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कृष्णा सोबती : भारतीय संस्कृति और मूल्य

आखिर कौन से आंतरिक या बाहरी दबाव है जिनकी चुनौती से हमारी पुरानी परम्परा, सनातन शिखर समतल मैदान में बदल जाएंगे। क्या सचमुच? — कृष्णा सोबती


Krishna Sobti

Bhartiya Sanskriti aur Mulya 



भारतीय संस्कृति और मूल्य
कृष्णा सोबती

राजनीतिज्ञों ने अपना विश्वास और चमक दोनों खोए हैं। एक खास तरह की पैंतरेबाजी और संयोग सुलभता के गलियारे ने हमारे जनजीवन को आतंकित किया है। यहां तक कि इस प्रक्रिया में भ्रष्टाचार को सुविधा और सुयोग का नाम दे दिया है। और सही और गलत का दायरा काफी विस्तृत कर दिया है। अब सही वह है जिससे आपका स्वार्थ जुड़ा है, गलत वह है जिससे आपका स्वार्थ नहीं जुड़ा।

दोस्तो,
भारतीय संस्कृति और बदलते मूल्य जैसे गहन, गम्भीर विषय पर कुछ कहने से पहले मुझे आपके सामने यह स्वीकार करना है कि मेरा परिचय भारतीय संस्कृति के प्रबुद्ध पक्ष से उतना ही है जिसे साधारणजन अपने होने की हैसियत से, अपने में महसूस करता है। संस्कार की उस अटूट कड़ी से जुड़ उसे वहन करता है जिसे भारतीय संस्कार और संस्कृति का नाम दिया जाता है। भारतीय संस्कृति की चारों दिशाओं को एक साथ देख सकने वाला गहन, प्रबुद्ध चिंतन मेरे यहां गैर हाजिर है। इसके पहले कि इस अछूत कड़ी के मणके छूकर महसूस किए जाएं, मैं इसके मूल स्थान पर अटक कर, अपने होने की शर्त से उस विराट के सन्मुख नमन होना चाहूंगी जिसका नाम मेरा देश है। वही इस संस्कृति का जनक है।



मेरे देश ने मेरी काया को मिट्टी दी है। आत्मा दी है। आंख दी है। उसी ने मेरी रुह को लहकाया है। वह संस्कार रचाया है जो अपनी सत्ता में मेरे मिजाज और तासीर में, मेरे ‘मेरेपन’ में मौजूद है। मेरा देश ही अपने अतीत और वर्तमान में मुझमें उजागर है। इसलिए नहीं कि मैं हूं और जिन्दा हूं, इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है, मुझमें है, मेरे अस्तित्व में निहित है, वह इस देश की विरासत है जो यहां जन्म लेकर मैंने पाई है। मुझ तक आई है।

हर किसी का देश उसके अंदर और उसके बाहर रहता है और निरंतर उसके भाव, उसकी दृष्टि, उसके कोण को अपनी चौखट में जुड़ाए रखता है। यही बंधन अपने अपने देश प्रदेश की गंध, गरिमा और गुण को अपने निवासियों में, नागरिकों में मुखरित करता रहता है। उजागर करता चला जाता है। हम नहीं भी रहते, नहीं भी होते, तो भी।

संस्कृति की बात बहुत ही मामूली ढंग से मैं इसी बिंदु से उठाने जा रही हूं :
उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम विस्तृत दिशाएं। धुर उत्तर में देश का मस्तक हिमालय, उसकी छांह तले हरियाली धरती, उसकी गंध, उसकी महक, नदियां झीलें, उसके चरणों तले सागर, आप सबको समग्र भाव से प्यार करते चले जाते हैं।

वही देश आपके अंतर में उसकी कविता, उसका दर्शन, उसका चिंतन बनकर सरसता रहता है। इसी के द्वारा दी गई दृष्टि अंतर्दृष्टि, जीवन दृष्टि इसकी जीवन शैली को बुनती चली जाती है। यही से उपजे, उभरे और प्रतिष्ठित होते चले गए मूल्यों की परम्परा हममें उस धारा के रूप में बहती जाती है जिसे हम अपने जीने में पहचानते चले हैं।

साहित्य दर्शन, ज्ञान चिंतन जो भी यहां रहनेवालों ने अपने स्वभाव और धर्म के अनुसार जिया हैं, प्रस्तुत किया हैं, उन्हें भी। एक बहुत बड़ी और गहरी अटूट कड़ी जो भारतीय मानस के संस्कार से जुड़ी है, अपनी सुरक्षात्मक मुद्रा को अतीत के गुंजल में समेटे लपेटे हुए है और जिसे हर भारतीय ने केवल ओढ़ने भर को ही ओढ़ा हुआ नहीं है, वही हमारे सोच, संस्कार की परिचायक है।

एक छोटी सी कलम होने के नामे मेरे लेखक के सरोकार, मेरे अपने समय और समाज से जुड़े हैं और इसी रिश्ते से व्यापक मानवीय मूल्यों से भी। आज हमारे जीवन में, भारतीय सोच में जो अदल बदल और फेर बदल, परिवर्तन हो रहे हैं या हो चुके हैं उन्हें हमारा साहित्य अंकित करता है। इन्हीं परिवर्तनों का बाहरी हिस्सा हमारे रोजमर्रा के क्रिया कलाप में परिभाषित होता है। यहीं इसी प्रक्रिया में जीवन, राजनीति, सत्ता और तंत्र के रूप में इसे अपने में सोखता चला जाता है। परिवर्तन जब भी होते हैं अचानक नहीं होते। वे इतनी खामोशी से भी नहीं होते कि उनके बदलाव, टकराव आप सतह पर और सतह के नीचे महसूस न कर सकें। सच तो यह है कि परिवर्तन लगातार होते चले जाते हैं और अपने बदलावों के संदर्भों में विपरीत दिशाओं से लोकमानस की कसौटी पर खरे होकर ही टिकते चले जाते हैं। इन्हीं के द्वारा, इनके सरोकारों में क्षोभ, हलचलें, सामाजिक राजनीतिक टकराहटें जुड़ने भिड़ने की स्थितियां समय से संवाद स्थापित करती रहती हैं और साहित्य कला और विचार में रेखांकित होती रहती हैं।

इस सबके बावजूद यहां की इकाई के रूप में जो भी व्यक्ति इसका नागरिक है वह नश्वरता के नियम के तहत मृत्यु की विराट सत्ता की भी प्रजा है। इसी से बदलावों के मुखड़े बदलते हैं। पुराने होते हैं और फिर हेर फेर के दौर में से गुजर कर नए हो जाते हैं। अलग दिखने लगते हैं। निसर्ग का नियम संतुलन बिगड़ने नहीं देता। इसी से मूल्य भी जीवन से मृत्यु की ओर शेष हो फिर दुबारा जीवन की ही ओर लौटते हैं।

एक छोटी सी पंक्ति प्रस्तुत है,
“तुम मेरी ओर मुड़ो, तब मैं तुम्हारी ओर मुड़ूंगा। ’’

लगता है यह किसी साधु संत, पीर नबी की आवाज नहीं, यह वक्त के चक्के पर चढ़ी परिवर्तन की आवाज है जो एक बार फिर भारतीय जीवन के द्वार को खटखटा रही है। पूरे आसार हैं, इस आहट के साथ एक नया युग, नया दौर आने को है। आकर ही रहेगा, शायद। आखिर कौन से आंतरिक या बाहरी दबाव है जिनकी चुनौती से हमारी पुरानी परम्परा, सनातन शिखर समतल मैदान में बदल जाएंगे। क्या सचमुच?

दोस्तो, हम कितनी ही श्रद्धा और ललक से अपने भव्य अतीत को पुकारें, उसे क्या हमारा वर्तमान और भविष्य भी सुनेगा? सुन सकेगा? क्या विज्ञान का युग पीछे लौटेगा? अध्यात्म की ऊंची सोच को क्या आज का भौतिकवाद उसकी सत्ता को बरकरार रखने की मजबूरी को सहन करेगा? जो मूल्य परम्पराएं टूट चुके हैं हम उन्हें आवाजें दे देकर क्या दुबारा सत्तारूढ़ कर सकेंगे? लौटा सकेंगे? वर्ण व्यवस्था में जकड़े हमारे समाज को विधान से मिले बराबरी के अधिकार ने उसकी जड़ों को हिलाया है। इस लज्जाजनक स्थिति को ललकार कर उबारनेवाली अछूत जनता देश और व्यवस्था का प्रमुख अंग हैं। क्यों नहीं, वे भी क्यों नहीं, देश की कुलीन धारा में जज्ब हो सकते। क्यों नहीं वे यहां के सामूहिक सत्त्व को अपना सकते?

दोस्तो, यह होने को है और होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होगा, और, कुछ और होगा तो उच्च वर्ण के ललाट की खरोंचे जख्म ही बनेगी और किसी भी मंत्र की आवृत्ति से विभूति नहीं चूक सकेगी। सिर्फ रक्त की बूंदें टपकेंगी। आज के लिए यह कोई धार्मिक राजनीतिक सवाल नहीं, यह एक बहुत बड़े पैमाने पर हमारे भव्य मूल्यों को चुनौती है। हमारे विश्वासों और आस्थाओं पर सबसे बड़ा व्यंग्य है। परेशानी होती है यह सोचकर कि जहां हमारे चिंतन ने विराट के असीम को छू लेने की जुर्रत की वहां हमारी यह सामाजिक शोषण की संस्था लगभग हजार साल तक पनपती चली गई। इसी सर जमीन पर। कमजोर, पिछड़े दलित वर्ग वे सब जिन्हें हमने अपने बडप्पन में ‘हरिजन’ की संज्ञा दी, वे सब गली सड़ी स्थितियों, परिस्थितियों से उठकर अब हमारा सामना करने को हैं जिनसे सदियों हमने नजरें चुराई हैं।

दोस्तो, किसी मोड़ पर युग विशेष में जब मूल्यों की टक्कर होती है तो दरारों में से कुछ बड़े खतरे पैदा होते हैं। मुझे कहने की इजाजत दीजिए कि ऐसा ही एक खतरा हमारे सामने हमीं को चुनौती देता नजर आता है। बराबरी के इस अहसास को हमारे अंदर या बाहर की कोई भी ताकत रोक नहीं सकती। भारतीय इतिहास का, उसके धार्मिक विश्वास का, उसके खोखलेपन का यह सबसे बड़ा मूल्य परिवर्तन होगा। कितना ही समय क्यों न लगे, यह बदल कर रहेगा।

संयुक्त परिवार हमारे ढांचे की रीढ़ रही है। परिवार की एकजुट मुद्रा बदली है और इसके साथ ही जुड़े संबंधों और अर्थ के संदर्भ बदल रहे हैं, संबंधों के संवेदन भी। बड़ा संयुक्त परिवार छोटी छोटी इकाइयों में विभाजित हो रहा है। इसके साथ ही झीना पड़ रहा है, सगेपन का घनत्व। भारतीय परिवार की भावनात्मक सघनता लगातार छीज रही है। क्या हम याद करना पसंद करेंगे कि इन बाहरी दबावों के सामने इस पुरानी प्रथा को दुबारा ताजादम करना मुश्किल ही होगा। इसने जहां भारतीय जीवन को सुरक्षा दी, वहां व्यक्ति से उसकी इच्छाशक्ति छीन कर कुछ कर सकने की सामर्थ्य को क्षीण भी किया। उसे एक परिवार का, समूह का अंग भर बनाकर छोड़ दिया। इसी के साथ जुड़ी है भारतीय मानस की जोखिम न उठाने की सहज, स्वाभाविक मनोवृत्ति। जिसे हम चाहे जिस नाम से बुलाएं पुकारें।

यह अकारण नहीं है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद सहसा भारतीय मानस ने सबसे पहले समूह से अलग होने की, परिवार से बाहर जाने की तीव्रता से अभिव्यक्ति की। मैं सोचता हूं, अतः मैं हूं।

अस्तित्ववाद की यह अर्थपूर्ण ध्वनि आज हमारे प्रबुद्ध लोकमानस में व्याप्त सबसे तीखी और तेज आहट है। जहां समाज के प्रभुत्व में व्यक्ति की साख समाज का अंग होने में थी, वहां आज मानव की आत्मचेतना निज की एकांतिकता को संजोने में लगी है। इसी अस्तित्ववाद ने धर्मशास्त्र, काव्य दर्शन, मनोविज्ञान की सीमाओं के व्यापक क्षेत्र का अतिक्रमण किया है।

गलत न होगा यह कहना कि यह संकट का दर्शन है। इससे उपजे अलगाव और विच्छिन्नता की भावनाएं ही इसके मूल में हैं। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय मानस और चिंतन ने साहित्य द्वारा अपने पुराने संदर्भों में आधुनिकता के इस स्वर को, इसके विश्व व्यापी प्रभाव को पहचाना है। लगातार आंका है।

हमारे आज के जीवन में कार्यकलापों का क्रम बदला है। उसके साथ ही वैज्ञानिक और औद्योगिक अर्थव्यवस्था के दबावों ने इस क्रम का सामान्यीकरण भी किया है। हमारे समाज में सामूहिकता की जो भावना उभरी है शायद वही इस संदर्भ में व्यक्तित्व लोप का कारण भी बनी है। जनमत और जनजागरण के कारण वर्गों के विभाजन में समता, बराबरी की आधुनिक प्रवृत्ति व्यक्तित्व पर दबाव और बोझ रखती है। यह सच भी है कि जीवन के बढ़ते हुए समाजीकरण ने सत्ता और तंत्र को मजबूत किया है। बेहिसाब ताकत दी है। जाहिर है आज के संदर्भ में हमारे अतीत का बौद्धिक विलास, आसपास फैले इनसान के मानसिक तनावों और नई स्थितियों के यथार्थ का समाधान नहीं कर सकेगा। अपनी व्यक्तिगत बेहतरी की तीव्र नैतिक इच्छा, समाज और धर्म की असंगति का विस्तार करती चली जाती है। मुझे इजाजत दीजिए यह कहने की कि तथाकथित गौरवमयी भारतीय संस्कृति की परम्परा में वर्गीकरण और सह अस्तित्व के अर्थ कुछ भी रहे हो, ऊंच नीच के जन्मजात अधिकार भेदभाव, छुआछूत के नाम से ही पहचाने जाते रहे हैं।

दोस्तो इस तरह हम चेतना के सेहतमंद रास्तों को बंद करनेवाली सिकुड़न, कट्टरता और पूर्वग्रह के लबादे से देर तक जन को धमका, भरमा नहीं सकते। इतिहास के इस मोड़ पर हमारे विधान ने हमें बराबरी के अधिकार दिए हैं। इसी ने हमारे देश के जनसाधारण को प्रतिष्ठा दी है। यहीं अपने पढ़े लिखे प्रबुद्ध वर्ग से हटकर ग्रामीण जनता के जीवन संदर्भों में हो रहे बदलावों का जिक्र करूंगी जो आधुनिक विकास की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। कृषि विज्ञान ने जिस छोटे बड़े पैमाने पर हमारे गांवों को प्रभावित किया है, उन्हें शिक्षा और बेहतर खेती और सुख सुविधाओं को उकसाया है। गांव के पुराने ढांचे में एक खास तरह की खलबली, ग्रामीण समाज में कहीं तीखेपन से लक्षित है और इस बात का प्रमाण है कि आर्थिक व्यवस्था और कृषि विकास के परिणामस्वरूप गहराई से खुदे पुराने मूल्य और परम्पराएं बिखराव की चपेट में है। भारतीय मिजाज में रची बसी अहिंसा और प्रेम की भावना के साथ साथ एक अजीब हिंसा और क्रोध का भाव उभरा है। खासतौर पर महानगरीय जीवन में। अलगाव का एक और मूड भी है जो हमारे लेखन में परायेपन और थकन का आभास देता है। इसे केवल पश्चिम की नकल ही मान लेना शायद ठीक न होगा। आधुनिक जीवन पर हावी हो रहे तनावों की ही यह देन है।

सामाजिक रूप में यह महानगरीय बोध अनिवार्यतरू ऐसे रचनाकारों की रचनाओं में प्रेषित होता है जो गांव कस्बों और छोटे शहरों से उखड़कर एक बड़ी दुनिया में पहुंच गए हैं। भारतीय मन की कल्पना और रोमांस को इसी यथार्थ ने अपने भयावह रूपों में झंझोड़ा है।

धंधों की विविधता ने जहां जीवन की एकरसता तोड़ी है, वहां उसे एक चौखट विशेष में बांधकर एक नई और परायी लगने वाली एकरसता का भी सामना करना पड़ा है। संवेदना और सैंसेबिलटी के स्तर पर इसी पृष्ठभूमि से पुराने मूल्यों को चुनौती भी मिली है। ऐसी संरचना की उड़ान पहले से कहीं व्यापक है और अपनी सीमाओं को फलांग कर आगे बढ़ी है। जो नए पुराने मूल्यों की टक्कर और विरोधाभास पुरानी पीढ़ी में लक्षित होता है वह नई पीढ़ी में सीधे साक्षात्कार की मुद्रा में है। यहां मैं अपनी बात साफ करने के लिए इन्हें दो धाराओं में बांटना चाहूंगी। एक प्रबुद्ध इलीट वर्ग जो बदलते मूल्यों और उनसे जुड़े अहसासों से अतीत की समग्रता से बहुत कुछ संजोना, समेटता चाहता है और दूसरी ओर साधारण जनता जो मीडिया, रेडियो, टीवी, सिनेमा द्वारा मिली जानकारी के बल पर ही ‘इलीट’ के सांस्कृतिक दम्भ का सामना करने की हिम्मत जुटाने में लगी है।

यहां मैं हिंदी फिल्मों का खासतौर पर जिक्र करना चाहूंगी। भारत की बहुत बड़ी जनता को जिनका सीमित, साक्षर ज्ञान उन्हें साहित्य से दूर रखता है, फिल्मों से ही जीवन के लकदक मूल्यों और उनकी संवेदना की प्राप्ति होती है। उस तस्वीर से, कथानक से उनकी मानसिकता, उनके मूल्य प्रभावित होते हैं। एक खास अंदाज में फिल्में उस उघाड़ को भी प्रेषित करती चली जाती है जिसका प्रभाव साहित्य मनन से कहीं ज्यादा कारगर होता है।

