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अलबेला रघुबर: साहित्यकार कविता का लघु उपन्यास / लंबी कहानी | Albela Raghubar: Short Novel / Long Story by author Kavita

साहित्यकार कविता का लघु उपन्यास या लंबी कहानी ‘अलबेला रघुबर’ बार-बार इतनी ‘अपनी’ — किसी खोह से निकलता अपना जीवन हो जाती है कि इस पाठक ने इसके मार्मिक प्रसंगों को जीने के लिए, अपने भीतर तक उतारने के लिए संवादों को भीगे मन से बोल-बोल कर पढ़ा है। हमारे समाज की बेटियों, उनकी माँओं, बहनों, और इर्दगिर्द की 'सभी' स्त्रियों के साथ क्या हो रहा है, और क्या उनके मन में चल रहा है ये सब आप अगर संवादों के बीच जिन भावनाओं को कहानीकार दर्ज़ करता चल रहा है उन्हें ‘पढ़’ पाए तो आप एक नए पाठ के लिए इस कहानी को दोबारा पढ़ेंगे। ‘तद्भव’ में प्रकाशित बेहतरीन ‘अलबेला रघुबर’ को शब्दांकन के पाठकों के लिए प्रकाशित करते हुए लेखिका कविता को बधाई! ~ भरत तिवारी (सं०)

Nothing has truly changed; it's just that their strength has waned. Now, men first gauge who will bear them and where they won't get away with it.

कहानी - साम चक साम चक अईहऽ हो... - कथाकार कविता | Hindi Kahani By Author Kavita


प्रिय लेखिका कविता की 'साम चक साम चक अईहऽ हो...' भाई-बहन के रिश्ते को केंद्र में रखकर, आंचलिक भाषा में लिखी गई सुंदर कहानी ~सं० 

जबकि नाती-पोतों की भी दुलहिनें आ चुकी हैं घर में। ये अलग बात कि उन में से अधिकतर दूर- सुदूर शहरों में रहती हैं। गाँव अगर भूले-भटके आय भी गयीं तो कुछ यूं आतीं जैसे यहाँ आकर उन्होंने घर-परिवार वालों पर ही नहीं इस गाँव पर भी कोई अहसान किया हो।


साम चक साम चक अईहऽ हो...

कथाकार कविता की कहानी 

(1)

नरायनपुर के आकाश में एक नया सूरज चमका है। गंगा देई की डूबती आँखों की रोशनी एक बार फिर से झिलमिला उठी है। जब लोग उनकी दुआरी पर उनको पूछते आ खड़े हुए, वे रोज की तरह ही अपने दुःख-सींझे आवाज में संझा और आरती के बदले विद्यापति गा रही थीं -–‘सखी रे हमर दुखक नहीं ओर, ई भर बादर माह भादर सून मन मंदिर मोर...’ दूसरा गीत उन्होंने अभी-अभी उठाया ही था-- ‘कतेक दिवस हरी खेपब हो, हम एकसरी नारी...’ वो तो कहो कि लोग आ गए थे, नहीं तो बड़की पुतोहू अभी आती कहीं से और मन भर सुनाती। तुलसी चऊरा दिया जलाकर छोटकी भी आती किधरो से, गोतनी के राग में राग मिलाने लगती-- ‘कोनो काम धाम बचा नहीं तो भरली साँझ शुरू हो जाती हैं रोदना पसारने। मनहूसी फैलाने के अलावे कोई काम नहीं बुढ़ो को...’ 

अब इन सिलेमा-ठेठर वालियों को कौन बताये कि मनहूसी और रोदन नहीं, ये विद्यापति है...जाने चार अक्षर पढ़ी भी है कि नहीं कि समझे विद्यापति, ऐसन मूरख सबको क्या बताना–समझाना? 

गाँव–जवार भले ही पीछे छूट गया हो उनका, पर वो उसके मोह से नहीं छूटीं कभी। सपनों में अब भी वे रोज अपने उसी पुराने गाँव में होती हैं। गाँव की जिन गलियों में वे खेली-कूदीं, बड़ी हुयीं, उनका मन अभी भी उसी में रमा हुआ है। नींद टूटने पर उदासी और गढ़ा जाती है, उस सपने से जबरन घसीटकर निकाल दिए जाने के भीषण दुःख से। सच किसी कुनैन की गोली जितना कड़वा हुआ जाता है। 

घर-परिवार के लिए कौनो काम की नहीं रह गयीं गंगा देई, ‘उड़ान’ के इस बुलावे से बहुत खुश हैं। एक बार फिर से काम की हो जाने का यह अहसास उनके उत्साह को दूना किए जा रहा है । दुलहिन से कहकर अपनी धरउआ रेशमी धोती निकलवाती हुये वे अपनी रोज के पहरउआ लुग्गा को बड़ी हिकारती नजर से देखती हैं। कहाँ यह बेटो–बहुओं का सुना-जी दुखाकर साल में एक–दो बार दिया जानेवाला मोटा-झोटा लुग्गा और कहाँ पिताजी की सोनपुर मेले से खरीदकर लाई यह रेशमी साड़ी, जिसे माई ने सहेजकर उनके दहेजुआ बक्से में धर दिया था। साड़ी जगह–जगह से छीज गयी है। उसका गाढ़े आलते जैसा घोर गुलाबी रंग धिमा के स्याह गुलाबी हो चला है। फिर भी उनका मन आज इसी साड़ी में अटका हुआ है। इसी को पहनने का हो रहा। 

यह प्रतिष्ठा, यह इज्जत सब उनके उसी अपने गाँव के होने के कारण है। उनके वहां के होने की वजह से ही...वे जैसे आज अपने होने का अर्थ बूझ गयी हैं। जिनगी अकारथ नहीं गयी उनकी। वे सर उठाके चली उस दिन, कुछ इस भाव से कि हम जिस माटी-बानी की हैं, अब हमरी सब प्रतिष्ठा भी उसी से, हमरा आन-बान-सान सब उसी से ...

जिला सीवान की बहू होकर तो किसी काम काज के रहे नहीं, मोटी बानी, मोटी चाल, लट्ठमार बोली (जब वे बियाह कर आईं तो सीवान भी जिला सारण था। ) बाद में हम भी कहीं हेरा दिए सब लूर-सऊर, अब मान रखना था तो बस उसी नेपाल की तराई में सटे अपने उस छोटे से गाँव की बेटी होने का। मिथिला की बेटी होने का। 

वे जब तैयार होकर निकलीं तो आसपास के लोगों के आगे घूंघट ओढ़कर नहीं निकली, नजरें भी नीची नहीं की उन्होंने, गाँव की बहुरियों की नाई। अब 74 बरस की उम्र में भी क्या दुलहिन बने रहना, जबकि नाती-पोतों की भी दुलहिनें आ चुकी हैं घर में। ये अलग बात कि उन में से अधिकतर दूर- सुदूर शहरों में रहती हैं। गाँव अगर भूले-भटके आय भी गयीं तो कुछ यूं आतीं जैसे यहाँ आकर उन्होंने घर-परिवार वालों पर ही नहीं इस गाँव पर भी कोई अहसान किया हो। दोनों बहुएँ भी घर-बाहर कुछ यूं करतीं जैसे वे बहुएँ नहीं, इसी गाँव में जन्मी, यहीं पली-बढ़ी उनकी कोखजायी बेटियाँ हों। हाँ, ताने देने वक्त वे जरुर खालिस बहुएँ हो जाती हैं। पर वे हमेशा यह सोचकर मन-ही-मन उन्हें आशीर्वाद देती हैं कि अपनी बहुओं की तरह वे शहर में नहीं जा बसीं। छोटका बेटा तो हमेशा शहर में ही नौकरी करता रहा, पर नहीं ले गया बहू को साथ। बड़की का तो नैहर ही शहर में है, फिर भी जाकर कभी चार दिन रुकी नहीं। जबान की भले थोड़ी कड़ी हो, पर बड़की–छोटकी का यह गुन उन्हें याद रहता है हमेशा। उनको इस उम्र तक देख रही हैं दोनों, पर इनकी पुतोहुयें कहाँ टिकती हैं इनके पास। आईं भी तो हमरा सेवा करने के बदला खुद अपना ही सेवा करवाकर जाएंगी। 

गंगा दाई (दादी) ‘उड़ान’ के सामुदायिक रंगमंच वाले कमरे में सिखा रही हैं सबको बिनरावन (वृन्दावन) बनाना। सामा चकेवा बनाना। मुँहझौसा चुगला बनाना। मिट्टी का सामा, मिट्टी का चकेवा, छोटे-छोटे दर्जनों पंछियों के पुतले, धान-चावल के पिठार से पुतले को पोतना। इसके बाद लिपे-पुते पुतले को लाल-हरे, नीले, पीले, सुआपंखी और बैंजनी रंगों से रंगना। उसके पंख, आँख, कान सजाना। 

लड़कियां मगन हैं। गंगा दाई की मीठी झिड़कियाँ भी हँस-मुस्कुराकर सुन रही हैं -- ‘माय–बाप ने कोई लूर-ढंग सिखाया नहीं, कौनो सउर का नहीं बनाया, खाली खिखियाना सिखाया। ’ 

‘खाली फैसन करवा लो इनका सबसे। न त दे दीजिये एगो मुबेल हाथ में। बस ओकरे में आँख गड़ाए रहेंगी सब। कोनो जादू है ई डिबिया के भीतर कि सब इसमें घुसा रहता है- लड़का-बच्चा, बूढ़-जबान सब। कोनो इंद्रजाल होगा एकरा भीतर। नहीं तो ऐसन भी का... रेडियो, टीभी सब देखा और सबका ज़माना देखा पर इसके जैसा कुच्छो नहीं था। सबसे मुक्ति, लेकिन एकरा से एकदम नहीं...’ 

लड़कियों में से किसी ने कहा है--‘दाई, बिन्दावन क्या बनाना। खेलने के लिए असली वृन्दावन है हमारे पास। गिरीन्द्र सर का नया कलमबाग। वे मना नहीं करेंगे दूसरों की तरह सामा खेलने से। फिर काहे नकली वृन्दावन बनाने में इतना मेहनत करना... बस तुम हमारे चुगला का चोंच सुधरवा दो, ई ठोढ़निकला चुगला हमको पसंद नहीं आ रहा।’

(2)

बाउजी मोनुआ को झुला रहे हैं पैर पर, उसकी जिद पर उसे घुघुआ-मन्ना खेला रहे हैं--

‘घुघुआ मनेरुआ, आराम चउरा ढेरुआ

वही चऊरा के धान कुटाईल

बाम्हन-बिष्नु सब कोई खाईल 

बाम्हन के बेटा देलन अशीष

जिए मोर बबुआ लाख बरीस

बुढ़िया माई हो, सम्हरले रहिये हो

तोहर हारी–पटकी तोरे जईहन, हमार बाबू हो...’ 

पिता ने इस तरह उसे कभी लाड़ किया हो उसे याद नहीं। न कभी कंधे पर उठाया, न गोद में बिठाया। न कहानियां सुनाई, न कभी घुघुआ-मन्ना ही खेलाया। उसमें और भाई में बस दो बरस की बड़ाई-छोटाई है। पर बाउजी को इस तरह मोनू को दुलार करते देख वह न जाने किस दूसरी दुनिया में खो जाती है। ऐसे में वह पहले जब कभी उदास हो जाती, तो माई उसका मन पढ़ लेती थी। रात में वह उसका केश सहलाती। जबरन उसे घुघुआ–मन्ना भी कराती। हालांकि वह अब इतनी बड़ी हो गयी थी कि उनके पैरों में अंटती ही नहीं थी, पर माई थी कि उसका मन रखने की खातिर उसे जैसे तैसे अटका लेती अपने पाँव में-- 

‘घुघुआ मन्ना, उपजे धन्ना

ओ पर आवे बबुनी के मामा

मामा देवे दूआना,छेदा देवे काना, पेन्हा देवे बाला

मोर के पंख पर, बबुनी खाए दूध भात 

पतवा उधिआयल जाए, बिलैया पिछुआईल आये

जवले गईनी लाठी लावे, तबले भागल गाछी 

नया भित्ति उठेला, पुरान भित्ति गिरेला... 

पुरानी भीत सचमुच गिर गयी थी। माँ चली गयी थी चुपचाप इस दुनिया से। वह नयी भीत उठा रही थी। पर वह भीत क्या सचमुच उठ पा रही थी... क्या इसके लिए उसकी हथेलियाँ और कंधे अभी भी बहुत कमजोर नहीं थें? सम्हार रही थी सबकुछ वह, पर उसे सम्हारने वाला कोई नहीं रह गया था। उसके हिस्से घर के सारे कामकाज आ गए थे और उससे बस दो बरस छोटा भाई, अभी भी बाउजी का लाड़ला बना हुआ था। घुघुआ-मन्ना खेलने वाला। स्कूल न जाने की हठ ठाननेवाला। बाउजी उसे गोदी में ले के बच्चे की नाई समझाते रहते। स्कूल जाने के लिए मनाते–फुसलाते रहते। हाँ, इस बीच उसका स्कूल जरुर छुड़वा दिया गया था, घर का काम-काज सम्हालने के लिए। चौका-बासन, घर-दुआर, खाना-पकाना सब उसके हिस्से। एक बूढी आजी थीं जो उसका ख़याल रखतीं। 

उसकी जिद पर उन्होंने ही जाने दिया था उसे ’उड़ान’। वहां वह बाउजी से छिपकर जाती। गीत–नाटक करती। सपना की देखा-देखी उसका भी मन हुआ था वहां जाने का। आवाज सुरीली थी उसकी। पर गीत गाने का कोई ऐसा ख़ास शौक भी नहीं था उसे। हाँ अच्छा लगता उसको सपना का खूब स्टाईल में रहना। नए फैशन और नए काट के कपड़े खरीदना–पहनना। खूब शेखी और ठसक से उसका रहना-घूमना। अपनी नयी-नवेली स्कूटी, पर सवार होकर वह रोज ‘उड़ान’ जाती। एकदम से कहानियों की राजकुमारी की तरह फर्र से उड़कर। आसपास के लोग मुंह बाए खड़े उसे बस जाते हुए देखते रह जाते। फिर भले कहते –-‘ठाठ देख रहे हो इसका? एतना रंगबाजी में तो इसके उमिर का कोई छौंरा भी नहीं रहता...एकदम मरद सबका भी कान काटती है, गाड़ी हांकने में।’

बाद में कोई चाहे जितनी बातें कर लें उसके बारे में, पर पीठ पीछे की बातें वह कोई सुनने आती थी? और बोलने वाले लोग भी कौन-- कभी-कदार कोई बुजुर्ग, नहीं तो गाँव के खलिहर लड़के-लुहारे। वह जानती थी सबसे ज्यादा मिर्ची तो इन खाली बैठे लड़कों को ही लगती है-- सपना के उड़न-परी होने से। 

छोटे बच्चे उसकी गाड़ी के पीछे दूर तक दौड़ते जाते हैं, उसको रोज एक नया नाम लेकर चिल्लाकर पुकारते हैं। वह नाम जो अक्सर उसके नए नाटक में होता है। या फिर वह जो गाँव के लोग अपनी बातचीत में इस्तेमाल करते हैं उसके लिए-- छन्हकी-लहकी हीरोईन, लाल परी। अक्सर वह मुस्कुरा देती है सुनकर। कभी ध्यान ही नहीं देती। चेहरा तना रहता है उसका, मुस्कुराना तभी होता है, जब पुकारने वाला कोई नटखट बच्चा हो। वरना तो त्योरी चढ़ी रहती है हमेशा उसके माथे की। 

लहेड़ो ने यह समझ लिया है, बच्चों पर वह गुस्सा नहीं करती। सो छोटे बच्चों को सिखाकर भेज देते हैं उसको पिनकाने को। एक दिन तो हद्द हो गयी, उसके स्कूटी का हवा ही निकाल दिए थे बच्चे, वह चुप रह गयी। फिर दूसरे दिन यही, तीसरे दिन भी यही... वह बच्चों को डांटने के बजाय सामने वाले पान की दूकान तक गयी और खूब जम के सुनाया... इतनी की हवा निकल गयी सबकी, चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगी अलग। और उनके मिमियाने पर ध्यान दिए बिना निकल आई वहां से... फिर कभी हवा नहीं निकली उसके टायर की। 

बीना काकी और रामप्रीत की माँ को उसने उस दिन बतियाते सुना -–‘ दूसरे शहर भी जाती है, नौटंकी खेलने, अब जब माई-बाप ने इतना छूट दे रखा है तो दूसरा कौन बोले और काहे बोलो?’

