साहित्यकार कविता का लघु उपन्यास या लंबी कहानी ‘अलबेला रघुबर’ बार-बार इतनी ‘अपनी’ — किसी खोह से निकलता अपना जीवन हो जाती है कि इस पाठक ने इसके मार्मिक प्रसंगों को जीने के लिए, अपने भीतर तक उतारने के लिए संवादों को भीगे मन से बोल-बोल कर पढ़ा है। हमारे समाज की बेटियों, उनकी माँओं, बहनों, और इर्दगिर्द की 'सभी' स्त्रियों के साथ क्या हो रहा है, और क्या उनके मन में चल रहा है ये सब आप अगर संवादों के बीच जिन भावनाओं को कहानीकार दर्ज़ करता चल रहा है उन्हें ‘पढ़’ पाए तो आप एक नए पाठ के लिए इस कहानी को दोबारा पढ़ेंगे। ‘तद्भव’ में प्रकाशित बेहतरीन ‘अलबेला रघुबर’ को शब्दांकन के पाठकों के लिए प्रकाशित करते हुए लेखिका कविता को बधाई! ~ भरत तिवारी (सं०)
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Albela Raghubar: Short Novel / Long Story by author Kavita (Photo: Bharat Tiwari) |
बदला-ओदला कोई नहीं, बस सकत कम गया है सबका, त अब आदमी देखके आजमाता है, कहां लह जायेगा। कहां नहीं लहेगा।
कहानी: अलबेला रघुबर
~ कविता
जन्म: 15 अगस्त, मुज़फ्फरपुर (बिहार)। शिक्षा: हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली से भारतीय कलानिधि। / लेखन: पिछले ढाई दशकों से कहानी की दुनिया में सतत सक्रिय कविता स्त्री जीवन के बारीक रेशों से बुनी स्वप्न और प्रतिरोध की सकारात्मक कहानियों के लिए जानी जाती हैं। नौ कहानी-संग्रह — 'मेरी नाप के कपड़े', 'उलटबांसी', 'नदी जो अब भी बहती है', 'आवाज़ों वाली गली', ‘क से कहानी घ से घर’, ‘उस गोलार्द्ध से’, ' माई री', 'गौरतलब कहानियाँ', तथा 'मैं और मेरी कहानियाँ' और दो उपन्यास 'मेरा पता कोई और है' तथा 'ये दिये रात की ज़रूरत थे' प्रकाशित। / सम्पादन: 'मैं हंस नहीं पढ़ता', 'वह सुबह कभी तो आयेगी' (लेख), 'जवाब दो विक्रमादित्य' (साक्षात्कार) तथा 'अब वे वहां नहीं रहते' (राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार) का संपादन। / सम्मान: कविता और निबंध लेखन के लिए बिहार युवा पुरस्कार (1993 ), ‘मेरी नाप के कपड़े’ के लिये अमृत लाल नागर कहानी पुरस्कार, ‘क से कहानी घ से घर’ के लिए स्पंदन सम्मान तथा बिहार सरकार द्वारा विद्यापति पुरस्कार (2023) / अनुवाद: कुछ कहानियां अँग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित।
संपर्क: मयन एनक्लेव- 404 A, क्लाइव रोड, सिविल लाइंस, प्रयागराज-211003. मोबाईल: 7461873419; ईमेल: kavitasonsi@gmail.com
राजा जनक जी के बाग में...
सिया ने आईने में देखा है अपना चेहरा। बनठन कर एकदम मां जैसी नहीं लग रही?
पर मां तो कहती थी वो एकदम जिया दी की तरह है। उनकी सुंदर, सुकुमारी जिया बबुनी, मतलब उसके ताऊ की बड़ी बिटिया, मां के शब्दों में कहें तो उनकी जयधी।
मां तो ये भी कहती हैं उसमें उसकी बुआ की छहक है। उसकी इकलौती बुआ।
बुआ भी नहीं रही थीं।
वे क्यूं नहीं रहीं ये किस्से बार-बार उसे मां बताती रही हैं। ये अलग बात है कि मां भी आज नहीं हैं।
मां होती तो आज उसे ऐसे देखकर...
उसकी आंखों में आंसू छलछल हैं। वो अपनी आंखें पोंछती है, नहीं, रोना नहीं है उसे। आज के दिन तो बिलकुल नहीं। कितनी मुश्किलों और कितनी प्रतीक्षा के बाद आया है आज का यह उसका मनचीता दिन। वह उदास नहीं होना चाहती। बस चाहती है, मां उसे देख रही हो कहीं से...
उसे लगता है, मां की ही नहीं, दो जोड़ी अतिरिक्त आंखें भी निहार रहीं उसे, कहीं दूर से...
वह गर्दन झटककर अपने इस कल्पनालोक से बाहर आना चाहती है। वो ख़ुद से ही कहकर, आंसू भरी आंखों में, ख़ुद ही ख़ुद मुस्कुराती है — 'क्या बेवकूफी है यार यह?'
झम झमाझम, डम डमाडम बजते ढोल नगाड़े थमे हैं जरा देर को। शहनाई की धुन भी मंद और मद्धम हुई है। देर से और दूर से आती बैंड बाजे की आवाज़ भी पास आते-आते थमने लगी है जैसे।
मतलब बारात दरवाजे आ लगी है। रस्म शुरू होनेवाले होंगे। शोरगुल मच गयी है। सब दुआरे की तरफ़ धक्का-मुक्की करते भाग रहे। कैसी तो होड़ और भगदड़ मची है। उसका भी मन हो रहा, वह भी दौड़ कर जाये और देखे, बचपन की तरह। फिर ख़याल आता है, यह तो उसकी ही बारात है... ऐसे कैसे...
उन पलों में जैसे वो मां के साथ थी एकदम से... और मां थी कि फिर भी बहुत याद आ रही थी़। वे उसे कलेजे से लगाये रही थीं सारी रात और उनके मन के मुहाने रिले-मिले जा रहे थे एक-दूसरे से। बरसों से बंद कुठरियों के दरवाजे खुलने की रातें थी वो। जहां वे साथ-साथ रोती थी, साथ-साथ हंसती थी और साथ-साथ पोंछ रही थीं एक-दूसरे के आंसू।
शोर कोलाहल में बदलते-बदलते अब थमने को हुआ है… थम नहीं रही तो बस उसके सांसो की गति। धड़कनों की आवाज़ जैसे अब भी उसके कानों के भीतर बजकर शोर मचाये जा रही। वह कान बंद करने को जैसे-तैसे अपने दोनों हाथ कान तक ले जाने को होती है कि एकसाथ आवाज़ करके उसके झुमके-हार, नथ सब जैसे कहते हैं — 'भूल रही तुम ये बात कि यह तुम्हारे दिल की धड़कन है, जो तुम्हारे ही भीतर है, इसे कान बंद कर भर लेने से भला सुनाई देना बंद हो जाएगा?'
वो हंसते हुये कान पर से हाथ हटाती है...
धिया न जाने किधर है, उसे प्यास लगी है...
जबकि उसे कहा गया था उसको छोड़कर कहीं नहीं जाना। एक पल को भी नहीं। दुल्हन को अकेला नहीं छोड़ते इन घड़ियों में।
वह पुकारती है धिया... धिया आती नहीं और उसकी आवाज़ इस शोर-शराबे वाले घर में न जाने कहां खो जाती है।
वह अपनी मोबाईल से उसे कॉल करना चाहती है तो याद आता है तैयार होने वक़्त मोबाईल उसने धिया को ही तो दिया था कि सहेज कर रखे।
अब लो, मोबाईल भी पास नहीं है और धिया भी... अगर राघव फोन भी करे तो उससे बात नहीं हो सकती... इतनी देर में न जाने उसने कितने मैसेज किये होंगे, पर वह... वह तो न जाने किन ख़यालों में गुम थी कि उसे फोन वापस लेने का भी ख़याल नहीं रहा। धिया को ही दे देना था उसे फोन याद से पर नहीं, कैसे दे देती वो, उसने ही तो उससे कह रखा है, वह चाहे कहीं हो, एक-एक रस्म का वीडियो बनाना है और आंटी को भेजते रहना है।
आंटी यानी ‘राघव की मां’ की बड़ी इच्छा थी कि वो बारात आये, उसकी भाभी और परिवार की अन्य स्त्रियों की भी... पर उसके यहां से इस बात की मनाही हो गयी थी। फिर भी कुछ राघव की सहपाठिनें, कुलीग और पुरानी मित्र ज़िद करके आ ही गयी थी बारात।
पापा को डर था, गंवई समाज है, कुछ भी ऊंच-नीच हो गया तो... उनके लायक देख-रेख और सुविधाएं भी पता नहीं इस गांव में मुहैया हो सके कि नहीं... हालांकि वे अपने भरसक पूरी कोशिश कर रहे थे कि अतिथियों को कोई असुविधा न हो।
स्वागत-वंदन में जितने भी साधन प्रयुक्त हों, वे गांव से ही जुड़े हों, गांव के ही बने हुए हो, यह सिया की चाहत थी और उन सबकी दिली कोशिश। आधुनिकीकरण और शहरीकरण नहीं चाहिए था सिया को इस शादी में, नहीं तो शहर से यहां आना ही भला क्यों था। और सचमुच यही हो भी रहा था। रंगीन लट्टुओं से नहीं, रंग बिरंगे फूलों, कागजी फूलों, लड़ियों और झंडियों से सज़ा था उसका विवाह प्रांगण, पूरा परिसर, घर और जनवासा। मंडप भी केले के थंभ, रंगीन पन्नियों, कुम्हार के बनाये तमाम विधि-विधान में सम्मिलित होनेवाले बर्तनों, हाथी, कलशों और दीयों से।
धिया ने इन सबको सुंदर और मनचाहे रंगों और आकृतियों से रचकर जैसे और खुशनुमा कर दिया था। पूरे मंडप को उसने गीले रंगों वाली रंगोली से ऐसा कलात्मक सज़ाया था कि देख लो तो नज़र ही न हटे। ऊपर से आटे, हल्दी और रोली से की जानेवाली रोजमर्रा की सज़ावट। किसी-किसी दिन तो धिया सिर्फ फूलों से सज़ावट करती। जब भी हल्दी लगाने और चुमावन को बुलाया जाता उसे वो संभल-संमलकर पैर धरती है, कहीं यह जादू, यह तिलस्म मिट न जाये और भर निगाह बस इन्हें निहारती रहती है। बांस, केले के थंभ, पुआल और कुश से बना हुआ और उसकी चाचियों के रेशमी रंगीन साड़ियों के बंदनवार से सज़ा उसका यह सजीला मंडप, यहां की बोली में कहें तो ‘माड़ो’ उसे मंत्रमुग्ध किये रहता है। वहां दिल्ली में वह ऐसे आत्मीय मंडप की कल्पना तक न कर सकती थी।
वो सोचकर खुश होती है, इसी सतरंगी और खूबसूरत-तरीन दुनिया के तले वो और राघव बंधेंगे परिणय-सूत्र में। जबकि प्रणय-सूत्र में तो न जाने कबसे एकमेक हुआ पड़ा है उनका मन...
धिया गैर-ज़िम्मेदार बिलकुल नहीं। ज़रूर किसी ने ज़रूरी काम को बुला लिया होगा। अकेली लड़की है परिवार में, जो हर तरफ़ चकरघिन्नी-सी भागती रहती है। आम दिनों में भी। तो अभी तो शादी का घर हुआ... यह तो कहो कि यह गांव है और उसका हाथ बंटाने को उसकी ढेर सारी सखियां भी हैं। नहीं तो क्या ही अफरा-तफरी मची होती...
मोबाईल के पास न होने से वो हलकान हुई जा रही। गला और ज्यादा सूख रहा उसका।
वह देखती है, पास के टेबुल पर जग और ग्लास दोनों धरे हैं। उसका चित्त जरा थिर होता है। अपने पूरे साजो-सामान समेटकर उठने की कोशिश करती है वो और फिर थमक जाती है — ‘क्या पता पानी भी पीना है कि नहीं... कुछ खाने को मंझली आजी ने साफ़ मना कर दिया है। मंझली आजी उसके पापा की तो कक्को हैं ही, पूरे घर और गांव भर की भी कक्को ही हैं। वे इस घर की ही नहीं, गांव भर की सबसे बुजुर्ग स्त्री हैं।
घूम घूमके आते हैं पापू, कोई न कोई पकवान लिए — ‘सिया जरा टेस्ट कर इसे!’ वह ना में गर्दन हिलाकर मना कर देती है। पापू को भी जैसे ख़याल आता है — 'ये कक्को भी न... मानने वालों में से नहीं। अब बताओ बेचारी बच्ची अपनी ही शादी में बननेवाली एक भी चीज भी न चखे? गांव-जवार सब खाये पर...’
ससुराल जाने तक तो आतें ऐंठ जायेंगी इसकी।'
अंतिम बार की मनाही पर वे तुनके थे — 'अभी जाकर कक्को से बात करता हूं... ऐसा भी क्या...’ और जाते-जाते मुड़कर उसे देखा था — 'और तू भी न सिया इतनी आज्ञाकारी न बन... जो कि तू है, बिलकुल नहीं...’
वो मुस्कराई थी एक हल्की-सी मुस्कान... वो लौटे थे फिर और एक गुलाबजामुन उसकी ओर बढ़ाया था। वो जानते हैं, गुलाबजामुन उसकी कमज़ोरी है। वो फिर भी ना में गर्दन हिलाती है और पांव पटकते हुये वो कहीं चले गये हैं।
वो जैसे गये थे, उसी तरह आ भी गये हैं। हाथ में फल, मेवे और मिठाई की थाल लिए।
वे उसकी ओर एक मिठाई बढ़ाते हैं और ठीक बचपन की तरह कहते हैं — 'मुंह खोल आआआआ’
और वो सब हिदायतें भूलकर मुंह खोल देती है ‘आं।'
वे उसे खिलाते हुये कह रहे हैं — ‘बड़ी मुश्किल से तैयार किया कक्को को। तब जाकर कहीं मानी — मीठा, फल और मेवों की खातिर। ये सब तो व्रत में भी खाये ही जाते है न? तू खा सकती है इन्हें।'
'ये थाल यही छोड़े जा रहा, जब-जब मन हो या मन न भी हो थोड़ा बहुत खाती रहना।'
'शादी वाले इस घर में कोई पूछने न आयेगा, थोड़े वक़्त बाद तो मैं भी नहीं आ सकूंगा।‘ उनकी आवाज़ और आँखें दोनों नम हैं...
