head advt

रवीन्द्र कालिया: बेचैन रूह का मुसाफिर (आलोक जैन -2) Ravindra Kalia


बेचैन रूह का मुसाफिर - 2 

Ravindra Kalia's memoir of Alok Jain 

रवीन्द्र कालिया

संस्मरण 

 वरिष्ठ कथाकार रवीन्द्र कालिया अपने संस्मरण के लिए भी कम प्रसिद्ध नहीं हैं । उनकी अप्रतिम कृति ‘गालिब छुटी शराब’ का पाठक समुदाय पर अमिट असर है । एक लम्बे अंतराल के बाद उनका ताजा संस्मरण ।
(अखिलेश, तद्भव 31)



Bechain Rooh Ka Musafir, Sansmaran Alok Jain - Ravindra Kalia

रवीन्द्र कालिया जी की लेखन शैली की ... बड़ाई के लिए शब्द नहीं मिलते - क्या कहूं - जब उनके लिखे को पढ़ता हूँ. संस्मरण लिखने की अद्भुत कला है उनके पास... आलोक जैन जी से उनका (और ममताजी का) मोहात्मक रिश्ता रहा है - मुझे याद है किस तरह आलोक जी ने मुझ से एक कार्यक्रम में कहा - "मेरी और ममता की तस्वीर खींचो" ... मैंने उस यादगार तस्वीर में रवीन्द्र जी को भी (उनके मना करने पर भी) शामिल कर लिया - अच्छा किया. आलोकजी का देहांत कालियाजी के लिए बहुत दुखद रहा... साहित्य के लिए अपना सबकुछ न्योछावर करने वाले आलोक जी की शांति-सभा में साहित्य जगत से उससुबह  सिर्फ ममता जी और रवीन्द्र जी ही नज़र आये थे... यही रीत है ?  आलोकजी के देहांत के बाद रवीन्द्र जी कई महीनों तक उनपर संस्मरण लिखते रहे, जब भी पूछता तो कहते 'लिख रहा हूँ यार' - और क्या ही अद्भुत लिखा है - 

अखिलेश जी को आभार -  'तद्भव' में प्रकाशित 'बेचैन रूह का मुसाफिर' - तीन कड़ियों में से पहली आप पढ़ चुके हैं (बेचैन रूह का मुसाफिर 2) अब दूसरी आप सब के लिए ...
भरत तिवारी 

बेचैन रूह का मुसाफिर 2


आलोकजी के उस विशाल भूखंड की दुनिया बदल चुकी थी । वहां सैकड़ों हजारों झुग्गी झोंपड़ियां बन गयी थीं । आलोकजी ने कभी उधर झांक कर भी न देखा था । उस भूखंड का मूल्य करोड़ों में था । आलोकजी कोर्ट कचेहरी से आजिज आ चुके थे और दूसरी तरफ परिवार में संतुलन बैठाने का इतना दबाव रहता था कि उनकी बहुत सी ऊर्जा उसमें लग जाती । शायद उनके मन में यह अपराधबोध भी था कि इतना साधनसम्पन्न होने के बावजूद वह अपनी संतान को व्यवस्थित नहीं कर पाये । उल्टे स्वयं ही अव्यवस्थित होते चले गये । बच्चे आलोकजी के भाई अशोक जैन के बच्चों की तरह वैभव और ऐश्वर्य में जीना चाहते थे । जब तक संयुक्त परिवार था, वे उसी शानोशौकत से रहते भी थे और उसी जीवन शैली को स्वीकार चुके थे । अलग्योझा होते ही आलोकजी का जहाज डूबना शुरू हुआ तो लगातार डूबता ही चला गया और दूसरी तरफ भाई थे, जिनकी पतंग हवा में अठखेलियां खाने लगी । ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह दृढ़ से दृढ़तर होता चला गया । ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के बीसियों संस्करण प्रकाशित होने लगे । मगर आलोकजी ने भी अंत तक हौसला नहीं छोड़ा । एक उजली सुबह के इंतजार में वह परिस्थितियों से जूझते रहे । उन्हें लगता था कि वह सुबह कभी तो आयेगी । एक अदालत से जीतते तो मुकदमे अगली अदालत में पहुंच जाते । वह खयाली पुलाव बनाते रह जाते । वह दस दस, बीस बीस करोड़ सभी बच्चों में बांट देना चाहते थे और बिटिया के नाम से एक बड़ा न्यास—ज्ञानपीठ की टक्कर का बनाना चाहते थे । उस न्यास के न्यासियों के नाम तय करते रहते । उसके उद्देश्यों पर विचार विमर्श करते । वह उस न्यास को ज्ञानपीठ का प्रतिद्वंद्वी न्यास नहीं बनाना चाहते थे ।