‘देखना बियाह नहीं होगा इसका। ताड़ जैसी हो गयी है पर बाप भी नहीं खोज रहा लईका। अपना त दूर शहर में रहता है और बेटी इहाँ चरित्तर खेलती रहती है। गाँव जवार का हवा बिगाड़ रही है, दूसरो घर में जवान बेटी रहती है ...’

बीना काकी कहती है फिर -– ‘अरे बियाह तो कर लिया है इसने, तभइये न चिंता नहीं। चुप्पे से बियाह जरुर कर लिया है। ’ 

‘देखती नहीं हो, रोज एक नया छौंरा के संगे घूमती है...गाँव का नाक कटवाएगी । 

‘सुना मंडली वाला बुढ़वा बजौनिया राम चरित्तर, अरे वही जो नया-नया नाटक में भरती हुआ है और पहिले नौटंकी में जो हरमुनिया बजाता था, ऊ इस का दुल्हा बना था, बेटीबचवा में... कैसे मन मान गया होगा इसका ऊ बुढ़वा को दुल्हा बनाने का?’ 

‘सोनू के पप्पा कह रहे थे कि अरे ई तो नाटक है, कौनो सच थोड़े होता है सब। पर फिर हमसे बोले-- लेकिन इससे ज्यादा हेल-मेल नहीं रखना है तुमको।’

‘अब चली आती है कभी-कभी तो बतिया लेते हैं, कौनो सामान का जरुरत हुआ त दे दो पैसा, ले आ के दे देती है समय से। और एकदम निम्मन चुन के लाती है।’

‘कभी उदास नहीं देखा, न कभी कड़ुआ बोलते सुना। रूप-गुनस ब में निम्मन है, सोचा था अपने चचेरे भाई से बियाह करवा देंगे। ऊ बंगलौर में रहके इंजीनियरी पढ़ता है, एक्के गो बेटा है बस। राज करती ऊ परिवार में... पर इस चाल पर कैसे कोई सोचे कुछ, आ बात करे।’

‘बाप बाहर नौकरी करते हैं, सो रोक-टोक नहीं और माई का न सुनती है न चलने देती है, बरजोर लड़की। माई भी चुप रहती हैं कि घर के लिए हरदम कुछ करती-खरीदती रहती है। घर देख के आँख छिला जाता है इसका, रंग-रंग के सामान से भरा है। कभी जाके देखिएगा। देस–बिदेस का सामान घर में ढकच के भरले है, और एकदम चिक्कन-चुरमुन घर। माई कहती है इसकी-- सब सपनिया करती है। हम त टीभी देखते हैं दिन भर। 

कैसे करती होगी आखिर सबकुछ? पढ़ाई-कॉलेज अलग, उड़ान में काम... और घरो में... तब भी एकदम छैलचिक्कन बनी रहती है हर–हमेशा।’

उसे देखते ही दोनों चुप हो गयी थी एकदम से। सब जानती हैं गाँव में कि सपना किसलय को बहुत मानती है। कोई-कोई तो किसलय को उसका जासूस भी कहता है । इससे फर्क नहीं पड़ता किसलय को, कहे लोग जो भी मन हो...कहता रहे। 

सपना उसको उदास रहने नहीं देती कभी। माई की याद आये तो एकदम से माई बन जाती है। वही तो है, जो उसे गला लगाती है माई के बाद और आजी के अलावे। वह नहीं जानती कि सपना को उसमें ऐसा क्या दीखता है? क्यों करती है उससे इतना नेह? पर कलेजा तान के चलती है गाँव में तो इसी दुलार के बल पर। 

उससे जब-तब कहती है सपना ‘उड़ान’ चलने के लिए। कि कुछ काम-धाम ही करेगी-सीखेगी। कुछ गुण शऊर... कुछ जोड़-चेत पाएगी घर के लिए। वो जानती है कि बाउजी की दुकान भी अब नहीं चलती पहले जितनी। कितना तो नया-नया दुकान खुल गया है अगल–बगल लेकिन बाबूजी बस वही गिना-चुना सामान रखते है ... कौन आयेगा उनके दुकान पर? पर बाबूजी बिलकुल बूझते ही नहीं। और उनसे बतियाये-कहे यह उसकी औकात नहीं। कि अब भी थर-थर कांपती है बाउजी के एक आवाज पर, कि अम्मा के जाने से भी कुछ नहीं बदला उनके भीतर। 

घर की दुर्दशा देख और उसके समझाये आजी मान गयी थी। वह जाने लगी थी रोज, घर के काम धाम निबटाकर। और देखो कि उसका मन भी नहीं लगा किसी और काम में, कि वह तो सपना जैसा बनना चाहती है। उसी के साथ रहना चाहती थी हर पल। सो उसे नाटक करना और गीत गाना ही मन भाया। 

पर मोनुआ ने एक दिन लगा दिया था बाबूजी से-‘दिदिया ‘उड़ान’ जाती है रोज बाऊजी। आजी भी कुछ नहीं कहतीं उसको। चुपचाप जाने देती है। बस हमरे बाहर जाने और खेलने पर सबको गुस्सा है, रोक है।’

बाउजी एकदम से तिलमिला गए थें-‘ बियाह-शादी नहीं होगा फिर कह दो इससे। जिन्दगी भर फिर पड़ी रहेगी, हमारे छाती पर मूंग दलेगी।’

‘माई आपको भी कुछ नहीं बुझाता। छोट जात की बेटियाँ जाकर उहाँ कुछ-कुछ सीखती अउर काम करती हैं। कौनो बड़ घर की बेटी को जाते देखी हैं? बिना हमसे पूछे इसको भेज दी। ऊ भी नाटक-नौटंकी करने के लिए, गवनिया-नचनिया बनने के लिए। ये ही बनाना है न पोती को आपको?’

‘एक तो उहाँ जाना ही ठीक बात नहीं, सब लड़का-लड़की एक्के साथ रहता काम करता है उहाँ। दूसरे गयी भी तो कोई लूर-ढंग की बात सीखती, सीना-बीनना तो समझ में भी आता है। आगे के जिन्दगी में कवनो काम आता, चली गयी नाटक-नौटंकी करने। ’ 

‘कह देते हैं माई। कल से गयी तो हाथ–गोर तोड़के घर में बैठा देंगे। ई हो नहीं सोचेंगे कि आपसे खाना ओना नहीं बनेगा इस उमर में? कि कौन बनायेगा फिर खाना? बाहर जाकर खा लेंगे हम, मोनुओ को खिया देंगे। पड़ी रहियेग, दुन्नो दादी-पोती भूखे-पियासे। ’ 

(3)

दिव्या देख रही है इन दिनों, गाँव और परिवार टूट ही नहीं रहें बस-बन भी रहें हैं। नए दौर का नया परिवार। नए समय का नया गाँव। नित टूटे हुए खंडहरों को साफ़ करके नयी नीवें डाली जा रही हैं। खूब मन से नये इमारतों की बंधाई-गथाई चल रही है। पुरानी इंटों में नयी ईंट मिलाकर दीवार ढाल रहे हैं राज-मिस्त्री। नयी ईंट से पुरानी ईंट को बजाकर दिखा रहे हैं, है इतना जोर इनमें? असली सूरजमुखी ईंटें हैं यह । । अब नहीं बनती ऐसी मजबूत ईंटें... वह मन-ही-मन सोचती है, अब पुराने इंसानों जैसे इंसान भी कहाँ बनते हैं?

गंगा देई से मिलना हुआ है आज ही दिव्या का, 75 वर्ष की गंगा देई। आराम से चलकर आई थीं आज ‘उड़ान’। आवाज अभी भी उतनी ही बुलंद। लगता ही नहीं था कि बस चौथी जमात तक पढ़ी होंगी, विचार इतना सबल उनका। 

मन से लेखक और कर्म से रिसर्चर दिव्या सीवान के नरेन्द्रपुर गाँव में स्थित ‘उड़ान’ में रह रही है आजकल। दिव्या ने गौर किया है, अन्दर की दुनिया और बाहर की दुनिया एकदम से अलग है इस गाँव की। अन्दर सब सुविधाएँ, सारे सुख, गाँव में होने का एहसास तक नहीं होता ...पर गाँव...

कल जब वो निकली थी मॉर्निंग वाक को तो गाँव की औरतें- मर्द सब उसे आँख फाड़-फाड़कर देख रहे थें। एक औरत ने उसे सुनाकर कहा- ‘कौन देस से आईल बानी। ’ उसने इन्हीं दिनों थोड़ी बहुत सीखी यहाँ की भाषा में कहा है -‘ इहें के बानी।’

अचरज में खिलखिलाती हुयी चल पड़ी हैं वे औरतें । 

यहाँ अब भी सुबह उसे लोटा लेकर खेत जाते हुए लोग दिखते हैं। 

उसे अजीब लगता है यह देखकर कि वे स्त्रियाँ जो यहाँ काम पर आती हैं, कितनी आत्मविश्वासी, सजग और सचेत दिखती हैं। लेकिन इन्हें इनके घरों में देखो तो ये दूसरी ही होती हैं, दबी-सहमी, एकदम घरेलू औरतों की नाई। अपने हिस्से का सारा काम मुंह सीए करते हुए। वे खूब सुबह उठकर अपने घर के काम निबटाकर फिर यहाँ तक आती हैं, यहाँ दिन भर काम किया, फिर जाकर घर-परिवार की ड्यूटी ... 

अजीब है न यह बात। आत्मनिर्भरता के उपायों ने भी ने भी इन्हें शोषित ही किया है ... 

देश और हमारे समाज की तरह यहाँ भी इन्हीं का दोहन... पति या तो दूसरे शहर में होते हैं या दूसरे देश में, तब भी वे खट रहीं हैं, घर-परिवार के लिए...झूठे-सच्चे रिश्तों के लिए, घर की मान-मर्यादा के लिए। 

कई तो इसी में प्रसन्न हैं, उन्हें बाहर आने, काम करने की आजादी तो मिली है, अगर विरोध किया तो घर में बैठा दी जाएंगी। जो थोड़ी सी आजादी है, जो थोड़े से पैसे हैं वो भी गये हाथ से। जेंडर इक्वलिटी इनके सोच के बहुत परे की बात है। और जब वह इस समाज में ही नहीं है, तो फिर इस गाँव में क्या होगा भला? 

दिव्या गुनगुना रही है-‘साम चक, साम चक अईह हो, अईह हो। माटी फोड़-फोड़ खईह हो। ’ उसने भी बनाया है गाँव की लड़कियों की देखा-देखी सामा चकेवा, पेड़-पौधे, कीट पतंगे और वृन्दावन। और उसने इस सबको पॉटरी वाले हिस्से में जाकर पकवा भी लिया है, इलेक्ट्रिक आवें में। वह इन सबको सहेजकर रखेगी दिशा के लिए। उसकी दुलारी बिटिया दिशा...

सुन्दर सजावटी वस्तुओं से भरा मिट्टी के काम वाला यह हिस्सा उसके बहुत मन भाता है। लेकिन परेशान करता है उसे इस हिस्से में मात्र दो लड़कियों का काम करते देखना। उसे ये लड़कियां बहुत अलग-थलग लगती हैं, सभी लड़कियों से। उसने उनसे पूछा-‘ इतने काम में तुम्हें यही पसंद आया?’

उन्होंने एक साथ ही कहा –‘हाँ।’

पर इंस्ट्रक्टर ने जो बताया वो सच कोई दूसरा था। यहाँ लोगों के मन के भीतर यह बात बैठी है कि यह काम बस कुम्हारों का है और उन्हें ही करना चाहिए...

बचे हुए अपने शोध कार्य के लिए उसे कल से बिहार के किसी दूसरे गाँव में होना था। कल वह चली भी गयी होती पर रूक गयी तो सिर्फ गिरिंद्र बाबू के कहे-‘कहाँ-कहाँ भटकेंगी आप? यहाँ आराम से रूककर अपने बचे काम निबटाईये। रही सामा चकेवा के कथा की बात, तो उसका भी इंतजाम हो जाएगा। गंगा काकी रहती है चंदौली में, सुना है उनको पता है सामा चकेवा की आद्योपांत कथा। 

मिथिला जाकर भी आप सब ढूंढ लेंगी यह कोई मुमकिन नहीं। पुराने लोग बचे नहीं, और जो बचे हैं सो दूर कहीं अपने बच्चों के साथ शहर में रहने लगे हैं। कौन मिलेगा वहां भी आपको? दरअसल जिस तरह आप यहाँ देख रही, घर के दरवाजों पर लटके हुए भारी ताले, हर जगह के गाँव की यही तस्वीर है कमोबेश। 

‘यहाँ तो फिर भी ‘उड़ान’ के खुलने से पलायन की मात्रा थोड़ी कमी है, थोड़ा बहुत ही सही रोजगार बढ़ा है। पहले यहाँ सीखने–करने के नाम पर कुछ नया था ही नहीं। लड़के मैट्रिक-इंटर करने के बाद छोटे-छोटे काम के लिए दुबई और अरब देश चले जाते थे, अब धीरे-धीरे वह ट्रेंड कम रहा। ’ 

‘मैं खुद की तारीफ में यह नहीं कह रहा। ’ अपने ही कहे ने उन्हें संकोच में ला दिया है , बहुत विनम्रता के साथ वो कह रहें जो कुछ भी कह रहें – ‘जो कुछ भी कर पा रहा वह बहुत थोड़ा और अपर्याप्त है, फिर भी एक छोटी सी कोशिश है...’

तो काम हो जाएगा आपका... वे कुछ सोचते हुए फिर से कह रहे हैं। 

और न हो तो तो यहाँ इस बार से सामा चकेवा शुरू ही कर देते हैं। हमें अपनी परंपरा को बचाए और संजोये रहना चाहिए। बिहार की कुछ बेहद सुन्दर लोक परम्पराओं में से एक है यह। क्या फर्क पड़ता है कि यह यहाँ का है कि वहां का? सांस्कृतिक धरोहर तो है न हमारी? हमें अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए इसे बचाए और बनाए रखना होगा। जो कुछ भी कर रहे हैं हम ‘उड़ान’ के माध्यम से वो कहीं-न-कहीं हमारी परम्पराओं और थाती को बचाए रखने की एक छोटी सी जिद याकि कोशिश ही तो है। 

 ‘उड़ान’ की इस अभिनव परियोजना के बारे में सुनते दिव्या मन-ही मन सोचती है, ‘काश हमारे देश के हर राज्या में सांस्कृतिक आदान-प्रदान का यह सिलसिला यूं ही चले। ’ 

‘आप यूं न समझे कि मैं कोई अहसान कर रहा हूँ आप पर। मैं जानता हूँ आप एक समर्थ लेखिका हैं, संभव हो तो यहाँ के बच्चों के लिए एक नाटक लिख दीजिएगा, सामा चकेवा को केंद्र में रखते हुए। ’ 

‘बहुत अच्छी योजना है आपकी...पर क्या ही अच्छा हो यदि सिर्फ कुंवारी कन्याओं को शामिल करने की परम्परा से इतर इस खेल में गाँव की ब्याहता लड़कियों को भी शामिल किया जाए। इसी बहाने उन्हें मायके आने का मौक़ा और न्योता दिया जाए?’ 

