विष्णु नागर को निराला स्मृति सम्मान आज दिया जाएगा। इस मुबारक मौक़े पर पढ़िए पल्लव लिखित सुंदर-सुंदर गद्य ‘नागर के संमरण’ जिसमें वे चेताते हुए लिखते हैं – “नागर की भाषा पर अलग से बात करना शायद ठीक न हो लेकिन यह कहना होगा कि बिना भावातिरेक और गलदश्रु बहाए भी आप गंभीर और आत्मीय बात कह सकते हैं।“ और विष्णु नगर के चुनिदा गद्यांश पढ़ाते हुए अपने कहे को सिद्ध भी करते हैं। या नहीं? आप पढ़कर बताएं!
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Memoirs of Nagar Ji ~ Pallav (LR: Purushottam Agrawal, Alind Maheshwari, Vishnu Nagar, Ashok Maheshwari, Kashinath Singh and Namar Singh / Photo Bharat Tiwari) |
नागर जी के संस्मरण
पल्लव
राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार में 2 अक्टूबर को जन्म। पीएच. डी., एम.ए. हिन्दी, गद्य आलोचना में विशेष रुचि। दिल्ली के हिन्दू कॉलेज में अध्यापन। 'कहानी का लोकतंत्र' और 'लेखकों का संसार' शीर्षक से दो पुस्तकें। साहित्य अकादेमी के लिए कवि नन्द चतुर्वेदी पर मोनोग्राफ लेखन। साहित्य-संस्कृति के विशिष्ट संचयन 'बनास जन' का 2008 से निरंतर सम्पादन -प्रकाशन। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आलेख, आलोचना और समीक्षा लेखों का लगभग ढाई दशक से निरन्तर प्रकाशन। भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का युवा साहित्य पुरस्कार, वनमाली सम्मान, आचार्य निरंजननाथ सम्मान, राजस्थान पत्रिका सृजन पुरस्कार, पाखी आलोचना सम्मान सहित कुछ और पुरस्कार - सम्मान। संपर्क: फ्लेट न. 393 डीडीए., ब्लॉक - सी एंड डी, कनिष्क अपार्टमेन्ट, शालीमार बाग़, नई दिल्ली-110088 ईमेल: pallavkidak@gmail.com
मुझे बराबर यह लगता है और ठीक ही लगता है और मैं इस बात पर हमेशा अड़ा रहूंगा कि मेरे जीवन में ऐसा क्या अद्भुत है या ऐसे भी क्या दुख रहे हैं या ऐसी भी क्या गरीबी रही है, ऐसी भी क्या प्रिय स्मृतियां रही हैं, जिनसे करोड़ों लोग मेरे पहले या बाद में सुखी या दुखी नहीं रहे हैं। इनमें नया, अद्भुत क्या है? लोगों ने मुझसे कई-कई गुना ज्यादा दुख देखे हैं, भूख सही है, मार खाई है, यातनाएँ सही हैं और अपने विश्वासों की कीमत कई-कई गुना चुकाई है। कइयों की जिंदगी में तो भूख, तड़प और निराशा के अलावा कुछ रहा नहीं है, इसलिए आत्मकथा लिखना कम से कम मेरे लिए आत्मदंभ से कम कुछ नहीं होगा। हम जैसों की जिंदगी में बहुत कुछ बताने लायक भी नहीं होता। जितना लगा कि बताने लायक है, उस समय या हमारे समय को समझने के लिए, उतना लिखा है।
(विष्णु नागर की किताब 'डालडा की औलाद' से)
क्यों नहीं एक सामान्य मनुष्य की जिंदगी भी विशिष्ट है? मान लिया कि आप न ओबामा हैं और न पी टी उषा लेकिन इस संसार को जैसा आपने देखा-जाना-समझा है वैसा तो मैंने या किसी और ने नहीं समझा। फिर भी आपकी बात मान ली जाए तो यह सवाल खड़ा हो जाता है कि यन्न भारते तन्न भारते अर्थात महाभारत के लिख दिए जाने के बाद इस संसार में बचा क्या है? क्या आप मुक्तिबोध से बेहतर कविता लिख देंगे? बहरहाल। रचना और आलोचना का यह द्वंद्व शाश्वत है, बना रहेगा और बना रहना चाहिए। रचनाकार