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निर्माल्य — डॉ. सच्चिदानंद जोशी : हिंदी कहानी



निर्माल्य

— डॉ. सच्चिदानंद जोशी


मंच पर जैसे ही कलाकार के नाम की घोषणा हुइ, मै भौचक्का रह गया। कल से जिसे मैं लड़की समझ रहा था, वो लड़का निकला। वह मंच पर अपनी सितार हाथ में लिये आ रहा था और मैं कल के अपने लतिका के साथ हुए उस संभाषण को याद कर रहा था, जब इस संगीत सभा का कार्ड हमारे हाथ लगा।

‘‘ये आजकल के बच्चे भी बड़े चतुर होते हैं। रियाज करके अच्छा गाने-बजाने की बजाय नाम से सेंशेसन पैदा करने की कोशिश करते हैं।’’ मैंने कहा।

‘‘क्यों क्या हुआ? कौशिकी तो गाती भी शानदार है, जितना सुन्दर वो दिखती है, उतना ही सुन्दर वो गाती भी है।’’ लतिका ने कहा। उसे लगा, मैं कौशिकी चक्रवर्ती की बात कर रहा हूं।

‘‘अरे, मैं कौशिकी की नहीं, उसके नीचे लिखे नाम की बात कर रहा हूं। अब भला ये भी कोई नाम हुआ ‘एन. स्वरपुत्र‘ । लगता है, जैसे किसी ने प्रसिद्ध नामो का जुगाड़ कर एक नया नाम बना लिया हो।’’

‘‘नामो का जुगाड़?’’ लतिका को शायद मेरा ऐसा कहना पसंद नहीं आया था।

‘‘और नहीं तो क्या, एन. राजम के नाम से एन. चुरा लिया। और मुकुल शिवपुत्र से मिलता-जुलता नाम स्वरपुत्र रख लिया। अब कौन समझाये इस लड़की को कि शोहरत ऐसे विचित्र नाम से नहीं, अच्छा रियाज करने से मिलती है।’’

अपने कल के इस संभाषण के बारे में सोचकर मैं मन ही मन हंस रहा था और मंच पर बैठे उस पच्चीस साल के लड़के को अपनी सितार ट्यून करते देख रहा था। हॉल खचाखच भरा था लेकिन इस बात का अहसास शायद उसे भी था कि ये भीड़ उसके लिये नहीं, कौशिकी के लिये जुटी है। लेकिन वह जान रहा था कि यह अवसर भी है उसके लिये कि वह अपने इस विचित्र लेकिन सर्वथा अपरिचित नाम का परिचय पुणे संगीत रसिकों को करवा दे। इसलिये वह तन्मयता से अपनी सितार ट्यून कर कार्यक्रम की तैयारी कर रहा था।

उसी समय मुझे याद आ गया अपने विद्यार्थी जीवन का एक प्रसंग, जब किसी संगीत सभा के बारे में चर्चा करते हुये मेरे एक मित्र ने, जो संगीत की दुनिया से सर्वथा अपरिचित था, कहा था, ‘‘कल हमारे यहां एन. राजम आ रहा है।’’ और मैंने दुरुस्त करते हुये कहा था ‘‘आ रहा है, नहीं, आ रही हैं कहो-वे महिला हैं और बहुत वरिष्ठ कलाकार हैं वो वायोलिन की।’’

मेरे विचारों की तन्द्रा उसके सितार की झंकार से टूटी। उसके पहले ही सुर ने मानो मुझे बांध लिया। और जो एक बार मैं उसके सुरों के जाल में उलझा तो उलझता ही चला गया। वह पूरिया बजा रहा था। गायकी अंग से सितार पर ऐसा मार्मिक पूरिया मैंने पहले कभी नहीं सुना था। मैं चकित था इस उम्र में उसकी तैयारी और आत्मविश्वास देखकर। उन श्रोताओं को साधना और बांधे रखना बहुत कठिन होता है, जो आपको सुनने नहीं आये हैं। ऐसा अनुभव मुझे एक दो बार भाषणों के कार्यक्रम में हो चुका है, जब मेरे बाद किसी प्रसिद्ध व्यक्ति का भाषण था। ऐसे में एक समय तो ऐसा लगता है कि अपनी बात कहे बगैर ही बैठ जाये। लेकिन इस लड़के ने तो समूचे श्रोता वर्ग को अपने सुरों में ऐसा जकड़ दिया था कि पूरे हॉल में लोग मुग्ध होकर इसे ही सुन रहे थे। सितार का ऐसा बाज इन दिनों सुनाई नहीं पड़ता। उसकी मीण का इतना और सधा हुआ और नाजुक था कि सितार गाती हुई सी सुनाई पड़ रही है। ज्यों ज्यों मैं उसके स्वरों में उलझ रहा था त्यों त्यों मुझे वर्षों पूर्व किसी की बजाई सितार याद आ रही थी। ऐसा बाज तो इन दिनों में कोई भी नहीं बजाता। उसने आलाप जोड़ झाला बजाने में ही एक घंटा लगा दिया। झाला बजाते समय उसकी ऊर्जा का भंडार पूरे हॉल में छलक गया था। तरब की तारों पर उसका अधिकार गजब का था। एक सुर उसके गुलाम दिखाई पड़़ रहे थे। मध्य लय से एक छोटी सी बंदिश बजाकर उसने अपना कार्यक्रम समाप्त कर दिया। इससे पहले कि श्रोता पूरिया के उस स्वर समुद्र से उबर पाते वह मंच से जा चुका था। तालियों की गड़गड़ाहट होती रही लेकिन वह तो मंच से अंर्तध्यान हो चुका था।

मुझे लगा कि मुझे उससे जाकर मिलना चाहिये और जानना चाहिये ये बाज उसने कहां से सीखा। मैं उठकर जाने लगा तो लतिका ने पूछा, ‘‘कहां जा रहे हो। अभी तो कौशिकी का गाना शुरू होगा।’’ मैंने टॉयलेट का बहाना बनाया और बाहर हो लिया। दरअसल मैं उससे अभी मिलना चाहता था। उसके स्वरों की कसक मुझे उसकी ओर खींचे लिये जा रही थी।

वर्षों तक दिल्ली में रहकर संगीत की समीक्षायें लिखता रहा इसलिये कलाकार से मिलने ग्रीन रूम में जाने का अच्छा खासा अभ्यास था। यहां भी ग्रीन रूम ढ़ूंढ़कर वहां पहुंचने में दिक्कत नहीं हुई। छोटा कलाकार होने के कारण उसको दिया गया ग्रीन रूम भी छोटा था, जहां वह अपने दो चार युवा मित्रों के साथ अपना सामान समेट रहा था। उसकी सितार की केस पर लगे देश विदेश के स्टिकर बता रहे थे कि लड़के ने कम उम्र में काफी यात्रायें कर डाली थीं। प्रशंसक के रूप में शायद मैं ही अकेला वहां पहुंचा था। कौशिकी के गायन की बाट जोहते प्रशंसक भला इसे शाबासी देने कहां आते।

‘‘वाह बेटे बहुत शानदर बजाया। सितार का यह बाज इन दिनों सुनाई ही नहीं पड़ता। मीण का ऐसा काम तो बजाने वाले और सिखाने वाले बचे ही नहीं।’’ मैंने कहा।

उसने अदब से मेरे पैर छुये। मैंने उसे आशीर्वाद दिया। तभी उसका मित्र बोला, ‘‘अच्छा आनंद चलता हूंै थोड़़ी देर कौशिकी जी को भी सुन लेता हूं।’’

‘‘अच्छा तू चल, मैं भी आता हूं ये समेट कर।’’

उसकी बात सुनकर उसके दोस्त चले गये। कमरे में बस हम दोनों ही बच गये।

आनंद नाम सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ। ‘‘आनंद ही नाम है मेरा। मेरे यार दोस्त सब इसी नाम से पुकारते हैं।’’ उसने कहा।

‘‘मैं दिनकर गोडबोले।’’ मैंने अपना झूठा परिचय दिया। ऐन वक्त पर मुझे अपने लिये एक झूठा नाम याद आ गया इसका मुझे भी आश्चर्य हुआ। पता नहीं क्यों अपना असली परिचय देने की इच्छा नहीं हुई। जब से पुणे आया हूं, ऐसा ही हो गया हूं। अपने आप में कैद रहना चाहता हूं। लिखना पढ़ना भी छूट सा गया है।

‘‘तुम लिखना शुरू करो तो तुम्हारी तबीयत ठीक रहेगी।’’ लतिका ने कई बार कहा भी। लेकिन मन नहीं हुआ। पुणे को किसी जमाने में पेंशनरों का शहर कहा जाता था। लगता था कि मैं भी उसी मानसिकता में ढल गया हूं। दिल्ली की चकाचैंध भरी व्यस्त जिंदगी के बाद पुणे में शायद अपने आपको खोज पाना कठिन हो रहा था मेरे लिये। शायद इसीलिये मैं उससे अपनी पहचान छिपा गया।

‘‘आपसे मिलकर अच्छा लगा गोडबेले साहब। इतनी बारीकी से कोई सुनता नहीं आजकल। सभी को चाहिये फास्ट और फटाफट संगीत।’’

‘‘हां तभी तो मुझे आश्चर्य हुआ। तुम भी युवा हो। लेकिन फिर भी तुमने इतने सधे हाथों सुरों को और साज को साधा कि मजा आ गया। फिर द्रुत बजाने की झंझट में न पड़कर मध्य लय में ही समाप्त कर दिया। ये बहुत मार्के की चाल है। श्रोताओं केा अतृप्त छोड़ दो तड़पता हुआ।’’ मैंने कहा।

वह जोर से ठहाका मार कर हंसा। उसकी हंसी भी मुझे जानी पहचानी लगी। मैं दिमाग पर जोर देकर सोचने लगा, कहां देखी है ऐसी हंसी। लेकिन कुछ याद नहीं आ रहा था।

‘‘आप बहुत बड़े जानकार मालूम पड़ते हैं। आपने एकदम सही नब्ज पकड़ ली।’’

‘‘नहीं जानकार नहीं। रिटायर्ड स्कूल मास्टर हूं। पुणे में अपना वानप्रस्थ गुजार रहा हूं। जितना जो कुछ सीखा यहीं महफिलें सुनकर सीखा है।’’  मैंने फिर एक और झूठ बोला था लेकिन खुश था कि सही अवसर पर झूठ बोलना सूझ गया।

एक समय था जब मेरी कलम से कलाकार का ग्राफ चढ़ता उतरता था और बड़े से बड़े कलाकार मेरी समीक्षा की प्रतीक्षा किया करते थे। देश की संगीत की दुनिया में मेरे नाम का सिक्का बोलता था। देश के शीर्षस्थ संगीत समीक्षक की हैसियत से मुझे न जाने कितने सम्मान मिल चुके थे। लेकिन अब वह सब पीछे छूट गया था दिल्ली में। अब तो मैं शार्दुल और संहिता का दादा बनकर रह गया था, और वह पहचान मुझे भाने लगी थी।

‘‘लेकिन तुम्हारे नाम की गुत्थी बड़ी मजेदार है। मैं तो कार्ड देखकर समझा कोई लड़की है, जो एन. राजम जैसा नाम रखकर प्रसिद्धि पाना चाहती है।’’

मेरे इस वाक्य पर वह फिर जोर से हंसा। वही परिचित हंसी। फिर बोला, ‘‘आप पहले व्यक्ति नहीं हैं जिसने ऐसा कहा। लेकिन आपको सच कहता हूं नाम की गुत्थी वगैरा कुछ नहीं। वह सब मेरा अपना सोचा है। मेरा असली नाम तो आनंद है, आनंद प्रकाश।

‘‘फिर ये ऐसा नाम क्यों।’’

‘‘उसकी एक कहानी है। लेकिन आप भला उसमें क्यों इंटरेस्टेड होंगे। इस इतना जान लीजिये कि मैंने खुद चुना है अपने लिये यह नाम।’’ ऐसा नसीब भी कम लोगों को मिलता है कि वे अपना नाम खुद चुन सकें।

‘‘नहीं। मैं नाम की कहानी सुनना चाहूंगा।’’ मैं बच्चों की तरह मचलते हुये कहा। फिर अचानक मुझे लगा कि मैं कुछ ज्यादा ही जिद कर रहा हूं तो मैंने अपने आपको सम्हालते हुये कहा, ‘‘अगर तुम्हें ऐतराज न हो तो।’’

‘‘ऐतराज क्यों होगा। लेकिन सब कुछ आज ही सुन लेंगे? और हम कहानी सुनेंगे तो अंदर हॉल में जाकर कौशिकी जी को कौन सुनेगा।’’ उसने शरारती भाव से कहा।

‘‘तो फिर मुझे तुम्हारा नम्बर दो मैं बात करूंगा तुमसे।’’

‘‘नहीं ऐसा करते हैं कल सुबह मिलते हैं होट ब्ल्यू डायमंड में। मैं वहीं ठहरा हंू। दस बजे। ठीक रहेगा।’’ उसने पूछा तो प्रश्न था लेकिन वह मानो आदेश ही था। और मैं मना नहीं कर पाया। मुझे उससे मिलना ही था। उसके बजाये हुये ’’पूरिया’’ की खुमारी अभी उतरी नहीं थी। मैं उसके स्वरों का गुलाम हो गया था और इसलिये उसकी हर बात मानता जा रहा था।

हॉल में लौटा तो वहां कौशिकी का मारुबिहाग छाया हुआ था। आनंद के पूरिया का नामोनिशान मिट चुका था। लेकिन लतिका बेचैन थी। मेरे कुर्सी पर बैठते ही उसने पूछा, ‘‘कहां चले गये थे। मुझे तो घबराहट होने लगी थी।’’

‘‘अरे टॉयलेट में बहुत भीड़ थी। और पीने के पानी के लिये भी लम्बी लाईन थी।’’

‘‘पानी पीने के लिये वहां क्यों रुके। मैं लाई हूं न साथ में।’’

‘‘अरे ध्यान ही नहीं रहा।’’ मैंने उसकी बात टाली और अपने आपको कौशिकी के स्वरों में समा देने का नाटक करने लगा। कोई अवसर होता तो शायद इन्हीं स्वरों में मंत्रमुग्ध होकर मैं सब कुछ भूल जाता लेकिन वैसा नहीं हो रहा था। आनंद का विचार और उसके सुर दिमाग से हटने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कौशिकी का कार्यक्रम खत्म हुआ और हम बाहर निकलने लगे। हॉल से बाहर निकलते हुये दरवाजे के पास आनंद खड़ा दिख गया। मैं उसे टालना चाहता था ताकि लतिका को न पता चले कि मैं उससे मिलकर आया हूं। लेकिन उसकी नजरों ने मुझे पकड़ ही लिया।

‘‘अच्छा गोडबोले साहब। कल मिलते हैं दस बजे।’’ उसने कहा, ‘‘हां हां ठीक है।’’ मैंने जल्दी संभाषण समाप्त करते हुये कहा और बाहर निकलकर ऑटो में बैठ गया।

ऑटोवाले को घर का पता बताने के बाद लतिका ने पूछा, ‘‘ये गोडबोले का क्या चक्कर है? वो सितारिया तुम्हें गोडबोले क्यों कह रहा था। ‘‘और तुम उससे जाकर मिले थे क्या प्रोग्राम के बाद ? मुझे क्यों नहीं बताया तब ?’’

‘‘अरे बाबा घर चलो। कितने सवाल करोगी एक साथ। घर चलकर सब बताता हूं।’’ मैंने कहा और उनीदे होने का बहाना बनाकर चुप हो गया। दरअसल मैं लतिका को कोई ठोस बहाना बनाना चाह रहा था। लेकिन क्या बताता। मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि मैंने उस लड़के से अपने बारे में झूठ क्यों बोला। क्यों छुपाया मैंने अपना परिचय। मेरे नाम से मुझे कोई जान लेगा ऐसा यहां पुणे में तो लगभग असंभव ही था।

घर पहुंचकर भी मैं सीधे जाकर सो गया ताकि मुझे लतिका के प्रश्नों का सामना न करना पड़े। लेकिन प्रश्न कहां कम होने वाले थे। सुबह तक तो प्रश्नों में गुणात्मक वृद्धि हो चुकी थी। मैं तैयार हो रहा था आनंद से मिलने जाने के लिये तभी लतिका ने प्रश्नों की बौछार शुरू कर दी। ‘‘ये सितारिये का चक्कर क्या है?’’, ‘‘तुम इतनी सुबह कहां जा रहे हो तैयार होकर’’, ‘‘अपना नाम क्यों छुपाया तुमने’’ ऐसे न जाने कितने सवाल लतिका ने दाग दिये। मैं सिलसिलेवार  जो मन में आया वो उसे बताता रहा। उसे भी आश्चर्य था कि मैं जबसे पुणे आया हूं कहीं भी किसी से भी मिलने नहीं गया। और आज अचानक बिना उसे बताये कहां जा रहा हूं। खैर जब मैंने उसे बताया कि ब्ल्यू डायमंड जा रहा हूं और दो घंटे में लौटूंगा, तब जाकर जान छूटी।

ब्ल्यू डायमंड में तो जैसे वो मेरा इंतजार ही कर रहा था। आज उसका रूप बदला हुआ था। जीन्स और टीशर्ट में उसकी उम्र दो चार साल कम ही लग रही थी। न जाने क्यों आज वह मुझे और भी अधिक अपना सा लगने लगा।

‘‘मैं आपका ही इंतजार कर रहा था। नाश्ता करेंगे या चाय?’’