क्या हम याद करना पसंद करेंगे कि भारतीय ग्रामीण और देश का सर्वहारा वर्ग तंत्र और सत्ता के सम्पर्क में एक बहुत बड़े परिवर्तन का सामना करनेवाली प्रक्रिया में से गुजर रहा है। हमारा लोकमानस सदियों से उदासीनता में जीता रहा है। बाहर के आक्रमणों और खतरों से बचने के लिए वह बार बार हर बार इसी दुर्ग में लौटता रहा है। अकाल, बीमारी, भुखमरी, सभी को भाग्यवाद के सहारे स्वीकार करता रहा है।

इसी ने, अभावों, गरीबी के लंबे अनुभव ने जहां हमारे किसान को बेहिसाब सहन शक्ति दी, वहां नियति के आगे सिर झुका देनेवाली मूल विवशता भी। आज हमारे गांवों में जिंदगी की बेहतरी के लिए संकोच नहीं, उम्मीदें हैं। आशाएं हैं। यहां यह कहना गलत न होगा कि भारतीय ग्रामीण जनता की धर्म भावना, आस्था एक खास तरह के राजनीतिक दबावों के पीछे पीछे सरकती, दीखती है जिसके नए मापदंडों को आत्मसात् करने और समझने का प्रयास ग्रामीण समाज लगातार कर रहा है। हमारे पास कारण और उदाहरण मौजूद है कि हमारा लोकमानस सामाजिक तौर पर नीची सीढ़ी पर होते हुए भी, रोजमर्रा के धंधों और मजबूरियों के बावजूद अपने तईं, मानवीय भावनाओं को अंकित करता चला गया है। अभिव्यक्त करता रहा है। अपने को व्यक्त करने की आदिम इच्छा ने हमें लोककलाओं में विलक्षण चित्र दिए हैं।

नैतिकता के पुराने चुक गए मूल्यों का जो रूप हमारी जीवन शैली ढोये चली आ रही हैं, उनका विघटन हुआ है और अवमूल्यन भी। आज के आधुनिक संदर्भ में उभरते और छिन्न भिन्न होते स्त्री पुरुषों के संबंधों में एक नया आयाम खुला है। स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता और बराबरी के तेवर से तलाक के कानून से पुरानी भारतीय विवाह संस्था को गहरा झटका लगा है। नई अर्थव्यवस्था और चौखट में भारतीय नारी अपने पुराने और नए स्वरूप में ताल मेल बिठाने में प्रयत्नशील है। इसी के साथ साथ भारतीय जीवन से जुड़े जन्म जन्मांतर वाले प्रेम और आसक्ति के अर्थ भी बदले हैं।

असंगत न होगा यह जान लेना कि जहां विज्ञान ने ईश्वर की एकमात्र सत्ता के साम्राज्य को कम किया है। वहां भारतीय मानस ने बिना किसी वैचारिक कशमकश के विज्ञान की उपयोगिता और सामर्थ्य को स्वीकार किया है।

इसके साथ साथ दिलचस्प तथ्य यह भी कि जहां अंधविश्वासों में हमारे यहां कमी आई है वहां सामाजिक रूप में धर्म के छोटे बड़े मठ, आश्रम और मठाधीशों की बाढ़ सी आई है। लगता है छूटते पुराने विश्वासों और आस्थाओं को कोई न कोई सुलभ व्यवहारिक रूप देने की कोशिश जारी है। ऐसा कहना मुनासिब ही होगा कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों के बदलाव ने एक खास तरह से हमारी सांस्कृतिक रुचियों को भी अदला बदला है। लौट लौटकर गौरवमयी परम्परा के स्तुतिगान आज भी धनी वर्ग से जुड़े हैं। विविध कलाओं और विधाओं द्वारा अतीत की भव्यता को समो कर रखने का आग्रह व्यापक रूप से अभिजात के परिष्कार के समीप है। लोककलाएं प्रबुद्ध वर्ग के लिए मंचित होती रहती हैं। विदेश की ओर उन्मुख मुद्रा ने इन्हें निश्चय ही एक नई क्षमता दी है जो अर्थ से जुड़ी है।

एक बड़ा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन जो एक साथ पूरे देश में उभरा है, वह है ‘मीडिया’ की मदद से प्रस्तुत होनेवाला ‘दृष्टिकोण’। इस दृष्टिकोण में मिलाजुला झूठ और सच है। इसके सच में वे मूलभूत आदर्श निहित हैं जो आज भी भारतीय मानस के समीप है और इसके झूठ में वे जो विशेष स्वार्थों की सुरक्षा के लिए सच में मिलाकर प्रस्तुत कर लिए जाते हैं।

इस विशाल प्रस्तुतिकरण ने सच और झूठ के अलग अलग मुखड़ों को काफी हद तक एक-सा कर दिया है। मंच पर एक ही अभिनेता को दाएं बाएं अलग अलग पहना दी गई पोशाक की तरह। जहां जाति समूह के नाम पर झगड़े फसाद जारी हैं, वहीं धर्म प्रदेश जाति के भेदभाव को लांघकर, पूर्वाग्रहों को फलांगकर हमारे यहां एक छोटी मगर नई बिरादरी भी विकसित हो रही है जो न सिर्फ मुसलमान है, न सिर्फ पारसी, न सिर्फ सिक्ख, क्रिस्तान। चाहें कितने ही कम परिवार क्यों न हो, ये विवाह हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक सेहत के लिए वरदान सिद्ध होंगे।

बदलते मूल्यों में जहां मेरा अधिकार आपके अधिकार से अलग नहीं, कम नहीं, वहां मेरी आस्था, मेरे विश्वास भी किन्हीं दूसरी आस्थाओं के तहत अलग नहीं। हमें यह जान लेना चाहिए कि विधान ने हमें बराबरी के अधिकार दिए हैं। हम में से कोई भी समूह विशेष होने का दुशाला नहीं ओढ़ सकता। भारतीय संस्कृति और इससे जुड़े मूल्य बहुत से रसायनों का मिश्रण हैं। इसके तत्त्वों को विभाजित कर इसकी मुक्कमल तस्वीर बनाई नहीं जा सकती। इतिहास के क्रम को दोहराने की चाह होती है पर वह मनचाहे ढंग से दोहराए भी नहीं जा सकते।

राजनीतिज्ञों ने अपना विश्वास और चमक दोनों खोए हैं। एक खास तरह की पैंतरेबाजी और संयोग सुलभता के गलियारे ने हमारे जनजीवन को आतंकित किया है। यहां तक कि इस प्रक्रिया में भ्रष्टाचार को सुविधा और सुयोग का नाम दे दिया है। और सही और गलत का दायरा काफी विस्तृत कर दिया है। अब सही वह है जिससे आपका स्वार्थ जुड़ा है, गलत वह है जिससे आपका स्वार्थ नहीं जुड़ा।

भारतीय बुद्धिजीवी शायद उसी बाहर और अंतर की स्थितियों परिस्थितियों में तालमेल बिठाने के प्रयत्न में हैं। सिद्धांत के मुखौटे बुद्धिजीवी के लिए बेहद जरूरी है। इसलिए उन्हीं ही पुनीत धारा से जुडे रहना जरूरी भी है। उसके चिंतन और चिंता में जो दोहराव है, उसे शायद विपरीत धाराओं के अनुशासन एक संयम और सुरक्षात्मक गतिमयता देंगे। हमारे जीवन के बदलते मूल्यों का लेखा जोखा काफी बड़ा है। व्यापक है। दूर-दूर तक इसके बदलते स्वरूपों को देखा जा सकता है। एक ओर परम्पराओं को ढोने की थकन है तो दूसरी ओर नए के प्रति जिज्ञासा भी। इस मामले में हमारी छोटी, नई पीढ़ी हमसे आगे हैं और भिन्न भी।

दुनिया छोटी हो जाने के फलस्वरूप बाहर का ज्ञान, विज्ञान, साहित्य और संगीत नई पीढ़ी के निकट उतना ही अपना है जितना भारतीय। यकीनी तौर पर यह उनके लिए एक बड़ी जमा है। दोस्तो, दर्शन और चिंतन की गहराइयों और भारतीय मानस की कलात्मक ऊंचाइयों के बावजूद जीने के स्तर पर हम यथार्थ को नजरअंदाज कर अपनी खामियों को भी विशिष्ट बना लेने में माहिर हैं। विचारधाराओं का नाम नहीं लूंगी लेकिन दोस्तो जब हम किसी निगाह विशेष से इतिहास के प्रमाणों में जनजीवन और उसके तत्त्वों की पहचान और शनाख्त करने का फैसला कर लेते हैं और एक सोच पर टिक जाते हैं तो इसके साथ साथ एक हादसा और भी पेश आता है। आप जहां देख रहे होते हैं उसके पीछे से कुछ खामोशी से, अनजाने में ही गुजर जाता है जो कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता।

आज भारतीय जीवन की ऊपरी तहों और गहरी जड़ों में जो भी बदलाव हुए हैं, हो रहे हैं वे विज्ञान की प्रयोगधर्मी दृष्टि से एकलय हो सकेंगे, सोचकर हम शायद आश्वस्त ही होते हैं लेकिन इस बीच कितना बचेगा, कितना बदलेगा, कितने को भारतीय जीवन समेट सकेगा, यह सवाल है जिनकी आहट हमें मिल रही है पर उसका सबूत और नया स्वरूप समय के अगले मोड़ पर है, पुरानी भारतीय संस्कृति को भी शायद भविष्य में ही नया समन्वय ढूंढ़ना होगा।

(तद्भव - 35 से साभार)

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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रवि कथा — ममता कालिया (भाग २) | Tribute to Ravindra Kalia by Mamta Kalia - Part 2


Tribute to Ravindra Kalia by Mamta Kalia - Part 1


रवीन्द्र कालिया पर लिखा ममता कालिया का संस्मरण

रवि कथा — भाग २

30 जनवरी सन् 1965 को जिस रवींद्र कालिया से चंडीगढ़ की गोष्ठी कहानी ‘सवेरा’ में मेरा परिचय हुआ वह बात बात में ठहाके लगाने वाला, अजीबोगरीब किस्से सुनाने वाला, चेन स्मोकर और बेचैन बुद्धिजीवी था। कद छह फीट और तीखे नाकनक्श, बेहद सुंदर हंसी और हर दिल अजीज। चंडीगढ़ में डॉ. इंद्रनाथ मदान से लेकर कमलेश्वर और राकेश तक, सब रवि से मुखातिब थे। जैसा शीर्षक से स्पष्ट है यह कहानी गोष्ठी पंजाब विश्वविद्यालय के सभागार में सुबह के समय हुई। मेरे लिए हर परिचय नया था किंतु सबके महत्व से मैं परिचित थी। वहां आचार्य हजारीप्रसद द्विवेदी और डॉ. नामवर सिंह जैसे दिग्गज भी थे। नामवर जी ने मेरे आलेख की सराहना कर दी, मेरे लिए तो उस दिन यही बड़ा पुरस्कार बन गया। शाम को मैंने वापस दिल्ली जाने की इच्छा व्यक्त की। डॉ. मदान और राकेश जी ने मुझे समझाया कि अगले दिन चली जाना। डॉ मदान ने कहा, ‘‘अभी तुम्हें सुखना झील दिखाएंगे।’’


मैं अड़ गई। मैं कॉलेज में बताकर नहीं आई थी। छुट्टी का आवेदन भी नहीं किया था, यह सोचकर कि रविवार की सुबह गोष्ठी है तो मैं रात तक घर पहुंच ही जाऊंगी। मैं डॉ. इंदु बाली के यहां ठहरी थी। वहां से अपनी अटैची लेकर आई। सभी सीनियर रचनाकारों का बड़प्पन था कि मुझ जैसी चिरकुट सिलबिल लेखिका को छोड़ने बस अड्डे तक आए।



ताज्जुब की तरह रवि ने घोषणा कर दी, ‘‘मैं भी दिल्ली जा रहा हूं।’’

सब दोस्त हक्के बक्के रह गए। रवि के हाथ में अपना कोई असबाब भी नहीं था। राकेश जी और कमलेश जी ने उन्हें समझाने की कोशिश की, ‘‘उन्हें चले जाने दो। शाम को महफिल का रंग जमेगा।’’ रवि नहीं माने, बस में सवार हो गए।

दिन भर में, जिस शख्स ने मुझसे नहीं के बराबर बात की वह रवींद्र कालिया ही था। जबकि बाद में मुझे पता चला कि मुझे चंडीगढ़ गोष्ठी में बुलाने का प्रस्ताव रवि का ही था। इसकी कोई खबर उन्होंने मुझे न लगने दी। मैं जब बस में चढ़ी मेरी बगल वाली सीट पर रवींद्र कालिया विराजमान थे।

मेरा मन संशय और दुविधा, शिकवा और शिकायत से भरा हुआ था। चंडीगढ़ में दिन भर में इस इंसान ने मुझसे सबसे कम बात की थी। शनिवार शाम इंदु बाली जी के घर मुझे स्थापित कर ये जैसे भूल गए थे कि मैं भी आई हूं। मेरे साथ जाने की कोई तुक नहीं थी इस वक्त। खैर सफर शुरू हुआ। बस के शोर में अपने शब्दों की कमी महसूस नहीं हुई। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के शब्दों में—

कितना अच्छा होता है
एक दूसरे को बिना जाने
पास पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है।

बातचीत की पहल रवि ने की, ‘‘आप सिर्फ कविता लिखती और पढ़ती हैं।’’

‘‘नहीं, मैंने बहुत सा गद्य साहित्य पढ़ा है।’’

‘‘आपके प्रिय रचनाकार कौन से हैं?’’

‘‘प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय और निर्मल वर्मा।’’

‘‘निर्मल वर्मा को आप कवि मानती हैं या कथाकार?’’

 ‘‘वे कहानी को कविता की तरह तरल और तन्मय बना देते हैं। ‘जलती झाड़ी’ और ‘वे दिन’ मेरी पसंदीदा पुस्तकें हैं।’’

रवि ने अज्ञेय और निर्मल वर्मा पर निशाना साधते हुए कलावादी और व्यक्तिवादी लेखन पर हमला बोल दिया। उन्होंने कहा हिंदी कहानी इनकी अभिव्यक्ति से बहुत आगे निकल चुकी है। मुझे काफी बुरा लगा कि रवींद्र कालिया मेरे समस्त नायक ध्वस्त किए जा रहे हैं। वे रुके नहीं। उन्होंने उनकी भाषा और भावभूमि को नकार दिया। रवि बोले, ‘‘ये दोनों रचनाकार नकली स्थितियों पर बनावटी भाषा में लिखते हैं। इनकी भाषा में अनुवाद का स्वाद आता है।’’

‘‘आपको कौन से रचनाकार पसंद हैं।’’

‘‘मोहन राकेश, नागार्जुन, अमरकांत, नामवर सिंह।’’

‘‘नामवर जी तो आलोचक हैं।’’ मैंने कहा।

‘‘इससे क्या। उन्होंने आलोचना को रचना की ऊंचाई दी है।’’

तभी बस घरघराकर रुक गई। करनाल आ गया था। पता चला बस खराब हो गई है।

हमने बसअड्डे पर चाय पी। रवि चाय के साथ सिगरेट पीते रहे। चाय से कम और सिगरेट की चमक से ज्यादा गर्मी निकल रही थी।

‘‘आपने हैमिंग्वे पर गौर किया है?’’ रवि ने पूछा।

हेमिंग्वे मेरे प्रिय लेखक थे। उनकी हर रचना बारंबार पढ़ी थी। उन जैसी भाषा शैली और पौरुषमय अभिव्यक्ति बिरले साहित्यकारों को मिलती है।

हम काफी देर हेमिंग्वे पर बात करते रहे।

बस की मरम्मत हो गई और बस फिर चल पड़ी। एक अजनबी के साथ यह सफर उसी रात यादगार बन गया जब रवि के ठिकाने पहुंच हम रातभर बातें करते रहे। खयालों का एक खजाना था जो खाली होने का नाम ही नहीं ले रहा था। भूल गया हमें अपना सिलसिला, संत्रस और विघटन। बिल्स फिल्टर की गंध मेरे लिए सुगंध बन गई। सर्दी में गर्मी महसूस होने लगी। रवि ने पहले दिन से उत्कट प्रेमी की भूमिका निबाही। हमारी मुलाकातों को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि रवि ने शादी का प्रस्ताव रख दिया। अब मुझे खयाल आया पापा। पापा जिस तरह मुझे तराश रहे थे उसमें प्यार, मुहब्बत और विवाह जैसी घिसीपिटी परिपाटियों के लिए कोई जगह नहीं थी। दफ्तर से लौटकर वे रोज मुझे इतनी बौद्धिक खुराक पिलाते, इतनी पुस्तकों से लाद देते कि मुझे दिन रात के चौबीस घंटे कम पड़ जाते।

मन ही मन मुझे यह सोचकर अच्छा लगा कि रवि के लिए प्रेम में विवाह का फ्रेम अनिवार्य था। वे चालू फॉर्मूले के अंतर्गत निष्कर्षहीन निकटता के पक्ष में कतई नहीं थे। मेरी मुश्किल यह थी कि पापा से यह बात कैसे कही जाय। रोज शाम ला बोहीम में रवि मेरी पेशी लेते, ‘‘कल तुमने पापा से बताया?’’ मैं कहती, ‘‘पापा ने मौका ही नहीं दिया।’’

रवि रूठ जाते। उनकी सिगरेट की खपत बढ़ जाती। वे गुमसुम बैठ जाते। कपुचिनो कॉफी पड़ी पड़ी ठंडी हो जाती। रवि कहते, ‘‘तुम्हें किस बात का डर है? अगर वे हां कहें तो ठीक अगर ना कहें तो तुम अपनी स्लीपर्स पहनकर सीधी आ जाना 5055 संतनगर।’’ यह रवि का पता था। मैं कहती, ‘‘पापा के नक्शे में मेरी शादी का मुकाम है ही नहीं।’’ रवि हताश होकर कहते, ‘‘फिर ‘गुफा’ ही हमारी नियति है।’’ ला बोहीम रेस्तरां में एक गर्भगृह जैसा अंधियारा एकांत कक्ष और बना हुआ था जहां प्रेमी जोड़े या खास मेहमान ही बैठते। रवि और हम यहीं बैठा करते। कभी कभी वहां जगह न मिलती तो यॉर्क रेस्तरां के कोजी नुक में चले जाते। यह रवि की हिम्मत थी कि हमारी पूरी कोर्ट शिप के दौरान रवि ने मेरे साथ अच्छी से अच्छी जगह शामें बिताईं, टैक्सी में मुझे घर छोड़ा और कभी रुपये पैसे का रोना नहीं रोया। मैं पर्स लेकर चलती थी पर खोलती नहीं थी। मेरे मन में प्रेमी की पारंपरिक छवि ऐसे इंसान की थी जो मेरे ऊपर दिल और जेब दोनों कुरबान कर दे।