उसका सिर सहलाकर पापू चले गये थे और वो उन्हें जाते देखती रही थी बस! उन्हें इतने उत्साह और इतनी बेचैनी में कभी नहीं देखा उसने। वे तो उसके कूल-काम डैड हैं, जिनकी शान्तचित्तता के लिए सब उन्हें जानते हैं। खासकर उनके प्यारे स्टूडेंट, नहीं, उनके शब्दों में कहे तो उनके विद्यार्थी।
वो दुविधा में है कि करे भी तो क्या... कि उसे राहुल-राजुल आते दिखाई दिये थे।
राजुल ने कहा था — 'जीजी ये लो मेरा फोन। जीजाजी को तुम से बात करना है। वो कबसे तुम्हें मैसेज और फोन कर रहे पर तुम उठा नहीं रही, इसीलिए हमें भेजा है कि तुम्हारी उनसे जरा बात करा दूं।'
राहुल की आंखों में चुप्पी के साथ-साथ एक प्यारी-सी मुस्कान है। सबकुछ जानने-समझने की जबरन ओढी हुई बुजुर्गियत, जो जुड़वा होने के बावजूद उसे राजुल से ज्यादा संजीदा बनाती है। संजीदा... वह भी न... पापा के साथ रहते-रहते उनकी-सी भाषा भी बोलने लगी है, जिसका उसके दोस्त खासा मजाक बनाते है। पर उसे अच्छा लगता है यूं पापा की जुबान में बातें करना-बोलना।
वह फोन लेकर अकबकाई-सी खड़ी है कि राजुल टोकता है — 'दी करो न बात, चुप क्यों हो?'
कोई भी आ जाये इससे पहले कर लो! किसी बड़े-बुजुर्ग ने देख लिया तो मुसीबत हो जायेगी।
क्लास लग जायेगी हम सबकी! आपकी कम और हमारी ज्यादा।‘ कहकर वो खिल-खिल हंस दिया था।
‘अरे हमें इस तरह न घूरो, हमें यही रुकना होगा।
‘हलो’... वो बहुत धीरे से कहती है...
‘ओ तो आखिरकार फोन उठा ही लिया आपने। शुक्रिया-मेहरबानी...’
'करम आपका' भी बोल ही दो, पापा के चमचे, नहीं पापा के ‘भावी दामाद’ आदतन कहते-कहते उसने हमेशा के उलट ‘भावी’ शब्द को मुंह में ही गटक लिया है। और बहुत धीमी आवाज़ में खिलखिलाई है।'
‘फोन क्यों नहीं उठा रही?'
‘फोन नहीं है मेरे पास। ‘
‘उफ्फ, हद है यह भी... मुझे लगा ही था। ले लिया होगा कि दुल्हा-दुल्हन को बात नहीं करना चाहिए।‘
‘नहीं’... वह उसकी नहीं को सुने बगैर ही अपनी बात कहे जा रहा — ‘मेरी जान निकल रही थी कि आखिर तुमसे बात हो तो कैसे?'
‘कैसी हो तुम?’
‘ठीक! पर भूख से जान जा रही आपकी इस जान की...’
‘वो क्यों? कुछ खाया नहीं?’
‘शादी तक फास्ट रखना होता लड़कियों को...’
‘ओफ्फोह!’
‘तुम भी मान लेती हो हर उल्टी-सीधी बात... देखता हूं मैं क्या कर सकता हूं...’
थोड़ा ठहरकर वह फिर कहता है — ‘सुनो!’
‘तुम्हारी एक झलक देखे बगैर मैं प्रवेश नहीं करूंगा तुम्हारे द्वार के अंदर।‘
‘वह थोड़ा दबे सुर में कहती है — ‘बस थोड़ी देर की बात है। फिर जयमाल होगा और तब तो...’
चूंकि जानती है दो छोटे भाई पास ही खड़े हैं, उनकी बातों पर कान लगाये।
मैंने हमेशा से ये सोचा था हमारी शादी के जोड़े में सबसे पहले हम दोनों एक दूसरे को देखेंगे।
मुझे अपनी सिया को दुल्हन की तरह देखना है एक बार... जयमाल से भी पहले...
उसके चेहरे पर स्मित आई है — ‘मैं फोटो भेजती हूं न, अभी...’
सिया एक फोटो क्लिक करके भेजती है राघव को... .
राहुल इतनी देर में पहली बार बोला है कुछ अपनी धीमी प्यारी पर शरारती मुस्कान के साथ — 'जीजी लड़का तो बहुत डिमांडिंग है।‘ यह कहते हुये उसकी स्मित लगातार बरकरार है।
राजुल कहता है — ‘बताओ बरात जब ऐन दरवाजे पे आ खड़ी है, तब एक नयी डिमांड... ऐसा कोई करता है क्या?'
वो हंसते हुये कहती है — ‘राजुल-राहुल पिटाई करूंगी मैं तुमदोनों की। कोई भला अपनी बहन को यूं छेड़ता है?’
वो हंसती है ज़ोर से और अपने इतने ज़ोर से हंसने पर ख़ुद ही चौंक जाती है।
उसके दोनों भाई उसे अपने संग दबे-कदमों से पीछे वाले दालान तक लेकर आते हैं। यह बाहरी दालान का ही एक्सटेंडेड हिस्सा है, जो गोल घूमता हुआ चला आया है, पीछे से आगे की ओर। फिर भी मुख्य दुआर से तनिक पीछे ही खत्म हो जाता है। इसे बस अलग कर दिया गया है एक झीनी-सी दीवार के माध्यम से, बाहर के बरामदे से।
यहां इस तरफ़ कोई नहीं... पर दीवार के उस तरफ़ की सारी हलचल, सारी बातचीत यहां इस तरफ़ साफ़ सुनाई दे रही। सुनाई दे रहा औरतों की समवेत आवाज़ में गाया जा रहा गीत — ‘राजा जनक जी के बाग में अलबेला रघुवर आये जी।'
सचमुच राघव अलबेले ही तो हैं और उसकी यह शादी और भी अनोखी... औरतें क्या देख पा रही उसे? वे गा रही हैं —
जाली के झरोखे बन्नी झांकती...
बन्नी जो ठाढी अपने बाबा से अरज करे।
बाबा इतनी अरज मेरी मानिए, बन्ना सांवरा मत ढूढिये।
बेटी मन पछतावा ना करो, तेरी अम्मा गोरी बाबा सांवरा।
पर उसने तो ख़ुद ही चुना था अपने लिए सांवले-सलोने राघव को... उसने तो ख़ुद कहा था बल्कि ज़िद किया था पिता से...
वह भी तो झांककर देख रही झरोखे से नहीं, दीवार के ऊपरी हिस्से में लगी जाफ़री से। उसे अब उस पार का सबकुछ बहुत साफ़-साफ़ दिख रहा, बरात, दूल्हा, भागमभाग, सब... ऑफ व्हाइट शेरवानी में सांवले-सलोने राघव कितने जंच रहे। कितने मगन होके नाच रहे राघव। फब रहा है उनपर उनका कत्थई दुपट्टा। पसीने से दमक रहा है उनका सांवला सलोना मुखड़ा।
यह उसी की पसंद की हुई शेरवानी थी, नया-सा इसमें कुछ नहीं। पर राघव को इसे पहने देखना कैसा सुंदर अनुभव है।
ठीक कह रहे थे राघव। जयमाल में हज़ार लोगों की निगाहों के बीच इस तरह उन्हें कहा देखना हो पाता? नज़रें उठती भी क्या उसकी।
राहुल कहता है — ‘चलो जिज्जी भीतर। देखो पुराने जमाने की यह दालान आज किस तरह से काम आई। अम्मा कहती हैं — ’जब कोई मर्द मानुख नहीं होता घर में, हम यही से देखती हैं कौन आया? दरवाजा खोलना है इसके लिए या फिर रहने देना है। बहुत सोच विचारकर बनवाया था इसे अजिया ससुर जी ने...’
सिया कहती है — ‘हमको जरा देर यही रहने दोगे? हम भी देखना चाहते हैं अपनी बरियात और द्वारचार की सारी रस्में। हम चले आयेंगे ख़ुद से... बस तुम ये खिड़की बंद करते जाओ...’
राजुल चल देने को उद्यत होता है पर राहुल खड़ा-खड़ा सोच रहा अब भी...
फिर कहता है — ‘जिज्जी तुम्हें अकेले नहीं छोड़ना अभी। यह मरी धिया भी न जाने कहां गुम हुई पड़ी है।‘
‘राजुल तू जा, मैं यहीं रह रहा जिज्जी के पास। कोई काम हो तो फोन करना।
और... धिया दिखे कहीं तो उसे भेजना जरा...’
वो देख रही राघव आगे आ रहे दुआरे की तरफ़। उसके पांच अन्य चचेरे भाई उसे कंधे पर उठाये ला रहे। अब तो राजुल भी आ मिला उनके संग... क्या वहां सब राहुल को तलाश रहे होंगे? वो देखती है राहुल की ओर, इशारे से कहती है -– ‘जाओ।'
वो भी इशारे से ही कहता है 'नहीं' और सामने देखने में निमग्न हो जाता है।
पिता, चाचा, ताऊ सब बरात की अगुआनी में खड़े हैं — फूल माला लिये। आनेवालों को हार पहनाते हुये।
और ये देखो धिया और उसकी सखियां कितनी सजी संवरी खड़ी है बारात की अगुआई में। तो इसीलिए गुम थी धिया महारानी इतनी देर से...
चाचियां समवेत स्वर में गा रही —
'पूरबा पछिमवा से अईले सुंदर दुलहा
जुड़ावे लगलिन हो सासू अपननी नयनवा।'
अब मंझली काकी परीछ रही राघव को लोढे से। गरम पान के पत्तों से सेंक रही उसका गाल।
परीछना इस शब्द से नया परिचय हुआ है उसका। या यूं कहो कि अभी-अभी। यहाँ शादी में हर चीज़ को परीछा जाता है। घड़ा, हाथी से लेकर पीढ़ा और जयमाल की माला तक को। हद तो यह हुई कि वीडियोग्राफी वाला भी अपना कैमरा परीछवाने चला आया था।
पापा की कक्को गारी गा रहीं है —
'अरे नौसे तू क्या जाने, तेरा खानदान छोटा है
तेरी दादी बेचे आदी, तेरा दादा कुंजरवा है।
तेरी फूआ बेचे पुआ, तेरा दादा हलवईयां है।'
आवाज़ इस उम्र में भी बुलंद है कितनी। सब औरतों की आवाज़ पर भारी पड़ती हुई।
अरे यह क्या हुआ। राघव के चेहरे का रंग क्यों उतर गया अचानक? चमक एकदम से क्यों फीकी पड़ गयी? राघव के भैया, चाचा सब थोड़े उखड़े-उखड़े लग रहे।
पापा के जाकर पूछने के बावजूद उनके चेहरों की रंगत लौटी नहीं... .
पापा ताड़ गये हैं उनके मन की बात...
पापा अपनी कक्को को कुछ समझा रहे। वे भक्क-सी चुप हो गयी हैं।
' ये कक्को भी न... इनका काम गारी के बगैर चलेगा ही नहीं। कितना समझाया गया था कि गारी नहीं... बरात दिल्ली की है और सब बहुत पढ़े लिखे लोग... फिर भी...’ राहुल कहता है उससे।
तो क्या एक गारी से दुख गया था उन सबका जी?
बराती तो बराती हैं, यहां तो रोज गाई जा रहीं गारियां। बहनोइयों-बहनों, फूफा-फुआ, भौजाईयों और भावजों के नाम। एक से एक रंगीन और बदतरीन गारियां। पर कोई बुरा नहीं मानता किसी गारी का? बस पापा अगर दिख गये तो चुप हो जाती हैं सारी। वर्ना घर के अन्य मर्दों का यहां, इस मुद्दे पर, कोई लिहाज नहीं... वे ही हंसकर निकल लेते हैं...
और ये तो ऐसा कुछ था भी नहीं...
बात जरा देर से समझ आयी पर समझ आ गयी है उसे। राघव और उनका परिवार अपनी जाति, ना, पहचान, को लेकर बहुत सेंसेटिव हैं। होना बनता भी है, प्रेम के दिनों में उनसे लगातार कहती रही है वो कि इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके फैमिली को भी नहीं... वह समझ सकती है राघव की तकलीफ...
राघव कहते थे बहुत संघर्ष करके उनका परिवार इस मकाम तक आया है। उनके घर की लड़कियों को खूब पढ़ाया-लिखाया उन्होने लेकिन उनके मुक़ाबिल वर उन्हें नहीं मिला। क्यूंकी लड़के चौथी-पाँचवीं के बाद ही अपने काम याकि दुकान में लग जाते। उनकी योग्यता अच्छी जलेबियाँ और मिठाइयाँ बनाना है, न कि उनकी बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ। बस संस्कारी और सभ्य परिवार देखकर ब्याह दिया गया उन्हें।
राघब की सगी बहनें नहीं। वे अपने ताऊ की इन बेटियों की चर्चा रह-रह करते हैं, जैसे कोई दुख उन्हें भीतर ही भीतर साल रहा हो, हो भी क्यों न साथ-साथ ही खेले और पाले-बढ़े हुये हैं सब।
राघव यह भी कहते हैं कि पढ़ने की उनकी ज़िद और स्वभाव के कारण परिवार और आसपास के सारे बच्चे उन्हें आऊटसाइडर की तरह देखते थे, उन्हें अपने में से एक कभी नहीं जाना-माना। बुजुर्गों की नज़र में भी एक उपहास होता — ‘पढ़-लिखकर न जाने कौन-सा तीर मार लेंगे। आखिर अपने काम में कौन-सी खराबी है जी।‘ राघव के पिता नहीं हैं, वे अपने काका साहेब के घर पाले हैं बचपन में और उन्हें उनकी माँ ने अकेले बड़ा किया है, पढ़ाने-लिखाने की अपनी ज़िद के साथ... बीते दिनों की स्मृतियों का दंश भला कहां जाता है?
अब सोच रही वह भी, क्या सचमुच अनजाने में गायी गयी थी यह गारी?
इस शादी का सबसे ज्यादा विरोध कक्को ही कर रही थी। घर के मर्दों से भी कहीं ज्यादा।
उन्हें मनाते हुये पापा को पूरे एक साल लगे थे। पूरे एक साल... .
पापा अपनी जिद्दी बेटी और जातिगत अकड़ से भरी हुई ताई की ज़िद के बीच फंसकर रह गये थे जैसे। न मालूम कैसे तैयार हुई थीं वो इस रिश्ते और उससे भी ज्यादा गांव से ही होनेवाली उसकी शादी के लिए? न जाने कैसे और क्या कहकर तैयार किया था पापा ने उन्हें?
पर कसक तो होगी ही बची खुची अभी भी कहीं?
बड़बड़ाते सुना भी था उसने – ‘अपनी माई का खून है इसका। चेहरे नहीं, ज़िद भी उसी के जइसा...’
छोटी चाची सब बूझ गयी हैं और बात संभालने की गरज से ही शायद उन्होंने ये गीत शुरू किया है —
बदरा बन आया रे कन्हैया सांवरा।
बन्ना ऐसा पातर की जैसे पानवा, होंठो में समाया रे कन्हैया सांवरा।
बन्ना ऐसा कारा कि जैसे काजरा, नैनों में समाया रे कन्हैया सांवरा।
वो देख रही मुस्कुरा रहा राघव आंखों ही आंखों में। ये गीत एकदम उसके राघव के लिए कस्टमाइज्ड गीत हो जैसे। सुंदर-सुमधुर और मनभावन। तंज और छेड़ भी हो जिसमें तो कितना प्यारा और मनभावन।
सुनहूं जनक प्रण बतिया हे सखिया!