‘‘मैं नाश्ता करके आया हूं। सिर्फ चाय लूंगा। तुम्हें लेना हो तो तुम ले सकते हो।’’ और अचानक मुझे याद आया कि मैं उसे ‘तुम‘ कह रहा हूं।’’ माफ करें मैंने आपको ‘तुम‘ कह दिया।’’

‘‘नहीं मुझे ‘तुम‘ ही अच्छा लगता है। कोई ‘आप‘ कहता है तो बेहद अटपटा लगता है। लगता है कि अपन बहुत बड़े हो गये हैं।’’

‘‘बड़े तो हो ही बेटा। तुम्हारा काम बहुत बड़ा है। तुम्हारा रियाज और तुम्हारी कला ही तो तुम्हें ये इज्जत दिलवा रही है।’’

‘‘फिर भी संकोच होता है सर ? खासकर आप जैसे बुजुर्गों के सामने।’’ वह विनम्रता से बोला।

‘‘हां तुम अपने नाम के बारे में कुछ बताने वाले थे।’’ मैंने मूल विषय पर आने की  गरज से कहा।

‘‘बहुत जल्दी है जानने की। आपको कहीं जाना है क्या ?‘‘ उसने शैतानी भरे लहजे में पूछा।

‘‘मुझे भला कहां जाना होगा। मैं ठहरा रिटायर्ड आदमी। लेकिन तुम्हें कहीं जाना हो सकता है।’’

‘‘नहीं सर! आज का पूरा समय आपके लिये है। आपने कहा, आप रिटायर्ड हैं, कहां काम करते थे।’’ उसने सहज भाव से पूछा लेकिन मुझे लगा कि वो मेरी जासूसी कर रहा है। झूठ बोलो तो ये जरूरी होता है कि याद रखे कब, कहां ,क्या झूठ बोला था। कल मैंने उसे बताया था कि मैं एक टीचर हूं। आज भी वही बात कायम रखना जरूरी था।

‘‘स्कूल में संगीत शिक्षक था। सरकारी नौकरी थी। निभ गई इतने साल। अब मामूली पेंशन है उसमें गुजारा हो जाता है। बेटे के पास रहते हैं जो एक मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर है।’’

‘‘संगीत पढ़ाते थे तभी आपका संगीत का ज्ञान इतना पुख्ता है। वर्ना जिन बारीकियों को आपने पकड़ा कल, उन्हें भला कौन पकड़ सकता है।’’

‘‘हां थोड़ा बहुत जो पढाया़ था बच्चों को उसी के आधार पर कुछ कच्चा पक्का बता देते हैं। नही ंतो हमारी क्या हैसियत जो आप जैसे कलाकारो को कुछ कहे।’’

‘‘ऐसा नहीं है आप गुरुजनों के आशीष के कारण ही हम हैं।’’ वह विनम्रता की प्रतिमूर्ति बने जा रहा था।

‘‘लेकिन तुमने अपने नाम के बारे में नहीं बताया।’’ मैं उसे फिर मूल बात पर लाना चाहता था।

‘‘लगता है आप उसे जाने बिना मानेंगे नहीं। कुछ नहीं है सर सीधा साधा नाम है लेकिन फिर भी लोग न जाने क्या क्या सवाल करते हैं।’’

‘‘सीधा साधा नाम है तो फिर क्यों सवाल करेंगे। नाम बताओ तो हम भी शायद पता लगा पायें कि लोग सवाल क्यों करते हैं।’’

‘‘सर मेरा नाम है ‘‘निर्माल्य स्वरपुत्र’’।’’

‘‘ ‘निर्माल्य‘ ये कैसा नाम हुआ।’’ मैं आश्चर्य से चैंका।

‘‘बस देखा सर आपने। आपके मुंह से भी वही सवाल निकला। मैं इस तरह के सवालों से तंग आ गया था। इसलिये अब मैंने अपने नाम का शार्टफार्म एन. स्वरपुत्र ही प्रचलित करना शुरू कर दिया। बहुत से बहुत अब लोग ऐसा समझते हैं कि मैं एन. राजम जी की नकल कर रहा हंूं। सच मानिये इतनी महान कलाकार की तो मैं नकल करने के बारे में सोच भी नहीं सकता ? मैं तो उनके पैरों के धूल के बराबर हूं।’’

‘‘सच कहूं तो पहले मैंने भी ऐसा ही सोचा था। मुझे भी लगा कि ये कोई नया बावला है जो संगीत की दुनिया में नाम चुराकर महान बनना चाहता है। एन. राजम का एन. और शिवपुत्र से मिलता जुलता स्वरपुत्र!’’ मैं बड़ी आसानी से उसे लड़की समझने की भूल वाली बात छिपा गया था।

‘‘लेकिन मेरा संगीत सुनकर आपको इतना अहसास तो हो गया होगा कि ये बावला उतना बावला भी नहीं है।’’

‘‘नहीं नहीं सिर्फ इतना ही नहीं, मैं तो तुम्हारा बाज सुनकर दंग रह गया। ऐसा काम तो सितार पर आजकल कोई करता ही नहीं। मैंने तो बरसों पहले-‘‘मैं कहते कहते रुक गया। मैं उसे अपना पूर्व परिचय नहीं देना चाहता था। आगे बोलता तो शायद वह कुछ समझ जाता। इसलिये झट से बात बदलते हुये कहा।’’ यह काम तुमने किससे सीखा है ?’’ जवाब में उसने कोई नाम बताया। वर्षों तक संगीत समीक्षक रहा था इसलिये इतना तो जानता था कि ऐसा काम सिखाने की कुव्वत उन उस्तादों में नहीं थी जिनका ये नाम बता रहा है। फिर भी अपने अविश्वास को परे धकेलते हुये मैंने कहा, ‘‘तुम अपने नाम की कहानी बता रहे थे।’’

‘‘जल्दी क्या है सर पहले चाय वाय पी लें। आती ही होगी।’’ उसने कहा और इंटरकॉम दबाकर चाय के बारे में पूछताछ करने लगा। मैं उसे गौर से देख रहा था। उसका आत्मविश्वास गजब का था। अपनी उम्र के हिसाब से वह बहुत अधिक परिपक्व और संजीदा लग रहा था। लेकिन जितनी भी बार उसे देखता, लगता था किसी पूर्व परिचित से मिल रहा हूं। अपनी इंटरकाम पर बात खत्म करके मेरी ओर मुखातिब होते हुये वह बोला, ‘‘अच्छा पहले ये बतायें कल के पूरिया में क्या कमी रह गयी।’’

‘‘कमी तो नहीं थी कुछ। हां कुछ जगह पर फिसलन दिख रही थी खासकर तार सप्तक के स्वरों में। लय में भी कहीं कहीं झोल था ?’’ अब कुछ तो गलती निकालनी ही थी इसलिये बोल बैठा।

‘‘आपने बिल्कुल सही पकड़ा है। आपकी दृष्टि गजब की है। संगीत शिक्षकों को आमतौर पर इतनी पैनी नजर रखते देखा नहीं।’’

‘‘ऐसे कितने संगीत शिक्षक देख लिये हैं तुमने’’ मैंने उपहास से कहा।

‘‘आपको पता नहीं मैं उन्हीं के खानदान से हूं।’’ ऐसा उसने कहा जरूर लेकिन फिर उसकी आवाज में उदासी छा गई। अपनी बात को आगे जोड़ते हुये बोला, ‘‘ऐसा मैं समझता हंू।’’

बात ज्यादा पर्सनल न हो जाये इसलिये मैंने फिर बातचीत का रुख मोड़ते हुये कहा, ‘‘निर्माल्य नाम कुछ अजीब नहीं लगता।’’

‘‘अजीब ही है सर! मेरा सब कुछ अजीब है। तो नाम भी तो अजीब होना ही चाहिये।’’ उसने मजे लेते हुये कहा। लेकिन शायद मेरा चेहरा देखकर वह भांप गया कि मुझे उसकी मजाक में बिल्कुल भी मजा नहीं आ रहा है।

‘‘क्या करूं सर। अपनी लाईफ ही कुछ ऐसी है। नाम था आनंद लेकिन जीवन में आनंद का पता ही नहीं था।’’ उसके आगे ‘प्रकाश‘ जोड़ा लेकिन जीवन में अंधकार छा गया।

‘‘आनंद प्रकाश तो ठीक है लेकिन उसके आगे क्या? शर्मा, पांडे, तिवारी, वर्मा, गुप्ता क्या नाम है पूरा।’’ मैंने जिज्ञासावश पूछा।

‘‘आनंद पटवर्धन। जी हां सुप्रसिद्ध संगीत मार्तण्ड गोपालराव पटवर्धन के परिवार से हूं मैं।’’ उसने ठसक से कहा।

‘‘तो फिर नाम की इतनी अदलाबदली क्यों ? वो भी ऐसी कि अपना मूल नाम समूल नष्ट हो जाये। कहां आनंद प्रकाश पटवर्धन और कहां ये निर्माल्य स्वरपुत्र। कहीं भी मेल नहीं बैठता।’’

‘‘नाम का ही नहीं सर मेरा तो किसी भी चीज का मेल नहीं बैठता। चलिये आपको अपनी पूरी कहानी सुना ही देता हूं।’’

मैं भी उसकी बात सुनने को अब ज्यादा उत्सुक हो चला था क्योंकि गोपाल राव पटवर्धन के परिवार से एक धागा मेरा भी जुड़ा था कहीं। वे महान संगीतकार तो थे ही साथ ही आरती के पिता भी थे।

हां आरती जो अपने समय की एक अच्छी गायिका रही। उसने गोपाल राव की विरासत को आगे बढ़ाया था। जब दिल्ली नया नया आया था तो उम्र थी पच्चीस साल। उन दिनों युवा गायिका के रूप में आरती के बड़े चर्चे थे। कई लोग दिवाने थे उसके गाने के। उनमें एक मैं भी था। दीवानगी थोड़ी ज्यादा बढ़ गई। लेकिन किस्मत को ये मंजूर नहीं था। फिर हमारे रिश्ते सिर्फ प्रोफेशनल बनकर रह गये, एक कलाकार और समीक्षक के।

‘‘मेरी माँ थी आरती।’’ उसने जैसे मेरे मन की बात पकड़ ली।

‘‘उसने ही मुझे संगीत की तालीम दी, सितार में ये गायकी का बाज मैंने उसी से पाया है। उसकी तानो को याद करके ही मैं मीण बजाता हूं। लय कारी और पलटे सभी कुछ उसी की देन है।’’

‘‘गला तो तुम्हारा भी अच्छा है। फिर गाना छोड़कर तुमने सितार  क्यों थाम ली। ग्लैमर के कारण।’’

‘‘काश इसका कारण ग्लैमर ही होता। बहुत छोटा था मैं और माँ के साथ रियाज करने बैठ जाता था। माँ मुझे मनोयोग से संगीत सिखाती। लेकिन गाना छोड़कर मेरा ध्यान दूसरे साजो पर चला जाता था। एक दिन माँ के साथ संगीत विद्यालय गया। वहां रखी सितार को हाथ में लेकर बजाने की कोशिश करने लगा। छः साल का था मैं जब। लेकिन जब मैंने पहला स्ट्रोक लगाया, सब चैक गये। उस स्कूल के सर बोले, ‘‘अरे ये तो एकदम तैयार लगता है।’’ तभी से माँ ने गाना छोड़कर मुझे सितार सीखने भेज दिया। माँ का गाना मेरा सितार दोनों अच्छा चल रहा था। लेकिन उसे छोड़कर बाकी सब कुछ घर में अच्छा नहीं चल रहा था। मेरी माँ और पिता के बीच लगातार तकरार बढ़ती जा रही थी। बहुत छोटा था मैं। महज सात साल का लेकिन इतना समझ में आ रहा था कि इस तकरार की एक वजह मैं भी हूं।

बार बार दोनों की बहस में मेरा नाम आता था। माँ उनसे हर बात पर बराबरी से बहस करती। लेकिन पता नहीं क्यों मेरा नाम आते ही माँ एकदम खामोश हो जाती।

और उस दिन तो हद हो गई जब मेरे पिता ने माँ की बुरी तरह पिटाई की। घर से बाहर निकल जाने को कहा। रात का समय जैसे तैसे माँ ने घर में गुजारा और दूसरे दिन सुबह माँ नानाजी के घर आ गई।’’

आरती पटवर्धन के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मुझे भी थी। लेकिन मैं तो आनंद से अपनी असली पहचान छिपा रहा था, कैसे बताता उसे कि उसके पिता को मैं जानता था। दरअसल आरती ने मुझ जैसे ही एक पत्रकार से शादी की थी। नाम था भास्कर सरकार। वह ‘नवप्रभात‘ अखबार का सहसम्पादक था। विजातीय होने के कारण पटवर्धन साहब बहुत खुश नहीं थे इस विवाह से। शादी के बाद कुछ दिन तक तो आरती का उनके यहां आना जाना भी बंद था। आरती शादी के लगभग दो तीन साल बाद तक तो गाना छोड़कर सिर्फ घर परिवार में ही लगी हुई थी। लेकिन जो कुछ आनंद ने बताया वह तो होना ही था क्योंकि भास्कर की शराब की लत और गाली गलौच की आदत तो जगप्रसिद्ध थी। कलम की ऊर्जा के जिस क्षणिक आवेग में वह विवाह हुआ था वह ऊर्जा तो कब की जा चुकी थी। यही बात पटवर्धन साहब को भी पसंद नहीं होगी। इसलिये उन्होंने आरती का घर में आना जाना बंद कर दिया था।

‘‘मैं और माँ नाना के यहां आये जरूर लेकिन नानाजी और मामाजी दोनों ने साफ जता दिया कि हम माँ बेटे को जल्द ही अपना इंतजाम अलग करना होगा।’’ आनंद अपनी रौ में बताये चला जा रहा था। मैं इतना छोटा था कि कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। अपने से अचानक दूर हुये पिता के रहस्य को भी नहीं समझ पा रहा था। नाना और मामा की उपेक्षा भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था।

आखिर एक दिन माँ को एक नौकरी मिल ही गई। तनख्वाह इतनी थी कि हम मां बेटा का गुजारा हो जाये।

माँ ने अपनी जिंदगी को धीरे धीरे संवारना शुरू किया। मैं भी उस उम्र में जितना समझ सकता था, उतना समझने का प्रयास कर रहा था। लेकिन जिंदगी की उलझन शायद मेरी अपेक्षा से ज्यादा ही बड़ी थी। स्कूल के दाखिला रजिस्टर में माँ ने मेरा नाम आनंद सरकार लिखने की बजाय आनंद पटवर्धन लिखवाया। मुझे समझ नहीं आया कि मेरे नाम के आगे सरकार की बजाय पटवर्धन क्यों लिखवाया गया।

इस रहस्य का पर्दा तब खुला जब मैं बारह साल का हो गया। तब तक माँ का भी तलाक हो चुका था और अब वह भी अपना नाम आरती सरकार के बजाय फिर से आरती पटवर्धन लिखने लगी थी। एक दिन स्कूल में जब किसी साथी ने पूछा कि मैं मेरे पिता का नाम क्यों नहीं लगाता तो मुझे भी कसमसाहट हुई ये जानने की कि मेरे पिता का नाम मेरे नाम के साथ क्यों नहीं लगता। उत्सुकता तो यह जानने की भी थी कि मेरे पिता को हमें घर से निकाल देने के बाद एक भी बार मुझसे मिलने की इच्छा क्यों नहीं हुई। ढेर सारे सवाल थे। माँ से बताने की जिद कर बैठा। लेकिन जो कुछ उसने बताया वह सचमुच गहरा धक्का देने वाला था। मेरे बारह साल के नाजुक मन पर कड़ा प्रहार करने वाला था।

‘‘सच्चाई ये है सर कि मैं आरती और भास्कर सरकार का बेटा हूं ही नहीं। मैं बेटा हूं आरती और उसके किसी समय के संगीत के साथी रहे प्रसिद्ध सितार वादक चैतन्य पंडित का।’’

आनंद की बात सुनकर मैं भौचक्का रह गया। संगीत की दुनिया में चैतन्य पंडित का नाम बहुत आदर और श्रद्धा से लिया जाता रहा है। उसके मुकाबले का सितार वादक तो आज पूरे भारत में कहीं नहीं है। अब मेरी समझ में आ रहा था आनंद की बजाने की शैली का। उसने चैतन्य पंडित का बाज हू ब हू उठा लिया था। उसके साथ अपनी मां की गायकी लेकर एक अलग शैली बना ली थी उसने। ये बात दूसरी थी कि प्रोफेशनली मेरी और उसकी कभी नहीं बनी। मुझे वह बड़ा घमंडी लगता था, और उसे मैं नकचढ़ा। इसलिये हम दोनों में कभी अच्छी दोस्ती नहीं रही।

‘‘चैतन्य पंडित। लेकिन वह तो.....’’ मैंने बात को आगे बढ़ाने की गरज से कहा।

‘‘जी वह तो मुम्बई में रहते थे। लेकिन नानाजी के कारण उनका हमारे घर  आना जाना था। माँ से भी उनका परिचय उसी दौरान था। लेकिन ऐसी कोई प्रगाढ़ता नहीं थी उन दोनों में। फिर माँ शादी करके चली भी गई थी। लेकिन जो विधि लिखित होता है उसे कौन टाल सकता है। ऐसे ही एक दिन किसी संगीत सभा के बाद माँ का उनसे मिलना हुआ। माँ शायद अपने पति के कड़ुवे व्यवहार और शराब की आदत से खिन्न थी। शायद कुंठा में भी थी कि उसका गायन का कॅरियर इस विवाद के कारण बर्बाद हो रहा है। ऐसे ही कमजोर क्षणों में चैतन्य पंडित जी का सहारा मिला और वे दोनों भावनाओं में बह गये।

माँ उसके बाद उनसे नहीं मिली। लेकिन उनके बीच हुये संसर्ग का बीज माँ के पेट में पनपने लगा मेरे रूप में। मेरे वैधानिक पिता भास्कर सरकार पेशे से पत्रकार थे ही सो उन्होंने खोज निकाला मेरे जन्म का रहस्य। उसी दिन से उन दोनों में तकरार शुरू हुई और नौबत तलाक तक आ पहुंची।’’ आनंद निर्विकार भाव से अपने जन्म की कहानी मुझे बता रहा था और मेरे मन में अनेक प्रश्नों का सैलाब उमड़ घुमड़ रहा था।

‘‘आश्चर्य है कि तुम्हारी माँ ने क्षणिक पे्रम आवेग की उस भेंट को तुम्हारे रूप में संजो कर रखा। यह जानते हुये भी कि इसमें खतरा है।’’