‘लेकिन अपने घर यानी ससुराल की हो गयी लड़किया कहाँ आ पाएंगी अभी। धान कटने का समय है... कुछ तो अभी सावन में आई होंगी। फिर कुछ भैया दूज में। हर माह-दो माह पर गाँव घर की लड़किया कहां नैहर आ पाएंगी।’

दिव्या निराश नहीं होती। कहती है –‘तो फिर कुछ ऐसी लड़कियों को ही बुला लें जो बढ़िया गाती हों, नाचती हों... जो रौनक जमा दें ‘सामा चकेवा के खेल में... मेरा काम इतने भर से हो जाएगा।’

दिव्या तनिक रुक कर आगे कहती है- ‘हालांकि जब यह भाई बहन के प्रेम का, उनकी घनिष्ठता का त्यौहार है तो बेचारी लडकियाँ जो अपना गाँव-घर छूट जाने के बाद फिर से वहां आने के मौके खोजती रहती हैं, अपने जड़ और अपने घर से छूटी हुयी उन लड़कियों को बुलाने में हर्ज ही क्या है?’

गिरिंद्र बाबू चुपचाप उसे सुन रहे हैं। जैसे गुन रहे हों... 

जब एक दूसरे अंचल के त्यौहार को हम अपना सकते हैं, उसकी तमाम खूबियों को चीन्हते हुए, तो इसमें एक संशोधन यह भी करें कि इसे ब्याहता बहनों के घर आने का त्योहार हो जाने दें। उनके अपने गाँव आने का एक अन्य मौक़ा होने दें इसे। 

क्या उनके चेहरे पर भी कोई एक अक्स चमक रहा है, कौंध रहा है मन के भीतर? 

दिव्या को यह सब कहने के क्रम में पिता याद आ रहें हैं बेतरह । 

पिता के जाने के बाद ही छूट गया उसका मायका। माँ कुछ दिन तक रही थीं इंडिया, फिर उसके इकलौते भाई के साथ इंग्लैंड चली गयीं। 

माँ अब चाहे भी यहाँ आना तो मुश्किल है। वह कहाँ टिकती है किसी ठौर कि उन्हें बुलाकर साथ रख सके, अभी तो वह बिटिया तक को भी साथ नहीं रख पा रही...

(4)

‘आ गे माय गे माय ... तू हमरा के भुला गेले गे माय ... बियाह के हमरा के फेंक देलेगे माय, फिर न एक्को हालचाल कहियो पूछले ले गे माय । । ’ रो रही है किसुनिया गला फाड़ । 

‘बेटी गे बेटी, हम तोहरा कहियो न भुलईली गे बेटी। रोज तोहर बाप से कहिले गे बेटी। तोहर भाई से निहोरा कईली गे बेटी। कोनो तोहर न हाल ले अलकऊ गे बेटी। हम दिन रात रोअली गे बेटी। एक्को कौर खाय से पहिले तोहरा ध्यान कईली गे बेटी, कठकरेजवा तोहर बाप-भाई गे बेटी। तोहरा के बियाह के दूर फेंक देलौ गे बेटी, हम्मर एमे कोनो दोख न गे बेटी...’

दिव्या ने बहुत बेटियों को मायके आते–जाते देखा है। बेटी और माँ को आंसुओं से भींगते, उनका गला रून्धते भी। पर यह दृश्य उसके लिए अनोखा और अभूतपूर्व है। वह इस दृश्य को एकटक देख रही है। वह आश्चर्यचकित है। इतने लय-ताल में, सुर लगाकर, कौन रोता है भला? संवाद भी बिलकुल लय में। वह भी रोते हुए, तान उठाकर! 

फिर उसने अपने मन में उठते प्रश्न को धीरे से अपनी बगल में खड़ी लड़की के सामने उड़ेला था- ‘ये रो रही हैं की गीत गा रही? 

उसने कहा था, यहाँ सब ऐसे ही रोते हैं, भावातिरेक में गा-गाकर। यहाँ, गाँव में, ऐसा ही चलता है। लड़की अपनी बातों से उसे पढ़ी-लिखी और समझदार जान पड़ी थी। उसने बहुत सहजता से कही थी यह बात उससे। 

उसने नाम पूछा था उससे, बोली थी वह-‘किसलय’। नाम सुनकर वह हैरान रह गयी। इतना सुन्दर और काव्यात्मक नाम। इस देहात में? भला किसने रखा होगा? 

लड़की ने जैसे उसके मन की बात बूझ ली थी- ‘माई ने रखा था। अब माई नहीं है मेरी। ’ 13-14 साल की इस बच्ची के लिए उसके मन में अथाह प्यार उमड़ आया था। इतनी ही बड़ी बिटिया है उसकी, जो हॉस्टल में रहती है। उसने दोनों की सुविधा के लिए उसे वहां डाल रखा है। उसे अपनी थीसिस पूरी करनी है फिर उसके बाद नौकरी की तलाश। तब कहीं बेटी को घर में लाकर रख सकेगी। अभी तो उसका खर्च उसका पिता उठा रहा। उसे खुद को लायक करना है, दिशा को पालने और अच्छी जिन्दगी देने लायक बनाना है। बिटिया कभी छुट्टी में उसके पास होती है, तो कभी अपने पिता के साथ। उसे बुरा नहीं लगता उसका पिता के पास जाना। पर उसकी कमी हमेशा खलती है उसे। वह हर वक्त सोचती है, कब वह इस लायक होगी, कब अपनी बिटिया को अपने साथ रख सकेगी? 

उनका तलाक न दूसरे तलाकों जैसा है, न उनका रिश्ता दूसरे अलग हुए पति- पत्नी जैसा। बस साथ नहीं रह पाये थे वह उस तरह, जिस तरह उनदोनों ने सोचा था विवाह -पूर्व। वह प्यार, वह प्रगाढ़ता, वह केयर ही कहीं गुम हो गया था। गृहस्थी की गाड़ी में जुतने के बाद। वह सबकी सुनता उसके खिलाफ बस उसकी नहीं सुन सकता था। लोगों के इल्जाम उस पर लादने आता था। वह किसके भरोसे थी उस घर में, सिर्फ उसके न? वही आरोप उसके आँखों में झिलमिलाते हरदम, जो उसे समझाया जाता था। वह उन दिनों उसे बहुत अजनबी-सा जान पड़ता। 

वह कितनी अकेली हो गई थी उन दिनों, यह उसके सिवा कौन समझ सकता था। जिसे समझना था, वह इन सबसे बहुत ऊपर खड़ा था। उसने जब अलग होने की बात कही थी, उसने बिलाशर्त मन लिया था। जैसे उसका मनोवांछित ही कह रही हो वो। कोई हील-हुज्जत, कोई विरोध, सफाई... कुछ भी नहीं। जबकि दिव्या को उम्मीद थी, वह गुस्सा होगा। उसे समझाएगा। इल्तजा करेगा। और फिर वह मान भी जाती शायद। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। वह सोचती रहती थी – यह कबसे हुआ और कैसे। । इतना बेगाना वह कब हो लिया कि उसे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता उसके संग होने-न-होने का। 

दिव्या को अबतक उम्मीद थी... 

दिव्या दिशा की याद से और पुराने वक्त से अचानक वर्तमान में आ खड़ी हुयी थी। वह लड़की अब भी सिसकियाँ ले रही थी, एकदम लय-ताल में...

रात में दिव्या लिख रही है गंगा काकी के कहे के अनुसार सामा–चकेवा के त्यौहार के कुछ नोट्स- 

‘भाई-बहन के कोमल और प्रगाढ़ रिश्ते के बहाने प्रकृति और पर्यावरण के महत्व को रेखांकित करने वाला यह लोक पर्व, बिहार के मिथिलांचल का वह पर्व है, जो विलुप्त होने के कगार पर आज खड़ा है। आज उसकी पहचान मिथिला–भूमि विशेष के पर्व की न होकर बिहार के अन्य लोक पर्वों वाला दर्जा पा चुकी है। यह आठ-दिवसीय आयोजन छठ पर्व के पारण के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा के दिन समाप्त होता है। 

इसकी पृष्ठभूमि में कोई धार्मिक याकि पौराणिक कहानी न होकर सदियों से चली आ रही एक लोक-गाथा है। सामा याकि श्यामा कृष्ण की पुत्री थी और साम्ब (सतभैया ) कृष्ण के पुत्र। दोनों भाई-बहन के बीच असीम स्नेह था। सामा प्रकृति-प्रेमी थीं। उनका अधिकतम समय प्रकृति के सानिध्य में बीतता। उन्हें घूमना-फिरना भी बहुत पसंद था। वह अपनी दासी (बिहुली) के संग वृदावन जाकर तपोवन के एकांत में खेला करती। कृष्ण का एक मंत्री चुराक जिसे कालान्तर में उसकी चुगली की प्रवृति के आधार पर चुगला नाम दिया गया, श्यामा के आगे–पीछे किये रहता। दरअसल उसकी निगाह सामा की सुन्दरता पर थी पर श्यामा उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखती थीं। क्रोध में आकर उसने कृष्ण से जाकर यह चुगली कर दी कि सामा का चकेवा नामक एक तपस्वी के साथ अवैध सम्बन्ध है, कि सामा तपोवन सिर्फ घूमने और प्रकृति के करीब रहने नहीं जाती, उनके जाने का मकसद कुछ अलग है। 

यह कथा गढ़ते हुए उसने यह सोचा की कृष्ण नाराज होकर श्यामा को महल में ही नजरबन्द कर देंगे। फिर वह उनसे श्यामा का हाथ मांगकर उनका कृपा-पात्र तो बन ही जाएगा, श्यामा को भी सदा के लिए पा लेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, कृष्ण ने दोनों को को यह श्राप दिया की वह पंछी बन जाए और उनकी नजरों से कहीं बहुत दूर चले जाएँ। 

भाई साम्ब को कृष्ण की यह बात और उनका सामा के साथ किया गया दुर्व्यवहार बहुत खला, उन्होंने पिता को लाख समझाने की कोशिश की, वे नहीं माने। साम्ब ने हार मानकर बहन की हक़ और उसकी मर्यादा के लिए उसी तपोभूमि में तपस्या शुरू कर दी। वे सात साल तक तप करते रहे, सामा के दुःख से द्रवित अन्य तपस्वियों ने भी उनके स्वर में स्वर मिलाया कि श्यामा निर्दोष थी। कुछ ने तो कृष्ण के इस अन्याय से दुखी होकर खुद भी पक्षी बनना स्वीकार कर लिया, उनका राज्य छोड़कर वे भी सामा के संग दूर देश जाने को मन से तैयार थे। 

शाप मुक्ति असंभव थी, कृष्ण ने कुछ सुधार किया अपने शाप में, सामा हर वर्ष कार्तिक मास में आठ दिनों के लिए दूर देश से अपने देश आएगी और कार्तिक पूर्णिमा को पुनः वापस चली जायेगी। 

बहिन-वियोग से पीड़ित साम्ब को इस छोटे से आश्वासन से भी ख़ुशी मिली। उसने सोचा कि सारी बहनें तो कभी-न-कभी चली जाती हैं ब्याहकर दूर देश, वे मन से मान लेंगे श्यामा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। कि सामा को देखना, उससे मिलना अब एक सपना बनकर नहीं रह जाएगा उनके लिए। 

कहते हैं कि प्रवासी पक्षी जैसे जाड़े के घोर दिनों में इस देश आने लगते हैं, सामा भारत आने वाली पहली चिड़िया होती है। उसके आने के ठीक दूसरे दिन शुरु हो जाता है-सामा चकेवा का पर्व।’

(5)

कृष्णा चुप हो गयी थी भर-पेट रोकर। माँ ने उसके पाँव धुलाये थें, उसके लिए थाली परोसा था। बड़ी– कढ़ी, नोनी का साग, बासमती चावल, कटहल की तरकारी, तरुआ, दलही पूरी और रसियाव। इसमें सब वो चीजें थी जो बेटियों–बहुओं और पाहुनों के घर पहली बार आने पर बनाई जाती है। कुछ वो चीजें भी, जो कृष्णा को पसंद थी बहुत । 

कृष्णा उत्फुल्ल थी। गाँव के लोग उसके दुआर पर उमड़े पड़े थें, उसे देखने के लिए। वो पूरे पांच साल बाद जो आई थी अपने गाँव में, दो बच्चों की माँ हो जाने के बाद...

उसे खयाल आया अचानक, उसके बच्चे कहाँ है आखिर। इतने साल बाद अपने घर आकर जैसे अपने बेटों को भी भूल ही गयी थी वो। देखा उसने बड़का सोनू उसके पप्पा के गोदी में था, छोटका भाई के पास। चौकलेट लिए हाथ में। 

वह हैरत में थी। 

मतलब...

उसे दुक्ख हो रहा था। ऐसे कैसे रो रही थी वो, गंवारो की तरह। वह तो कितना मजाक उड़ाती थी ऐसे राग अलाप कर रोने वाली औरतों का। 

वो शहरी औरत कैसे देख रही थी उसे... गाँव की नन्ही-मुन्नी और बड़ी होती लड़कियाँ भी... और देखे भी भला क्यूं न? वह भी तो पहले ऐसे ही देखती थी, मायके से ससुराल जाने-आने वाली लड़कियों को। 

पांच साल हो गए थे उसे इस गाँव से गए हुए। आज लौटी थी वह, उसने तो आशा ही छोड़ दी थी, कभी लौटेगी भी वह अपने घर। कभी घूम सकेगी वो अपने गाँव की गलियों में। कितकित, इक्खट-दुक्खट खेल सकेगी। निहंग घूम सकेगी। उसे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था, उसने च्यूंटी काटकर देखा था खुद को। वह सचमुच वहीं थी...

बाबा खुद नहीं आए थे, दीपक भी नहीं आया था, बस घर के सन्देश के साथ बुलौआ आया था उसे लिवाने। सास ने तनिक पूछपाछ करने के बाद मना नहीं किया था। ससुर ने भी ना नहीं कहा था, आने दिया था उसे। पति साल-दो साल में एक बार आते थे, जहाँ कमाने गए थे उस देस से। ससुराल में और कोई दुःख नहीं था उसे। जानते थे वे सब उसका कलेजा कैसे कुहुकता है, अपने गाँव-घर के लिए। बस ससुर ने कहा था-‘इतना साल बाद बुलौआ तो आया लेकिन अभियो घर का एक जंत नहीं आया। ’ 

रामनिहोरा कक्का ने कहा था-‘बाबूजी बेराम रहते हैं इसके। भाई के परिच्छा है। और हम कोनो बाहर के नईखी। एक्कर कक्का जुगुत समझी।’

उसका मन हुआ था, भीतर से वही मना करवा दें, कलेजा कड़ा कर ले एकदम, ऐसा भी क्या कर दिया था उसने कि इतना गुस्सा? अबतक माफ नहीं कर सके वो लोग उसे। पर दिल ने दिमाग का कहा एकदम नहीं माना था... देखा उसने कि वो अपना पेटी सहेज रही थी, उसमें बच्चों के नए कपड़े रख रही थी। 

सामा चकेवा बनाते वक्त जब कृष्णा ने गंगा काकी से सामा चकेवा की कथा सुनी, तो लगा खुद उसी की कहानी दुहरा रही हैं काकी ... पर वहां तो भाई साम्ब जैसा था, जो बहन के हक़ के लिए लड़ता है, राजा कृष्ण से रार ठानता है? और उसका भाई?

यहाँ चुगला कोई दूसरा नहीं था, वही था जिसे उसके हक़ के लिए लड़ना था…

‘खुद 108 रानियाँ रखने वाले कृष्ण, राधा से बचपन ही में प्रेम रखने और गोपियों संग रास रचानेवाले कृष्ण तब क्यों नहीं समझ पाये श्यामा का मन... उसका दुःख?’ 

‘भगवान हो चाहे इन्सान मरद–मरद होता है और औरत-औरत। एक जैसे न्याय की उम्मीद करना बेकार है। ’ कहा था गंगा काकी ने उसके इस सवाल के जबाब में...

उसे सब पर गुस्सा आ रहा था, काकी पर, कहानी वाली श्यामा पर... क्यों नहीं खुद को निर्दोष साबित कर सकी श्यामा? कृष्ण पर भी... अगर पिता थे और उसपर भी भगवान तो श्यामा का मन समझना चाहिए था उन्हें...