 आलोकजी जानते थे, उन झुग्गी झोंपड़ियों को हटाना उनके बस का काम नहीं है । अंतत% उन्होंने वह भूखंड औने पौने दाम में ही बेचना शुरू कर दिया । यानी करोड़ों का भूखंड लाखों में बिकने लगा । दरअसल अपने युद्ध में वह नितांत अकेले पड़ गये थे । इस अभियान में उनका हाथ बटाने वाला कोई नहीं था । ‘मेरा युद्ध मुझको लड़ना’ वाली स्थिति थी । जब कोलकाता में उनसे पहली मुलाकात हुई थी तो उन्होंने कहा था कि वह दो साल और जिन्दा रहना चाहते हैं ताकि अपने तमाम लम्बित मामले निबटा लें, बच्चों को स्वावलम्बी बना दें, बिटिया के नाम से एक साधनसम्पन्न उद्देश्यपूर्ण न्यास गठित कर दें । यह उनकी अंतिम इच्छा थी । जीवन ने उन्हें दो के स्थान पर लगभग दस वर्ष का समय दिया, मगर काम सुलझने की बजाये उलझते चले गये । वह व्यूह चक्र में ऐसा फंसे कि फिर अंत तक बाहर न निकल पाये । एक बात की मैं अंत तक दाद देता था कि उन्होंने परिस्थितियों के सामने कभी घुटने नहीं टेके । बदस्तूर जूझते रहे । अपनी निजी परेशानियों की कभी चर्चा नहीं करते थे । जैसे पुरानी कहानियों में राजा का जीवन एक तोते में बसता था, उनके प्राण मन ज्ञानपीठ में कैद थे । वह अहर्निश उसकी बेहतरी के उपाय खोजते रहते, वह कहते— ‘‘ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रतिष्ठा प्रवर परिषद (निर्णायक मंडल) के गठन में निहित है । जितनी प्रतिष्ठित प्रवर परिषद होगी, ज्ञानपीठ पुरस्कार उतना अधिक प्रतिष्ठित होगा ।’’ किसी सदस्य का कार्यकाल पूरा होता उससे पहले ही वे नये सदस्य के चुनाव के लिए देश की तमाम भाषाओं के शीर्ष रचनाकारों और विद्वानों से विचार विमर्श करते । इंटरनेट से विद्वानों के बारे में जानकारियां निकलवाते । न्यास की बैठकों में अक्सर देखा जाता कि न्यास के तमाम सदस्य एक तरफ होते और एक अकेले आलोकजी अभिमन्यु की तरह डट कर मुकाबला करते रहते । उन्हें जो सही लगता, वही कहते और वही करते । किसी निर्णय से असंतुष्ट हो जाते तो खूब चिल्लाते । आवाज उनकी इतनी बुलंद थी कि इमारत के प्रत्येक तल पर उनकी आवाज गंूजती । बैठक में किसी बात पर मतैक्य न होता तो बहुत आजिज आ जाते और खिड़की खोल कर कहते—मैं अभी खिड़की से कूद कर प्राण दे दंूगा । सब लोग सहम जाते कि न जाने गुस्से में क्या कर बैठंे । कहा बताया जाता है कि एक बार न्यास की बैठक में दरवाजे के पास जमीन पर लेट गये— ‘‘आपको अगर मेरी बात मंजूर नहीं तो मेरे सीने पर पैर रख कर निकल जाइये ।’’ कभी कभी उनके न चाहने पर भी कुछ ऐसे निर्णय हो जाते जो उन्हें स्वीकार न होते । वह लम्बे समय तक उसका दंश महसूस करते । वह किसी से डरते नहीं थे, मुंहफट और उद्दंड इतने कि किसी की पगड़ी कभी भी उछाल सकते थे । एक बार एक पार्टी में न्यास का एक सदस्य अभिवादन की मुद्रा में उनके सामने पड़ गया । उनका दृढ़ मत था कि वह व्यक्ति न्यास की सदस्यता के योग्य नहीं है । उसे देखते ही उनका पारा चढ़ गया, चिल्ला कर बोले— ‘‘मेरे सामने से हट जाइये, मैं आपका चेहरा देखना नहीं चाहता ।’’ उनका दावा था कि वह कभी झूठ नहीं बोलते । हमेशा सच का साथ देते हैं । शायद यही कारण था कि बचपन में कोई भी उन्हें अपनी टीम में नहीं रखता था, उनका अपना भाई भी नहीं । उनकी अपनी टीम का कोई सदस्य खेल में आउट हो जाता तो, सबसे पहले वही कहते— आउट । टीम के शेष सदस्य कितनी भी जिरह करें, मगर उन्होंने देख लिया तो सच का ही साथ देंगे, उनकी टीम चाहे हार जाये । उनके शब्दों में कहूँ तो ‘चाहे भाड़ में जाये’!