से हमेशा आलोचना सहमत नहीं होती और आलोचना की बात रचनाकार भी काहे माने? लेकिन हर लेखक भीष्म साहनी नहीं होता और न सबमें सत्यनारायण व्यास की तरह यह आत्म विश्वास होता है कि वे छाती ठोंक कर आत्मकथा लिख दें। इसलिए संस्मरण की आड़ में भी आत्मकथा लिख दी जाती है। वहां लेने-छोड़ने की गुंजाइश ज्यादा जो है। कथेतर की इन विधाओं में संस्मरण इसलिए ही सबसे अधिक लोकप्रिय होता गया है कि यहाँ लेखक आत्मकथा, रिपोर्ताज़, रेखाचित्र, डायरी, निबंध, आलोचना और यहाँ तक कि कहानी भी गढ़ सकता है। यहाँ सबकी गुंजाइश है। यह विधाओं में अंतर्क्रिया का ही खेल नहीं है अपितु जीवन की मजबूरी भी है कि आप फलाने को आहत किए बिना लिखना चाहते हैं तो रास्ता यहाँ से निकलता है। फिर भी सबसे महत्त्वपूर्ण यही है कि अंततः आप क्यों लिख रहे हैं? किसके लिए लिख रहे हैं? आपका लिखा इस संसार को सुंदर या असुंदर बनाने में सुई की नोंक जितना भी काम का है या नहीं? विष्णु नागर की चर्चित किताब 'डालडा की औलाद' को प्रकाशक और लेखक ने संस्मरण कहा है लेकिन यह संस्मरण की आड़ में लिखी गई आत्मकथा है। ऐसी ही युक्ति स्वयं प्रकाश की किताब 'धूप में नंगे पाँव' में अपनाई गई थी। भले लेखक कहता रहे कि उसके जीवन में ऐसा क्या विशिष्ट है कि वह आत्मकथा लिखे। ये कृतियां अविशिष्ट नहीं हैं यहाँ जीवन के स्पंदन अपने समय के तनावों और असल सवालों से होकर निकलते हैं।
विष्णु नागर की इस किताब के एकदम शुरू में ही यह प्रसंग है जिसे लगभग पूरा उद्धृत किए बिना मेरा काम नहीं चल सकता। देखिए,
तब मेरा देश कौन सा होता? मान लो मेरा जन्म अगस्त, 1947 से कुछ पहले हुआ होता और मेरे माँ-बाप मुसलमान हुए होते और उन्हें पाकिस्तान जाने को मजबूर होना पड़ता। रास्ते में उनकी और मेरी हत्या उस समय के सांप्रदायिक कर देते तो बताइए मेरा देश कौनसा हुआ होता? भारत या पाकिस्तान? इसके उलट अगर मेरे माँ-बाप हिंदू होते मगर नये-नये बने पाकिस्तान से घबराकर मुझे गोद में पैदल चलते-भागते हुए या ट्रेन में चढ़कर विभाजित भारत आ रहे होते और सांप्रदायिकों ने रास्ते में मेरे माँ-बाप और मुझे काट डाला होता तो बताइए मेरा देश कौन सा हुआ होता? भारत? पाकिस्तान? छोड़िए उतनी पुरानी बात। मैं आदिवासी माता-पिता की संतान होता, अबूझमाड़ में पैदा हुआ होता—मैं और मेरे बच्चे भूख-बीमारी-उपेक्षा झेल रहे होते—तो मैं कभी नक्सलवादी माना जाता और कभी नक्सलवादी मुझे सरकार का पिट्ठू बताते। इन दोनों में से किसी ने मुझे मार दिया होता तो मेरा देश कौन सा हुआ होता—जबकि मुझे मालूम ही नहीं होता कि भारत भी कोई देश है और मैं उसका नागरिक कहलाता हूँ। तो क्या मुझे आज के देशभक्त, देशद्रोही मानते और क्या मेरे और मेरे बच्चों के मारे जाने की खबर आप तक कभी पहुँचती? और पहुँचती भी तो आप उसका शीर्षक पढ़कर या तो अखबार का वह पन्ना चुपचाप पलट देते या हद से हद 'हाऊ सैड' कहकर आगे बढ़ जाते। और अगर मैं हिंदू ही होता और पाकिस्तान से परेशान होकर आज से दस-बीस बरस पहले यहाँ आ गया होता तो शायद मुझे शरण तो मिल जाती मगर नागरिकता नहीं मिलती। तब बताइए मैं कहाँ का, किस देश का नागरिक हुआ होता? पाकिस्तान का