खूबसूरत गद्य पाठक की कमज़ोरी होता है। यदाकदा उसकी यह तलाश गीताश्री भी अपने बेहतरीन लेखन से पूरी करती रहती हैं। शब्दांकन की इस नई सीरीज़ 'गीताश्री की पसंदीदा किताबें' में जान पाएंगे कि गीताश्री को कोई किताब क्यों पसंद है। आज पेश है वरिष्ठ साहित्यकार धीरेंद्र अस्थाना के उपन्यास 'देश निकाला' पर गीताश्री की राय ~ सं०
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GeetaShree Ki Pasandeeda Kitaben - Desh Nikala (Photo: Bharat Tiwari) |
कम रचनाओं में मैं लेखक के जेंडर को अनुपस्थित पाती हूँ
::गीताश्री
पत्रकार एवं लेखक। अब तक सात कहानी संग्रह ,पाँच उपन्यास ! स्त्री विमर्श पर चार शोध किताबें प्रकाशित . कई चर्चित किताबों का संपादन-संयोजन। वर्ष 2008-09 में पत्रकारिता का सर्वोच्च पुरस्कार रामनाथ गोयनका, बेस्ट हिंदी जर्नलिस्ट ऑफ द इयर समेत अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त। 1991 से 2017 तक सक्रिय पत्रकारिता के बाद फ़िलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन ! संपर्क: C-1339, Gaur green avenue, Abhay khand-2, Indirapuram, Ghaziabad -201014, मो० 9818246059, ईमेल: geetashri31@gmail.com
जब पति हावी होता है तो सबसे पहले वह पत्नी की निजता का हनन करता है और अपनी स्वतंत्र सत्ता बचाए रखता है। उसके भीतर का स्वामी भाव जाग जाता है। वह स्त्री मामूली लगने लगती है जो प्रेम में कभी अनूठी लगती थी। एक पुरुष के स्पेस में स्त्री अपना तो गुज़ारा कर लेती है, स्त्री के स्पेस में अतिरिक्त स्वाभिमानी पुरुषों का गुज़ारा नहीं होता या वे एडजस्ट करना नहीं चाहते।
“देश निकाला” (भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण-2009) धीरेंद्र अस्थाना का उपन्यास, उस दौर में पढ़ रही थी जब मेरी समझ स्त्री-संसार को लेकर बन रही थी। स्त्री अधिकारों को लेकर मैं शुरु से मुखर थी लेकिन स्त्री-आकांक्षा का मानचित्र ठीक से बना नहीं था। वह मेरे भीतर चेतना के विकसित होने के दिन थे और किताबें उत्प्रेरक का काम कर रही थीं।
उसी दौर में “देश निकाला” से गुजरना जैसे उस सुरंग से वापसी थी जहां एक गुप्त तहख़ाना भी है… जिसमें बंद है स्त्री-आकांक्षाएँ और उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखा रहे हैं हमारे समय के दिग्गज लेखक। इस उपन्यास को कोई स्त्री लिखती तो भी यही अंत होता। कम रचनाओं में मैं लेखक के जेंडर को अनुपस्थित पाती हूँ। वे लाख दावा कर लें, लेखकों के झुकाव का पता चल जाता है। यह उपन्यास उस झुकाव से बच गया। यही वजह रही होगी कि तब से आज तक मेरे ज़ेहन में इसका कथानक, इसके पात्र कुलबुला रहे हैं।
कई पात्र हैं लेकिन कथा दो पात्रों के बीच चलती है, इन दोनों के मध्य में है एक और किरदार मुंबई शहर, शहर के उदार नागरिक और निर्मम फ़िल्मी दुनिया के लोग।
मल्लिका और गौतम सिन्हा दो ध्रुव हैं इस उपन्यास के जो अपने-अपने आकाश में चमकते है।