सिया को कमरे में आये ढेर वक़्त हुआ पर कोई एक बार झांक तक न रहा। राहुल भी काका के बुलाने पर जो बाहर गया सो लौटा नहीं फिर और धिया तो जैसे उड़न-छू ही हो चली है। इससे अच्छा तो सिया बरामदे में थी। सबकुछ देख रही थी और सबकुछ दिख रहा था आंखों से तो इतनी बेचैनी तो न थी। लेकिन राहुल उसे अपने कमरे पहुंचाकर ही बाहर निकला। अब तो बस कुछ हंसी, कुछ ठहाके, कुछ सुगंध ही तैरकर आ रहे उस तक और आकर उसे बेचैन किये जा रहे। वह बस कयास लगा सकती है, बाहर हो रहा तो क्या हो रहा। भूख और प्यास से बेहाल सोचती है वो — 'यार लोग शादियों में कितना खाते हैं और कितनी देर तक खाते है? दिनों पहले से पेट को सोन्हा कर रखते होंगे शायद कि शादियों में महीने भर का इकट्ठे खा सके? मां बताती थी अपने इक ऐसे ही चाचा के किस्से और वही अपनी बोली में कहती थी खाली पेट रहने को 'पेट सोन्हाना।' कितना सोंधा है न ये लोक शब्द 'सोन्हाना?'
दुल्हा-दुल्हन की तो किसी को परवाह भी नहीं... नहीं, सिर्फ दुल्हन की, दूल्हे की तो जमकर खातिरदारी चल रही होगी, खूब आवभगत हो रहे होंगे उसके। उसका मन यह सोचकर और कुड़बुड़ाता है। एक वह है कि भूख से बुरा हाल है उसका पर उसकी किसको पड़ी है। जाने कौन था वह जो जाने कब पापा वाली फलों और मिठाइयों की थाल लेकर चंपत हो चला? ठीक ही तो कह रहे थे पापू — ‘एक बार बारात आई कि...’
और ये राघव! बड़ा कह रहा था कि कुछ करता हूं मैं। क्या कर पाया आखिर! वो जानता है भूख उससे बर्दाश्त नहीं होती। वो क्या गा रही थी उस दिन चाचियां और भाभियां —
'इक लाल फूल में बास नहीं,
परदेसी पिया तेरा आस नहीं...’
सचमुच उसे उससे कोई आस नहीं। परदेसी पिया से भला कैसे कोई आस लगाई भी जा सकती है?
अपनी झुंझलाहट पर ख़ुद ही झुंझला पड़ती है — ‘क्या कर सकता है वह यहां, वह भी उसके गांव और उसके घर में? जब पापा इस मामले में कुछ न कर सके तो... उसके पापा... अपनी मनवा लेने में सिद्धहस्त। तो वो कौन-सा धुरंधर है?’
चलो धुरंधर भी होगा पर उसकी धुरंधरी आज कहां चलने वाली? शादी के दिन तो बलि के बकरे समान होते हैं दुल्हा-दुल्हन, जो जैसा कहे मानते रहो। इसी में कुशल-मंगल सब समाहित है...
वो अपना ध्यान भूख से हटाना चाहती है। पर कैसे करे ये? फोन पास होता तो शायद ये मुश्किल घड़ियां बीत जातीं, काट लेती वह इंतज़ार का सारा वक़्त। लेकिन अभी... ?वह अपना ध्यान बँटाना चाह रही...
दोनों भौजाईयां उसे उस दिन सुनाकर गा रहीं थी —
‘राहुल भैया पूछे अपनी बहना से दीदी कितने यार तुम्हारे हैं, दीदी कितने?
रवीश भैया पूछे अपनी बहना से, सिया कितने यार तुम्हारे हैं सिया कितने?
भैया चालिस यार हमारे हैं, भैया चालीस।
दस इधर गये, दस उधर गयें, दस भूंजा भुजाने भाड़ गये।
दस कपड़ा लाने बाजार गये, भैया चालीस!’
सिया की हंसी नहीं रुक रही बेसाख्ता। क्या कमाल की हैं उसकी भाभियां। वह लड़की जो उम्र के अट्ठाईसवें पड़ाव तक एक सही लड़के तक को नहीं ढूंढ पाई थी, उसके लिए ऐसी सुमधुर संकल्पना सचमुच मजेदार ही तो है।
धिया भी कहती है, दी इस परिवार की होकर भी कैसे कर सकीं आप लव-मैरेज करने की हिम्मत? शायद आप इस गांव में नहीं पली बढ़ीं इसी से?
नहीं तो बेचारी दीया जिज्जी... उनको मार-मार के अधमरा कर दिया था इन लोगों ने और उन्हें इतना मजबूर कर दिया कि...
मैं तो कभी न ये हिम्मत कर सकूं... बस बड़ी मुश्किल से ये इंटर तक पढ़ाई करने की इजाज़त मिली है कि सिर झुकाये स्कूल जाओ और स्कूल से वापिस आओ। मैं इसी को अपना किस्मत मानती हूं कि मेरे मां-बाप-भाई सब मुझे पढ़ने दे रहे। स्कूल जाने दे रहे। नहीं तो मेरी अधिकतर सखियां या तो शादी करके ससुराल चली गयीं। या फिर जो है वो पढ़ाई छोड़कर ब्याह के इंतज़ार में हैं। किस दिन कोई सुयोग्य वर मिले और वो मां बाप के बजट में समा जानेवाला भी हो, बात बन जाये किसी तरह...
मेरी एक सहेली की शादी पिछले साल तय तो हुई पर लेनदेन को लेकर बात जरा अटक गयी। गांव में इतनी थू-थू हुई कि उसने भी एक दिन अपनी जान ले ली। उसी तालाब में डूबकर, जिसके किनारे हम खेला करते थे... थोड़े बड़े हुये तो जिसके किनारे बैठकर न जाने अपने मन की कितनी बातें किया करते थे हम। उसके पानी को एक-दूसरे पर फेंकना हमारा प्रिय काम था। मेरी पक्की सहेली थी वो... पर उसने मुझसे भी कुछ नहीं कहा, कुछ भी नहीं। बस चुप-चुप रहने लगी थी, बाहर भी निकलना बंद कर दिया था उसने। कभी खींचके बाहर ले आओ तो...
जानती हैं दी, मैंने तो उस तालाब की तरफ़ देखना तो दूर उधर जाना तक छोड़ दिया। जबकि वह स्कूल से आने का छोटा और सबसे लोगाड़ (चहल पहल वाला) रास्ता है...
मैं दूसरे सुनसान और लम्बे रास्ते से घर लौटती हूं पर उस रास्ते से नहीं।
कई बार इसलिए पापा, ताऊ, भैया सबने मीटिंग बैठाया और मुझसे पूछताछ भी हुई। सबको लगा होगा कोई चक्कर है मेरा भी... कितनी बार मेरी जासूसी भी की गयी। कितने दिनों तक भाईयों की मुझे ले जाने ले आने की ड्यूटी बंधी। जब कुछ भी हासिल न हुआ तो फिर डोर थोड़ी ढीली कर दी गयी...
सिया धिया की बातें सुनकर उदास और अनमनी हो आई थी। फिर भी बात बदलने के लिए पूछती है — ‘फिर भी तुम्हें कोई तो आज तक अच्छा लगा होगा। कोई भी... सहपाठी, कोई पड़ोसी, कोई रिश्तेदार...’
‘कोई नहीं दीदी। मैं शुरू से महिला विद्यापीठ में पढ़ी हूं तो कौन सहपाठी?’
मर्द रिश्तेदार जो आते हैं उन्हें बाहर बरामदे के कमरों में ही रखा जाता है। मैं और भाभी लोग तो क्या अम्मा और मंझली अम्मा तक न जातीं वहां। खाना-दाना देने भी नहीं। वे घर के लड़के और नौकर-चाकर करते हैं। और राह चलते आगे पीछे घूमने वाले लौंडों की तरफ़ तो आंख उठाकर भी न देखती कभी। सात भाई हैं मेरे किसी ने भी देख लिया अगर... ग़लती वे लड़के करेंगे और उसकी सज़ा मुझे भुगतनी होगी। और मैं इस सज़ा के लिए बिलकुल तैयार नहीं... मैं तो बस इतना चाहती हूं कि इंटर इतने अच्छे से पास कर लूँ कि मना सकूं सबको कि मुझे नीट का इंटरेंस देना है। मुझे डाक्टर बनना है...
जानती हूं जिज्जी कि ये बहुत नामुमकिन-सा सपना है मेरा।
पर जो है सो यही है...
सिया ने धिया को कलेजे से लगा लिया था और देर तक समेटे रही थी उसे अपने में।
वह जिन सात भाइयों के होने का गर्व मना रही इन दिनों। जिस गांव में आकर और जहां की होने और जहां से अपनी शादी करवा के धन्य-धन्य जान रही ख़ुद को, उसका असली रूप तो कुछ और था। वह तो इक मेहमान है जिसका मान, उसकी जिदों और हठ को सम्मान देकर किया जा रहा बस। वह आज है कल चली जायेगी। इस शादी से कितना और क्या कुछ बदलनेवाला है, यहां के जड़ समाज में...
धिया ठीक कहती है कि -–‘शुक्र मनाइये जिज्जी कि आप यहां नहीं पली-बढ़ी। आपके मां-बाप म़झले चाचा-चाची थे... ।‘ वह सच ही कहती है शायद...
मां की मृत्यु के वक़्त उसने पापा को दिलासा देते हुये कहा था — 'पापा मैं आपको छोड़कर कभी नहीं जाऊंगी, कहीं नहीं।‘
पापा ने उसे कलेजे से लगा लिया था। कुछ देर बाद उसे ख़ुद से अलगाते हुये उन्होंने पूछा था — “आपने क्या बोला सिया, फिर से बोलो।”
“पापू मैं आपको छोड़कर कभी नहीं जाऊंगी।” उसने उसी दृढ़ता से कहा था।
“सिया फिर आप इस बात को हमेशा याद रखना बेटा, मैं भी रखूंगा।” पापा एकदम से संयत हो चले थे। पापा ने सिया और घर की जिम्मेदारी अपने कंधे ले ली थी और फिर कभी उस तरह उदास भी नहीं हुये। हर वक़्त बस सिया, सिया, सिया... 14 साल की उम्र में हुई उस बात को आज 14 साल बाद तक सिया ने भी याद रखा और पापा ने भी।
सिया ने अपनी मनमर्जी से अम्मा की लाल टहकोर बनारसी साड़ी को ही पहनना चुना था, कोई महंगा डिजायनर लहंगा-वहंगा नहीं। जेवर भी सारे अम्मा वाले ही, जिन्हें पापा ने ज़बर्दस्ती पॉलिश करवाया था। उसका तो मन नहीं हो रहा था। लग यह रहा था उसे, जैसे पानी चढ़ते ही अम्मा का स्पर्श, उनकी छुअन गुम हो जायेगी इनसे। उसे इस बात के लिए पापा से ज़िद करते और पापा का उससे मनुहार देखकर अपना गीत-गान बीच में ही रोक कक्को ने डांटा था — 'नाया गहना नहीं खरीदाया, ई सबसे बड़ ग़लती है, आ पालिशो नहीं होगा त लोग का कहेगा? हसिये न होगा चारो ओर?’
वह मन ही मन कुड़बुड़ा रही थी पर कक्को से क्या कहे? यूं भी कक्को यह सब कह लेने के पश्चात फिर से अपने गीत-गान में मगन हो गयी थी —
'सुनहू जनक प्रण बतिया हे सखिया, सुनहूं जनक प्रण बतिया...’
'हो छोटकी दुलहिन तनी चटाई-दरी अऊर बिछाव, अऊरो जनी लोग आवत बाड़ी।'
राजा जनक जी कठिन प्रण ठनले,
द्वारे पे रखले धनुखिया हे सखिया, सुनहू जनक प्रण बतिया।‘
'ई मंझलको कहां लुकाईल बाड़ी। जुग-जमाना बाद घर में बेटी के बियाह बा, तनिक निम्मन नस्ता परोसिह लोगिन। कागस के पलेट बा न घर में? '
'ठाकुर जी लोग के इहां त रोज इस्टील के पलेट में नास्ता दिआत रहे, ना पलेट छोड़ के ना जाये के रहे... त ऊ होईत त कोन नया बात भईल? भर पलेट नासता अ पलेट दुन्नो गवनिहारिन लोग रोजघरे लिया जात रही।'
जेवर जब पॉलिश होकर आये तो एकदम से जगमगा रहे थे। उन्हें छूकर 18 साल पहले की मां का स्पर्श याद आता रहा। दरअसल स्मृतियां चीजों में नहीं होती, हमारे भीतर होती हैं। वस्तुओं का अवलंब तो हम तलाशते रहते हैं, उनको उद्दीपित करने के लिए। मां अब भी थीं इन गहनों में। पापा घूम-फिरकर आते और भर निगाह उसे देख जाते। क्या उन्हें भी उसमें अम्मा की छहक दिख रही थी? उनकी आंखें क्यों डबडबा रही थीं रह-रहकर? या फिर इसलिए कि आज उनकी बिटिया का ब्याह है? लेकिन आम बेटियों की तरह वह तो नहीं जा रही कहीं उन्हें छोड़कर। उसे तो हमेशा-हमेशा उनके साथ ही रहना है। फिर क्यों... ?
वाकई राजा जनक के प्रण की ही तरह बहुत कठिन प्रण था ये प्रण भी, जिसे ज़िद की तरह निभाते रहे थे-पिता-बेटी। आकर्षण, दोस्ती और क्षणांश को प्यार जैसे लगनेवाले पल भी आये सिया की जिंदगी में पर शायद लगने वाले ही बस। उस प्रतिज्ञा की धनुष का मान कोई जो नहीं रख पाया।
पिता के आगे भी कई रिश्ते आये पर जैसे ही पिता अपनी बात कहते, आगे बढ़े हुये कदम पीछे हट जाते, — 'ऐसा कहीं हुआ है?'
कक्को गा रहीं इधर —
'देस विदेस के भुप सब आये, उ हो न तोरले धनुखिया हे सखिया।
सुनहु जनक प्रण बतिया।'
'ई केतना देर लगावेलू तू लोगिन, ई ना कि जल्दी-जल्दी खाना बनाके धर दी। अ लिपिस्टिक पाऊडर लगा के तनी जल्दी तईआर हो जाई। ई बूढ मनई के गा-गा के अजुये गला बईठ जाई। कोई गला देबे बाला भी ना बाटे, लगल रह तू लोगिन अप्पन सिंगार-पटार में। —
'लंका पुरी से रावन आये, उहो भागे आधी रतिया है सखिया।
सुनहु जनक प्रण बतिया।'
पापा के पास आनेवाले रिश्ते कम होते-होते धीरे-धीरे खत्म हो चले थे। और सिया ने ख़ुद को कबका समझा लिया था। और इस ख़ुद को समझाने में, न कोई क्षोभ था, न रिग्रेट, न कोई दुख। उसने तो मान ही लिया था मन ही मन...