रवि के अंदर साहस और संकल्प का ऐसा अतिरेक था कि तमाम अनसुलझे सवालों के बीच हमारी शादी हो गई। उनके कई हितैषियों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, मेरे हितैषियों ने मुझे समझाया कि यह लड़का तुम्हें छह महीने में छोड़ देगा। 12 दिसंबर सन् 1965 की शाम मेरे एक हितैषी मेरी एक कविता दिखाते शामियाने में घूम रहे थे। यह कविता त्रैमासिक पत्रिका ‘क ख ग’ के ताजा अंक में मुखपृष्ठ पर बोल्ड अक्षरों में छपी थी।

प्यार शब्द घिसते घिसते चपटा हो गया है।
अब हमारी समझ में
सहवास आता है।

हितैषी कह रहे थे, ‘‘यह शादी नहीं, बस कॉन्ट्रेक्ट है।’’ लेकिन लेखक जगत ने हमारा साथ दिया। रवि के संपर्क और दोस्तियां व्यापक थीं। मेरे पापा पुरानी पीढ़ी के साथ साथ युवा पीढ़ी के भी निकट थे। शायद ही कोई ऐसा रचनाकार हो जो इस शादी में न आया हो। लेखन जगत के स्वागत भाव ने हमें बहुत बल दिया।

यह सब बताने का मकसद यह है कि रवि एक आजाद तबीयत इंसान थे। जब तक कोई उनकी आजादी में खलल नहीं डालता, वे दत्तचित्त अपना काम करते रहते। ऊर्जा इतनी कि दफ्तर से आकर कहानी लिखने बैठ जाते। मन होता तो मेरे साथ समुद्र तट की सैर कर आते। लौटकर कुछ देर हम दोनों अनुवाद का काम करते। रवि पंजाबी उपन्यास का हिंदी रूपांतर जुबानी बोलते और मैं लिखती जाती। यह काम इसलिए जरूरी था क्योंकि रवि ने अपनी शादी का सूट ए.के हंगल से उधार सिलवाया था और उन्हें इसके पैसे चुकाने थे। उन दिनों शराब से उनका कोई वास्ता न था, हां सिगरेट पीते थे। मैं एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय में पढ़ा रही थी। जीवन बढ़िया बीत रहा था। रवि के साथ अक्सर यह हुआ कि जब जीवन में सुख चैन आया, कोई न कोई जलजला उठा और उन्हें जड़ से हिला गया। ‘धर्मयुग’ में अच्छी भली बीत रही थी पत्रिका के सबसे चर्चित पृष्ठ उनके पास थे। भारती जी उनसे स्नेह करते थे। मगर रवि अपने सहकर्मी स्नेह कुमार चौधरी की खातिर भारती जी से टकरा गए। दूसरों के सवालों को लेकर खलबलाना हम दोनों की फितरत में था। रवि ने यह नहीं सोचा कि चौधरी अपनी परेशानियों से खुद निपट लेगा। इन दोनों को इस्तीफा देने को उकसाने में मेरी गलती भी बड़ी भारी थी। साल बीतते न बीतते उसी चौधरी ने शुरू किए गए प्रेस की पार्टनरशिप में रवि को जबरदस्त धक्का दे दिया। धन से अधिक मन की हानि से रवि हिल गए। मुंबई से मन उचाट हो गया।

इलाहाबाद में अपना प्रेस जमाने और चलाने में नए किस्म के जीवट की जरूरत थी। जिससे रवि ने किस्तों पर प्रेस लिया, वे बड़े कड़ियल, अड़ियल, सिद्धांतवादी और आदर्शवादी प्रकाशक थे। श्री इंद्रचंद्र नारंग के एक भाई की, स्वाधीनता संग्राम में हत्या हो गई थी। वे स्वयं और उनकी पत्नी दोनों स्वाधीनता सेनानी थे किंतु वे सरकार से पेंशन नहीं लेते थे। उनका कहना था, ‘‘हम देश की आजादी के लिए जेल गए, अपने आदर्शों को नगद भुनाने के लिए नहीं।’’

इसमें शक नहीं कि हमें इलाहाबाद में दुर्लभ और दिलदार दोस्त और सरपरस्त मिले। अश्क जी और कौशल्या अश्क ने उस वक्त रवि को स्नेह और आतिथ्य का संबल दिया जब उन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत थी। मैं उन दिनों मुंबई में एस.एन.डी.टी. के हास्टल में रहकर नौकरी कर रही थी, रवि इलाहाबाद में नए काम की चुनौतियों से जूझ रहे थे। अगर मशीन मैन गैरहाजिर होता तो रवि मशीन चलाने लगते। चपरासी न होता तो खुद रिक्शे में जाकर स्याही के ड्रम लेकर आते। अल्पसंख्यकों के मुहल्ले रानी मंडी में मुहर्रम के दिन ‘हाय हुसैन, हाय हुसैन’ का मातम सुनते बीतते। हिंदी भवन और लोकभारती प्रकाशन के अलावा और कहीं से काम का भुगतान मिलना दुष्कर था। हर महीने प्रेस के कर्ज की किस्त चुकाना, कारीगरों को तनखा देना, मकान का किराया भरना और बिजली का भारी बिल अदा करना रवि की जिम्मेदारी थी। इलाहाबाद जैसे लद्धड़ शहर से काम की इतनी उगाही होनी मुश्किल थी। रवि सुस्त और उदास रहने लगे। उन्हें अकेले प्रेस की गाड़ी खींचनी थी और जैसे तैसे घर की भी। एक दिन वे जॉन्सनगंज चौराहे पर स्थित डॉ के. सी. दरबारी के यहां अपना रक्तचाप दिखलाने गए तो पता चला कि उनका रक्तचाप बहुत मंद है। डॉक्टर ने दवाई दी और सलाह कि कभी तबियत बहुत गिरी हुई लगे तो एक पैग विस्की ले लिया करें। रवि को यह सलाह इतनी पसंद आई कि डॉ. दरबारी उनके मित्र बन गए। हालांकि मैंने डॉक्टर दरबारी को कभी पीते नहीं देखा।

जब मैं छुट्टियों में बंबई से घर आई, रवि ने दिखाया, ‘‘देखो मैंने ये सब खरीदा है।’’ घर में एक पलंग था, दो खपच्ची वाले रैक, एक पानी रखने का कांच का जग और दो शीशे के गिलास। देर शाम प्रेस बंद करने के बाद रवि ने कहा, ‘‘मुझे डॉक्टर ने बताया है कि दो पैग विस्की लेनी जरूरी है नहीं तो मेरा दम धुट जाएगा।’’ मैं चकराई पर चुप रही। इससे पहले कभी कभार ओबेराय के घर में रवि को पीते देखा था और हर बार मैंने नाक भौं सिकोड़ी थी। ओबेराय की जीवनशैली से मैं चिढ़ती थी। इसके बाद सिर्फ बैसाखी पर रवि को बियर पीते देखा था। दो तीन दिन में मेरी छुट्टी खत्म हो गई और मैं वापस चली गई।

मुंबई पहुंचकर भी रवि की फिक्र लगी रहती। पता नहीं कब, क्या खाते हैं, कैसे प्रेस चलाते हैं, कहीं सिर पर उधार तो नहीं चढ़ रहा।

दूरस्थ दांपत्य की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह कल्पना और अनुमान पर चलता है। उन दिनों आज की तरह मोबाइल फोन का जमाना नहीं था कि मिनट मिनट की जानकारी मिल सके। फोन करना बहुत महंगा था। चिट्ठियों में प्रेम भरी बातें लिखने के बाद हिदायतें लिखना नागवार लगता। साल भर बाद जब नाटकीय षड्यंत्र के तहत मेरी नौकरी छूट गई और हारे हुए खिलाड़ी की तरह मैं वापस घर पहुंची, रवि ने स्टेशन पर सिगरेट का कश लेते हुए यही कहा, ‘‘अच्छा है छूट गई, छोड़ने में तुम्हें इससे ज्यादा तकलीफ होती।’’

एक भी क्षण रवि ने मुझे उदास नहीं रहने दिया। मेरे आने मात्र से वे बेहद खुश हो गए। इलाहाबाद के दोस्तों से मिलवाया, सड़कों का वैभव दिखाया, कॉफी हाउस के चक्कर लगाए, घर से पैदल मद्रास कैफे तक घूमे, चौक के चप्पे चप्पे से परिचित करवाया। दूसरे शब्दों में रवि ने एक बंबईवाली को इलाहाबादी बनाने का काम हाथ में ले लिया।

नगर में आए दिन होने वाली गोष्ठियों ने भी हमारा मन लगाया। दोस्तों की सादगी और सहजता, साफगोई और बेतकल्लुफी ऐसी थी कि हम वहीं के होकर रह गए।

रवि ने अपने सुराप्रेम के चाहे जितने किस्से लिखे हों, मैं जानती हूं कि उन्होंने घर परिवार के प्रति अपनी हर जिम्मेदारी निभाई। ऐसा कभी नहीं हुआ कि घर में राशन खत्म है और रवि रसपान में लगे हैं। सरकारी विज्ञापनों में उन दिनों एक पोस्टर छपता था— मद्यपान करने वाले परिवार और मद्यपान छोड़ देने वाले परिवार का। मद्यप आदमी आनी पत्नी को पीटता दिखाया जाता था, उसके बच्चे रोते हुए। सुधरे हुए आदमी की पत्नी हंसती हुई और बच्चे खेलते पढ़ते हुए दर्शाए जाते। रवि इस किस्म के मद्यप्रेमी नहीं थे। उनकी संघर्षभरी दिनचर्या में शराब एक छोटा सा अल्पविराम थी। मुझे लगता, बाकी दोस्त तो घर जाकर चैन से सो जाएंगे। रवि मशीन रूम में जाकर मशीन चलाएंगे। भगवान ने रवि को ऐसी कद काठी और ऐसा रंग रूप दिया था कि संघर्ष के निशान उनके व्यक्तित्व पर पता ही नहीं चलते। उनके ऊपर यह सदाबहार गाना बिल्कुल सटीक बैठता था—

बरबादियों का सोग मनाना फिजूल था।
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया।
र फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।

सबसे बड़ी बात थी कि रवि अपनी मुफलिसी और तंगदस्ती में भी हमेशा खुश और मस्त रहते। रानीमंडी में रहते हुए उन्होंने अपनी यादगार कहानियां लिखीं। ‘खुदा सही सलामत है’ जैसा महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखा और मुझे लगातार लिखने के लिए प्रेरित किया। कई बार लिखने का नशा बोतल के नशे को पछाड़ देता और रवि केवल चाय व सिगरेट के सहारे अपने कथा संसार में डूबे रहते। ऐसे समय प्रेस के प्रूफ पढ़ने का काम मैं अपने जिम्मे ले लेती। मशीनों के चक्के चलते रहते।

जब बच्चे छोटे थे, रवि से चिपके रहते। उन्हें भी कोई दिक्कत न होती। मैंने कॉलेज में नौकरी शुरू कर दी तो बच्चे ज्यादा समय रवि के साथ बिताते। अब मुझे रवि के सिगरेट पीने से डर लगता। बच्चों पर धुएं का प्रदूषण असर कर सकता था पर बच्चे उनसे दूर रहते ही नहीं थे। सन् 1987 से रवि की माताजी स्थायी रूप से हमारे पास आ गईं तब जाकर यह समस्या दूर हुई। रवि के धूम्रपान और मद्यपान पर भी कुछ बंदिश लगी क्योंकि मां के सामने रवि एकदम राजा बेटा बनकर रहते।

हम बीस बरस रानीमंडी में रहे। इन बरसों में हम लोगों ने खूब लिखा। हमारे संपादन में कई साहित्यिक संकलन और पत्र निकले जिनमें ‘वर्ष: अमरकांत’ रचनाकार अमरकांत पर केंद्रित था तो ‘गली कूचे’ रवि की तब तक की लिखी कुल कहानियों का संकलन। सन् 1990 से ‘वर्तमान साहित्य’ के कहानी महाविशेषांक की गहमागहमी आरंभ हो गई जिसका संपादन रवि ने किया। शुरू में यह सीमित पृष्ठों के अंक के रूप में प्रस्तावित था लेकिन रवि ने अपने जोश ओ खरोश से इसे वृहद आकार दे दिया। यहां तक कि उसके दो खंड प्रकाशित करने पड़े। प्रधान संपादक विभूति नारायण राय चुपचाप रवि का हंगामा छाप अभियान देखते और अपना बजट बढ़ाते जाते। सन् 1990 समूचा इस संपादन में लग गया। सभी रचनाकारों ने इस वार्षिकांक के लिए खास तौर पर नवीन कहानी लिखकर भेजी। स्थापित, चर्चित और संभावनाशील रचनाकारों का ऐसा समागम किसी अन्य संकलन में कभी हुआ न होगा। हर एक लेखक को रवि ने जाने कितनी बार फोन किए होंगे। कई वरिष्ठ लेखकों को तो रोज ही एस.टी.डी. कॉल किया जाता कहानी की प्रगति पूछने के लिए। रवि की अपनी हॉबी थी काम करने की। काम को जुनून की हद तक ले जाना। एक लेखिका ने अपनी कहानी भेजी मगर कहानी का शीर्षक लिखा न अपनी पहचान। रवि ने लिखावट पहचानकर उन्हें फोन किया तब दोनों जरूरतें पूरी हुईं। कहानी में वर्तनी की अनगिनत गलतियां थीं जो रवि ने बड़े मनोयोग से सुधारीं। उस एक अकेली कहानी को संवारने में रवि ने इतनी मेहनत की जितनी समूचे अंक पर न की होगी। इसकी प्रशंसात्मक समीक्षा के लिए अग्रिम लेख लिखवाये। इस तरह उन्होंने महाविशेषांक को धमाकेदार तो बना दिया किंतु पक्षधरता के अपराधी भी बने। ये संपादन जगत के समीकरण होते हैं जो कई बार संपादक पर ही भारी पड़ते हैं। घर का टेलिफोन का बिल उन दिनों चालीस हजार आया जो रवि ने अपने प्रेस का टाइप बेचकर चुकाया। वर्षों बाद उस लेखिका ने, न जाने किस कुंठावश रवि के ऊपर एक व्यंग्यात्मक लेख लिख कर दोस्ती का हक अदा किया। इतनी गलतबयानी से भरा लेख एक वरिष्ठ रचनाकार अपने कनिष्ठ रचनाकार के लिए कैसे लिख सका, यह हैरानी का विषय है। वह रवि के मोहभंग का दिन था। जीवन में इतना अवसादग्रस्त मैंने रवि को कभी नहीं देखा, कैंसर ग्रस्तता के दिनों में भी नहीं, जितना उस दिन। लेखन के इलाके में अचानक जेंडर कार्ड खेल डालना एक किस्म की बेइमंटी होती है।

गनीमत है कि ऐसे तजुर्बे जीवन में इक्का दुक्का ही रहे। प्रायः वरिष्ठ रचनाकारों ने सद्भाव और सौहार्द ही दिया। बीसवीं शताब्दी के सातवें, आठवें दशक में लेखकों के बीच गलाकाट स्पर्धा नहीं थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. धर्मवीर भारती जैसे वरिष्ठ रचनाकारों ने अपनी रचनात्मक प्रेरणा और आत्मीय ऊर्जा से न जाने कितने हम जैसे चिरकुटों को जीवन प्रदान किया।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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रवि कथा — ममता कालिया (भाग १)


Tribute to Ravindra Kalia by Mamta Kalia - Part 1

रवीन्द्र कालिया पर लिखा ममता कालिया का संस्मरण

रवि कथा — भाग १

इन दिनों वक्त मेरे लिए गड्डमड्ड हो रहा है। एक साथ मैं तीन समय में चल निकल रही हूं। आज बारह सितंबर सन् 2016 है, पिछले साल बारह सितंबर को रवि मेरे पास थे। लो यह सन् 2011 का बारह सितंबर कहां से आ गया। हम दोनों अपोलो हॉस्पिटल में डॉ. सुभाष गुप्ता के कमरे में हैं। वे स्क्रीन पर रवि की सी.टी. स्कैन और पैट स्कैन की अनगिनत छवियों का निरीक्षण कर रहे हैं। डॉक्टर ने मायूसी में सिर हिलाया है— ‘‘मित्र कालिया आपके पास बस छह महीने का वक्त बचा है। अपने हिसाब किताब संभाल लें। आपके जिगर में तीन सेंटीमीटर का फोड़ा है।’’


मैं तड़प जाती हूं।

रवि रुआंसे चेहरे से हंस रहे हैं, ‘‘डॉक्टर इस छह महीने में आज का दिन शामिल है या नहीं?’’