‘‘हो सकता है इसमें भी माँ का स्वार्थ ही हो। वह चाहती हो कि उसकी औलाद एक पत्रकार के बजाय एक संगीतकारके जीन्स लेकर पैदा हो। जिस दिन पहली बार मैंने सितार पर हाथ रखा था, मेरे सुर वहीं से सधने लगे थे। माँ ने भी यही सोचा होगा।’’ कमरे में थो ड़ी देर नीरवता छाई रही। वेटर चाय की केतली रख गया था सो हम दोनों धीरे धीरे चाय सुड़कने लगे। प्रश्न बहुत थे पर क्या बोलूं मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। वह भी शायद अपनी कहानी पूरी कर चुका था। मुझे उत्कंठा थी जानने की क्या चैतन्य पंडित को यह सब मालूम है। मेरी बात का जवाब उसने खुद ही दे दिया।

कई साल तक मैं चैतन्य पंडित से मिलने की इच्छा मन में बांधे रहा। एक दो बार माँ से कहा भी तो उसने झिड़क दिया। कहा कि अभी समय नहीं है। सही समय आने पर मिलवा दंूंगी। मजे की बात तो यह भी थी कि उन्होंने भी कभी हम लोगों से मिलने का प्रयत्न नहीं किया। एक बार तो एक संगीत सभा में दोनों की प्रस्तुतियां आगे पीछे थीं। लेकिन मां ने कुछ इस तरह समय साधा कि उनका आमना सामना ही न हो पाये। मां मनोयोग से अपने सुरों की साधना करती रही और मुझे सिखाती रही।

पता नहीं दोनों का कैसा रिश्ता था उन दोनों में। न मिलते थे। न मिलने की चाह थी ? मुझे बार बार लगता था कि एक बार तो मिलूं अपने जन्मदाता से। लेकिन माँ की दहशत के आगे ज्यादा हिम्मत नहीं जुटा पाता था।

लेकिन जब मैं अठारह वर्ष का हो गया तब माँ ने मुझे एक नंबर दिया और कहा कि ये चैतन्य पंडित जी का पर्सनल नंबर है। इस पर चाहो तो बात कर लो। नंबर तो मैंने ले लिया लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हुई बात करने की। क्या बात करता-क्या कहता उनसे। और मेरे कहने का क्या वे विश्वास कर लेते। हमने फिल्मों में ऐसे दृष्य कई देखे जब पिता अपने ऐसी संतानों को भी गले लगाया है। लेकिन असलियत में क्या ऐसा होता है यह तय करना मेरे लिये कठिन था।

इस उधेड़बुन में मैंने न जाने कितने काल्पनिक संवाद रच डाले थे अपने पिता के साथ। आखिर एक दिन हिम्मत करके मैंने वह नंबर घुमा ही दिया। मुझे अच्छी तरह याद है वह गुरुपूर्णिमा का दिन था। सोचा जिससे जन्म से अनुवांशिक गुणों के माध्यम से शिक्षा मिली है, उसे प्रणाम कर लूं। उस संभाषण का एक एक शब्द मुझे आज तक याद है। उन्होंने फोन उठाया और कहा ‘‘श्रीराम! कौन बोल रहा है ?’’ ‘‘मैं आनंद ! आरती पटवर्धन का लड़का।’’ मैंने सहमते कहा। ‘‘आरती ? अच्छा। अच्छा गोपाल राव जी की लड़की। बहुत अच्छा गाती है वे। हां कहो बेटा कैसे याद किया।’’

‘‘कुछ नहीं आपसे बात करनी थी। मैं उनका लड़का हूं।’’

मैंने फिर जोर देकर कहा कि शायद इस बार उनके दिमाग में कुछ बात कौंधे। लेकिन वे निर्विकार थे। एकदम निर्विकार।

‘‘अच्छा तुम भी कुछ गा बजा लेते हो अपनी माँ और अपने नाना की तरह?’’ उन्होंने प्रश्न किया।

‘‘जी बस यूं ही थोड़ा बहुत सितार बजा लेता हूं।’’

‘‘देखो बेटा अभी तो मेरे पास छः लोग सीख रहे हैं। वैसे भी मैं एकदम सीधे किसी को सिखाता नहीं। अब चूंकि तुम गोपाल राव पटवर्धन के नाती हो इसलिये इतना कर सकता हूं कि तुम मेरे प्रिय शिष्य दीपक कपूर से सीख लो। उनके साथ सीखकर जब हाथ सध जाये तुम्हारा तो दो चार बातें हम भी बता देंगे।’’ चैतन्य पंडित जी मुझे मौका दिये बगैर अपनी बात कर डाली।

‘‘जी प्रणाम।’’ मैंने कहा और फोन काट दिया।

 क्या बताता मैं उन्हें। मुझे तो यह भी नहीं सूझ रहा था कि सामने वाले से कैसे भावनात्मक संवाद किया जाय जबकि वह इतना निर्विकार हो।’’

‘‘तुमने यह बात अभी मां को बताई।’’ मैंने पूछा।

‘‘हां बताई थी। लेकिन उसकी भी प्रतिक्रिया बड़ी विचित्र थी। उसने कहा कि मुझे मालूम था ऐसा ही होगा।

माँ ने जो बताया वह तो मेरे लिये ऐसा आघात था कि मानो मेरे सिर से घर की छत ही उड़ गई हो। माँ बोली उस रात के बाद जब इस बात का अहसास हुआ उसे कि वह गर्भवती है, तो उसने चैतन्य पंडित से मुलाकात की थी। लेकिन चैतन्य पंडित ने पूरी बात को हंसी में उड़ाते हुये माँ के चरित्र पर ही उंगली उठा दी। वे इस बात पर विश्वास करने को ही तैयार नहीं थे कि गर्भ में पल रहा बच्चा उनका है। उन्होंने माँ को सलाह भी दी कि जिस बच्चे के पिता के बारे में वह निश्चय नहीं कर पा रही है ऐसे बच्चे से पीछा छुड़ाना ही बेहतर है। उस दिन माँ ने दो निश्चय किये। एक तो यह कि वह जन्म भर चैतन्य पंडित से बात नहीं करेगी, और दूसरा यह कि चाहे कुछ भी हो जाये वह मुझे जन्म देगी। उस दिन भी माँ ने चैतन्य पंडित का फोन नंबर इसलिये दिया कि मेरे मन में कोई मलाल और कोई भ्रम न रह जाये।

‘‘मेरे लिये वे बहुत दुविधा के ऊहापोह के दिन थे। ‘सरकार’ मैं था नहीं, ‘पंडित’ ने अपनाया नहीं इसलिये जबर्दस्ती पटवर्धन नाम लगाना पड़ा था। और यही बात मुझे कचोट रही थी। जब यह तनाव, यह दुविधा असह्य होने लगी तब मैंने भी दो निश्चय किये।’’

‘‘कौन से निश्चय ?‘‘ मैंने पूछा।

एक ऐसा सितारिया बनना कि लोगों को खुद ब खुद चैतन्य पंडित का परिचय मिल जाये मेरे माध्यम से। दूसरा यह कि माँ की छाया से दूर होकर अपना अलग अस्तित्व बनाना। इसलिये मैं माँ की छाया से दूर कोलकाता चला गया। माँ का अपना संगीत विद्यालय है और उसकी तमाम शिष्यायें उसका खयाल रखती हैं। अब तो नाना भी नहीं हैं। मामा भी माँ का बहुत खयाल रखते हैं। मालूम पड़ा पिछले साल भास्कर सरकार भी लीवर की बीमारी से चल बसे। अब लगा कि जिंदगी का बाकी रास्ता अकेले ही तय करना है। बस इसीलिये आननफानन में ये निर्णय करना पड़ा नाम बदलने का।’’ उसका चेहरा देखकर लग रहा था कि वह अब थक चुका है, शरीर से ही नहीं, पर मन से भी। लेकिन मूल प्रश्न तो वही का वही जस का तस था।

‘‘लेकिन यही नाम क्यों ?‘‘ मैंने प्रश्न दाग दिया।

‘‘और क्या नाम होना चाहिये। हम पूजा में भगवान को रोज फूल चढ़ाते हैं। लेकिन आज चढ़ाया फूल कल काम नहीं आता। उसे उतार कर रख दिया जाता है, पानी में सिरा दिया जाता है, या ऐसी किसी जगह डाल दिया जाता है जहां किसी का उस पर पैर न लगे। पूजा के उतारे फूल को हम ‘‘निर्माल्य’’ कहते हैं। मेरी अवस्था भी ऐसी ही है। मैं भी पे्रम के देवता की भेंट पर चढ़ा, फूल ही हूं, जिसे उतार कर फेंक दिया गया है। मेरा महत्व उनके जीवन में कुछ नहीं है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा मैं ‘फेंका जाऊं‘ या ‘सिराया जाऊं‘। कहते कहते उसकी आंखें डबडबा आई थीं।

‘‘और ये स्वरपुत्र। ये किसलिये ?’’

‘‘मैं दो स्वर साधकों के संसर्ग से उपजी संतान हूं इस बात का अहसास मुझे हमेशा रहे इसलिये। उनके जीवन में मेरा महत्व भले ही न हो। लेकिन मेरे होने में तो उन दोनों स्वरासाधकों का योगदान है। उनके इस स्वर युग्म को मैं सदा उत्सव रूप में मनाता रहूं यह सदा स्मरण रखना होगा मुझे।’’

इतना सुनने के बाद मेरे पास कुछ और कहने के लिये नहीं बचा था। ये सारी घटनायें दिल्ली रहते हुये मेरे आसपास घटित हुईं और मुझे इसकी जरा भी भनक नहीं लगी, इस बात का आश्चर्य हो रहा था मुझे। लेकिन एक बात समझ में नहीं आई कि इस लड़के ने यह सारी बातें मुझे ही क्यों बताई। मैंने उससे पूछ ही लिया। वह मुस्कुराते हुये बोला, ‘‘आपको ही क्यों बताई, जानना चाहते हैं। इसलिये कि कोई तो हो जो मेरी बात मेरे दृष्टिकोण से जान सके। ताकि वक्त आने पर वो दुनिया को मेरी कहानी बता सके। और इसके लिये आपसे बेहतर कौन व्यक्ति हो सकता है सचिन मेहता जी ? द ग्रेट म्यूजिक क्रिटिक।’’

उसके मुंह से अपना नाम सुनकर मैं एकदम चैंक गया।

‘‘तुम ! तुम मेरा नाम कैसे जानते हो ?’’

‘‘आप अपना नाम भले ही गलत बतायें, लेकिन मैं आपको पहचानने में भूल नहीं कर सकता मेहता सर। संगीत समीक्षा पर मैंने आपकी दोनों किताबें पढ़ी हैं। उसमें फोटो भले ही आपकी युवावस्था का है लेकिन हमारी नजरों से आप बच नहीं सकते।’’ वह मुस्कुराते हुये बोला। ‘‘मैं यह भी जानता हूं कि इन दिनों आपका लिखना पढ़ना बंद है और प्रसिद्धि से दूर पुणे में अपना जीवन बिता रहे हैं। लेकिन जैसे सितारिये के हाथ से मरते दम तक सितार नहीं छूटती, वैसे ही लेखक के हाथ से मरते दम तक कलम कहां छूटती है। हो सकता है मेरी कहानी आपको कलम उठाने पर मजबूर कर दे।’’

मैं गहरे सोच में पड़ गया कि इतना सब कुछ जानते हुये भी यह लड़का इतनी देर तक अनजान बना रहा। एक अनजाना भय भी समाने लगा मन में। और वह भय अकारण नहीं था। क्योंकि अगला वाक्य जो उसने कहा, वह मेरे लिये अकल्पनीय था, ‘‘एक बात और मेहता सर! जब हम किसी से पे्रम करते हैं, तो उसे यंू मन में नहीं रखना चाहिये। कम-से-कम एक बार तो उससे कह ही देना चाहिये। कौन जाने यदि आप एक बार मां को अपने मन की बात कह देते तो शायद आज कहानी कुछ दूसरी होती।’’

लड़का सच ही कह रहा था। दिमाग को सुन्न कर देने वाली थी उसकी कहानी, जिसने मुझे मेरी कलम बंद हड़ताल तोड़ने पर मजबूर कर दिया। घर आकर बिना किसी से कुछ कहे दराज से कागज निकाला और लिखना शुरू कर दिया। जो पहला शब्द मेरी कलम से निकला, वह था ‘‘निर्माल्य।’’


डॉ. सच्चिदानंद जोशी
संपर्क:
सदस्य सचिव,
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, 
11, मान सिंह रोड, नई दिल्ली-110011
ईमेल: msignca@yahoo.com



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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इरा टाक की कहानी 'मैडम का बंटी' | @tak_era


मासूम कहानियाँ जिनमें इंसानियत अपने रोज़मर्रा के रूप में नज़र आती रहती है, उन्हें पढ़ना न सिर्फ एक मुस्कान दिए रहता है साथ ही स्फूर्ति भी देता है. इरा टाक शब्दांकन की स्टार कहानीकार हैं, और उनकी कहानियों में यह मासूमियत होती है... भरत तिवारी 


मैडम का बंटी

— इरा टाक



नेगी मैडम अल्मोड़ा के एक डिग्री कॉलेज में गणित की प्रोफेसर थीं, छोटा कद, दुबला पतला शरीर, गोरा रंग, भूरी बादामी ऑंखें, मेहँदी से रंगे बॉय कट बाल, चेहरे पर रोब! मिस्टर नेगी के गुजर जाने के बाद वो अब अपनी बड़ी सी कोठी में बिल्कुल अकेली रहती थीं। कोठी के ऊपर उनके सीढ़ीदार कुछ खेत भी थे और सामने एक बड़ा सा बगीचा जिसमें उन्होंने अपनी पसंद के ढेरों पेड़ पौधे और सब्जियां उगा रखी थीं।

एक ही लड़का था वरुण जो अपने परिवार के साथ अमेरिका में था, वो कई बार कह चुका था, "माँ, वोलंटरी रिटायरमेंट ले कर यहाँ आ जाओ...कोई कमी तो है नहीं, वहां अकेले रह कर अब नौकरी क्यों करनी!"

पर मैडम का मन अपने पुरखों का बंगला और देश छोड़ने का हरगिज़ नहीं था। फिर शुरू से अपने मन की करी थी। बुढ़ापे में बहू के शासन में रहना उन्हें गवारा न था। पिछली बार जाड़ों की छुट्टियों में दस दिनों के लिए अमेरिका गयीं थीं, पर वहां पाँच दिन रहना भी उन्हें भारी पड़ गया।

"मम्मी ये मत करो, यहाँ ऐसे करते हैं, ऐसे बैठो, ऐसे बोलो, बाहर मत जाओ, सामान यहाँ मत रखो...वहां मत रखो..."—बहू की रोक टोक सुनते सुनते मैडमजी आजिज़ आ गयी थीं। ज़िन्दगी भर अल्फा बीटा सिखाते हुए काटी थी अब बहू नया पाठ पढ़ाना चाहती थी, मैडमजी के लिए बर्दास्त से बाहर था। किसी तरह दिन काटे और वापस अमेरिका न जाने की कसम खा ली।

अभी सेवानिवृति को पाँच-सात साल बाकी थे, क्यों किसी पर जाकर बोझ बनें...? उनकी दुनिया, कॉलेज और उनके स्टुडेंट्स थे, पर घर आते ही उनको अकेलापन खाने को दौड़ता...कभी टीवी देखतीं...कभी पुराने एल्बम। .कभी बगीचे में फूलों को निहारती...कपडे खरीदने का उन्हें खासा शौक था, हर हफ्ते बड़े बाज़ार जा कर एक-दो नयी साड़ियां ले आतीं, पर इन सब चीजों से कभी अकेलापन दूर होता है भला! रोज वरुण को अमेरिका फ़ोन लगातीं...पर फिर भी मन न लगता और इस अकेलेपन की वजह से कभी बेहद हँसमुख और ज़िंदादिल रहीं मैडमजी दिन पर दिन चिड़चिड़ी और झक्की होती जा रही थीं।

आज उनका जन्मदिन था, कड़क कलफ लगी नीली धारी वाली तात की नई साडी पहन कर वो कॉलेज को निकली। कॉलेज में सभी उनकी साड़ियों और रुतबे पर फ़िदा रहते थे, फिर आज तो ख़ास दिन था इसलिए ख़ास साडी! ये साडी उन्होंने पिछले महीने कलकत्ता से आये दास बाबू से खरीदी थी। दास बाबू हर महीने साड़ियां लेकर कॉलेज आ जाते थे, और कॉलेज की सारी टीचर्स उन पर मधुमखियों के झुण्ड की तरह टूट पड़ती। सब बढ़िया साड़ी छांट लेना चाहती थीं। दास बाबू कुछ खास मनुहार करने पर घर भी चले जाते थे। तो इस बार वो नेगी मैडम के घर धमक गए, आते ही बोले "ई साडी ख़ास आपके लिए रखा है मेडम, वरना कॉलेज में शुक्ला मेडम झपट लेता!"

लेकिन असली बात ये थी कि इसी तरह कह कर दास बाबू ने हरी चेक वाली साडी मिसिस शुक्ला को भी बेचीं थी और दोनों एक दम नायाब साड़ियां पा कर खुश थीं। रासोगुल्ले जैसी मीठी और गोल बातें बना के टीचर्स के साडी मोह को कैसे कैश करना है वो अच्छी तरह जानते थे!

कॉलेज के रास्ते में एक शिव मंदिर पड़ता था। वहां जाना उनका रोज का नियम था, मंदिर में जाकर उन्होंने भगवान को शिकायती लहजे में कहा...

