कस्मै देवाय हविषा विधेम: विजय पण्डित की संवेदनशील कहानी | Shabdankan

विशाख ने गंगा की लहरों में अम्मा को सौंप दिया, पर स्मृतियों की धाराएँ अब भी मन के तटों से टकरा रही थीं।
प्रस्तुति के शब्दों ने तर्क दिया, मगर विशाख की आँखों में सिर्फ़ एक प्रश्न रह गया—क्या अम्मा की इच्छा हमने कभी सुनी थी? पढ़ें विजय पंडित की संवेदनशील कहानी ~ सं0 

गंगा नदी के किनारे तैरता एक ताम्र-कलश, दूर रेत पर खड़ी एक स्त्री। विजय पंडित की संवेदनशील कहानी 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' का पोस्टर, शब्दांकन द्वारा प्रस्तुत।
कस्मै देवाय हविषा विधेम – विजय पंडित | शब्दांकन



कस्मै देवाय हविषा विधेम

विजय पण्डित 

वाराणसी जनपद (अब संत रविदासनगर) के जगन्नाथपुर गाँव में जन्म। प्राथमिक शिक्षा गाँव के सरकारी प्रायमरी स्कूल में। उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय और भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ। / कृतियाँ: रंगमंच और स्वाधीनता आन्दोलन, वाणी प्रकाशन, लोकनाट्य नौटंकी, उप्र संगीत नाटक अकादमी, पिस्तौल-नाटक, रचनाकार प्रकाशन, पूर्ण पुरुष- नाटक, वाणी प्रकाशन, सुनें छत्रपति – नाटक, ट्रू साइन पब्लिशिंग हाउस /मंचन -निर्देशन: पूरे देश में १०० से अधिक नाटकों का निर्देशन और मंचन फिल्म और धारावाहिक: ३० से अधिक फिल्म और धारावाहिक का लेखन सम्मान /पुरस्कार /फेलोशिप: पुर्तगाली कवि फेर्नांदो पेसोवा की डायरी पर लिखे फिल्म ‘अदिति सिंह’ का कांस फिल्म फेस्टिवल , फ्रांस में प्रदर्शन। लिखित फिल्म ‘जोसेफ बॉर्न इन ग्रेस’ का ऑस्कर पुरस्कार हेतु एलिजिबिल केटेगरी में नामांकन। फिल्म ‘जोसेफ बॉर्न इन ग्रेस’ को ओंटोरियो फिल्म फेस्टिवल में लेखन के लिए पुरस्कार। उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा रंगमंच और स्वाधीनता आन्दोलन विषय पर फेलोशिप, भारत सरकार के सांस्कृतिक कार्य विभाग द्वारा द्वारा नौटंकी के अध्ययन हेतु फेलोशिप। दिल्ली सरकार के ‘साहित्य कला परिषद्’ द्वारा नाटक ‘पूर्ण पुरुष’ को मोहन राकेश सम्मान, २००४। उत्तर प्रदेश साहित्य सम्मलेन सम्मान , प्रयागराज। पद्मश्री गुलाबबाई सम्मान , कानपुर। निराला साहित्य संगीत अकादमी सम्मान, उन्नाव। अभिनंदिका आर्ट फॉर टेलीविज़न एंड थिएटर , पुरी, ओड़िसा। डॉ सुरेश चन्द्र अवस्थी सम्मान, लोक नाट्य हेतु, लखनऊ। नाटककार ज्ञानदेव अग्निहोत्री सम्मान। उर्मिल कुमार थपलियाल सम्मान, लखनऊ। संपर्क: बी -101 एक्मे एन्क्लेव, वासरी हिल, मलाड(प), मुंबई 400064 मो० 9821122770 ईमेल: vijaypundit@gmail.com 




यावदस्थीनि गंगायां तिष्ठन्ति पुरुषस्य तु। 
तावद् वर्ष सहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते। । 

बुदबुदाते हुए विशाख ने कलश की अस्थियों को संगम में समर्पित कर दिया। दूर रेत पर खड़ी प्रस्तुति कलश से निकलती राख को उड़ते हुए, गंगा-जल में तैरते और विलीन होते देखती रही। पता नहीं उसने महसूस किया या नहीं लेकिन गंगा के उच्छल तरंगों पर नृत्यरत भस्म को देखते हुए विशाख को लगा जैसे एक भरा-पूरा जीवन कुछ क्षण के लिए फिर से जी उठा हो और उल्लास से नाचते हुए फिर आने की लालसा के साथ स्वयं को इस अनंत प्रवाह में समाहित कर लिया है। 