दोनों दो आकांक्षाओं के प्रतीक हैं। दोनों स्त्री-पुरुष समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर दिखाई देते हैं। मल्लिका का चरित्र बहुत सुकोमल, आत्मनिर्भर है जो प्रेम में सबकुछ न्योछावर कर देने पर आमादा है। गौतम का चरित्र स्वकेंद्रित है जो अपने सिवा कुछ सोचना नहीं चाहता। इसीलिए लेखक ने उपन्यास में मल्लिका को केंद्र में रखा है और वही इसकी प्रोटोगोनिस्ट बन कर उभरती है। मल्लिका के बहाने एकल स्त्री के संघर्ष का बखान बखूबी किया गया है, साथ ही स्त्री-अस्मिता का बड़ा रूपक खड़ा होता है
लंबे समय तक साथ रहने यानी ‘लिव इन’ में रहने के बाद मल्लिका और गौतम शादी कर लेते हैं। मल्लिका गर्भवती हो जाती है। फिर पति पत्नी बन जाते हैं। मल्लिका के भीतर पत्नी वाली चाहतें जगती हैं और वो गौतम के साथ एक ही घर में रहना चाहती है जबकि बोहेमियन मिज़ाज के गौतम शुरु से ही अलग इकाई के रुप में नज़र आते हैं। थियेटर से जुड़ी, ट्यूशन पढ़ाने कर जीविकोपार्जन करने वाली मल्लिका और फ़िल्मों के सफल स्क्रिप्ट राइटर गौतम दो विपरीत धाराओं की तरह बहते दिखाई देते हैं। मल्लिका साथ रहना चाहती है और गौतम अलग। वह गौतम की शख़्सियत को पहचानती है इसीलिए मान देते हुए अपने फ़्लैट में रहने का आग्रह करती है— “जब अपना घर है तो किराये के मकान रहने की व्यर्थ ज़िद क्यों? हमने भले ही विधिवत शादी नहीं की है लेकिन आख़िरकार मैं तुम्हारी पत्नी हूँ, कोई गर्लफ़्रेंड नहीं कि मेरे साथ आकर तुम्हारी मर्यादा पर आँच आ जाएगी। तुम थियेटर करते रहो, कौन मना करता है। एक घर में रहकर हम अपना-अपना निजी जीवन जीते नहीं रह सकते ?”
मल्लिका के इस बयान पर गौर किया जाए। मल्लिका एक सचेतन स्त्री है जो साथ रहते हुए भी एक दूसरे की निजता का सम्मान चाहती है। वह पुरुष मानसिकता को अच्छे से समझती है कि गर्लफ़्रेंड के साथ रहने में अनैतिक अहसास वैवाहिक बंधन में नहीं। विवाह उस अहसास को नैतिक बना देता है। गौतम मान भी जाते हैं और मल्लिका के साथ रहने लगते हैं और फिर यहीं से शुरु होता है विलगाव का दौर। प्रेम और विवाह का द्वंद्व इस रिश्ते में उभरा है। साथ रहते हुए प्रेमी पुरुष को टिपिकल वर्चस्ववादी पति में बदलते देर नहीं लगती। मल्लिका के फ़्लैट की किस्त में गौतम अपना हिस्सा देने लगते हैं तो घर पर उनका शासन चलने लगता है। जब पति हावी होता है तो सबसे पहले वह पत्नी की निजता का हनन करता है और अपनी स्वतंत्र सत्ता बचाए रखता है। उसके भीतर का स्वामी भाव जाग जाता है। वह स्त्री मामूली लगने लगती है जो प्रेम में कभी अनूठी लगती थी। एक पुरुष के स्पेस में स्त्री अपना तो गुज़ारा कर लेती है, स्त्री के स्पेस में अतिरिक्त स्वाभिमानी पुरुषों का गुज़ारा नहीं होता या वे एडजस्ट करना नहीं चाहते।
अंततः पति पत्नी अलग घरों में रहने लगते हैं। दो अस्तित्ववादी लोग एक साथ सिमोन और सार्त्र की तरह ही साथ रह सकते हैं या फिर गौतम और मल्लिका की तरह।
सार्त्र और सिमोन ने लिव-इन में रहते हुए कभी एक दूसरे की निजता पर प्रहार नहीं किया न सीमाएँ लांघी न हस्तक्षेप किया। गौतम और मल्लिका दोनों दो स्वतंत्र व्यक्तित्व के लोग जो एक दूसरे की आदतों से सामंजस्य नहीं बिठा सकते। यहाँ दोनों निजता पसंद लोग हैं। लेकिन आम भारतीय पति पत्नी की तरह लड़ते-भिड़ते, घुटते-कलपते साथ रहने को अभिशप्त नहीं हैं।