'मुनि जी के संग दुई बालक आये, ऊहे जे तोरले धनुखिया हे सखिया,
सुनहू जनक प्रण बतिया।
कि एक दिन सचमुच राघव और माधव दोनों भाई उसके घर आये थे, राघव का मेंस में हिंदी था और उन्हें पापा से इसमें मदद चाहिए थी। इससे पहले राघव विज्ञान के विधार्थी थे और कहीं भौतिकी के शिक्षक भी रह चुके थे। माधव भैया के एक दोस्त ने उन्हें पापा के बारे में बताया था। उनके मित्र के पापा, पापा के मित्र थे।
फिर तो सिलसिले पर सिलसिले बनते, निकलते और चलते रहे थे।
उन्होंने बस एक बार में ही मान ली थी पापा की बात। उनकी मां ने आगे बढ़कर कहा था — ‘मैं वैसे भी अपने बड़े बेटे और बहू के साथ रहती हूं, आगे भी वहीं रहना चाहूंगी। सिया रह सकती है राघव के साथ अपने पापा के पास। बस आना-जाना होते रहना चाहिए।‘
सचमुच कितना विरोधाभास है दोनों बहनों के जीवन के बीच... धिया उसकी आधी उम्र से बस कुछ ही अधिक की होगी। उसे तो उससे और आगे के सपने देखने थे और आधुनिक जीवन मिलना था... पर नहीं... यह फर्क पीढ़ियों का उतना नहीं, जितना जगहों के बीच का है। गांव और शहर के बीच का है...
मंझली आजी यानी कि कक्को को देखना एक जीवंत चलचित्र को देखना है जैसे। वे ख़ुद में ही एक पूरी नाट्यशाला हैं। उनका हाव-भाव, हंसी-रूदन, मान-मनौवल और रूठना सब जैसे जीवंत नाटक। अम्मा कहती थी — ‘ऊपर ही ऊपर कठोर दिखती हैं वो। भीतर से एकदम रूई के फाहे-सा नरम हैं उनका मन। उनके गुस्से के आवरण के भीतर दबा होता है उनका असली प्यार! पूरे के पूरे डेढ साल मुझे रसोई का एक काम करने न दिया। लेकिन मजाल है कि मुझे कभी वक़्त पर कोई चीज न मिली हो। पानी का एक गिलास तक भी...’
इतने मान-सम्मान की बात में फिर क्यों डबडब हो आती थीं मां की अंखिया? यह तो बाद में जाकर जाना था, या फिर बहुत बाद में समझ सकी थी।
उसकी भौजाईयों के गीतों की घड़ी की सुई अब सीधे कक्को की ओर जा मुड़ी है। मतलब ये आज किसी को नहीं बख्शने वाली।
‘कजरा बेचन को आयो रे, कजरा ले लो कजरा।
बहू-बेटियों ने पैसे में खरीदा, कक्को ने रूपया निकाला रे,
कजरा ले लो कजरा।
बहू बेटियों ने डिब्बे में रक्खा, कक्को ने मटका निकाला रे।‘
और कक्को को देखो जरा भी बुरा नहीं मान रहीं इसका। हंस-हंसकर दुहरी हुई जा रही बस —
‘बहू-बेटियों ने सींक से लगाया, कक्को ने मूसल निकाला रे,
कजरा ले लो कजरा।‘’
सब लोटपोट हुये जा रहें हंस-हंसके। कक्को झूठी आंखे तरेर रही। — ना मनबू लोगिन त उहे मूसर से का होई इहो बूझ ल...
कौन मान रहा और कौन मना रहा, सच्ची-मुच्ची।
गीत अपने उरूज़ पर है —
‘बहू-बेटियों ने शीशे में देखा, कक्को ने काकू को दिखाया रे।
कजरा ले लो कजरा।‘
काका साहेब का जिक्र आते ही काकू एकदम से उदास हो आई हैं।
उनका मन बदलने को बहुओं और चाचियों के गीत का टोन भी बदल गया है।
पिछले पांच दिन जो किसी तेज चलती फिल्म की रील की तरह बस भागते हुये से बीते थे, उसे आंख भरकर जी रही है, रीवाइंड कर-करके देख रही वो...
रस्में, रस्में और रस्में। हल्दी, मटकोड़, घीऊढाड़ी, आम-महुआ, पनकट्टी और बिलऊकी। मटकोड़ के लिए जहां उसे ले जाया गया पूरे बाजे गाजे और तामझाम के साथ वहां चारों तरफ़ बस हरियाले खेत थे। उसका मन हो रहा था घूंघट उतारे और फलांगे मारे इन खेतों के बीच। लेकिन हकीकत यह थी कि जैसे ही वह घूंघट जरा-सा सरकाती, ठीक उसके पीछे चलती, उसके साथ एक ही ओढ़नी शेयर कर रहीं उसकी छुटकी चाची झट से उसे पहले से भी लम्बा खींच देतीं। सिया की सब कोशिशें बेकार की बेकार। उसने धिया की कान में कहा था — ‘धीयु जरा हटवा न यह घूंघट, मुझे ये खेत देखने हैं, गांव देखना है, क्या मैं अपने गांव को ही भर आँख नहीं देख सकती? ये कोई मेरी ससुराल है? और मैं तो अपने ससुराल में भी घूंघट न ओढूं। आंटी ने पहले ही कह दिया है...’
‘ससुराल में मत ओढ़ना जिज्जी, पर यहां तो ओढ़ना ही होगा। यह हमारा गांव है और ऐसा ही चलन है यहां।‘
‘अपना गांव घूमना था जिज्जी तो बियाह के पहले आना था न... अपने बियाह में अपना गांव कौन घूमता है भला?’
‘ये जिज्जी उदास मत होओ, देखो उधर... वो जो स्कूल है न, वो सामने वाली बिल्डिंग। वहीं ठहरेगी आपकी बरात। जनमासा वही है।’
‘पता है न चार दिन रुकेंगे वहां बराती, मतलब चौथारी तक... मतलब बियाह होते ही विदा नहीं किया जायेगा आपको। चार दिन रहियेगा आप यहां, जीजाजी के साथ...’
‘नहीं सब बियाह में नहीं होता अइसा। ई पुराना रसम है। अब त गांव में भी वन नाईट शादी ही चलता है। सांझे बारात आई, एक भोरे कनिया लेके बिदा हो गयी।‘
‘आपका बियाह स्पेशल है। तीन पीढी बाद हमारे इहां हो रहा कोई लड़की का बियाह... अ दिल्ली बाले बराती सबको दिखाना भी तो है, कईसा होता है गांव का बियाह। ‘
‘तो दीदी जिधर से बरात आना होता है, उसी रास्ते में कहीं किया जाता है मटकोड़। इसीलिए आये हैं हमलोग पुरनका स्कूल के रास्ता। ‘
‘जानती है जिज्जी मटकोड़ में जो माटी कोड़ा जाता है, उस माटी से फिर एगो चूल्हा बनता है।‘
‘उस चूल्हे से क्या होता है फिर।'
‘उसी पे फिर लावा भूंजाता है। फुआ भूजती है लावा।‘
‘उस लावे का फिर क्या होता है?’
‘मेरा सिर... आप भी गजब हैं जिज्जी। कुच्छो नहीं जानती का? एक्को बियाह नहीं देखी का अबतक?’
मंझली काकी डपटती है धिया को।-–‘बड़ बहिन से कोई अइसे बोलता है।
और फिर वे उससे मुखातिब होती हैं — और हे भगवान बबुनी! एतना सबाल… बियाह होइए रहा, धीरज रखिए सब रसम होगा अऊर बुझा जाएगा सब...
वह जवाब की कड़ियां मन-ही-मन ढूंढे और जोड़े कि हड़कम्प मच गया है — 'लड़की की फुआ कहां है? कौन कोड़ेगा माटी?' मन ही मन सोचती है अब कहां से लायेंगे ये लोग फुआ को…
‘गे माय हम नहीं आज रहब ये ही आंगन, जै बुढ होत जमाय...’ गानेवाली उस पीढी की इकलौती लड़की को सचमुच एक दुहाजू, कुरूप बूढे के साथ ही तो बांध दिया था, इस घर-परिवार ने? फुआ जब शादी के बाद आई तो एकदम बदली सी, दुबली और मुर्झाई हुईं। विदागरी के वक़्त उन्होंने वापस जाने से मना किया था कि उन्हें मारते हैं उनके दूल्हा। पीते हैं रोज, वो नहीं जायेंगी उस घर। लेकिन ठेल के भेज दिया गया था उनको, और कुछ दिन बाद ही खबर लगा था, खाना बनाने में जर गयी।
जल गयी कि जला दी गयी यह तस्दीक भी इस परिवार के लोगों ने न की, बस पापा ही कुहकते रहें अपनी उस इकलौती बहन के लिए। कहते — ‘मैं रहता तो... मैं होता तो...’
लेकिन तब तो पापा जेएनयू से एम.ए कर रहे थे। उन्हें तो बहुत बाद में पता चला कि बताया ही बहुत बाद में गया।
उसी बुआ की आज खोजाई मची है...
कुछ देर को लोग सकपक हैं...
छोटकी चाची जरा तेज स्वर में कहती हैं — ‘हमारे इहा नही होता ई सब, हमारे इहां डोम-दुसाध जइसे छोट जात के लोग कोरते हैं माटी।‘
‘तनी बुलाओ सोमिया माय को अउर उनकर मरद को...
छोट जात-बड़ जात कितना पैठा है सबके भीतर, जब भी जाति-धर्म की बात आती है, कितना अंजान लगने लगता है, उसे सामनेवाला हर चेहरा...
गीत गान में फिर से जान आ गया है। नंगे देह माटी कोड़ने वाले के पीठ पर वह हल्दी से थाप देती है। गाली से भर दिया गया है उन्हें पर नेग में मिली मोटी रकम उनके चेहरे की आभा को जरा भी मलीन नहीं होने दे रहीं।
लावा भूंजने के लिए फिर फुआ की गुहार मच रही — ‘चलो किसी बहाने भूली, बिसरी और भुला दी गयी बेटियां याद तो आ रहीं, याद तो की जा रहीं...’
वह पूछने-पूछने को होती है और रुक जाती है — ‘क्यों, कोई डोम-दुसाध नहीं करता ये रसम कि देखती है गांव की एक फ़ुआ को पकड़ लाये हैं उसके भाई...
बिलऊकी मांगने जाया जाये कि न जाया जाये, अब ये मंत्रणा दोनों चाचियों में छिड़ी होती है — अब तो गांव-शहर में कोई नहीं जाता कहीं बिलऊकी मांगने, अपने ही घर में पांच सुहागिनें...
पर हम तो यहां चार ही...
उस घर...
कि कक्को ज़ोर से कहती हैं — ‘‘जब बियाह इहां से हो रहा त सब विधि-विधान से होगा। पूरा इग्यारह घर घुमा के लाव लोगिन सिया के... बड़को के घर भी...’
ना सबसे पहिले बड़को के घरे ही... कुच्छो होये। खून बा...
सिया खुश है पूरे ग्यारह घर घूमेगी वह। बड़की चाची के घर भी...
दोनों चाचियों का मुंह उतरा है — ‘बड़की के घर भी...’
हर घर उससे बहुत उत्साह से मिला है। सबने मुंह मीठा किया है उसका। पैसे और सुहागिनों के आंचल का एक सूत रखा गया है उसके आंचल में... पर बड़की चाची ने एकदम कलेजे से लगा लिया है उसे। कहा है साच्छात सरसती का सरूप, एकदम वही चेहरा मोहरा, काठी-कद।
उन्होंने क्या क्या न रखा है उसके आंचल में। फल-मिठाई, कपड़े-पैसे सब...’ वह निकली है तो उनकी आंखें उदास हो आई हैं।
‘सब नाटक अ सब नौटंकी’ — दोनों चाचियां उस घर से निकलते ही एक स्वर में कहती हैं।
‘एतना छोह-मोह उमड़ रहा था त आना था एक्को दिन। ई देखावा था खाली...’
सिया ने मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों से एम.ए किया है। पी.एच.डी भले ही उसने मनोविज्ञान में किया। डी.यू के एक कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर है। वो हर रस्म के साथ एक सवाल करती है। जबकि पता है जबाब शायद मिले, शायद ना मिले। आम महुआ के वक़्त शारदा सिन्हा को उसके भाई लोग बजा रहें मोबाईल पर — 'अमवा-महुअवा के डोले सुंदर डरिया... . ' उसने मन-ही-मन मन सोचा है, शादी से पहले ये लोग आम-महुआ बियाह कर शायद सारे विघ्नों को रोकने का ही कोई टोटका करते होंगे, पेड़ से शादी कराई जाती है ये तो उसने सुना था पर दो पेड़ों की शादी... उसका ध्यान गीत पर नहीं, रस्मों पर भी उस तरह नहीं होता, बस मन में हमेशा की तरह कुछ सवाल चलते रहते अनवरत — ' इसको करने का मतलब?’ चाचियां हाथ जोड़ लेती हैं — 'बबुनी अब रहने दीजिए। हमलोगों को एतना सब नहीं पता। पता होता तो हम भी प्रोफेसर होते न आपकी तरह... भैया जी के जइसे। हम सब तो कम पढ़ी-लिखी घरेलू औरतें हैं। बहुत कुछ नहीं पता, न पूछने का हिम्मत है भीतर। कह देगा कोई भी -– ‘हिस्का-हिस्की जादा गियानी बने के ज़रूरत नईखे, ढेर काबिल ना बनअ, जाके अपन रसोई अ घर दुआर संभार। '
‘पनकट्टी’ का क्या मतलब। कहाँ कोई बता पाया। लीक पीटते जा रहें सब बस साल-दर-साल, ब्याह-दर-ब्याह। उसे तो बस इतना ही लगा था, यह वही कुंआ है, जहां दीया दी...
रस्म करते हुये उसने बार-बार भीतर झांका था। जैसे कि दिख जायेंगी अभी भी दीया दी... पर भीतर बस गंदगी थी, पालीथीन बिस्कुट टाफियों के रैपर थे। पेड़ के ढेर सारे झरे हुये पत्ते थे और थोड़ा-मोड़ा गंदला-सा जल। उसका मन हुआ था वह ज़ोर से चीख के पुकारे ‘-दीया दी...’ जैसे उसके पुकारते ही वो चली आयेंगी भागती हुई उससे मिलने... बहुत थोड़ा-सा पानी निकला था उस कुंये से। वो भी गंदला लाल। भाभियां कहती हैं — तभी से बदल गया इस कुंये के पानी का रंग जबसे दीया बबुनी... तबसे न इसे किसी तरह से उपयोग में लिया गया, न इसकी पहले जैसी साफ़-सफाई रही। नहीं तो इसके मीठे पानी की तुलना किसी कुंए के पानी से न थी। आसपड़ोस के गांव के लोग इससे भर-भरकर ले जाते थे पानी। खैर अब ज़रूरत भी नहीं किसी को इन कुंए तालाबों की। नलके में पानी आता है चौबीस घंटे। जब चाहो खोलो और पानी ले लो। न कुंए से रस्सी और बाल्टी से निकालने की मशक्कत। न तालाब से सिर पर ढोकर लाने की जहमत। भाभियों की आंख में मुक्ति की एक चमक दिखाई दी थी।
लेकिन वह दूसरी बात सोचती है, इनमें से कोई कभी पानी भरने गयी भी होंगी क्या? ढेर सारे नौकरों-चाकरों वाले गांव के सबसे बड़ी घर की बहुएं? पता नहीं...