यह देखकर रिक्त ताम्र-कलश ने भी निश्चिंत-मना होकर खुद को गंगा की लहरों के भरोसे छोड़ दिया। थोडी देर डब-डब की आवाज हुई और कलश भी अस्थियों की राह चला गया। उसके डूबने के साथ ही विशाख उस संवेदना-सूत्र की अंतिम भौतिक कड़ी से भी मुक्त हो गया, जिससे वो इतने सालों से बंधा हुआ था। 

अब अम्मा के लिए जो भी शेष बचेगा, केवल स्मृतियाँ ही होंगी। 

नाव से उतरकर विशाख प्रस्तुति के साथ रेत पर चला जा रहा था। दोनो मौन थे। 

‘तुम्हे आना चाहिए था नाव पर मेरे साथ, कम से कम एक बार हाथ ही लगा देती कलश को।’ 

विशाख मौन भंग करते हुए भरे मन से बोल रहा था। 

‘तुम तो थे ही न, और तुम जानते हो कि तुम में मेरा मैं सदैव शामिल रहता है। दुनिया जानती है कि तुम अम्मा की संतान नहीं थे, लेकिन संतान से बढ़ कर थे।’ 

प्रस्तुति उसे कन्विंस करने की कोशिश कर रही है। 

‘चुप रहो। हर बार की तरह का तुम्हारा वही शब्दजाल। जिस काम को तुम करना नहीं चाहती, ऐसे ही बोलती हो कि तुम में मैं भी शामिल हूँ। हद है यार। मैं जानता हूँ कि तुम क्यों दूर रही। तुम्हे इन रिचुअल्स में बिलकुल विश्वास जो नहीं है।’ 

‘हाँ, हम सब नहीं चाहते थे कि ये सब हो। यहाँ तक कि पापा भी नहीं चाहते थे।’ 

‘लेकिन मैं चाहता था अम्मा के लिए, इसलिए।’ 

‘क्या तुमने अम्मा के भी मन की बात कभी जानने की कोशिश की कि वो क्या चाहती थीं?’

प्रस्तुति ने प्रतिवाद किया। 

विशाख सन्न होकर प्रस्तुति को देखता रहा। 

'और तुम लोग? तुम लोगों ने अम्मा के मन को कौन सा पढ़ लिया था? हो सकता है उनकी भी कुछ इच्छा रही हो जिसे कभी सुना ही न गया हो और तुम स्त्री-अभिव्यक्ति और स्वतन्त्रता की बात करती हो।’ 

विशाख आवेश में सुनाना तो बहुत कुछ चाहता था लेकिन खुद को रोक लिया। 

‘चलो कुछ देर बैठते है। अभी घर चलने का मन नहीं है।’ प्रस्तुति ने आग्रह किया। 

विशाख कंधे पर डाले हुए अंगोछे को बिछाने लगा पर प्रस्तुति ने रोकते हुए कहा, 
‘ठीक तो है, ऐसे ही बैठते हैं न। रेत कितना अच्छा लग रहा है न।’ 

‘हुंह, रेत अच्छा लगता है! मैं तो बस तुम्हारे लिए बिछा रहा था। मुझसे ज्यादा तुम रेत को कहाँ समझ पायी होगी। कितने सालों से माघ मेले में नंगे पैर घूमता रहा हूँ। तुम तो इधर कभी झाँकने भी नहीं आई होगी।’ 

‘तुम मुक्ति की कामना में आते होगे और मेरी ऐसी कामना कभी नहीं रही।’ 

प्रस्तुति ने विशाख को चिढ़ाने की कोशिश की। 

‘मुक्ति और निर्वाण को तो छोड़ो, कम से कम तुम रेत को महसूस करने तो आ ही सकती थी। गंगा को न सही, एक बहती हुई नदी को देखने का भी कभी सुख नहीं लिया गया तुमसे। वही दुराग्रह कि धर्म से जुड़ा है।’ 

विशाख थोड़ा कठोर होते हुए बोला। 

‘दुराग्रह के स्थान पर आग्रह शब्द का प्रयोग करते तो कितना अच्छा होता। हाँ, इस तरह केन और घाघरा नदियों की भी तारीफ कर देते। केदार बाबू ने केन को लेकर कितनी ही कवितायें लिखी हैं। उनकी रेत वाली कविता तो कुछ-कुछ मुझे भी याद है। 

दोनों हाथों में रेती है, 
नीचे, अगल-बगल रेती है। 
रेती पर ही पाँव पसारे
बैठा हूँ इस केन किनारे। 