" आज मेरा जन्म दिन है, नेगी जी थे तब सुबह-सुबह मेरे लिए फूलों का गुलदस्ता लाते और अपने हाथो से खीर बनाते थे! मन बहुत उदास है...कितनी अकेली हो गयी हूँ मै! वरुण ने भी अभी तक फ़ोन नहीं किया। बहुत बदल गया है वो! उस के पास मेरे लिए टाइम नहीं है। मेरी पूजा का कोई फल नहीं दिया आपने "

भगवान् से शिकायतें करते हुए उन्होंने अपनी घड़ी पर नजर डाली। उन्हें देर हो चुकी थी, इसलिए उन्होंने अपनी शिकायतों को विराम दिया। मंदिर की घंटी बजाई, आंसू पोछे, आले पर रखी कटोरी से लाल रंग का टीका अपनी उँगली से ले कर माथे पर लगाया और कॉलेज की तरफ तेज चाल से बढ़ गयी। कॉलेज में पहुचंते टीचर्स और स्टूडेंट्स ने उन्हें घेर लिया। मॉर्निंग असेंबली में उनका ही इंतज़ार हो रहा था, बधाइयों की झड़ी, फूलों और उपहारों का ढेर लग गया। उनके लिए बर्थडे सोंग गाया गया। कोई स्टूडेंट उनके लिए हलवा बना के लाई थी, तो कोई लड्डू! सबका प्यार देख के उनका चेहरा खिल उठा। उन्हें लगा कि भगवान् को आज शायद ज्यादा ही सुना दिया। इंटरवल में उन्होंने रामखिलावन, जो उनके कॉलेज में माली था, को भेज कर सारे स्टाफ के लिए मिठाई और समोसे मंगवाए।

शाम को जब वो कॉलेज के बाहर निकली तो रामखिलावन गेट पर खड़ा मिल गया, उसके हाथ में एक छोटा सा भूरे रंग का भोटिया पिल्ला था।

"मैडमजी हमारी भूरी ने सात पिल्ले दिए हैं, आज आपका जन्मदिन है, जे पिल्ला हमारी तरफ से आपको भेंट! मैडमजी, पलीज़ रख लें...बहुत चुलबुला है ये! आपका मन लगा रहेगा...!"

"शायद सब जानते हैं कि मेरा मन नहीं लगता! मेरे अपने बेटे को छोड़ कर !" उन्होंने मन में सोचा

अब मैडम क्या करें ? वो सोच में पड़ गयीं!

कुत्ते की जिम्मेदारी भी एक इंसान के बराबर होती है...अकेले रहो तो चाहे कुछ बनाओ या नहीं पर कुत्ते के लिए तो बनाना ही पड़ेगा। फिर जगह जगह गन्दा करेगा। उन्हें सफाई का बहुत मेनिया था। कहीं भी धूल भी देख लें तो देवकी की आफत आ जाती थी। देवकी उनके घर में कई सालों से काम करती थी। छुट्टी के दिन आधा समय उनका साफ़ सफाई में कट जाता, आधा किताबें पढ़ने और अगले दिन का लेक्चर तैयार करने में।

ऐसे में कुत्ता...! जितनी बार छुओ उतनी बार हाथ धोना। बीमार भी वो कुछ ज्यादा ही रहती थी। जानवरों से उन्हें वैसे भी शुरू से कोई ख़ास लगाव नहीं था। बचपन में जब वरुण सड़क से पिल्ले पकड़ लाता था तो उसे मैडम की खूब डाँट खानी पड़ती थी। अब बुढ़ापे में ये बवाल पालें!

'मैडमजी। .क्या सोचने लगी आप...?'- रामखिलावन की आवाज ने उनकी सोच को ब्रेक लगाया

'रामखिलावन। .तुम तो जानते हो मैं अकेली हूँ। ऐसे में इस पिल्ले की जिम्मेदारी!'

'मैडमजी ये तो हाल ही पल जाते है...आप टेंशन न लो और अगर फिर भी आपको परेशानी हुई तो मुझे फ़ोन कर देना, मैं वापस ले जाऊंगा। आपका मन लग जायेगा'

"मन लग जायेगा" पर उसका विशेष ज़ोर था।

मैडम ने सोचा- "बात तो ठीक है। बेचारा कितने प्यार से लाया है, एक दो दिन रख लेती हूँ। फिर कह दूंगी कि मुझे परेशानी हो रही है, ले जाओ आके"

"ठीक है, पर तुम्हें इसे छोड़ने मेरे घर चलना पड़ेगा, मैं इसे कैसे ले जाऊँ?"

'मैं भी चलता हू...मैडमजी! बंटी मेरे बिना कहीं नहीं जाता..." रामखिलावन का छोटा लड़का दीपू चहकता हुआ न जाने कब आ गया

'बंटी कौन...? ओह ये पिल्ला...इसका नाम बंटी है...! ठीक है, तुम भी चलो...'-वो मुस्करा के बोली

आज जन्मदिन पर उनका मूड कुछ ज्यादा ही अच्छा हो गया था।

सात साल के दीपू को मैडमजी का बंगला हमेशा महल सा लगता था। अपने पिता के साथ अक्सर वो वहां बगीचे की निराई-गुड़ाई करने आ जाया करता था। मैडमजी की नजर घूमते ही वो सोफे पर बैठ जाता था, मानो उससे सिंहासन मिल गया हो! मैडमजी दीपू को चार टॉफ़ी ज़रूर देती थीं। इसलिए दीपू बस इस इंतज़ार में रहता कि कब मैडमजी के घर जाने का मौका मिले।

रास्ते भर दीपू बंटी की देखभाल और शरारतों के बारे में मैडम को जानकारी देता रहा, उनको भी उसकी बातें सुनने में बड़ा आनंद आ रहा था। दीपू को देख के उन्हें बचपन का वरुण याद आ जाता था। वैसे तो वो बड़ी अनुशासनप्रिय और कठोर थी, पर अंदर से उनका मन बहुत कोमल था। उनके अकेलेपन ने उन्हें कठोर बना दिया था।

"देखो देवकी! आज घर में एक नया मेहमान आया है...बंटी!" मैडमजी ने दरवाजे से ही देवकी को आवाज लगायी

देवकी हाथ पोछती हुई आई, पिल्ले को देख कर वो एकदम से खिल गयी।

'घर में कोई तो आया...चहलकदमी करने वाला। वरना मैडमजी तो मुंह लटकाए रहती हैं...'-देवकी ने सोचा

जैसे ही दीपू ने बंटी को फर्श पर रखा, उसने सुसु कर दी। मैडमजी को एकदम से गुस्सा आ गया।

लो हो गयी परेशानी शुरू...!

देवकी ने जल्दी से पोछा ला कर सुसु साफ़ की, उसे डर था कि मैडमजी का मूड बदलते ज्यादा देर नहीं लगेगी और मेहमान आज ही उल्टे पांव विदा कर दिया जायेगा...!

“अभी छोटा है न धीरे धीरे बाहर जा कर सुसु पोट्टी करना सीख जायेगा”- देवकी ने पिल्ले की तरफ से सफाई दी

खैर मैडमजी ने गुस्से पर काबू किया। देवकी से कह कर दीपू रामखिलावन को चाय नाश्ता करवाया।

पिल्ले को एक टाट के बोरे पर बिठा कर दोनों थोड़ी देर बाद चले गए।

थोड़ी देर बाद पिल्ले ने सप्तम सुर में रोना शुरू कर दिया। शायद भूखा था। देवकी उसके लिए दूध लेकर आई तो वो सुपुड सुपुड कर के पूरी कटोरी चाट गया। देवकी ने स्टोर से एक बड़ा सा गत्ते का कार्टन निकाला उसमें पुरानी दरी और चादर का छोटा बिस्तर बिछाया और बंटी का घर तैयार कर दिया।

मैडमजी निर्लिप्त भाव से सोफे पर बैठी सब देख रही थीं। उस कार्टन को देखते ही उन्हें वो दिन याद आ गया जब नेगी जी इक्कीस इंच का टीवी लाये थे और कई दोस्तों को उसके उद्घाटन में चाय समोसा खाने बुलाया था!

खाना बना के, बंटी को गत्ते वाले घर में डाल कर देवकी तो अपने घर चली गयी। अब घर में बचे दो प्राणी! बंटी एक-डेढ़ घंटे तो सोता रहा, फिर उसने गला फाड़-फाड़ कर गत्ते के घर से निकलने के लिए मदद मांगनी शुरू कर दी। मैडमजी ने उसे बाहर निकाला।

बंटी ने मैडमजी को देख शुक्राने में अपनी छोटी सी पूंछ हिलाई और उनके पैरों पर लोटने लगा। अब वो जहाँ जाएँ बंटी उनके पीछे-पीछे! उनको बड़ा अच्छा लग रहा था कि कोई तो उनके साथ है।

मैडम ने खाना खाया, बंटी उनके पैरों के पास बैठा रहा।

उन्होंने दो - तीन बार निर्देश देने की टोन में कहा " जाओ अपने बिस्तर पर सोने..."

छोटा सा पिल्ला क्या समझे, वो तो कूद कूद कर उन पर चढ़ने लगा!

बंटी तो जैसे उन्हें अपनी माँ मान बैठा था। वही उनके पैरो के पास झंडा गाड़ बैठ गया और अपनी छोटी छोटी आंखे बंद कर ली।

उनके मन में ममता उमड़ आई। उन्होंने उसे गोद में उठा लिया।

“बंटी तुझे ठण्ड लग रही होगी, चल अपने डिब्बे में सो जा। ये तेरा नया घर है”

फिर वो भी अपने कमरे में सोने चली गयीं। आज कुछ ज्यादा ही थक गयी थीं और खुश भी थीं, इसलिए लेटते ही नीद आ गयी। आधी रात को बंटी की रोने की आवाज से उनकी नींद टूट गयी। बंटी जोर जोर से कू कू कर रहा था। वो उठ कर कार्टन के पास पहुंची। उनको देखते ही वो उनकी गोद में आने की जिद करने लगा...! उन्होंने उसे बिस्कुट खिलाया, थोडा पुचकारा फिर उसे गत्ते के डिब्बे में सुला के वापस सोने चली गयी पर बंटी कहाँ मानने वाला था। उसने मैडम का कमरा देख लिया था, थोड़ी देर बाद, चुपचाप जाकर उनके बिस्तर पर सो गया।

सुबह देवकी ने जब डोर बेल बजायी तो मैडम की आँख खुली। पिल्ले को अपने बगल में सोता देख के उनका पारा चढ़ गया। गुस्से में उन्होंने बिस्तर की चादर ही खीच दी और बंटी चादर समेत नीचे आ गिरा और जोर जोर से अपनी एक टांग उठा के कू कू कर रोने लगा।

"देवकी मेरे बिस्तर की चादर को डिटोल डाल के धोना और गद्दों को धूप दिखाओ। देखो जरा, इस पिल्ले की हिम्मत मेरे पास आकर सो गया। जगह जगह गन्दा करता है। सारे घर में फिनायल डाल के पोछा लगाना...पता नहीं क्यों मैं ये मुसीबत घर ले आई...?"

" मैडमजी अकेले डर रहा होगा, छोटा है न...धीरे धीरे आदत पड़ जाएगी। मैं आज इसको नहला दूंगी साफ़ हो जायेगा। आप गुस्सा नहीं करो वरना ब्लड प्रेसर बढ़ जायेगा"

मैडम का पारा गिरता, इससे पहले ही उन्हें सोफे के पास बंटी की पॉटी नज़र आ गयी। देवकी ऐसे भाग भाग के सफाई में लग गयी, जैसे कोई आपात्कालीन स्थिति पैदा हो गयी हो।

थोड़ी देर बाद देवकी चाय ले आई। मैडम ने आदत के मुताबिक बाहर अखबार लेने गयी तो देखा कि बंटी (पिल्ला) बाहर बैठा अखबार का पोस्ट-मोरटम कर रहा है! मानो आग में घी पड़ गया! मैडम को लगा जैसे ये बंटी धीरे-धीरे उनके घर पर भी कब्ज़ा कर लेगा! रामखिलावन पर उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था।

"देवकी! अभी के अभी जाकर इसे राम खिलावन के घर छोड़ आओ। अब ये कुत्ता मेरे घर में एक मिनट और नहीं रह सकता..."

" मैडमजी मुझे आज जल्दी जाना है रामू की मैडम ने स्कूल बुलाया है। मैं शाम को छोड़ आउंगी। जब तक इसे बगीचे में ही छोड़ दें..."

..."ठीक है। इसे अन्दर मत आने देना, इसका खाना-वाना यही बाहर रख जाना। इंटरवल में रामखिलावन को भेज दूंगी। खुद आकर ले जायेगा ये मुसीबत!" कहते हुए वो गुस्से में बाथरूम में घुस गयी

देवकी ने फटाफट नाश्ता बनाया। बंटी को खाना दिया और चली गयी।

मैडम भी तैयार हो गयी कॉलेज जाने को बाहर निकली तो देखा...पिल्ला बागीचे में बहुत खुश था, कभी किसी चिड़िया के पीछे दौड़ता, तो कभी घास खाने लगता, कभी मिटटी खोदता।

उन्होंने कहा "खोद ले बेटे! शाम को तो तू रामखिलावन का आँगन खोदना! "

मैडम को देखते ही बंटी पूँछ हिलाता हुआ आ गया और उनके पैरों पर लोटने लगा जैसे मान जाने के लिए खुशामद कर रहा हो! पर मैडम का इरादा पक्का था उसे छोड़ने का...

मैडम कॉलेज को निकल गयी। घर में उन्होंने ताला लगा दिया और बंटी को बगीचे में ही छोड़ दिया।

रामखिलावन कॉलेज के गेट पर ही मिल गया "मैडमजी नमस्ते...कैसा है बंटी उसने ज्यादा परेशान तो नहीं किया?"

मैडमजी गुस्से में तो थी ही...

एक दम से झल्ला पड़ी — “शाम को उसे ले जाना अब मैं इस उम्र में जानवरों की पोट्टी सुसु साफ़ करुँगी क्या...? बिस्तर गन्दा किया। अखबार फाड़ दिया...बगीचे की मिटटी खोद दी। मेरे बस का नहीं कुत्ता पालना "

मैडमजी का खराब मूड देख रामखिलावन डर गया।

"जी ! आप कहे तो अभी जाकर ले आऊ...? "

"नहीं इंटरवल में ले आना, बाहर गार्डन में ही छोड़ा हुआ है। अब जाओ जाकर अपना काम करो"

उन्होंने क्लास ली, फिर स्टाफ रूम में आ गयीं। उनका मूड कुछ उखड़ा देख कर मिसिस शुक्ला बोली...

"क्या हुआ नेगी मैडम वरुण का फ़ोन नहीं आया?...आपको जन्मदिन की बधाई देने को ?

मिसिस शुक्ला को दूसरो के मामले में टांग अड़ाने में बहुत मज़ा आता था। मैडम का ख़राब मूड और खराब हो गया। पिल्ले के चक्कर में तो वो भूल ही गयी थी कि वरुण इस बार भी उनका बर्थडे भूल गया!

पर घर की बात बाहर क्यों बताएं, सो बोली –

"उसका तो कल से तीन बार फ़ोन आ चुका है। मेरा बहुत ध्यान रखता है वो। अमेरिका से एक स्वेटर भी पार्सल की है। मेरा मूड तो उस पिल्ले की वजह से ख़राब है जो रामखिलावन जबरदस्ती मेरे घर छोड़ गया, अब आप ही बताइए मिसिस शुक्ला...कॉलेज आऊ या पिल्ला पालूं...?"

मिसिस शुक्ला ने सोचा था कि आज वरुण को लेकर जम कर ताना मारेंगी कि क्या फायदा ऐसी औलाद का...जो माँ को भूल गया। किस्मत वालों के लड़के ही ठीक निकलते हैं बाकी तो कभी सगे नहीं होते। मेरा बेटा देखो यहीं टीचर है कितनी सेवा करता है मेरी आदि आदि...!

पर नेगी मैडम के जवाब ने उनकी प्लानिंग पर ठंडा पानी डाल दिया। वो सपाट स्वर में बोली "पाल लो! क्या बुराई है, अकेलापन तो दूर होगा, मन लग जाएगा!" और अपना पर्स और किताबें उठा स्टाफ रूम से निकल गयीं।

नेगी मैडम सोच में डूब गयी..."हाँ कितनी अकेली हूँ मैं...! नेगी जी वक़्त से पहले छोड़ गए। लड़के को हाल पूछने की फुर्सत नहीं। बस रात में सोना और सुबह कॉलेज आ जाओ। ज़िन्दगी जैसे मशीन बन के रह गयी है कोई ख़ुशी नहीं, बस जी रहें है क्यूंकि जीना है, वैसे भी मांगने पर तो मौत भी नहीं आती"

बादल तो सुबह से ही थे, अभी थोडा मौसम और गहरा गया और जोर शोर से बारिश शुरू हो गयी। बारिश देख कर मैडम ने पानी में यादों की कश्ती उतार ली!

"नेगी जी बादल देखते ही पकोड़े और मीठे चीले बनाने की फरमाइश करने लगते थे। फिर बगीचे से ताजे पालक और हरी मिर्ची तोड़ लाते, आलू भी छील देते! वो चाय बनाते और मैं पकोड़े!...फिर बरामदे में बैठ के बारिश का मज़ा लेते हुए खाते रहते। कितने सुकून भरे दिन थे, देर तक बारिश को देखते रहते, नेगी जी कवि- हृदय थे, वो नयी नयी कविताये बनाते जाते और कहते…

"गीता तुम्हारे हाथो के पकोड़ो में जादू है, इनको खाते ही मुझे नए नए आईडिया आते हैं...कवितायेँ बह निकलती हैं!"

और मैं शरमाते हुए मुस्करा देती। नेगी जी जब तक जिन्दा थे घर में रौनक थी, कभी वरुण की कमी नहीं खलती थी और ये लड़का यह भी नहीं सोचता बूढी माँ अकेले सब कैसे सम्हालती होगी ? वैसे गलती तो बहू की ज्यादा है। वो बेचारा तो काम में लगा रहता है। बहू को कौन सी फ़िक्र है...अपनी माँ को तो रोज़ फ़ोन करती है! क्या मैंने उसे बेटी की तरह नहीं समझा...? उसी टाइम मना कर देती शादी को, तो अच्छा रहता! सभी कहते थे अपनी कास्ट की पहाड़ी लड़की लाओ, मैदानी लड़कियां बहुत तेज़ होती हैं और ये तो दिल्ली की है! एकदम एडजस्ट नहीं करती दिल्ली वाली लड़कियां!

