कहानी : भीगते साये — अजय रोहिल्ला

कहानी : भीगते साये

✍️ अजय रोहिल्ला

भीगते साये कहानी का पोस्टर — अजय रोहिल्ला


परिचय : एक कहानी को कहने के तरीके में कहानीकार के जीवन का माहौल और पेशे का नज़रिया दिखता है। रंगकर्मी, चित्रकार, सिने अभिनेता, कवि अजय रोहिल्ला जब अपनी पहली कहानी ‘भीगते साये’ लिखते हैं, तो छोटी-सी कहानी में भी उनके भीतर की अभिनेता-दृष्टि की सूक्ष्म नज़र चमकती है।

– भरत तिवारी
संपादक, शब्दांकन



बारिश की वह शाम एक चमकता पर्दा थी, मानो आसमान अपनी सारी खुशियां बरसा रहा हो। पांच दिन से पानी बिना रुके बरस रहा था, और उसकी बूंदें जय के मन में मीता से मिलने की उत्सुकता को जैसे और भड़का रही थीं। मीता, जो रात के दो बजे किसी दूर शहर से अपने पुराने दोस्तों से मिलने आई थी, ने जय को भी इस मुलाकात में बुलाया था। बरसों बाद उनके रिश्ते का धागा फिर से जुड़ने को था, और बारिश की रिमझिम जय के कदमों में उत्साह की लय घोल रही थी।

कीचड़ और पानी से सराबोर रास्तों को हंसते-हंसते चीरता हुआ, जय उस बिल्डिंग तक पहुंचा। भरी दोपहरी में इमारत अंधेरे के काले कफन में लिपटी थी, क्योंकि महानगर का यह कोना बिजली के अभाव में ठिठक सा गया था। फिर भी, जय का उत्साह बारिश की बूंदों-सा चमक रहा था। मोबाइल की टॉर्च की मद्धम रोशनी में सीढ़ियां चढ़ते हुए, वह उस फ्लैट तक पहुंचा। दरवाजे को हल्के-हल्के खटखटाने के बाद, बरमूडा पहने मकान मालिक ने दरवाजा खोला। उसकी आवाज घर की हवा में एक ठंडी चेतावनी-सी गूंजी, “अच्छा, तुम आए हो मीता से मिलने? छाता यहीं बाहर छोड़ दो।”

जय ने ड्राइंग रूम में कदम रखा, जहां मीता एक छोटे से सोफे पर अधलेटी थी, उसकी मुस्कान में पुरानी दोस्ती की गरमाहट थी, पर आंखों में दो रातों की नींद की थकान और रात दो बजे फिर अपने शहर लौटने की बेचैनी एक धुंधली तस्वीर-सी उभर रही थी। फिर भी, जय की उससे मिलने की खुशी उसकी बेचैनी पर भारी थी, और दोनों की हंसी कमरे में गूंज रही थी।

जय सामने रखी कुर्सी पर बैठने को हुआ, पर मालिक की चेतावनी घर की हवा को अचानक भारी करती हुई गूंजी, “अरे, उस कुर्सी पर मत बैठ! वो मालकिन की है। और ये,” उसने एक के ऊपर एक रखी दो प्लास्टिक की कुर्सियों की ओर इशारा किया, “ये मेरा तख्त है, सिर्फ मेरा।” उसकी आवाज में एक ऐसी सख्ती थी, जिसने घर की मस्ती भरी हवा में तनाव की एक ठंडी लहर दौड़ा दी।

मीता की आवाज गूंजी, थकी पर दोस्ती की चमक लिए, “आओ जय, बाहर बालकनी में बैठते हैं।” बालकनी में, बारिश की रिमझिम अब भी उत्साह की लय बुन रही थी, पर मालिक के बर्ताव का तनाव घर की हर दीवार में रिसता जा रहा था। तभी मालकिन की चहकती आवाज उभरी, और वह स्टूल खींचकर उनके साथ बतियाने लगी। “अरे, जय, तुम! बहुत अच्छा किया आए, चलो, मीता के बहाने ही सही!”