‘फिर वही तंज। तुम लोग कभी भी कुछ नहीं समझ पाओगे। गंगा की बात इसलिए कर रहा हूँ कि इसी शहर में है, दारागंज की कुछ दूरी पर तुम्हारे घर के पास। जो घर के सामने की प्रकृति को देख नहीं सकता वह केन, घाघरा और गंडक जायेगा? हरदम एक ही चश्मा लगा रहता है।’ 

‘लेकिन जो भी चश्मा लगा रहता है, उसका नंबर एकदम ठीक है। सब कुछ साफ दिखलाई पड़ता है। बाक़ी लोग तो सब कुछ देख कर भी अनजान बने रहते हैं।’ 

प्रस्तुति मुट्ठी में भरी रेत को हवा के रुख की ओर छोड़ती रही। 

‘बस, हरदम वही बात। तुम तो हर शिकायत मुझ से इस तरह करती हो जैसे देश में घट रही अतिवाद के लिए मैं ही जिम्मेदार हूँ। मैं अंधा नहीं हूँ। सब कुछ मैं भी जानता समझता हूँ। हमारी लड़ाई उनसे भी है। चलो घर चलते हैं। बहुत से कॉमरेड घर पर आए होंगे आज भी। बवाल मचा होगा अस्थि विसर्जन को लेकर। सब इंतजार कर रहे होंगे।’ 

प्रस्तुति बिना बहस किए उठ गयी। 

‘लेकिन हाँ, चलने के पहले नहाना भी पड़ेगा।’ विशाख ने टोका। 

‘कोई जरूरी है यहाँ नहाऊँ? घर पहुंच कर भी तो नहा सकते हैं?’ प्रस्तुति ने प्रतिवाद किया। 

‘वैसे तो हम अस्थिफूल को घर में भी बिखेर सकते थे।’ इस बार विशाख कुछ अधिक ही तीखा बोल गया। 

‘अब तुम्हारे कुतर्क के आगे कौन तर्क करे, बोलो क्या करना है?’ 

‘बस एक डुबकी लगानी है सामने जो नदी दीख रही है। हाँ, मैं नहीं बोलूँगा कि गंगा में डुबकी लगाओ। स्नान के बाद तन-मन सब सात्विक हो जाता है।’ 

‘सात्विक? ’ये अपने आप में ही कितना शुद्धतावादी लगता है। विशिष्टता बोधक। कहीं से भी जनवादी नहीं। 

‘कोई बात नहीं, यह मान कर चलो कि तुम्हारा तन-मन सब तामसिक हो जाएगा।’ 

हँसते हुए विशाख बोला। 

‘लेकिन मैं तो बदलने के किए कपड़े लाई ही नहीं, सोचा भी नहीं था कि नहाना पड़ेगा।’ 

‘मुझे पता था। तुम न नहाने के बहाने बनाओगी। इसीलिए मैंने तुम्हारे कपड़े पहले से ही रखवा लिये थे। मेरे झोले में पड़े हैं।’ 

‘लेकिन मैं बदलूंगी कहाँ?’

‘मेरा अंगोछा है न। काफी बड़ा है, यह लुंगी का भी काम करता है। घेरे बंदी कर के चेंज कर लेना।’ 

‘लेकिन कितने तो लोग है आस पास, देखो।’ 

‘यहाँ किसी के बारे में कोई परवाह नहीं करता। कोई किसी पर ध्यान नहीं देता कि कौन क्या कर रहा है। बस स्नान को महसूस करने की कोशिश करना। वैसे भी वीमेन लिब का दौर है- ‘थ्रो ब्रा इन द स्काई।’ 

‘जस्ट शट अप। तुम्हारे जैसे आधी लिबरल प्रजाति के लोग भी न, किसी वाद के नहीं होते। न इधर के न उधर के, किसी पर भी स्टैंड क्लियर नहीं रहता। आधे प्रोग्रेसिव और आधे पुरातन पंथी।’ 

प्रस्तुति अनजाने में ब्लंट हो गई। 

‘सब देश-काल और परिस्थिति सापेक्ष होता है प्रस्तुति और तुम लोग उसको ही नहीं समझना चाहते। हम किसी लकीर पर चिपके नहीं रह सकते कि इसी से क्रांति होगी, परिवर्तन होगा। और क्रांतियों की दशा तो देख ही चुकी हो। सभी क्रांतिकारी पार्टियों से मोहभंग होता गया है जनता का। हिंदुस्तान में लेफ्ट मूवमेण्ट का हाल किसी से छिपा नहीं है। 

विशाख की तिलमिलाहट साफ़ दिख रही थी। 

‘और तुम लोग लेफ्ट के सिद्धान्त को न तो पूर्णता में पढ़ना चाहते हो और न ही समझना चाहते हो। बस सब सुनी-सुनाई बातें और उस पर भी कुछ बोलो तो कुतर्क।’ 

‘पता है लेफ्ट से भयंकर भूल क्या हुई?’- विशाख के चेहरे पर गंभीरता के भाव थे। 

‘क्या?’ 