डॉक्टर नहीं हंसते।

मैं कहती हूं, ‘‘डॉक्टर मेरा जिगर दुरुस्त है। आप मेरा आधा जिगर इनके लगा दें।’’

डॉक्टर फिर सिर हिला देता है, ‘‘वह चरण ये पार कर चुके हैं। अब प्रत्यारोपण नहीं हो सकेगा।’’

डॉक्टर की सलाह है कि रवि को फौरन हॉस्पिटल में दाखिल हो जाना चाहिए।



रवि के सामने अठारह सितंबर को होने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार का दायित्व है। उन्नीस सितंबर को अगले ज्ञानपीठ की प्रवर समिति के चयन हेतु बैठक है। वे छुट्टी कैसे ले सकते हैं। रवि डॉक्टर से वादा करते हैं, ‘‘बीस सितंबर की सुबह मैं आकर दाखिल हो जाऊंगा।’’

रवींद्र कालिया की जीवनशैली को जिगर ने हरा दिया था पर उनके जज्बे को हरा नहीं पाया। उन्नीस सितंबर तक वे ऐसी रफ्तार से कामों में लगे रहे कि किसी को पता ही नहीं चला कि उनकी सेहत ठीक नहीं। कौल के पक्के रवि बीस सितंबर को अपोलो में दाखिल हो गए। दफ्तर से फोन आए जा रहे थे। रवि को हर फोन का खुद जवाब देना था। एक बांह में कई ड्रिप लटकाने के लिए कलाई में सुई लगाकर टेप चिपका दिया गया। रवि दूसरे हाथ से फोन सुनते रहे। थोड़ी देर में सिस्टर ने दूसरी बांह भी कब्जे में ले ली। उनके दोनों फोन बंदकर दराज में रख दिए। अगले पांच दिन बेहद जांच पड़ताल, निरीक्षण परीक्षण, फिर फिर परीक्षण और अंत में एक समानांतर डमी शल्यक्रिया। इतने सब से केवल पुष्टि की गई कि असली इलाज में रुग्ण स्थल तक कैसे पहुंचा जाएगा। ओरल कैमोथेरेपी की एक दवा जो शहर में बहुत मुश्किल से उपलब्ध हुई, रवि ने दो गोली खाने के बाद, इनकार कर दिया। अन्य बहुत सी दवाओं के अंबार लेकर हम घर लौटे।

रवि फिर दफ्तर जाने लगे। संकट में दफ्तर भी शरणस्थल बन जाता है। उनके दिमाग में ‘नया ज्ञानोदय’ और ज्ञानपीठ के प्रकाशनों के विषय में बेशुमार योजनाएं थीं।

मैं लगातार चिंतित रहती मगर चमत्कृत भी होती। रवि की प्रखरता में कोई अंतर नहीं आया। उनके अंदर रचनात्मक ऊर्जा का अजस्त्र श्रोत था। भूख लगनी बंद हो गई थी। पूरा दिन केवल साबूदाने और दलिए पर गुजार देते मगर फोन पर कोई बात करे, वे बड़े जोश से बोलते, ‘‘मैं ठीक हूं, अपनी सुनाओ।’’ फोन पर लंबी बातचीत करना, सुडोकू खेलना और इंटरनेट पर पढ़ना उनके प्रिय काम थे। उन्होंने अपनी बीमारी की बाबत इंटरनेट पर इतनी जानकारी हासिल कर ली थी कि मेरा और मित्रों का यह कहना कि ‘तुम चिंता न करो, एकदम ठीक हो जाओगे’ सीमित अर्थ रखता था। Portal Veins अवरुद्ध होने का तात्पर्य, उपचार की प्रक्रिया, विकिरण के दूरगामी प्रभाव, सब तो उन्होंने पढ़ जान लिया था। मयनोशी तो अगस्त 2011 से ही छूट गई थी जब पेटदर्द रहने लगा था। अब उनकी शामें होमियोपैथी चिकित्सा के अध्ययन में डूबी रहतीं। कमाल की बात यह कि उन्होंने हर ऐलोपैथिक दवा का होमियोपैथिक विकल्प ढूंढ़ लिया था। होमियोपैथी और ज्योतिषशास्त्र में उनकी पुरानी दिलचस्पी थी। होमियोपैथिक दवाओं की अनिवार्यता हमारे जीवन में हमेशा खड़ी रही। पहले जब बच्चे छोटे थे, उन्हें भरसक होमियो दवाएं देते रहे। बाद में पंजाब से माताजी हमारे पास रहने आ गईं। उन्हें सांस, खांसी, जोड़ों का दर्द आदि असाध्य बीमारियां थीं जो अंग्रेजी दवाओं से ज्यादा उलझ जातीं। डॉक्टर एक बीमारी ठीक करते तो दूसरी उभर आती। तब रवि ने उनके इलाज के लिए इलाहाबाद नगर के मशहूर होमियोपैथ चिकित्सकों से मशविरा किया और स्वयं भी होमियोपैथी के समस्त ग्रंथ खरीद लाए। हैनमैन, कैंट वगैरह की पुस्तकें वे हेमिंग्वे और कामू जैसी तल्लीनता से पढ़ते। रवि की देखरेख में माताजी लंबी उम्र पाकर पीड़ारहित प्रयाण कर सकीं।

दो नवंबर से ग्यारह नवंबर सन् 2011 में जब उनकी YYY 90 रेडियो सर्जरी हुई तब भी होमियोपैथिक दवाओं का डब्बा और किताब उनके साथ अपोलो हॉस्पिटल गई। होश आने पर वहां की नर्सों और वार्ड बॉय आदि से उनके मर्ज पूछ करके मीठी गोलियां देना रवि का सबसे प्रिय काम था। बड़ा बेटा अनिरुद्ध कहता, ‘‘पापा अपनी आंखों को आराम दीजिए, ये सब अस्पताल के लोग हैं इन्हें अच्छे से अच्छा इलाज मिल जाता होगा।’’

रवि कहते, ‘‘मेरी दवा से इनकी बीमारी जड़ से मिट जाएगी यह तो सोच।’’

ग्यारह नवंबर 2011 को अपोलो हॉस्पिटल से छुट्टी मिली। रवि की ठसक यह कि अवशेष बिल का भुगतान मैं खुद जाकर करूंगा। मेरे और अन्नू के कहने का कोई असर नहीं पड़ा। लाचार, उनकी पहिया कुर्सी भुगतान काउंटर पर ले जाई गई। अपना वीजा कार्ड निकालकर उन्होंने बिल चुकाया। वापसी के लिए कार में बैठते ही बोले, ‘‘आज मेरी सालगिरह है। आज मैं पूरे दिन काम करूंगा। मुझे दफ्तर छोड़ दो।’’

मैंने प्रतिवाद किया, ‘‘कमजोर हो गए हो, घर चलकर आराम करो।’’

रवि अड़ गए, ‘‘मेरे काम में अड़ंगा मत डालो, अपनी मर्जी से जीने दो मुझे।’’

अन्नू ने कहा, ‘‘जैसी आपकी मर्जी। आप पहले कुछ फल खा लीजिए।’’

रवि ने कुछ नहीं खाया। दफ्तर पहुंचकर ही उनके चेहरे पर रौनक लौटी।

पिछले साल की सितंबर के इन्हीं दिनों अखिलेश ने रवि से कहा कि वे इलाहाबाद पर संस्मरण लिख दें। यह उनका मनमाफिक काम था। खुश हुए। शुरू किया। मुझसे बोले, ‘‘मैं इलाहाबाद पर पूरी किताब लिखना चाहता हूं पर कुछ जगहों के नाम धुंधले याद पड़ रहे हैं। हमने कब छोड़ा था इलाहाबाद?’’

‘‘सन्, 2003 में। बारह साल हो गए।’’

‘‘एक बार जाना पड़ेगा इलाहाबाद।’’

‘‘तो चलेंगे न। तुम जब कहो, चलें।’’

रवि ने हामी नहीं भरी। अपने तकिए के नीचे कागज कलम रख लिया। रातों में आड़े तिरछे कुछ शब्द, कुछ वाकये लिख लेते। नींद की गोली के बावजूद उन्हें नींद कम आती। कभी मेरी नींद खुल जाती तो मैं रोकती, ‘‘अभी तक सोये नहीं।’’ वे चुपचाप कागज तकिए के नीचे रख देते। जैसे ही मेरी आंख लगती, वे फिर कागज निकालकर लिखने लगते।

तभी तो उनके जाने के बाद उनके सिरहाने से एक उपन्यास के पच्चीस पन्ने, एक संस्मरण के टुकड़े। एक अधूरी कहानी और आधे सवाए जुमलों का खजाना मिला है। कभी किसी रचना के छपने की उन्हें जल्दी नहीं थी। खरामा खरामा लिखते। अगर रचना पूरी हो जाती तो कोई लघु पत्रिका ढूंढ़ते जिसे रचना दी जाय। शायद यही वजह थी कि एक बार स्कूल में अन्नू से पूछा गया कि उसके माता पिता क्या करते हैं तो उसने जवाब दिया, मेरे पिता साहित्यकार हैं, मेरी मां व्यावसायिक लेखन करती हैं। इस विश्लेषण से रवि का खासा मनोरंजन हुआ। मैंने नाराज होकर अन्नू से इसकी वजह पूछी तो उसने कहा, ‘‘आप रंगबिरंगी पत्रिकाओं में लिखती हैं। पापा गंभीर पत्रिकाओं में लिखते हैं।’’ आठवीं में पढ़ने वाले अन्नू को मैं क्या समझाती कि कड़की के दिनों में यही पत्रिकाएं हमारी राहत रूह थीं। जितने नियम से वहां से मानदेय के चेक मिलते उतने नियम से तो मुझे कॉलेज से वेतन भी न मिलता।

कुछ दिन पहले टी.वी. पर सुने एक समाचार ने मुझे रुला दिया। समाचार वाचक ने एक चैनल पर कहा— ‘‘भारत देश में गरीब होना एक अपराध है। इसके साथ जो दृश्य दिखाया गया उसमें उड़ीसा का एक आदमी दाना मांझी अपनी पत्नी की बेजान देह को अकेले उठाकर दस मील पैदल चला। रास्ते में लोग खड़े देखते रहे। कोई दौड़कर कंधा देने नहीं आया।

इसके एक कदम आगे जाकर मैं कहूंगी भारत में बीमार होना ही अपराध और अभिशाप है। इस वर्ष जब चार जनवरी की सुबह रवि की तबियत बहुत खराब हो गई, उन्हें अस्पताल ले जाना जरूरी हो गया। कड़ाके की ठंड थी। रवि अर्द्धचेतन अवस्था में थे। कार की बजाय एंबुलेंस की जरूरत थी। पड़ोसी मित्र डी.एन. ठाकुर ने यशोदा अस्पताल का आपात फोन नंबर दिया। इंटरनेट से एक दो अन्य अस्पतालों के आपात नंबर लिए। यशोदा अस्पताल ने कहा, ‘‘एम्बुलेंस तो है पर डॉक्टर नहीं है। मरीज को भर्ती कर दीजिए। जब डॉक्टर आएंगे, देख लेंगे।’’ एक दूसरे अस्पताल ने कहा, ‘‘हमारे यहां डॉक्टर तो हैं पर एम्बुलेंस सब व्यस्त हैं, दोपहर बाद खाली होंगी।’’ दो अस्पतालों के आपात नंबरों पर घंटी जाती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया।

अंत में किसी प्राइवेट एम्बुलेंस सर्विस का फोन नंबर मिला। उसने कहा, ‘‘दफ्तर जाने वालों का समय हो गया है। जगह जगह जाम मिलेगा।’’

अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘एम्बुलेंस को तो रास्ता देंगे लोग।’’

ड्राइवर बोला, ‘‘यह दिल्ली है, यहां मरते को रास्ता न दें लोग।’’ बड़ी मिन्नतें करके ड्राइवर को घर आने के लिए राजी किया। यह मारुति ओम्नी में बनाई हुई एंबुलेंस थी जिसमें ऑक्सीजन सिलिंडर और मास्क तो था किंतु सीट की लंबाई कम थी। रवि की टांगें उसमें समा नहीं रही थीं। मैं रास्ते भर उनके घुटने पकड़कर उन्हें गिरने से संभालती रही और उनके साथ अपने को भी दिलासा देती रही, ‘‘अभी अस्पताल पहुंचकर सब ठीक हो जाएगा रवि। थोड़ी हिम्मत और करो।’’

नोएडा की सड़कें वाहनों से खचाखच भरी थीं। एंबुलेंस के हूटर का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। हूटर बजता रहा, हम जाम में फंसे रहे। अन्नू ने उतर उतरकर लोगों से प्रार्थना की, ‘‘मेरे पापा की हालत गंभीर है, एंबुलेंस को आगे निकलने दो।’’ किसी ने ध्यान नहीं दिया।

हमें सर गंगाराम अस्पताल पहुंचने में दो घंटे लग गए। बाधाएं अभी खत्म नहीं हुई थीं।

आपातकक्ष में केवल उन रोगियों का उपचार किया जाता है जिनके बचने की आशा हो। ‘बिस्तर खाली नहीं है’ कहकर शेष रोगियों को वापस कर दिया जाता है।

संकट की इस घड़ी में डॉ. अर्चना कौल सिन्हा वरदान बनकर आगे आईं। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पर रवि को उपचार दिलवाया। उन्हें तत्काल वेंटीलेटर और अन्य जीवन रक्षक उपकरणों पर रखा गया। आपात कक्ष में केवल एक संबंधी रोगी के पास जा सकता है। दोनों बेटे अनिरुद्ध और प्रबुद्ध अंदर बाहर खड़े खड़े डॉक्टरों की आवाजाही और परीक्षण देखते रहे। मैं एक बार अंदर जाती, वहां से बौखलाकर बाहर आती और पेड़ के नीचे बैठ जाती। ऐसे कातर समय सबसे पहले मेरी दोस्त चित्रा मुद्गल सपरिवार पहुंची। अभी अवध के चले जाने के दुख से संभली नहीं थी। गिरती पड़ती चल रही थी पर आद्या, अनद्या का हाथ थाम मुझ तक आई। उसकी पुत्रवधू शैली दूर कैंटीन से हमारे लिए चाय लेकर आई। मेरे लिए समय जैसे थिर खड़ा था। घड़ी की सुई न जाने कहां अटकी थी?

रात तक रवि की हालत के लिए जो बयान जारी हुआ उसके मुताबिक उनकी स्थिति गंभीर मगर स्थिर थी। मन में आशा का संचार हुआ। अब समस्या दाखिले की थी। सैकड़ों बिस्तरों वाले अस्पताल में रवि के लिए एक अदद बिस्तर उपलब्ध नहीं था। अस्पताल ने ही इसका समाधान ढूंढ़ा और अपने सहयोगी सिटी हॉस्पिटल के गहन चिकित्सा कक्ष में रवि को पहुंचाया। अन्नू ने हॉस्पिटल के पास एक होटल में कमरा ले लिया यह सोचकर कि हम बारी बारी से आराम कर लेंगे। किसी का भी मन ICU से हटने का नहीं था। हम ICU के बाहर नंगे तख्त पर निःशब्द बैठे रहे। न जाने कहां से दोस्तों को रवि की बीमारी की खबर लग गई। इतनी ठंड में रात भर दोस्त आते रहे, प्रांजल धर, कुमार अनुपम, प्रदीप सौरभ, चंद, कानन, जितेंद्र श्रीवास्तव, संतोष भारतीय। आधी रात की उड़ान से आनंद कक्कड़ आ गए मुंबई से। पुत्रवधू प्रज्ञा और पौत्र केशव शाम को ही पहुंच गए। सुबह तक अखिलेश, मनोज पांडे, संजय कुशवाहा, और असंख्य अन्य मित्र आए। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि रवि पर समय भारी है।

अगले दिन यही स्थिति रही। मित्रों के आने से थोड़ी दिलासा मिलती तो वह गहन चिकित्सा कक्ष में झांककर एक बार फिर टूटने लगती। मदन कश्यप, अनामिका, वंदना राग, पंकज राग, गीताश्री...सबने अपनी उपस्थिति से आसरा दिया। डॉ. स्कंद सिन्हा नियम से आते, हमारे पेट में भोजन पहुंचाते और डॉक्टरों से रवि का हाल जानते। डॉ. स्कंद और डॉ. अर्चना की वजह से सभी डॉक्टरों ने रवि पर बहुत ध्यान दिया।

6 जनवरी की सुबह एक आश्चर्य की तरह रवि को होश आ गया। डॉक्टर ने वेंटिलेटर हटा दिया, आंखों पर से टेप निकाला और रवि ने अपने चारों ओर का दृश्य निहारा। कमजोरी बहुत थी पर चैतन्य थे। अन्नू ने कहा, ‘‘पापा अपनी बाहों से सारी नलियां, सुइयां हटाने के लिए जिद कर रहे हैं।’’ ICU में आगंतुकों को जाने के लिए सुबह शाम केवल आधा घंटे का समय मिलता है और एक एक करके ही मरीज के पास आ सकते हैं। मैं गई। रवि ने पहचाना। हल्के से मुस्कराए। प्रज्ञा, केशव, अन्नू, मन्नू, अखिलेश, मनोज सब बारी बारी से गए। हम चिकित्सा जगत के चमत्कार के आगे विस्मित, विमुग्ध थे। शाम को विभूति नारायण राय और पद्मा आए। अंदर गए। उन्हें लगा पूरी चेतना लौटने में कुछ और वक्त लगेगा। अगले दिन वे फिर आए और उन्होंने कहा, ‘‘आज पहले से ज्यादा सुधार है।’’

डॉक्टर हमें कह रहे थे कि वे जल्द रवि को प्राइवेट बॉर्ड में भेज देंगे। डॉ. निर्मला जैन, लीलाधर मंडलोई, अजय तिवारी, भरत तिवारी, रविकांत, वाजदा ज्ञान, गोकर्ण सिंह, विज्ञान भूषण, शर्मा दंपति, हर एक का आगमन हमारे अंदर नई आशा ऊर्जा और आश्वासन पैदा करता रहा। 8 जनवरी की दोपहर तक रवि सचेत थे। सुबह मैंने रवि से कहा, ‘‘रवि तद्भव का अंक आने ही वाला है, अखिलेश ने बताया।’’

रवि ने धीरे से कहा, ‘‘च।’’

पास खड़ी नर्स ने कहा, ‘‘पापा चाय मांगता?’’

