अपने प्रिय मित्र कथाकार-पत्रकार ईशमधु तलवार को 14 अक्टूबर, उनके जन्मदिन पर याद कर रहे हैं प्रेमचंद गांधी।
इशमधु तलवार का बहुत प्रेममयी व्यक्तित्व था। मेरी उनसे जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान मुलाक़ात हुई थी। उनका असमय जाना राजस्थान के साथ देश भर में फैले उनके मित्रों व साहित्य व कला जगत को दुख देता रहा है। ~ सं०
Premchand Gandhi on Ish Madhu Talwar |
यारी का दूसरा नाम : ईशमधु तलवार
प्रेमचंद गांधी
कवि, कथाकार, नाटककार, अनुवादक और स्तंभ लेखक। चार कविता संग्रह प्रकाशित। नाटक ‘सीता लीला’ और ‘गाथा बन्दिनी’ बहुमंचित और प्रशंसित। कविता के लिए राजेंद्र बोहरा काव्य पुरस्कार और लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई सम्मान। लेखन के लिए संतराम बी.ए. सम्मान और राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से विशिष्ट साहित्यकार सम्मान।
उनको दिवंगत हुए अब तो तीन साल हो गए हैं, लेकिन इस बीच उनकी स्मृति दिन में एकाधिक बार आ ही जाती है कि वो होते तो यह होता, यह होता तो ऐसे होता और ऐसा होता तो कैसा होता... जयपुर से लेकर देश ही नहीं दुनिया भर के दोस्त उनकी अनुपस्थिति को जितनी शिद्दत से महसूस करते हैं, वह मेरे देखे जयपुर में किसी और लेखक-पत्रकार-संस्कृतिकर्मी की इतनी कमी कभी महसूस नहीं की गई। उनकी जैसी लोकप्रियता भी सार्वजनिक जीवन में कम ही देखने को मिलती है। हालांकि वे जिन पदों पर रहे, वे इस लिहाज से ऐसे महत्वपूर्ण भी नहीं हैं, क्योंकि पदाधिकारी तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन तलवार जी जहां भी रहे, उन्होंने योजनाओं और कार्यक्रमों की ऐसी झड़ी लगा दी कि उनके बाद कोई वैसा नहीं कर सका। फिर चाहे पिंकसिटी प्रेस क्लब या श्रमजीवी पत्रकार संघ की बात हो, अथवा प्रगतिशील लेखक संघ की। संयोग से मुझे इन तीनों ही संस्थानों में उनके सान्निध्य में रहने का अवसर मिला और मैं उनकी निकटता और मित्रता के कारण उनके व्यक्तित्व के बहुत से पक्षों से परिचित हो सका।
मेरा उनसे संबंध तीन दशक से अधिक का रहा, जब मैं लिखने की शुरुआत कर रहा था और वे नवभारत टाईम्स, जयपुर में मुख्य संवाददाता के रूप में आए दिन अपनी विशिष्ट खोजी पत्रकारिता के कारण देश भर में झण्डे गाड़ रहे थे। मैं शहर की सांस्कृतिक गतिविधियों को लेकर समीक्षात्मक टिप्पणियां-लेख आदि लिखता और नभाटा में कवि मित्र स्व. संजीव मिश्र को देने जाता था। वहीं किसी दिन तलवार जी से भेंट हुई थी और उनके सुदर्शन-आकर्षक व्यक्तित्व से मोहित हो गया था। फिर सभा-संगोष्ठियों में उनसे मिलने का सिलसिला चलता रहा। उस समय शहर में दो ही मिलन स्थल थे, एक एम.आई. रोड का कॉफी हाउस और दूसरा रवींद्र मंच। सफ़दर हाशमी की हत्या और जयपुर में हुए 1989 के दंगों के बाद जयपुर के लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवियों और रंगकर्मियों ने एक अनाम मोर्चा बनाया और रामनिवास बाग के नुक्कड़ पर कई महीनों तक सांप्रदायिकता विरोधी नुक्कड़ नाटक, कविता पाठ, चित्र प्रदर्शनी, कविता पोस्टर प्रदर्शनी के माध्यम से लोगों में सद्भाव और भाईचारा स्थापित करने की लंबी मुहिम चलाई। वह नुक्कड़ भी एक मिलन स्थल बन गया था, जिसे सफ़र हाशमी नुक्कड़ नाम दिया गया था। वहां अक्सर तलवार जी से भेंट हो जाती थी और देश-दुनिया के अनेक विराट व्यक्तित्वों ने यहां उपस्थित होकर मुहिम का साथ दिया। प्रसिद्ध रंगकर्मी साबिर खान ने यहां एक नाटक के 300 प्रदर्शनों का रिकॉर्ड भी बनाया, जिसकी दुनिया भर के मीडिया में चर्चा हुई।