‘उन लोगों ने भारतीय परम्परा और संस्कृति को संप्रदाय मान लिया।’ 

प्रस्तुति अवाक रह गयी। इसका कोई उत्तर नहीं था उसके पास। उस ने हथियार डाल दिये। 

अब दोनों चुप थे। इसी चुप्पी में वे संगम के किनारे आ गए थे। 

‘अब बोलो जल्दी से, क्या करना है? अरे हाँ, वहाँ किनारे तो देखो क्या लिखा है- गंगे तव दर्शनात् मुक्ति:। तुम तो संस्कृत भी जानते हो। 

‘तुम जैसे लोगों को केवल देखने से मुक्ति नहीं मिलेगी। ये उनके लिए है जिनमें आस्था होती है।’ 

विशाख और प्रस्तुति दोनों अब सहज हो गंगा में धंसते जा रहे थे। 

‘एक बात समझ लो। मैं अपने धर्म में व्याप्त आडंबरों, अंधविश्वासों और कुरीतियों का समर्थन कदापि नहीं कर रहा लेकिन इन आख्यानों को बहुत सतही ढंग से नहीं समझा जा सकता।’ 

‘उसी तरह से जैसे वाम को सतही ढंग से नहीं समझा जा सकता।’ 

‘लेकिन जल को तो नहा कर ही समझा जा सकता है।’ 

कहते हुए विशाख ने प्रस्तुति को गंगा में धक्का दे दिया। 

‘यू चीटर, कितना ठंडा पानी है।’ प्रस्तुति झूठमूठ गुस्साते हुए चीख पड़ी। 

‘केवल घुसते ही लगेगा, बस।’ कहते हुए विशाख ने भी गंगा में छलांग लगा दी। 

अम्मा के न रहने पर इलाहाबाद का घर अब एकदम सूना हो गया था। 

सब कुछ अचानक हुआ था। चाय बनाते समय साड़ी ने आग पकड़ ली थी, दो दिन वे हॉस्पिटल में रही और चटपट सब खत्म हो गया। प्रस्तुति दिल्ली से भाग कर आई, पर पापा इलाहाबाद से काफी दूर थे तो उन्हें आने में वक़्त लगा। विशाख ने ही अपने मित्रों के साथ घर-हॉस्पिटल का सब कुछ किया और प्रस्तुति के साथ अंतिम संस्कार भी। त्रयोदशाह तो हुआ नहीं, लेकिन तीन दिन के बाद विशाख ने हवन और शांतिपाठ रखा। एक-एक कर रिश्ते-नातेदार और पापा के संगी-साथी सब जा चुके थे और अब वे एकदम अकेले रह गये थे। 

प्रस्तुति, जो उन लोगों की बेटी-बेटा सब कुछ थी, को पता था कि उसकी अनुपस्थिति में विशाख ही इन दोनों का सब कुछ है। कभी-कभी वह सोचती भी कि आखिर कौन सा रिश्ता है, जो विशाख को अम्मा-पापा से जोड़े हुए है। क्या वह खुद है इसके मूल में जिसके कारण विशाख उन दोनों का इतना ख्याल रखता है? लेकिन उस से तो अब महीनों-महीनों बात भी नहीं होती। शायद बात ये हो कि एक अंतराल के बाद उसके और विशाख के सोचने की दिशा बदल गयी हो और उसने तो भी कभी यह महसूस नहीं करने दिया कि मेरे कारण अम्मा-पापा का ध्यान रखता है। 

नितांत सूने घर में निविड़ निस्तब्धता पसरी है। पहले अम्मा की उपस्थिति मात्र से पूरे घर में आलोक भरा रहता था। आज खिड़कियां खुली हुई हैं फिर भी लगता है सूर्य सदा के लिए अस्ताचल की ओर चला गया है। आँखें सुखाती प्रस्तुति उसी खिड़की पर बैठ गयी जहाँ से वो सड़क दिखलाई पड़ती थी जो सीधे दारागंज के अड्डे तक जाती थी। उसी अड्डे तक जहाँ निराला की मूर्ति है। अतीत आँखों के सामने टुकड़े–टुकड़े में घूम गया उसके। दृश्यों के कोलाज की तरह। जब कभी वे दोनों क्लास ब्रेक में मिलते थे। 

‘अच्छा एक बात बताओ?’ 