या हिंदुस्तान का या कहीं का नहीं? और अगर मैं भारत के किसी हिंदू-बहुल गाँव में रह रहा होता मगर मुसलमान होता और सब मुझे मेरे नाम से नहीं, मुझे 'पाकिस्तानी' कहकर बुलाते और रोज ताने मारते, मुझे गो हत्यारा बताते, मेरा घर-बार जला देते और कहते कि तू पाकिस्तान क्यों नहीं चला जाता, जा साले तेरा देश तो वहाँ है, कब जाएगा, तो बताइए मुझसे भारत माता की जय बुलवाने वाले भी मुझे भारतीय मानते? क्या मैं भारत का नागरिक होकर भी भारत का नागरिक होता? क्या यह देश मेरा होकर भी मेरा होता? क्या वाकई पाकिस्तान मेरा मुल्क हुआ होता? वाकई? और अगर मैं उन लाखों बच्चों में से एक हुआ होता जो भूख और कुपोषण से उस समय मर जाते हैं, जब वे मुश्किल से दूध पिलाने वाली माँ को पहचान पाते हैं क्योंकि उसके शरीर से दूध की खुशबू आती है तो मेरा देश और धर्म इस ब्रह्मांड में कहाँ-कौन सा होता? और मान लो मेरी मजदूरन माँ का गर्भ मेहनत-मजदूरी करते-करते गिर गया होता और वह भी मेरे साथ मर गई होती तो मेरा देश-धर्म क्या होता? मुझे बताया जाए। मुझे यह सवाल परेशान कर रहा है आजकल।
आप क्यों लिखते हैं? इसका जवाब यहाँ है। अपने समय से टकराकर कोई कृति बड़ी क्यों नहीं बनती, इसका उत्तर भी इसी प्रसंग में देख लीजिये। आत्मकथा किंवा संस्मरण के बहाने कथेतर ऐसे सवालों को अधिक निजी अनुभूतियों के साथ प्रस्तुत कर सकने में समर्थ है। ऐसा नहीं है कि उपन्यास में ये सवाल नहीं आए हैं या आ सकते लेकिन यहाँ विष्णु नागर नाम्ना व्यक्ति के सीधे-सीधे कहने से यह सवाल अधिक शक्तिशाली ढंग से हमारे सामने आता है।
देखने की बात यह भी है कि ज़माना ऐसे सवालों पर क्या सोचता है? सामान्य लोग लिखने को कैसे देखते हैं? इस किताब में एक प्रसंग 'प्रेमचंद का काम' शीर्षक से यहाँ भी आया है, जरा देखिए तो,
मैं 1971 में दिल्ली के गांधीनगर में अपने जीवन के सबसे सस्ते, मात्र बीस रुपये महीने के कमरे में रहता था। वह इतना छोटा था कि पढ़ना-लिखना, खाना-पीना सब उधर से गुजरनेवाले को दिखता था। उसी मकान मालिक के उस मकान के एक हिस्से में बेकरी वाला और उसका परिवार रहता था। उस बेकरीवाले का बाप बहुत खूसट था। मैं सुबह साढ़े आठ बजे तक दिल्ली प्रेस की नौकरी करने निकल जाता था तो दिनभर के मैले कपड़े रात आठ-नौ बजे आकर धोता था, ताकि सुबह पहनने लायक बन सकें। उस बुज़ुर्ग को यह अच्छा नहीं लगता था। वह घर से निकलकर आते कि ये कोई कपड़े धोने का समय है? हैंडपंप भी उस बरामदे में था, जहाँ वह रहते थे। उसे भी रात में चलाने से उस बुज़ुर्ग को दिक्कत थी। लेकिन उनका मेहनतकश लड़का अच्छा था, जो तब 40-45 साल का रहा होगा। सुबह ही घर में बनाया बेकरी का सामान लेकर वह निकल जाता था। वह आते-जाते देखता था कि मैं लिखने या पढ़ने में व्यस्त हूँ। एक दिन उसने कहा—'आप प्रेमचंद वाला काम करते रहते हैं। 'उसका मतलब लिखने-पढ़ने के काम से था। इस काम को प्रेमचंद के काम के तुल्य मानने से बड़ी उस अर्द्धशिक्षित की प्रेमचंद के प्रति और बड़ी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती थी, जबकि उसे क्या पता था कि मैं क्या लिख रहा हूँ, बस इतना दीखता था कि कुछ लिख रहा हूँ। यह नज़र आता था कि किसी किताब से देखकर नहीं, अपनेआप, अपनी कल्पना से लिख रहा हूँ।