गौतम अपने चुने हुए एकांत के अभ्यस्त हैं और मल्लिका का अपना साम्राज्य है।
इसीलिए साथ रहने के पुनर्विचार पर गौतम नहीं, मल्लिका सिहर उठती है— “कहीं यह इरादा उसकी आज़ादी का अपहरण तो नहीं कर लेगा? शायद यही आशंका गौतम को भी रही होगी, तभी उन्होंने एक साथ एक घर में रहने के विचार को हवा न दी। मल्लिका ने भी इस निर्णय को ज़्यादा तार्किक और स्वाभाविक माना।
अलग होने के बाद दोनों अपने काम में सफल होते हैं। गौतम सफल, सुपर हिट पटकथा लेखक बन जाते हैं जिनके पास किसी के लिए वक्त नहीं है। सफलता का नशा ही कुछ ऐसा होता है जो सिर पर चढ़ जाए तो अपनों से दूर कर देता है। कई बार अपार सफलता विवेक नष्ट कर देती है और सुखी संसार उजाड़ भी देती है। सफलता को हैंडल करना सबके वश की बात नहीं होती। गौतम अपने प्रेम से, बेटी से दूर होते चले गए। गौतम की दुनिया से मल्लिका और बेटी चीनू को देश निकाला मिल गया था। मल्लिका अपनी बेटी को बता नहीं पाती कि गौतम की दुनिया से उसे देश निकाला मिला है। नन्हीं बच्ची को समझा नहीं पाती कि औरत अगर अपने मन मुताबिक़ जाना चाहें तो उसे देश निकाला ही मिलता है। मिलता रहा है।
आलोचक सुशील सिद्धार्थ ने इस उपन्यास के लिए सही ही कहा था— “ धीरेंद्र अस्थाना संबंधों की सूक्ष्म पड़ताल के लिए जाने जाते हैं। यह उपन्यास पढ़कर लगता है जैसे वैभव, बाज़ार और लालसा ने रिश्तों को आत्मनिर्वासन के मोड़ पर ला खड़ा किया है। सफलता के उन्मत्त एकांत में ठहरे गौतम के साथ से मल्लिका और चीनू अपदस्थ हैं। यह एक नयी तरह का विस्थापन है जिसे कथाकार ने अचूक भाषा और शिल्प में व्यक्त किया है।“
मल्लिका की उपस्थिति में उत्तर आधुनिक स्त्री का होना दिखाई देता है। जिस काल में यह उपन्यास लिखा गया, वह दौर अस्मिताओं के उभार का चरम दौर था। जब विचार लगभग टकराव के मूड में थे और अपनी अस्मिता को लेकर बेहद संवेदनशील थे। इक्कीसवीं शताब्दी का शुरुआती दौर था और उसमें स्त्री विमर्श साहित्य में लगभग अपनी जगह बना चुका था। लेखिकाएँ ज़्यादा मुखर थीं, और उनका लेखन आलोचना की धार पर चढ़ाया जा चुका था।
ऐसे समय में धीरेंद्र अस्थाना “देश निकाला“ जैसा उपन्यास किसी सुघटना की तरह सामने लेकर आते हैं। वे विवाह या प्रेम के किसी नैतिक द्वंद्व में नहीं फँसते, सीधा निर्णय पर पहुँचते हैं। उनकी चिंता मल्लिका को बचाने की भी है और गौतम के बोहेमियन और अराजक जीवन शैली को भी यथावत रखना चाहते हैं। कभी दोनों सही या दोनों ग़लत नहीं होते। दो विपरीत लिंगी के मिज़ाजों का फ़र्क़ हमेशा रहता है। पहले स्त्रियाँ चुपचाप सब लेती थीं, टोकाटोकी नहीं करके खुद को पुरुष वर्चस्व की छाया में खुद को विलीन कर देती थीं। इस उपन्यास में दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व की रक्षा करते हुए लेखक ने अलगाव का रास्ता चुना।