‘पूछो।’ 

‘तुम्हारा प्रस्तुति नाम कैसे पड़ा?’ 

‘तुमको अंग्रेजी में समझाएँ कि संस्कृत में? अँग्रेजी में तो वैसे ही फीस माफ है तुम्हारी।’ 

प्रस्तुति चिढ़ाते हुए खिलखिला पड़ी। 

‘तुम संस्कृत में ही समझा दो। देखते हैं तुमने कितना संस्कृत में फीस जमा की हो।’ 

संस्कृत के नाम पर चुप्पी साध ली प्रस्तुति ने, वो जानती थी कि उसे विसर्ग और हलंत भी प्रयोग करने नहीं आता। 

‘दरअसल अम्मा-पापा उन दिनों नुक्कड़ नाटक करते थे और जब भी रिहर्सल होती थी तो कहते थे कि प्रस्तुति में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। बस, जब मैं हुई तो ‘प्रस्तुति’ नाम रखा गया। पूरे यूनिवर्सिटी में केवल मेरा ही नाम है।’ प्रस्तुति ने गर्वान्वित होते हुए बताया। 

‘लेकिन तुम अचानक नाम के पीछे क्यों पड़ गए?’ 

‘यार! प्रस्तुति बोलने में कितना कठिन लगता है न, इसलिए मेरे मन में कई दिन से हो रहा था कि मैं तुझे परसूती कह कर पुकारूँ। प्रसूति का तद्भव है। तुमने तो देखा ही होगा प्रसूति रोग विशेषज्ञ लिखा रहता है बोर्डों पर।’ 

ठहाका लगाते हुए विशाख दौड़ गया। और प्रस्तुति उसके पीछे-पीछे। दौड़ कर पीछे से पकड़ लिया। 

‘बहुत मज़ा आ रहा है न। अपना भी बता दो कि नाम कैसे पड़ा।’ 

‘पिताजी ने रखा। विशाखा नक्षत्र में पैदा हुआ था न।’ 

‘और मेरे मन में हो रहा है कि..’ 

‘क्या?’ 

‘कि तुम्हें पुकारूँ ssssss वैशाख नन्दन’।

कहते हुए प्रस्तुति ज़ोर से हंस पड़ी। 

छत पर बैठे हुए प्रस्तुति की हथेलियाँ विशाख के हाथों में थीं। 

‘क्या सोच रहे हो?’

विशाख आँख मूंदे मौन था, कोई जवाब नहीं। 

‘केदारनाथ सिंह की कविता कि दुनिया को तुम्हारी हथेलियों की तरह नर्म और मुलायम होनी चाहिए।’ 

कुछ देर बाद विशाख का जवाब आया और प्रस्तुति की वहीं चीर परिचित खिलखिलाहट। 

‘उस लड़की की हथेलियां मुलायम रही होंगी जिसे उन्होने अपने हाथों में लिया होगा। अगर गलती से मेरा हाथ उनके हाथों में होता तो वे कभी न लिखते। अब मेरी हथेलियाँ वैसी नहीं हैं तो क्या करूँ। मैंने तो जीवन में क्रीम शब्द का बोलने में भी कभी इस्तेमाल नहीं किया।’ 

‘नारियल का तेल’। विशाख बात काटते हुए शरारत से बोला। 

‘तुम्हारा मल्टी-परपज क्रीम। उसी से तुम्हारा सब काम हो जाता है, सिर, शरीर और चेहरा। यही कहना चाहती हो न तुम?’

प्रस्तुति मुस्कुरा कर रह गयी। 

‘मैं भी न, सब कुछ बता देती हूँ। पता है स्त्रियों का सबसे बड़ा जादू होता है उसका रहस्य। वे अपने सभी रहस्य नहीं खोलतीं। हरदम कुछ न कुछ शेष रखती है, सब कुछ खोलने के बाद भी। और ये रहस्य बना रहना चाहिए लेकिन एक मैं हूँ, तुमसे कुछ भी छुपा नहीं पाती। पता नहीं कौन सी कमज़ोरी है मेरी।’ 