नागर की यह किताब भले ही संस्मरण कही गई है लेकिन इसमें आत्मकथात्मक प्रसंग ही हैं और वे अपने समय और समाज का निर्मम मूल्यांकन करने वाले हैं। उनका बचपन नेहरू युग था जब भारत नया-नया आज़ाद हुआ था और हम सामंती संस्कारों से घिसट-घिसट कर आगे निकलने की कोशिश कर रहे थे। तब एक पितृहीन बच्चा पिता नामक संस्था को कैसे देख रहा है,
अगर पिता नामक जीव घर में है तो अमूमन सबकी नाड़ी खिसकी रहती थी कि पता नहीं कब क्या आदेश हो जाये कब मार्शल-ला घोषित हो जाये।
यहाँ उनकी माँ का मार्मिक चित्र भी आया है जो वैधव्य और निर्धनता के दोहरे दुष्चक्रों में फंसे जीवन में अपनी संतान का पालन पोषण कर रही हैं। वे लोग भी दिखाई देते हैं जो इन दुश्चक्रों में फंसे इन माँ-बेटे के सम्बल बनते हैं और उन्हें इस बात का दम्भ भी नहीं है। जीवन की सहजता ऐसे प्रसंगों में बहुत खिलकर आती है। वकील साहब का परिवार जो इनका मददगार है वह अपनी दीप्ति में किसी से कम नहीं। उस जमाने के एक सामूहिक भोजन प्रसंग को देखना भी दिलचस्प है जहाँ तत्कालीन सवर्ण जीवन के रंग हैं, देखिए—
बच्चों को इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि किसकी शादी हो रही है और किसकी मौत हुई है! भोज की खुशी और उत्साह हमेशा परम होता है। मैं भी खुशी-खुशी ऐसे भोजों में जाता था, साथ में घर से पानी का गिलास ले जाता था, जो हरेक को ले जाना होता था। भूल जाने पर या न लाने पर खांकरे (पलाश) के दोने में पानी पीना होता था। खांकरे के ही पत्तल-दोने होते थे। कई बार दोने फूटे निकलते। दाल या कढ़ी पत्तल पर बिखरने लगती तो पहले दोने को दूसरा दोना मंगवाकर उसमें रखा जाता। खाना जमीन पर बैठकर खाना होता था। नीचे टाटपट्टी बिछी होती। ऐसे मौकों के लिए भोज का निमंत्रण देने का काम जाति विशेष के लिए एक खास परिवार का नाई करता। वह हर घर के सामने आकर उसके मुखिया का नाम लेकर बताता कि फलां दिन, फलां समय आपके घर के सब लोगों या किसी एक को या पावना-पई समेत (मेहमान सहित) जीमने आना है। कितनों को बुलाना है किस घर से, यह बुलानेवाले की आर्थिक हैसियत से लेकर उससे संबंधों की निकटता समेत कई बातों पर निर्भर करता। भोज में खाने की कुछ चीजें तय होतीं लगभग। अरहर की दाल, चावल, कढ़ी, कोई सूखी सब्जी या गर्मी के दिन हों तो लोंजी, जो कच्चे आम और गुड़ के मिश्रण से खट्टी-मीठी बनी होती। मीठे में अक्सर नुक्ती या बूंदी के लड्डू होते। कोई खोपरापाक रखता, जो सूखे नारियल, चीनी और शायद मावे के मिश्रण से बनता। सारी चीजें परोसने के बाद कोई बड़ा-बूढ़ा नम: (जिसे मैं नमक समझता) पार्वती पतेव, हर हर महादेव कहता, तब भोज शुरू होता। कुछ अपने तौर पर भी अलग से कुछ मंत्र बोलते। फिर पत्तल से सब चीजें थोड़ी-थोड़ी निकालते। पास ही बाहर रखते। गिलास या लोटे से दाहिने हाथ की हथेली में पानी लेकर पत्तल के चारों ओर घुमाकर तब अंगूठे से पानी पत्तल के बाहर एक जगह छोड़ते और तब भोजन शुरू करते। मुझ जैसे बच्चे तो पत्तल में पसंद की कोई चीज आने पर खाने को मचलने लगते मगर 'नम: पार्वती' के सार्वजनिक शिष्टाचार का पालन करना ही पड़ता, जबकि अंदर गुस्सा पनप रहा होता, बेचैनी बढ़ रही होती।