इस बीच मालिकों की नीतियों के कारण नभाटा का जयपुर संस्करण बंद हो गया था और वहां के सभी कर्मचारी आंदोलन कर रहे थे। उन दिनों की बात है, तलवार जी को बीबीसी से एक चेक मिला था, राशि याद नहीं, शायद बीस-पचास पाउंड की रही होगी। वह चेक लेकर वे मेरे पास आए थे और मैंने उस चेक की राशि उन्हें दिलाने में सहयोग किया था। इसके साथ ही उनसे एक व्यक्तिगत संबंध बन गया था और हमारे बीच टेलीफोन नंबरों का जो आदान प्रदान हुआ, उससे गाहे-बगाहे किसी न किसी संबंध में बातचीत होने लगी थी।
यदि मैं इस तरह तलवार जी को याद करने लगा तो शायद वे सब बातें छूट जाएंगी जो बहुत से लोग नहीं जानते, इसलिए मुझे लगता है कि व्यक्तिगत चीज़ों से बचकर कुछ और बात की जाए तो शायद आपको तलवार जी के व्यक्तित्व के पीछे की बहुत-सी अदृश्य चीज़ें नज़र आएंगी। मसलन वे पंजाबी थे, लेकिन मेवाती बोलने वाले, उन्हें पंजाबी आती थी, मगर टूटी-फूटी। वे अलवर के बगड़ राजपूत गांव से निकले थे, जहां उनके दादा अंग्रेजों के जमाने के तहसीलदार हुआ करते थे, उनके खेत थे और पिता किसानी करते थे। उनकी वात्सल्यमयी मां शकुंतला देवी तलवार की एक छवि देखनी हो तो गीतांजलिश्री के उपन्यास ‘माई’ में देख सकते हैं। तलवार जी अक्सर इसकी चर्चा करते हुए रो पड़ते थे कि कैसे संघर्ष करके उनकी मां ने परिवार को पाला-पोसा था। माताजी का गांव था लाहौर के पास रिनाला ख़ुर्द, जहां उनका बचपन बीता और पढ़ाई-लिखाई हुई। इसी रिनाला ख़ुर्द में कभी कौशल्या अश्क़ रहती थीं, जो अपने प्रिय लेखक उपेंद्रनाथ अश्क़ से मिलने आईं तो उन्हीं की होकर रह गईं। माताजी से एक बार मैंने पूछा था कि क्या आपको याद है कौशल्या जी की, तो उन्होंने कहा, थीं तो सही एक बहुत अच्छी मास्टरनी, शायद वही रही हों, हमें पढ़ाती थीं। तलवार जी ने अपने उपन्यास ‘रिनाला ख़ुर्द’ में यादों के जिस संदूक का वर्णन किया है, वह असल में माताजी का ही छूट गया संदूक है। माताजी उन दिनों कविताएं-कहानियां लिखती थीं और उनकी रचनाएं उस समय की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती थीं। 1947 के ख़ूनी बंटवारे में सब कुछ वहीं छूट गया और बगड़ राजपूत गांव में आकर तो जैसे सब कुछ उनके भीतर इस तरह जज़्ब हो गया कि उनकी रचनात्मकता ने एक प्रकार की दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ली। इस दृष्टि से वे आसपास के लोगों का भूत-भविष्य देखने लगीं, जिसका कुछ वर्णन आप तलवार जी के उपन्यास ‘रिनाला खुर्द’ में देख सकते हैं।
हम लोग ऐसी बातों पर अक्सर क्या कभी विश्वास नहीं करते कि दिव्य दृष्टि नाम की कोई चीज़ होती है। एक बार मैं और तलवार जी किसी कार्यक्रम में अलवर गए थे तो माताजी से मिलने गए। वहां अचानक तलवार जी ने मेरी ओर संकेत करते हुए कहा, ‘अच्छा चाईजी इसके बारे में कुछ बताइए।‘ चाईजी कुछ देर बाद कहने लगीं, ‘इसके घर पर लोहे का एक गेट लगा है, उसके बाद एक बरामदा है और वहीं साइड में हरे-से रंग का एक स्कूटर खड़ा है।‘ तलवार जी ने मेरी ओर देखा, मैंने कहा, ‘बिल्कुल सही कह रही हैं चाईजी।‘ तलवार जी बोले कि तेरे पास स्कूटर कहां से आ गया, तू तो चलाता ही नहीं।‘ मैंने बताया कि स्कूटर छोटे भाई का है। चाईजी की यह दृष्टि कुछ अंशों में उनकी बड़ी बेटी में भी है, जिसका मैं साक्षी रहा हूं। बहरहाल चाईजी के इस रचनात्मकता के इतिहास और दिव्य दृष्टि से भरे व्यक्तित्व का जो अंश तलवार जी के रक्त में बहता रहा, वह उनके व्यक्तित्व को निखारता रहा।