उस दौर में विवाह ख़तरे में आ गया था। मध्यवर्गीय समाज के परिवारों में बिखराव आ गया था, दांपत्य टूट रहे थे। स्त्रियों की सहनशक्ति समाप्त होने लगी थी और वे परित्यक्त होने के बजाय तलाक़ लेना पसंद कर रही थीं। 70, 80 के दशक की परित्यक्ता कहलाने वाली स्त्रियाँ 90 के दशक से तलाक़ माँगने लगी थीं।
“श्रृंखला की कड़ियाँ“ में महादेवी वर्मा ने लिखा हैं— “पुरुष-वर्चस्व ने विवाह संस्था के मूलाधार को ही छिन्न-भिन्न कर दिया है। “
यह बात न सिर्फ़ उपन्यास बल्कि समाज में भी घटित होते देखा गया।
यहाँ एकल ज़िंदगी का चयन खुद मल्लिका ने किया। झुक कर, गिड़गिड़ा कर, प्रेम और संबंधों की याचना करने के बजाय उसने एकल राह चुनी।
लेखक मल्लिका के साथ खड़े दिखाई देते हैं, इसलिए उसे वंचित स्त्रियों की परम्परावादी पाँत में न बिठाते हुए एक बड़ी उपलब्धि की तरफ़ ले जाते हैं। मल्लिका हार नहीं मानती और एक फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाती हुई सुपर स्टार का दर्जा पा जाती है। उसे फ़िल्म जगत की दूसरी नरगिस का दर्जा प्राप्त होता है। अपनी सफलता के चरम पर जाकर वह वापस अपनी खोल में लौट आती है जहां उसे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हुए आनंद मिलता है।
सफलता के दो मानक यहाँ दिखाई देते हैं। पुरुष सफलता के नशे में सबकुछ भुला देता है और स्त्री सफलता के बाद अपने घर लौटती है, अपने दायित्व बोध से लदी हुई। जहां उसकी पिता के स्नेह से वंचित बेटी है। जिस बेटी के सवालों से जूझती है— मम्मा, पापा हमारे साथ क्यों नहीं रहते?
बेटी पापा से भी यह सवाल पूछना चाहती है, फिर नहीं पूछती। उसे आशंका है कि पापा ग़लत जवाब देंगे तो उसे दुख होगा। मल्लिका उसे गले से लगा कर बुदबुदाती है— “ हम जिएँगे बेटा, ख़ूब ठाठ से जिएँगे, हम पापा के बिना भी जिएँगे और सुख से रहेंगे। मैं हूँ न। तेरी मम्मा, तेरा पापा।”
दो स्त्रियों ने मिल कर एक पुरुष की जीवन में अनिवार्यता को अपदस्थ कर दिया और लेखक लिखते हैं— “यह दो स्त्रियों का ऐसा अरण्य था जिसमें परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। “
एकल स्त्रियों या एकल माँओं का अरण्य ऐसा ही होता है जहां वर्चस्ववादियों की घुसपैठ असंभव है।
इस उपन्यास में सिर्फ़ यही चिंताएँ नहीं हैं। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, उपन्यास में मुंबई शहर और शहर के लोग और निर्मम सिनेमाई समाज भी है।
26 जुलाई, 2005 की शाम मुंबई बाढ़ में डूब गई थी। सबको याद है वह दहशत के दिन और रात। पूरा देश मुंबई के इस दुख में डूब गया था। उस बाढ़ का पूरा ब्योरा इस उपन्यास में मौजूद है। मुंबई ने क्या-क्या झेला, उसके नागरिकों के साथ क्या हुआ, सबकुछ कितना दर्दनाक और अनिश्चित-सा था। लेखक की आँख सबकुछ देखती है। मुंबई ठप्प हो गई थी, चारों तरफ़ अंधेरा था और पानी ही पानी। जो जहां था, वहीं अटक गया था। लेखक लिखते हैं— “चारों तरफ़ अंधेरा। फ़ोन ख़ामोश। टीवी रेडियो बंद। सड़कों और घरों में कमर-कमर तक पानी। गाड़ियाँ बंद। लोग अपनी कारों के भीतर बीच सड़क पर डूब कर मर गए। दीवारें गिर गईं हैं। चट्टानें खिसक गई हैं। मकान ढह गए हैं। पीने को पानी नहीं और खाने को भोजन नहीं। हर तरफ़ हाहाकार। पूरे हिंदुस्तान को जिस शहर पर कोहेनूर की तरह अभिमान था, वह कैसे भयावह मंजरों के बीच अनाथ शिशु की लाश-सा पानी पर डोल रहा है। समुद्र की छाती पर मुंबईकरों के सपने शव की तरह पड़े थे।”