कहानी उलट-पुलट हो गयी थी थोड़ी-थोड़ी। 

वह सोच के आई थी, भाई को माफ़ कर देगी। पर अभी उसका कलेजा इत्ता सा हुआ जा रहा था। काहे किया उसने ऐसा बैर? इत्ता सा लड़का और इतना बड़ा इल्जाम! ऐसी गहरी चाल! श्यामा की कहानी ने भाई के साम्ब जैसा न होने के दुःख को और गहरा दिया हो जैसे। 

क्या चल रहा था उसके दिमाग में ... किसके कहे पर इतना बड़ा इल्जाम धर दिया उसके माथे पर? अपनी ही बहन के लिए... पूछेगी जरुर उससे। 

वह एकदम से अतीत से वर्तमान में चली आई थी। उसका छुटका एकदम कलपते हुए आया था उसके पास। देख न माँ मामा चिढा रहे हमको, मांस खिलाने की बात कर रहे... माई ने भरपूर डांटा था उसे-‘पहले दिदिया को तंग करता था, अब उसके बुतरू सब को चिढाने लगा। बांस के पेड़ जेतना लंबा हो गया है, आदत अभियो लड़कपन वाला?

‘चाल नहीं बदलेगा तुम्हारा कभियो। मछर्गिद्ध कहीं का। जब देखो तब मीट – मछली के बात। ’ लेकिन न जाने क्यों उसे गुस्सा नहीं आया था। उसने देखा छुटका के हाथ में ईंख था। हंस पड़ी थी वो...

कृष्णा को याद आया था कैसे उसको चिढाता रहता था दिन भर- उसके साग-पात के प्रेम के लिए। माई और वो दोनों इस घर में शाकाहारी थे। बाबू और भाई दोनों मांसाहारी। माई गुस्से में सर्वभक्षी कहती थीं। भाई रिस में चिढाता उसको-‘ दिदिया मांस-भात नहीं खाएगी। बहुत स्वाद होता है। ताकत भी... देखो उहे खाके न हम ताकतवर हुए हैं इतना। कैसे पटक देते हैं तुमको ख़ट से।’

वह नहीं कह पाती थी, हम जान बूझकर छोड़ देते हैं बबुआ, बच्चा बूझके... त काबिल बनता है तू। 

उस दिन ऊंख के खेत में घूम रहे थे दोनों भाई- बहन। ‘दिदिया एक चुटकुल्ला बुझेगी?’ 

‘अरे चुटकुल्ला नहीं बुझौअल’। 

‘हां उहे – एक चिड़ईया अट, ओकर पाँख दून्नो पट, जेकर खलरा उदार, ओकर मांस मजेदार।’

उसका मन ओकिया गया था। लगा था वहीं उलट के धर देगी अपने भीतर का। भाई को चप्पल लेके मारने दौड़ी थी। लेकिन तब भी वो खिखिया रहा था- ‘दिदिया को एत्ता भी नहीं पता। मार तेज बनती है ...जो खा रही है, उसी के नाव से ओकिया रही है। अरे पागल ऊंख हुआ न इसका मतलब’ 

उसने छुटके के कान में धीरे से कहा है ऊँख। जाके मामा के बता आओ। बुद्धू समझते हैं मेरा बेटा को। 

कृष्णा ने कबसे सहेज कर रखा हुआ दू ठो बुश्शर्ट जो उसके पति दुबई से लेकर आये थे, निकालकर उसे थमाया है। उसने बिना देखे भी देखा था, पिता की आँखें छलक आई हैं एकदम से। भाई भी निहार रहा है ऊ बुश्शर्ट। एकदम से चम-चम और नीम्मन कपड़ा वाला। 

सामा चकेवा आज से कृष्णा ने भी बनाना शुरू किया, भाई से बातचीत नहीं उसकी। वह भी बच्चों से खेलता रहता है, उससे नहीं बोलता। फिर वह ही क्यों बोलने जाए? उसने माँ से कहा है- कह दें उसे माटी लाने को, कि भाई के लाये माटी से ही बनते हैं सामा चकेवा। 

सामां चकेवा के गीतों में मन रम रहा उसका। नाच तैयार कर रही है वो मन-ही-मन। माई ने उसका धरऊआ लहंगा–चोली पेटी से निकालकर बाहर कर दिया है...‘ कबसे सम्हार के रखे थे बक्सा के तर में...’ 

बचपन और जवानी के दिनों के एक पल भी थिर न होते कदम उसे बेतरह याद आ रहे हैं ... 

चलती भी थी तो कैसे इतरा कर एकदम लय और ताल में। सब कहते देखकर उसे, नाच में रमा रहता है इसका मन... 

पिता उसके न बहुत कड़े थे, न बहुत मीठे। बस पिता जैसे पिता थे। स्कूल जाने, पढने, खेलने-कूदने, नाचने-गाने किसी भी चीज में कोई रोक-टोक नहीं। वह मन लगाकर सब काम करती। माई का काम भी और अपने मन का सब काम। पढाई का, नाच का जब भी कोई मेडल-सर्टिफिकेट लेकर आती बाबूजी कहते कुछ नहीं पर बहुत लाड़ से देखते उसे। उस नजर से ही हिम्मत बढ़ जाती उसकी। वह दुगुने मेहनत और आवेग से करने लगती सारे काम। माई कहती -‘कभी-कभी रूक भी जाया कर, थकती नहीं का? आराम कर लिया कर तनिक। न जाने कौन सा दैत-राकस है देह में, चरखी की तरह दिन कातती है जिसके दम पर’। वह मुस्कुरा भर देती माँ की बात पर । 

पर एक दिन नजर लग ही गयी थी आखिर इस चरखी को, किसी एक ही धुरी पर अब मंडराता रहता हरदम उसका मन। किसी काम में जी नहीं लगता, जबतक डांस–मास्टर दीख न जाए एक बार। मुस्कुरा कर देख न लें उसे। नृत्य-कक्षा में उसका नाम न पुकार लें एक बार। सांस की सुई जैसे अटकी-अटकी चलने लगी थी दिन-रात। भोर, सुबह, दिन, दोपहर, सब शुरू और ख़त्म होने लगा था एक बार उनके देख लेने या दिख जाने भर से। न जाने उम्र की वह कौन सी पागल घड़ी थी... 

माँ चिंतित रहने लगी थी-‘ न जाने क्या हो गया ई किसुनिया को, दिखला आओ न किसी डागदर से। नहीं तो बैद जी को ही दिखा लाओ। हंसती-खेलती लड़की न जाने कैसी गुम हो गयी है। पूछो भी कुछ तो जबाब नहीं देती... - नजर-गुजर लग गयी किसी की ।’

पिता भी चिंतित थें, वैद की दवा भी चलने लगी थी, पर कुछ हुआ था अजब-गजब सा कि कुछ भी करने का उत्साह फिर भी जागता ही नहीं था। जब स्कूल में भी उसने सालाना जलसा में सामूहिक नृत्य में भाग लेने से मना कर दिया, तो सर ने बुलवाया था उसे स्टाफ रूम में... 

‘भाग क्यों नहीं ले रही... घर में किसी ने मना किया?’

‘नहीं’। 

‘कि सामूहिक नृत्य में नहीं शामिल होना चाहती?’

 ‘नहीं , ऐसा कुछ नहीं...’ 

‘तो क्या फिर नवमी के परीक्षा की चिंता है, तैयारी नहीं हुयी ठीक से?’ 

‘किसी विषय की तैयारी कम हो पाई है?’

‘ना। ।’

‘कुछ भी नहीं तो फिर और कौन सी बात है, बताओ?’

‘बस मन नहीं होता कुछ भी करने का, दिल नहीं लगता किसी काम में...’ उसकी आँखें डबडबा गई थीं। 

‘ऐसे कैसे चलेगा? ऐसे तो ठीक नहीं। ’ 

‘जिन्दगी है और ज़िंदा रहना हैं तो सब काम करना पड़ता है, मन नहीं लगे तो लगाना पड़ता है... समझी कुछ।’

उनकी बेबस आँखों में न जाने कैसी उदासी तैर आई थी... उसका और जोर –जोर से रोने को जी चाह रहा था। पर बेबसी थी कि वह स्कूल में थी... वह भी स्कूल के स्टाफ रूम में। यह संयोग ही था कि अभी स्टाफ रूम खाली था एकदम ... पर इस संयोग को दुर्योग में बदलने में सिर्फ एक पल लगेगा उसका दिमाग जानता था। हालांकि एक भी स्टाफ इस पांच-सात मिनट में इधर झांककर भी नहीं गया था, यहाँ तक कि स्टाफ रूम के बाहर निरंतर बैठा रहनेवाला कुत्ता भी नहीं था आज वहां। 

डांस टीचर ने भी शायद इस संयोग पर गौर किया था...खिसक के उसके थोड़े करीब आये थे, उसकी आँखों से अनवरत गिरते आंसू को अपने रुमाल से पोंछा था ने और रुमाल को सहेजकर अपनी जेब में में रख लिया था...उसके सर पर एक प्यार भरी चपत लगाई थी, और कहा था-‘ मैं एकल नृत्य के लिए तुम्हारा नाम दे रहा हूँ। समझी कुछ? कल से प्रैक्टिस शुरू कर दो जोर-शोर से। स्कूल का इज्जत रखना है तुम्हें... और हमारा मान भी...’

वह जैसे जमीन से बालिश्त भर ऊपर उठ आई थी, हवा में दौड़ लगाने लगा था उसका मन...

वह बहुत ही मीठी आवाज में कहने ही वाली थी –जी सर ...

कि एक वज्रपात हुआ था अचानक...

परदे के ओट में न जाने कबसे आ खड़ा उसका नन्हा भाई चिल्लाते हुये भागा था-‘गे माय किसुनिया के नाच मास्टर चुम्मा ले लेलकई...’

वह बड़बड़ाता हुए दौड़ा जा रहा था स्कूल-गेट की तरफ ...वह भी तीर की तरह उसके पीछे भाग निकली थी-‘चुप...फ़ालतू बात काहे कर रहा? उल्लू कहीं का । । कोई सुन लेगा तब... मास्साहब हमको बस नाच में भाग लेने को कह रहे थे। और कुच्छो नहीं। दिमाग में भूसा भरा है तुम्हारे...फिलिम देख-देख के बर्बाद हो गया है ई लईका। चल अभी माई से शिकायत करते हैं तुम्हारी...’ 

वह जैसे स्कूल से निकला था, वह भी उसके पीछे भाग ली थी। अपने बस्ता –टिफिन किसी की भी परवाह किये बगैर... वह मनौअल करती रही थी और वो तीर की तरह भागता सीधे माँ के पास जाकर रुका था, उसे समझाने को एक पल भी नहीं दिया था उसने... 

माई से छुटकू ने वही कहा था जो वह स्कूल से घर तक बड़बड़ाता आया था... माई ने माथा पर हाथ धर लिया था। फिर बोली थी –‘चुप मुँहझौसा, चुप रह एकदम... किसुनिया तू जा, भीतर जाके चुल्हा बार... बाप के आवे का समय हो रहा है...’ 

फिर उन्होंने भाई को फुसलाने की कोशिश की थी- ‘बाबू से मत कहिये बऊआ रे, किसुनिया का जिनगी खराब हो जाएगा...तोरा के 10 रुपैया देंगे। हम्मर सोना बाबू...सुन रहा है न हमरी बात?’ 

पर छुटका नहीं मानने वाला था सो नहीं माना। बाबूजी के घर आते ही दरवाजे पर ही उसने उनके पैरो से लिपटते हुए कहा-‘ बाऊ हो, नाच मास्टर स्कूल में किसुनिया के चुम्मा ले रहे थे, हम देखें अपने दुन्नो आंख से...’

पिता सन्नाटे में थें। 

वह दिन उसके लिए स्कूल का आखिरी दिन था। 

कहने की बात नहीं कि पढाई छूट गई उसी दिन उसकी। टिफिन–बस्ता,सहेलियाँ भी छूट गयीं, उसी रोज उससे। गाँव भर में उसके और डांस–मास्टर के किस्से के रोज नए–नए संस्करण लिखे जाने लगे थे। डांस मास्टर फिर उस दिन के बाद नहीं आये कभी स्कूल, पता नहीं कि वे खुद नहीं आये कि उन्हें निकाल दिया गया स्कूल से। नहीं हुआ उस साल वार्षिकोत्सव। 

हाँ, यह जरूर सुना कि डांस सिखाने के लिए एक अदद मास्टरनी आई थी स्कूल में, जो कभी भी डांस क्लास लेने नहीं आई। बस अपने घंटे में क्लास में आकर बैठ जाती कभी-कदार। ऊन का गोला और कांटा सलाई लिए। वह प्रिसिपल साहब की दूर की रिश्तेदार थी... कोई तो यह भी कहता कि उनकी प्रेमिका थीं वे कॉलेज-जमाने की...

पर उसे इस बहस से कोई लेना-देना नहीं रह गया था। डांस-मास्टर चले गए थे गाँव से, फिर कोई आये या कोई जाए क्या फर्क पड़ता था? हाँ, डांस मास्टर को पसंद करने वाली सारी लड़कियां उससे नाराज थीं कि उसी के कारण डांस-सर चले गए थें गाँव से...पर इस नाराजगी से भी उसे क्या करना था। 

वह खुद चली गयी थी, पौने तीन महीने के भीतर उस गाँव में, हमेशा-हमेशा के लिए। पिता ने फटाफट एक लड़का ढूंढा था, और कहने की बात यह कि बुरा भी नहीं खोजा था। छोटा सा खाता-पीता परिवार, अच्छा कमाने वाला लड़का। अच्छी खासी जमीन-जायदाद। शक्ल-सूरत भी खासी अच्छी। लोग भूलते-भूलते भूल गए थे, उसके और मास्साहब की(तथाकथित) प्रेम कहानी। बस नहीं भूल पाई थी तो सिर्फ वह। 

नहीं माफ़ कर पाये थे पिता शायद उसे। विदाई के वक्त भी उसकी कलेजा फाड़ू रुलाई के बाबजूद उसे गले नहीं लगाया था उन्होंने। 

कभी लेने नहीं आये थें उसके बाप-भाई ... 

और आज वह अपने उसी गाँव में वापस आई थी, चाहती थी कि अतीत के जंगलों में बिलकुल न भटके, भूल जाए बीता हुआ सबकुछ। पर अतीत ऐसे रह-रह के चुभ रहा था, कि आँखें गड़ रही थी उसकी और नींद थीं कि आँखों से कोसो दूर थी। 

उसने नींद और चैन के लिए बगल में सोये अपने बच्चे को कसके कलेजे से भींचा था। बच्चा नींद में मुस्कुरा उठा था... हर बेचैन लम्हें में थोड़े से चैन के लिए यही एक तरीका था उसके पास... 