‘यही प्रेम है प्रस्तुति।’ विशाख ने समाधान किया था। 

बाबू जी के छत पर आने की आहट से दोनों की तन्द्रा टूटी। 

अतीत के समय के वे टुकड़े धुएं की मानिंद उड़ चुके थे। 

‘कुछ चाय वगैरह पी लो तुम लोग’ पापा ने टोका। 

‘इसने तो खाना-पीना सब कुछ छोड़ रखा है पापा। अम्मा का दुलरुवा था न। पता नहीं अम्मा क्या देखतीं थी इसमें। जबकि जिस तेवर की माँ थीं, उससे इसका दूर-दूर से कोई रिश्ता नहीं था। और वहीं मैं, जो कि पैदा होते ही आपके नक़्शे कदम पर चल पड़ी थी, अम्मा ने कभी इसके आगे मुझे प्रायोरिटी ही नहीं दी।’ 

‘पर इसके लिए भी तो वो नहीं रुकीं।’ 

पापा का गला रुँध रहा था, फिर भी अपने को संभाल रहे थे, इस तरह कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। 

अम्मा और पापा दोनों ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। पापा प्रोग्रेसिव स्टूडेंट आर्गनाइजेशन के होलटाइमर। ऑफिस में ही रहते-सोते-बिछाते। उस वर्ष छात्र संघ के अध्यक्ष पद के लिए खड़े थे। प्रत्याशियों को चुनाव से पहले छात्र संघ भवन की छत से विद्यार्थियों को सम्बोधित करने का मौका मिलता था। पापा ने उस दिन समां बांध दिया था। ए.बी.वी.पी., एन.एस.यू.आई, यहाँ तक कि एस.एफ.आई. आदि सभी के प्रतिनिधियों पर भारी पड़े थे वे। 

अम्मा से उनकी चुनाव के दौरान ही मुलाकात हुई थी। पापा की वे मुरीद हो गयीं थीं। मेधावी थे पापा। किसी भी विषय पर धारा प्रवाह बोल सकते थे। उस दिन उनको लगा था कि सच में दुनिया को बदलने की ज़रूरत है और दुनिया को पापा के साथ ही मिल कर ही बदला जा सकता है। 

शादी के बाद भी पापा जीवन भर पक्के कॉमरेड रहे। युनिवर्सिटी से निकलने के बाद खुद संगठन के होलटाइमर बने रहना चाहते थे और अम्मा के लिए सोचते थे कि घर संभाले। लेकिन संकट हुआ प्रस्तुति के पैदा होने के बाद। घर में बैठ कर भी कहीं घर संभलता है? दैनिक जीवन की कितने ही ज़रूरतें। खर्च कैसे संभले? पापा को अपने सम्मेलनों और मीटिंग से फुरसत नहीं मिलती। कभी यहाँ, कभी वहां, अम्मा ने एक समय बाद उनके साथ जाना भी छोड़ दिया था और अंत में उन्हें विश्वविद्यालय में ही नौकरी मिल गयी। 

विशाख और प्रस्तुति दोनों अम्मा के स्टूडेंट थे, दोनों मेधावी। दोनों एक साथ ग्रेजुएट हुए। प्रस्तुति आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली गयी। विशाख ने यहीं पर पोस्ट ग्रेजुएशन किया और फिर सोशियोलॉजी में रिसर्च करने लगा। 

विशाख प्रस्तुति के न रहने पर अम्मा-पापा का ध्यान रखता। विशाख के रूप में अम्मा को जैसे उनका बेटा मिल गया हो। 

‘विशाख तुम्हारी और प्रस्तुति की जोड़ी खूब जमेगी। कितना अच्छा होता तुम दोनों शादी कर लेते।’ 

अम्मा कहतीं और विशाख मुस्कुरा देता। 

‘अम्मा, प्रस्तुति रहती है दिल्ली में और मैं इलाहाबाद में। अब वो यहाँ लौट कर आएगी नहीं और मैं दिल्ली जाऊँगा नहीं। बस मामला खत्म। दिल्ली-इलाहाबाद में वैचारिक दूरी भी है। अपना इलाहाबाद अब भी मौलिक है, मस्त-मौला। हम अब भी हवाई चप्पल पहन कर विश्वविद्यालय चले जाते हैं और वहीं पर दिल्ली बहुत ही बनावटी। गया था एक बार, जी भर गया वहाँ के लोगों से। वही जोड़ घटाना।’ 

विशाख अम्मा को समझाने के बहाने स्वयं को भी समझा रहा था। 

‘अरे ऐसा हैं क्या?’ अम्मा पूछ बैठी। 

‘तुम तो जानती ही हो दिल्ली से ही देश की राजनीति तय होती है और अब तो साहित्य-कला और संस्कृति के मठाधीश दिल्ली में ही रहते। इलाहाबाद का गढ़ अब कमजोर हो गया है। सब दिल्ली-लखनऊ भाग रहे और प्रस्तुति अब दिल्ली की हो गयी है। 

‘अच्छा एक बात बताओ, अगर वो तैयार हो जाती है तो?’