पूछूं? नहीं अब कुछ पूछा तो ये कहीं भड़क ही न उठे। वो लड़ने-लड़ाने नहीं आई, प्यार देने आई है और प्यार समेटने भी। अपने हिस्से का, मां के हिस्से का, फुआ और दीया दी के हिस्से का भी। वे सब जो एक मुठ्ठी प्यार को तरसती चली गयी। उन सबके-सबके हिस्से का... वही प्यार और वही साथ जिसके लिए उसका सारा बचपन और जीवन तरसा है।
किसी बच्चे की मां और भाई बहनों को देख सिहाती थी वह। तब कहां जानती थी, उसका भी इक इतना बड़ा परिवार है। उसके भी इतने सारे भाई-बहन। अकेली नहीं है वह... एक हरियाले खेत का टुकड़ा देख ट्रेन से भी जुड़ा ऊठता था उसका जी, पर पापा की आंखें निरपेक्ष ही रहतीं। बल्कि कहो तो उदास भी। क्या पापा को अपने ये बाग-बगीचे और खेत-खलिहान याद आते थें उन्हें देखकर? वे यहां को, अपने इस गांव को और घर को मिस करते थे?
मां के बाद उनसे कोई कहनेवाला ही नहीं रह गया था, वे सीधे आये थें दादी के मृत्यु पर और तीन दिनों में लौट गये थे। सारी जिम्मेदारियां और अंत्येष्टि के बाद की सारी रस्में छोटे चाचा ने पूरी की। उसे लगा था यही एक मौका है पापा को अपने परिवार और घर से जोड़ने का। ये ही तो अम्मा का सपना था... मां जबतक रहीं, ज़िद करती रहीं — ‘अब गुस्सा थूक भी दीजिए, ऐसा भी कुछ नहीं हुआ था... परिवार है वो आपका...’ पर पापा सुनकर भी अंठिया देतें।
मंझली काकी ने लगातार मना किया था इस कुंये पर नहीं जाना। भूत-परेत, नज़र-गुजर सब ऐसे में जल्दी धरता है, लगनौती को। लेकिन छोटी चाची अड़ गयी थीं, हम न जायेंगे बड़का भईसुर के इंडा पर। भाई जी मान लिए ई सादी से खुस नहीं, पर दीदिया जी? भाई जी का बुझाता है कि ऊ नियम धरम के पक्के हैं, नहीं बरदास होगा उनको, पर दीदियां जी अ बच्चा सब? उहो जे आया होता चुरा-लुका के एक्को रसम में?
सिया बबुनी उनलोगों की कुच्छो नही लगती का? आ नहीं लगती त रहे ऊ लोग अपना जगह, हम अपना... जे लोग सालों से अलग हैं उनके दुआरी हम नहीं जायेंगे इंडा पूजने और पनकट्टी करने।‘
‘अपना इंडा का साफ़-सफाई करवाये लोग, उहें होगा ई सब पूजा पाठ।‘
उसने अपनी दोनों चाचियों को रस्मों के लिए उलझते और बहस करते देखा है। बच्चों की तरह ज़िद करते भी... छुटकी कहती हैं — ‘अभी एक्को बाल-बच्चे का बियाह नहीं हुआ उनके। बहुत सौख है उनको कि ऊ भी बियाह करें। दीदिया जी त दूगो बेटा बिआह ली, अ दून्नो पुतोह भी उतार लाईं। हमारा कौनो सरधा अभी पूरा नहीं हुआ।'
मंझली कहती हैं –-‘छोटको को तो भगवान एगो बेटी दिये हैं, सब शौख-श्रद्धा पूरा होगा उसका। धिया का बियाह करके कन्यादान का पुन्न कमायेगी। उनको ही भगवान बेटी दिये औरो छीन लिए... जवान-जहान बेटी के जाने का दुख उनके ही हिस्से... कहकर वे भोंकार पारके रो पड़ी हैं।
छोटकी अपनी ज़िद के रास्ते से उल्टे पांव लौट पड़ी हैं। — 'ऐ दीदी रोइये मत। सब रसम आप ही करियेगा, हम एक्को नहीं करेंगे, कहिए तो किरिया खा लें, लेकिन आप रोइए मत। ‘
‘अ का धिया आपकी बेटी नहीं? अइसा बात काहे कहती हैं आप? आप धिया का कन्यादान भी कर लीजियेगा। कसम से, हम मना नहीं करेंगे। सब बिध भी...’
मंझलो आँखें पोंछते चुप हुयी हैं जरा तो कक्को ने फरमान जारी कर दिया है — ‘कथा में मंझलो बैठेंगी अ घीऊढारी में छोटको रहेंगी। दुआरपूजा छोटको करेंगी और कन्यादान मंझलो। आगे के भी छोटे-बड़े रस्मों को वो दोनों में बराबर बराबर बांट देती हैं दोनों के बीच।
मंझलों की भींजी आंखें कहती हैं -– ‘ई होता है इंसाफ़। न्याय करना सबको कहा आता...’
और सचमुच इंसाफ़ की ही बात थी शायद। उसकी दोनों चाचियों ने धिया को विस्थापित करते हुये शादी के पहले की दो-दो रातें उसके साथ बिताई। जिसमें वो आधी जागी और आधी सोई रही हर दिन। न जाने कितनी-कितनी बातें। न जाने कैसी-कैसी बातें। मां की जगह वे दोनों क़ाबिज़ हो चली थीं। मां थी कि फिर भी रह रहकर याद आती थी...
उसने मां से सुना था उसकी अपनी दादी बहुत सीधी थीं। और छुटकी दादी बहुत होशियार। हुशियार का मतलब यहां चालाक होने से ज्यादा था। तो दादी ने शुरू से घर की सारी जिम्मेदारियां अपनी मंझली देवरानी को सौंप दी थी। वो पूजा-पाठ, भजन कीर्तन और उससे पहले बाल बच्चों में ओझरायी रहतीं। मंझली आजी के कोई सगी औलाद न थी, बच्चे हुये तो कई पर एक भी न बचा। पर वे सबकी कक्को थीं तो इसलिए कि उन्होंने देवरानी-जेठानी के बच्चों को संभारा। उनकी गृहस्थियां सहेजी। पापा को तो लगभग दादी ने उन्हें सौंप ही दिया था। दादी, पापा और उनके भाइयों ने हमेशा कक्को का मान मां समान ही किया। बल्कि कहें तो कहीं मां से भी ज्यादा। कक्को इसीलिए सदा रहीं इस परिवार के साथ। और छोटी-दादी बच्चे बड़े होते ही बँटवारा करवा अपना हिस्सा ले परिवार से अलग हो गई थीं।
कक्को कहती हैं — ‘छोटकी के बच्चे भी उसके जैसे ही चालाक निकले और कबूतरचश्म भी। गांव छोड़कर बाद में शहर चला गया था उनका परिवार, फिर तो किसी ने पलटकर खैर खबर भी न ली पीछे छूटे परिवारवालों की। कक्को कहती हैं — ‘उफ्फर परे। कहीं रहें का फरक पड़ता है। कोयल के बच्चे थे, कोयल के हुये। उड़ने लायक हुये कि अपनी मां के पास...’
उसने टोका था — 'कक्को ऐसे क्यों बोल रहीं? परिवार ही तो हैं सब। कहीं भी रहें। पापा भी तो चले गये थे सब छोड़कर। मुझे आप लोगों ने देखा तक नहीं था।...’
‘जिज्जी के बच्चा में अ छोटकी के बच्चा सब में पहिले से ही बहुत फरक था। स्वार्थी थे ऊ लोग...
तुम्हारा पप्पा जो घर छोड़के गया था सो ऐसे ही नहीं... बिआह करके इहें न आया था कनिया के साथ। फेर उसको पेचडी करने दिल्ली जाना था। तुम्हारी अम्मा को तुम्हारा पापा केतनो कहा, नहीं गयी साथ।‘
‘पर तुम्हारे बाप के जाते ही सब रंग बदल दिए। नाकन-सांसत करे रहते थे सब तुम्हारी अम्मा का। और सबके जड़ में ऊ छोटकी ही रहती थी। जिज्जी को तो दीन दुनिया से मतलबे नहीं था तो का लेती पुतोह का पच्छ और का न लेतीं? ‘
‘बचे हम त हमको भी चढ़ाये रहती सान पर हर बखत। हक एक न लगने देती ओकरे हिस्से और काम सारा जानवर जइसा ओकरे हिस्सा। नौकर चाकर वाला जेतना काम सब। कहती — 'पढ़ लिख लेने से दु अच्छर का हो जाता है, छोट जात है, छोटे जात रहेगी। अपने घर में भी सब करती रही होगी। देखती हैं न जिज्जी, गोबर पथार कुच्छो करने को कह दो, नाक नहीं सुकुरता। गोआरे तो है। काहे सुकुरेगा भला। पढ़ लिख गयी तो मेम त कोनो नहीं हो गयी?'
हम अपने बुद्धि का भी का कहें। उफ्फर पड़े इसको। आ जाते थे उसके कहल में। अ तुम्हारी महतारी कुच्छो कहो कभी न अस्काती थी, न कभी कुछ महटिआया। रोज रात पैर मीसने आ जाती थी, केतनो मना करो।‘
‘जबकी गोड़ त उसका दुखाता होगा। तीन पुश्त के परिवार का चूल्हा-चौका का बर्तन-भाड़। घर में ढेर बच्चे, ओतने बुजुर्ग, सबका खियाल। ‘
‘लेकिन छोटकी ने कहियो उसको रसोई नहीं करने दिया कि छुआ जायेगा। भोग नहीं लगेगा उसका बनाया। देवता घर में कभी नहीं घुसने दी उसको।‘
इहां तक कि तुम्हारी मां का धोया बर्तन बड़को मतलब अपनी बड़की पुतोह से खंघरवा के चऊका में रखवाती। फिर उससे काम होता। खाना सारा बड़को बनाती। दूर की भतीजी लगती थी न उसकी तो उसको विशेष मान था। राजरानी बनाना चाहती थी उसको। सब विशेष सम्मान की मालकिन। तुम्हारी मां के रूप गुण से उसको दिक्कत होता होगा। जरती होगी कि अपनी भतीजी पासंग में भी नहीं थी उसके। दुन्नो फुआ भतीजी एक जैसी, दुन्नो घरतोरनी। एक सहर जा बसी, दूसरे पड़ोस।
हम कहते भी कि — ' लड़की का कोनो कुल गोत्र हुआ है, जहां बियाही, तहां की कहाई।' पर मेरा कोन सुनता। ‘
तुम्हारा पप्पा अचानके आया था एक दिन त देखा ई भेद-भाव। ऊ कइसे सहता मेहरारू का ई अपमान। लेके चला गया अपना परिवार। तुम पेटे में थी तब... हम चाहके भी रोक न पाये।
फिर लगा अच्छा ही हुआ उसके वास्ते।
तुम्हारी महतारी गयी उधर, इहां फुआ भतीजी में रगड़ा चलने लगा काम को लेके। कलह का त जइसे अंत नहीं। हर काम के लिए आदमी धरा गया तइयो अशांति। ई अशांति दुन्नो के बंटवारा के बादे जाके खतम हुआ।’
‘अ भगवान का लाठी का मार देखिए कि अब देखा-देखी नहीं दुन्नो परिवार में। कहियो ग़लती से गांव आ भी गयी तो इहां भले चली आये, नहीं जाती भतीजी के दुआर।‘
तुम्हारा पप्पा त चला गया तब भी घर का खोज खबर रखता था। पैसा भेजता था हर महीने। चिठ्ठी लिखके पूछता था घर में कोनो ज़रूरत। बाकिर ऊ लोग कभी पूछा हो एक्को हाल?
कक्को कहते-कहते जैसे एकदम से पस्त हो आई थीं, जैसे घुड़सवारी करके लौटी हो और सच में लौटी भी तो हैं ही वो बीते एक युग की यात्रा से। दर्द, पश्चाताप और ग्लानि से भरी हुई। सिया एकदम से लिपट गयी थी उनसे। इस दस रोज में पहली बार। वो सोचती हे — ‘अम्मा ठीक ही कहती थी — कक्को का मन एकदम मोम जैसा है...’
उसने उनसे कहा है — 'अम्मा ने कभी नहीं कहा कुछ आपके लिए। बल्कि किसी के लिए भी कुछ... बल्कि आपको बहुत याद किया करती थी वो और आपकी तारीफ भी करती थी...
— ‘करेगी न... ऊ भलमानस थी बहुत...’ कक्को अस्फुट स्वर में बुदबुदाई थी...
कक्को को इस हाल में देख उनकी दोनों बहुएं दौड़ी आई हैं कहीं से। एक के हाथ में नींबू का शर्बत है, दूसरी के हाथ में ग्लूकोज।
वे जानती हैं, कक्को का बीपी जबतब लो हो जाता है...
कक्को दुविधा में हैं पहले किसके हाथ का लें... कि इस मारे कोई प्रतियोगिता न छिड़ जाये दोनों के बीच...
मझली और छुटकी चाची में दोस्ती भी बहुत है। कक्को की भाषा में कहें तो बहिनापा... लेकिन कम्पीटिशन भी बहुत चलता है दोनों के बीच। साड़ी का रंग, कपड़ा-लत्ता, बाल-बच्चा से लेकर घर दुआर के रख-रखाव तक सब में...
मंझली काकी को अपने यूपी के होने का घमंड है तो छोटकी को घर की पहली बी.ए पास पुतोह होने का। मंझली रौ में हो तो ‘मैं-मैं’ करके बतियाने लगती हैं, जिसके लिए कक्को कहती हैं — ‘ई मेमियाने काहे लगती हो बकरी के नाईं। जहां के ससुरार तहां के लड़की। इहां के बोली बानी में बात करे के चाही न?'
हालांकि उम्र का अच्छा खासा फर्क है दोनों के बीच। छुटकी मंझली की दोनों बहुओं से कुछेक साल ही बस बड़ी होंगी। लेकिन उससे क्या होता है? हैं तो वे देवरानी और सास ही। और इसी ठसके और राग से भरी रहती हैं वो। पद-पदवी का बहुत ख़याल किया जाता है इस घर में...