 कोलकाता में परिषद में आते तो मुझसे केवल ज्ञानपीठ की बेहतरी के लिए सोचे गये उपायों पर बात करते । ए, ए़ए बी़, बी–1 तो उनका प्रिय शगल था ही । दिल्ली लौट कर भूल जाते, कभी फोन नहीं । मुलाकात परिषद तक ही सीमित थी— अपनी लस्टम पस्टम चाल से धीरे धीरे चलते हुए कभी कभार प्रकट हो जाते । जब एक बार दिल्ली से उनका फोन आया तो मैं चैंक गया— ‘‘मैं आलोक जैन बोल रहा हूँ ।’’ 

 ‘‘नमस्कार आलोकजी ।’’ मैंने कहा ।

 उन्होंने जैसे मेरी बात सुनी ही नहीं, बोले— ‘‘ध्यान से मेरी बात सुन लीजिए मां कसम, मैं आपको ज्ञानपीठ का निदेशक नहीं बनने दंूगा ।’’

 ‘‘आपको भ्रम हो गया है ।’’ मैं कुछ और कहता, इससे पहले ही वह फोन बंद कर चुके थे । अचानक फोन बंद कर देना भी उनकी निराली अदा थी । बाद के वर्षों में मैं उनकी किसी बात से सहमत न होता अथवा तर्क करता तो वह अचानक फोन बंद कर देते । घंटों बतियाना और अचानक किसी बात से असहमत होते ही बगैर तर्क किये फोन बंद कर देना उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया होती । अगले रोज वह एकदम सामान्य नजर आते । दरअसल, वह बर्दाश्त ही नहीं कर सकते थे कि कोई उनकी बात काटे या अस्वीकार करे । उन्हें बोलना अधिक भाता, सुनना कम ।

 जाने दिल्ली में क्या पक रहा था कि आलोकजी द्वारा ज्ञानपीठ की सड़क पर मेरे लिए ‘नो एंट्री’ की बाधा खड़ी कर दी गयी थी । वहां जाने का मेरा कोई इरादा या महत्वाकांक्षा भी न थी । मैं इसी उधेड़बुन में था कि आलोकजी ने ऐसा क्यों कहा । भीतर ही भीतर मैं उन्हें कहीं पसंद भी करने लगा था । उनकी धमकी मुझे बहुत नागवार गुजरी । बात आयी गयी हो गयी । उस बीच न वह कोलकाता आये और न ही उनका कोई फोन मिला । मैं भी एक दु%स्वप्न की तरह उनकी बात भूल गया । दिल्ली से अचानक एक दिन मेरे मित्र कन्हैयालाल नंदन का फोन मिला । नंदनजी से मेरे चालीस पैंतालिस साल पुराने सम्बंध थे । ‘धर्मयुग’ बम्बई में वह मेरे वरिष्ठ सहयोगी थे । गाहेबगाहे हम लोगों का सम्पर्क होता रहता था । वह जब कभी भी कोलकाता आते, मिले बगैर नहीं लौटते । जब तक दिनमान के सम्पादक रहे, मैं उनके लिए लगातार ‘इतिश्री’ स्तम्भ नियमित रूप से लिखता रहा । ‘सारिका’ में थे तो मेरा सक्रिय सहयोग था । मेरे पहले उपन्यास ‘खुदा सही सलामत है’ का ‘सारिका’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशन होता रहा । शुरू में ‘धर्मयुग’ से दिल्ली बुला कर उन्हें ‘पराग’ के सम्पादन की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी और उन्होंने मुझसे बच्चों के लिए भी लिखवाया । उस दिन सुबह सुबह नंदन जी का फोन आने का मतलब मेरी समझ में यह आया कि उन्हें कोई नयी जिम्मेदारी प्राप्त हुई होगी । उन्होंने फोन पर बताया कि— ‘‘तुम्हारे लिए समाचार है । तुम्हें तत्काल दिल्ली बुलवाने का काम मुझे सौंपा गया है, आज कोलकाता से जो फ्लाइट मिले, पकड़ कर दिल्ली चले आओ ।’’

 ‘‘दिल्ली में क्या है, क्यों बुला रहे हैं आप ?’’

 ‘‘ज्ञानपीठ के निदेशक के रूप में तुम्हारे नाम पर विचार हो रहा है । वे लोग तुमसे तत्काल मिलना चाहते हैं ।’’

 मैंने उन्हें आलोकजी की बात बतायी ।

 ‘‘उनकी चिन्ता न करो, बस आ जाओ । दिल्ली में एयरपोर्ट पर मिलंूगा और तुम्हें लिवा ले जाऊंगा । चाहो तो शाम की फ्लाइट से लौट भी सकते हो ।’’ वह बोले ।

 उस रोज तो नहीं अगले रोज दोपहर तक मैं नंदन जी के साथ था । नंदन जी मुझे लिवा ले गये । आधे घंटे में हम लोग मुक्त हो गये । मुझसे पूछा गया था कि जल्द से जल्द मैं कब तक ज्ञानपीठ ज्वाइन कर सकता हूँ ।