पत्रकार वे संयोग से बन गए, बनना तो उन्होंने लेखक ही चाहा था। तभी तो जयसमंद झील पर बने गेस्ट हाउस में बैठकर उन्होंने ‘लाल बजरी की सड़क’ जैसी यादग़ार कहानी लिखी जो अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘सारिका’ में छपी और इतनी चर्चित हुई कि उनके पास एक बेहद संभ्रांत परिवार की पुत्री से विवाह का रिश्ता भी कहानी की प्रतिक्रियाओं में आए पत्रों में था। लेकिन पत्रकारिता में भी रचनात्मकता दिखाने और कुछ कर गुज़रने का जो जुनून होता है, वह तलवार जी में था। उस समय अलवर में सहकारिता के आधार पर एक अख़बार शुरु हुआ था ‘अरानाद’, जिसके संपादक थे अशोक शास्त्री। वरिष्ठ कवि ऋतुराज के श्वसुर मास्टर बंशीधर मिश्र जी, इन युवा पत्रकार-लेखकों के सरपरस्त थे। यह अखबार इतना लोकप्रिय हुआ कि स्व. कुलिश जी ने पहले जगदीश शर्मा, फिर अशोक शास्त्री को पत्रिका में काम करने के लिए जयपुर बुला लिया। फिर ईशमधु तलवार इसके संपादक हुए लेकिन टीम बिखर जाने से और कई दूसरे कारणों से अरानाद बंद हो गया और तलवार अलवर में ही ‘अरुणप्रभा’ के संपादक हो गए।
इसके साथ ही तलवार जी की साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियां भी चलती रहीं और पढ़ने-लिखने का सिलसिला भी। कुलिश जी ने अंततः तलवार जी को भी पत्रिका में ले लिया और वे अलवर के संवाददाता के रूप में काम करने लगे। उनके घर में ही पत्रिका का दफ्तर था, जहां टेलीप्रिंटर लगा था और उस समय पत्रिका के वे एकमात्र ऐसे जिला संवाददाता थे जिन्हें पालेकर अवार्ड के तहत वेतन मिलता था। अलवर में साहित्य और संस्कृति के लिए उन्होंने ‘पलाश’ नाम से संस्था बनाई और इस मंच से उन्होंने कार्यक्रमों की सच में झड़ी लगा दी थी। दिल्ली और राजस्थान के अनेक महत्वपूर्ण लेखकों को ‘पलाश’ के कार्यक्रमों में बुलाया जाता था और ख़ूब ही कार्यक्रम होते थे। इसी मंच से उन्होंने अलवर में आधुनिक नाटकों के मंचन की शुरुआत की और ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’ की एक यादग़ार प्रस्तुति हुई, जिसमें दर्शकों ने टिकट लेकर अलवर में पहला आधुनिक नाटक देखा। इस नाटक में पुलिस अफसर की भूमिका भी तलवार जी ने निभाई। इस नाटक के बहुत से किस्से वे अक्सर सुनाते थे, जिसमें एक किस्सा यह भी था कि वे कैसे एक पुलिस अधिकारी से उसकी वर्दी, नाटक के लिए मांगकर लाए और दूसरे दिन अफसर ने याद दिलाया कि भाई वो वर्दी वापस कर दो, ड्यूटी पर जाना है। उन दिनों आज की तरह लोगों के पास इफ़रात में कपड़े नहीं हुआ करते थे, वर्दियों की तो बात ही क्या। स्कूल यूनिफॉर्म ही बच्चों की सबसे अच्छी पोशाक हुआ करती थी या दीपावली अथवा शादी-ब्याह के अवसर पर सिले जाने वाले कपड़े। इस नाटक के बहुत से किस्से आप अशोक राही, देवदीप, हरप्रकाश मुंजाल आदि मित्रों से सुन सकते हैं। इसी नाटक से अशोक राही का रंगमंच से जुड़ाव हुआ जो अब तो अनेक ऊंचाइयों पर पहुंच चुका है।
तलवार एक साहसी और नवाचारी व्यक्ति थे। लेकिन उनके पिता स्व. रामेश्वर लाल जी से बहुत डरते थे, क्योंके वे बहुत सख्त किस्म के पिता थे। एक बार जब ‘बॉबी’ फिल्म लगी तो ये अपने मित्र घनश्याम और शायद बलवंत तक्षक के साथ फिल्म देखने रेवाड़ी पहुंच गए। फिल्म देखकर वे वापस आने लगे तो वह ट्रेन छूट गई जिससे वापस आना था। अगली ट्रेन कुछ घंटों बाद आनी थी। पिताजी गांव से अलवर आए हुए थे। अब देर रात पहुंचने का मतलब था पिताजी के हाथों मार पड़ना। लेकिन ममता की प्रतिमूर्ति चाईजी ने उस दिन उन्हें बचा लिया। चाईजी ने ही उन्हें बचपन से पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का