उसने गौर किया है एक ही गीत को ये दोनों एक ही दिन गाती हैं पर अलग-अलग तरीके और अलग मुखड़े के साथ। शायद आदतन... शायद जानबूझकर…
मंझली ने गीत शुरु किया है उधर —
‘राजा जी चलले बजरिया हो जिया जर गईल हमार।‘
छुटकी गा रही हैं —
‘टाटा नगर के ओढ़निया हो जिया जर गईल हमार।‘
बाकी अंतरा तो एक ही है दोनों गीतों का —
‘सास को लाये साड़ी, ननद को लाये लहंगा।
हमरो ला लाये लुगरिया हो जिया जर गईल हमार।
उहो साड़ी कट गयी, लहंगा भी फट गयी।
छप्पर पर फहरे लुगरिया हो जिया जर गईल हमार।‘
छुटकी ने तान छेड़ी है —
‘अऊरी दौड़ी प्यारी बेटी खेलने को जाये री।
बहियां पकड़ बाबा गोदी बैठाये री।
कहो मेरी प्यारी बन्नी कैसा वर ढूंढू रे।
गोरा मत खोजिएगा बाबा, धूप कुम्हलायेगा।
कारा मत खोजियेगा बाबा, तवे जैसा लगेगा।
सांवरा सलोना वर मेरो मन भाये जी।‘
मंझली ने जबाब में ढूंढा है वैसा ही गीत —
‘जाली के झरोखे बन्नी झांकती।
बन्नी जी ठारी अपने दादा से अरज करे।
दादा इतनी अरज मेरी मानिए, बन्ना सांवरा मत ढूंढिये।
बेटी मन पछतावा ना करो, तेरी दादी गोरी दादा सांवरा।
तेरी बुआ गोरी फुफा सांवरा।तेरी चाची गोरी चाचा सांवरा।‘
उसने गौर किया छुटकी चाची के बनिस्बत मंझली चाची की बन्नी ज्यादा मॉडर्न है। कुछ-कुछ उनके जैसी हठी या बेबाक। जो अपने पिता-दादा सबसे अपने मन की बात कहती तो है। लेकिन छुटकी चाची के गीत के परिवार वाले ज्यादा समझदार है। जो लड़की से उसका पसंद तो पूछते हैं कम-अज-कम। कन्सेंट वाली बात तो है इस गीत में। सोचकर मुस्कुरा देती है वो...
आया घोड़े पे सवार, बन्ना मांगे मोटर-कार
देर बाद वो आईने में अपना चेहरा देख रही एक बार फिर। इस बीच न जाने कहां-कहां से घूम आया है उसका मन गोकि सबकुछ ठीक-ठाक है, बहुत हद तक यथावत! लेकिन आंखें उदास और भरी हुईं। नहीं उसे ऐसे उदास तो नहीं दिखना, वह भी आज के दिन...
फिर एक और बार ‘टच अप’ करती है वो। पांच मिनट और गुजर जाते हैं इसमें...
न जाने कब उसका बुलावा आयेगा जयमाल के लिए...
भूख प्यास की बात भूल अब उसके मन की घड़ी की सुई जयमाल के नम्बर पर जा अटकी है।
वह वक़्त काटने के लिए एक बार निरखती है ख़ुद को।
कितनी अच्छी तो लग रही। वर्ना पिछले पांच दिन तो...
आज शाम ससुराल पक्ष से आये कलशे के पानी से नहलाकर तैयार किया गया जब उसे तो ख़ुद को भी वह बिलकुल अलग-सी लगने लगी। थोड़ी-थोड़ी इंसानों जैसी। वर्ना जिस दिन से लगन चढ़ा, नहाना बंद करवा दिया गया था उसका। एक पीली साड़ी में थी वह इन पिछले पांच दिनों से। केश खुले, आंखों में मोटा-सा घर का पारा हुआ काजल... एक सरौते में कसैली फंसाकर थमा दिया गया है उसे और कहा गया है — ‘इसे हमेशा साथ रखना है।‘ वह बार-बार शुक्र मनाती है कि उसकी शादी नवम्बर के महीने में हो रही, नहीं तो...
पापा ने शायद जानबूझकर चुना हो यह समय।
खट् से हुआ है उसके कमरे का दुआर। शायद जयमाल के लिए कोई...
कोई नहीं यह तो पूरी फौज है। धिया, उसकी सखियां, राघव की और उसकी सहेलियां। खिलखिलाहटों से पूरा कमरा भरा हुआ है। उसे समझ नहीं आ रहा किससे क्या कहना है। कैसे बर्ताव करे वह, जबकि सब उसके प्रिय और परिचित ही हैं। मतलब अब सचमुच चलना है, वह हड़बड़ाहट में उठकर चलने को तैयार हो गयी है कि सब और हंस पड़ी हैं — ‘अभी नहीं, अभी वक़्त है सिया। पहले तुम खा पी लो कुछ ठीक से।‘
‘राघव को तुम्हारी चिंता सता रही। ऐसे तुम कैसे भूखी...’
‘पर...’
वह कुछ कहना चाहती है कि धिया कहती है — 'जीजाजी ने कक्को को कहलवाया कि उनके यहां का रस्म है कि जयमाल के पहले दूल्हा, दुल्हन का जूठा खाता है तो कक्को ने हार झखकर मान लिया और आ गयी ये तुम्हारी सजी-धजी थाली। धिया नाटकीय अंदाज में उसे थाली पेश करती है — ‘जल्दी खाओ तुम सिया कि हम जीजाजी को भी कुछ खिला सकें। बेचारा भूखे हैं कबसे।‘
‘तुम दोनों खा लो तो जयमाल भी हो।‘
वह बड़ी मुश्किल से अपना बड़ा-सा नथ उठा के एक-एक छोटा-सा कौर मुंह में डाल रही कि धिया मदद करने लगी है।
दरवाजे के ओट से कक्को देख रहीं उसे इस तरह हबककर खाते हुये। उनकी आंखों में अचरज है।
कुछ बुदबुदा भी रहीं वो। क्या फिर वही जात-कुजात... क्या वह उनकी उनकी चुप्पी की जुबान भी बूझने लगी है? वह बरजती है ख़ुद को। कुछ भी हो उसे अपना मूड नहीं बिगाड़ना। आज उसकी शादी है। वह भागकर जाती है और उनसे एकदम से गले लिपट जाती है। वह अपनी माँ की बिटिया है।
बारात में आई सखियां, बहनें, भाभियां सब उसे छेड़कर, सराहकर और दुलराकर जयमाल के बाद अपने-अपने काम में जा लगी हैं। एक बार फिर अकेली हुई है सिया, मंडप में जाने के इंतज़ार में।
फिर से वो जैसे बीत गये लम्हों को जी और दुहरा रही, राघव ने ठीक ही कहा था, वहां नज़र उठाकर उन्हें एक नज़र देखने का प्रश्न ही न उठता था। कितना चाहा उसने पर एक बार भी निगाहें उठा नहीं सकी। झुकी नजरों में ही उसने देख लिया था जहां तक दिखाई दे बस लोग ही लोग, सिर ही सिर। आगे की पंक्ति में तो सब उसके परिवार वाले ही थे। चाचा, मंझले चाचा, बड़े पापा, पापा, भाई और अट्टीदार-पट्टीदार के लोग। और सब तो उन्हें ही देख रहे एकटक। ऐसे में कैसे...
भाइयों ने उसे कंधे पर उठा रखा था, उतार ही नहीं रहे थे। खासकर विशाल भैया, विशाल भैया सात फुट लम्बे हैं। और गांव का घी-दूध खाया उनका ताकतवर शरीर। दूर-दूर तक कोई नहीं हैं उनकी कद-काठी का। राहुल कहता है उनको तो शहर जाकर माडलिंग करना चाहिए था पर खोल रखा है उन्होंने यहां अपना खटाल। कक्को हंसकर कहती हैं, ये अपनी बड़की चाची का लाडला था, उसी के आगे-पीछे घूमता रहता था, उसका अंचरा धर के। इसीलिए शायद... और तो और तबके गांव के सबसे बड़का गोआर परिवार में इसका डेरा-डंडा था। उसका मंझिला बेटा नितीन इसका जिगरिया दोस्त। पढ़ने लिखने में मन शुरू से ही नहीं लगता था इसका। उहें खाना, उहें सुतना, उहें रहना। देखा-सीखा था उसी का काम, त उहे लूर बाद में इसके काम आया।‘
लम्बे हैं राघव फिर भी वह उनकी हाथों की जद से बाहर ही थी। हो हंगामे के बीच बहुत देर तक चला था घराती-बराती के बीच द्वंद्व और प्रतिस्पर्धा का ये खेल। इतनी देर तक कि सिया थकने और उदास होने लगी थी। सिया राघव के पहुंच के बाहर ही रहती, अगर भैया ने बड़े बुजुर्गों के कहने पर अंततः उसे कंधे से उतार न दिया होता।
सिया के लिए फिर रस्म अदायगी जैसा ही रह गया था सबकुछ। जैसे कि लोगों के हाथ की कठपुतलियां हों वे दोनों और लोग उन्हें नचाकर अपना जी बहला रहें।
जिस सीधी-साधी शादी की कल्पना थी उसकी, वो जैसे इस हो-हंगामे और शोर में पता नहीं किधर गुम होती जा रही थी। पहला ही रस्म, रस्म अदायगी भर था जैसे... उसके हाथों से सारे सिरे छूट चले थे जैसे कि वह तो बस दुल्हन थी। अकेले पापा होते तो उन्हें वो संभाल-समझा लेती। पर यहां...
हां सच कह रही सिया। उसने सबसे आगे अपने बड़े पापा को ही खड़े देखा... एकबारगी तो उसे विश्वास भी न हुआ। बड़े पापा भला कैसे आ सकते हैं? जो एक दिन भी इस घर न आये थे उसके आने के बाद, उससे मिलने भी नहीं... जबकि गांव भर के लोग उमड़-उमड़कर उसे देखने और उससे मिलने आते रहें। और जहां बड़े पापा हों सुना है सबकुछ वहां उनकी मनमर्जी से ही होता है।
बड़े पापा को इस शादी से उतना इंकार नहीं था, जितना इस बात की चिंता कि लोग क्या कहेंगे। उन्होंने पापा को एक बात सुझाई थी — ‘जब राघव अपने नाम के साथ कोई जातिसूचक उपनाम नहीं लगाता तो गांव वालों से ये कहना ठीक रहेगा कि वह क्षत्रिय है। गांववाले कौन-सा उसका आधार कार्ड मांगकर चेक करनेवाले हैं?'
पापा ने इस बात से साफ़ इंकार कर दिया था। उन्होंने कहा था — 'भैया अगर मुझसे किसी ने राघव की जाति पूछी नहीं तो ख़ुद से बताऊंगा नहीं और जो किसी ने पूछ लिया तो झूठ भी नहीं बोलूंगा।' सुना था बड़े पापा फिर पैर पटकते हुये निकल गये थे — 'ज्यादा हरिश्चंद्र की औलाद बनने का शौक है तुमको तो तुम ख़ुद से ही करो सब। मुझे अपनी नाक नहीं कटवानी जात-बिरादरी में...
बल्कि वे कुछ बड़ी जाति के लोगों के अन्य परिवारों को भी मनाकर लेते आयें। उन्हें भी जो ‘जात-बाहर’ करने को तैयार थे उनके परिवार को।
राहुल ने उन्हें कहते सुना था — ‘इतना सज्जन, सुशील वर जो कि एक आइ.ए.एस है, मिला न होगा इससे पहले इस गांव को। सोचो गांव के लोग तर गये, उनकी किस्मत तर गयी इस शादी से। आज हम उसकी इज्जत करने से चूक गये तो समझो फिर चूक ही गये' और लोगों ने मान ली थी उनकी बात।
राहुल कह रहा था — ‘अरे पहले ख़ुद ही लोगों को भड़काया होगा। फिर ख़ुद ही मनाने भी पहुंच गयें।' गांव के कुछ उच्चवर्णीय संभ्रांत परिवारों में बहुत पहुंच है उनकी। सब उनकी बात मानते हैं।
राजुल ने कहा था — ‘इसमें भी कोई मतलब होगा उनका। भले ही शादी का बायकाट कर रहे हों फिर भी लग रहा होगा कहेगा तो लोग यही कि इनके परिवार में... तो समझदारी से ई पेंच ही खतम कर दिये। मुखिया भी तो बनना है न इनको?'
'अरे देख रहे थे कि भाई-भतीजा कोई मनाने नहीं आ रहा एक्को बार, तो घूम-घूमके जनवासा जाने लगे थे, उहां के लोग से हिलने-मिलने लगे। जीजाजी से तो न जाने कितना बतिया रहे थे बिहान से ही। समझ में आया होगा फिर कैसे परिवार में बियाह हो रहा। '
'पापा उनको फिर भी दुबारे एक्को बार नहीं बोले बियाह में आने को। उलटे पापा खौरिया के उनको जनवासा आने को भी बार-बार मना करने वाले थे। ऊ तो हमी लोग समझाये कि रहने दीजिए परिवार के बुजुर्ग हैं। बरातियों के सामने क्या इज्जत लेना।'
'शायद राघव जीजाजी से बात करके मन बदल गया होगा इनका...’
दोनों भाइयों के जाते ही धिया और उसकी सखियां आई थीं कमरे में। वे दूल्हे के जूते को उसके कमरे की बेड के नीचे छुपा के जा रही थीं — 'देखना जिज्जी कोई न ले जा पाये... हम बहुत मेहनत करके पाये हैं इसे...' उनकी खिलखिलाहटों में उनकी खुशी और आश्वस्ति छुपी थी — 'दुल्हन के कमरे तक कहां आ पायेंगे भला लड़के वाले। क्षणिक जीत के उत्साह में उनका चेहरा दमक रहा था। उसने भी सिर हिलाकर अपनी हामी दी थी कि तभी दीपू भैया आये थे और बरस पड़े थे धिया पर — ‘बहुत उछल रही है धिया, देख रहे हैं सब बड़ी देर से।‘
‘और ये बरात के लड़को के साथ इतना रहस किसलिए रही थी? सब नक्शा झाड़के रख देंगे हम तुमरा। लिमिट में रहना सीखो, लिमिट में, नहीं तो...’
जिया को जैसे गरगट लग गया था।
उसकी चुप्पी से वो और अकुला गये थे। जैसे धिया की चुप्पी भी उनकी अवमानना कर रही हो, चिढकर कहा था उन्होंने — 'आसमान में मत उड़ो ज्यादा, जमीने पर रहो। तुम सिया नहीं कि तुम्हारा नखरा उठायेगा सबलोग। औकात में रहो अपने...‘ कहकर उन्होंने धिया की कलाईयां मरोड़ दी थी एकदम से। धिया बिलबिला कर फूट पड़ी थी और वे चल दिये थे चुपचाप।
काठ तो उसे भी मार गया था। न वो कुछ बोल सकी थी, न कह सकी थी, न रोक ही पाई उनको। ये किसको दिखा रहे वो अपना गुस्सा? धिया को या उसे? किस बात की कुढ़न है इन्हें? लड़की अगर थोड़ा हंस बोल ली तो क्या चला गया इनका?