 ‘‘अत्यंत नाटकीय ढंग से चीजें हो रही हैं ।’’ मैंने नंदन जी से कहा— ‘‘मैं तो कोलकाता में रच बस गया था ।’’

 तभी टेलीफोन की घंटी ने ध्यान भंग किया । फोन आलोकजी का था । फोन खोलने में मैं हिचकिचा रहा था, मगर मैं उनके प्रति सामान्य भाव बनाये रखना चाहता था । इस समय वह आक्रामक नहीं थे । मेरी दिल्ली यात्रा को अत्यंत गोपनीय रखा गया था । जान कर ताज्जुब हुआ कि आलोक जी को इसकी जानकारी हो गयी कि मैं दिल्ली में हूँ । वह अत्यंत तटस्थ भाव से पूछ रहे थे— ‘‘दिल्ली में आप कहां ठहरे हैं ?’’

 ‘‘अभी तो सड़क पर हूँ । कुछ तय नहीं किया ।’’

 ‘‘आपको इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में ठहरना चाहिए ।’’ उन्होंने कहा । और फोन बंद कर दिया । मैंने नंदन जी को बताया । वह मुसकरा भर दिये । अगले दिन मैं कोलकाता में था । अत्यंत नाटकीय रूप से मैं कोलकाता से दिल्ली चला आया । दिल्ली से मुम्बई और मुम्बई से इलाहाबाद भी इसी अंदाज से पहुंचा था । चैदह तारीख तक मैंने कोलकाता में काम किया था और पंद्रह को दिल्ली में काम पर तैनात था । दिल्ली में आलोकजी से अक्सर भेंट हो जाती । शुरू शुरू में वह मुझसे नाराज तो नहीं, रूठे रूठे से रहते । मैंने पाया कि यह उनके स्वभाव में था । जो हो चुका होता, उसे भूल जाते । धीरे धीरे खलिश भी दूर हो जाती । वह ज्ञानपीठ कार्यालय आते तो सीधे मेरे कमरे में ही चले आते । उनकी सांस फूल रही होती । वह धम्म से कुर्सी पर गिरते और आंखें बंद कर लेते । देर तक पेट पर एक हाथ रख कर कुछ देर हांफते रहते । सांस सामान्य होने पर कहते— ‘‘एक कॉफी मंगवाइये ।’’

 स्वस्थ होने पर वह जेब से कागज का एक पुर्जा निकालते और कहते, आज की हमारी बातचीत का एजेण्डा इस प्रकार है । एजेण्डे में अधिसंख्य ऐसे बिन्दु होते जिन पर निर्णय लेना मेरे अधिकारक्षेत्र से बाहर होता । इसी दौरान अगर फोन की घंटी बज जाती तो वह उखड़ जाते और कहते— ‘‘फोन स्विच ऑफ कर दीजिए ।’’ लैण्डलाइन से काल आती तो कहते रिसीवर उठा कर रख दीजिए और ऑपरेटर से बोल दीजिए कि जब तक आलोकजी बैठे हैं, आपको लाइन न दे । मैं अपना फोन ‘एअरप्लेन’ मोड में कर देता और बात आगे बढ़ाता, वह मेरी बात काट कर कहते— ‘‘पहले ऑपरेटर से बोलिए ।’’ मीटिंग कम से कम एक घंटे से ज्यादा ही चलती । हर मीटिंग में चर्चा के वही बिन्दु रहते । ज्ञानपीठ पुरस्कार की राशि कितनी बढ़ायी जाये । एकाउंट्स से बैलेंसशीट मंगवाते, पढ़ते और आग बबूला हो जाते—यह फर्जी बैलेंस शीट है । गुस्से में आकर फाड़ देते या बड़ी हिकारत से मेज पर सरका देते । उनकी टिप्स पर रहता कि ज्ञानपीठ की कितनी वार्षिक आय है, कितने खर्च हैं, बिक्री की सही राशि उनकी अंगुलियों के पोर पर रहती । किस राज्य में कितनी बिक्री हुई, किस किस राज्य में बिक्री कम हुई, कौन प्रतिनिधि कैसा काम कर रहा है, वगैरह, वगैरह । वह हमेशा अपडेट रहते । सरकारी बिक्री पर भी उनकी नजर रहती । महीने में एकाध बार तो वह संस्कृति मंत्रालय के सेक्रेटरी से मिल आते । एक बार पुस्तक मेले में भूले भटके किसी मंत्रालय का एक उच्च अधिकारी जो पुस्तक खरीद का इंचार्ज भी था, जिसकी अन्य प्रकाशकों ने खूब आवभगत की थी और उपहारों से लाद दिया था, ज्ञानपीठ के स्टाल पर भी चला आया । आलोकजी को खबर की गयी और ज्ञानपीठ का विक्रय अधिकारी श्रद्धापूर्वक उस विशिष्ट अधिकारी को आलोकजी के कक्ष में ले गया । आलोकजी पुस्तक मेले में आने से पूर्व हल्दीराम से काजू और मिष्ठान्न मंगवा कर रखते थे । चाय, कॉफी और शीतल पेय का भी प्रबंध रहता था । आलोकजी ने उस अधिकारी को सम्मानपूर्वक चाय नाश्ता करवाया । बातचीत में अचानक जाने क्या हुआ कि वह इस अधिकारी से बोले— ‘‘ज्ञानपीठ में घूस देने का कोई प्रावधान नहीं है और आप बगैर घूस लिए पुस्तकों की खरीददारी करते नहीं । यही कारण है कि अन्य प्रकाशकों की तुलना में हम हमेशा सरकारी खरीद में मात खा जाते हैं ।’’ वह अधिकारी आलोकजी की बातें सुन कर सन्न रह गया और तुरंत खड़ा हो गया— ‘‘आप घर बुला कर मेरा अपमान कर रहे हैं । हमारे यहां यह सब नहीं चलता ।’’