रवि बोले, ‘‘चश्मा।’’

मैं समझ गई रवि तद्भव देखना चाहते हैं। उनका चश्मा और मोबाइल मेरे पर्स में मौजूद था लेकिन बिस्तर पर पड़ी नलियों, नारों के बीच चश्मा उनकी आंखों पर लगाना मुमकिन नहीं था। फिर तद्भव का नया अंक तब तक आया भी कहां था।

8 जनवरी की दोपहर डॉक्टर ने मुझे गहन चिकित्सा कक्ष में बुलाया। मैंने देखा रवि बिस्तर पर बैठे हांफ रहे हैं। डॉक्टर से पूछा। उन्होंने कहा वे अपने आप सांस नहीं ले पा रहें।’’

मेरा धैर्य टूट गया, ‘‘आप देख क्या रहे हैं। उन्हें जीवन रक्षक मशीन पर रखिए, वेंटिलेटर लगाइए।’’

एक बार फिर रवि को लिटाकर वही प्रक्रिया दोहराई गई जो 4 जनवरी को शुरू की गई थी। 8 की शाम, रात और 9 की सुबह ऐसी ही बीत गईं। 9 जनवरी की दोपहर डॉक्टरों ने ‘सॉरी’ बोल दिया।

तो क्या रवि सिर्फ हम सब से विदा लेने के लिए ढाई दिन होश में आए। हर एक को मुस्कराकर देखा, पहचाना। शाश्वत साहित्य में इसी को बुझने से पहले दीपक का आलोक कहा गया है। 10 जनवरी रवि को लोदी रोड के विद्युत शवदाह स्थल पर लाए। यह जगह कुछ ऐसी अवस्थित है कि मुख्य सड़क से कहीं भी जाओ, यह मार्ग में पड़ती है। अनेक बार ऐसा हुआ कि रवि के मुंह से निकला, ‘‘मेरा तो सारा काम यहीं कर देना।’’ मैंने हर बार बुरा माना। मैंने कहा, ‘‘कालिया नाम होने का यह मतलब नहीं कि तुम काले लतीफे सुनाते रहो।’’

रवि ने कहा, ‘‘यहां कर्मकांड का पाखंड नहीं है। इससे मुझे चिढ़ है।’’

सभी स्नेही स्वजन, जनवरी का पाला झेलते हुए आए उस अब रवि को विदा देने आए जिसके लिए दोस्त और दोस्ती, परिवार और गृहस्थी से भी ज्यादा प्रगाढ़ और प्रिय थी। राजीव कुमार ने मेरे हाथों में एक पत्रिका थमाई यह तद्भव की जनवरी 2016 की पहली प्रति थी जिसका पहला लेख था— ‘यह जो है इलाहाबाद’, रचनाकार रवींद्र कालिया। क्या ऐसा ही होता है रचनाकार का प्रयाण। लिखा, अधलिखा, छपा अनछपा सब अधबीच छूट जाता है, काल से होड़ में काल अपनी विकराल विजय घोषित कर देता है। संस्मरण के अंत में ‘क्रमशः’ लिखा हुआ काल को नहीं दिखा। ओफ यह मैं किसके बारे में क्या लिख रही हूं। दोस्तो मेरे अब तक के लिखे पर ‘डिलीट’ दबाओ। मुझे आपके साथ रवींद्र कालिया की तकलीफ भरी तिमाही का सफर करना है या उनके छैल छबीले बयालीस साल का...
(तद्भव से साभार)

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रवीन्द्र कालिया: बेचैन रूह का मुसाफिर (आलोक जैन -2) Ravindra Kalia


बेचैन रूह का मुसाफिर - 2 

Ravindra Kalia's memoir of Alok Jain 

रवीन्द्र कालिया

संस्मरण 

 वरिष्ठ कथाकार रवीन्द्र कालिया अपने संस्मरण के लिए भी कम प्रसिद्ध नहीं हैं । उनकी अप्रतिम कृति ‘गालिब छुटी शराब’ का पाठक समुदाय पर अमिट असर है । एक लम्बे अंतराल के बाद उनका ताजा संस्मरण ।
(अखिलेश, तद्भव 31)



Bechain Rooh Ka Musafir, Sansmaran Alok Jain - Ravindra Kalia

रवीन्द्र कालिया जी की लेखन शैली की ... बड़ाई के लिए शब्द नहीं मिलते - क्या कहूं - जब उनके लिखे को पढ़ता हूँ. संस्मरण लिखने की अद्भुत कला है उनके पास... आलोक जैन जी से उनका (और ममताजी का) मोहात्मक रिश्ता रहा है - मुझे याद है किस तरह आलोक जी ने मुझ से एक कार्यक्रम में कहा - "मेरी और ममता की तस्वीर खींचो" ... मैंने उस यादगार तस्वीर में रवीन्द्र जी को भी (उनके मना करने पर भी) शामिल कर लिया - अच्छा किया. आलोकजी का देहांत कालियाजी के लिए बहुत दुखद रहा... साहित्य के लिए अपना सबकुछ न्योछावर करने वाले आलोक जी की शांति-सभा में साहित्य जगत से उससुबह  सिर्फ ममता जी और रवीन्द्र जी ही नज़र आये थे... यही रीत है ?  आलोकजी के देहांत के बाद रवीन्द्र जी कई महीनों तक उनपर संस्मरण लिखते रहे, जब भी पूछता तो कहते 'लिख रहा हूँ यार' - और क्या ही अद्भुत लिखा है - 

अखिलेश जी को आभार -  'तद्भव' में प्रकाशित 'बेचैन रूह का मुसाफिर' - तीन कड़ियों में से पहली आप पढ़ चुके हैं (बेचैन रूह का मुसाफिर 2) अब दूसरी आप सब के लिए ...
भरत तिवारी 

बेचैन रूह का मुसाफिर 2


आलोकजी के उस विशाल भूखंड की दुनिया बदल चुकी थी । वहां सैकड़ों हजारों झुग्गी झोंपड़ियां बन गयी थीं । आलोकजी ने कभी उधर झांक कर भी न देखा था । उस भूखंड का मूल्य करोड़ों में था । आलोकजी कोर्ट कचेहरी से आजिज आ चुके थे और दूसरी तरफ परिवार में संतुलन बैठाने का इतना दबाव रहता था कि उनकी बहुत सी ऊर्जा उसमें लग जाती । शायद उनके मन में यह अपराधबोध भी था कि इतना साधनसम्पन्न होने के बावजूद वह अपनी संतान को व्यवस्थित नहीं कर पाये । उल्टे स्वयं ही अव्यवस्थित होते चले गये । बच्चे आलोकजी के भाई अशोक जैन के बच्चों की तरह वैभव और ऐश्वर्य में जीना चाहते थे । जब तक संयुक्त परिवार था, वे उसी शानोशौकत से रहते भी थे और उसी जीवन शैली को स्वीकार चुके थे । अलग्योझा होते ही आलोकजी का जहाज डूबना शुरू हुआ तो लगातार डूबता ही चला गया और दूसरी तरफ भाई थे, जिनकी पतंग हवा में अठखेलियां खाने लगी । ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह दृढ़ से दृढ़तर होता चला गया । ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के बीसियों संस्करण प्रकाशित होने लगे । मगर आलोकजी ने भी अंत तक हौसला नहीं छोड़ा । एक उजली सुबह के इंतजार में वह परिस्थितियों से जूझते रहे । उन्हें लगता था कि वह सुबह कभी तो आयेगी । एक अदालत से जीतते तो मुकदमे अगली अदालत में पहुंच जाते । वह खयाली पुलाव बनाते रह जाते । वह दस दस, बीस बीस करोड़ सभी बच्चों में बांट देना चाहते थे और बिटिया के नाम से एक बड़ा न्यास—ज्ञानपीठ की टक्कर का बनाना चाहते थे । उस न्यास के न्यासियों के नाम तय करते रहते । उसके उद्देश्यों पर विचार विमर्श करते । वह उस न्यास को ज्ञानपीठ का प्रतिद्वंद्वी न्यास नहीं बनाना चाहते थे ।

 आलोकजी जानते थे, उन झुग्गी झोंपड़ियों को हटाना उनके बस का काम नहीं है । अंतत% उन्होंने वह भूखंड औने पौने दाम में ही बेचना शुरू कर दिया । यानी करोड़ों का भूखंड लाखों में बिकने लगा । दरअसल अपने युद्ध में वह नितांत अकेले पड़ गये थे । इस अभियान में उनका हाथ बटाने वाला कोई नहीं था । ‘मेरा युद्ध मुझको लड़ना’ वाली स्थिति थी । जब कोलकाता में उनसे पहली मुलाकात हुई थी तो उन्होंने कहा था कि वह दो साल और जिन्दा रहना चाहते हैं ताकि अपने तमाम लम्बित मामले निबटा लें, बच्चों को स्वावलम्बी बना दें, बिटिया के नाम से एक साधनसम्पन्न उद्देश्यपूर्ण न्यास गठित कर दें । यह उनकी अंतिम इच्छा थी । जीवन ने उन्हें दो के स्थान पर लगभग दस वर्ष का समय दिया, मगर काम सुलझने की बजाये उलझते चले गये । वह व्यूह चक्र में ऐसा फंसे कि फिर अंत तक बाहर न निकल पाये । एक बात की मैं अंत तक दाद देता था कि उन्होंने परिस्थितियों के सामने कभी घुटने नहीं टेके । बदस्तूर जूझते रहे । अपनी निजी परेशानियों की कभी चर्चा नहीं करते थे । जैसे पुरानी कहानियों में राजा का जीवन एक तोते में बसता था, उनके प्राण मन ज्ञानपीठ में कैद थे । वह अहर्निश उसकी बेहतरी के उपाय खोजते रहते, वह कहते— ‘‘ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रतिष्ठा प्रवर परिषद (निर्णायक मंडल) के गठन में निहित है । जितनी प्रतिष्ठित प्रवर परिषद होगी, ज्ञानपीठ पुरस्कार उतना अधिक प्रतिष्ठित होगा ।’’ किसी सदस्य का कार्यकाल पूरा होता उससे पहले ही वे नये सदस्य के चुनाव के लिए देश की तमाम भाषाओं के शीर्ष रचनाकारों और विद्वानों से विचार विमर्श करते । इंटरनेट से विद्वानों के बारे में जानकारियां निकलवाते । न्यास की बैठकों में अक्सर देखा जाता कि न्यास के तमाम सदस्य एक तरफ होते और एक अकेले आलोकजी अभिमन्यु की तरह डट कर मुकाबला करते रहते । उन्हें जो सही लगता, वही कहते और वही करते । किसी निर्णय से असंतुष्ट हो जाते तो खूब चिल्लाते । आवाज उनकी इतनी बुलंद थी कि इमारत के प्रत्येक तल पर उनकी आवाज गंूजती । बैठक में किसी बात पर मतैक्य न होता तो बहुत आजिज आ जाते और खिड़की खोल कर कहते—मैं अभी खिड़की से कूद कर प्राण दे दंूगा । सब लोग सहम जाते कि न जाने गुस्से में क्या कर बैठंे । कहा बताया जाता है कि एक बार न्यास की बैठक में दरवाजे के पास जमीन पर लेट गये— ‘‘आपको अगर मेरी बात मंजूर नहीं तो मेरे सीने पर पैर रख कर निकल जाइये ।’’ कभी कभी उनके न चाहने पर भी कुछ ऐसे निर्णय हो जाते जो उन्हें स्वीकार न होते । वह लम्बे समय तक उसका दंश महसूस करते । वह किसी से डरते नहीं थे, मुंहफट और उद्दंड इतने कि किसी की पगड़ी कभी भी उछाल सकते थे । एक बार एक पार्टी में न्यास का एक सदस्य अभिवादन की मुद्रा में उनके सामने पड़ गया । उनका दृढ़ मत था कि वह व्यक्ति न्यास की सदस्यता के योग्य नहीं है । उसे देखते ही उनका पारा चढ़ गया, चिल्ला कर बोले— ‘‘मेरे सामने से हट जाइये, मैं आपका चेहरा देखना नहीं चाहता ।’’ उनका दावा था कि वह कभी झूठ नहीं बोलते । हमेशा सच का साथ देते हैं । शायद यही कारण था कि बचपन में कोई भी उन्हें अपनी टीम में नहीं रखता था, उनका अपना भाई भी नहीं । उनकी अपनी टीम का कोई सदस्य खेल में आउट हो जाता तो, सबसे पहले वही कहते— आउट । टीम के शेष सदस्य कितनी भी जिरह करें, मगर उन्होंने देख लिया तो सच का ही साथ देंगे, उनकी टीम चाहे हार जाये । उनके शब्दों में कहूँ तो ‘चाहे भाड़ में जाये’!

 कोलकाता में परिषद में आते तो मुझसे केवल ज्ञानपीठ की बेहतरी के लिए सोचे गये उपायों पर बात करते । ए, ए़ए बी़, बी–1 तो उनका प्रिय शगल था ही । दिल्ली लौट कर भूल जाते, कभी फोन नहीं । मुलाकात परिषद तक ही सीमित थी— अपनी लस्टम पस्टम चाल से धीरे धीरे चलते हुए कभी कभार प्रकट हो जाते । जब एक बार दिल्ली से उनका फोन आया तो मैं चैंक गया— ‘‘मैं आलोक जैन बोल रहा हूँ ।’’ 

 ‘‘नमस्कार आलोकजी ।’’ मैंने कहा ।

 उन्होंने जैसे मेरी बात सुनी ही नहीं, बोले— ‘‘ध्यान से मेरी बात सुन लीजिए मां कसम, मैं आपको ज्ञानपीठ का निदेशक नहीं बनने दंूगा ।’’

 ‘‘आपको भ्रम हो गया है ।’’ मैं कुछ और कहता, इससे पहले ही वह फोन बंद कर चुके थे । अचानक फोन बंद कर देना भी उनकी निराली अदा थी । बाद के वर्षों में मैं उनकी किसी बात से सहमत न होता अथवा तर्क करता तो वह अचानक फोन बंद कर देते । घंटों बतियाना और अचानक किसी बात से असहमत होते ही बगैर तर्क किये फोन बंद कर देना उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया होती । अगले रोज वह एकदम सामान्य नजर आते । दरअसल, वह बर्दाश्त ही नहीं कर सकते थे कि कोई उनकी बात काटे या अस्वीकार करे । उन्हें बोलना अधिक भाता, सुनना कम ।

 जाने दिल्ली में क्या पक रहा था कि आलोकजी द्वारा ज्ञानपीठ की सड़क पर मेरे लिए ‘नो एंट्री’ की बाधा खड़ी कर दी गयी थी । वहां जाने का मेरा कोई इरादा या महत्वाकांक्षा भी न थी । मैं इसी उधेड़बुन में था कि आलोकजी ने ऐसा क्यों कहा । भीतर ही भीतर मैं उन्हें कहीं पसंद भी करने लगा था । उनकी धमकी मुझे बहुत नागवार गुजरी । बात आयी गयी हो गयी । उस बीच न वह कोलकाता आये और न ही उनका कोई फोन मिला । मैं भी एक दु%स्वप्न की तरह उनकी बात भूल गया । दिल्ली से अचानक एक दिन मेरे मित्र कन्हैयालाल नंदन का फोन मिला । नंदनजी से मेरे चालीस पैंतालिस साल पुराने सम्बंध थे । ‘धर्मयुग’ बम्बई में वह मेरे वरिष्ठ सहयोगी थे । गाहेबगाहे हम लोगों का सम्पर्क होता रहता था । वह जब कभी भी कोलकाता आते, मिले बगैर नहीं लौटते । जब तक दिनमान के सम्पादक रहे, मैं उनके लिए लगातार ‘इतिश्री’ स्तम्भ नियमित रूप से लिखता रहा । ‘सारिका’ में थे तो मेरा सक्रिय सहयोग था । मेरे पहले उपन्यास ‘खुदा सही सलामत है’ का ‘सारिका’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशन होता रहा । शुरू में ‘धर्मयुग’ से दिल्ली बुला कर उन्हें ‘पराग’ के सम्पादन की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी और उन्होंने मुझसे बच्चों के लिए भी लिखवाया । उस दिन सुबह सुबह नंदन जी का फोन आने का मतलब मेरी समझ में यह आया कि उन्हें कोई नयी जिम्मेदारी प्राप्त हुई होगी । उन्होंने फोन पर बताया कि— ‘‘तुम्हारे लिए समाचार है । तुम्हें तत्काल दिल्ली बुलवाने का काम मुझे सौंपा गया है, आज कोलकाता से जो फ्लाइट मिले, पकड़ कर दिल्ली चले आओ ।’’

 ‘‘दिल्ली में क्या है, क्यों बुला रहे हैं आप ?’’

 ‘‘ज्ञानपीठ के निदेशक के रूप में तुम्हारे नाम पर विचार हो रहा है । वे लोग तुमसे तत्काल मिलना चाहते हैं ।’’

 मैंने उन्हें आलोकजी की बात बतायी ।

 ‘‘उनकी चिन्ता न करो, बस आ जाओ । दिल्ली में एयरपोर्ट पर मिलंूगा और तुम्हें लिवा ले जाऊंगा । चाहो तो शाम की फ्लाइट से लौट भी सकते हो ।’’ वह बोले ।

 उस रोज तो नहीं अगले रोज दोपहर तक मैं नंदन जी के साथ था । नंदन जी मुझे लिवा ले गये । आधे घंटे में हम लोग मुक्त हो गये । मुझसे पूछा गया था कि जल्द से जल्द मैं कब तक ज्ञानपीठ ज्वाइन कर सकता हूँ ।

 ‘‘अत्यंत नाटकीय ढंग से चीजें हो रही हैं ।’’ मैंने नंदन जी से कहा— ‘‘मैं तो कोलकाता में रच बस गया था ।’’

 तभी टेलीफोन की घंटी ने ध्यान भंग किया । फोन आलोकजी का था । फोन खोलने में मैं हिचकिचा रहा था, मगर मैं उनके प्रति सामान्य भाव बनाये रखना चाहता था । इस समय वह आक्रामक नहीं थे । मेरी दिल्ली यात्रा को अत्यंत गोपनीय रखा गया था । जान कर ताज्जुब हुआ कि आलोक जी को इसकी जानकारी हो गयी कि मैं दिल्ली में हूँ । वह अत्यंत तटस्थ भाव से पूछ रहे थे— ‘‘दिल्ली में आप कहां ठहरे हैं ?’’