(6)

केक केक केक केक... आसपास के सभी गाँवों में डोलने लगी है प्रवासी पक्षियों की आवाजें, दिखने लगे हैं उनके अनेक रूपवान चेहरे। पहले तो नहीं दिखे कभी इतने पंछी आसपास के सभी गाँवों में, क्या उन्होंने भी जान लिया है कि सामा-चकेवा खेलने जा रहे यहाँ के लोग। कि स्वागत है उनका इस धरती पर भी अब। 

याकि उसे लग रहा सिर्फ ऐसा। पक्षी तो हर बार आते-जाते रहे होंगे, लेकिन उधर ध्यान ही नहीं गया होगा। सामा चकेवा खेलने के उत्साह में हर पुरानी चीज भी नहीं गई है इस बार। पुनर्नवा होना इसी को तो कहते हैं। 

आसपास के गाँव में जैसे एक नयी रौनक आ गयी है। लड़किया हर गाँव की उमगी फिर रही हैं। ‘मूलगैन’ की तलाश है उन्हें। चंदौली से पान बेगम, भरौली से राधा देई... बलईपुर, खेम भटकन, धरमपुर, बैकुंठपुर, बेलवासा सब जगह खोजबीन जारी है... नाक नहीं कटवाना सपना को अपने गाँव का। खूब तैयारी कर रही वो, किसलय को भी जुटा रखा है। गरम दूध और मिसरी पीती है रोज रात में। दिन में हर बार गरम पानी। माई चिढ़ जाती है एकदम से- ‘सब नखरा लड़िका सब वाला। अब इनके लिए हर बखत चुल्हा जोड़ो, पानी गरम करो। ’ 

सामा चराई पर निकली हैं लड़कियां आज पहली बार। डलिया में सजे हैं उनके चिरई-चुरमुन, चुगला, सामा, खंजन। उनके लिए डलियों में चावल, फल, फूल पान सुपारी सब। 

दिव्या ने कम्पाउंड में जिस भी युवा से बात की उन सबके लिए यह पर्व रुढ़िग्रस्तता का उदाहरण है, और तो और फ़ालतू की फिजूलखर्ची भी...मुफ्त में चावल, गुड़ , मिठाई, दूध, दही का खर्च... तिस पर पर्व भी अपने यहाँ का नहीं, फिर इसे मनाना ही क्यों आखिर?

दिव्या समझा रही है उन्हें इस पर्व का प्राकृतिक और पर्यावर्णीय महत्व-‘ जानते हैं आप लोग, जब अन्य देशों में और हमारे भी देश के पहाड़ी इलाकों में बर्फ जम जाती है, तो ये पक्षी पानी और भोजन की तलाश में हमारे देश आते हैं, इनके आने से पर्यावरण में कुछ नई वनस्पतियों, नयी रौनकों की आमद होती है। प्रकृति की रौनक बढ़ जाती है,... हम उन्हें यह पर्व मनाकर यह वादा देते हैं कि तुम हर वर्ष आओ, तुम्हारा स्वागत है हमारी धरती पर, हम यह वादा करते हैं कि हम तुम्हें पकड़ेंगे नहीं, न तुम्हारा शिकार करेंगे, और न तुम्हें आहार बनायेंगे अपना। 

भला पक्षियों के आने का भी कोई पर्व होता है? उनके स्वागत का पर्व?

लड़के कुछ समझ रहे हैं, कुछ अनसमझा है अभी भी उनकी दृष्टि में। पर ब्याहता बहनों के आने की बात, भाई-बहन के स्नेह का किस्सा सबको भा रहा है। 

कलमबाग सजवा दिया है गिरीन्द्र बाबू ने। बिजली वाले बल्ब, लट्टू सब जगमगा रहे हैं। कोना-कोना रौशन हो उठा है बाग़ का। अलग-अलग गाँवों की औरतों के लिए अलग-अलग व्यवस्था की है उन्होंने। सब को सबका चेहरा दिखे ऐसी व्यवस्था। सबके लिए चौकी-पटिया। खालिस दर्शकों के लिए भी कुर्सी का इंतजाम। 

कौन गा रहा है ये गीत? कितनी करुणा भरी आवाज है इसकी-

‘सामा खेले गेली सुदीप भैया के आँगन हो, 

सुमित्रा भौजी देली लुलुआये, छोड़हूँ ननदो आँगन हो। 

की तू को भौजो हे देलू लुलुआये ,

अरे जाले रहिये माई बाबू के राज, ताले सामा खेलब हो

जे छूटी जईहें माई बाबू के राज, त सामा नाहीं खेलब हो’

‘ई देखो किरनिया के हिम्मत, छपरा वाली को सुना रही है गीत गा-गाके। उसका दिमाग खराब जे हुआ तो टिक नहीं पाएगी दुईयो दिन नइहर।’

‘नईहर आनेवाली बेटी सबको चाहिए कि भौजाई सबसे मेल-मिलाप बनाये रहे, नेह-छोह दिखाए कि रास्ता खुला रहे नईहर का। पर ई तो जैसे लड़ाई ठानने आई है। तभिए न सुमित्रा से बोल लगा रही है। जानती है कि भौजाई उसके बाप-मतारी का भी तार कसे रहती है, फिर भी... 

 बाप-माय का भी मुंह देखने को तरस जायेगी। जानती नहीं एक नंबर की चंडाल है सुमितरिया ।’

‘अरे चुप हो जाओ तुम ज़रा। गीते न गा रही है, कौनो भऊजाई का लंका उजाड़ कर थोड़े ले जा रही। ई गाना त शारदा सिन्हा के कैसेट में है, हम सुने थे छठ के बेरा। फिर ऊ गाइए दी त कौन पहाड़ टूट गया?’ 

‘कौन कहने वाला है सुमितरिया से, तुम जाके कहोगी त अलग बात है।’

‘देखो ई परब में चुगली करने वाले का मुंह जराते हैं, समझी कुछ... त चुगली करने जाने नहीं।’

गंगा काकी ने ऐसा सुनाया कि मुँह झमा के बैठ गयी रामदेईया की भाभी। बस मन ही मन सोचती है- बूढ़ो के बड़ा पंख उग रहा है, साम-चक में। परब बीतने दो तो बताते है, इनकी बहुरिया सब को। कैसे पुरधाईन बन रहीं थी रोज। फिर पंख कतरायेगा इनका अच्छा से। 

‘कम्पीटीशन चल रहा है लड़कियों में, एक-से-एक गीत गाने का। लोल ठोढ़ रंग के आई है सब। चिक्कन लुग्गा पहन के। कुंवारियों का भी रूप-जस कम नहीं तनिको, सिलेमा इस्टाईल में सब तैयार हो रही हैं रोज। 

नए जमाने, नए जुग की लडकियां हैं सब। 

पता नहीं किसलईया कहाँ है, सपना खोज रही दो दिन से। पर ई लड़की है कि मिल नहीं रही उसको। उसके बिना वह गीत कैसे गाएगी। दूसरी गांववाली सब बाजी ले जायेंगी और देखती रहेगी सपना। सब ई लड़की के कारण। 

उसे पहली बार किसलय पर बहुत गुस्सा आ रहा। कोई दूसरा न गा दे तबतक वो गीत। लो किसी ने शुरू कर ही दिया। 

नहीं यह दूसरा गीत है – 

‘गहरी नदिया अगम बहे धारा, हंसा मोरा डूबियो न जाए,

रोई-रोई मरले चकेवा कि राम रे, आ रे हंसा लौटि के आये।’

जबाब में दूसरी तरफ से स्वरलहरी उफनती है-

‘सामा खेले गेली हे भैया, आनंद भैया के रे ओर। 

सामा हेराए गेल रे दईया, चकेवा ले गेल रे चोर।’

‘देखऽ त, ई खेल के दूसरे दिन सामा हेराए लगली। नया खेलाड़ी के इहे हाल होला। ’ दरभंगा वाली चाची गंगा दाई के कान में कह रही हैं। 

‘कोनो बात नईखे... पहिले-पहिल नू बा... जान जईहें सब धीरे-धीरे... केतना दिन के बाद सुनाई पड़ल हऽ, तनी गीत सुनें दी...’ काकी की जुबान पर भले ससुराल की बोली हो, मन में नईहर का उछाह भरा हुआ है। 

भरौली वाली लड़कियाँ गा रही हैं- 

‘चोरवा के नाम हो भईया, अनूप लाल बहनोईया बड़ा चोर

चोरवा के नाम हो भईया, संतोष लाल बहनोईया बड़ा चोर

चोरवा के नाम हो भईया, हरिबंस लाल बहनोईया बड़ा चोर

एक सांटी मरिह हो भैया, करेजवा उठेला हिलोर

दूजी संटी मारब जे भैया, अँखियाँ ढरके ला लोर 

बान्हि-छानी रखिहऽ हो भैया ,रेशम के रे डोर...

‘देख ल आज के लईकियन सब के, केतना आराम से दुलहा के नाम ले रही हैं... एगो हमनी के ज़माना रहे...’ 

चाँद बीच आकाश पहुँच रहा है अब। अर्द्धरात्रि होने ही वाली है। लड़कियां अपनी डोलची संभाल रहीं हैं, घर जाने की तैयारी में है सब...आवाज भी अब उनकी उलाहनों, शरारतों, शिकायतों से हटकर बहुत शांत और निर्मल हो चली है। जहाँ अब बस निश्छल स्नेह और आशीष बह रहा... भाई -भौजाई के लिए। मायके के लिए। माँ-बाप के लिए… आशीष की इस धारा में सबके फलने-फूलने, खुश रहने की कामना प्रवाहित हो रही है। 

‘साम्ब भैया चलले अहेरिया, सामा बहिनी देली आशीष हो ना

जिअहू ओ मोरे भईया, जिय भैया लाख बरिस हो ना

पान सोहे मुख बीड़वा, भउजो के बाढ़े सिर सेंदूर हो ना’

(7)

सपना किसलय के घर आई है। उसे आज ही मालूम चला कि उसके पापा बीमार हैं, लीवर में सूजन है, सीवान जाकर दिखलाना होगा डॉक्टर को। 

किसलय कहती है- ‘पैसा नहीं अच्छे अस्पताल और डॉक्टर से दिखाने लायक।’

सपना ने कुछ रुपये निकाल कर दिये है उन्हें। वे लेने में सकुचा रहे हैं... 

‘चच्चा ई हमारा पईसा है, पप्पा का नहीं। हम अपने मन से दे रहें हैं। जब ठीक हो जाइए और हो जाये तो लौटा दीजिएगा। किसलईया देती तो नहीं लेते? कि हम आपकी बेटी नहीं हैं ईहे खातिर?’

किसलय के पिता की आंखें भर आई हैं–‘ बबुनी, कौन मुंह से लें हम तुमसे पईसा? किसलईया को हमेशा तुमरे साथ रहने से डांटते-बोलते रहे। तुम्हारे साथ नाटक जाना छुड़वा दिये उसका। ’ किसलय के पिता के हाथ जुड़े हैं, आँखों में क्षमा याचना का भाव हो जैसे... 

‘ऐसे मत कहिए चच्चा, सब माँ बाप ऐसा ही सोचते हैं और अपने भरसक हमारे लिए भला ही सोचते हैं। आप कोनो गलती नहीं किये, बड़ होके हाथ मत जोड़िए। 

किसलय के बाबूजी की आँखें अविरल बह रही हैं... 

‘हम तभिये सोचेंगे कि आप हमसे नाराज नहीं, जब आप किसलईया को हमारे साथ जाने देंगे। ’ 

‘ऊ त हम राते कह दिए उसको कि अबसे रोज जायेगी ‘उड़ान’। मुनुआ को भी साथे लेके जायेगी। एकदम पढ़ाई लिखाई में ध्यान नहीं दे रहा। बईठेगा बच्चा सबके साथ त कही रूचि जगे उसका भी पढ़ाई-लिखाई में। ’’

सपना ख़ुशी के मारे पगलाई जा रही है। अब वे दोनों साथ जायेंगी ’उड़ान’ और चच्चा नहीं रोकेंगे। कितना सुन्दर दिन है आज। सामा खेलने का अंतिम दिन। कल विसर्जन होगा। सूना हो जाएगा एकदम से गाँव। ब्याही लड़कियां अपने घर लौट जायेंगी और बचे लोग अपने काम की दुनिया में। पर उसे इन्तजार रहेगा की सामा फिर अगले साल आये। रौनक और खुशियाँ से फिर सज जाये सारा गाँव। 

अंतिम रात उसने और किसलय ने उठाया है पहला गीत, सब मंत्रमुग्ध सुन रहे उन दोनों को। बूढ़ी औरतें कह रहीं हैं- सीखा हुआ गला है, तभिये ले पा रही इतना उंचा तान। ‘उड़ान’ जाती जो है सालों से। 

यूं तो दिव्या हर रोज वीडियो बनाती है, पर आज सपना और किसलय का यह गीत विशेष तौर पर रिकार्ड कर रही है- 

‘आ रे मान सरोवर के झलमल पनिया,

काहे छोड़ी अएलऽ हंसा ई मृत्यु भवनिया...

गंगा जमुनवा के निर्मल पनिया,

काहे छोड़ अएल ए हंसा... 

बाबा मोर आरे हंसा पोखरी खोदाये दिहें 

पोखरी भराएँ देव दूध। 

पोखरी में फूलिहें पुरईन के फूल हंसा,

अईह तू हमरे देश।’

(8)

रोज सोचती है कृष्णा पर नहीं पूछ पाती भाई से। दिन कट जाता है बच्चों को संभालते। खेत खलिहान घूमते। सामा खेलने की तैयारी करते। कभी माई का हाँथ बंटाते। माई बरजती है हमेशा-‘ दू दिन में चल जायेगी। फिर काहेका माई से नेह-छोह दिखाना। माई के तो अकेले रहना है इहाँ। ’ उसका चेहरा उतर आता है यह सुनकर। सचमुच अब गिने-चुने दिन रह गए हैं उसके पास। दिन जैसे पंखों पे सवार होकर उड़ रहें। 

वह नहीं पूछ पायी है अबतक... सोचती है रहने ही दे... अब क्या पूछना... और पूछकर भी क्या लौट आएगा वह बीता हुआ कल? लौट सकेगा उसका बचपन? पिता का गर्व? बदल सकेंगे गाँव वालों के उलाहने-ताने? फिर क्या फायदा है...

अभी तो पिता खेत से आते उसे पुकारने लगे हैं पहले की तरह –‘अरे किसुनिया, ले जा ई सब माय के दे दे। ’ बच्चों के लिए लाया चौकलेट लेमनचूस, फल-मिठाई देने लगे हैं उसे – ‘संभार के रख ले लईकन के भूख लगेगा त देना। ’ उससे पूछ के तरकारी लाने लगे हैं। 

भाई देखे भले ही न भर निगाह उसे। बोले भले ही न भर मुंह। पर हर दिन सामा खेलके आने बखत उसके साथ होता है। क्या करे वह फिर पूछ-जानकार... 

जो बीत गया सो बीत गया। 

(9)

अंतिम रात लौटते बखत बारिश हो रही है, भाई ने झपटकर ले लिया है उससे डलिया, छोटका जो जिद करके चला आया था संग, उसको गोदी उठा लिया है। अपना मोटका जैकेट उतारकर उसके कंधे पर डाल रहा है-‘ भीज जायेगी दिदिया। ।’

‘भीज जाने दे। ।’

‘अपने रहते कैसे भीज जाने दें...’

उसका मन हुआ है पूछे- ‘अपने रहते तो तू जो काला पानी की सजा चुना मेरे वास्ते ,उसका क्या?

पर बोलती नहीं एकदम से...

वह बोलता है –‘दिदिया। ।’

बिजली चमकी है आकाश में एक बार चम्म से, तेज आवाज हुयी है उसकी... 

छोटका बोलता है-‘मम्मी । ।’

वह पलटी है उसे गोद लेने को...

‘चुप, हम है न तोहरे साथ। मामा है तुम्हारे। थोड़ा चिढ़ाते हैं उससे क्या... तुमको हम अच्छे नहीं लगते?’

‘नहीं... 

वह डांटती है बेटे को- ‘कोई मामा को ऐसे बोलता है ... तुमको गोदी में ले के चल रहा है, रोज घुमाता है, खेलाता है । । फिर?

भाई बहुत धीरे से बोलता है-‘ ऊ तो, हमको भी पता है...अच्छे नहीं हैं हम...’

 उससे भी धीरे से बोलता है- ‘है न दिदिया?’

कृष्णा मठेर जाती है उसकी बात का जबाब। कहती है- ‘जल्दी-जल्दी चलो। बात-ऊत बाद में करना। माई घबड़ा रही होगी...’

‘न दिदिया हमको कहना है, अभिये कहना है...नहीं कहेंगे तो फिर कसकते रहेंगे, तुमरे जाने के बाद’

‘कुच्छो नहीं कहना है, हम कुछ पूछ रहे हैं तुमसे ...’