  ‘‘यही सब चलता है आपके यहां ।’’ आलोकजी कहां दबने वाले थे— ‘‘आप सा भ्रष्ट अधिकारी आपके पूरे मंत्रालय में न होगा । मैं आपके मंत्री को आपकी सब काली करतूतें बताऊंगा ।’’ उस अधिकारी ने तमाशा खड़ा करना उचित न समझा और बगैर दायें बायें देखे, स्टॉल के बाहर हो गया ।

 दरअसल आलोकजी परिस्थितियों की नजाकत को समझते हुए भी अपने पर नियंत्रण न रख पाते थे । खरी बात कहने में कितना भी जोखिम उठाना पड़े, उठा लेते थे । वरना उनकी आत्मा कसमसाती रहती । पेट में गैस पैदा होने लगती, सीने में जलन । कई बार मुझसे कह चुके थे कि वह बहुत बदतमीज और बदजुबान आदमी हैं । वैसे मुझे यह सब बताने की कोई आवश्यकता नहीं थी, मैं रोज ही उनके गर्म, नर्म, विनम्र और उद्दंड व्यवहार को देखा करता था । शुरू शुरू में उन्होंने मुझ पर भी इसकी आजमाइश करने की कोशिश करनी चाही थी, मैंने तुरंत टोक दिया था— ‘‘मुझसे सामान्य पिच पर बातचीत करें ।’’

 वह कुछ नहीं बोले और उठ कर चल दिये । दरवाजा अपने आप बंद हो जाता था । वह ‘नाउ़ ऑर नेवर’ यानी अभी या कभी नहीं में विश्वास रखते थे । रात को बारह बजे भी कोई काम याद आ जाता तो उनकी कोशिश रहती कि अभी निपटा दें । देरसबेर एसएमएस कर देते । एक दिन कार्यालय में महिला निजी सचिव ने हंसते हुए बताया कि एक दिन सास ने उससे पूछा कि आ/ाी रात को तुम्हें कौन एसएमएस करता रहता है ? वास्तव में उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि उनकी कड़वी से कड़वी या नागवार लगती बात को लोग हंस कर टाल देते थे ।

 एक बार उन्हें पुस्तक खरीद के सिलसिले में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से मिलने जाना था । उनकी इच्छा थी कि मैं भी उनके साथ चलंू, उन्होंने बहुत बार यह प्रयास किया था, मगर मैं उनका सहायक बन कर किसी से मिलने नहीं जाना चाहता था और न ही गया । आखिर शीलाजी के यहां वह विक्रय अधिकारी को ले गये । तपन तो साये की तरह उनके साथ रहता ही था, जो बीच में आ आकर उन्हें पानी या दवाएं देता रहता, दरअसल बाहर निकलने में उन्हें आनंद तब आता था जब दो चार लोग उनके साथ रहें । आलोकजी की मीटिंग के अगले रोज विक्रय अधिकारी ने मुझे बताया कि नियत समय पर शीलाजी कमरे में नहीं आ पायीं, बाहर लॉन में जनता से मिलती रहीं । आलोकजी ने दस मिनट तक प्रतीक्षा की और खड़े हो गये । वहां तैनात अधिकारी सकते में आ गये— मैम ने कह रखा है कि आलोकजी के आते ही उन्हें सूचित कर दें । उनको खबर कर दी गयी है । बस आती ही होंगी । आप बैठें । आलोकजी बैठ गये और पांच मिनट के बाद फिर खड़े हो गये । अधिकारी भागा भागा आया । आलोकजी ने पंचम स्वर में उसे इस तरह डांट पिलायी कि उनकी आवाज पूरे परिसर में गंूजने लगी । वह गुस्से से गुर्राते हुए बाहर निकल आये और अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ गये । देखते देखते दो, तीन अधिकारी उनके पीछे भागे— ‘‘मैम आ गयी हैं, आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं ।’’ आलोकजी ने उन्हें झटक दिया और गाड़ी में बैठते ही संजय को चलने का इशारा किया । गाड़ी में प्राय% वह ड्राइवर की बगल में बैठते थे । संजय ने बताया, गाड़ी में बैठते ही फोन टनटनाया, उन्होंने फोन स्विच ऑफ कर दिया । हालांकि जल्द ही समय तय करके उनकी शीलाजी से मुलाकात हुई थी । बिक्री अधिकारी ने बताया था कि वह साल में दो एक बार शीलाजी से मिलने जरूर जाते हैं । शीलाजी शिक्षा सचिव को भी बुला लेती हैं । शिक्षा सचिव खरीद का वादा करते हैं, जाने क्या हो जाता है कि दिल्ली सरकार से कभी मनमाफिक आदेश न मिल सका । केन्द्रीय खरीद में ज्ञानपीठ को साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट के समकक्ष रखवाने में वह कई बार सफल चुके थे, मगर सेक्रेटरी के तबादले के साथ पिछले सचिव के आदेश निरस्त हो जाते । पिछले दिनों मलयालम दैनिक मातृभूमि के एक समारोह में पूर्व संस्कृति सचिव कुमार साहब से अचानक केरल में भेंट हो गयी । वह संस्कृति सचिव के पद से अवकाश ग्रहण कर चुके थे । मुझसे मिलते ही बोले— आलोकजी आपकी बहुत चर्चा करते थे ।