इसी तरह का एक रोचक प्रसंग वनस्पति घी के इस्तेमाल का है। भारत में डालडा ब्रांड ही वनस्पति घी का पर्याय हो चुका था और साधारण परिवारों में इसे ही घी का सम्मान मिलता था। देखिए,
मेरे होश संभालने तक वनस्पति घी का चलन शाजापुर जैसी छोटी जगह पर भी हो चुका था। वह असली घी की अपेक्षा लगभग आधी कीमत में मिलता था, इसलिए गरीब घरों में और जेवनार में वनस्पति घी का प्रचलन शुरू हो चुका था। सबसे पहले डालडा ब्रांड वनस्पति घी बाजार में आया था। फिर शायद उसके बाद ही उसकी लोकप्रियता को देखकर रथ ब्रांड वनस्पति घी आया लेकिन तब तक डालडा ब्रांड का साम्राज्य इतना छा चुका था कि वनस्पति घी मात्र का नाम डालडा पड़ चुका था। थोड़े समृद्ध असली घी ही खाते थे बल्कि गरीब घरों में भी असली घी लाने की कोशिश होती थी। हाँ ज्यादा मेहमान आ जाएँ या बुलाए जाएँ तो पूड़ियाँ वनस्पति घी में तली जाती थीं। जलेबी भी असली घी और वनस्पति घी की मिलने लगी थी। शादी में या मृत्यु भोज में वनस्पति घी का इस्तेमाल होने लगा था। बहुत से नकचढ़े डालडा से बनी रसोई में नहीं जाते थे। 'म्हार से डालडो नी खवाय'। इसमें अतिशयोक्ति भी नहीं कि जो स्वाद असली घी में आता है, वनस्पति घी में नहीं आता। यह भी माना जाता था—जो शायद सही है—कि शरीर को जो ताकत असली घी से मिलती है, वनस्पति घी से नहीं। इसीलिए हमारी पीढ़ी का खासकर कोई छोरा काम में बुजुर्गों के सामने ढीलापन दिखाता था या उसे करने में मुश्किल आती थी तो बड़े-बुज़ुर्ग कहते थे—'या डालडा की औलाद है, इनसे काम नी होय। चल हट', यह कहकर बूढ़े वह काम खुद करने लग जाते थे और इस पर गौरवान्वित होते थे कि उन्होंने जिंदगीभर असली घी ही खाया है और अब भी वही खाते हैं। वे चूँकि हमारी पीढ़ी से भी अधिक गरीबी में पलेबढ़े थे तो उन्हें शारीरिक श्रम का अधिक अभ्यास था। डालडा के प्रचलन का एक असर यह भी हुआ था कि आसपास के गाँवों से आनेवाले कई गौपालक रविवार के दिन असली घी के नाम पर चालाकी करके ऊपर-ऊपर असली घी और नीचे-नीचे डालडा हंडिया में लाकर बेच जाते थे। हमारे पड़ोसी सोनी जी असली घी के एक्सपर्ट थे। वह अच्छी तरह, ऊपर नीचे जाँच करके, सूँघकर घी खरीदते थे और हमें भी खरीदवाते थे। हमारे यहाँ गरीबी के बावजूद असली घी और घानी के मूँगफली तेल का इस्तेमाल होता था। रोटी या चावल में घी इफरात से नहीं डाला जाता था और पराठा (मालवी में पोतवाया) बनाने की जिद करो तो तेल के बनते थे। एक-दो बार ही असली घी के पराठे का स्वाद बचपन में चखा। दाल में बघार घी का लगता था, सब्जी में तेल का।
डालडा के बहाने जीवन के पाखण्ड का एक सुंदर चित्र इस प्रसंग को पठनीय बना गया है।
दिल्ली जैसे शहर में नागर जी ने पत्रकारिता की आरम्भिक दीक्षा ली। इस दौरान हुए अनुभव में जहाँ-तहाँ मिलते हैं। लेकिन इस दौर के कुछ अन्य अनुभव जैसे किराए के मकानों में रहना और दिल्ली का सार्वजनिक जीवन भी किताब को उल्लेखनीय बनाता है। दिल्ली के पार्कों अर्थात बगीचों पर एक प्रसंग है,