तुमको सुनना पड़ेगा-‘हमको लगा था मास्टरनी बनी रहती है ऐसे भी... कहीं मास्टर से शादी कर ली त इहें बस जायेगी... दोनों मिलकर पढाई करने के लिए मेरी मूड़ी पर चढ़े रहोगे।’

‘बाबूजी ऐसे ही हमको कम मानते हैं, तब और कम मानेंगे। । ’ 

‘तुम ऐसे भी हम पर कम ध्यान देने लगी थी, हर समय नाच-नाच, बस नाच... हम ताड़ने लगे थें कुछ-कुछ और बस फिराक में थें कि... चाहे तो लड़िक-बुद्धि कह लो इसको...पर पाप तो पाप होता है ...और हम उ किये हैं... तो का कहे की नहीं किये...

तेज कदम भागती कृष्णा के पीछे भाग रहा है वो...अपनी बात कहने के लिए। अपना प्रायश्चित करने के लिए... पर कृष्णा है कि जैसे सुन ही नहीं रही कुछ, बस भाग रही है, भागी जा रही है ...

घर पहुँचकर वो भाई का जैकेट उतारती है, फेंक देती है उसके मुंह पर और औंधे मुंह बिछावन पड़ी खूब रोती है, हिलक-हिलककर। 

माई बार बार पूछती है उससे –‘का हो गया इसको? कोई कुछ बोला है?’ भाई चुपचाप सर झुकाए खड़ा है उसके सिरहाने। बड़का छोटका दोनों रो रहे हैं उसके संग- ‘मम्मी...’

थिराती है तो बच्चों को पानी देती है। फिर उन्हें कलेजे से सटाकर सो जाती है, एक बेसुध नींद... 

(10)

आज विसर्जन है सामा चकेवा का। भाइयों की आज बड़ी भूमिका है इस विसर्जन में। सब भाई इकट्ठे हैं आज इधर। वे भी जिन्हें कल तक यह खेल फ़ालतू का तमाशा लग रहा था। 

साम चक को दही-चूड़ा जिमाया गया है, फिर भाइयों को। चुगला के मुंह में आग लगाईं गई है आज। औरतें गा रही हैं—

‘तोहरे कारन चुगला, तोहरे कारनवा हो, जरे मोर बृन्दावन, रोये हम्मर गाँव के बेटिया हो।’

बच्चे मार ताली पीट-पीटकर खुश हो रहे हैं... किसलय का मोनुआ... कृष्णा के दोनों छुटके... और गाँव के दूसरे छोटे नासमझ बच्चे । 

सामा चकेवा को घुटने से फोड़ने के क्रम में मोनुआ का घुटना छिल गया है। भोकार पारकर रो रहा है मोनुआ। किसलय और सपना उसे पोल्हा (बहला)रही हैं... देखो तो सब भाई तोड़ा है अपना ठेहुन से, तू तो मजबूत बच्चा है...

ललचा रही है सपना कि उसके लिए सीवान से केक लेकर आएगी। नयका बेकरी का केक। 

विदाई की घड़ी है यह, दिव्या का भी मन भारी हो उठा है, सामान सहेजकर तो वह आज चली ही थी, बस मिलने-मिलाने का काम भर रह गया है। 

कृष्णा का भी मन भारी है... कल चल देना होगा। सास से यही कहकर तो आई थी। भाई उसकी भरी आँखों को देखता है और कहता है-‘दिदिया दो दिन रूककर चलेंगे। हम अपने पहुंचा आयेंगे तुमको। फोन पर बात करेंगे तुम्हरी सास से...’ कृष्णा कुछ भी नहीं कहती जबाब में। 

गंगा काकी का भी मन उमड़ा पड़ा है, आज के बाद फिर वही दिन फिर वही रात... वही घर और वही चुप्पी। 

भसान का समय आ गया है। बहनें भी गयी हैं भाईओं के साथ उड़ान के तालाब तक। वे सब एक साथ समूह में अनुनय भरी आवाज में कह रहे हैं-

‘साम चक साम चक अईहऽ हो, अईहऽ हो, अईहऽ हो

अगले बरस फिरअईहऽ हो,अईहऽ हो, अईहऽ हो...’

मूर्तियाँ विसर्जित होने से या फिर सामूहिक आवाज से पंछियों का एक पूरा झुण्ड तालाब से उड़ कर आकाश में छा गया है। उनकी समवेत आवाज से दिशाएं गूँज उठी हैं। 
***

संपर्क: D 4 / 6, केबीयूएनएल कॉलोनी, काँटी बिजली उत्पादन निगम लिमिटेड,
पोस्ट– काँटी थर्मल, जिला- मुजफ्फरपुर– 843130 (बिहार)
मोबाईल – 7461873419; ईमेल – kavitasonsi@gmail.com

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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ऐ लड़की: एक बुजुर्ग पर आधुनिकतम स्त्री की कहानी — कविता


कृष्णा सोबती जी को जन्मदिन की बधाई, उनकी लम्बी उम्र की कामना के साथ युवा कहानीकार कविता ने उनकी चर्चित कहानी 'ऐ लड़की' पर एक बड़ी टिप्पणी की है ... आइये जानें इस कालजयी कहानी पर आजकी युवा कहानीकार क्या सोचती हैं — भरत तिवारी 18 फरवरी  
ai ladki krishna sobti review #shabdankan

एक बुजुर्ग पर आधुनिकतम स्त्री की कहानी :ऐ लड़की

— कविता




(औरत अकेली भली है या परिवार के साथ, वह स्वतंत्र अच्छी है या घर कि चहारदीवारियों में बंधी हुई, इस बहस को ये कहानी मानीखेज करती है, कृष्णा जी कि नब्बेवें वर्षगाँठ पर उनकी अभी भी एक बहुत प्रासंगिक कहानी की चर्चा )

कोई भी बेहतर रचना न सिर्फ देखे, सुने और समझने के आधार पर रची जाती सकती है, और न वह पूरा का पूरा आत्मवृत्त या आत्मकथा होती है। रचना और रचनाकार जब अपनी स्वतंत्र सत्ता का अतिक्रमण कर एकमेक होते हैं, रचना जब अपनी जिदों और शर्तों में लेखक को बांधती है और लेखक उसे अपने संयम और अनुशासन के दायरे में कसता है, अच्छी रचना तभी बन पाती है।

संवादों में रची गई इस लम्बी कहानी का शिल्प निसंदेह उसके प्रकाशन के समय में नया और अनूठा ही रहा होगा... पर कोई भी रचना न सिर्फ शिल्प होती है, न होनी चाहिए। मूल्यों कि शिनाख्त, जीवन कि सच्चाइयों की तलाश और उनका किसी रचना के द्वारा दुबारा से रचे जाना ही साहित्य है; कहें तो 'ऐ लड़की’ ऊपर से तो तीन स्त्रियों के बीच के वार्तालाप सा दिख पड़ता है, पर असल में यह दो स्त्रियों का संलाप और उससे भी ज्यादा एक बूढी स्त्री का एकालाप। असल में वह जो बातें कहती है, वह खुद से ही की गई बातचीत जैसी होती है। पर बाबजूद इसके और न जाने कितनी बातें गुंथी हुई है, इस कथा में। किसी गझिन बुनी हुई चटाई की सी, मुलायम रेशों से बुनी हुई बातों कि न जाने कितनी परतों से बनी हुई। जिसका न एक भी धागा निरर्थक है, न एक भी फंदा इधर-उधर। चाहे वह बूढी स्त्री के ब्याह के समय कि स्मृतियाँ हों , या फिर पहली बार माँ बनने की। जवानी की, घर संसार की। बच्चों और बच्चों के बच्चों कि यादें। अपनी अकेली रहने वाली बेटी की चिंता। सारे अनुभव और यादें घुल-मिलकर एकमेक और एकसार होती हुई।

जिन्दगी के सारे रंग, सारे गंध इस कहानी में जैसे गूंध दिए गए हों एक एक करके। इसीलिए तो मृत्यु के कहीं घात लगाए निकट बैठे होने के बाबजूद यह कहानी मौत से डरने की नहीं उससे जूझने –जीतने और उसके निषेध कि कहानी बन पाती है-‘बीमारी को अपने भीतर धंसने नहीं दिया, अभी तक तो सबकुछ चाट जाती’ जिन्दगी को ‘मुक्ति’ और ‘निष्काम’ कि संकल्पना पर तरजीह देती हुई यह औरत बार-बार कहती है-‘जीना और जीवन छलना नहीं है। इस दुनिया से चले जाना छलना है। यह दुनिया बहुत सुहानी है। हवाएं, धूप, घटा , बारिश उजाला-अँधेरा। इस लोक कि तो लीला ही अद्भुत है। ... देह तो एक वसन है, पहना तो इस और चले आयें, उतार दिया तो परलोक, अपना नहीं दूसरों का लोक। ’ इसीलिए यह औरत जीवन कि स्मृतियों, उसके स्वाद और सुविधाओं को भी छककर पीती-जीती है । वक़्त और इंतज़ार जबकि ये दो ही शब्द हिस्से हों... तीसरा जो है वह ‘दर्द’, जिसे वह अपने मनोबाल से खारिज करती रहती है। अकिये और अजीये का अहसास है जो सालता रहता है रह-रहकर, चुभता है घावों के बीच एक नया घाव बनकर-‘चाहती थी पहाड़ कि चोटियाँ चढूं। शिखरों पर पहुंचूं । पर यह बात घर कि दिनचर्या में कहीं नहीं जुडती थी... तुम्हारे पिता जी को न कुछ भी देर से चाहिए था, न जल्दी । सो आप ही घडी बनी रही ... इस परिवार को मैंने घडी मुताबिक़ चलाया, पर अपना निज का कोई काम न संवारा, इस बात का बहुत कष्ट है मुझे। यह दर्द उस बूढी औरत का ही नहीं, न जाने कितनी सारी स्त्रियों का दर्द है, जिसने अपने हिस्से का जीवन जीया ही नहीं। तब से लेकर यह किसा अब तक बहुत हद तक वही है।

वह अपनी लड़की के ऐसे(दूसरों से भिन्न और अकेली ) होने को अपने ही किसी चाह, किसी अदेखे रूप का विस्तार पाती है। और उस जमाने कि वह स्त्री उसके इस अकेलेपन को स्वीकारती भी है, - ‘ तुम जब होनेवाली थी, मैं दिल और मन से अकेली हो गई थी । सर पर जैसे एकांत छा गया हो। दिल में यही उठे कि जैसे पगडंडियों पर अकेली घूमती फिरूं। लगे चीड़ का कोई ऊँचा पेड़ ही जैसे अन्दर उग आया हो। ’ हालांकि थोड़े भय और हलकी चिंता के साथ। वह जानती है कि किसी के धकेले कोई धावक नहीं होता, खुद अपनी दौड़ दौड़नी होती है सबको। अपने बहाव के विरुद्ध मत चलना। किसी के अधीन नहीं होना ताकत है, सामर्थ्य है, शक्ति भी है , अपने अनुभवों से जान और समझ चुकी है वो। पर भय है कि पीछा ही नहीं छोड़ते , भय आशंकाएं तो हमेशा पीछे दौड़ते आने वाली पिछलग्गुओं के जैसी होती है न, तरह तरह के भय –‘तुम अपनी एकहरी यात्रा में क्या प्रमाणित करोगी? संग-संग जीने में, रहने में कुछ रह जाता है, कुछ बह जाता है;अकेले रहने में न कुछ रहता है, न बहता है।

माँ बनकर स्त्री तीनो काल जी लेती है...

बेटी के होते ही माँ सदाजीवा हो उठती है... मरती नहीं कभी। ’

पर इस लड़ाई में भी वह नए के पक्ष में खड़ी होती है । लड़ती है अपने ही प्रश्नों से खुद । । एक भरोसा तो है मन में कि यह न किसी को सताएगी, न सताई जाएगी किसी से , पर प्रश्न है कि रक्तबीज कि तरह फिर नए होकर जी उठते हैं-‘अपने से भी आजादी चाहिए होती है, देती हो वह कभी अपने को?

जरुरत पड़ने पर आवाज किसे दोगी? लड़की(बेटी) कहती है-‘मैं किसी को नहीं पुकारूंगी। जो मुझे आवाज देगा, मैं उसे जबाब दूँगी। ’अम्मू अब तो तसल्ली हुई?

सारी कहानी का सार, और कहानी कि बुनावट जैसे इन्हीं प्रश्नों के उत्तर पर टिकी हुई थी । माँ कि जान कहीं अटकी हुई थी तो अपनी इसी अजब-गजब, बेलीक चलती हुई बेटी में। जैसे की बच्चों की कहानियों में राक्षस कि जान अटकी होती है किसी तोते में, -‘मेरे बाद इसका क्या?’मेरे बाद किसे कहेगी?सहेगी कैसे?

जबाब मिलता है और रूह आजाद हो लेती है, सारे लगावों से, मोह से, चिंता से। ।

‘ऐ लड़की’ से गुजरना जिंदगी के भीतर से गुजरना है। मोह, मृत्यु और जीवन की परिभाषाओं को तलाशना । स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, रिश्ते, स्त्री कीस्थिति, परिवार में उसकी जगह , पैत्रिक संपदा पर हक, आजादी और बंधन जैसे तमाम स्त्री के जीवन से जुड़े मुद्दों से संवाद और उससे भी कहीं ज्यादा मुठभेड़ करते हैं हम इसे पढ़ते हुए ।

यह दो पीढ़ियों के मानसिक संघर्ष के साथ-साथ मिलकर सोचने, बतियाने , मनवाने, और एक दूसरे को मानने से भी कहीं ज्यादा ‘जानने’ कि कहानी है। क्योंकि मानना एक बात है, जानना दूसरी। मानने के लिए किसी को, (या किसी कि) खुद को खोना पड़ता है, जानने के लिए उसे जगाये और सजग रखना।

यह भूमिकाओं के पलटने कि कहानी है। एक के दूसरे में बदल जाने की कहानी, क्योंकि एक दौर में जो सीढियां चढ़ी जाती हैं, दूसरे में उन्हें उतरना भी होता हैं।

इस कहानी की भाषा आज तक ताज़ी, हलकी और उर्जावान सी दिखती है। पेचीदा से पेचीदा मसले को आसानी से कहती और सुलझाती हुई , जीवंत और संजीदा। यह कहानी सिर्फ खुद के लिए सचेत नहीं, सामजिक जागरूकता औइर विकास भी इसमें कहीं सम्मिलित है।

जो बीत चुका है , गुजर चुका है, वह उस पुराने कि पुनरावृति भर होता है । जब वह दुबारा ज़िंदा होता है तो इतिहास बन चुका होता है। ’ऐ लड़की’ कृष्णा जी और उनकी माँ कि कहानी का पुनारोपाख्यान है, इसमें स्मृतियों को इतिहास तो नहीं एक भरपूर कहानी बनाने कि पूरी जिद है।

औरत अकेली भली है या परिवार के साथ, वह स्वतंत्र अच्छी है या घर कि चहारदीवारियों में बंधी हुई इस बहस को ये कहानी मानीखेज करती है... इतने वक़्त बाद भी अगर आज यह समकालीन कहानी सी दिख पड़ती है, वर्तमान माँ-बेटी के संबंधों से सम्बन्ध और चिंताएं अगर इसमें हैं, तो यह उस कहानी के समय से आगे की कहानी होने के ही कारण। शायद इसलिए कि इसमें आनेवाली पीढ़ी को अपनी थाती देकर जाने की इच्छा तो हैं ही, कहीं उन्हीं में खुद के और ज़िंदा और बचे रहने कि चाह भी।


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कहानी - नदी जो अब भी बहती है : कथाकार कविता | #Hindi #Kahani 'Nadi jo Ab Bhi Bahti Hai' by Kavita

बड़े महीन धागों से बुनी है चर्चित लेखिका कविता ने यह #कहानी 'नदी जो अब भी बहती है'... भावनाएं बहुत कोमल हैं और इसलिए गुज़ारिश करूँगा कि ज़रा आहिस्ता-अहिस्ता पढियेगा ताकि #लेखन का पूरा आनन्द मिल सके...

