहीं था कि ऐसा होगा। लगता था केजरीवाल कहीं हार न जाए। मैंने एक दिन एनडीटीवी वाले रवीश की रिपोर्ट देखके उसे फोन करके पूछा भी था कि ‘आप’ का क्या हाल है। उसने कहा लोग इनके पक्ष में हैं। ज्यादा राजनीति नहीं जानती पर हालात बदलने तो चाहिए।’
‘सब ‘हंस’ के बारे में पूछते हैं। जानना चाहते हैं’ सबकी मिलीजुली जिज्ञासा को हमने उनके सामने रखा।
‘ ‘हंस’ की राजेन्द्रजी ख़ुद व्यवस्था कर गए थे। टिंकू मैनेजमेन्ट देखेगी। दूसरी वीना है, बहुत विश्वसनीय है। बाकी संपादन के लिए संजय सहाय हैं। साथ में संगम पाण्डेय तो हैं ही। मैं तो बस यही चाहती हूँ। कहानियाँ महत्वपूर्ण हों, कहानीकार नहीं। कहानियों का एक स्तर हो। खराब कहानी हो तो मेरी भी न छपे।’
‘आखिरी समय में राजेन्द्रजी से क्या बातें होती थीं? क्या कहते थे?’
‘बड़ी सामान्य बातें होती थीं। कोई इन्टीमेट बात कभी नहीं होती थी। हाल-चाल पूछने भर की थी,…बस। हाँ…, मैं शब्द पूछने के लिए राजेन्द्र को फोन करती थी। किसी शब्द पर अटकती तो उनसे पूछ लेती।’ कहते हुए थोड़ा रुकी जैसे शब्द पर अटकना सिर्फ़ शब्द पर अटकना न हो कुछ और हो। ‘फिर बोलीं अभी एक दिन रचना का फोन आया किसी शब्द की हिन्दी के लिए। मैंने कुछ बताया। उसने कहा नहीं, ‘ये नहीं।’ एक दम मन में आया। राजेन्द्र होते तो फोन करके पूछ लेती।’
‘मिस करती हैं?’
एक लम्बी साँस लेके बोलीं, ‘अब दिमाग ऐसा हो गया है कि किसी को मिस नहीं करती। कभी मन में नहीं आया कि कहूँ वापस आ जाओ। मैं इतने तनाव में रही कि बाद में फिर एकदम रिलैक्स हो गई। टेंशन की वजह से न्युरेल्जिया की शिकायत हो गई। उसके लिए सेडेटिव खा-खा के दिमाग एकदम ऐसा कि कुछ याद नहीं रहता। रात पड़ती हूँ-सुबह भूल जाती हूँ। राजेन्द्र को उनकी एक ही बात के लिए याद करती हूँ। राजेन्द्र लड़ते थे पर संबंध तोड़ते कभी नहीं थे।’
बाहर रात का अंधेरा बढ़ गया था। सर्द हवा सन्धों से भीतर आ रही थी। भीतर के किसी दर्द को टटोलती हुई बोलीं, ‘देखिए ये सब भी कब तक याद रहता है।’
थोड़ी देर कमरे में ख़ामोशी रही फिर हम विदा लेकर बाहर आ गए। बाहर हवाएं हमारी सोच से भी ज्यादा ठण्डी थीं। पर कृत्रिम रोशनियों से अंधेरा थोड़ा कम लग रहा था। संजीव जी उदास हो गए थे। बोले, ‘बहुत देर हो गई,…और अंधेरा भी बहुत हो गया।’ चारों तरफ़ ट्यूब लाइट्स जल रहीं थीं। वे पता नहीं किस अंधेरे को देख रहे थे। आज इतने दिनों बाद इस इन्टरव्यू को जब मैं लिख रहा हूँ तो इस बीच काफ़ी कुछ बदल गया है। पर कुछ बातें कभी नहीं बदलतीं। और मुझे लगता है जो लोग यादों को जस का तस सुनना, पढ़ना चाहते हैं, मैं यह उन्हीं के लिए लिख रहा हूँ…
विवेक मिश्र, 123-सी, पॉकेट-सी, मयूर विहार फेस-2, दिल्ली-91
मो-09810853128/7042628476 vivek_space@yahoo.com
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००
11 टिप्पणियाँ
ओह कितना अपनत्व भरा इंटरव्यू.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया।
हटाएंबहुत अच्छा इंटरव्यू।
जवाब देंहटाएंआपने लिखा भी बेहतरीन।
याद रहेगा।
शुक्रिया
हटाएंआज के आधुनिक सोशल मीडिया के ज़माने में जहां लोग 15-20 सेकेंड की रील देखने में बोरियत महसूस करने लगते हैं ...शॉर्ट लिखावट के चलन के बीच जब मैने विख्यात मन्नू जी के साथ आपका यह मनमोहक साक्षात्कार पढ़ना शुरू किया तो पता नहीं मैं किस मधुर वैचारिक दुनियां में चली गई और लगातार पढ़ती चली गई.... शायद आपके लिखते समय मां सरस्वती के आशीर्वाद से कोई सम्मोहन शक्ति आ गई होगी तभी ऐसा हुआ है.... सादर धन्यवाद यह साझा करने के लिए 🙏🏻
जवाब देंहटाएंराविका खरे
बुन्देलीSpirit
झांसी बुंदेलखंड
शुक्रिया
हटाएंपढ़ लिया , अभिभूत हूँ, यह साक्षात्कार नही था यह एक आत्मीय मुलाक़ात थी जिसमें मनु जी ने आपके सामने अपना मन खोलकर रख दिया। अभी कितना कुछ अपने साथ ले गयी होंगी। कितना कुछ पूछना सुनना बाकी रह गया होगा।
जवाब देंहटाएंएक अच्छे संस्मरण को पढ़वाने का शुक्रिया
शुक्रिया
हटाएंबहुत अच्छा,सहज, सरल साक्षात्कार
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंबहुत अच्छा इंटरव्यू
जवाब देंहटाएं