 ‘‘अभी तो सड़क पर हूँ । कुछ तय नहीं किया ।’’

 ‘‘आपको इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में ठहरना चाहिए ।’’ उन्होंने कहा । और फोन बंद कर दिया । मैंने नंदन जी को बताया । वह मुसकरा भर दिये । अगले दिन मैं कोलकाता में था । अत्यंत नाटकीय रूप से मैं कोलकाता से दिल्ली चला आया । दिल्ली से मुम्बई और मुम्बई से इलाहाबाद भी इसी अंदाज से पहुंचा था । चैदह तारीख तक मैंने कोलकाता में काम किया था और पंद्रह को दिल्ली में काम पर तैनात था । दिल्ली में आलोकजी से अक्सर भेंट हो जाती । शुरू शुरू में वह मुझसे नाराज तो नहीं, रूठे रूठे से रहते । मैंने पाया कि यह उनके स्वभाव में था । जो हो चुका होता, उसे भूल जाते । धीरे धीरे खलिश भी दूर हो जाती । वह ज्ञानपीठ कार्यालय आते तो सीधे मेरे कमरे में ही चले आते । उनकी सांस फूल रही होती । वह धम्म से कुर्सी पर गिरते और आंखें बंद कर लेते । देर तक पेट पर एक हाथ रख कर कुछ देर हांफते रहते । सांस सामान्य होने पर कहते— ‘‘एक कॉफी मंगवाइये ।’’

 स्वस्थ होने पर वह जेब से कागज का एक पुर्जा निकालते और कहते, आज की हमारी बातचीत का एजेण्डा इस प्रकार है । एजेण्डे में अधिसंख्य ऐसे बिन्दु होते जिन पर निर्णय लेना मेरे अधिकारक्षेत्र से बाहर होता । इसी दौरान अगर फोन की घंटी बज जाती तो वह उखड़ जाते और कहते— ‘‘फोन स्विच ऑफ कर दीजिए ।’’ लैण्डलाइन से काल आती तो कहते रिसीवर उठा कर रख दीजिए और ऑपरेटर से बोल दीजिए कि जब तक आलोकजी बैठे हैं, आपको लाइन न दे । मैं अपना फोन ‘एअरप्लेन’ मोड में कर देता और बात आगे बढ़ाता, वह मेरी बात काट कर कहते— ‘‘पहले ऑपरेटर से बोलिए ।’’ मीटिंग कम से कम एक घंटे से ज्यादा ही चलती । हर मीटिंग में चर्चा के वही बिन्दु रहते । ज्ञानपीठ पुरस्कार की राशि कितनी बढ़ायी जाये । एकाउंट्स से बैलेंसशीट मंगवाते, पढ़ते और आग बबूला हो जाते—यह फर्जी बैलेंस शीट है । गुस्से में आकर फाड़ देते या बड़ी हिकारत से मेज पर सरका देते । उनकी टिप्स पर रहता कि ज्ञानपीठ की कितनी वार्षिक आय है, कितने खर्च हैं, बिक्री की सही राशि उनकी अंगुलियों के पोर पर रहती । किस राज्य में कितनी बिक्री हुई, किस किस राज्य में बिक्री कम हुई, कौन प्रतिनिधि कैसा काम कर रहा है, वगैरह, वगैरह । वह हमेशा अपडेट रहते । सरकारी बिक्री पर भी उनकी नजर रहती । महीने में एकाध बार तो वह संस्कृति मंत्रालय के सेक्रेटरी से मिल आते । एक बार पुस्तक मेले में भूले भटके किसी मंत्रालय का एक उच्च अधिकारी जो पुस्तक खरीद का इंचार्ज भी था, जिसकी अन्य प्रकाशकों ने खूब आवभगत की थी और उपहारों से लाद दिया था, ज्ञानपीठ के स्टाल पर भी चला आया । आलोकजी को खबर की गयी और ज्ञानपीठ का विक्रय अधिकारी श्रद्धापूर्वक उस विशिष्ट अधिकारी को आलोकजी के कक्ष में ले गया । आलोकजी पुस्तक मेले में आने से पूर्व हल्दीराम से काजू और मिष्ठान्न मंगवा कर रखते थे । चाय, कॉफी और शीतल पेय का भी प्रबंध रहता था । आलोकजी ने उस अधिकारी को सम्मानपूर्वक चाय नाश्ता करवाया । बातचीत में अचानक जाने क्या हुआ कि वह इस अधिकारी से बोले— ‘‘ज्ञानपीठ में घूस देने का कोई प्रावधान नहीं है और आप बगैर घूस लिए पुस्तकों की खरीददारी करते नहीं । यही कारण है कि अन्य प्रकाशकों की तुलना में हम हमेशा सरकारी खरीद में मात खा जाते हैं ।’’ वह अधिकारी आलोकजी की बातें सुन कर सन्न रह गया और तुरंत खड़ा हो गया— ‘‘आप घर बुला कर मेरा अपमान कर रहे हैं । हमारे यहां यह सब नहीं चलता ।’’

  ‘‘यही सब चलता है आपके यहां ।’’ आलोकजी कहां दबने वाले थे— ‘‘आप सा भ्रष्ट अधिकारी आपके पूरे मंत्रालय में न होगा । मैं आपके मंत्री को आपकी सब काली करतूतें बताऊंगा ।’’ उस अधिकारी ने तमाशा खड़ा करना उचित न समझा और बगैर दायें बायें देखे, स्टॉल के बाहर हो गया ।

 दरअसल आलोकजी परिस्थितियों की नजाकत को समझते हुए भी अपने पर नियंत्रण न रख पाते थे । खरी बात कहने में कितना भी जोखिम उठाना पड़े, उठा लेते थे । वरना उनकी आत्मा कसमसाती रहती । पेट में गैस पैदा होने लगती, सीने में जलन । कई बार मुझसे कह चुके थे कि वह बहुत बदतमीज और बदजुबान आदमी हैं । वैसे मुझे यह सब बताने की कोई आवश्यकता नहीं थी, मैं रोज ही उनके गर्म, नर्म, विनम्र और उद्दंड व्यवहार को देखा करता था । शुरू शुरू में उन्होंने मुझ पर भी इसकी आजमाइश करने की कोशिश करनी चाही थी, मैंने तुरंत टोक दिया था— ‘‘मुझसे सामान्य पिच पर बातचीत करें ।’’

 वह कुछ नहीं बोले और उठ कर चल दिये । दरवाजा अपने आप बंद हो जाता था । वह ‘नाउ़ ऑर नेवर’ यानी अभी या कभी नहीं में विश्वास रखते थे । रात को बारह बजे भी कोई काम याद आ जाता तो उनकी कोशिश रहती कि अभी निपटा दें । देरसबेर एसएमएस कर देते । एक दिन कार्यालय में महिला निजी सचिव ने हंसते हुए बताया कि एक दिन सास ने उससे पूछा कि आ/ाी रात को तुम्हें कौन एसएमएस करता रहता है ? वास्तव में उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि उनकी कड़वी से कड़वी या नागवार लगती बात को लोग हंस कर टाल देते थे ।

 एक बार उन्हें पुस्तक खरीद के सिलसिले में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से मिलने जाना था । उनकी इच्छा थी कि मैं भी उनके साथ चलंू, उन्होंने बहुत बार यह प्रयास किया था, मगर मैं उनका सहायक बन कर किसी से मिलने नहीं जाना चाहता था और न ही गया । आखिर शीलाजी के यहां वह विक्रय अधिकारी को ले गये । तपन तो साये की तरह उनके साथ रहता ही था, जो बीच में आ आकर उन्हें पानी या दवाएं देता रहता, दरअसल बाहर निकलने में उन्हें आनंद तब आता था जब दो चार लोग उनके साथ रहें । आलोकजी की मीटिंग के अगले रोज विक्रय अधिकारी ने मुझे बताया कि नियत समय पर शीलाजी कमरे में नहीं आ पायीं, बाहर लॉन में जनता से मिलती रहीं । आलोकजी ने दस मिनट तक प्रतीक्षा की और खड़े हो गये । वहां तैनात अधिकारी सकते में आ गये— मैम ने कह रखा है कि आलोकजी के आते ही उन्हें सूचित कर दें । उनको खबर कर दी गयी है । बस आती ही होंगी । आप बैठें । आलोकजी बैठ गये और पांच मिनट के बाद फिर खड़े हो गये । अधिकारी भागा भागा आया । आलोकजी ने पंचम स्वर में उसे इस तरह डांट पिलायी कि उनकी आवाज पूरे परिसर में गंूजने लगी । वह गुस्से से गुर्राते हुए बाहर निकल आये और अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ गये । देखते देखते दो, तीन अधिकारी उनके पीछे भागे— ‘‘मैम आ गयी हैं, आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं ।’’ आलोकजी ने उन्हें झटक दिया और गाड़ी में बैठते ही संजय को चलने का इशारा किया । गाड़ी में प्राय% वह ड्राइवर की बगल में बैठते थे । संजय ने बताया, गाड़ी में बैठते ही फोन टनटनाया, उन्होंने फोन स्विच ऑफ कर दिया । हालांकि जल्द ही समय तय करके उनकी शीलाजी से मुलाकात हुई थी । बिक्री अधिकारी ने बताया था कि वह साल में दो एक बार शीलाजी से मिलने जरूर जाते हैं । शीलाजी शिक्षा सचिव को भी बुला लेती हैं । शिक्षा सचिव खरीद का वादा करते हैं, जाने क्या हो जाता है कि दिल्ली सरकार से कभी मनमाफिक आदेश न मिल सका । केन्द्रीय खरीद में ज्ञानपीठ को साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट के समकक्ष रखवाने में वह कई बार सफल चुके थे, मगर सेक्रेटरी के तबादले के साथ पिछले सचिव के आदेश निरस्त हो जाते । पिछले दिनों मलयालम दैनिक मातृभूमि के एक समारोह में पूर्व संस्कृति सचिव कुमार साहब से अचानक केरल में भेंट हो गयी । वह संस्कृति सचिव के पद से अवकाश ग्रहण कर चुके थे । मुझसे मिलते ही बोले— आलोकजी आपकी बहुत चर्चा करते थे ।

 ‘‘आपकी भी ।’’ मैंने कहा ।

 ‘‘इतनी दीर्घ सेवा में जो चार छह लोग याद रहेंगे, उनमें आलोकजी भी हैं । कितना दिलचस्प किरदार था उनका । ज्ञानपीठ और पुस्तकों के प्रति ऐसा जुनून मैंने किसी में नहीं देखा था ।’’ वह देर तक आलोकजी की प्यारी प्यारी बातें बताते रहे— उन्होंने बताया कि आपको मालूम न होगा, उन्हें देशी विदेशी फूलों के बारे में भी बहुत जानकारियां थी । उन्हें मेरा नमस्कार दीजियेगा ।

 एक बार पुस्तक खरीद को लेकर केन्द्र सरकार ने कुछ ऐसे नीतिगत फैसले किये कि पूरा प्रकाशन जगत असंतुष्ट हो गया । आलोकजी ने तय किया कि वह तमाम प्रमुख प्रकाशकों की एक बैठक बुला कर इस पूरे प्रकरण पर विचार विमर्श करेंगे और सरकार को एक ज्ञापन देंगे । सबसे पहले उन्होंने हिन्दी के सबसे प्रमुख प्रकाशक को आरम्भिक बातचीत के लिए आमंत्रित किया । ज्ञानपीठ में उनका अपना कोई कक्ष नहीं था । प्रबंध न्यासी का कमरा और मेरा कमरा उनके लिए उपलब्ध रहता था । प्रबध न्यासी के कमरा को वह तब इस्तेमाल करते जब उन्हें प्रबंध न्यासी की निजी सचिव से न्यासियों को अंग्रेजी में लम्बे लम्बे पत्र लिखवाने होते अथवा मंत्रियों सचिवों को पत्र लिखवाना होता । उनकी अंग्रेजी की जानकारी इतनी अच्छी थी कि बड़े बड़े अंग्रेजीदां हैरत में आ जाते । अंग्रेजी पर उनका जबरदस्त अधिकार था । मेरे कमरे का वह साहित्यिक प्रकाशकीय गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करते । हिन्दी के प्रमुख प्रकाशक से उनकी भेंट मेरे कमरे में ही सुनिश्चित की गयी । आलोकजी ने पैड पर जो बिन्दु लिखे हुए थे— उन्हीं पर चर्चा केन्द्रित थी । अचानक प्रकाशक की तरफ से एक ऐसा प्रस्ताव आया जो आलोकजी को स्वीकार नहीं था— ‘‘देखिये, यह आपके लिए तो ठीक है परंतु ज्ञानपीठ के लिए नहीं ।’’

 ‘‘ऐसा क्या है ?’’ उसने जिज्ञासा प्रकट की ।

 ‘‘देखिए, इस पर आप ही अमल कर सकते हैं हम नहीं । आप तो लेखकों को रायल्टी देते नहीं, देते हैं तो आधी अधूरी । हम तो ऐसा नहीं करते ।’’

 प्रकाशक बहुत विनम्र स्वभाव का व्यक्ति था । मुश्किल से ही जुबान खोलता था । मौनी बाबा था । बहुत विनम्रता से बोला— ‘‘आलोकजी आप सही नहीं कह रहे हैं । दुबारा कहियेगा भी मत ।’’ उसने नमस्कार किया और बीच मीटिंग से बहिर्गमन कर गया ।

 आलोकजी ने मेरी तरफ देखा और निहायत मासूमियत से बोले— ‘‘क्या वह सही कह रहा था ?’’ आलोकजी किसी की बात सुनने के अभ्यस्त नहीं थे । वह सिर्फ और सिर्फ अपने दिल की आवाज सुनते थे । सुनते ही नहीं थे, उसे सही भी मानते थे । प्राय% वह प्रवाह के विरुद्ध तैरते । कोई लालच, कोई प्रलोभन उन्हें अपने पथ से विमुख नहीं कर सकता था । यह दूसरी बात है कि उनके प्रिय लोगों ने उन्हें खूब ठगा, उन्हें करोड़ों रुपयों का चूना लगा दिया । कई बार बहुत मजबूरी में आलोकजी भी यह जानते हुए कि वह निभा नहीं पायेंगे, झूठा वायदा कर लेते ।

 जाने कौन सी घुट्टी पीकर उनका जन्म हुआ था कि साहित्यकारों के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी । अंत तक कोशिश करते रहे कि ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेताओं के लिए खेल गांव में सरकार से एक बंगला लीज पर ले लें । उन्होंने ज्ञानपीठ से फैलोशिप की योजना इस मंतव्य से शुरू करवायी कि कुछ लेखकों की मदद हो जायेगी । बहुत से लोगों ने फैलोशिप के दौरान काम भी किया, ऐसे भी थे, जो फैलोशिप की मासिक रकम की प्रतीक्षा तो करते मगर काम करने से कतराते थे । फैलोशिप के कारण कई उत्तम पुस्तकें प्रकाश में आयीं ।

 एक दिन जैनेन्द्र जी की बड़ी बिटिया कुसुमजी ने अपने निवास स्थान पर एक साहित्यिक संध्या का आयोजन किया था । आलोकजी के अनुरोध पर मैं भी पहुंच गया । घर का वैभव देख कर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ कि एक लेखक की बिटिया इतने प्राइम लोकेशन पर इतने विशाल बंगले में इतने वैभव में रह रही है । कुसुमजी की मित्र मंडली के तमाम लेखक लेखिकाएं मौजूद थे । बीच गोष्ठी में मेरे फोन में कंपकंपाहट हुई, मैंने बाहर जाकर फोन सुना । कुणाल था फोन पर । वह जे–एन–यू– में शोध कर रहा था, वहीं हॉस्टल में रहता था । वहां के डॉक्टरों की समझ में उसका पेटदर्द नहीं आ रहा था, उसे मैक्स हस्पताल में भर्ती करा दिया गया था । साथ में उसके दो एक मित्र थे । जांच से पता चला उसके पेट में मवाद भरा है । मवाद निकलवाने में बड़ा खर्चा था, उसकी जेबें खाली थीं । दोस्त लोग भी हैरान परेशान । आखिर मुझे फोन किया गया । मेरे लाइन पर आते ही कुणाल क्रंदन करने लगा ।

 ‘‘धैर्य रखो, मैं कुछ करता हूँ ।’’ मैंने कहा ।

 भीतर लौट कर मैंने आलोकजी से कहा— ‘‘जरा बरामदे तक चल कर मेरी बात सुन लीजिये ।’’

 वह तुरंत खड़े हो गये । मैंने सारी स्थितियां बतायीं । उन्होंने क्षण भर कुछ सोचा और वहीं से मेरे साथ चल दिये । भीतर जाकर विदा लेने की जरूरत भी उन्होंने महसूस नहीं की । मैंने इशारे से ममता को भी बुला लिया ।

 अस्पताल के काउंटर से ही उन्होंने कार्यवाही शुरू कर दी । डॉ– का फोन नम्बर नोट कर लिया— ‘‘पता लगाइये, डॉ– अस्पताल में हों तो तुरंत वार्ड में पेशेण्ट के पास पहुंच कर मुझसे बात करें ।’’ डॉ– दौड़ा दौड़ा आया कि कौन वी–आई–पी– आ गया जो तुरंत मिलना चाहता है । डॉ– ने पहुंचने में देर न की । आलोकजी ने दोनों हाथ जोड़ कर उसका अभिवादन किया और डॉक्टर के साथ बात करते करते थोड़े फासले पर चले गये । डॉ– से कहा कि मेरे एकाउंट में फौरन इलाज शुरू कर दीजिए । मालूम नहीं, मैक्स में उनका कोई हिसाब किताब चलता था या नहीं । डॉ की उपस्थिति में ही उन्होंने मैक्स के एम–डी– की बिटिया से बात की । डॉक्टर ने स्टाफ को एलर्ट किया । जूनियर डॉक्टरों और नर्सों का जमघट लग गया । आलोकजी की हर बात और जिज्ञासा का वह एक ही जवाब देता— जी सर । आलोकजी के बड़े लोगों से जान पहचान का दायरा बहुत व्यापक था । वह झट से कोई न कोई परिचय निकाल लेते । मुझे ही जब अपोलो अस्पताल में कमरा नहीं मिल रहा था तो आलोकजी ने सीधे चेयरमैन रेड्डी साहब को फोन करके न सिर्फ कमरा दिलवा दिया बल्कि डॉक्टरों से भी बात कर ली ।