‘अब वह पहले वाली प्रस्तुति नहीं रह गयी है अम्मा और न ही मैं पहले वाला विशाख। इस रिश्ते में अब वो जादू नहीं रहा। समय और विचार में परिवर्तन के साथ प्रेम भी छीजता जाता है। हम दोनों के बीच ऐसा अब कुछ नहीं दिखता जिससे इस तरह का कोई निर्णय ले सकें। उसका मुझसे जो सूत्र बंधा है वो शायद आप और पापा के कारण है। बस आप लोगों के शरीर तक ही सब कुछ है।’ 

और अब तो अम्मा ने अपना शरीर भी छोड़ दिया। एकांत में बैठा विशाख अतीत के उन अलिखित पन्नों को पलट रहा था। तब तक प्रस्तुति चाय लेकर आ गयी। 

‘लो ट्रे पकड़ो, कुछ खाने के लिए लाती हूँ। हाँ, तब तक ये भी सोचे रहना कि आगे क्या करना है?’

थोड़ी देर में प्रस्तुति कुछ मठरियाँ लेकर आ गयी। 

‘क्या सोचा?’ 

‘कुछ दिनों के लिए इलाहाबाद छोड़ कर कहीं जाना चाहता हूँ। मन ठीक नहीं।’ 

‘दिल्ली चलो, पापा को भी साथ लेते चलते हैं।’ 

‘एक बार पापा से पूछ तो लेती कि वो कहीं जाना चाहते हैं कि नहीं।’ 

‘मुझे पता है पापा मना नहीं करेंगे और वह भी इसलिए कि अम्मा के बिना उन्हें इलाहाबाद अब काटने को दौड़ेगा।’ 

‘फिर भी पूछना चाहिए कि उनका मन क्या कहता है।’ 

पापा तब तक आ गए थे। 

‘क्या बात हो रही थी?’ 

‘मैं तो इस से कह रही थी कि दिल्ली चलो। पापा तुम भी चले चलो।’ 

‘क्या बोलते हो विशाख?’

पापा ने विशाख का मन टटोलते हुए पूछा। 

‘पापा, आप गाँव चलेंगे।’ विशाख का प्रतिप्रश्न था। 

‘हाँ।’ 

प्रस्तुति पापा का जवाब सुनकर अवाक रह गयी। 

‘आप रह पाएंगे गाँव में?’

‘हाँ, अभी तक पार्टी के कामों से शहरों में ही घूमता रहा। गाँव के बारे में हम लोगों ने कभी सोचा नहीं। अब लगता है बहुत कुछ छूट गया जो छूटना नहीं चाहिए था।’ 

‘पापा लेकिन आपने बहुत देर कर दी’- विशाख ने दीर्घ श्वास लेते हुए कहा। 

‘मुझे पता है। चलो तुम लोग चाय पी कर तैयार हो जाओ। मैं भी तैयारी कर लेता हूँ निकलने की।’ 

पापा के जाने के बाद प्रस्तुति बोल पड़ी। 

‘तुम क्या बोल रहे थे कि पापा ने देर कर दी और दिल्ली जाने के लिए उनके मन की बात जान लो।’ 

‘हाँ ठीक ही बोल रहा था। इसलिए कि आज लग रहा है कि मैं अम्मा से कभी खुल कर बात क्यों नहीं कर सका। वो अवसाद ग्रस्त थीं और इस बात को मैं समझ नहीं पाया, तुम और पापा भी नहीं समझ पाये। जो अपनी युवावस्था में इतनी क्रांतिकारी थीं, इतनी कुंठा में क्यों जी रही हैं, उनकी मनःस्थिति को मैं डिकोड क्यों नहीं कर पाया?’

‘विशाख तुम कहना क्या चाहते हो?’

‘अम्मा की साड़ी में आग नहीं लगी थी प्रस्तुति। कोई दुर्घटना नहीं थी वो, सुसाइड किया था उन्होंने।’ 

‘विशाख!!! क्या???’ 

अचानक प्रस्तुति की जुबान तालू से चिपक गयी, उसकी आवाज़ नहीं निकल पा रही थी। 

‘हाँ, यही सच है। इस जीवन से उनका मोह भंग हो गया था। वो सहज भाव से उत्सव-त्योहारों का आनंद लेना चाहती थीं जिसके लिए पापा राज़ी नहीं होते थे। अम्मा गंगा नहाना चाहती थीं, मेले-ठेले में जाना चाहती थीं। लेकिन पापा इसके पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि कोई देख लेगा तो उन्हें रूढ़िवादी कहेगा। वे प्रगतिशील होते हुए भी जीवन के हर रंग को सहज ढंग से खुल कर जीने की पक्षधर थीं। पापा के जबरिया बंधनों में घुट कर उनका मन मर गया और एक दिन वो भी।’ 

‘क्या बकवास कर रहे हो? कोई आधार है इस सब का? 