 ‘‘आपकी भी ।’’ मैंने कहा ।

 ‘‘इतनी दीर्घ सेवा में जो चार छह लोग याद रहेंगे, उनमें आलोकजी भी हैं । कितना दिलचस्प किरदार था उनका । ज्ञानपीठ और पुस्तकों के प्रति ऐसा जुनून मैंने किसी में नहीं देखा था ।’’ वह देर तक आलोकजी की प्यारी प्यारी बातें बताते रहे— उन्होंने बताया कि आपको मालूम न होगा, उन्हें देशी विदेशी फूलों के बारे में भी बहुत जानकारियां थी । उन्हें मेरा नमस्कार दीजियेगा ।

 एक बार पुस्तक खरीद को लेकर केन्द्र सरकार ने कुछ ऐसे नीतिगत फैसले किये कि पूरा प्रकाशन जगत असंतुष्ट हो गया । आलोकजी ने तय किया कि वह तमाम प्रमुख प्रकाशकों की एक बैठक बुला कर इस पूरे प्रकरण पर विचार विमर्श करेंगे और सरकार को एक ज्ञापन देंगे । सबसे पहले उन्होंने हिन्दी के सबसे प्रमुख प्रकाशक को आरम्भिक बातचीत के लिए आमंत्रित किया । ज्ञानपीठ में उनका अपना कोई कक्ष नहीं था । प्रबंध न्यासी का कमरा और मेरा कमरा उनके लिए उपलब्ध रहता था । प्रबध न्यासी के कमरा को वह तब इस्तेमाल करते जब उन्हें प्रबंध न्यासी की निजी सचिव से न्यासियों को अंग्रेजी में लम्बे लम्बे पत्र लिखवाने होते अथवा मंत्रियों सचिवों को पत्र लिखवाना होता । उनकी अंग्रेजी की जानकारी इतनी अच्छी थी कि बड़े बड़े अंग्रेजीदां हैरत में आ जाते । अंग्रेजी पर उनका जबरदस्त अधिकार था । मेरे कमरे का वह साहित्यिक प्रकाशकीय गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करते । हिन्दी के प्रमुख प्रकाशक से उनकी भेंट मेरे कमरे में ही सुनिश्चित की गयी । आलोकजी ने पैड पर जो बिन्दु लिखे हुए थे— उन्हीं पर चर्चा केन्द्रित थी । अचानक प्रकाशक की तरफ से एक ऐसा प्रस्ताव आया जो आलोकजी को स्वीकार नहीं था— ‘‘देखिये, यह आपके लिए तो ठीक है परंतु ज्ञानपीठ के लिए नहीं ।’’

 ‘‘ऐसा क्या है ?’’ उसने जिज्ञासा प्रकट की ।

 ‘‘देखिए, इस पर आप ही अमल कर सकते हैं हम नहीं । आप तो लेखकों को रायल्टी देते नहीं, देते हैं तो आधी अधूरी । हम तो ऐसा नहीं करते ।’’

 प्रकाशक बहुत विनम्र स्वभाव का व्यक्ति था । मुश्किल से ही जुबान खोलता था । मौनी बाबा था । बहुत विनम्रता से बोला— ‘‘आलोकजी आप सही नहीं कह रहे हैं । दुबारा कहियेगा भी मत ।’’ उसने नमस्कार किया और बीच मीटिंग से बहिर्गमन कर गया ।