 अगले रोज कुणाल के पेट से बोतल भर मवाद निकाला गया । आलोकजी ने इस बीच साहू जैन न्यास से भुगतान की व्यवस्था करवा दी थी । न्यासियों में बहुधा वह अकेले पड़ जाते थे, मगर अपनी ठसक और जिद से काम निकलवा लेते । ज्यादातर लोग उनसे उलझने में कतराते थे । अगर किसी की कोई बात उन्हें खटक जाती तो वह आसानी से मुआफ नहीं थे । वह बात उनके लिए जीवन मरण का प्रश्न बन जाती । वह शख्स अगर उनसे बात करने की कोशिश करता तो तुरंत टोक देते— मैं आप से बात नहीं करना चाहता । ज्यादा नाराज होते तो यह कहने में संकोच न करते कि मैं आपका चेहरा भी नहीं देखना चाहता । जिसे चाहते थे, उसे बेपनाह चाहते थे, जिसे नापसंद करते थे, डंके की चोट से इसकी घोषणा करते रहते थे— मैं उसे भस्म कर दंूगा ।

 रचनाकारों के प्रति उनका व्यवहार मित्रतापूर्ण था । मैंने किसी भी लेखक के बारे में उन्हें अशोभन टिप्पणी करते नहीं सुना । ओमप्रकाश बाल्मीकि से जीवन में कभी नहीं मिले होंगे, जब मालूम चला कि वह लाइलाज रोग की चपेट में आ चुके हैं और वह आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं तो साहू जैन ट्रस्ट से तुरत फुरत दो लाख रुपए की तत्काल सहायता का प्रबंध करा दिया । अमरकांत संकट में थे तो उनके लिए कुछ धनराशि भिजवा दी । कोई रचनाकार बीमार हुआ तो उसकी खोज खबर लेते रहते । अस्वस्थ होते हुए भी मिजाजपुर्सी के लिए पहुंच जाते । अपनी तबीयत खराब होती तो चुपचाप अस्पताल में भर्ती हो जाते । अक्सर नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट में । यह प्रतिष्ठित अस्पताल उनके परिवार ने ही बनवाया था । वहां भी वह किताबों की संगत में रहते । बीमारी में वह अपने बिस्तर के आसपास जैन पूजांजली नामक पुस्तक जरूर रखते । कैलाश वाजपेयी उनके बहुत पुराने मित्र थे और उन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था । शायद उन्हीं के परामर्श से लगातार महामृत्युंजय का पाठ सुनते रहते । किताबें पढ़ने पर उनकी आंखों पर बहुत स्ट्रेन पड़ता था, उनकी कोशिश रहती थी कि कोई उन्हें पढ़ कर सुनाता रहे ।

 किताबें सुनाने के लिए वह किसी न किसी को पार्ट टाइम काम पर भी रख लेते । सुनाने वाला कोई उच्चारणगत भूल कर बैठता तो तुरंत उसकी छुट्ी कर देते । जब उनके पास सुनाने के लिए कोई न होता तो वह ज्ञानपीठ से कुमार अनुपम को बुलवाते । उन्होंने दो एक व्यक्ति इस काम के योग्य पाये थे, जो पाठ के साथ साथ उन्हें यह भी बता सकते थे कि कौन सी किताब ए प्लस है और कौन सी बी प्लस । यदि पढ़कर सुनाने के लिए कोई न मिलता तो एक आंख बंद कर बहुत नजदीक से पढ़ते । खाली वह एक मिनट नहीं बैठ सकते थे । करने को कुछ न होता तो फोन पर जुट जाते । उनका मन होता तो किसी मंत्री से भी बात कर लेते । नये से नये लेखकों से उनका सम्पर्क रहता । उन्हें खबर रहती कि कौन युवा रचनाकार क्या लिख रहा है । मैं ‘ज्ञानोदय’ का सम्पादन करता था, मगर कई बार उनकी जानकारी मुझसे अधिक अद्यतन होती । कई बार उनका कोलकाता जाने का कार्यक्रम होता, सीट कन्फर्म होतीं, मगर वह फ्लाइट छोड़ देते कि आज जाने का मन नहीं है । कई बार तो हफ्ता दस दिन लगा कर किसी अतिविशिष्ट व्यक्ति से मिलने का समय लेते और ऐन मौके पर फोन करवा देते कि आज आलोकजी नहीं आ पायेंगे ।

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रवीन्द्र कालिया: बेचैन रूह का मुसाफिर (आलोक जैन -1) Ravindra Kalia


बेचैन रूह का मुसाफिर - 1

रवीन्द्र कालिया

संस्मरण 

 वरिष्ठ कथाकार रवीन्द्र कालिया अपने संस्मरण के लिए भी कम प्रसिद्ध नहीं हैं । उनकी अप्रतिम कृति ‘गालिब छुटी शराब’ का पाठक समुदाय पर अमिट असर है । एक लम्बे अंतराल के बाद उनका ताजा संस्मरण ।
(अखिलेश, तद्भव 31)



Bechain Rooh Ka Musafir, Sansmaran Alok Jain - Ravindra Kalia

रवीन्द्र कालिया जी की लेखन शैली की ... बड़ाई के लिए शब्द नहीं मिलते - क्या कहूं - जब उनके लिखे को पढ़ता हूँ. संस्मरण लिखने की अद्भुत कला है उनके पास... आलोक जैन जी से उनका (और ममताजी का) मोहात्मक रिश्ता रहा है - मुझे याद है किस तरह आलोक जी ने मुझ से एक कार्यक्रम में कहा - "मेरी और ममता की तस्वीर खींचो" ... मैंने उस यादगार तस्वीर में रवीन्द्र जी को भी (उनके मना करने पर भी) शामिल कर लिया - अच्छा किया. आलोकजी का देहांत कालियाजी के लिए बहुत दुखद रहा... साहित्य के लिए अपना सबकुछ न्योछावर करने वाले आलोक जी की शांति-सभा में साहित्य जगत से उससुबह  सिर्फ ममता जी और रवीन्द्र जी ही नज़र आये थे... यही रीत है ?  आलोकजी के देहांत के बाद रवीन्द्र जी कई महीनों तक उनपर संस्मरण लिखते रहे, जब भी पूछता तो कहते 'लिख रहा हूँ यार' - और क्या ही अद्भुत लिखा है - 
अखिलेश जी को आभार -  'तद्भव' में प्रकाशित 'बेचैन रूह का मुसाफिर' - तीन कड़ियों में से पहली आप सब के लिए ...
भरत तिवारी 

बेचैन रूह का मुसाफिर - 1

कोई उनसे परिचित हो या न हो, उनके बारे में किस्सों से जरूर दो चार हो जाता था । ये किस्से रुई के फाहों की तरह हवा में उड़ते रहते थे । लोग रस लेकर सुनते थे और उनमें थोड़ा और नमक मिर्च लगा कर वातावरण में पुन: छोड़ देते थे । ये आवारा किस्से मुझ तक भी पहुंचे, इससे कहीं पहले जब मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई । मिलने पर लगा कि तमाम किस्से किसी मनचले किस्सागो ने फैलाये हैं । ये किस्से उस परिवार से ताल्लुक रखते थे, जो अपने समय में औद्योगिक जगत का सबसे चमकीला सितारा था । अपने समय के शीर्ष धनाढ्य परिवारों में से एक । उन दिनों अम्बानी, अदानी आदि का उदय नहीं हुआ था । परिवार का विभाजन हुआ तो इनके हिस्से सत्रह सौ करोड़ की परिसम्पत्तियां आयीं, जिनमें एशिया या देश की सबसे बड़ी सीमेण्ट फैक्टरी तो थी ही इसके अलावा कागज, जूट आदि के कल कारखाने भी थे, राजस्थान, बिहार और बंगाल तक जिनका विस्तार था । उन्हें मां का इतना लाड़ प्यार मिला कि उनकी बड़ी से बड़ी खता भी नजरअंदाज कर दी जाती । उनकी उदारता, सदाशयता, करुणा, भारतीय दर्शन, साहित्य, संस्कृति और कला के प्रति अनुराग के साथ साथ अहमन्यता और अहंकार को भी लोगबाग भूलते नहीं । कोई नहीं जानता कि ये स्थापनाएं कहां तक दुरुस्त थीं, मगर इतना तय है कि परिवार की साख को पचास साठ वर्ष बाद आज भी महसूस किया जा सकता है । फिलहाल वातावरण में खुश्क पत्तों की तरह उड़ते ऐसे किस्सों को जान लेना गैरजरूरी न होगा ।

‘‘एक किताब लिख कर ए क्लास लेखक बनना बहुत मुश्किल है । इस गरिमा को पाने के लिए रचनाकार को लगातार रियाज करना पड़ता है, एक उच्चकोटि के गायक की तरह ।’’ - आलोक जैन


सुनने में आया कि साठ के दशक में वह बम्बई (अब मुम्बई) की अपने समय की सबसे प्रसिद्ध सिने तारिका के प्रेम में पड़ गये । उनके स्वभाव को देखते हुए कुछ लोग उन्हें चरमपंथी (यानी एक्सट्रीमिस्ट) भी कहते हैं । प्यार हो या नफरत वे तमाम सीमाएं लांघ सकते थे । ऐसे शख्स का किसी अभिनेत्री से प्रेम हो जाये तो इस प्रेमप्रसंग का हश्र क्या होगा ? जाहिर है, कुछ ऐसा होगा जो अभी तक न हुआ होगा और न शायद निकट भविष्य में होगा । हिमाचल या कश्मीर की वादियों में जहां कहीं उक्त अभिनेत्री की शूटिंग होती, एक चार्टर्ड विमान पहुंचता और गुलाब की पंखुड़ियां बिखरा कर लौट आता । अपने समय का यह सबसे प्रचंड प्रेमप्रसंग माना जाता है । इसका अंजाम क्या हुआ, कोई नहीं जानता––– न नायक ने आत्महत्या की न नायिका ने । दोनों गार्हस्थ्य की शरण में चले गये । उस तारिका का प्रसंग आने पर वह बोले— वह तो मेरी बहन की तरह थी । इस पर इन पंक्तियों के लेखक का चुप हो जाना ही उचित था ।

उनका क्रोध भी जगजाहिर था । वह आग की लपट की तरह कभी भी तनबदन को राख कर सकता था । क्रोध में वह आपको जला कर राख कर सकते थे । किसी से क्रुद्ध होते तो कहते— मैं उसे भस्म कर दूंगा । कई बार लगता था कि वह किसी को क्षमा नहीं कर सकते थे, जबकि हर वर्ष पर्यूषण के अवसर पर नियमित रूप से सार्वजनिक तौर पर मित्र अमित्र सब को एस–एम–एस के जरिए संदेश प्रेषित करते— ‘पर्यूषण पर्व के पावन अवसर पर जाने अनजाने हुई किसी भी भूल या गलती के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ।’ होली, दीवाली, वसंत, कहने का अभिप्राय यह है कि वह शुभकामनाएं प्रेषित करना नहीं भूलते थे । अपने कारपोरेट दफ्तर में एक अधिकारी से बात करते हुए उसके कपड़ों पर नजर गयी तो पाया— शर्ट के कालर पर मैल की तह जम रही थी, शर्ट का रंग भी बदरंग हो चुका था । अधिकारी उनका प्रिय कर्मचारी था । जी–एम– को बुलवा भेजा और ताकीद की कि ‘इन्हें दो तीन सेट नये औपचारिक ड्रेस और जूते दिलवा दें । मैं हर कर्मचारी को स्पिक एंड स्पैन देखना चाहता हूँ ।’ अगले रोज जब उक्त कर्मचारी धन्यवाद ज्ञापन करने आया तो उसे देख इतना प्रसन्न हो गये कि बतौर उपहार एक साथ तीन इन्क्रीमेण्ट्स दे दिये ।



वास्तव में वह क्रुद्ध होते तो अति क्रुद्ध, उदार होते तो अति उदार, इतने उदार कि उनके बारे में कहा बताया जाता था कि जाड़े में वे ट्रक भर कम्बल बंटवा देते थे । भिखारियों पर विगलित हो जाते तो सिक्के न नोट, नोटों की गड्डियां तक बंटवा देते । दूसरी ओर अहंकार का दौरा पड़ता तो विवेक को ताक पर रख देते । जानकार लोग बताते हैं कि इसी अहंकार और अव्यवहारिकता के कारण वह अर्श से फर्श पर आते चले गये । एक घटना का बार बार उल्लेख सुनने को मिलता था— अपने उद्योग समूह के केन्द्रीय कार्यालय में बैठे थे, खबर मिली कि उनसे भेंट करने प्रदेश के मुख्यमंत्री आ रहे हैं । मुख्यमंत्री पधार चुके थे, मगर वह अपना काम निपटाते रहे । थोड़ी देर बाद संदेश भेजा कि भीतर लिवा लाइये । अपनी मेज पर ही मुख्यमंत्री से मिले, मैनेजर सोफे की तरफ इशारा करता रह गया मगर वह टस से मस न हुए । अभिवादन के बाद मुख्यमंत्री से पूछा— ‘‘कैसे आना हुआ ?’’ मुख्यमंत्री भीतर तक आहत हो गये थे, विनम्रता से उत्तर दिया— ‘‘आपके दर्शन करने चला आया ।’’ संक्षिप्त औपचारिक भेंट के बाद मुख्यमंत्री लौट गये ।

वह ट्रेड यूनियनिज्म का दौर था । सब उद्योगों में असंतोष की चिंगारी सुलग रही थी । उनका औद्योगिक समूह भी इसकी चपेट में आ गया । बातचीत के जरिए समस्याओं को सुलझाया जा सकता था, मगर इन्होंने अचानक तालेबंदी की घोषणा कर दी । मुख्यमंत्री पहले से आहत बैठे थे— समूचे उद्योग समूह पर रिसीवर बैठ गया । काले दिनों की शुरुआत हो गयी । एक एक कर उद्योग बीमार होते चले गये । वातावरण में ऐसी ही कुछ कहानियां तैरती रहती हैं ।

सुनने में तो यहां तक आया कि संजय गांधी जेल में थे तो भोजन इनके यहां से ही जाता था । यही नहीं, एक दिन ऐसे ही किसी मित्र को दो चार लाख रुपए की फौरी जरूरत पड़ी तो चाणक्यपुरी का अपना देश विदेश के बेशकीमती पत्थरों से सुसज्जित निर्माणाधीन बंगला अपने ही जान पहचान के बैंक के नाम गिरवी रख दिया । इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि जब तक वह रकम अदा करते, उससे पहले ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया । दो चार लाख रुपए उनके लिए एक मामूली रकम थी, मगर मामला कुछ ऐसा उलझा कि उलझता चला गया । सैकड़ों करोड़ की वह सम्पत्ति आज भी बैंक के कब्जे में है । स्कॉच की चुस्कियां लेते हुए यह बात बंगले के एक पड़ोसी और उनके रिश्तेदार ने उनका उपहास उड़ाने की मुद्रा में बतायी थी । वास्तव में दीवानगी और बेखुदी के आलम में भी उनके चेतन और अवचेतन में हर वक्त व्यवसाय और उद्योग धंधे नहीं भारतीय ज्ञानपीठ का सपना हमेशा टिमटिमाता रहता था । वह कथा लेखकों, कवियों और समीक्षकों से हमेशा संवादरत रहते थे । किसी को भी किसी भी समय फोन कर सकते थे । उनकी करोड़ों की सम्पत्तियां मुकदमेबाजी में फंसी हुई थीं । मुकदमों के सिलसिले में उन्हें बार बार कोलकाता जाना पड़ता । दिन भर कोर्ट कचेहरी करते, वकीलों से लम्बी लम्बी मीटिंग्स चलतीं । फुरसत पाते ही वह ज्ञानपीठ अभियान में जुट जाते । अचानक एक दिन कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद के परिसर में प्रकट हो गये । मेरी उनसे पहली मुलाकात भाषा परिषद में ही हुई थी । मुझे यह जान कर बहुत अच्छा लगा कि वह ‘वागर्थ’ के बहुत प्रशंसक थे । मेरे सम्पादन में अभी कुछ ही अंक प्रकाशित हुए थे । मुझे लगा, उन्हें अतिशयोक्ति में बात करना ज्यादा प्रिय है । पुस्तक चर्चा उन्हें बहुत प्रिय थी । वे विभिन्न पत्रिकाओं के बारे में अपनी राय व्यक्त करते रहे । मुझे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि उन्हें हिन्दी की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी पत्रिका के बारे में अच्छी जानकारी थी । पत्रिकाओं के बारे में ही नहीं, पुस्तकों के बारे में भी । लंच का समय हो रहा था । ममता उन दिनों भारतीय भाषा परिषद के निदेशक के पद पर थी और मैं ‘वागर्थ’ का सम्पादन करता था । ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री परमानंद चूड़ीवाल जी की इच्छा थी कि हम दोनों परिषद से जुड़ें । फ्लैट का दरवाजा परिषद कार्यालय के गलियारे में ही खुलता था । दोपहर के भोजन के समय ममता घर चली आती थीं । दोपहर के भोजन की मैं तो प्रतीक्षा करता ही था, बगल में मैक्फरसन पार्क के दो एक कौव्वे भी बड़ी बेसब्री से डाइनिंग टेबल के पास खुलने वाली खिड़की से कांव कांव करते हुए ममता को पुकारते । वे वही रोटी खाते जो हम थाली से उठा कर देते । बासी रोटी की तरफ ताकते भी न थे । भोजन के समय खिड़की की सलाखों पर तैनात रहते । उस रोज घर में मेरे साथ वह भी थे । ममता को देखते ही उन्होंने पूछा— ‘‘यह ममता जी हैं ?’’ मेरे हामी भरने पर वह उठे और अभिवादन करते हुए ममता से बोले— ‘‘मैं आलोक प्रकाश जैन ।’’

‘‘नमस्कार आलोकजी!’’ ममता ने उनसे पूछा— ‘‘आप ने भोजन किया ?’’

ममता भी गायबाना तौर पर उनसे भली भांति परिचित थी ।



‘‘नहीं अभी जाकर करूंगा ।’’

‘‘आप हमारे साथ ही भोजन करें ।’’

अप्रत्याशित रूप से वह तैयार हो गये । दफ्तर से घर में प्रवेश करते ही माहौल बदल जाता था । एक तरफ हरा भरा मैक्फरसन पार्क था, दूसरी तरफ सामने थिएटर रोड, जो थोड़ी दूर पर स्थित पार्क स्ट्रीट के समानांतर चलती थी । फ्लैट में ढेर सारी खिड़कियां थीं । दिन भर फर्र फर्र हवा बहती थी । सुबह शाम पक्षियों की चहचहाहट सुनायी देती ।

आलोकजी ने विराजमान होते ही जेब से एक सूची निकाली और बोले—यह हमारे नये सेट की पुस्तकों और लेखकों के नाम हैं । आप इन्हें कैसे रेट करेंगे । ए़,ए,बी़,बी अथवा सी़ अथवा सी । सूची थमा कर वह व्यग्रता से मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहे थे । लेखकों की रेटिंग तो सूची पढ़ कर हो सकती है । पुस्तकें मैंने पढ़ी नहीं थीं ।

‘‘आलोकजी बगैर पुस्तक पढ़े, पुस्तक की रेटिंग करना पुस्तक के साथ न्याय न होगा ।’’

मैंने कहा ।



‘‘नेचुरली ।’’ वह बोले— ‘‘लेखकों से तो आप परिचित होंगे ही, उनकी रेटिंग कैसे करेंगे ?’’