शौक लगाया और पराग, नंदन जैसी पत्रिकाओं से लेकर हिंद पॉकेट बुक्स की सदस्यता तक दिलाई, जिसके चलते तलवार का बचपन से किशोरावस्था तक साहित्यिक संस्कार हुआ। एक बार किसी बाल पत्रिका में उन्हें पुरस्कृत किया गया। पत्रिका से पत्र आया कि आपको एक फोटो भेजनी है। चाईजी गांव से उन्हें लेकर अलवर गईं और फोटो खिंचवाई। उस पुरस्कार में मिली राशि शायद दस रूपये की थी, जिसके मनीऑर्डर का कागज और दस का नोट उन्होंने पता नहीं कितने दिनों तक संभाल कर रखा था।
बहरहाल तलवार अलवर में बहुत सी व्यस्तताओं के बीच बेहतरीन पत्रकारिता कर रहे थे। लेकिन जब नवभारत टाइम्स का जयपुर संस्करण शुरु हुआ तो उन्होंने भी आवेदन कर दिया। कुलिश जी को इसकी भनक लग चुकी थी, इसलिए जिस दिन नवभारत टाइम्स की लिखित परीक्षा होनी थी, कुलिश जी ने किसी कोर्ट केस के बहाने से अलवर जाने का कार्यक्रम बना लिया। अब तलवार जयपुर परीक्षा देने कैसे जा सकते थे। कुलिश जी के रहने का बेहतरीन बंदोबस्त कर वे उनसे मिलने गए तो उन्होंने पूछा कि क्या आप भी नवभारत में जा रहे हैं तो तलवार जी ने मना कर दिया। लिखित परीक्षा हो चुकी थी सो वे निराश भी थे। लेकिन उन्होंने यह बात नभाटा के संपादक राजेंद माथुर को बता दी कि परीक्षा में नहीं शामिल हो सके। बाद में उनके लिए अलग से परीक्षा आयोजित की गई और उसमें उनको सफल तो होना ही था। इंटरव्यू के दौरान जब राजेंद्र माथुर ने सारिका में कहानी प्रकाशित होने की बात सुनी तो प्रसन्नतापूर्वक उन्हें चुन लिया।
अब तलवार जी की जयपुर में पारी शुरु हुई। वे मुख्य संवाददाता के रूप में बेहतरीन खोजी समाचार प्रस्तुत करने लगे। उनमें से दो ऐसे समाचार हैं जो प्रसंगवश बताना ज़रूरी है। पहले सरकारी डॉक्टर मरीज़ों को दवा के साथ टॉनिक ज़रूर लिखते थे। इसमें डॉक्टरों का कमीशन होता था और डॉक्टर मरीजों से कहते थे कि दवा दिखाए बिना मत जाना। डॉक्टर मरीज से टॉनिक का डिब्बा लेकर खोलते थे और चखते थे। बाद में डॉक्टर मेडिकल की दुकान पर जाकर अपना कमीशन वसूल करते थे। कई बार मेडिकल वाला कहता कि आज दस डिब्बे ही बिके हैं तो डॉक्टर कहता था कि पंद्रह के तो मैंने ढक्कन खोले हैं। पांच-दस रुपये का यह टॉनिक लागत से कई गुना मूल्य में बिकता था। तलवार जी ने इस पूरे व्यापार का ऐसा भंडाफोड़ किया कि सरकार को आदेश निकालना पड़ा कि डॉक्टर दवा के साथ टॉनिक नहीं लिखेंगे। दूसरा समाचार खोए हुए संगीतकार दान सिंह की खोज करना था। इस पर बाद में उन्होंने पूरी किताब ही लिखी ‘वो तेरे प्यार का ग़म’, जो बहुत मक़बूल हुई। सच में दानसिंह को तलवार जी ने नया जीवन दिया, उन्हें अंधेरे गर्त से बाहर लाकर एक खोए हुए सितारे की तरह पेश किया। इसके बाद दानसिंह जी को कुछ फिल्मों में काम मिला और लोग उन्हें सम्मान देने लगे थे। दानसिंह के साथ तलवार जी का आत्मीय और पारिवारिक रिश्ता ऐसा बना कि मरते दम तक वे दानसिंह के हर सुख-दुख में शामिल रहे।
नभाटा में उन्होंने कई संपादकों के साथ काम किया, लेकिन जब प्रसिद्ध कवि विष्णु खरे यहां आए तो उनके आतंक से सब डरते थे, क्योंकि वे बहुत ही सख़्त मिजाज संपादक थे। लेकिन तलवार जी से उनकी ऐसी आत्मीयता रही कि वे अक्सर रात में अख़बार से मुक्त होकर विष्णु खरे को अपने स्कूटर पर बिठाकर नाहरगढ़ स्थित आरटीडीसी के बार में ले जाते थे। विष्णु खरे से उनकी यह मैत्री उनकी मृत्यु तक रही। यहां तक कि जब प्रगतिशील लेखक संघ के पहले समानांतर साहित्य उत्सव को लेकर देशव्यापी विवाद हुए और अनेक लोगों को इसमें आने से रोका गया तो विष्णु खरे ने किसी की नहीं सुनी और वे आए ही नहीं, बल्कि अपनी उपस्थिती से उन्होने उत्सव को जीवंत कर दिया।