 आलोकजी ने मेरी तरफ देखा और निहायत मासूमियत से बोले— ‘‘क्या वह सही कह रहा था ?’’ आलोकजी किसी की बात सुनने के अभ्यस्त नहीं थे । वह सिर्फ और सिर्फ अपने दिल की आवाज सुनते थे । सुनते ही नहीं थे, उसे सही भी मानते थे । प्राय% वह प्रवाह के विरुद्ध तैरते । कोई लालच, कोई प्रलोभन उन्हें अपने पथ से विमुख नहीं कर सकता था । यह दूसरी बात है कि उनके प्रिय लोगों ने उन्हें खूब ठगा, उन्हें करोड़ों रुपयों का चूना लगा दिया । कई बार बहुत मजबूरी में आलोकजी भी यह जानते हुए कि वह निभा नहीं पायेंगे, झूठा वायदा कर लेते ।

 जाने कौन सी घुट्टी पीकर उनका जन्म हुआ था कि साहित्यकारों के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी । अंत तक कोशिश करते रहे कि ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेताओं के लिए खेल गांव में सरकार से एक बंगला लीज पर ले लें । उन्होंने ज्ञानपीठ से फैलोशिप की योजना इस मंतव्य से शुरू करवायी कि कुछ लेखकों की मदद हो जायेगी । बहुत से लोगों ने फैलोशिप के दौरान काम भी किया, ऐसे भी थे, जो फैलोशिप की मासिक रकम की प्रतीक्षा तो करते मगर काम करने से कतराते थे । फैलोशिप के कारण कई उत्तम पुस्तकें प्रकाश में आयीं ।

 एक दिन जैनेन्द्र जी की बड़ी बिटिया कुसुमजी ने अपने निवास स्थान पर एक साहित्यिक संध्या का आयोजन किया था । आलोकजी के अनुरोध पर मैं भी पहुंच गया । घर का वैभव देख कर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ कि एक लेखक की बिटिया इतने प्राइम लोकेशन पर इतने विशाल बंगले में इतने वैभव में रह रही है । कुसुमजी की मित्र मंडली के तमाम लेखक लेखिकाएं मौजूद थे । बीच गोष्ठी में मेरे फोन में कंपकंपाहट हुई, मैंने बाहर जाकर फोन सुना । कुणाल था फोन पर । वह जे–एन–यू– में शोध कर रहा था, वहीं हॉस्टल में रहता था । वहां के डॉक्टरों की समझ में उसका पेटदर्द नहीं आ रहा था, उसे मैक्स हस्पताल में भर्ती करा दिया गया था । साथ में उसके दो एक मित्र थे । जांच से पता चला उसके पेट में मवाद भरा है । मवाद निकलवाने में बड़ा खर्चा था, उसकी जेबें खाली थीं । दोस्त लोग भी हैरान परेशान । आखिर मुझे फोन किया गया । मेरे लाइन पर आते ही कुणाल क्रंदन करने लगा ।

 ‘‘धैर्य रखो, मैं कुछ करता हूँ ।’’ मैंने कहा ।

 भीतर लौट कर मैंने आलोकजी से कहा— ‘‘जरा बरामदे तक चल कर मेरी बात सुन लीजिये ।’’

 वह तुरंत खड़े हो गये । मैंने सारी स्थितियां बतायीं । उन्होंने क्षण भर कुछ सोचा और वहीं से मेरे साथ चल दिये । भीतर जाकर विदा लेने की जरूरत भी उन्होंने महसूस नहीं की । मैंने इशारे से ममता को भी बुला लिया ।

 अस्पताल के काउंटर से ही उन्होंने कार्यवाही शुरू कर दी । डॉ– का फोन नम्बर नोट कर लिया— ‘‘पता लगाइये, डॉ– अस्पताल में हों तो तुरंत वार्ड में पेशेण्ट के पास पहुंच कर मुझसे बात करें ।’’ डॉ– दौड़ा दौड़ा आया कि कौन वी–आई–पी– आ गया जो तुरंत मिलना चाहता है । डॉ– ने पहुंचने में देर न की । आलोकजी ने दोनों हाथ जोड़ कर उसका अभिवादन किया और डॉक्टर के साथ बात करते करते थोड़े फासले पर चले गये । डॉ– से कहा कि मेरे एकाउंट में फौरन इलाज शुरू कर दीजिए । मालूम नहीं, मैक्स में उनका कोई हिसाब किताब चलता था या नहीं । डॉ की उपस्थिति में ही उन्होंने मैक्स के एम–डी– की बिटिया से बात की । डॉक्टर ने स्टाफ को एलर्ट किया । जूनियर डॉक्टरों और नर्सों का जमघट लग गया । आलोकजी की हर बात और जिज्ञासा का वह एक ही जवाब देता— जी सर । आलोकजी के बड़े लोगों से जान पहचान का दायरा बहुत व्यापक था । वह झट से कोई न कोई परिचय निकाल लेते । मुझे ही जब अपोलो अस्पताल में कमरा नहीं मिल रहा था तो आलोकजी ने सीधे चेयरमैन रेड्डी साहब को फोन करके न सिर्फ कमरा दिलवा दिया बल्कि डॉक्टरों से भी बात कर ली ।