पार्कों में समुद्र तटों और पहाड़ों जैसा आकर्षण तो नहीं है मगर दिल्ली के बुरे दिनों में यहाँ के पार्कों ने मेरा बहुत साथ दिया है। एक बेरोजगार आदमी के कुछ मित्र-शुभचिंतक नौकरीशुदा हों तो चाहकर भी उसे वह अपना बहुत समय और साथ नहीं दे सकते। तब समुद्र, पहाड़ या पार्क जैसी जगह साथ देती हैं।
अगर बंबई का आकर्षण समुद्र है तो दिल्ली का आकर्षण जगह-जगह बने पार्क कहे जा सकते हैं। यहाँ नियोजित और अनियोजित इलाके पास-पास ही हैं लगभग, इसलिए गरीब बस्तियों के लोग भी पार्कों की सुविधा से वंचित नहीं है। दिल्ली की सड़ी हुई गर्मी में एक कमरे के मकान में पंखा या कूलर भी वह राहत नहीं दे सकता, जो खासकर शाम के समय जगह-जगह फैले पार्क देते हैं—उमस के बावजूद। ये पार्क आज तो मेरा या मेरे जैसों का साथ देते ही हैं, मैं 1971 से 1974 के बीच बीते कुछ सालों के लिए इनका अधिक आभारी हूँ। इनमें मैंने अपनी हताशा, निराशा, चिंता का बहुत समय बैठकर-लेटकर-घास के तिनके नोंचते हुए बिताया है। यहाँ बैठकर कभी कुछ लिखा भी है। यहाँ धूप सेंकी है, पेड़ों के साये में आराम किया है, घूमा हूँ और बार-बार घूमा हूँ। बुरे दिनों में इन पार्कों ने मेरे लिए दिल्ली को सहनीय बनाया है। मेरे अकेलेपन के हर समय ये संगी-साथी-साझीदार रहे हैं। इनका ऋण मैं कैसे भूल सकता हूँ?
एक अच्छी आत्मकथा वह होती है तो आत्म को कठघरे में खड़ा करने की हिम्मत रखे। ऐसे प्रसंग यहाँ भी हैं। 1984 के सिख विरोधी दंगों (नरसंहार) का एक प्रसंग है तब प्रसिद्ध कथाकार शानी ने उनसे एक राय ली कि क्या उन्हें एक सिख परिवार को शरण देनी चाहिए अथवा नहीं? नागर का जवाब था,
मैंने कुछ यूँ कहा कि दंगों के दौरान आदमी की एकमात्र पहचान उसका धर्म रह जाता है, दूसरी पहचानें ख़त्म हो जाती हैं तो आप भी ऐसे समय में हिंदी के एक बड़े लेखक नहीं, एक मुसलमान रह जाएँगे। दंगाई नहीं जानते कि आप क्या हैं, कौन हैं, लेकिन वह आपका धर्म जानता है। ऐसी हालत में आप अपने यहाँ से उन सिख के घर पर पूरी निगरानी जरूर रखें ताकि उनका कोई नुकसान न होने पाए। अगर दंगाइयों को पता चला कि एक मुसलमान ने एक सिख को अपने घर में शरण दे रखी है तो आज का हिंदू विरुद्ध सिख माहौल, हिंदू विरुद्ध सिख-मुसलमान भी बन सकता है। शायद उन्हें मेरी बात ठीक लगी।
बाद में यानी अनेक वर्षों बाद उन्हें पता चला कि न सिर्फ शानी ने इस सलाह का बहुत बुरा माना था बल्कि उनके घर के अंदर बैठे उस सिख परिवार ने भी यह संवाद सुन लिया था। अब इतने वर्षों बाद नागर ने इस प्रसंग को याद कर लिखा,
क्या मैं गलत था, यह सवाल मेरे भीतर कुलबुला रहा है और अगर खुदा ना खास्ता उस परिवार को कोई नुकसान हो जाता, उन सरदार जी की जान ले ली जाती तो मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाता, जबकि मैं अनजाने उनकी जान को खतरे में डाल रहा था। यह भी लगता है कि शायद शानी जी के मन में भी शरण देने को लेकर द्वंद्व था, इसीलिए उन्होंने यह बात मेरे सामने छेड़ी। अगर मुझे बताया गया होता कि वह सज्जन इसी घर में अभी शरण लिए हुए हैं, तब शायद मेरी सलाह यह होती कि शानी जी अब जैसे भी हो, उन्हें बचाकर अपने घर में रखने के अलावा आपके पास कोई विकल्प नहीं है। फिर भी लगता है कि जीवनमूल्यों की रक्षा की उस छोटी सी परीक्षा में भी मैं फेल रहा। उस समय सबसे बड़ी मनुष्यता, उस सिख के साथ खड़ा होना था, जिसे शरण देने के बारे में मेरी राय माँगी गई थी।