इससे तो भला था शादी में नहीं ही आते ये लोग।
उसकी तंद्रा धिया के फूट-फूटकर रोने से टूटी थी। उसने कलेजे से लगा लिया था उसे — 'धिया, चुप हो जा बच्चा! इनलोगों की बातों का क्या लेना? मूरख हैं ये सब। तुम इनलोगों जैसी तो हो नहीं कि इनकी बातों को दिल से लगा लो?'
'राहुल-राजुल ने तो नहीं कहा तुमसे न कुछ? फिर इनको कहते रहने दो...’
आप नहीं जानती जिज्जी, कहीं भी रास्ता-पैरा, स्कूल कालेज कभी भी पहुंच जाते हैं ये लोग और हमसे ऐसा ही ब्योहार करते हैं, ग़लती मेरी हो कि नहीं हो। खानदान-परिवार के इज्जत का सुनाते रहते हैं हरदम। जैसे बस इन्हीं का है परिवार... और सब तो... और जैसे इन्हें बड़ी पड़ी है परिवार के इज्जत की...
सबलोग हंसते हैं मुझ पर — ‘यार धिया, तुम्हारे भाई लोग... !'
उसके समझाने पर भी सुबके जा रही धिया — 'जानती हैं, ख़ुद तो बरात की औरतों के आगे-पीछे मंडराते फिर रहें। ये ले लीजिए, ये खा लीजिए। अरे एक ठो ले लिजिए न!’ वे हंस रही थीं इनके गंवारपने पर। भाव नहीं दे रहीं इनको, फिर भी घुसे पड़ रहें।
भाभियों का मुंह अलग उतरा पड़ा है...
'इसीलिए मैं और मेरी सहेलियां बरातियों के साथ हैं हमेशा। बड़के चच्चा ने कहा भी है कि उनलोगों के साथ रहूं और ख़याल रखूं उनका। '
'दिक्कत हो रही होगी हमारे रहते कुछ उलजलूल करते नहीं बन रहा होगा। तो चले आयें...’
'अभी आई भी तो राहुल-राजुल भैया को समझाकर आई हूं, बरातियों के आसपास ही रहने को। इनलोगों का कोई भरोसा नहीं कब सब भंडूल कर दें। कहीं इसी मन से न आये हों ये लोग प्लान बनाकर। तो चौकस रहना है जिज्जी! '
'इसीलिए तो आपके साथ भी नहीं रह पा रही। जानती हूं भीतर आप अकेली होंगी, फिर भी...’
कोई बात नहीं धिया, मैं समझती हूं... मुझे पता है कि... वो उसे दिलासा ज़रूर दे रही पर उसी का मन ख़ुद अनमन है। उसकी खुशियां इतनी जल्दी क्यों तितर-बितर हुई जाती हैं? वह कितना भी चाह ले...
धिया किसी की पुकार पर आंसू पोंछती हुई चली गयी है, पर उसका मन जैसे उधड़ा पड़ा है।
क्या उसने गांव से शादी करने की ख्वाहिश करके कोई ग़लती कर दी है?
वो दो बीती रातें जैसे एकदम से जाग पड़ी है उसके सामने, जिसे वो जबरन थपक-थपककर सुलाती रहती है इनदिनों। वे अगर जागी रह गयीं तो... तो सब खुशियां सचमुच भंडूल हो जायेंगी। वही रातें जो उसने अपनी चाचियों के साथ बिताई हैं।
उन पलों में जैसे वो मां के साथ थी एकदम से... और मां थी कि फिर भी बहुत याद आ रही थी़। वे उसे कलेजे से लगाये रही थीं सारी रात और उनके मन के मुहाने रिले-मिले जा रहे थे एक-दूसरे से। बरसों से बंद कुठरियों के दरवाजे खुलने की रातें थी वो। जहां वे साथ-साथ रोती थी, साथ-साथ हंसती थी और साथ-साथ पोंछ रही थीं एक-दूसरे के आंसू।
— 'जानती है बबुनी, दीया नहीं दी थी अपने से अपना जान। इतना कच्चा करेजा नहीं था हमरी बेटी का। एतना कमज़ोर नहीं बनाये थे हम उसको। हां की थी ऊ प्रेम अउर कौन नीचे जात से की थी। त ओसे का? जान मार देंगे उसका? कोन नहीं बहकता है, कच्चा उमिर में। आ फिर संभरता है कि नहीं? उसका... तकिया से गला दबाके... मार दिये थे ई लोग। लड़की मेरे आंख के आगे कछमछाती रही। हम कुछ भी नहीं कर पाये... आंख उलट गया था उसका... लेकिन तइयो भर मन बकोटी थी ई लोग को। जब-जब हम इनका बकोटाया हाथ देखते, कुछ ठंढक मिलता मन को... एतना आसान है किसी का जान ले लेना।
पर है शायद था, तभिये न...
‘हम चिल्लाते रहें — 'मार दीजियेगा का एकदम से। बच्चा है, हो गया ग़लती... लेकिन नहीं छोड़े त नहीं छोड़ें। सच्चे मार दिये ई लोग उसको...’
हम देखते रहे थे सब चुपचाप। केतना करमजरू मां हैं न हम, जे अपनी बेटी के हत्यारा लोग के साथ जिनगी बिता रहे हैं। ऊ भी एतना हंसी-खुशी... हम से जादा कठकरेजी महतारी कौन होगी?
मारके ई लोग उसको कुंईआ में डाल आयें और सुबह गांव में फईल गया — दीया इंडा में कूद के जान दे दी।'
'नहीं छोटकी को नहीं पता ई सब। ऊ त बाद में बियाह के आई। आपकी भउजाईयों सब नहीं जानती ई बात।‘
‘कोईयो इस बारे में कहियो मुंह नहीं खोलता। अइसे जइसे कुछ होवे नहीं किया था।‘
‘जान जाता लोग त कौन देता अइसे परिवार में अपना बेटी? कौनो नहीं...’
‘माफ करिए दिये न हम सबको... कि माफ करने के सिवा हाथ में था कुच्छो हमारे? बेटी चल गयी थी, दूगो छोट बेटा था... बाकिर लगता था ई, तुम्हारे माई-बाबू में से एक्को कोई होता इहां त दीया अइसे नहीं जाती।‘
‘ऊ लोग कौन थे, जानके का कीजिएगा? आपके-हमारे सगा लोग है सब। हम नहीं चाहते, आपका मोह इस परिवार से टूटे। आप खूनी के नज़र से देखिए अपने परिवार को... ईहा के मरद सबको...’
‘बदल गया अब ऊ जुग-जमाना। बदल गया सबलोग। न अब ऊ राज पाट है समाज में, न ऊ इज्जत परतिष्ठा, जिसके लिए ई सब होता था, किया जाता था। अब त सब लोग बचल-खुचल जमीन जायदाद बटोरे किसी तरह दो रोटी जोड़ रहा और जिंदगी बिता रहा।
आपको देख देखके दीया याद आती रही सो बोल गये। न त इसका जिकिर भी मना है...
रहती तो उसको भी कभी ऐसे ही विदा किये रहते...’
सिया कई दिन तक हर परिचित पुरुष में दीया दी के कातिल का चेहरा तलाशती रही थी। पर कोई भी ऐसा नहीं लगता। कितने अपनत्व भींगे, सहज-सरल चेहरे। जिसमें अपने बच्चों के लिए अपार छोह है। जिसको तिनका चुभ गया तो वे बिलबिला उठें। यही लोग... ऐसे लोग...
जमाना सचमुच बदल गया। वर्ना वही लोग उसकी शादी इस शौक-श्रद्धा से यहां से होने देते?
उसने छुटकी चाची के सामने भी दुहरा दी थी, मंझली चाची की वही जमाना बदल जाने वाली बात। जैसे उनके भीतर बरसों से टभकता कोई पका हुआ फोड़ा फूट पड़ा था — ' कौन कहा ई आपको? कोई जमाना-ऊमाना नहीं बदला। ऊ भी इस गांव में।‘
‘राहुल-राजुल के पहिले तीन बेरी बच्चा गिरवाना पड़ा हमको। काहे से कि बेटी थी तीनों बार। अऊर आपके चच्चा लाचार बने देखते रहें सब।‘
‘जानते हैं आपके पापा होते तो नहीं होने देते अईसा। पर अपना पैर पर खड़ा आदमी अऊर गांव में, परिवार में रहने वाला आदमी के बीच फरक होता है।‘
धिया के समय हम झूठ बोलें। डागदरनी को भी पईसा देके झूठ बोलवाये। नहीं तो कक्को खड़ी थी बाहर जमदूत जइसा। बेटी हो तो गिरवाके आने के लिए।‘
‘हमको बेटी का बहुत शौख था, हम आपके चच्चा के हाथ पैर जोड़े अ चले गये नईहर, त धिया बच गयी, जनम ले पाई। इसी से उसका नामो रखे — धिया।‘
‘नहीं तो दीया बबुनी के कांड के बाद त ई लोग एकदम पक्का थे, अब ई परिवार में एक्को लड़की नहीं...’
‘आप शहर में थीं त पैदा हो गयी...’
अभी दीदिया जी के छोटकी पुतोह पर सवार थी कक्को जांच के लिए, हम सब लड़ के, ज़िद करके, रोके उनको। हम त बोल भी दिये — ‘कबर में दुन्नो गोड़ है, अब त मत कीजिए एगो नया पाप।‘
एकदम से बिढनी लग गया हो जइसे — ‘एतना लम्बा जो जबान हो रहा न, आने दो कमेसर को कटवा के मानेंगे। ढेर गलदोदी करना आ गया है...’
‘मत समझअ कि बूढ हो गये त हमरा चलती नहीं...’
‘उस रोज किसी तरह मंझली दीदी अ दुन्नो पुतोह मिलके बात संभारी। ‘
‘बला टल गयी दीदिया के पुतोह के माथा से किसी तरह। नहीं तो इन लोग का चलता तो...
ई घर में कोनो कम नहीं।‘
‘बदला-ओदला कोई नहीं, बस सकत कम गया है सबका त अब आदमी देखके आजमाता है, कहां लह जायेगा। कहां नहीं लहेगा। '
छोटी चाची एकदम से उसके पैरों पे आ गयी थी — 'ये बबुनी कैसहूं ले जाती धिया को ई नरक से। कोनो छोटा-मोटा नोकरी कर लेती। पढ़ने में निम्मन है, बाव नहीं जाने देगी आपका ई अहसान...’
चाची उसको हाथ ज़ोर रही थी, गोड़ दबा रही।
उसने चाची को उठाया है और कलेजे से जा लगी है उनके — ‘चाची कैसी बात कर रहीं आप? धिया जब चाहे चले हमारे साथ। इसमें अहसान कैसा। वो तो घर है उसका।‘
‘आपको लगता है ये लोग जाने देंगे धिया को शहर। कौन दौड़ दौड़के सबकी सेवा करेगा? '
'वही न बबुनी। कोनो तोड़ ढूंढिए इसका। निकाल ले जाइए धिया को यहां से...’
' मैं पूरी कोशिश करूंगी...’ उसने चाची से वादा किया है।
पर उसकी कोशिश ताश की इमारत की तरह ढहकर रह गयी थी, कक्को और मंझले चाचा के आगे।
'नही धिया नहीं जायेगी शहर-ओहर। भौजाई को लईका होनेवाला है, इहां कौन संभारेगा सब?'
'अपने पप्पा पास तुम त हइये हो। कोन उनको छोड़ के कहीं जा रही कि उनका देखभाल के लिए...'
मंझले चाचा कहते हैं — 'थोड़े दिन है धिया के इस घर में, तबतक के लिए कहां कहीं भेजें और काहे?'
'लड़िका देख रहे हैं जइसे ढंग का मिले बियाह देंगे।'
‘धिया के लिए जादा छोह उमड़ रहा तो देखो कोई लड़का शहर में ओकरे लिए। दुन्नो बहिन रहना आसपास। करेगा सहर का कोनो लड़िका इंटर पढ़ती लड़की से बियाह?’
उसकी आंखो में आई चमक को पढ़ लेते हैं वो शायद —
‘बाकिर जादा दान-दहेज देने का औकात नहीं है परिवार का... तुम त जानती ही हो घर का सब हाल... इहो ख़याल रखके बात आगे बढाना।'
उसने सोचा था मुश्किल तो है बहुत पर इसके सिवा कोई चारा कहां, धिया को इस गांव से बाहर निकालने का... उसको उसके सपने तलक ले जाने का... वह जी जान लगा देगी। वह कहेगी उसकी बहन बहुत प्यारी है। पढ़ने लिखने में भी अच्छी है। वह पापा से भी कहेगी...
चाची ने जिस तोड़ की बात की थी, क्या यही है वो एकमात्र तोड़... ?
धिया उसे मझक्का के लिए बुलाकर ले गयी है। वह सोचती है घूंघट ओढ़ाने और घूंघट हटाने का यह रस्म भी कितना प्रतीकात्मक है।
कन्या निरीक्षण इधर शुरू हुआ है, भैया चढ़ा रहें उसे साड़ी कपड़े और जेवर। उधर औरतें कह रहीं गीत गा-गाकर-ये तो सोना नहीं पीत्तर है। वे उनके मजाक को सीरियसली ले रहे — 'ज्वेलर की रसीद तक कर रहे उनके आगे।'
‘मने हद है।’ माधव भैया के भोलेपन पर उसे घूंघट के भीतर भी ज़ोर से हंसने का जी हो रहा।
मंझली चाची ने गाना शुरू कर दिया है —
ठग लिया लड़की हमारी रे भैसुर बेईमान...
तो छुटकी चाची उधर शुरू हैं — सुनाओ प्यारी सखियां, स्वागत में गाली सुनाओ
ई साले भैसुर को अकिलो नहीं है,
दू पइसा दे के मंगवाओ।
ई साले भैसुर को टोपी नहीं हैं
कागज का टोपी पहिराओ।
ई साले भैसुर को चेनो नहीं है
जुत्ता का माला पहिनाओ।
सिया मन-भीतर ही गुर्राती है — ये थोड़ा ज्यादा नहीं हो गया?
भैया के लिए गालियों की बौछार जैसे तेज से तेजतर होती जा रही। ज्यादा-कम का तो सवाल ही नहीं जैसे। असीम है सबकुछ —
'मंडवे में भैंसुर आये बनके हरियाला
दादा इनके भांग पीये है बनके मतवाला
दादी बीच सड़क पे नाचे देखे मुहल्ले वाला।
मंडवे में भैंसुर...’
अब तो ये धिया भी...