पर मैंने सोचा लड़के की पसंद ज़रूरी है। वरुण उसे बहुत प्यार करता था। दोनों ने साथ ही दिल्ली से इंजीनियरिंग किया था। बिरादरी की होती तो कम से कम लिहाज़ तो करती...अमेरिका जाके खुद को अमेरिकन समझने लगी है..."

चपरासी ने घंटा बजाया तो उनकी यादों की कश्ती रुकी। बारिश अभी भी बहुत तेज हो रही थी। वो अपना क्लास लेने गयीं, क्लास में पढ़ाते हुए उनकी नज़र खिड़की से बाहर गयी, उन्होंने देखा कि रामखिलावन की भूरी मुँह में एक पिल्ला दबाये हुए बारिश से बचने को बरामदे की तरफ भाग रही थी। भूरी को देखते ही उन्हें बंटी का ध्यान आया।

"अरे बंटी को तो मैं बाहर ही छोड़ आई थी वो बेचारा भीग रहा होगा! कहीं ठण्ड न लग जाये!"

आसमान की घटायें चिंता बन के मन पर भी छा गयीं। जैसे तैसे क्लास खत्म किया। अब उनका मन कॉलेज में नहीं लग रहा था।

"अगर बंटी को कुछ हो गया तो कितनी बदनामी होगी! एक दिन छोटा बच्चा न संभाला गया...बारिश में मार दिया...पिल्ला तो छोटा है नासमझ है, उसकी क्या गलती?"

अब उन्हें खुद पर गुस्सा आ रहा था, “क्यों मैं उसे बाहर छोड़ कर आई...एक दिन घर के अन्दर रह जाता तो क्या होता...?मैं भी सच में पत्थर दिल हो गयी हूँ..."

उन्होंने प्रिंसिपल साहब से निवेदन किया "सर! मुझे घर जाना है, मेरी तबियत ठीक नहीं...। "

"अरे नेगी मैडम! ऐसी बारिश में आप कैसे जाएँगी? यही पर आराम कीजिये, मैं रेस्ट रूम खुलवाता हूँ "

"नहीं सर! मेरा जाना बहुत जरूरी है, मेरी दवाइयां घर पर हैं"

"अच्छा ठीक हैं " कह के उन्होंने अपने ड्राईवर को फ़ोन किया...:"

"राम सिंह! नेगी मैडम को उनके घर छोड़ आओ"

मैडम ने कृतज्ञता भरी नज़रों से उन्हें देख कर आभार व्यक्त किया। रास्ते में कई जगह छोटे छोटे झरने बहने लगे थे। जैसे-जैसे घर पास आ रहा था, उनकी धड़कने बढ़ रही थी,

"कहीं बंटी ठण्ड से मर न गया हो!"

घर के सामने पहुँचते ही वो जल्दी से कार से उतर गयी। डरते हुए उन्होंने मेन गेट का ताला खोला तो देखा बंटी गमलों के बीच भीगा हुआ सुस्त सा पड़ा है। उन्हें देखते ही वो कू कू करने लगा।

उनका दिल भर आया, लपक कर उसे गोदी में उठा लिया और अन्दर ले आई। उस पर डिटोल का पानी डाला, तौलिये से पोछा और हीटर चला कर सामने बैठा दिया। बंटी के लिए दूध गरम कर के उसमें हल्दी मिलायी। बंटी अभी भी ठण्ड से कांप रहा था। उसने दूध पी लिया और फिर थोड़ी देर में उल्टी कर दी और सुस्त सा जमीन पर लेट गया। उन्होंने उसे खाने को बिस्कुट दिया पर बंटी ने बिस्कुट की तरफ देखा तक नहीं।

मैडम बहुत दुखी हो गयी वो रह-रह के खुद को कोस रही थीं। एक अपराधबोध ने उनके मन को भारी कर दिया था। बंटी ठण्ड से कांप रहा था। उन्होंने अलमारी से एक शाल निकाली और उसे लपेट लिया, पैरासिटामोल की आधी गोली बंटी के गले में डाली और फिर उसे गोद में लेकर बैठ गयीं। उन्हें ऐसा लग रहा था मानों उनका अपना बच्चा बारिश में भीग कर बीमार हो गया हो! उसे गोद में लिए हुए वो सोफे पर बैठे-बैठे सो गयीं। एक घंटे बाद उनकी नीद खुली, बंटी अभी भी उनकी गोद में दुबक के सो रहा था, उन्होंने उसको चूम लिया, पिल्ला जग गया और उनका मुँह चाटने लगा। उन्होंने उसे नीचे उतारा, उतरते ही उसने सुसु कर दी। पर आज उन्हें गुस्सा नहीं आया। उन्होंने मुस्कराते हुए एक पुराना अखबार सुसु पर रख दिया। बंटी का बुखार उतर चुका था। अब वो भूखा था, एक कटोरा दूध पीकर और आठ-दस बिस्कुट खा कर उसकी भूख शांत हुई।

शाम हो गयी थी पर बारिश अब भी चालू थी। देवकी तो आई नहीं, आज तो खुद ही कुछ बनाना पड़ेगा। सोचते हुए मैडमजी किचन में घुस गयी..."क्यों न आज पकोड़ी बनाऊ!"

पिल्ला भी किचन में घुस आया। उन्होंने प्यार से उसे कई बार समझाया तो वो किचन के दरवाजे पर डेरा डाल के बैठ गया। और बीच बीच में कु कु कर के और पूँछ हिला के उन्हें अपनी उपस्थिति का अहसास कराता रहा।

उन्होंने बंटी को पकोड़ी खाने को दी तो वो फटाफट खा गया। वो सोफे पर बैठ के आराम से चाय के साथ पकोड़ियाँ खाती रही और बंटी एक बाल को उछाल उछाल कर खेल रहा था।

"बंटी अपने इंतज़ाम खुद कर लेता है, पता नहीं ये बॉल कहाँ से ले आया!" मैडम को हँसी आ गयी

टीवी पर एक पुरानी पिक्चर आ रही थी, वो देखने लगी और बंटी भी सोफे पर चढ़ने की कोशिश करने लगा। कई बार गिरने के बाद, आखिर चढ़ ही गया और मैडम की गोद में सर रख के सो गया। उन्होंने कुछ नहीं कहा बल्कि उन्हें उसका स्पर्श बड़ा सुकून दे रहा था।

जब वो सोने जाने लगी तो बंटी को डिब्बे में सुला गयीं, लेकिन बंटी फिर रात में बिस्तर पर मिला। उन्होंने थोडा कड़क स्वर में उसे समझाने की कोशिश की, पर बंटी अड़ा रहा और बड़ी मुश्किल से कु कु कर के इस शर्त पर राजी हुआ कि उसका बिस्तर भी मैडमजी के बिस्तर के पास ही लगेगा। ये समझौता रात के लगभग डेढ़ बजे हुआ!

अगले दिन सुबह देवकी जल्दी ही आ गयी। बंटी, घंटी की आवाज सुन के भौकने लगा। मैडम को ऐसा आनंद हुआ मानो उनका बच्चा पहली बार कुछ बोला हो.!

"मैडमजी मैं अभी इसे छोड़ आती हूँ। कल बारिश की वजह से नहीं आ पाई"

वो घबराई हुई थी पर मैडम को मुस्कराते हुए देख के उसे अचरज हुआ। कल का मिज़ाज़ देख कर तो वो आज आते हुए भी डर रही थी।

मैडम बोलीं- "नहीं देवकी अब बंटी मेरे साथ ही रहेगा। ये बहुत प्यारा है और इसकी वजह से मेरा मन भी लगा रहेगा और फिर तुम तो हो ही इसे सँभालने को!"

देवकी के चेहरे पर रौनक छा गयी।

***


बंटी की वजह से मैडमजी अब खुश रहने लगी। रोज सुबह सुबह उसे लेकर सैर पर निकल जातीं। लौट के देवकी की बनायीं चाय पीती, नाश्ता करती, जब वो बगीचे में पानी डालती तो बंटी उनके आगे पीछे पाइप से पानी पीने की कोशिश में लगा रहता। और मैडम उसे पूरा भिगो देती थीं, भीगा हुआ बुनती पूरे घर में चौकड़ी मारता हुआ भागता। कई बार गंदे मिटटी लगे पैरों के निशान भी सोफे और चादरों पर छूट जाते पर मैडम को अब किसी चीज़ पर गुस्सा नहीं आता। बुनती की शरारतें देख वो आनंद और उर्जा से भर जातीं। जब मैडमजी कॉलेज जाने लगती तो बंटी भोंक भोंक के शिकायत करता मानो कह रहा हो

"मुझे भी ले चलो...मैं अकेला क्या करूँगा."

शुरू शुरू में बंटी मैडम के कॉलेज से आने तक बहुत नुक्सान कर चुका होता था, कभी चादर फाड़ देता, कभी मोबाइल का चार्ज़र काट देता। फिर मैडम उसे नाराजगी जाहिर करती तो बंटी मासूम सी डरी हुई ऑंखें बना कर उन्हें इस तरह देखता कि उनकी हंसी छूट जाती।

“तू मेरा कृष्ण है, नटखट”- कहते उसे वो उसे दुलारने लगतीं!

धीरे धीरे मैडम उसे लाइन पर ले आई। बड़ा होने के साथ साथ बंटी समझदार भी हो गया। जब वो घर लौटती तब बंटी घर के बाहर बैठा हुआ मिलता। उन्हें आता देख उनकी तरफ दौड़ जाता। देर तक उनके पैरो पर लोटता रहता और वो ख़ुशी से फूली न समाती। पहले तो घर लौटना ही उन्हें बोझ लगता था। अब तो उन्हें आखिरी घंटा शुरू होते ही घर जाने की हूक लगने लगती थी।

मैडम की वीरान नीरस ज़िन्दगी में बहार आ गयी थी। उधर वरुण हैरान था कि माँ अब रोज फ़ोन क्यों नहीं करती। मैडमजी जिनका एक दिन भी उससे बात किये बिना मन नहीं लगता था। अब पंद्रह-बीस दिन में कभी कभार फ़ोन करतीं। अब वो खूब आनंद से भोजन करती, पहले तो एक रोटी भी मुश्किल से गले से नीचे उतरती थी। शाम को बंटी से खेलने आस पड़ोस के बच्चे भी आ जाते, जो पहले मैडमजी के घर के सामने से भी जाने से डरते थे! अब मैडमजी उन्हें टॉफी देने लगी थीं।

शाम को खूब रौनक रहती। उन बच्चो की माएं भी कभी कभी आ जाती। जिन्होंने कई सालो से मैडमजी को हँसते हुए नहीं देखा था अब वो उन्हें खिलखिलाता देख के खुश होती। कोई उनके लिए अपने बगीचे की मीठी खुमानी ले आती तो कोई मीठे शक्कर पारे, चाय-नाश्ते का दौर चल जाता। वो सबको नेगीजी और वरुण के बचपन के किस्से सुनाती और उनके सुख दुःख को भी साँझा करतीं। सन्डे को वो बच्चों को गणित के आसान फॉर्मूले भी बता देती!

अब वो अकेली नहीं थी और वो मन ही मन रामखिलावन का धन्यवाद देती। जिसने उन्हें बंटी दिया। दीपू अक्सर बंटी से खेलने आ जाता तो वो उसे खूब खिला पिला के विदा करती।

बंटी की वजह से उनका स्वास्थ भी सुधर गया था। वो रोज कॉलेज जाते समय शंकर भगवान को धन्यवाद करना नहीं भूलती। समय गुजरता गया। बंटी एक साल का हो चुका था। भूरा चटकीला रंग, रेशमी मुलायम बाल और बड़ी मासूम सी चमकीली हरापन लिए भूरी ऑंखें। देखने में बहुत शानदार लगता था। उनके साथ थैला पकड़ कर बाजार जाने की वजह से नेगी मैडम और बंटी पूरे अल्मोड़े में मशहूर हो गए थे, अब उन्हें को वरुण का इंडिया न आना खटकता नहीं था। कॉलेज के बाद उनका पूरा समय बंटी के साथ चुटकियों में कट जाता था। उसे वो बिलकुल अपने बच्चे की तरह पाल रहीं थी।

एक दिन वो कॉलेज से लौटी तो बंटी रोज की तरह गेट पर उनका रास्ता देखता नहीं मिला। उन्हें हैरानी हुई। शायद पिछले आठ महीनों में ऐसा पहली बार हुआ था! उन्होंने सोचा शायद बंटी सोफे पर बैठा कैल्सियम ब़ोन चबा रहा होगा। उन्होंने जोर से उसका नाम पुकारा। लेकिन कोई हलचल नहीं हुई, मारे घबराहट के उनकी साँसे तेज़ हो गयी। अन्दर जाकर देखा तो बंटी का कहीं नमो निशान नहीं था। उसका खाना भी कटोरे में जैसे का तैसा रखा था। .

मैडम ने बहुत आवाज़ लगायी पर बंटी का कही पता न था। उन्हें चिल्लाते देख के आस पास के बच्चे भी आ गए, वो सब भी बंटी के न मिलने की खबर से हैरान हो गए। पड़ोसियों का जमावड़ा लग गया था। सभी दिशाओ में बच्चे दौड़ा दिए गए, पर बंटी का दूर दूर तक कोई पता नहीं था...!

***


बारिश के दिन थे। आसमान पर बादल छाए थे...अँधेरा गहरा रहा था। हालाँकि शाम के पाँच ही बजे थे पर ऐसा लग रहा था कि रात हो गयी। बंटी की खोज खबर न मिलती देख मैडमजी ने छाता निकाला और टोर्च लेके खुद ढूंढने निकल पड़ी।

लोगो ने बहुत समझाया कि " बंटी आ जायेगा आप ऐसी बरसात में न जाए...!"

पर वो धुन की पक्की थी बोलीं " मैं कैसे अपने बेटे को बारिश में भीगने को छोड़ दूँ ? ज़रूर कोई बंटी को कुछ खिलापिला के ले गया है। शायद मेरी आवाज़ सुन के बंटी का पता लग जाये...!"

मैडमजी सबकी ख़ास थी, सो अकेले कैसे जाने देते...! मोहल्ले के पाँच-सात तगड़े लड़के भी उनके साथ लग लिए। अगले दो घंटों तक वो अल्मोड़ा की सभी सड़को और गलियों को छानते रहे, पर बंटी का कोई सुराग नहीं मिला...!

थक हार के वो सब घर लौट आये। पड़ोस की मिसेज़ पन्त मैडमजी के लिए खाना दे गयी पर भूख तो बंटी के साथ ही गायब हो चुकी थी। रात के बारह बजने को आये पर आँखों में नीद का नाम न था। रह रह के उनकी आँखों में आंसू आ जाते थे, बाहर ज़ोरदार बारिश हो रही थी। बार बार उन्हें अहसास होता बंटी उनके पास है, वो चौक जाती पर कोई न होता।

"कैसा होगा मेरा बंटी? कहाँ चला गया अचानक...! पता नहीं उसने कुछ खाया भी होगा या नहीं...? किसी से मेरी क्या दुश्मनी थी जो मेरे बच्चे को ले गया...शायद कल सुबह वो लौट आये "वो अपने आप से बातें कर रही थी

बार-बार खिड़की का पर्दा खिसका कर वो मेन गेट की तरफ देख लेती कि कही बंटी आ गया हो और बारिश में भीगता रहे...रात भर में वो जाने कितनी मन्नतें मांग चुकी थी...!

जैसे-तैसे सुबह हुई, देवकी आई तो देखा कि मैडमजी को तेज बुखार था। देवकी को घर के बाहर ही सारी बात पास वाले बबलू से पता चल चुकी थी, कल वो बारिश की वजह से नहीं आ पायी थी। बंटी के गुम हो जाने की खबर से वो भी बेहद दुखी हुई! उसने जल्दी से आ कर चाय बनाई और उनको मनुहार कर के चाय नाश्ता करा दिया।

अभी मैडमजी सोफे पर बैठी हुई, वो साड़ी देख रही थी जो बंटी के लाड में आकर फाड़ दी थी.!.घर की हर चीज़ उन्हें बंटी की याद दिला रही थी। वो सोच रहीं थी, शायद अकेलापन ही उनकी नियति है...! ज्यादा दिन वो खुश रहें भगवान् देख नहीं सकते...!एक बार फिर भगवान शंकर से उन्हें शिकायत थी!

तभी उनका पढाया हुआ एक स्टुडेंट प्रकाश बिष्ट जो अभी हाल में ही सब-इंस्पेक्टर बना था, कमरे में दाखिल हुआ!

पैर छूता हुआ बोला..."मैडम मुझे पता चला कि आपका बंटी रात से गायब है, आप चिंता न करें। शाम तक बंटी घर पर होगा...! मेरे होते हुए आपने रात में सडको पर चक्कर लगाया। एक बार फ़ोन तो कर दिया होता...!"

वो रुधे गले से बोलीं..."प्रकाश परेशानी में ध्यान ही नहीं आया...अगर तुम मेरे बंटी को ले आओ तो तुम्हारा बड़ा अहसान होगा वही तो एक मेरे बुढ़ापे का सहारा था...उसकी वजह से थोडा हँस लेती थी..."