मैं इस जंजाल से निकलता चाहता था, वह लगातार शिकंजा कसते जा रहे थे ।

‘‘आइये पहले भोजन कर लें ।’’ मैंने कहा ।

‘‘आइये आइये ।’’ वह उठ गये । चुपचाप भोजन करते रहे । मैं समझ रहा था भोजन से निपटते ही वह दोबारा उसी विषय पर आ जायेंगे । इससे पहले कि वह कुछ कहते, मैंने अत्यंत मासूमियत से एक प्रश्न उन्हें पेश कर दिया— ‘‘अमुक लेखक की अमुक रचना के बारे में आप क्या सोचते हैं ? ’’

‘‘ए क्लास राइटर बी क्लास बुक ।’’

‘‘क्या बढ़िया मूल्यांकन है आलोकजी ।’’ ममता बोली— ‘‘अमुक लेखक की अमुक पुस्तक पर आपकी क्या राय है ?’’

‘‘बी क्लास राइटर ए क्लास बुक ।’’ वह बोले ।

‘‘क्या सटीक मूल्यांकन है ।’’ मैंने कहा और पूछा— ‘‘आपकी दृष्टि में लेखक नहीं कृति महत्वपूर्ण है ।’’

‘‘यह मैंने नहीं कहा ।’’ उन्होंने तुरंत प्रतिवाद किया— ‘‘एक किताब लिख कर ए क्लास लेखक बनना बहुत मुश्किल है । इस गरिमा को पाने के लिए रचनाकार को लगातार रियाज करना पड़ता है, एक उच्चकोटि के गायक की तरह ।’’

बात दूसरी दिशा की ओर मुड़ गयी । वह विस्तार से बताने लगे कि कैसे उनके घर में रचनाकारों का बहुत जमावड़ा रहता था । अम्मा श्रीमती रमा जैन उनका बहुत आदर सत्कार करती थीं । — दिनकर, पंत, भगवतशरण उपाध्याय, अज्ञेय, भारती आदि अनेक रचनाकारों से अम्मा बहुत स्नेह करती थीं ।



श्रीमती रमा जैन से सन् पैंसठ में कथा समारोह में मुझे भी मिलने का अवसर मिला था, सत्र के बाद उन्होंने मुझे बुलवाया था । उस समारोह में जैनेन्द्र जी वरिष्ठतम रचनाकार थे और मैं कनिष्ठतम । मेरी उम्र मुश्किल से छब्बीस सत्ताइस वर्ष होगी । मैंने आलोकजी को बताया कि मुझसे मिलते ही रमा जी ने कहा था— ‘‘मैं चाहती हूँ, तुम धर्मयुग में बम्बई चले जाओ ।’’ मेरे यह बताने पर कि मैं धर्मयुग से ही आया हूँ तो वह देर तक हंसती रहीं । उन्होंने भारती जी को फोन कर के इस घटना का जिक्र किया था, बम्बई पहुंचने पर भारती जी ने आह्लादित स्वर में बताया था । बातों का रुख अम्मा की तरफ मुड़ गया । मुझे लगा, आलोकजी अम्मा से अत्यंत भावनात्मक रूप से जुड़े थे । लेखन और लेखकों के प्रति अनुराग के संस्कार उन्हें अम्मा से ही मिले होंगे । ममता चुपके से उठ कर दफ्तर की दहलीज लांघ गयी और मैं आलोकजी से बतियाता रहा । मेरे लिए दफ्तर का बंधन था नहीं । मैं कभी कभार ही अपने कक्ष में जाता था । मेरा दफ्तर तो मेरा फोन ही था । आलोकजी कभी घड़ी की तरफ देखते और कभी उस कागज को, जिसमें पुस्तकों के नाम लिखे थे । उन्होंने उस कागज को तहा कर जेब में रखा और फिर निकाल कर कुर्सी पर रख दिया । अपने बाद के वर्षों में मैंने देखा कि वह अपनी जेब में कोई कागज नहीं रखते थे । पर्स, रुपया पैसा, कागज का पुर्जा कुछ नहीं । अगर हाथ में कुछ कागज होते तो वह कहीं न कहीं छोड़ जाते । उनकी जेबें खाली रहती थीं, जो कुछ भी होता वह तपन के पास होता । कागज तो कागज उनके रुपये पैसे भी वही संभालता था । हिसाब किताब भी । उन्होंने जेब से फोन निकाला और एक आंख बंद कर बहुत नजदीक से फोन मिलाया और उठ कर चल दिये । विदा लेना तो दूर उन्होंने पीछे मुड़ कर भी न देखा । यह उनकी अदा थी ।

इसके बाद वह यदाकदा परिषद आने लगे । मुझे दफ्तर में न पाते तो घर चले आते । अगर मैं मिल जाता तो पूछते— ‘‘आप व्यस्त तो नहीं है ?’’

बैठते ही कहते— ‘‘नीचे पुस्तक केन्द्र से ज्ञानपीठ का सूचीपत्र मंगवाइये ।’’


नीचे पुस्तक केन्द्र था । उन्हें मालूम था कि वहां सब प्रकाशकों के सूचीपत्र उपलब्ध रहते हैं । सूचीपत्र पाते ही वह वही राग छेड़ देते— ‘‘बतायें इस पुस्तक और इसके लेखक की क्या रेटिंग करेंगे ?’’

कुछ दिनों की टालमटोल के बाद मैं निष्पक्ष राय देने लगा । वह सहमत न होते तो जिरह करते । सन् पैंसठ के कोलकाता के विराट कथा समारोह में चार पीढ़ियों के कथाकारों को आमंत्रित किया गया था, जिनमें जैनेन्द्र कुमार, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, इलाचंद्र जोशी, उपेन्द्रनाथ अश्क, चंद्रगुप्त विद्यालंकार, अमृतलाल नागर, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, अमरकांत, मार्कंडेय, शेखर जोशी, श्रीकांत वर्मा, शानी, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, ममता, शैलेश मटियानी आदि तमाम पीढ़ियों के रचनाकार आमंत्रित थे । परिषद के अपने कार्यकाल के दौरान मैं चाहता था कि 2006 में वैसा ही एक आयोजन कोलकाता में पुन: किया जाये । प्रथम कथा समारोह में साहू परिवार की सक्रिय भूमिका थी । श्रीमती रमा जैन तो लगभग प्रत्येक सत्र में मौजूद रहीं । मैंने आलोकजी से इस योजना की चर्चा की । वह बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि वह इस आयोजन में अवश्य शामिल होंगे, चाहे उन दिनों कहीं भी हों । वह दिल्ली से भी एस.एम. एस. करके पूछते रहते थे कि कथा समारोह की योजना कहां तक पहुंची । मैंने परिषद के अध्यक्ष परमांनद चूड़ीवालजी से इसकी चर्चा की । उन्होंने तुरंत स्वीकृति प्रदान कर दी । परिषद के अपने अंतर्विरोध भी थे । कुछ न्यासियों को परिषद के संचालन में अध्यक्ष की सक्रियता पसंद न थी । वे केवल शोभा के लिए अध्यक्ष की उपस्थिति चाहते थे । बहरहाल ऐसी परिस्थितियां तमाम संस्थाओं में उत्पन्न होती रहती हैं । चूड़ीवालजी की प्रथम कथा समारोह में भी सार्थक भूमिका थी । यह समारोह भारतीय संस्कृति परिषद द्वारा आयोजित किया गया था । उसमें वरिष्ठ लेखकों के लिए हवाई यात्रा की व्यवस्था की गयी थी । चूड़ीवालजी ने भरसक प्रयास किये कि कथा समारोह के लिए परिषद द्वारा अधिक से अधिक बजट पास कराया जा सके । परंतु उन्हें बहुत सफलता नहीं मिली । क्षतिपूर्ति के लिए सह संयोजन के लिए साहित्य अकादमी से सम्पर्क साधे गये । चूड़ीवालजी ने ही इस आयोजन का नामकरण किया उर्दू हिन्दी कथा कुम्भ । गोपीचंद नारंग उन दिनों साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे । उनके सौजन्य से साहित्य अकादमी भी सहयोग के लिए तैयार हो गयी । अंतत: आधिकारिक घोषणा कर दी गयी कि 10, 11, 12 मार्च 2006 को कोलकाता में कथा कुंभ का आयोजन होगा और सर्वश्री कृष्णा सोबती, कमलेश्वर, ज्ञानरंजन, गिरिराज किशोर, असगर बजाहत, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, सुधा अरोड़ा, गोविन्द मिश्र, हिमांशु जोशी, अखिलेश, विभूति नारायण राय, मिथिलेश्वर, शैलेन्द्र सागर, गोपाल राय, मधुरेश, श्रीभगवान सिंह, ओमप्रकाश बाल्मीकि, शमोएल अहमद, भारत भारद्वाज, जयनंदन, कृष्ण मोहन, नीलाक्षी सिंह, पकंज मित्र, प्रभात रंजन, अल्पना मिश्र, शशि भूषण द्विवेदी, महुआ माजी, मो. आरिफ, साधना अग्रवाल, मनोज कुमार पांडेय, राकेश मिश्र आदि को निमंत्रित किया गया । मैं, ममता और कुणाल परिषद में ही थे । समस्त स्थानीय कथाकारों को भी निमंत्रण भेजा गया । आलोकजी 10, 11, 12 मार्च तक प्रत्येक सत्र में मौजूद रहे । वह ध्यानपूर्वक चर्चाएं सुनते रहे । सुबह से शाम तक परिषद में रहते । सबके साथ भोजन करते । एक दिन उन्होंने समस्त युवा लेखकों को एक आला रेस्तरां में रात्रिभोज भी कराया । नये से नये लेखकों से वह निरंतर संवादरत रहे । दिल्ली लौटने से पूर्व वह तमाम युवा कथाकारों के साहित्यिक अभिभावक की भूमिका में आ गये । खबर मिली कि दिल्ली पहुंच कर वह घंटों नये रचनाकारों से फोन पर बतियाते । कई नये नवेले लेखक उनके फोन सुन सुन कर यह भ्रम पाल लेते कि आलोक जैन तो उसके मित्र हैं । अक्सर देखा गया कि किसी समारोह अथवा गोष्ठी में कोई लेखक अत्यंत अनौपचारिक होने की चेष्टा करता तो वह वहीं उसे बुरी तरह डांट देते और हर मिलने जुलने वाले मित्र से शिकायत करते कि अमुक कवि या कथाकार अत्यंत बदतमीज है ।



आलोकजी भारतीय ज्ञानपीठ के आजीवन न्यासी थे । इस न्यास की स्थापना उनके माता पिता ने की थी, वह मन ही मन ज्ञानपीठ को अपनी बपौती मानते थे, मगर ज्ञानपीठ एक न्यास द्वारा संचालित होता था, जिसका अपना संविधान था, न्यासियों से अपेक्षा की जाती थी कि वे न्यास के दैनंदिन कार्य में हस्तक्षेप न करें और न कार्यालयी कार्य में हस्तक्षेप करें । अगर कोई आपत्ति हो तो प्रबंधक न्यासी से बात करें अथवा न्यास की बैठक में रखें । मगर आलोकजी को इन नियमों की क्या परवाह ? ‘वागर्थ’ से इतने प्रसन्न थे कि वागर्थ को ज्ञानपीठ का छह अंकों का विज्ञापन जारी कर दिया । दिल्ली पहुंच कर आर्ट वर्क भी भिजवा दिया । लम्बे समय तक उन विज्ञापनों का भुगतान नहीं आया तो परिषद के लेखा विभाग से ज्ञानपीठ को स्मरणपत्र जाने लगे । यही नहीं, युवा पुरस्कारों की राशि के साथ साथ उन्होंने पांच पांच हजार के ज्ञानपीठ प्रकाशन देने की घोषणा भी कर दी । प्रबंधन को इसकी खबर न थी । वैसे भी न्यास उनकी घोषणाओं के प्रति उदासीन रहता था । मगर आलोकजी जो चाहते, वह करवा ही लेते चाहे उन्हें इसके लिए कितनी भी माथापच्ची क्यों न करनी पड़े । अगर सीधी अंगुली से घी न निकलता तो वह अपना रौद्र रूप धारण कर लेते । वह आपे से बाहर हो जाते और अपनी छतविस्फोटक हुक्मराना आवाज में चिल्लाते कि उनका सामना करना मुश्किल हो जाता । वह दरवाजा खोलते और बिना किसी की तरफ देखे खरामा खरामा चुपचाप सीढ़ियां उतर जाते । उनका पीर बावर्ची भिश्ती खर सेक्रेटरी खजांची टाइपिस्ट सेवक तपन उनके पीछे पीछे चल देता । पूरी दुनिया में वही एक शख्स था जो उनकी नब्ज समझता था । तपन से पहले उसके पिता भी आलोकजी के सहायक थे । वह भी उनके क्रोध का शिकार होते हांेगे, मगर आलोकजी न केवल तपन बल्कि उसके बाल बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और भविष्य को ध्यान में रखते थे । उसे अधिक से अधिक राहत देने की कोशिश करते । उनकी जान को इतने बवाल थे कि सुबह उनके पास पचीस लाख रुपए आते और सूरज अस्त होने पर तपन उन्हें खबर देता कि खाता खाली हो चुका है । कई बार लगता कि वह एक राजा हैं और कई बार लगता वह राजा नहीं फकीर हैं, औलिया हैं । वह विरुद्धों का सामंजस्य थे । कभी दयावान लगते और कभी निर्मम । कभी नायक कभी खलनायक ।

कोलकाता में एक दिन उन्होंने इच्छा प्रकट की कि वह परिषद के अध्यक्ष परमानंद चूड़ीवाल से मिलना चाहते हैं । किसी भी दिन सायं चार से पांच के बीच वह उपलब्ध हो सकते हैं । समय सुनिश्चित हो गया । चूड़ीवाल जी समय के बहुत पाबंद व्यक्ति थे और आलोकजी भी समय पर पहुंच गये । मैंने दोनों का परिचय करवाया । बातचीत शुरू होती इससे पहले ही आलोकजी के फोन की घंटी बजी । उन्होंने चूड़ीवालजी से इजाजत लेकर बातचीत शुरू की । आलोकजी ने यह कह कर फोन काट दिया कि वह इस समय जरूरी मीटिंग में हैं, फुर्सत मिलते ही बात करेंगे । फोन की घंटी दुबारा बजी । मैं बगल में ही बैठा था, हल्की सी आवाज सुनायी पड़ रही थी, लग रहा था कोई बहुत तैश में बोल रहा था । वह चुपचाप उसकी बात सुनते रहे । उनका चेहरा तनावग्रस्त हो रहा था । उन्होंने बहुत धीमी आवाज में कहा— ऐसा नहीं सोचते मेरे बच्चे । थोड़ा धैर्य रखो । दूसरे छोर से आवाज उग्रतर हो रही थी । उन्होंने कहा— मैं इसकी व्यवस्था कर रहा हूँ । शांत हो जा बाबू । मेरे राजकुमार । मैं स्तब्ध था, आलोकजी के स्वभाव में ही नहीं था, किसी को इतना बोलने की इजाजत देना । मालूम नहीं किसका फोन था और उनकी क्या विवशता थी कि वह न तो फोन काट पा रहे थे, न ही डांट पा रहे थे । पहली बार मैं उन्हें रिसीविंग एंड पर देख रहा था । आधे घंटे की मीटिंग तय हुई थी । चूड़ीवालजी बार बार घड़ी देख रहे थे, पांच बजे उन्हें शिक्षायतन पहुंचना था । उन्होंने एक चिट पर लिख कर मुझे बताया कि आलोकजी से किसी और दिन मिलूंगा । कुछ देर बाद वह उठे और नमस्कार करते हुए कमरे से निकल गये । मैं भी उठ कर चल दिया ताकि आलोकजी खुल कर बात कर सकें । मालूम नहीं, उस दिन वह कब तक बात करते रहे, कब तक कमरे में रहे और कब वहां से रुखसत हुए । बाद में दिल्ली पहुंच कर उन्होंने मुझे और चूड़ीवालजी को पत्र लिख कर उस दिन के अवरोध पर खेद प्रकट किया ।

आलोकजी से मेरा परिचय कोलकाता तक सीमित था । जैसाकि पहले जिक्र आ चुका है उनकी बहुत सी सम्पत्ति कोलकाता में मुकदमेबाजी में फंसी थी । एक दिन कुसुम खेमानी ने बताया था कि ये विवाद वर्षों से चल रहे हैं । ये सम्पत्तियां कोलकाता के प्रमुख स्थानों पर थीं । एक सम्पत्ति तो अलीपुर में साहू दम्पती के कई एकड़ में फैले भव्य और विशाल आलीशान बंगले के पीछे थी, सन् पैंसठ के कथा समारोह में सम्मिलित होने वाले कथाकारों को रमा जी ने इसी बंगले के मुक्तांगन में हाई टी पर आमंत्रित किया था । इसी अवसर पर कमलेश्वर को सारिका के सम्पादन का कार्यभार ग्रहण करने का प्रस्ताव मिला था । इसका उल्लेख मैंने कमलेश्वर पर लिखे अपने संस्मरण में भी किया था । इस चाय की दावत का विस्तृत वर्णन था और जिसकी कुछ पंक्तियां कमलेश्वर जी को नागवार गुजरी थीं, उन्होंने पत्र लिख कर उन पंक्तियों का हटाने का आग्रह किया था ।

क्रमशः
बेचैन रूह का मुसाफिर - 2 व बेचैन रूह का मुसाफिर - 3
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