 अगले रोज कुणाल के पेट से बोतल भर मवाद निकाला गया । आलोकजी ने इस बीच साहू जैन न्यास से भुगतान की व्यवस्था करवा दी थी । न्यासियों में बहुधा वह अकेले पड़ जाते थे, मगर अपनी ठसक और जिद से काम निकलवा लेते । ज्यादातर लोग उनसे उलझने में कतराते थे । अगर किसी की कोई बात उन्हें खटक जाती तो वह आसानी से मुआफ नहीं थे । वह बात उनके लिए जीवन मरण का प्रश्न बन जाती । वह शख्स अगर उनसे बात करने की कोशिश करता तो तुरंत टोक देते— मैं आप से बात नहीं करना चाहता । ज्यादा नाराज होते तो यह कहने में संकोच न करते कि मैं आपका चेहरा भी नहीं देखना चाहता । जिसे चाहते थे, उसे बेपनाह चाहते थे, जिसे नापसंद करते थे, डंके की चोट से इसकी घोषणा करते रहते थे— मैं उसे भस्म कर दंूगा ।

 रचनाकारों के प्रति उनका व्यवहार मित्रतापूर्ण था । मैंने किसी भी लेखक के बारे में उन्हें अशोभन टिप्पणी करते नहीं सुना । ओमप्रकाश बाल्मीकि से जीवन में कभी नहीं मिले होंगे, जब मालूम चला कि वह लाइलाज रोग की चपेट में आ चुके हैं और वह आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं तो साहू जैन ट्रस्ट से तुरत फुरत दो लाख रुपए की तत्काल सहायता का प्रबंध करा दिया । अमरकांत संकट में थे तो उनके लिए कुछ धनराशि भिजवा दी । कोई रचनाकार बीमार हुआ तो उसकी खोज खबर लेते रहते । अस्वस्थ होते हुए भी मिजाजपुर्सी के लिए पहुंच जाते । अपनी तबीयत खराब होती तो चुपचाप अस्पताल में भर्ती हो जाते । अक्सर नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट में । यह प्रतिष्ठित अस्पताल उनके परिवार ने ही बनवाया था । वहां भी वह किताबों की संगत में रहते । बीमारी में वह अपने बिस्तर के आसपास जैन पूजांजली नामक पुस्तक जरूर रखते । कैलाश वाजपेयी उनके बहुत पुराने मित्र थे और उन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था । शायद उन्हीं के परामर्श से लगातार महामृत्युंजय का पाठ सुनते रहते । किताबें पढ़ने पर उनकी आंखों पर बहुत स्ट्रेन पड़ता था, उनकी कोशिश रहती थी कि कोई उन्हें पढ़ कर सुनाता रहे ।

 किताबें सुनाने के लिए वह किसी न किसी को पार्ट टाइम काम पर भी रख लेते । सुनाने वाला कोई उच्चारणगत भूल कर बैठता तो तुरंत उसकी छुट्ी कर देते । जब उनके पास सुनाने के लिए कोई न होता तो वह ज्ञानपीठ से कुमार अनुपम को बुलवाते । उन्होंने दो एक व्यक्ति इस काम के योग्य पाये थे, जो पाठ के साथ साथ उन्हें यह भी बता सकते थे कि कौन सी किताब ए प्लस है और कौन सी बी प्लस । यदि पढ़कर सुनाने के लिए कोई न मिलता तो एक आंख बंद कर बहुत नजदीक से पढ़ते । खाली वह एक मिनट नहीं बैठ सकते थे । करने को कुछ न होता तो फोन पर जुट जाते । उनका मन होता तो किसी मंत्री से भी बात कर लेते । नये से नये लेखकों से उनका सम्पर्क रहता । उन्हें खबर रहती कि कौन युवा रचनाकार क्या लिख रहा है । मैं ‘ज्ञानोदय’ का सम्पादन करता था, मगर कई बार उनकी जानकारी मुझसे अधिक अद्यतन होती । कई बार उनका कोलकाता जाने का कार्यक्रम होता, सीट कन्फर्म होतीं, मगर वह फ्लाइट छोड़ देते कि आज जाने का मन नहीं है । कई बार तो हफ्ता दस दिन लगा कर किसी अतिविशिष्ट व्यक्ति से मिलने का समय लेते और ऐन मौके पर फोन करवा देते कि आज आलोकजी नहीं आ पायेंगे ।

००००००००००००००००
गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?