"मैडम आप फ़िक्र न करो...! सोचो बंटी आ गया...! मैंने उसे लेकर ही लौटूंगा और अहसान कैसा? आप तो मेरी माँ समान हैं, आपकी वजह से ही आज मैंने ये वर्दी पहनी है। वरना तो मैं पढ़ने में "माशाअल्लाह" ठहरा। आप का मार्गदर्शन न मिलता तो कहीं पान की दुकान लगा कर बैठा होता!" प्रकाश अपनी वर्दी का कालर ठीक करते हुए बोला

उसके जाने के बाद देवकी भी काम निपटा कर चली गयी। मैडमजी का फ़ोन बजना रुक ही नहीं रहा था, शायद सारे अल्मोड़े को खबर मिल चुकी थी! जैसे ही फ़ोन बजता मैडम को लगता बंटी की कोई खबर आई होगी पर हर बार निराश हो जातीं।

***


देवकी भी आज बहुत परेशान थी। मैडमजी ने उसे तब सहारा दिया था, जब उसका आदमी जेल चला गया था। दस सालों से वो मैडमजी के साथ थी, नेगी जी के जाने के बाद उसने आज पहली बार मैडम को इतना दुखी देखा! उसे भी बंटी को बहुत याद आ रही थी। जैसे ही देवकी घर मैडम के घर पहुँचती बंटी खूब उछलता। जितने देर वो सफाई करती बंटी उसके साथ खेलता, कभी झाड़ू छीनता कभी उसे पोछा नहीं लगाने देता। देवकी उसे बांध आती फिर वो भौकने लगता और मैडम से उसकी शिकायत करता। बंटी की वजह से घर में रौनक बनी रहती थी।

घर पहुँच कर देवकी ने चूल्हा जलाया और पतीले में कढ़ी चढाई। पानी लेने वो आंगन में आई तो उसे उसके बेटे रामू का बस्ता चारपाई पर पड़ा नज़र आया। वो रामू को आवाज़ लगाते हुए ढूंढने लगी।

“इजा (माँ) छत पर हूँ” - रामू ने चिल्लाते हुए कहा

देवकी छत पर चली आई। रामू छत पर पैर फैला का बैठा कबाब खा रहा था।

रामू उसका इकलौता बेटा था, जो चौदह साल का था। अपने दोस्तों के चक्कर में पड़ कर सारा दिन आवारा घूमता, पढाई लिखाई में जीरो था। सारा दिन मटरगस्ती में निकाल देता था। माँ की बातों पर कान न देता। किसी तरह देवकी घरो में झाड़ू पोछा कर के अपना घर चला रही थी। उसको घर पर कबाब खाते देख देवकी को हैरानी हुई...

"क्यों रे रमुआ आज इस्कूल नहीं गया? क्या इस साल भी आठवी में रहने का इरादा है ? और ये कबाब कहाँ से लाया...?'

"इजा (माँ) ये मेरे दोस्त की इजा ने दिए हैं, आज उस का जन्मदिन था न...उसके घर बकरा कटा था। ले तू भी खा" - कहते हुए उसने एक कबाब देवकी की तरफ बढाया

'छि...नी खाना मुझे। कौन सा ऐसा दोस्त है जिसकी बकरा खरीदने की औकात है...झूठ मत बोल सच बता...".

"इजा तू नहीं जानती उसे! मेरे स्कूल में पढता है, नदी पार रहता है...तू भी न! कितने सवाल करती है...अबकी बार मैं कक्षा में फस्ट आऊंगा...देख लेना"

"आ गया फस्ट तू...! अरे रमुआ कितना रुलाएगा अपनी इजा को? तेरे बोजू (पिता) ने क्या कसर छोड़ी थी..." - बडबडाते हुए देवकी घड़ा उठा के नौले पे पानी भरने चली गयी। साथ में धोने को गंदे कपडे भी ले गयी। ये उसका रोज का नियम था।

नौले पर नहाने के बाद उसने उसने गंदे कपडे धोने को उठाये। रामू की पैंट में साबुन लगा ही रही थी की उसे लगा जेब में कुछ कागज हैं। उसने देखा तो उसे तीन सौ रुपये मिले। इतने रुपये देख उसका माथा ठनका, आसपास और औरतें भी थी। उसने चुपचाप छुपा कर किसी तरह रुपये अपनी चोली में रख लिए। कपडे धो कर वो गुस्से में वो घर पहुंची। रामू अच्छे बच्चे की तरफ पढने बैठ चुका था। वो गुस्से में कपडे पीटने का धोबन लेके रामू के ऊपर झपटी

"रमुआ...सच बता इतने रुपये कहाँ से आये ?"

रामू बचने को दौड़ा

"इजा मारना नहीं...ये तो मेरे दोस्त के हैं..."

"फिर झूठ...ऐसा कौन कृष्ण मिला गया तुझे सुदामा को जो कबाब भी खिला रहा और पैसे भी बाँट रहा? सच बता वरना आज मैं तुझे नहीं छोडूंगी..."-कहते हुए देवकी ने एक धोल उसकी पीठ पर जमा दिया

दो चार झापड़ खा कर रामू का मुँह खुला..."इजा! मैंने मैडमजी का बंटी पाँच सौ रुपये में नदी के पास भीकम ढाबे वाले को बेच दिया, सौ रुपये के कवाब ले आया और सौ रुपये बिल्लू को दिए"

"हाय राम...!" देवकी सर पकड़ के बैठ गयी...

"तूने मैडमजी के बंटी को बेच दिया! चोर कही का...! पता है न उनके कितने अहसान है हम पर और तूने इतना नीच करम कर दिया...! जा मर जा कही डूब के! अब तू जेल जायेगा। देखना मैडमजी का पढाया हुआ पुलिसवाला तुझे खूब मारेगा। अब तो मेरी नौकरी भी जाएगी। "

"कहाँ है बंटी? जा कर उसे लेके आ। कैसे चुराया तूने उसे ? अपने बौजू के जैसा ही चोर और आवारा है तू"

रामू घबरा गया था। उसकी आँखों के सामने पुलिस के डंडे घूम रहे थे।

"इजा मुझे बिल्लू ने बोला था कि भीकम बंटी जैसे मोटे ताजे कुकुर के अच्छे पैसे देगा। वो अपने ढाबे के लिए कुत्ता पालना चाहता है। वो ही नशीला बिस्कुट लाया था। जिसे खाकर बंटी चुपचाप हमारे साथ चल दिया था। फिर बिल्लू और मैं उसे भीकम को बेच आये..."-रामू ने रोते हुए सारी बात उगल दी

"चल मुझे बता कहाँ है बंटी...?"-देवकी ने घास काटने की दराती उठा ली, मानो बंटी की रक्षा करने के लिए उसमे साक्षात दुर्गा उतर आई हों!

रास्ते में रामू के दोस्त बिल्लू को भी साथ लिया जिसके उकसाने पर रामू इस काम को राजी हुआ था। पहले तो वो भीकम के पास चलने को आनाकानी कर रहा था पर जब देवकी ने उससे पुलिस का डर दिखाया तो वो फटाफट तैयार हो गया।

लगभग एक घंटे चल के वे लोग नदी किनारे बसे छोटे से गाँव में पहुंचे। भीकम के ढाबे के सामने के सामने बंटी बंधा था। बंटी मिटटी से लथपथ उदास सा बैठा था। देवकी को देखते ही बंटी भोकने लगा, भीकम के डर से जो पूंछ लंगोट बन गयी थी, वो अब तेजी से हिलने लगी। बंटी अपनी चेन तुड़ाने लगा, देवकी को देख के उसे हिम्मत मिल गयी थी...!'

अपने नाम को चरितार्थ करता भीकम, गल्ले पर बैठा कोई पुराना पेपर पढने में लगा था, ढाबे पर कुछ लोग खाना खा रहे थे। भीकम का ढाबा उस इलाके में मशहूर था।

देवकी ने उसे नमस्ते किया और बोली -"दाजू (बड़ा भाई) ये कुकुर हमारी मैडमजी का है उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया है। ये लो अपने पांच सौ रुपये और हमें कुत्ता वापस कर दो..."

भीकम अड़ गया -" कुकुर (कुत्ता) अब मेरा है और मैं वापस नहीं दूंगा, लेना है तो हज़ार रुपये दो, वैसे भी कल से ये यहाँ मीट खा रहा है अब इसके दाम बढ़ गएँ हैं!"

देवकी रोने लगी..."दाजू...दया करो गरीब हूँ। कहाँ से इतने पैसे लाऊंगी...? लड़के ने नादानी कर के दोस्तों के कहने में आकर कुकुर चुरा लिया। मैडमजी बड़े कॉलेज में पढ़ाती हैं। उन्होंने पुलिस वाला बुला लिया है। बात कहाँ छुपती है ? मेरे लड़के को पकड़ ले जायेंगे। मेरा और कोई नहीं उसके सिवा और तुम भी लपेटे में आ जाओगे। ये रुपये लो और कुकुर (कुत्ता) वापस कर दो...".

भीकम ने थोडा सोचा। पुलिस का चक्कर हो सकता है। अभी तीन महीने पहले ही वो मारपीट के आरोप में सजा काट के आया है। फिर कही कोर्ट कचहरी के चक्कर न पड़ जाएँ। सोचते हुए उसने पांच सौ का नोट चुपचाप जेब में सरका लिया। और बंटी की चेन खोल देवकी को थमा दी।

देवकी और रामू ख़ुशी ख़ुशी बंटी को लेकर मैडम के घर की तरफ चल पड़े। रास्ते में देवकी ने गुल्लू की दूकान से रस्क खरीद बंटी को खिलाये। उसने रामू को सख्त हिदायत दी कि वो और उसके दोस्त आगे से मैडम के घर के आस पास भी न दिखें...

मैडम की गली आते ही बंटी चेन छुड़ा के दौड़ गया और गेट को छलांग मार के पार कर गया। मैडम उदास सी सोफे पर लेटीं थी। बंटी सीधे उनके ऊपर कूदा और उन्हे चाटने लगा। मैडमजी समझ नहीं पा रही थी कि ये अचानक क्या हुआ। उन्होंने बंटी को जी भर के प्यार किया। बंटी उनसे ऐसे चिपक गया जैसे शिकायत कर रहा हो..."माँ तुमने मेरा ध्यान नहीं रखा...तभी तो मुझे कोई चुरा के ले गया "

तब तक देवकी और रामू भी आ गए।

देवकी बोली...

"मैडमजी बंटी को कोई चुरा के ले गया था नदी के पार। रामू और उसके दोस्तों ने देखा तो पीछा किया और बड़ी मुश्किल से छुड़ा कर लाये। आप कहो तो पुलिस वाले भैया को वहां लेकर जाऊ...?

बंटी की हालत देख उनकी आंखे भर आई। मिट्ठी उसके भूरे बालों पर सूख कर चिपक गयी थी। वो बंटी को सहलाते हुए रुधे गले से बोली-" देवकी तुम्हारे रामू ने मेरा बेटा वापस लाके मुझ पर बहुत उपकार किया है। अब छोड़ो! बंटी मिल तो गया है, प्रकाश तो वैसे ही गुस्से वाला है। बात बढ़ाने से क्या फायदा? आज से रामू को पढ़ाने की जिम्मेदारी मेरी हुई। बड़ा बहादुर बच्चा है".

फिर अन्दर से एक नयी साड़ी लाकर देवकी को दी। देवकी की आंखे डबडबा गयीं। उसने मैडम के पैर छू लिए।

"मैडमजी आप हमारी माई बाप हो! आप जिए हजारो साल...आपका बंटी सलामत रहे!"

“और ये रामू के लिए, नयी शर्ट खरीद लेना”-कहते हुए उन्होंने पास रखे पर्स से पांच सौ रुपये देते हुए कहा

रामू ने मैडमजी के पैर छुए और रामू मन ही मन अच्छा बनने की कसम खाई। उसने शुक्र मनाया कि बंटी बोल नहीं पाता वरना उसे पाँच सौ रुपये नहीं पाँच सौ डंडे पड़ते!

मैडम को अपना बंटी वापस मिल चुका था। उन्होंने रामू को भेज कर लड्डू मंगवाए और भगवान का भोग लगा के पूरे महोल्ले में बटवाए। मैडमजी को अपनी ख़ुशी वापस मिल चुकी थी।

घर का मेन गेट पहले से ज्यादा ऊँचा कर दिया गया था और बाड़े में नए कटीले तार लगा दिए गए थे। बंटी को ख़ास ट्रेनिंग दी गयी कि मैडम के अलावा किसी की दी हुई चीज़ को न खाए। उधर वरुण अमेरिका से अपने आने की सूचना देने को फ़ोन पर फ़ोन मिला रहा था और मैडमजी बंटी के साथ बगीचे में बॉल खेलने में मस्त थीं...!




(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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मार्स पर चूहे — वंदना राग | हिंदी कहानी


हद्द बेशरम हो तुम, जब बच्चे छोटे थे तो कभी गोदी में बिठाया तुमने? आज बड़े आये हो पिता का फ़र्ज़ निभाने। अरे कॉलेज जा पहुंचे हैं बच्चे तुम्हारे।

उसे याद आया सचमुच कॉलेज में पढ़ने लगे हैं उसके बच्चे। वो उन्हें बड़ा होता देख ही नहीं पाया। वह कौन सा समय था जब वह अपनी बेटी को दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी में स्कूल जाने के लिए बस स्टॉप तक पहुँचाने गया था। उसकी स्मृति में शालीमार बाग वाले किराये के मकान…

— वंदना राग की कहानी 'मार्स पर चूहे' से

स०: यदि आप एक कथा-रसिक हैं और आप किसी कहानी को पढ़ें, वह ख़ूब पसंद आए लेकिन कहीं कुछ ऐसा रह जाए जो समझ नहीं आया हो, ऐसे में आप क्या करेंगे?

ज०: उसी समय कहानी को दोबारा पढेंगे।


जब मेरे कानों में प्रो० मैनेजर पांडेजी का कल का ही वक्तव्य घूम रहा हो  – इस समय का साहित्य अपने में ऐसी चीज़ों को नहीं समेट रहा जो बड़ी विकट हैं, अभूतपूर्व त्रासदी हैं , वह विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं का ज़िक्र करते हैं – और आज प्रिय कथाकार वंदना राग की कहानी ‘मार्स पर चूहे’ पढ़ता हूँ। जिस महामारी का शिकार समाज हो चुका है लेकिन जिसका जिक्र इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि वह अर्थव्यवस्था का केंद्र है। मानवजाति इस बीमार बना चुकी अर्थव्यवस्था का ही शिकार होनी है। लेकिन साहित्यकार ने अपना धर्म निभाया है. ग़जब की शैली में बुनी इस कहानी की रवानी पहली पंक्ति से ही ताज्जुब में घेरे लेते है और फिर घेरे ही रहती है...

कहानी पढ़िए... बधाई दोस्त! 

भरत तिवारी


मार्स पर चूहे

— वंदना राग


कपूर ने अपनी टेबल पर बिखरे कागजात हाथ के एक झटके से नीचे गिरा दिए। उसे फाइल पर लिखा डाटा अब दिखलाई देना बंद हो गया था। कंप्यूटर पर लिखे हुए आंकड़े तो अब चिम चिम कर रहे थे। लग रहा था चाँद सितारे नाच रहे हों। बिजली का एक जोर का भभका और चारों ओर अँधेरा। उसने कंप्यूटर भी स्विच ऑफ कर दिया था। उसे याद आया, आई –सर्जन से नयी अपॉइंटमेंट इसी हफ्ते है। न जाने आँखों में कौन सा मोतिया बिन्द निकल जाए। पिछली बार वह कह रहा था, पहले लोगों को मोतियाबिंद कपूर की उम्र में नहीं होता था। अब काला सफ़ेद दोनों होने लगा है। आप तो अब शुगर टेस्ट करवाइए, इतना लाइटली मत लीजिये। आजकल छोटे -छोटे बच्चों को शुगर होने लगी है। ।

डाक्टर के इस तरह डराने से उसकी साँस बंद होने लगी थी। उसका चेहरा पीला पड़ गया था। डाक्टर ने लपक कर उसे एग्जामिनेशन टेबल पर लिटा दिया था और कहा था, लगता है ब्लड प्रेशर बढ़ गया है। यह खतरनाक है, स्ट्रोक या हार्ट अटैक हो सकता है। ख्याल रखिये अपना।

वो तब से डाक्टरों और बाबाओं के चक्कर में उलझ गया था। डाक्टर नहीं तो बाबा लोग ही उसके मर्ज़ का हाल बता दें। इस वक़्त वह इन परेशानियों से निजात पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था। कभी कभी लगता था उसकी आँखें यूँ लगातार न मिचमिचातीं तो उसे डाक्टर के पास जाने की नौबत न आती और भागदौड़ का यह अंतहीन सिलसिला शुरू ही नहीं हुआ होता। लेकिन सच तो यह था की कंप्यूटर से उसका पीछा छूटना नहीं था और साली, ये कंप्यूटर स्क्रीन खोलते ही जाने क्यूँ...सब गड़बड़ हो जाता था।

परेशानी के उन पहले पहल दिनों में उसने दफ्तर के साथियों से इसका ज़िक्र नहीं किया था। उसे डर था की ब्रांच मेनेजर तक बात पहुँच जाएगी तो निश्चित ही उसे लम्बी छुट्टी या फिर सीधे बर्खास्तगी का नोटिस मिल जायेगा। सोच-सोच उसे सिहरन होती थी। लगता था टनों ठंडा पानी किसीने शरीर पर उझल दिया हो। इसीलिए कुछ महीने उसने चुप्पी साधी। लेकिन फिर जब एक दिन उसे मेनेजर से सरेआम टाइम फ्रेम के अन्दर काम पूरा न कर पाने की वजह से डांट पड़ गयी तो उसने दफ्तर के साथियों को किश्तों में सच बताना शुरू कर दिया। लोगों ने बड़ी सहानूभूति दिखाई। वह राहत से भर गया। खामखा वह इनके बारे में उल्टा-सीधा सोच रहा था। पाण्डेय ने तो उसे एक स्पेशलिस्ट के पास ले जाने तक का ऑफर दे डाला।

उस दिन वह मुस्काता हुआ घर पहुंचा। जैसे एक नयी खुशनुमा कहानी की शुरुवात होने वाली है। उसने आदतन मुह हाथ धोकर, फ्रेश होकर, अपनी शुगर चेक की, फिर ब्लड प्रेशर भी। आश्चर्य था आज कुछ भी बढ़ा हुआ नहीं आया था। फिर उसने उत्साह से भर अपने बच्चों को आवाज़ दी। बच्चे उसे विस्फारित नज़रों से ताकते रहे। अरे क्या हुआ? आओ मेरे पास। उसने दुलार से बाहें फैला दीं। उसके बच्चे बड़ा झिझकते हुए पास आये और खड़े हो गए। जैसे जानते ही न हों, पिता की खुली बाहों का मतलब। अरे ..., वो उन्हें पकड़ कर अपनी गोदी में बिठाने लगा। उसके बच्चे चिहुंक कर भाग खड़े हुए।

पत्नी चाय लेकर आई और उसे बच्चों के इतना नजदीक देख बोली, तुम क्या कर रहे थे? वो हड़बड़ा गया जैसे चोरी करते हुए पकड़ा गया हो। साला बच्चों को प्यार करना चोरी है क्या? पत्नी की पेशानी पर बल पड़ गए। वह चाय को तिपाई पर रख लगभग चीखते हुए बोली, अब प्यार कर रहे हो? क्या डाक्टर ने कह ही दिया है कि तुम मरने वाले हो?