मध्यवर्गीय मनुष्य सीमाएं और मजबूरियां हम सब जानते हैं लेकिन इन मजबूरियों और सीमाओं को पहचान कर स्वीकार करना शायद हमें थोड़ा मजबूत और बेहतर बनाता हो। आत्मस्वीकार का यह रास्ता कविता-कहानी में आसान है किन्तु कथेतर विधाएँ लेखक से कहीं अधिक साहस की अपेक्षा रखती हैं जो आत्मकथाओं या संस्मरणों में हम देखते हैं। किताब में उनके परिवार, मित्रों और परिचितों के अनेक प्रसंग आए हैं। खुद अपने विवाह का प्रसंग भी बहुत रोचक है और एक प्रसंग तो पुरानी डायरी के जस के तस इस्तेमाल से निर्मित हुआ है। कथेतर का आनंद इसी में है कि बात होनी चाहिए जैसे भी हो।
दिल्ली जैसे महानगर में हाट होती है। यह कैसी होती है और क्या इसका कोई विशिष्ट अनुभव भी हो सकता है? किताब में आया यह प्रसंग देखिए,
हाट-बाजार में आप सिर्फ़ ग्राहक होते हैं और कुछ नहीं। लेखक, पत्रकार, बुज़ुर्ग, धर्मनिरपेक्ष, फासीवादी कुछ नहीं। पहले जब नौकरी करता था तो हाट नामक इस बेहद जीवंत जगह पर कम जा पाता था। अब कभी किसी सोमवार को कोई और जरूरी व्यस्तता हो तो अलग बात है वरना मैं हमेशा उत्साह से हाट जाता हूँ। उमस भरे दिनों में हाट जरा ज्यादा थकाते हैं मगर ठंड में भीड़भाड़ की गर्मी बहुत राहत देती है और वापसी में ठंडी हवा थोड़ा कँपकँपाती है। बहुतों को भीड़-भाड़ से घबराहट होती है लेकिन मुझे भीड़-भाड़ में होना अधिक आश्वस्त करता है। ऐसा लगता है कि आपके चारों तरफ जीवन लहरा रहा है और आप भी एक छोटी सी मिट जानेवाली एक लहर हैं। पत्नी की किसी व्यस्तता के कारण साल में एक-दो बार हाट अकेले भी जाना होता है—बेहद जरूरी चीजें लेने के लिए। वैसे सामान खरीदना मुझे ठीक से आता नहीं, न मैं भाव-मोल करने की कला में पारंगत हूँ मगर कभी-कभी दुनियादारी का जुनून चढ़ने पर सौदेबाजी करने लग जाता हूँ और ऐसा करने के बाद अपनेआप पर आश्चर्य होता है और थोड़ी शर्म भी आती है। आप हाट जाते हैं तो कितनी ही प्राणवान आवाजों से आपका सामना होता है। कितने सारे लोगों, मुखमुद्राओं, स्वरों, ध्वनियों, बिंबों से आपका एक अव्यक्त संबंध बनता है। मानवीय प्राण, मानवीय स्वर वहाँ प्रधान होता है। वहाँ सिर्फ़ खरीद-फरोख्त नहीं होती। वह प्रधान होते हुए भी आनुषंगिक लगती है। मुख्य तो यह संदेश है कि यहाँ तुम भी हो, यहाँ मैं भी हूँ। हम परस्पर निर्भर हैं, इसको न तुम भूलना, न मैं भूलूँगा। वहाँ गंधों की पूरी दुनिया है। सब्जियों-फलों, मसालों, अचार, किसी चीज के पकने, पसीने की गंध है। रंगों और आकारों का पूरा संसार वहाँ है—सब्जियों-फलों के रंग, कपड़ों, चीनी मिट्टी और मिट्टी से बनी चीजों के रंग और आकार, चूड़ियों के रंग, मसालों के रंग हैं। इसके अलावा इस दुनिया में विभिन्न वर्गों के लोग कम-ज्यादा मात्रा में एक दूसरे से टकराते हैं, बोलते हैं, एक दूसरे पर गरम-नरम होते हैं, एक दूसरे को सहना-जीना सीखते हैं। एक दूसरे को मानवीय नजरों से देखते-समझते हैं। हाट में सब्जी, फल और तमाम घरेलू सामान खरीदने के लगभग सारे निर्णय पत्नी