कहानी - नदी जो अब भी बहती है : कथाकार कविता | #Hindi #Kahani 'Nadi jo Ab Bhi Bahti Hai' by Kavita

नदी जो अब भी बहती है

~ कविता


डॉक्टर अब भी हतप्रभ है और हम चुप। ऐसी स्थिति में इतना भावशून्य चेहरा अपने बीस साला कैरिअर में शायद उसने पहली बार देखा है।

हम चुप्पी साधे हुए उसके चैंबर से बाहर निकल पड़ते हैं।

उनकी और मेरी चुप्पी बतियाती है आपस में... "ऐसे कैसे चलेगा? अब तो तुम्हें...।" "....ऐसे ही चलने दीजिए।" "जिसे आना हो हर हाल में आता है औऱ जिसे नहीं...।" "वैसे भी मैं कुछ भी नहीं चाहती, बिल्कुल भी नहीं।" चुप्पी की तनी शिराएं जैसे दरकी हों; मैं भीतर ही भीतर हिचकियां समेट रही हूं... नील जानते हैं सब... नील  समझते हैं सब... नील संभाल लेना चाहते हैं मुझे, पर मैं संभलना चाहूं तब न...। मैं झटके से धकेल देती हूं अपने कंधे तक बढ़ आया उनका हाथ...। सिसकियां अपने आप तेज हो जाती हैं। मुझे परवाह नहीं किसी की...। एक कौवा जो ठीक अस्पताल के मेन गेट पर बैठा था, उड़ जाता है। कांव-काव करता, जैसे उसे मेरी सिसकियों से आपत्ति हो। आते-जाते लोग क्षण भर को देखते हैं मुझे ठहर कर... फिर... चौकीदार ने तो देखा तक नहीं मेरी तरफ। बस गेट पास...। आखिरकार अस्पताल ही तो है यह... यहां तो आए दिन...।

... महीनों से यह भावशून्य चेहरा लिए घूम रही हूं। जी रही हूं हर पल... घर, दफ्तर, आस-पड़ोस... हर जगह लोग कहने लगे हैं, अब ठीक लग रही हो पहले से। लेकिन मैं जानती हूं कुछ भी ठीक नहीं है मेरे भीतर और वे सब कुछ भी कहते हैं, सब मेरा मन रखने की खातिर...। फिर भी उनका कहना मुझे एक बार सब कुछ याद दिला जाता है...। एक सिरे से सब कुछ। वह सब जिसे कि मैं भूलना चाहती हूं या कि वह सब जिसे मैं बिल्कुल भी भूलना नहीं चाहती।

एक शून्य है मेरे भीतर... और इस शून्य को हर पल जिंदा रखना ही जैसे मेरे जीवन का मकसद हो...।

तेज चलते-चलते मैं पेट थाम लेती हूं... और सचमुच मुझे लगता है, जैसे कुछ है मेरे भीतर जो कह रहा है मुझे संभाल कर रखना।

रात को अब तक अकेले में सलवार सरका कर या कि नाइटी को थोड़ा खिसका कर सहलाती हूं। नाभि से ठीक-ठीक नीचे या कि ऊपर का वह भाग जहां कुछ खुरदुरे से चिन्ह हैं... उस खुरदुरेपन को महसूसते-महसूसते आंखों में नदियां उमड़ने लगदती हैं अपने आप, और नदियों के साथ बहने लगती हूं मैं जैसे यही मेरा भवितव्य...

मुझे लगता है कि वह है कहीं मेरे भीतर... कि वह गया ही नहीं कहीं... मीठे से दर्द का वही अहसास... खाने से वैसी ही अरुचि... वही थकान... वही उचाटपन...

ऐसे में जानबूझ कर याद करती हूं मैं अपनी हिचकियां... अपना निढालपन... और उसके बाद का लंबा-लंबा खालीपन... मैं याद करती हूं आधी-आधी रात को मुझे बेचैन कर देने वाले अपनी छातियों में समा आए समंदर को... जो बंधना नहीं चाहता... जो जाना चाहता है अपने गंतव्य तक। उस समंदर की उफनती बैचैनी मुझे तड़फड़ा देती है बार-बार। मैं हिचकियों में डूब जाती हूं ऊपर से नीचे तक... माई संभाल लेती हैं मुझे ऐसे में... गार लेती हैं उस समंदर को अपनी हथेलियों से किसी कटोरे में.. मैं असीम दर्द से कराह उठती हूं...

कमर और पीठ दर्द से जब तड़पती रहती हूं, माई कटोरे में तेल लेकर मालिश करने आ पहुंचती हैं। मना करने पर भी मानती नहीं... बनाती हैं मेरे लिए सोंठ-अजवायन के वही लड्डू जो मैंने अब तक जचगी के वक्त खाते देखा है भाभी और दीदियों को... तब मैं जिसे शौक से खाती थी आज उसे देख रुलाई और जोर से फूट पड़ती है... और प्लेट मैं परे सरका देती हूं।

रीतता है कुछ भीतर... पर रीतता कहां है... नील याद करके मुझे दवा खिलाते हैं... मेरी पसंद की किताबों के अंश पढ़-पढ़ कर सुनाते हैं... धीरे-धीरे सूख पड़े घाव की तरह सूखता है वह... पर सूख कर भी भीतर से कुछ अनसूखा ही रह गया हो जैसे।

... और वह चाहे सूख भी ले, उस निरंतर बहती नदी का क्या... जो याद दिलवाती रहती है अक्सर... वह नहीं रहा... वह... वही जो इस सबका वायस था... जिसके कारण ही थे यह सब कुछ... और जिसके होने भर से यह सारा दुःख सुख में बदल जाता...

वह नदी भी सूख ही रही है बहते-बहते। पूरे दो महीने बीत चले हैं इस बीच। जांघों के बीच दो टांके वाली वह सिलाई टीसती है कभी-कभी... और फिर याद आ जाता है डॉक्टर का कहा सब कुछ आहिस्त-आहिस्ता, मानो कल की ही बात हो... दो-दो सिर हैं, बिना टांके के काम नहीं चलेगा... वो तो यह प्रीमैच्योर है, नहीं तो ऑपरेशन ही करना पड़ता...

टू डाइमेंशनल अल्ट्रासाउंड करते हुए डॉ सिन्हा ने मुझसे कहा था- तुम्हें पता है कि बच्चा कन्ज्वाइंट है... मतलब इसका शरीर तो एक है पर सिर दो... मेरी सांसे जहां की तहां अटकी रह गई थीं। मैं भक्क-सी थी, जड़वत... पांच महीने बीत जाने के बाद भी कुछ बताया नहीं तुम्हारे शहर के डॉक्टरों ने...? नील ने खुद को संभालते हुए कहा था- नहीं, बस इतना कहा कि कुछ कॉम्प्लीकेशन लगता है, अच्छा हो आप एक बार बाहर दिखा लें... डॉक्टर निकल गई थी उस हरे पर्दे के पार।

सिस्टर मेरे पैरों में सलवार अटका रही है। मेरे हिलडुल नहीं पाने से उसे दिक्कत है, लेकिन फिर भी वह कुछ कहती नहीं... जैसे-तैसे सलवार अटका कर मुझे किसी तरह खड़ा करती है वह। फिर जैसे जागी हो उसके भीतर की स्त्री। मेरी आंखों के कोरों से बहते हुए आंसुओं को हौले से पोंछते हुए कहती है- ऐसे में हिम्मत तो रखना ही होगा।

मैं उसके सहारे जैसे-तैसे बाहर निकलती हूं। डॉक्टर पूर्ववत दूसरे अल्ट्रासाउंड की तैयारी में हैं। बाहर बैठा एक शख्स कहता है... नेक्स्ट...

रिक्शे पर हम दोनों बिल्कुल चुप-चुप बैठे हैं... ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलते रिक्शे के हिचकोलों के बीच कभी वो गिरने-गिरने को होते हैं तो कभी मैं... मैं हमेशा की तरह इन झटकों में पेट को थाम नहीं रही, सोच रही हूं बस...

इंटर की जूलॉजी की कक्षा में लंबे खुले बालों और खूब लंबी नाक वाली मिसेज सिन्हा पढ़ा रही हैं- टि्वन्स तीन तरह के होते हैं- 'आइडेंटिकल', 'अन-आइडेंटिकल' और 'कन्ज्वाइंट'। आइडेंटिकल में दोनों बच्चे बिल्कुल एक जैसे होते हैं, एक ही सेक्स के... चेहरा-मोहरा बिल्कुल एक ही जैसा... पूरा क्लास पीछे की ओर देखने लगता है जहां एक ही बेंच पर निशि और दिशि बैठी हैं, अपने-अपने बाईं हाथ की कन्गुरिया ऊंगली का नाखून चबाती हुई... निशिथा-दिशिता बनर्जी। पढ़ने में बहुत तेज पर जरूरत से ज्यादा अंतर्मुखी... उनकी दुनिया एक-दूसरे तक ही सीमित है। हम भी उन्हें भाव नहीं देते।

इस तरह सारी निगाहों का ध्यान अपनी ओर खिंच जाने से झेंप कर उन्होंने अपनी ऊंगलियां बाहर निकाल ली हैं... और अब दोनों एक ही साथ ब्लैक बोर्ड पर बने डायग्राम की नकल उतार रही हैं...

सिन्हा मैडम लगभग चीखती हैं... ध्यान कहां है आप लोगों का... और पल भर में पीछे की ओर देखती सारी निगाहें सामने देखने लगती हैं। मैडम की तरफ... ब्लैक बोर्ड की तरफ... मैडम कह रही हैं, आइडेंटिकल ट्विन्स अक्सर मोनोजायनोटिक होते हैं, यानी इनका फर्टिलाइजेशन (निषेचन) मां के एक ही अंडे से होता है... उसके दो भागों में बंट जाने और विकसित होने से... जबकि अन-आइडेंटिकल ट्विन्स में सेक्स या कि चेहरे की समानता नहीं होती। यह दो भिन्न स्पर्मों के मदर एग सेल से निषेचन के द्वारा बनते और विकसित होते हैं। मुझे नेहा और रितु की याद हो आती है, दीदी के दोनों जुड़वा बच्चे। नेहा जितनी चंचल, रितु उतनी ही शांत। बहुत दिनों से मैंने उन्हें नहीं देखा। बड़े हो गए होंगे... मैं बरबस अपना ध्यान लेक्चर की तरफ मोड़ती हूं। अगर मिसेज सिन्हा ने इस तरह कुछ सोचते हुए देख लिया तो कोई सवाल दे मारेंगी और जवाब देने की मनःस्थिति में जब तक आऊं उनका दूसरे लेक्चर शुरू हो जाएगा... आजकल के बच्चे... इसमें असली लेक्चर का बेड़ा तो गर्क होना ही है, मुझे तब तक खड़ा रहना पड़ेगा जब तक कि दूसरी बेल बज नहीं जाती।

सिन्हा मैम नाक तक खिसक आए अपने चश्मे को साध कर सचमुच सारी कक्षा का निरीक्षण कर रही हैं... कहीं कुछ मिल जाए ऐसा जहां से शुरू कर सकें वे अपने लेक्चर। लेकिन नहीं, सब कुछ ठीक-ठाक है या कि ठीक-ठाक लगा है उन्हें। ...वे आगे बढ़ती हैं... और अब, क्न्ज्वाइंट ट्विन्स। ऐसे बच्चे अक्सर कहीं न कहीं से जुड़े होते हैं और दो शरीरों के अनुपात में उनके सरवाइकल ऑर्गन्स पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाते या कि कम विकसित होते हैं। मां के एग सेल के पूरी तरह से विकसित और विभाजित न होने के कारण या कि दो एग सेल के एक में क्न्ज्वाइंट होने पर भी पूरी तरह से अलग-अलग विकसित न हो पाने के कारण।

बगल से मारी जाने वाली कुहनियों ने मेरा ध्यान खींचा है। सीमा फुसफुसा रही है धीरे-धीरे। यह बेल भी कब बजेगी। भूख लग गई है यार... ये ट्विन-विन तो फिर पढ़ लेगें, समझ भी लेंगे, कोई इतना बड़ा पज़ल भी नहीं है यह फिजिक्स की तरह। पर मैम हैं कि चुप ही नहीं हो रहीं...

मैं नजरें आगे रखे-रखे ही उसकी बातें सुन रही हूं... पर अब मेरा ध्यान भी कैंटीन से आती खुशबू खींच रही है... समोसे के अलावा मूंग दाल की पकौड़ियां भी बन रही हैं शायद। मुझे पसंद हैं। आज तो मजा आ जाएगा। मौसम भी बारिश-बारिश का-सा हो रहा है, शायद इसीलिए दादा ने...

गड्ढा शायद बहुत बड़ा था... गिरने-गिरने को हो आई मुझे नील संभाल लेते हैं। पानी के छींटे पड़े हैं नील और मेरे कपड़े पर। पर मैं कुड़बुड़ाती नहीं, न ही उसे रुमाल से पोंछने का उपक्रम करती हूं हमेशा की तरह... बस सोचती हूं। काश जिंदगी उतनी ही आसान होती जितनी कि उस वक्त थी या कि लगती थी... तब जिन चीजों को समझना आसान लग रहा था आज उन्हें भोगना...

हम अस्पताल तक आ पहुंचे हैं। नील मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रिक्शे से उतार रहे हैं... मैं हैरत मैं हूं... अभी और इन परिस्थितियों में भी नील को इतना होश है। अपनी तकलीफ को इस तकर अपने भीतर समेट लेना...

डॉक्टर सक्सेना कह रहे हैं... क्न्ज्व्वाइंट बेबी के बारे में तो आपलोग जानते ही होंगे... मेरा सिर हां में हिलता है, नील का ना में...

डॉक्टर का उजला-उजला चेहरा अल्ट्रासाउंड देखते हुए संवलाने लगा है। रिपोर्ट के काले प्रिंट की छाया से या कि उसमें दिखते हुए सच से... कि दोनों से ही। वे संभालते हैं खुद को और पानी के गिलास का ढक्कन हटा कर एक ही सांस में पी जाते हैं उसे... ऐसे केस देखने-सुनने में बहुत कम आता है... शायद लाखों-करोड़ों में कोई एक... मैं तो अपने कैरिअर में आज तक कोई ऐसा केस नहीं देखा... क्न्ज्वाइंट ट्विन्स का भी यह एक रेयर केस है, रेयर ऑफ रेयरर्स... ऊपरी तौर पर तो बच्चे का सिर्फ सिर ही दो है... लेकिन बाकी के सारे ऑर्गन्स एक आम इंसान जैसे ही... अब देखना यह है कि इसके भीतर अंगों की क्या स्थिति है... दिमाग और हृदय का संबंध बड़ा गहरा होता है। अगर सिर दो हैं तो हार्ट का भी दो होना जरूरी है इस बच्चे के जिंदा पैदा होने के लिए... नील ने मेरा हाथ मजबूती से थाम रखा है जैसे कि उन्होंने मेरा हाथ छोड़ा और मैं...

डॉक्टर अब भी कह रहे हैं... हालांकि सब कुछ जान पाना बहुत कठिन है फिर भी इसकी कोशिश तो करनी ही होगी... अब तक जो मुझे समझ में आ रहा है उसमे ऐसे बच्चे का जीना... डॉक्टर रुक-रुक कर रहे हैं... बहुत... मुश्किल... सा... लगता... है। मेरे एक मित्र हैं डॉक्टर रितेश कपूर... आप एक बार जाकर उनसे मिलिए... वे आपका एक और अल्ट्रासाउंड करवाएंगे...

एक बार हम फिर रिक्शे में हैं। माई का फोन है... उसी शहर में हो, जाकर बाबा विश्वनाथ के दर्शन कर लेना... कहना उनसे जो है जैसा है, आ जाए... तो माई का मन मान गाय है... इस दो सिर वाले बच्चे के लिए... उन्होंने तैयार कर लिया है खुद को... मैं हैरत में हूं... घर के कामकाज में सनक की हद तक पूर्णता और सफाई चाहने वाली माई एक अपूर्ण बच्चे के पैदा होने की कामना कर रही है...