नभाटा के बंद होने के बाद तलवार उसके जयपुर संवाददाता के रूप में काम करने लगे थे, लेकिन कोई ख़ास आमदनी इससे नहीं होती थी। स्वाभिमानी बहुत थे, कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया, उन दिनों में उनकी पत्नी यानी शमा भाभी अक्सर अपनी केंद्रीय विद्यालय में शिक्षिका की नौकरी करने जाती तो उनकी जेब में हजार-पांच सौ के नोट रख जाती थी। उन्हीं दिनों तलवार जी को अपना लेखकीय रूप याद आने लगा और वे एक कहानी लिखने में जुट गए। उस कहानी के कई ड्राफ्ट उन्होंने मुझे दिखाए और अंततः उसे राजेंद्र यादव के पास ‘हंस’ में छपने के लिए भेज दिया। यादव जी ने कहानी पढ़कर पोस्टकार्ड लिख, ‘प्रिय भाई, कहानी अच्छी है। लेकिन पनघट छोटा है और पनिहारिनें बहुत हैं। धैर्य रखना, छपने में समय लग सकता है।‘ लेकिन दो महीने बाद ही वह कहानी ‘लयकारी’ प्रकाशित हो गई और तलवार फिर से साहित्य की दुनिया में लौट आए। इस कहानी का उन्होंने नाट्य रूपांतर किया और बाद में इसके कुछ मंचन भी हुए। कुछ समय उन्होंने जयपुर में ऐसे ही बिताया और फिर चंडीगढ़ में जनसत्ता में मुख्य संवाददाता के रूप में काम करने लगे। वहां उनके साथ सांस्कृतिक संवाददाता के रूप में आज के मशहूर गीतकार इरशाद कामिल काम करते थे। तलवार बताते थे कि उन्होंने इरशाद को रात की महफिलों में अपनी रचनाएं सुनते हुए कहा था कि तुम मुंबई भाग जाओ, तुम्हारी जगह वहीं है। उनकी प्रेरणा से इरशाद मुंबई गए और आज तो छाए हुए हैं। लेकिन बीवी-बच्चों से कोई आखि़र कितने दिन दूर रह सकता है, सो तलवार चंडीगढ़ की अच्छी ख़ासी नौकरी छोडकर जयपुर आ गए। पिंकसिटी प्रेस क्लब के चुनावों में वे सर्वाधिक मत प्राप्त कर कार्यकारिणी के सदस्य बने और तत्कालीन अध्यक्ष के पद त्याग के बाद उनके स्थान पर सर्वाधिक मतों से विजयी होने के कारण अध्यक्ष चुने गए।
वे दो बार प्रेस क्लब के अध्यक्ष रहे और इस दौरान उन्होंने प्रेस क्लब को जयपुर की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का एक अनूठा राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर का केंद्र बना दिया। प्रत्येक क्षेत्र के सम्मानित महत्वपूर्ण लोगों को मानद सदस्यता प्रदान की। राष्ट्रीय स्तर पर देश भर के प्रेस क्लबों का एक राष्ट्रीय टूर्नामेंट करवाया, जिसके बाद उन्हें प्रेसक्लबों के राष्ट्रीय महासंघ का अध्यक्ष बनाया गया। क्लब में नियमित रूप से साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का आगाज किया। प्रेमचंद जयंती और मो. रफ़ी की जयंतियां धूमधाम से मनाई जाने लगीं। शहर में कोई बड़ा कलाकार-लेखक-राजनेता-खिलाड़ी आता तो उसके साथ पत्रकार वार्ता होती। उस दौर में पता नहीं कितनी हस्तियां प्रेस क्लब में आईं और यहां का माहौल देखकर मुक्त कंठ से प्रशंसा करके जाती रहीं। ग्रीष्मावकाश में क्लब सदस्यों के बच्चों के लिए अभिरूचि शिविर आयोजित किए, जिसमें बच्चों को लाने-ले जाने के लिए बसों तक की व्यवस्था थी। समापन पर बड़ा कार्यक्रम होता। होली, दीवाली, क्लब स्थापना दिवस आदि अवसरों पर विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। देश-विदेश के अनेक बड़े कलाकारों के कार्यक्रम यहां होने लगे थे। युवा पत्रकारों के लिए प्रशिक्षण कार्यशालाएं आयोजित की जाती थीं। क्लब की नियमित आय के लिए उन्होंने एक सभागार की परिकल्पना की, जिसे आर्किटेक्ट-कलाकार आर.