प्रलय के इस दौर में मुंबईकरों ने जो साहस दिखाया और जिस तरह इसका सामना किया, एक दूसरे की मदद की, उसका विस्तार से सजीव वर्णन इस उपन्यास में मिलता है। मुंबई की इस आपदा पर जीत की कहानी बेहद रोमांचक ढंग से लिखी गई। इसे पढ़ते हुए दिल दहलता है।
एक बात तो ख़ास है कि मुंबई की जीवटता, संघर्ष करके ऊबर आने की ताक़त अद्भुत है, लेकिन लेखक उस शहर पर इस कदर मुग्ध है कि मल्लिका अख़बार में छपा लंबा-चौड़ा फ़ीचर पढ़ती है मुंबई की तारीफ़ मे। हम जिस शहर में रहते हैं, जो हमारी कर्मस्थली होती है, हम उस पर फ़िदा रहते ही हैं। फ़ीचर में लिखा है—“कौन तोड़ पाया है इसके हौसले? मुंबई थोड़ी देर के लिए ठिठकती है, और हाथ झाड़ कर चल पड़ती है। इसीलिए तो इस शहर के लोग टूट कर प्यार करते हैं। चालों में रहते हैं। लोकलों में पिसते हैं। बड़ा पाव खाते हैं, और फिर कहते हैं— आई लव मुंबई। क्यों ? क्योंकि मुंबई मुंबई है! “
मुंबई इस बाढ़ आपदा से जूझ कर बाहर निकली और फिर उठ खड़ी हुई। मल्लिका भी फँसी लेकिन एक स्थानीय व्यक्ति राहुल ने उन्हें घर तक पहुँचाया। यह कई प्रवासी मल्लिकाओं का सच है जिन्हें स्थानीय लोगों ने मदद की, उनकी जानें बचाई। यह प्रसंग लेखक का अपना कृतज्ञ उद्गार है उस शहर के प्रति जहां वे रहते हैं।
इस उपन्यास में हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के कुछ रियल किरदार भी आते हैं। इस दुनिया का बदसूरत चेहरा भी उजागर होता है जब एक एक्ट्रेस आत्महत्या कर लेती है और इस खबर को सुन कर गौतम जैसे लोग ठंडे और उदासीन रहते हैं। जैसे यह कोई बड़ी बात न हो। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा इस दुनिया में बहुत है। जहां सब पैसे के, प्रसिद्धि के पीछे भागते हैं। अभिनेत्री की आत्महत्या पर गौतम की बड़ी क्रूर और ठंडी प्रतिक्रिया— “हर हारने वाला आत्महत्या थोड़े ही कर लेता है। उसने कर ली। उसका अध्याय समाप्त। मुझे कोई रंज नहीं है। “
इस खरी-खरी बात पर मल्लिका को गौतम पर प्यार आया और वह गौतम को घसीट कर बेड तक ले गई, जिसे बाद में गौतम ने “जिस्म का जश्न“ कह कर हल्का कर दिया।
यह प्रसंग पाठकों को असहज कर देगा। मल्लिका जैसी संवेदनशील स्त्री ऐसे ठंडे पुरुष की तरफ़ आकृष्ट हुई, इस रिश्ते का अंजाम उसके आग़ाज़ ने ही ज़ाहिर हो जाता है। मल्लिका यहाँ मात खा गई। वह भी गौतम की उसी उपेक्षित संवेदनहीनता का शिकार हुई जैसी पहले की अभिनेत्री हुई थी।
हालाँकि उस अभिनेत्री श्रेया ने मल्लिका से भी मदद माँगी थी। तब उसने भी पल्ला झाड़ लिया था।
मल्लिका मज़बूत इरादों वाली स्त्री थी, उसने खुद को बचा लिया। उसके व्यक्तित्व की दबंगता और स्वतंत्रता ने उसे बर्बाद होने से बचा लिया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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