के होते हैं। वही तय करती हैं कि क्या, कब लेना या न लेना है। क्या सस्ता, क्या महंगा है, क्या इस मौसम में लेने योग्य है, क्या नहीं। वह मेरी पसंद और इच्छा का भी खयाल रखती हैं। कभी मेरी सलाह मान लेती है, कभी नहीं भी मानतीं। वह एक कुशल गृहिणी हैं, इस मामले में उनके विवेक पर पूरा भरोसा करता हूँ क्योंकि उनके पास इस सबका लंबा अनुभव है और मैं लगभग कोरा हूँ। हाट में कुछ सामान ढोते हुए वह घूमती है, कुछ मैं। कुछ मैं थकता हूँ, कुछ वह। सोमवार को साइकिल रिक्शे से सामान घर में ढोकर लाने के बाद मेरा काम ख़त्म मगर उसका काम ख़त्म नहीं होता। खाना खाकर, एकाध अपना प्रिय टीवी प्रोग्राम देखकर, वह सब्जियों-फलों को कहाँ कैसे रखा जाए, फ्रिज में कैसे सलीके से रखा जाए, यह काम भी समय और मेहनत माँगता है। हाट में जाना नौकरी के बाद का एक सुख है और मैं तो हर रचनात्मक व्यक्ति से कहूँगा कि वह संभव हो तो हाट जाया करें, खरीदे नहीं तो भी घूमा करें, देखा करें। कोई भी रचनात्मक व्यक्ति साधारण से और भी अधिक साधारण होना चाहता है। हाट-बाजार उसे यह सुख देते हैं।
सामूहिकता में नागर की आस्था कैसे उन्हें प्राणवान गद्य का रचयिता भी बना देती है, देखिए—
मेरे लिए हाट में जाना बचपन में, अपने कस्बे में लौटना भी है, खाली दिल्लीवाला होना नहीं। मेरे लिए अपने वर्ग, अपनी समझ, अपने गुमान से क्षणिक ही सही मुक्ति का यह अवसर भी है। यह मुक्ति मुझे ताकत देती है। पता नहीं यह बाजारवाद इन हाटों को कब तक सहन कर पाएगा! वह छोटे-मोटे गरीबों के रोजगार छीनने में लगा है। देर-सबेर वह अपने मिशन में सफल होगा या नहीं, यह मैं आज नहीं कह सकता। सफल नहीं हो, यह कामना जरूर है। निष्फल हो जाए तो इसका जश्न मनाना चाहिए।
नागर की भाषा पर अलग से बात करना शायद ठीक न हो लेकिन यह कहना होगा कि बिना भावातिरेक और गलदश्रु बहाए भी आप गंभीर और आत्मीय बात कह सकते हैं। इसके लिए विचार पर भरोसा करना पड़ता है। वह विचार जो मनुष्य के पक्ष में खड़ा है, वह विचार जो अन्याय के विपक्ष में बोलने का साहस देता है। तभी तो वे लिखते हैं,
अगर आप पोजीशन लेने की छोटी सी कोशिश भी करते है तो आपके साथ क्या-क्या हो सकता है इसका उदाहरण जेएनयू, एएमयु, जामिया समेत तमाम विश्वविद्यालय के छात्र–छात्राएँ तो हैं ही, दीपिका भी है।
नागर पोजीशन लेते हैं इसलिए नहीं कि उन्हें डर नहीं लगता बल्कि इसलिए कि उन्हें मालूम है कि सही गलत का अंतर कैसे किया जाता है। सही गलत का अंतर करने में कहानी से कम मिलावट संस्मरण में है और उपन्यास से अधिक वितान आत्मकथा में। अपना निर्मम आत्म मूल्यांकन ही तो यह वाक्य लिखवा सकता है कि
उस दौर में जिन बच्चों से इंसाफ की डगर पर चलने की उम्मीद थी, वे झूठ और बेईमानी का हाथ मज़बूती से पकड़ चुके हैं, जिन्हें संसार को बदलना था, उन्हें संसार ने बदल दिया। पूंजी की सेवा करने के लिए जिन्हें तन मन की भेंट देकर भारत की लाज बचाना था, वे उसकी इज्ज़त लुटाने में लगे हैं और इंसानियत के सर पर इज्ज़त का ताज नहीं कचरा रखा जा रहा है। इसलिए इस बीच यह गीत भी खो गया और इंसाफ की डगर भी।
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