पी. शर्मा ने डिजाइन किया और यह सभागार आज भी एक महत्वपूर्ण केंद्र बना हुआ है। इसी सभागार में साहित्यिक लघुपत्रिकाओं का एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें देश भर के लेखकों ने भागीदारी की। इसका उद्घाटन प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने किया था। जब वरिष्ठ कवि ऋतुराज को प्रतिष्ठित ‘पहल सम्मान’ दिया गया तो प्रेस क्लब की ओर से अतिथि साहित्यकारों को एक प्रीति भोज दिया गया। इसके आयोजन में स्व. अशोक शास्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रही। तलवार जी के आतिथ्य में देश भर से आए लेखक गदगद होकर गए। कालांतर में प्रेस क्लब की राजनीति जब जातिवादी रंग लेने लगी तो चुनावों में तलवार जी का जीतना मुश्किल हो गया था।
आजीविका के लिए इस बीच उन्होंने दूरदर्शन के लिए सीरियल बनाना शुरु किया। दूरदर्शन के लिए समाचार लिखने का काम भी किया। इस बीच उन्होंने आनंद सयाल के निर्देशन में सांभर झील पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘चाँदी का समंदर’ की स्क्रिप्ट लिखी जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। उन्होने समसामयिक विषयों पर ‘आज का मुद्दा’ और विभिन्न क्षेत्रों की नामचीन हस्तियों पर भी एक धारावाहिक बनाया। इनमें धारावाहिक की एक कड़ी कवि ऋतुराज पर थी, जिसमें मुझे ऋतुराज के साथ बातचीत करने का अवसर मिला। धारावाहिक ठीक ही चल रहे थे लेकिन दूरदर्शन में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण उन्हें आगे एक्सटेंशन नहीं मिला और वे फिर से पत्रकारिता की दुनिया में चले गए।
इसके बाद वे श्रमजीवी पत्रकार संघ के चुनावों में जब अध्यक्ष बने तो उन्होंने गवर्नमेंट हॉस्टल यानी आज का पुलिस कमिश्नरेट परिसर, में स्थित कार्यालय का अपने प्रयासों से कायाकल्प कर दिया और इसे एक नया केंद्र बना दिया। श्रमजीवी पत्रकार संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें करीब 800 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसका उद्घाटन बिड़ला ऑडिटोरियम में हुआ और देश भर से आए पत्रकारों को जयपुर के चोखी ढाणी, सिसोदिया रानी बाग, नाहरगढ़ आदि विभिन्न स्थलों पर संवाद करने और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से मनोरंजन करने का अवसर मिला। श्रमजीवी पत्रकार संघ के कार्यालय में अनेक गोष्ठियां आयोजित होती थीं। पत्रकार वार्ता, युवा पत्रकार प्रशिक्षण जैसे कार्यक्रम अब यहां होने लगे थे। जयपुर के श्रमजीवी पत्रकार संघ को तलवार जी ने राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर दिया था।
एक बार फिर जीविका के लिए उन्होंने दैनिक नवज्योति, इवनिंग प्लस और मॉर्निंग न्यूज जैसे अखबारों में कुछ समय तक काम किया। इसके बाद वे ईटीवी राजस्थान में संपादक बनकर गए तो वहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी नवाचारों से नये आयाम स्थापित किए। जयपुर की गलियों में घूम-घूम कर उन्होंने बहुत ही शानदार प्रोग्राम उस दौर में बनाए। राजस्थान के साहित्य और संस्कृति के समाचारों को प्रमुखता देते हुए टीवी पत्रकारिता में नये उदाहरण प्रस्तुत किए। इसी दौर में भारतेंदु हरिश्चंद्र संस्थान का गठन किया और उसके माध्यम से कार्यक्रमों की शुरुआत की। आरंभ किया जवाहर कला केंद्र में जयपुर स्थापना दिवस समारोहपर आयोजित एक शानदार कार्यक्रम से, जिसमें जयपुर के इतिहास और वर्तमान को लेकर गंभीर और सार्थक चर्चा हुई। इसके बाद रचना, पाठ और संवाद के लिए ‘रपास’ शीर्षक से एक शृंखला चली, जिसमें उदय प्रकाश, महेश कटारे और लीलाधर मंडलोई जैसे लेखकों को आमंत्रित किया गया। वहीं सरस डेयरी की सहभागिता में एक साल तक ‘सरस साहित्य संवाद’ के अंतर्गत शिवमूर्ति, बलराम, प्रेम भारद्वाज, युनूस ख़ान, चंद्रप्रकाश देवल, विनोद पदरज, प्रभात, मनीषा कुलश्रेष्ठ, गीताश्री आदि महत्वपूर्ण रचनकारों के कार्यक्रम आयोजित किए गए।