मैं टटोलती हूं नील को... अगर वो ऐसे ही इस दुनिया में आए तो आपको कोई परेशानी...?

नहीं... मुझे कोई परेशानी नहीं होगी.. वह जैसा भी है मेरा है... मेरा अपना बच्चा...

मेरे  भीतर की मां भी कहती है... हां, जैसा भी है हमारा है... पर दिमाग...?

मैं अपने दिमाग की सुनती हूं इस पल... पहले तो आपको बच्चे से ही परेशानी थी... मुझे समझाते रहते थे... और अब... नील, अपने दो सिरों को संभाल कर कैसे चल-फिर पाएगा यह बच्चा... उसकी जिंदगी तो शायद बिस्तर तक ही सिमट कर रह जाए... अपने हमउम्र और दूसरे बच्चों के लिए वह खेल हो कर रह जाएगा... मुझे तो इस बात का भी डर है कि कहीं लोग उसे देवता या कि राक्षस ही न समझने लगें... क्या आप चाहेंगे उसके लिए ऐसा कुछ...? और उसकी भी तो सोचिए... कितना खुश हो पाएगा वह अपनी जिंदगी से... न खेल-कूद... न स्कूल... न संगी-साथी...

नील चुप हैं... बिल्कुल चुप...

रोज अस्पताल के चक्कर लग रहे हैं... डॉक्टरों-नर्सों की टोली... ड्यूटी और बिना ड्यूटी के डॉक्टरों का भी मुझे आ कर बार-बार देखना... मेरा केस डिस्कस करना... मेरे अल्ट्रासाउंड को अलग-अलग कोणों से बार-बार भेदती वे निगाहें... यह सब मुझमें चिढ़ जगाता है... जैसे कि कोई तमाशा हो गई हूं मैं... सारी जिंदगी शायद मुझे यही झेलना हो... मेरी जिद और पुख्ता हुई जा रही है...

वह जाए.. वह नहीं रहे... यह मेरा निर्णय था... पर वही नहीं रह कर भी इस तरह रह जाएगा, मैं कहां सोच पाई थी तब... मैंने पूरे होशोहवास में कहा था, नील की समझाती हुई... नहीं, वह नहीं आए यही हम सबके लिए अच्छा है... उसके लिए भी...

नील का बदन सिसकियां ले रहा था... मैं तुम से नहीं कहूंगा कुछ भी... मैं पालूंगा... उसे आने दो... जैसा भी है वह... मैं उसकी कोई शिकायत कभी नहीं करूंगा तुम से...

मैंने कहा था... नील भावुक मत बनिए... ऐसे तो हम सबकी जिंदगी नर्क हो जाएगा और उसकी तो... नील सिसकते रहे थे और मैं भावशून्य।

... यह एक अच्छी बात है कि बच्चा लड़का है... नहीं तो गिराए जाने की बात हमारे संस्थान के लिए भी उतनी आसान नहीं होती... मैं अपने दर्द को भीतर ही भीतर धकेलती हूं... वह लड़की नहीं है यह तो तय है... अब जो भी करना है जल्दी कीजिए...

नील इन दिनों मेडिकल साइंस की किताबें पढ़ने लगे हैं। जर्नल्स भी... नेट पर पता नहीं क्या-क्या तलाशते रहते हैं...

उस दिन से ठीक एक दिन पहले नील बहुत दिनों के बाद खुश-खुश आते हैं... देखो निकिता, देखो... उन्होंने कुछ प्रिंट आउट मेरे सामने रख दिया है... यह है दो सिरों वाला बच्चे। फिलीपिंस के अस्पताल में जन्मा है चार दिन पहले... और अभी तक जिंदा है... मैं भी ध्यान से देखती हूं उस दो सिर वाले बच्चे को... और उसके साथ छपी सूचनाओं को पढ़ती हूं बार-बार... पता नहीं क्यों, प्यार के बजाय एक वितृष्णा-सी जागती है मेरे भीतर और उनकी बातों को खारिज करने का एक दूसरा तर्क खोज ही लेती हूं मैं... नील, इस बच्चे के सिर्फ सिर ही नहीं दिल भी दो हैं... डॉक्टर सक्सेना की कही बातें कौंधती हैं उनके भीतर और वे निरस्त से हो जाते हैं मेरे इस तर्क के आगे...

...लेबर रूम में दर्द शुरू होने के लिए दिया जाने वाला इंजेक्शन... मैं टूट रही हूं... छटपटा रही हूं मैं... एक असहनीय-सा दर्द, तन से ज्यादा मन का... और एक नॉर्मल डिलेवरी के सारे तामझाम... सब कुछ नॉर्मल... सिवाय उसके जिसे नॉर्मल होना चाहिए था...

दर्द की उस इंतहा से गुजरने के बाद जैसे मेरे भीतर सब कुछ हिल चुका है, मेरा आत्मविश्वास मेरा निर्णय और शायद मेरा दिमागी संतुलन भी... उस बच्चे के लिए अब तक सोई हुई मेरी ममता जैसे फूट निकली है इस धार के साथ... मेरा बच्चा... एक बार मुझे दिखा तो दीजिए... मुझे... देखकर क्या करना है... क्या मिल जाएगा देख कर.. फिर भी बस एक बार... न जाने कैसी तड़प बढ़ रही है मेरे अंतस में उस दो सिर के बच्चे की खातिर... मैं नील को बुलवाती हूं... उनके कांधे से चिपट-चिपट कर कहती हूं ... एक बार नील... बस एक बार दिखला दो मुझे... मेरा बच्चा... थोड़ी देर पहले तक सिसकते नील अब जैसे पत्थर हो गए हैं... न हिलते-डुलते हैं न कुछ कहते हैं... बस खड़े हैं जड़वत्।

तो क्या नील की नाराजगी मुझसे है... क्या मेरी दुविधा... मेरी पीड़ा... मेरी मजबूरी कुछ भी नहीं समझ में आ रही उन्हें... क्या इसलिए नाराज हैं वे मुझसे कि हर कुछ मेरी ही जिद से... या फिर उनकी चुप्पी मुझे समझने की कोशिश कर रही है...?

"हमें अभी बच्चे की जरूरत नहीं।" नील बार-बार कहते थे। "अभी तो हमने अपनी जिंदगी शुरू ही की है।" पर मैं अड़ जाती थी... "बस एक बच्चा... एक नन्हीं सी जान..." "बहुत मुश्किल होगा निकी... हम दोनों के दफ्तर... तुम्हारी मां हैं नहीं... माई हमेशा बीमार..."

...तो क्या हम इसलिए जिंदगी भर यूं ही... जिनके घर में कोई संभालने वाला नहीं होता क्या उनके घर में बच्चे पैदा नहीं होते? ...मिल ही जाता है कोई न कोई...

...कभी न कभी तो लेना ही होगा यह निर्णय तो फिर अभी क्यों नहीं... हर चीज की एक उम्र भी तो होती है...

नील धीरे-धीरे हारने लगे थे मुझसे पर हारते हुए भी खुद को जीता हुआ साबित करने की खातिर कहते... देख लेना मेरा बेटा बिल्कुल मेरे जैसा होगा... पर मैं अड़ जाती, नहीं बेटी... मेरे साथ रहेगी हर पल... मेरे कामों में मेरा हाथ बंटाएगा... सहेलियों की तरह रहेंगे हम दोनों।

अपने घर के उस अंधेरे कमरे में नील के कंधों पर हिलकती हुई कहती हूं मैं... सुना है गर्भ में बच्चा सुनता है सब कुछ और मां-बाप की कल्पना का ही रूप धरता है वह। वह शायद सुन रहा था मेरे भीतर... और कश्मकश में रहने लगा था। वह मां का बने कि पापा का। वह मां की बात माने या पापा की। कभी वह इस पलड़े झुकता होगा तो कभी उस पलड़े... और हंसी खेल कि यही लड़ाई उसके जान के लिए घातक बन गई होगी शायद...

हां निकिता, उसके दो चेहरों में से एक चेहरा बिल्कुल लड़कियों जैसा था... यह भी तो हो सकता है कि उसके दो सिर मेरी महत्त्वाकांक्षाओं के ही परिणाम हों... न जाने कितने सपने कितनी ख्वाहिशें पालने लगा था मैं उसकी खातिर... उसके आने से पहले ही...

...जो हो चुका था, अपनी-अपनी तरह से हम उसका कारण तलाश रहे थे...

यह उसके जाने के बाद की पहली रात थी जब हम साथ थे... सचमुच साथ-साथ...

ऐसे तो जब मैं रो रही होती नील उठ कर चल देता... और नील जब पास आते मुझे उसमें कोई साजिश नजर आती। वही साजिश जो मुझे आजकल हर आसपास के चेहरे में दिखती है, जिसके तहत माई बार-बार मेरे समानांतर लेटा हुआ बच्चा उठा कर कहीं फेंक आती हैं... वे कहती हैं नील से... बस एक ही उपाय है... डॉक्टर भी ऐसा कहती है... बस एक ही उपाय... इसी तरह भूल सकेगी वो यह सब कुछ...

मैं सूंघती रहती हूं नील के अपने पास आने का उद्देश्य...

वे मुझसे मेरा गुड्डा छीनने आए हैं... मैं रजाई की तहों के बीच छिपा कर रख देती हूं उस दो सिर वाले गुड्डे को... सात तहों के बीच... यह वही खिलौना है जिसे नील अपने बच्चे के लिए पहले ही खरीद लाए थे और उसमें मैंने अब कपड़े का एक अतिरिक्त सिर जोड़ दिया है, लड़कियों के से नैन-नक्श वाला...

मैं नील को या कि माई को घुसने नहीं देती अपने कमरे में... मेरा गुड्डा... मेरा बच्चा... मैं कमरा बंद करके हंसती हूं, खेलती हूं, बतियाती हूं उससे... उसकी मालिश करना... उसके कपड़े बदलना...

...पूरे साल में बस एक महीना कम... पर मेरे लिए तो घड़ी की सुई जैसे वहीं अटक गई है, ग्यारह महीने पहले के उसी दिन में...

पर उस रात जब नील आए फफक पड़े थे मुझे देख कर... और मैं हमस नहीं पाई थी हमेशा की तरह उनकी रुलाई पर।

निकी... निकिता यह हमारा बच्चा नहीं... हमारा बच्चा तो... तुमने ही तो वह निर्णय लिया था और ठीक लिया था... उन्होंने मुझे कंधे से झकझोरा था।

उसे तमाशा कैसे बनने देते हम... मुझे तो उसके लिए डॉक्टरों से भी लड़ना पड़ा था... वे तो रिसर्च करना चाहते थे उस पर... उसे जार में रख कर म्यूजियम का हिस्सा बनाना चाहते थे... काफी जद्दोजहद के बाद हासिल कर पाया था मैं अपने बच्चे को... और इन्हीं हाथों से उसे सुपुर्द कर दिया था माटी को... यह कहते हुए कि मेरे बच्चे का खयाल रखना... इसे छिपा कर रखना अपनी गोद में... कि फिर किसी की नजर न पड़े इस पर... नील ने अपना चेहरा वहीं छिपा लिया था जहां उसके होने का अहसास अब भी जिंदा था... और जिसे जिंदा ही रखना चाहते थे हम दोनों...

आपने एक बार... बस एक बार भी मुझे उसे देखने नहीं दिया... मुझे, मेरे उस बच्चे का चेहरा... मैं भी फूट पड़ा थी...

देख लेती तो उसे जाने नहीं दे पाती तुम... भोला-भाला-सा मासूम चेहरा... उसकी ऊंगलियां... उसकी आंखें मेरे लिए तो सब... नील की हिचकियां डूबती हैं भीतर ही भीतर...

मैं उन्हें बांहों में समेट लेती हूं कस कर... जैसे नील ही... मैं महसूसती हूं... नील की हड्डियां बाहर दिखने लगी हैं, कॉलेज के दिनों से भी ज्यादा... नील के दांत ऊपर की ओर उभर से गए हैं... नील की आंखें उदास... पीली... नील का चेहरा बुझा-बुझा सा निर्जीव... मैं कैसे भूली रही नील को इतने दिन... जबकि नील मेरी पहली जरूरत थे, मेरी जिंदगी का मकसद...
संपर्क:
कविता
सी 76/ एनएच 3,
एनटीपीसी विंध्यनगर,
जिला- सिंगरौली,
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ईमेल: kavitasonsi@gmail.com
मो. - 07509977020

मैंने नील को अपने अंकवारे में यों भर लिया है जैसे नील ही मेरा बच्चा हों...

और उसी क्षण, उसी पल वह खाली जगह कुनमुनाई थी...

...मैं हल्की-हल्की रहने लगी थी। नील भी खुश थे, मुझमें आई तब्दीली को देख। माई ने ही एक दिन उनसे कहा था कि वह मुझे डॉक्टर से दिखा लाएं...

उन्होंने मुझसे भी कहा था... वह लौट आया है शायद... तू खुश रहा कर इसी तरह... पर मेरी खुशी उसी क्षण काफूर हो गई थी... वह नहीं और उसकी स्मृतियां भी न रहे इसकी साजिश में सब कामयाब हो गए थे... खास कर के माई।

पर जब डॉक्टर ने इस बात की पुष्टि की.... मुझे लगा मैं हार गई... साजिशें जीत गईं मुझे उससे जुदा करने की...

...मैं जानबूझ कर मां और नील को चिढ़ा-चिढ़ा कर सब काम करती हूं... कपड़े धोना... सफाई करना... और वे सब बेआवाज सहते हैं यह...

खाने की सब अच्छी चीजें डस्टबिन में डाल आती हूं मैं... कमरा बंद करके बतियाती हूं अपने गुड्डे से... ये सब तुझे मुझसे छीनना चाहते हैं... दूर करना चाहते हैं मुझसे... मैं ऐसा कभी होने नहीं दूंगी... कभी भी नहीं...

उसके दोनों चेहरे हंसते हैं खिल-खिल...

अपनी हर सजा में जैसे मुझे आनंद मिलने लगा है... साइकेट्रिस्ट कहता है... सैडिस्ट हो गई हैं ये... इस तरह कभी खुद को भी चोट पहुंचा सकती हैं... या कि फिर बच्चे को...

वे सब जो मुझे सहानुभूति से देखते थे... मुझे समझाने आते थे... अब कतराने लगे हैं मुझसे... मेरे परिवार से। पर मुझे क्या...

मैं अपनी दुनिया में मगन हूं... नील कहते हैं.. ऐसे तो बहुत मुश्किल है मां... बच्चे का सही ग्रोथ कैसे होगा... सही खुराक न मिले तो...

मैं सुनती हूं पर सुनती नहीं हूं... नील आते हैं एक दिन... एक कौर... बस यह कौर... मैं दूर भागती हूं उनसे... वे खाकी लिफाफ में से एक एक्स रे प्रिंट निकालते हैं ... देखो यह है तुम्हारा बच्चा... बिल्कुल सही सलामत... इसका एक सिर... दो हाथ-पांव... सब ठीक-ठाक... मैं हंसती हूं... मेरा बच्चो तो यहां है मेरी गोद में...

मैं उनसे वह काला प्रिंट छीन कर फाड़ देना चाहती हूं...

... और इसी छीना-झपटी में गिर जाती हूं मैं। माई दौड़ी-दौड़ी आती हैं... अरे क्या हुआ...? नील उठाओ तो इसे...

नील उठाते हैं मुझे झट से... माई डॉक्टर को फोन लगाती हैं... मैं हंस रही हूं फिर भी... हंसी पकती है मेरी... और अचानक से रुलाई में तब्दील हो जाती है... मेरे पेट में असहनीय दर्द है... मैं अपना पेट संभाले जैसे चीख पड़ती हूं... माई मेरा बच्चा...

माई की हथेलियां मेरी मुट्ठियों को कसे हैं... नील मेरा पैर सहला रहे हैं... माई समझाती हैं मुझे... कुछ भी नहीं होगा तुझे और तेरे बच्चे को भी... बस धीरज धर... थाम खुद को...



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