उसकी खुशमिजाजी घर की तनाव भरी हवा में रंग घोलने की कोशिश थी, मानो वह मालिक के साये में भी अपनी हंसी को जिंदा रखना चाहती हो। बातों का सिलसिला पुरानी यादों-सा बहने लगा, जय और मीता की हंसी बारिश की लय में घुल रही थी। मालिक, जो सिर्फ घर का नहीं बल्कि हर चीज का स्वामी-सा व्यवहार कर रहा था, बालकनी में बारिश में सूखते कपड़ों के पीछे खड़ा, इस गपशप में शरीक हो गया, पर उसकी हर टिप्पणी घर की हवा को और भारी कर रही थी।

मीता ने जय से पूछा, “सिगरेट है तुम्हारे पास?” दोनों सिगरेट सुलगाकर पुरानी बातों में खो गए, पर मीता की बेचैनी उस धुएं में तैर रही थी, जैसे रात के दो बजे की यात्रा का बोझ और मालिक के बर्ताव का तनाव उसकी सांसों में अटका हो।

मालकिन ने लाइट न होने की वजह से चाय न बना पाने का अफसोस जताया और कोल्ड ड्रिंक थमा दी। उसकी हंसी अब भी चटख थी, पर उसमें एक अनकहा समर्पण झलकता था। बातें करते-करते शाम ढल गई। मालिक ने कई बार अपने बर्ताव से जता दिया कि इस छोटे-से साम्राज्य का वह बादशाह है, और उसकी हर हरकत घर की हवा में तनाव की एक और परत चढ़ा रही थी।

अंधेरा घिरने पर उसके दोस्त आ पहुंचे। मालकिन और उसका बेटा मेहमानों के लिए डिनर की तैयारियों में जुट गए। जब मालिक के रौबदार दोस्त आए, उनमें से एक उसी कुर्सी पर जा बैठा, जिसे मालकिन के लिए सुरक्षित बताया गया था। मालिक के मुंह से एक शब्द न निकला, पर उसकी चुप्पी घर की तनाव भरी हवा को और गाढ़ा कर गई।

नया मेहमान अपने घर से कुछ बना कर भी लाया था। अंधेरे में खाने-पीने का दौर शुरू हुआ। मालकिन, जो दोपहर से अब तक उस ‘अपनी’ कुर्सी पर नहीं बैठी थी, कभी तैयारियों में, कभी मेहमानों की आवभगत में उलझी रही। थोड़ा वक्त मिला तो वह एक छोटे-से स्टूल पर सांस लेने को बैठ जाती। उसकी खुशमिजाजी अब भी बरकरार थी, पर आंखों में एक थकान जो मालिक के बर्ताव के तनाव को चुपके से गले लगाए हुए थी।

मालिक का वह तख्त—एक के ऊपर एक रखी प्लास्टिक की कुर्सियां—उस पर सिर्फ वही विराजमान होता। उसकी ओर किसी की नजर उठाने की हिम्मत न थी, मालकिन की भी नहीं। वह मालकिन, जो अपनी चहक के पीछे एक सेविका-सी थी, और मालिक, जो हर सांस में अपनी सत्ता का झंडा लहराता था।

मीता, इस सबके बीच, अपनी थकान और बेचैनी को जय के साथ पुरानी दोस्ती की गरमाहट में छिपाने की कोशिश कर रही थी, पर उसका मन रात के दो बजे की यात्रा और घर की तनाव भरी हवा के बीच डोल रहा था, जैसे बारिश में भीगता कोई अधूरा ख्वाब।

जय जब बाहर निकला, अंधेरा और गहरा हो चुका था। बारिश फिर जोरों से बरस रही थी, जो अब उत्साह की जगह एक अनकही उदासी बुन रही थी। जय सड़क पर हाथ में बंद छाता लिए खड़ा बारिश में भीग रहा था, जैसे साथ आए तनाव को उस पर गिरती बारिश की बूंदों के साथ बहा देना चाहता हो। वह घर, वह तख्त, वह मालिक, वह मालकिन, और मीता की बेचैनी — सब एक अतियथार्थ चित्र की तरह मन में उभर रहे थे, जहां शुरुआती खुशी और मस्ती, मालिक के बर्ताव से उत्पन्न तनाव की भारी हवा में कहीं दब गई थी, और स्मृतियों का नृत्य बारिश की लय पर थिरक रहा था।


© कहानीकार : अजय रोहिल्ला | प्रस्तुतकर्ता : भरत तिवारी

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)


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4 टिप्पणियाँ

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  2. नवीन बिम्ब के माध्यम से कही गयी एक मनोवैज्ञानिक क्या जो अचेतन मन में दमित भाव को कई - कई अर्थों में मन-मास्तिष्क में उभरते हुए अमूर्त से मूर्त में परकाया प्रवेश का अहसास करा देता है। अजय रोहिल्ला जी चारित्रिक विशिष्ठा कथा क्षेत्र में देखना कोई आश्चर्य नहीं बल्कि उनकी गहन सांस्कृतिक योग्यता का परिणाम है। हाँ कनाथक को समझना थोड़ा कठिन है, थोड़ा सरल रूप होता तो आम लोग भी सरलता से कथा का आनन्द उठा पाते

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