इस बीच उनका लेखन बदस्तूर जारी रहा, जिसमें उनकी कहानियां और समीक्षाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। कहानियों में उनके पत्रकारिता जगत के अछूते विषयों की छायाएं नज़र आती हैं और साथ ही हमारे निकट घट रहे यथार्थ को पैनी नज़र से देखने की गहरी दृष्टि भी। कुछ वर्षों से वे एक उपन्यास पर काम कर रहे थे, जिसकी शुरुआत एक कहानी से हुई थी। यह कहानी मेरे साथ 2007 में पाकिस्तान यात्रा से उपजी थी। यह कहानी ‘दफन नदी’ शीर्षक से पहले एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी पर आधारित उपन्यास का पहला ड्राफ्ट उन्होंने मुझ सहित कई मित्रों को पढ़ने के लिए दिया था, जिसका शीर्षक था ‘यादों का संदूक’ जो बाद में ‘रिनाला ख़ुर्द’ हो गया। यह उपन्यास आज भी भारत विभाजन की पीड़ा को और लोगों के दिलों में तड़पती बेचैनी और साथ ही दोनों देशों की सियासी चालों को भी बयान करता है।
नवंबर 2017 में जब उन्हें राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ का महासचिव बनाया गया तो मेरे जैसे दोस्त जानते थे कि तलवार जी इस संगठन और इसके कार्यक्रमों को कहां तक ले जा सकने की सामर्थ्य रखते हैं। इसका पहला मुजाहिरा उन्होंने जनवरी 2018 में पहला समानांतर साहित्य उत्सव आयोजित करके दिखा दिया था। फिर अगले साल इस पीएलएफ को उन्होंने और बड़े पैमाने पर आयोजित कर दिखा दिया कि उनकी आयोजन क्षमता किस स्तर की है। इसीलिए जब हम दोनों पटना में आयोजित प्रलेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में गए तो वहां हमें राष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजन की जिम्मेदारी सौंप दी गई। यह वह समय था जब इस प्रकार के वैचारिक संगठन और लेखक-पत्रकार-बुद्धिजीवी एक अजीब निराशा के दौर में थे। ऐसे समय में प्रलेस के राष्ट्रीय सम्मेलन ने जो हौंसला दिया वह देश में एक मिसाल बन गया और लोगों को आश्वस्ति मिली कि अंधेरे समय में भी रोशनी की किरण मौजूद रहती है। इस सम्मेलन में देश भर से करीब 25 राज्यों के 700 से अधिक लेखक-रचनाकार आए थे। इसी साल उनका पहला कहानी संग्रह ‘लाल बजरी की सड़क’ प्रकाशित हुआ और इस किताब पर उन्हें राजस्थान सरकार के भाषा विभाग की ओर से हिंदी दिवस पर एक समारोह में पुरस्कृत किया गया। कालांतर में इसी पुस्तक पर उन्हें ‘अमर उजाला’ शब्द सम्मान भी प्रदान किया गया। ख़ैर, इसके बाद तीसरा पीएलएफ 2020 में फरवरी में जवाहर कला केंद्र में आयोजित हुआ तो उसका उद्घाटन अरुंधति राय के हाथों हुआ और प्रलेस का यह उत्सव नई वैचारिक ऊंचाइयां लेते हुए अत्यंत सफल रहा जिसमें देश भर से करीब 250 लेखक-वक्ताओं ने भाग लिया। इसके तुरंत बाद कोरोना ने सारा परिदृश्य ही बदल दिया।