प्रस्तुति इस सब को विशाख की वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रलाप समझ कर तिक्त हो गई। 

‘समय मिले तो इसे पढ़ लेना। सब कुछ लिखा है उन्होंने।’ 

बोलते हुए विशाख ने अम्मा की डायरी बढ़ा दी। 

डायरी पढ़ते हुए हाथ काँप रहे थे प्रस्तुति के, खुद को संभाल नहीं पा रही थी वो। उसे लग रहा था कि वह चक्कर खाकर गिर जाएगी। आँखें डबडबा गईं उसकी। 

‘विशाख, तो उन्हें रोका कौन था? हम लोगों से शेयर तो कर सकती थीं। हमारे इस घर में पापा ने पहली बात यही तो सिखाया था, बोलने की आज़ादी, अपने निर्णय की आज़ादी। यह बात तुम भी जानते हो।’ 

‘पर तुम अच्छी तरह जानती हो कि एक समय के बाद इन सबके रास्ते बंद हो जाते है। हम यथास्थिति वादी हो जाते हैं। हम केवल यही सोचते रह जाते हैं कि सब कुछ ठीक चल रहा है, जबकि ठीक नहीं चलता रहता। समय के साथ बहुत कुछ बदलता जाता है। लेकिन इस बदलाव को न तो हम देख पाते हैं और न ही कोई और। हाँ, एक बात ये भी समझ लो, वाम और दक्षिण का अर्थ कदापि नहीं होता कि हम अपनी जड़ों से कट जाएँ। ज़मीन पर पैर रखे रहना ज़रूरी होता है। हाँ, पाखंड, दकियानूसी और अंध विश्वास से मुक्ति के लिए ही हम शिक्षित होते हैं और हमारी लड़ाई इसके खिलाफ आजीवन रहेगी।’ 

‘विशाख, एक सवाल पूछूं?’

‘तुम मुझसे जीवन भर सवाल पूछ सकती हो। कहीं भी रहो, मैं उत्तर दूंगा।’ 

‘छोड़ो रहने दो।’ 

‘पूछो भी। 

‘अभी नहीं। 

‘लो, ये क्या बात हुई? तुम्हारी आदत है इसी तरह अधर मे बात लटका कर छोड़ने की। अभी बोल दो नहीं तो अम्मा जैसी स्थिति हो जाएगी।’ 

‘अम्मा ने एक सपना देखा था लेकिन उस समय मैं ही मानसिक रूप से स्पष्ट नहीं थी कि उनको आश्वस्त कर सकती।’ 

‘अम्मा का सपना मेरा भी सपना बन गया था और उस सपने को मैं दिन में भी खुली आँखों से भी देखा करता था। लेकिन समय के साथ वो सपना यथार्थ के प्रहार से तिरोहित हो गया।’ 

‘सपने तो फिर से देखे जा सकते हैं विशाख!’ 

‘हाँ, सपने फिर से देखे जा सकते हैं। शायद गाँव के एकांत में सपनों को यथार्थ का धरातल मिले। नवारम्भ के लिए हम दोनों को अपनी ज़मीन की प्रजाति को फिर से चीह्नने-पहचानने की जरूरत है प्रस्तुति।’ 

प्रस्तुति अतीत में खो गयी। 

‘क्या अब भी विशाख को अपनी और मेरी ज़मीन की प्रजाति को चीन्हने-पहचानने की जरूरत है? मैं तो भरोसा कर रहीं हूँ उस पर, क्या उसे मुझ पर भरोसा नहीं है?’ 

वह सूनी आंखों से कभी अम्मा की डायरी देख रही थी और कभी पापा की ओर जो जाने कब तैयार होकर दरवाजे पर आ खड़े हुए थे। 

उस ने डायरी पापा की ओर बढ़ा दी। 

‘मैं भी विशाख के साथ चल रही हूँ पापा।’ 

बोलते हुए वहाँ से उठ कर चली गई। 

विशाख पापा की ओर देख रहा था जो डायरी पढ़ते-पढ़ते एक दीर्घ निःश्वास लेकर दीवार का सहारा लेते हुए ज़मीन पर बैठते जा रहे थे। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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