उसने घूंघट की ओट से ही देखा है, भैया मुस्कुरा रहे, कि समझ और मान लिया है उन्होंने — ‘इन गारियों से मुक्ति नहीं।' लेकिन पूरा चेहरा लाल है उनका। कनपटी गुलाबी हो रही एकदम से।
ये देखो धिया की सखी माहरुख कितनी तेज और तीखी आवाज़ में गा रही —
‘वालेकुम, वालेकुम सलाम, वालेकुम
आंख देखा कान देखा और देखा तमाम
भैंसुर भड़वे का गाल देखा जइसे चूसा आम।
वालेकुम सलाम, वालेकुम
आंख देखा कान देखा और देखा तमाम
भैंसुर भड़वे का पेट देखा जैसे मालगोदाम।‘
ठहाके से भर गया है पूरा आंगन। बेचारे भैया झेंपे और शर्माये हुये हैं। उनके लिए तो प्रभु-प्रभु गुहारते-गुहारते किसी तरह जाकर खत्म हुआ है ये रस्म।
हँसता खेलता परिवार एकदम से कामेडी जोनर से निकलकर किसी सैड मूवी के जोनर में आ गया हो जैसे। वचन लेने शुरू हो गये हैं, मतलब लड़की के पराये होने की घड़ी करीब आती जा रही क्रमवार...
वे सारे वचनों को बहुत मनोयोग से ले रहे, उन्हें अर्थ-संदर्भों में मन ही मन दुहराते हुये। पुनर्नवा करते हुये, कि ये उनका पुराना वादा जो था।
छुटकी चाची जैसे उसके मन को पढ़ती हुई ही गा रहीं —
‘वचन दो सात पंचो में तभी पत्नी बनाओगे।
बचन देता हूं मैं प्यारी, तुम्हें पत्नी बनाऊंगा।
न पकड़ो हाथ ये प्यारे, अभी कोमल कलाई है...’
अभी तक तो सबकुछ सही ही चल रहा। बस इसी तरह... सिया अपने काठ के पीढ़े को जिस पर कि उसे बैठाया गया है, धीरे से छूती है और मन ही मन ‘टचवुड’ बुदबुदाती है।
'कवने सेंदुरिया सेनुर ले के आयले हो
बाबा बाबा पुकारिले, बाबा न बोलिले हो।
बाबा के बरजोरी सेनुर बर डालेले हो।'
न जाने क्या है ऐसा कक्को की आवाज़ में कि उसका मन भी अचानक गले तक उमड़ आया है। भोंकार पारकर रो देना चाहती है वह। वो जिसे सब सच पता है, वो मन जो कबसे इस शादी के लिए प्रतीक्षित है। फिर भी...
कि है तो आखिरकार वह भी एक स्त्री ही...
कि बड़के पापा बोले हैं अचानक — ‘का पंडित जी, कन्यादान से पहिले सेंदुरदाने करा देंगे आप? कोनो शास्तर वास्तर पढे हैं कि बस अइसे ही...
सिया के भीतर का डर अब साकार होने लगा है, यही तो डर था... पापा ने पंडित जी को कह रखा है कि दान नहीं होगा।
लेकिन...
पापा एकदम से बगल आ खड़े हुये है उसके और कहा है उन्होंने — दान नहीं होगा। ' सिया न कोई जानवर है, न कोई सामान। उसको हम दान में काहे देंगे?’
‘हम शादी कर रहे हैं उसका, दान नहीं...’
बड़े पापा के माथे की त्योरियां चढने लगी हैं — ‘अरे तू मत करना दान, हम करेंगे। कन्यादान महादान होता है। बहुत फल होता है इसका।‘
‘चार अच्छर पढ़ नही लिया कि बस जहां देखो उहां भाषण...’
‘इहां से कर रहे हो बियाह त बियाह वइसे ही होगा, जैसे सब बियाह होता है...’
वे उसकी बगल में आकर बैठ गये हैं एकदम से — ‘पंडीजी, मंतर पढ़ना शुरू कीजिए।‘
पापा बिफरे हुये हैं, राघव अवाक। वो बहुत लाचार महसूस कर रही ख़ुद को... करे भी तो क्या?
राघव की बगल में ठीक माधव भैया आ बैठे हैं। वे पापा से कह रहे हैं — ‘अंकल ठीक कह रहें आप। दान मतलब देना ही तो होता है। अकेले लड़की क्यों सौंपी जाये किसी को। दान ही हो तो फिर दोनों का हो। वर दान भी हो। शादी तो दोनों की हो रही...’
पापा थोड़े संभल गये हैं, सहज हुये हैं भैया के इस प्रस्ताव से।
वह भी थोड़ी शांतचित्त हुई है।
पर बगल में बैठे उसे दान करने को आतुर बड़े पापा उसे बिलकुल नहीं सोहा रहे।
सिया एक क्षण को देखती है राघव की आँखों में और न जाने कहां से साहस बटोरकर कहती है — ‘‘मेरा कन्यादान अगर हुआ तो मंझले चाचा-चाची करेंगे।‘
क्षण भर को महफिल में सन्नाटा है। बड़े पापा का मुंह क्रोध से लाल हुआ जा रहा और मंझले चाचा-चाची चले आ रहे मंडप की ओर! पापा के होंठो पर गुम मुस्कुराहट दस्तक देने लगी है फिर से...
कक्को बात को संभारती हैं — ‘अरे हम ही कहे थे कि मंझलो और वृंद करेंगे कन्यादान। सिया त बस याद दिलाई है।‘
‘मुंह का देख रहे खड़े-खड़े, बैठो दुन्नो अउर करो रसम...’
सिंदूरदान के वक़्त घेर दिया गया है पूरे मंडप को चादर से। अविवाहित लोग नहीं देख सकते ये रस्म। कक्को ने वीडियोग्राफर और फोटोग्राफर तक को डांट लगा दी है।
‘बियाहे हो तो जाओ, नहीं तो चुपचाप खड़े रहो यहीं।‘ वे दोनों मुंह लटकाकर खड़े हैं शायद बाहर ही। ज़ोर गजब है कक्को में अभी भी, दम है कि कोई बात ना माने उनकी?
बाहर चाचियां गा रहीं हैं —
सिंदूर को देनेवाले, सिंदूर की लाज रखना
पापा जी दे रहे हैं अनमोल रतन अपना
अम्मा जी कह रही हैं, पलकों के बीच रखना
अंदर सिंदूरदान सम्पन्न हुआ चाह रहा।
फेरों के बाद जब लावा छिड़काने का वक़्त आया बड़े पापा ने व्यंग्य से कहा है — ‘पूछ लो पहिले सिया से, कौन भाई से लावा चाहिए इनको...’ कहकर वे मुस्कुराये होंगे इसका पता उनकी आवाज़ दे रही।
कक्को कहती हैं — ‘सातों देंगे बारी-बारी।‘
सिया मन ही मन सोचती है, कितना भला-सा है ये रस्म। भाई के दिये धन-धान्य को पति अस्वीकार कर रहा!
शादी लगभग खत्म होने को है। फिजां में तैर रही है धिया और उसकी सखियों की आवाज़ —
‘ये बन्ना बेला दुल्हन चमेली, अजब सितारे महक रहे हैं।
बन्ना का जोरा इतर में डूबा, ये लड़िया उसकी गमक रही हैं।
बन्नी का जूड़ा फूलों से डूबा कि कलियां उसकी चटक रही हैं।‘
कोहबर के दुआरे बड़ी भीड़ है। धिया और सखियां मांग रहीं अपना हक। लेकर भी वे अंदर कहां जाने देनेवाली। उसकी आंखें जैसे नींद से भारी हुई जा रहीं।
राघव ने गीत गाकर मुक्ति पाना चुना है। उसका प्रिय गीत, जिसे राघव से वह पूरी जिंदगी सुनते हुये रह सकती है...
राघव पूरे मनोयोग से गा रहे —
‘जलते हैं जिसके लिए, तेरी आंखों के दीये
ढूंढ लाया हूं वही, गीत मैं तेरे लिए।‘
उसने देखा है, दूर उस खम्बे की ओट खड़े उसके पिता गीत सुनकर नम आंखों से भी मुस्कुरा रहे। उस मुस्कान में न जाने कितना कुछ समाहित है।
सारे रस्म निबटाकर 'जब लौं गंग जमुन जल धारा, अचल रहे अहिबात तुम्हारा।' के साये तले वे अधलेटे हैं, एक दूसरे की कुहनियो को तकिया बनाये।
राघव उसकी वेणी से खेल रहें और वो बीते दस दिनों की कहानी उन्हें क्रमवार बता रही। कक्को, धिया, चाचियां, भाई उसे सब अभी ही कह देना राघव से...
वे सुन रहे चुपचाप... सब बातें, सारी बातें। ज़रूरत भर ‘हां-हूं’ करते हुये।
उन दोनों की नींद भरी आंखों से सरककर नींद दूर आ खड़ी हुई है, इस अनुपम दृश्य को निहारती हुई।
पता नहीं कब आंख लगी थी उन दोनों की, जो किसी के दरवाजा पीटने से खुली थी।
सामने वाला कह रहा — ‘चौथारी के सारे रस्म आज ही किये जायेंगे। कुछ बाराती आज लौटना चाह रहें...’
उसने धिया से पूछा है आज क्या-क्या होनेवाला है?
‘मिलनी, मांडो पर बारातियों और दूल्हे का भोजन।‘
‘उसके बाद आप दोनों की साथ की कुछ रस्में। लेकिन उसमें अभी देर है। वीडियोग्राफर फोटोग्राफर आ जायेगा उसके बाद...’
वह धिया से रिक्वेस्ट करती है। उसे ऐसे कमरे में बिठा दे जहां से मंडप दिखता रहे।
धिया कहती है — 'मंडप देखना है कि जीजाजी को...’
समधी मिलन का रस्म बड़ी शालीनता से समाप्त हो रहा। मामा से मामा, चाचा से चाचा और भाई से भाई गले मिल रहें, भेंटे दी जा रहीं।
धिया भागते हुये आई है उस तक। ऐसा तो पहले कभी न देखा जिज्जी, लड़की वाले खाली देते हैं भेंट, लड़केवालों को तो बस भेंटते देखा है। पर निराले हैं आपके ससुराल वाले...
मंडप में खाने की पंगत बैठा दी गयी है, कुछ घनिष्टतम लोग बस।
इधर गीत गावन फिर से शुरू —
जरा सुन लो साहब लोग तब जाइए, जरा सुनिए...
अबकी भाभियां रंग में आ चुकी हैं। अबतक डर था, ब्याह निबटे अच्छे से।
पर अब तो निबट गया सब। रिश्तेदारी हो गयी अब तो। तो छेड़ने का हक तो उनका भी बनता है —
' मैं तो छेड़ूगी ज़रूर, चाहे जान चली जाये।
विकास भड़ुआ का गाल जैसे दो टमाटर लाल,
गाल को काटूंगी ज़रूर, चाहे जान चली जाये।
आलोक भड़ुआ का पैंट जैसे दो नली बंदूक,
पैंट को खोलूंगी ज़रूर, चाहे जान चली जाए।‘
उसकी भाभियां और ये द्विअर्थी गीत। अभी तक तो उन्हें सजी-संवरी और सहज सकुचाई-सी ही देखा था उसने।
दुलहे को बुलाया गया है, दूल्हा आ भी गया है। वह भी बैठा है भोजन करने को।
दुल्हा शुरू करे तो सब शुरू करें।
राघव ने हाथ बढ़ाया है खाने को कि उन्हें रोक दिया गया है। — ‘ऐसे नही पाहुन। पहले आपको कुछ मांगना होगा लड़की वालों से।‘
‘और फिर मांग पूरी होने पर या फिर उसके लिए वचन लेने के बाद शुरू करेंगे आप खाना।‘
राघव सिर्फ ऊपर ऊपर ही नहीं कहते, उनके मुखमंडल पर भी जैसे छपा हुआ है — 'यह जरूरी है क्या?'
‘हां बहुत जरूरी है। दूल्हे तो इंतज़ार करते रहते इस वक़्त का, जो भी शादी में रह गया मांग लेते हैं उमड़कर। नहीं मिला तो रिसिया भी जाते हैं।‘
राघव पशोपेश में हैं और बाराती कशमकश में। थाली पर मक्खियां न भिनभिनाने लगे इतनी देर में। वे हाथ से पंखा किये जा रहें भोजन पर।
कोई दोस्त बोलता है — ‘अबे बोल दे कुछ भी, हमें क्यों भूखे मार रहा?’
‘ऐसे कैसे कुछ भी बोल दूं...’ राघव अभी भी सोचे जा रहें।
कुछ क्षण बाद वे थोड़े गंभीर हुये हैं। चेहरे से पशोपेश की रेखाएं मिटी हैं।
वे बोल रहें — हां तो...
सिया ने देखा है, वो सारी रेखाएं वहाँ से उतरकर उसके घर के मर्दों की पेशानी पर जाकर थिर हो गयी हैं।
‘शहरी और पढ़ा लिखा दामाद न जाने ऐसा क्या मांग ले। गांव वाले बेचारे मोटरसाइकिल, घड़ी, चेन, नहीं तो ज्यादा अफलातून हुये तो चौपहिया मांगेंगे पर यह तो...
‘राघव बहुत जमा-जमाकर और सोचके बोल रहें — आपलोग धिया को उसकी ज़िंदगी के तीन साल दे दें। उसे आने दें पापा के साथ। फिर भी अगर कुछ न कर पाई तो कर दीजियेगा उसका ब्याह।
हम नहीं रोकेंगे।'
क्षण भर को जैसे फ्रीज हो गया है ये दृश्य। सिया देख रही अपने पापा की चौड़ी मुस्कान। बड़के पापा की किंकर्तव्यविमूढ़ता, मंझले चाचा की दुविधा और रोष।
छोटे चाचा की आंखों का बहना और बहते जाना।
महिलाएं हतप्रभ-सी हैं, वे रो रहीं कि हंस रहीं, बता सकना बड़ा कठिन है।
लेकिन छुटकी चाची तो बौराहिन हुई जा रही एकदम। वे एक आंख से हंस रहीं और एक से...
सिया ने गौर किया है, रंगीन तितलियों का एक झुंड उमड़कर आया है ईनार की तरफ़ से। गायिका मंडली के सिर पर मंडराता रहा है देर तक। फिर पूरे आंगन में छितरा गयी हैं, ये तितलियां।
रंग-बिरंगी तितलियों से भर गया है पूरा आकाश।
तीन जोड़ी आंखें विहंस रही हैं दूर कहीं उसी आकाश में।
और धिया...
वो तो बुत बनी खड़ी है बीच आंगन। न हंसना, न रोना, न मुस्कुराना। जैसे किसी ने खेल-खेल में स्टैच्यू कह दिया हो उसे...
अपनी क्या कहे वो... ख़ुद उसे भी पता नहीं।
बस वारी नजरों से अपने अलबेले रघुबर की बलैया ले रही...
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1 टिप्पणियाँ
बेहतरीन लिखा है...कहानी का परिवेश पाठक को अपनी तरफ खींच लेता है..पढ़कर लगता है जैसे सिनेमा की रील चल रही है माने की जीवंत धड़कती हुयी कहानी है।
जवाब देंहटाएंमुझे कहानी के शब्द भंडार ने खास आकर्षित किया..नये ताजे टटके शब्द और बिंब पाठक को भी अपनी ही तरह जीवंत कर रहे हैं
लेखिका को खूब बधाईयां 🌹