वह पत्नी के इस अंदाज़ को देख दुखी होने के बजाय आश्चर्य से भर गया, क्या पत्नी गुस्सा भी करती है? अरे इसकी आँखें तो एक ज़माने में कजरारी सी हुआ करतीं थीं और कपूर को उसमें से मद टपकता दिखलाई पड़ता था हमेशा। आज तो एकदम कोटरों में धंसी बिजूका की आँखें लग रहीं हैं। एक बार रॉक गार्डन चंडीगढ़ गया था तो टूटे फूटे कप प्लेट से बनी गुडियों की आँखों जैसी आँखें थीं ये, बेजान और बेहरकत।

हद्द बेशरम हो तुम, जब बच्चे छोटे थे तो कभी गोदी में बिठाया तुमने? आज बड़े आये हो पिता का फ़र्ज़ निभाने। अरे कॉलेज जा पहुंचे हैं बच्चे तुम्हारे।

उसे याद आया सचमुच कॉलेज में पढ़ने लगे हैं उसके बच्चे। वो उन्हें बड़ा होता देख ही नहीं पाया। वह कौन सा समय था जब वह अपनी बेटी को दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी में स्कूल जाने के लिए बस स्टॉप तक पहुँचाने गया था। उसकी स्मृति में शालीमार बाग वाले किराये के मकान की इमेज दौड़ गयी। उसकी सात साल की बेटी कनटोप और दास्ताने पहने भी ठिठुर रही थी। पापा गोदी, उसके थरथराते होठों से टूटी-फूटी सी अवाज़ निकली थीं और उसने बेटी को जल्दी से गोदी में चिपका लिया था। उसकी बेटी के गाल मक्खन से मुलायम हुआ करते थे और उसकी पत्नी उनपर उबटन की परत लपेटे रखती थी, कहती थी, बचपन की देखभाल बाद में काम आती है। यह सुन उसे अपनी बेबे याद आती थी, वे उसके बचपन के दिनों में उसे यूँही नहलाया करती थीं और कहा करती थीं, मुंडया है तो भी, उबटन लगाना चाहिए, चमड़ी तो सबकी सोणी दिखनी ही चाहिए।

माएं अपने बच्चों को कितना प्यार करती हैं!

लेकिन कई साल पहले उसकी पत्नी ने कहा था हमारी कुड़ी तो माँ को नहीं बाप को ज्यादा प्यार करती है। इसपर वह फूल कर कुप्पा हो गया था और उस रात पत्नी बेटी और वह बाइक पर बैठ इंडिया गेट गए थे आइसक्रीम खाने। उसने उस दिन अपनी प्यारी बेटी को एक बड़ा रंगीन गुब्बारा भी खरीद कर दिलाया था जो घर आने पर कपड़ों के तार में उलझ कर फूट गया था। उसकी बेटी उस रात रोते-रोते सोयी थी। उसके गालों पर आँसू जम गए थे और चमड़ी पपडिया गयी थी। उसका चेहरा लाल हो गया था। उसे याद है उसने गीले कपडे से बेटी के आँसू पोछे थे फिर गालों पर बोरोप्लस क्रीम लगायी थी। अगले दिन उसकी बेटी रात की बात भूल हँसते हुए उठी थी और गुडमोर्निंग पापा कहा था। लेकिन उसकी स्मृति में सिर्फ रोती हुई बेटी अटक कर रह गयी थी। बेटी की हंसने वाली बातें उसे सहजता से याद ही नहीं पड़ती थीं।

हैरत की बात है कि, इसी तरह उसे बेटे की बातें भी याद नहीं पड़ती। बेटे की ख़ुशी वाली बातें। उसे याद है बाउजी ने जब अपनी पंजाब वाली ज़मीन बेचीं थी तो दो भाइयों में बराबर पैसे बाटें थे। उसीकी बदौलत उसने यह दो बेडरूम का फ्लैट ख़रीदा था नॉएडा में। अब तो उन पैसों में खोली भी न आये। उस वक़्त बेटा पांचवीं क्लास में पढ़ता था, जब उसने घर आकर कहा था, की चलो सामान पैक करो अब नए ठिकाने पर चलना है, पापा मैं नहीं जाऊंगा, कह बेटा रो पड़ा था और ज़िद मचाई थी, मुझे इसी स्कूल में पढ़ना है...मुझे कहीं नहीं जाना है, इसी स्कूल में पढ़ना है, यहीं मेरे दोस्त हैं...

ओये खोत्ते चुप्प ..., उठता है या इक लगाऊँ? उसने अपने दुखते कंधे को ऊपर हवा में आक्रामक मुद्रा में फहराया था। बेटा डर कर चिल्लाया था नयी नयी...पापा चलता हूँ ...चलता हूँ..., और भागकर अपने खिलौने समेटने लगा था। बेटे का डर से पीला चेहरा भी इसी तरह उसके ज़ेहन में अटका पड़ा है।

और तो और, जिस पत्नी को वह अम्बाले से ब्याह कर लुधियाने लाया था और फिर वहाँ से दिल्ली, अपने किराये के आशियाने, शालीमार बाग में, उसकी ख़ुशी की बात याद करना चाहे तो उसे क्या याद आएगा? वह खूब दिमाग लगाने की कोशिश करता है। उसने गूगल, पर डाक्टरों के पास दौड़ भाग करने के दौरान पढ़ा था, की, जिन लोगों की स्मृति में खुश ख़बरें और खुशगवार पल इक्कट्ठे नहीं होते वह डिप्रेशन के शिकार होते हैं। डिप्रेशन एक तेज़ी से फैलती बीमारी है। महानगरों का रोग, जल्दी पकड़ में नहीं आता है और ज़्यादातर लोगों के अंतर में छिपा रह जाता है, फिर जब उसकी पहचान होती है तो देर हो चुकी होती है। उसे नहीं है, डिप्रेशन लेकीन अब सोच रहा है तो लगता है कहीं पत्नी तो इसका शिकार नहीं।

कितने दिनों बाद चीखी है पत्नी। इतने दिन से उससे बात किस टोन में करती रही है ? अरे उसकी आवाज़ सुने उसे कितने दिन हो गए? इतने दिन वे दोनों बात कर भी रहे थे या नहीं? उसे ठीक से वह भी याद नहीं पड़ रहा था।

चीखती पत्नी को उसने हाथ पकड़ बैठाने की कोशिश की। उसके सर पर हाथ फेरने की भी। उसे याद पड़ा शादी के बाद उसकी पत्नी, उसकी छाती से यूँही चिपक जाया करती थी और बच्चों की मासूमियत से कहती थी, मुझे प्यार करो, मेरे सर पर हाथ फेरो, पापाजी के जाने के बाद किसी ने मेरे सर पर प्यार से हाथ नहीं फेरा।

ये सब सुन वो बेहद ज़िम्मेदारी का अनुभव करता था और पत्नी के सर पर मुलायामियत से हाथ फेरता जाता था जब तक वह सुकून से सो नहीं जाती थी। उसे याद क्यूँ नहीं पड़ रहा था कि यह हाथ फेरने वाली घटना अंतिम बार कब घटी थी? मतलब क्या बरसों पहले उसने यह काम किया था? उसे यह भी याद नहीं पड़ रहा था कि, उसकी पत्नी उसकी बगल में कबसे सोयी नहीं थी? रात को जबतक वह कमरे में आती थी वह खर्राटे लेने लगता था और पत्नी को इससे भारी दिक्कत होती थी, उसने कहीं सुना था की बहुत ज्यादा खर्राटे लेना भी एक बीमारी होती है, और उसे ठीक करने के लिए कई तरह के देसी इलाज होते हैं।

पत्नी को उसकी हालत पर बहुत दुःख उमड़ता था और वह दुःख कम करने के लिए कपूर को ढेर सारी जड़ी बूटियाँ खिलाती थी, लेकिन जब बरसों तक कोई फायदा नहीं हुआ तो पत्नी ने कोशिश करनी छोड़ दी थी और शायद कहीं भी पड़ कर सोने लगी थी। ऐसा वह सोचा करता था। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि वह इतने दिनों से, उसीकी बगल में सोयी रहती हो और कपूर को कभी पता नहीं चल पाया हो। वह जब सोकर उठता था तो उसकी पत्नी जगी हुई मिलती थी। उसकी स्मृति में पत्नी का कोशिश करना ही फंस सा गया है। कोशिश करना कि, सब ठीक हो जाये और हमेशा जगे रहना।

पत्नी उसका स्पर्श पा ऐसे छिटकी मानो उसे बिजली के करंट से दाग दिया गया हो। फिर उससे एक निश्चित दूरी बना कर बोली, क्या सचमुच अब तुम ज्यादा दिन नहीं जियोगे?

वह काठ हो गया।

यह मेरा परिवार है?

ये अजनबी हैं कौन?

तभी रेडियो पर एक पुराना गाना बज उठा, अजनबी कौन हो तुम...

उसके बाउजी का पसंदीदा गाना था यह और इसी वजह से यह गाना उसे भी पसंद था। लेकिन आज उसे इससे चिढ़ हुई

। कौन सुन रहा है यह गाना बंद करो इसे, उसने फरमान जारी किया।

उसने देखा उसके इतना कहने पर घर का पूरा दृश्य ही बदल गया। बेटी की आँखों से आंसूं गायब हो गये। बेटा डरा हुआ नहीं लगा। पत्नी उठ कर अपने काम में लग गयी।

उसने फिर कहा, बेटा इधर आ, ये मेरे जूते की पोलिश कर दे, बेटी एक कप और चाय बना ला, और रात के खाने में पत्नी को उसने गाजर मटर की सब्ज़ी बनाने का आदेश किया।

घर की दीवार पर 2004 में खरीदी घड़ी जोर की आवाज़ के साथ टिक–टिक कर रही थी। उसने उसे घूर कर देखा और फिर उसे याद आया उसने इस घर में शिफ्ट होने पर पहली चीज़ यही खरीदी थी। उसने गौर से देखा, लेकिन इसकी डेट क्यूँ नहीं बदली है?

पापा बदली तो है। ये देखिये ये 2017 का अक्टूबर है। बेटे ने घड़ी को हलके हाथों से ठोकते हुए कहा। अरे बेटे का हाथ इतनी ऊँची दीवार तक कैसे पहुँच गया? बेटा क्या इतना लम्बा हो गया है?

क्या हाइट हो गयी तेरी? इस सवाल पर उसने देखा बेटे का चेहरा फिर पीला पड़ गया जैसे बचपन में पड़ जाया करता था। कितने दिनों से बेटे को देखा नहीं उसने।



सुनो पढाई का क्या हाल है?

पढाई ? बेटा चौंक कर बोला। पापा बताया तो था कैंपस प्लेसमेंट हो गयी मेरी। ग्लोबल स्पेस रिसर्च आर्गेनाइजेशन में, अमेरिकी मल्टी नेशनल है। अब आपको मेरे ऊपर पैसे नहीं खर्चने होंगे।

वह जड़ होकर सुन रहा था। बेटे को इनजीनियर ही बनाना है, ये उसके मानस में कहीं ठूंसा हुआ था। जब कपूर बड़ा हो रहा था, तब उसके लिए भी सब यही चाहते थे। लेकिन कपूर ने न चाहते हुए भी सभी को निराश किया और कॉमर्स ले लिया, जिसकी बदौलत वह फाइनेंस अफसर बना।

लेकिन जाने क्या बात थी की जब भी वह किसी इन्जीनीयर को देखता वह कुछ अजीब सा महसूस करता। चालीस पहले एक निराशा उसके अन्दर घर कर गयी थी, वह कुछ हल्का सा है। हलकी पर्सनालिटी वाला, थोड़े दबाब में घुटने टेक देने वाला, मन की बात न कह पाने वाला।, इस किस्म का भाव अन्दर धीरे धीरे शूल की तरह चुभता रहता था।

उसकी छोटी तोंद अब गुब्बारे सी थी। सर के बाल बीच से गायब। और बेबे के लगाये उबटन का करिश्मा चमड़ी से नदारद। जब उसने बेटे को इंजिनीयरिंग में दाखिला दिलाते समय अपनी बाइक बेचीं थी और मेट्रो से आने जाने का निर्णय लिया था, तब उसने नहीं समझा था की एक बाइक का जाना उसकी बनायीं दुनिया से बहुत सारी स्मृतियों का चला जाना भी है। अब कभी पत्नी उससे उस तरह सट कर नहीं बैठ पायेगी जितनी बरसों से बैठती आई थी। अब कभी परिवार के, वे चार या तीन लोग एक साथ कहीं नहीं जा पाएंगे। अब कभी उसका यह बेटा जो बचपन में उसके कंधे पर, मैं प्लेन में बैठा हूँ पापा, और तेज़ उड़ाओ प्लेन...कहा करता था और कपूर जब भी बाइक देखता उसे यह याद आता, ऐसा याद आना भी अब नहीं हो पायेगा। बाइक का जाना ज़िन्दगी से रोमांच का जाना भी होगा। बाइक का जाना बेटे से सिर्फ कॉलेज की फीस के रिश्ते में तब्दील हो जाना भी होगा।

उसने बेटे को देख कर उसने न जाने क्यूँ कहा, किन्नी फीस लगेगी इस बार ? बेटे के चेहरे पर टीवी में दिखाए जाने वाले विज्ञापन वाला भाव मचल गया, क्या बक रहे हो ? हैव यू लॉस्ट इट? बेटे ने अमरीकी एक्टर्स की तरह कंधे भी उचकाए थे। उसका बेटा कितना स्मार्ट हो गया है। और उसकी नौकरी भी लग गयी है बहुत पैसों वाली, काश यही इमेज मन में बस जाती उसके बनिस्बत बेटे की डरी हुई इमेज के...।

पत्नी की आवाज़ से ज्यादा जोर की आवाज़ में बेटी चीखी थी उसकी सोच को तोड़ती हुई।

पापा आओ खाना लग गया है।

उसे लगा, अरे बेटी की आवाज़ तो बचपन में सिंगर गीता दत्त की तरह खूबसूरत हुआ करती थी। बाउजी के साथ बचपन में सुना करता था वह। और सोचा करता था अगर उसे मौका मिला तो वो एक गीता दत्त की तरह गाने वाली से इश्क करेगा और फिर उसी से शादी। शादी के बाद फिर वह रोज़ उसे गाना गाकर सुलाने को कहेगा। लेकिन बाउजी ने उसे इश्क करने का मौका ही नहीं दिया। जैसे ही चौबीस साल पूरा करते-करते नौकरी लगी उसकी शादी कर दी गयी, अम्बाले में ग्रेजुएशन में पढ़ने वाली इक्कीस साल की लड़की से, जो खूबसूरत थी लेकिन उसे गाना बिलकुल नहीं आता था। बड़ी नाज़ुक थी वह। बिन बाप की लड़की। बचपन में ही किसी हादसे का शिकार हो गए थे उसके बाउजी। तबसे उसके कोमल मन पर ऐसी मार पड़ी कि वह हमेशा तरसी रही। कभी दुलार के लिए, कभी कपड़ों के लिए तो कभी स्टेटस के लिए। खाने की भी बड़ी शौक़ीन थी और उसे बाहर के खाने का खूब शौक था।

अंतिम बार कब गए थे सब साथ रेस्टोरेंट? उसे बिलकुल याद नहीं पड़ रहा था। शायद जब उसके भाई की शादी की पचीस वीं सालगिरह थी जो उसने नॉएडा के लक्ज़री होटल जिंजर में आयोजित की थी। पांच सितारा होटल से कुछ कम शानो शौकत नहीं थी वहाँ।

पत्नी पहले पहल कहा करती थी भैया की तरह बाउजी के पैसे से आप भी बिजनेस कर लो। उसने पत्नी को घुड़का था, मेरे बस की नहीं रिस्क लेना। लगी लगायी नौकरी है, बंधी हुई तनख्वाह है।

पत्नी इसरार करती, लेकिन उसमे पैसा आपके इस पैसे से दुगुना हो जायेगा।

और जो डूब गया तो ???

लेकिन उस दिन पत्नी ने जिंजर होटल में उसे तरसी हुई नज़रों से देखा था और खाने को हाथ नहीं लगाया था। ये उसकी पत्नी का, उसे सजा देने का, सबसे कारगर तरीका था। इस उल्हाने में सारी बातें चुप होकर कह दी गयीं थी। आज बाउजी के पैसे से भैया की तरह बिजनेस किया होता तो हम भी जिंजर होटल में अपनी शादी की सालगिरह मना रहे होते।

उस दिन रात को उसके पेट में इतना दर्द उठा था कि बेटी को शक हुआ था कि पापा का लिवर ख़राब हो गया है। हाल में बेटी के एक दोस्त को ऐसा दर्द तब उठा था, जब वह पी कर उल्टियाँ करने लगा था और लड़के उसे ढो कर अस्पताल ले गए थे। इतना सुन वह अपना पेट दर्द भूल, उठ बैठा था।

तुझे कैसे मालूम, क्या तू भी उसके साथ पी रही थी? सवाल सुन बेटी जोर जोर से रोने लगी थी।

हर वक़्त मेरी बातों को घर में टारगेट किया जाता है। एक तो मुझे मेरे मन का सब्जेक्ट पढ़ने नहीं दिया, ब्यूटी पार्लर का कोर्स कहा तो करने नहीं दिया, फिर ऐसे ताने। हाँ पार्टी में मैं भी थी, लेकिन ...