सब लोग घरों में बंद थे लेकिन तलवार जी की सक्रियता बनी हुई थी। वे निरंतर लिख रहे थे। उस दौर की अनेक कहानियां हैं जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। जब कोरोना के चलते जो राष्ट्रव्यापी बंदी हुई और लोगों को पैदल चलकर अपने गांव-घर पहुंचना पड़ा, उस पर तलवार जी ने कई कहानियां लिखीं, जिनमें से एक कहानी ‘वाकर’ साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में प्रकाशित होकर बहुत चर्चित हुई। इसी दौर में भास्कर के लिए लिखी गई उनकी कोरोना काल की डायरी संवेदना और दर्दनाक अनुभूतियों का ऐसा रोजनामचा है जो पाठकों को समाज के अदेखे यथार्थ के प्रति करुणा से देखने के लिए विवश करता है। जब कोरोना के प्रतिबंध हटे तो तलवार जी भास्कर में राजस्थान के कलाकारों पर यादग़ार कॉलम लिखने लगे थे, जिसमें ज्ञात-अज्ञात और मशहूर कलाकारों के बारे में बहुत आत्मीय ढंग से बताते थे। उनका यह कॉलम भी बहुत लोकप्रिय हुआ। इस कॉलम की सामग्री को वे पुस्तकाकार रूप दे रहे थे और बाद में यह किताब उन्होंने राजकमल प्रकाशन को दे दी थी। पत्रकारिता में रहते हुए उन्हें राजस्थान की राजनीति का गहरा अनुभव था, इसलिए कोरोना काल में उन्होंने एक और किताब लिखी थी ‘होप सर्कस’, जिसमें हमारे प्रदेश की राजनीति और यहां के राजनेतओं के दिलचस्प किस्से हैं। यह पुस्तक भी उन्होंने राजकमल को दी थी और जहां तक मेरी जानकारी है, दोनों पुस्तकों के फाइनल प्रूफ भी वे देख चुके थे। लेकिन अफ़सोस कि उनकी मृत्यु के तीन साल बाद भी ये किताबें प्रकाशित नहीं हुई हैं।
कोरोना के चलते हम पीएलएफ को पूर्ववत आयोजित नहीं कर सकते थे। इसलिए पूरा फेस्टिवल ही ऑनलाइन करने का इरादा किया। नवंबर-दिसंबर, 2020 से ही हम इसकी तैयारियों में जुट गए थे। रोज़ हम फोन पर घंटों चर्चा करते और खाका बनाने की कोशिश करते। तलवार जी ने युवाओं की एक ऐसी टीम बनाई जो घर बैठे हमारे अतिथि वक्ताओं से बात कर रिकॉर्डिंग के लिए समय तय करते। क्योंकि पूरा फेस्टिवल ही ऑनलाइन करना था इसलिए सभी कार्यक्रमों की पहले से रिकॉर्डिंग करनी थी। युवाओं के साथ कार्तिक बलवान और एक प्रोफेशनल एडिटर के साथ साथी गजेंद्र श्रोत्रिय और तलवार जी ने मिलकर अथक परिश्रम किया और फरवरी, 2021 में आठ दिनों तक प्रतिदिन सुबह से रात तक 55 कार्यक्रम प्रस्तुत किए, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
उनकी और मेरी ट्यूनिंग ऐसी थी कि हम दोनों अक्सर किसी विषय पर बिना कहे ही समझ जाते थे कि क्या करना है और कैसे। जब उन्होंने ‘कुरजां संदेश’ पत्रिका के प्रवेशांक की तैयारी की तो तय हुआ कि प्रवेशांक भारतीय भाषाओं के उन रचनाकारों पर केंद्रित किया जाए जिनका शताब्दी वर्ष है। मुझे उन्होंने इसका संपादक बनाया। कई महीनों के अथक परिश्रम के बाद अगस्त, 2011 में जब यह अंक आया तो इसकी धूम मच गई थी। इसके पीछे तलवार जी की दृष्टि ही थी जो ऐसा विशालकाय अंक निकाला जा सका। इसके बाद ‘कुरजां’ का राजस्थान की कहानियों पर केंद्रित अंक कवि-कथाकार दुष्यंत के संपादन में निकला, जो अत्यंत सराहा गया एक स्मरणीय दस्तावेज है।
वह 16 सितंबर, 2021 की शाम थी जब हम हमारे गीतकार-फिल्मकार मित्र शंकर इंदलिया का जन्मदिन मनाने एक रेस्टोरेंट में इकट्ठा हुए थे। तलवार जी की वह शाम, हमेशा की आम महफिलों की तरह गीत-संगीत और हंसी-मजाक से भरी परवान चढ़ रही थी। हम लोग सब ख़ुमारी में भी खाना खाने के बाद बाहोश विदा हुए थे। देर रात वे घर पहुंचकर अगले दिन के कार्यक्रमों की सूची बना रहे थे। शमा भाभी एक बार उन्हें सोने के लिए कह कर गई थीं। वे अपने काम में जुटे हुए थे। रात दो बजे के करीब वे अपनी कुर्सी से उठकर सोने के लिए जा रहे थे। बाहर की लाइटें बंद कर उन्होंने बाहरी दरवाज़ा बंद किया और उसी वक़्त उन्हें जबर्दस्त अटैक हुआ और साहित्य, कला, संस्कृति और पत्रकारिता का एक तेजस्वी सितारा सदा के लिए अस्त हो गया।
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