लेकिन क्या? वह उसपर पिल पड़ा था, तेज़ गुस्से और हताशा में। पत्नी बीच में आई तो मामला सलटा। उस दिन उसकी बेटी फिर दिल तोड़ने वाली रुलाई के साथ सोयी थी। उसके सुबकने की आवाज़ ने उसे रात भर सोने नहीं दिया था और उसी रात उसकी पत्नी चैन से सोयी थी।

सुनो, उसने रोटी तोड़ते हुए कहा, कल तुम भी चलना मेरे साथ, डाक्टर के पास।

उसके इतना कहते ही टेबल पर सन्नाटा पसर गया। उसकी पत्नी ने एक रुलाई दबाई। क्या तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो?

नहीं भाई, मैं चाहता हूँ तुम भी अपना एक चेकअप करा लो।

क्या??

यह सुन सब एक साथ हंसने लगे। उसने घूर कर सबको एक साथ देखा और फिर बेटी से बोला, और तुझे आगे क्या पढ़ना है सोचा? बताना मुझे, तेरे सपनों को नहीं मरने देना है।

क्या? कौनसे सपने पापा? बेटी ने ठंडी आवाज़ में बोला। अब तो शादी करुँगी मैं।

शादी?

हाँ, अब क्या पढूं? जॉब लगवा सकते हो तो लगवा दो। वरना शादी कर दो।

अपनी बेटी के इस जवाब पर दिल पकड़ कर बैठ गया वह। ऑफिस में उसके साथ का ही तो था श्रीवास्तव, जिसकी बेटी बचपन में कितनी अनाकर्षक और बुद्धू लगती थी। लेकिन आज मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही है। उसकी बेटी में तो श्रीवास्तव की लड़की से कहीं अधिक प्रतिभा थी। फिर ये ज़िन्दगी के बीच रास्ते में हुआ क्या? और वह कहाँ रहा इस बीच?

मैं डाक्टर फाक्टर के पास नहीं जाउंगी। पत्नी बोली, तुम अपना इलाज कराओ। तुम ठीक तो घर ठीक।

उसे अपने कानों पर विश्वाश नहीं हुआ, पत्नी का टोन उस पुरानी वाली टोन की तरह था जो दिल्ली आने के शुरुआती दिनों में अपने खूबसूरत पति के साथ होने के मान से भरा था। सब खूबसूरत लगता था तब। दिल्ली भी।

फिर नॉएडा शिफ्ट हुए और उसकी तबीअत ख़राब होने लगी थी। कभी कुछ, तो कभी कुछ।

सच पूछो तो इंडिया का नक्शा बदल गया था, पूरी दुनिया ही बदल गयी थी। अब सारे काम मशीनों से होने लगे थे, सारे दफ्तरों में भी, फाइलों के साथ कंप्यूटर पर ज्यादा काम होने लगे थे। बॉस की नकेल अब हर जगह थी। उसके बाथरूम के वक़्त में भी। काम की अधिकता के अनुपात में पैसे बढ़कर नहीं मिलते थे और किसी पार्टी की सरकार आ जाये स्थितियां बदलने का नाम नहीं लेतीं थीं। किसी की मजाल न थी की महंगाई के गले में घंटी बांधता ?” गले में घंटी बांधना”, उसे ये मुहावरा बचपन से बहुत पसंद था। यही बिल्ली के गले में घंटी बांधने वाला। ज़रूर बहुत सारे चूहों ने मिलकर यह मुहावरा गढ़ा होगा। यह सोच जाने क्यूँ वह हंसने लगा।

उसे हँसते देख उसके बच्चों और उसकी पत्नी की आँखें भीगने लगीं। उसे उनका व्यहवार अजीब लगा। लगता है पत्नी के घटिया गंडा ताबीज देने वाले बाबाओं ने किसी बुरे समय के आने की कोई पूर्वसूचना दे दी है उन्हें। तभी मन ही मन ये सब बहुत सारी बातों की चिंता कर रहे हैं। उसने सोचा उसे अपने ही घर में अपने ही लोगों से कैसा व्यहवार करना चहिये यह वह भूल गया है शायद इसीलिए उसका परिवार उसे समझ नहीं पा रहा है। यह ठीक नहीं है। उसे फिर से शरुआत करनी चाहिए और कटे फटे जोड़ों को पैबस्त करना चाहिए।

उसने टेबल समेटती अपनी पत्नी को कहा, आज मैं सोफे पर सो जाता हूँ। तुम बिस्तर पर आराम से सोना। इस पर पत्नी के हाथ से बर्तन गिर गए।

अब और कितनी दूर जाओगे?

अरे। वह तो पास आने की जुगत भिड़ा रहा है और ये यहाँ उसे।।

बेटी ने आकर धीरे से उसे कहा, पापा आप हमे छोड़ के कहीं मत जाना। आज डाक्टर अंकल का फ़ोन आया था। हम सब समझते हैं। हम आपके साथ हैं।

हैं? कौन से डाक्टर? उसके दिल की धड़कन बढ़ने लगी।

सुनील चाचा।

ओह हो।। उसने राहत से सांस ली। यह तो उसके दोस्त गुप्ता वाला होम्योपैथिक डाक्टर है। एलोपेथी के साथ वह यह भी ट्राई कर रहा है गुप्ता के कहने पर, हालाँकि उसका इसमें बहुत विश्वाश नहीं। दो चार मीठी गोली खाने से फायदा हो न हो नुक्सान तो कुछ हो ही नहीं सकता था। गुप्ता के तर्कों के आगे वह झुक गया था।

क्या बोल रहा था सुनील?

कुछ खास नहीं पापा, बस यही की हमें आपका ख्याल रखना चाहिए।

वह कुछ कहता उसके पहले ही, उसका मोबाइल बज उठा। उसने देखा उसके ब्रांच मनेजेर का फ़ोन था। उफ़ !!!!! उसने अपनी सांस घोंटी और गालियों के लिए तैयार हो गया। जैसे सर झुकाए आका के सामने गुलाम।

कपूर कुछ दिनों की छुट्टी ले लो। तुम्हे आराम की ज़रूरत है।

उसे लगा उसे चक्कर आ जायेगा, बॉस उससे इतने मीठे टोन में कैसे बात कर रहा था?

उसने घरघराती आवाज़ में कहा, नहीं सर मैं ठीक हूँ, डाक्टर कहता है कुछ नहीं हुआ है मुझे। मैं जल्द कानपूर वाले प्रोजेक्ट का काम निपटाता हूँ।

मैं समझता हूँ कपूर, सब समझता हूँ, बोल फ़ोन काट दिया बॉस ने। वह कुर्सी का हथ्हा पकड़ बड़ी मुश्किल से बैठा। उसे बास की सेक्रेटरी याद आई, सुप्रिया। सुन्दर नाज़ुक कमसिन। एक बार बिना दरवाज़ा खटखटाए वह बॉस के कमरे में घुस गया था, तो एक जोर की चीख के साथ सुप्रिया बॉस की चमकदार टेबल के नीचे से एकदम से नमूंदार हुई थी। सुप्रिया की हालत अस्त व्यस्त थी। उसने चिल्लाते हुए टेबल के नीचे इशारा किया था। चूहा है, टेबल के नीचे चूहा है। बॉस ने उसे नशीली आँखों से सिर्फ ताका था, और वह कुछ नहीं बोल पाया था। चुपचाप कमरे से बाहर निकल आया था। इस घटना के चश्मदीद, वे तीन ..., नाज़ुक सुप्रिया, उसका तेज़ तर्रार बॉस और वह खुद, सारी बातों को घोल कर पी गए थे और दफ्तर में दिन ठीक ठाक से ही गुजर रहे थे।

इतना सब कुछ सोचते सोचते जाने कितना वक्त गुज़र गया। वह एकदम झटके से होश में आया। लगता है उसे झपकी आ गयी थी वहीँ सोफे पर बैठे बैठे। घर की बत्तियां बंद थीं। बस कंप्यूटर टेबल से से कुछ रौशनी आ रही थी। उसने आँख सिकोड़ कर देखा उसका बेटा कंप्यूटर पर कुछ आकृतिओं को माउस की मदद से नचा रहा था। कंप्यूटर की रौशनी से उसे चिढ़ थी, लेकिन बेटे को देख उसने हिम्मत की, झिझकते हुए उठा और बेटे के नजदीक गया।

ये क्या है ?

बेटा थोड़ा चौंका पर डरा नहीं। बेटे को भी डाक्टर ने समझाया था कि पापा को खुश रखो। आज ही। बहन और माँ भी यह समझ रहे थे। उसने बहुत प्यार से पापा का हाथ पकड़ा और बगल की कुर्सी पर बिठा लिया। फिर उनके हाथ में माउस दे कर बोला, पापा, जिस कंपनी में मेरा सिलेक्शन हुआ है उसने ये गेम डिजाईन किया है। आइये सिखाता हूँ। देखिये ये जो लोग हैं ये सब एक दूसरे ग्रह पर जाना चाहते हैं। और ये सारे हर्डअल्स हैं इन्हें पार करके ही मंजिल मिलेगी। इन् लोगों को हम कण्ट्रोल करेंगे और सबको नहीं पहुँचने देंगे इस ग्रह पर।

अच्छा?????

उसके अन्दर कंप्यूटर सम्बंधित सारी चीज़ों से चिढ़ के बावजूद एक क्षणिक रोमांच भर गया। लेकीन उसे गृह का लाल रंग का होना अखर गया उसने पूछना भी चाह इस बारे में, इस ग्रह का रंग लाल क्यूँ है, लेकिन उसने पूछा नहीं और देर तक चुप बना रहा और माउस घुमाता रहा।

पापा बचिए, कण्ट्रोल दबाइए दूसरों को हराना है, ग्रह पर पहुंचना है। बेटा उतेजना में बोला।

हाँ ! हाँ हाँ ...उसे पसीना छूटने लगा, वह एक सड़े से गेम में भी पिछड़ने लगा था।

उसे अब जाने क्यूँ लगने लगा उस ग्रह पर उसका पहुंचना नामुमकिन है। वह हलके-हलके कांपने लगा। उसके हाथ का माउस उसके अन्दर घुस कर उसे ही कुतरने लग और उसे भी एक थके हारे चूहे की शक्ल में ढलने लगा। फिर उसे लगा स्क्रीन पर तरह-तरह की शक्लों वाले चूहे भर गए हैं और वे सारे चूहे मंजिल पार करते जा रहे हैं और वह बहुत पीछे छूटता जा रहा है। ऐसी हार नाकाबिले बर्दाशत थी। उसकी सांस बंद होने लगी। उसके हाथ से माउस अचानक छूटा और उसका सर टेबल पर धड़ाम से गिरा।।

घर में इस गिरने की आवाज़ भयानक रूप से गूंजी। पत्नी और बेटी दौड़े चले आये।

तीनों ने मिलकर कपूर को सोफे पर लिटाया। बेटे ने पापा के दिल पर अपने कान रखे। बेटी ने तलवों की मालिश की। पत्नी ने इंतज़ार किया, एक गहरा और तयशुदा इंतज़ार।

और जब कपूर के खर्राटों की आवाज़ नॉएडा के उस दो बेडरूम फ्लैट की दीवारें चीरने लगीं तो कपूर परिवार ने घर में अनावश्यक जल रहे बिजली के स्विच ऑफ किये, गैस के नॉब दुबारा चेक किये, एक-एक गिलास पानी पिया और जाकर अपने-अपने बिस्तर पर सो गए।

सुबह सबको अपने-अपने काम पर जाना था।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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न जी !!! जिन्ना पर मुकेश भारद्वाज के #बेबाक_बोल



तारीखी तस्वीर

 — मुकेश भारद्वाज


आमार शोनार बांग्ला,
आमि तोमाए भालोबाशी.

(मेरा सोने जैसा बंगाल / मैं तुमसे प्यार करता हूं)

...रवींद्रनाथ टैगोर ने 1905 में यह गीत लिखा था जब अंग्रेजों ने मजहब के आधार पर बंगाल के दो टुकड़े कर दिए थे। गुरुदेव का लिखा यह गीत उस बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत है जो भाषाई आधार पर पाकिस्तान से अलग हुआ। आज जब द्विराष्ट्र के समर्थक जिन्ना का महिमामंडन कर रहे हैं तो बांग्लादेश से बेदखल और भारत की पनाह लिए लेखिका तस्लीमा नसरीन कहती हैं कि 1971 में बांग्लादेश, पाकिस्तान से अलग हो गया था, इसका मतलब कि मुस्लिम एकता की बात भ्रम थी। अंग्रेजों से आजादी का एलान होते ही द्विराष्ट्र का जो सिद्धांत सामने आया वह एक अलग और नए देश की सत्ता पाने का औजार मात्र था, जिसके प्रतीक थे जिन्ना। भारत विभाजन को दुनिया की बड़ी विभीषिकाओं में गिना जाता है जो मनुष्यता व सामूहिकता के सिद्धांत की हत्या थी। ऐसी विभीषिका के परिप्रेक्ष्य में जब गांधी, टैगोर और आंबेडकर के बरक्स जिन्ना की तस्वीर पर बहस शुरू हो जाती है तो सावधान होने की जरूरत है। गांधी के इस देश में जिन्ना का नायकत्व गढ़ने की कोशिश पर प्रमुख हिंदी दैनिक जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज के बेबाक बोल...


भारत में जब स्वतंत्रता सेनानियों को आजादी के जश्न में डूब जाना चाहिए था तब आजादी के हरकारों का अगुआ नोआखली में घूम रहा था। एक दुबला-पतला, कम हाड़ और कम मांस का आदमी जिसके बारे में वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि आगे आने वाली पीढ़ियां शायद ही विश्वास कर सकेंगी कि कभी धरती पर ऐसा व्यक्ति चला भी होगा। वह बूढ़ा इंसान जिसे संत और महात्मा का दर्जा दिया जा चुका था, बिना सुरक्षा के वहां था जहां आजादी के एलान के बाद कत्लेआम मचा था। नोआखली जनसंहार भारत के इतिहास का वह पन्ना है जो उसकी आजादी के साथ ही नत्थी हो जाता है।

अगर मुसलिम एकता ही सब कुछ थी तो फिर बांग्लादेश का निर्माण कैसे हुआ

दो सौ सालों की औपनिवेशिक गुलामी के बाद आजादी मिलने का वक्त आते ही भारत के सामने मांग उठी भारत को दो टुकड़ों में बांटने की, वह भी सिर्फ मजहब के आधार पर। आजादी और विभाजन का साथ आना इस ऐतिहासिक संघर्ष की ऐतिहासिक विडंबना ही थी। जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन प्लान पूर्वी बंगाल के नोआखली में शुरू कर दिया गया। गांधी की अहिंसा की प्रयोगशाला था भारत। प्रयोग सफल था, आजादी मिल चुकी थी। लेकिन इस प्रयोगशाला के कुछ परखनलियों में मजहबी सांप्रदायीकरण के रसायनों का विस्फोट किया जा चुका था। भारत की आजादी और अखंडता के बूढ़े सिपाही गांधी वहां अकेले पहुंचे। कत्लेआम और आग के बीच यह महानायक निहत्थे खड़ा रहा पीड़ितों के साथ। महात्मा गांधी के उस फौलादी जज्बे को देख कर ही सोचा गया होगा कि इस निर्भीक के सीने में गोलियां उसके पांव छूकर ही उतारी जा सकती हैं। पांच महीने नोआखली में रहने और वहां के प्रशासन से शांति का भरोसा लेकर ही गांधी वहां से हटे।

मोहम्मद अली जिन्ना ने हिंदुस्तान के साढ़े चार हजार सालों की तारीख में से मुसलमानों के 1200 सालों को अलग कर पाकिस्तान बनाया था। कुर्रुतुल ऐन हैदर ने आग का दरिया लिख उन 1200 सालों को हिंदुस्तान में जोड़ कर उसे फिर से एक कर दिया। — निदा फाजली

गांधी की यह तस्वीर है अहिंसा और मजहबी एका की। क्या भारत के किसी भी सार्वजनिक संस्थान में यह पहली तस्वीर नहीं होनी चाहिए। जब भारत के पास ऐसे विश्वास और भरोसे की तस्वीर है तो फिर जिन्ना की तस्वीर की जरूरत क्यों पड़ जाती है। आखिर उस वक्त जिन्ना को बहस में क्यों ले आया जाता है जब कौमी एकता की ज्यादा जरूरत है। अगर जिन्ना की तस्वीर पर सवाल नाजायज है तो जिन्ना की विचारधारा को जायज ठहराने की कोशिशों को क्या कहा जाए।


भारत में शरण लिए बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने जिन्ना विवाद के बाद ट्वीट किया, ‘अगर आप द्विराष्ट्र सिद्धांत पर भरोसा करते हैं तो जरूर आप जिन्ना को पसंद करेंगे। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम ने 1971 में सिद्ध कर दिया कि यह द्विराष्ट्र का सिद्धांत गलत था, और मुसलिम एकता एक भ्रम’। बीच बहस में तस्लीमा का यह अकेला ट्वीट ही बहुत कुछ कह जाता है। अगर मुसलिम एकता ही सब कुछ थी तो फिर बांग्लादेश का निर्माण कैसे हुआ। अंग्रेजों के खिलाफ एशिया का विशाल भूभाग जंग लड़ता है। लेकिन जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत की वजह से यह भूभाग भारत और पाकिस्तान में बंट जाता है। इसके लिए हिंदू महासभा की भी जिम्मेदारी तय हो चुकी है लेकिन इस प्रस्तावित पाकिस्तान का शासक बनने के लिए जो आदमी खड़ा था उसकी महत्त्वाकांक्षा के बिना यह हो ही नहीं सकता था। और, मुख्य बहस में तो हम सिर्फ भारत और पाकिस्तान को ही लाते हैं, वहीं तस्लीमा नसरीन कहती हैं कि हमें मत भुलाओ, दो द्विराष्ट्र के सिद्धांत में हम बांग्लादेशी कहां से आ गए यह तो बताओ। आजादी के बाद जब भारत को एशिया की सबसे बड़ी ताकत बनना था तो तीन टुकड़ों में बांटकर उसे छिन्न-भिन्न कर दिया गया।

जिन्ना ने हिंदुस्तान के सिर्फ 1200 सालों को चुना एक नया मुल्क बनाने के लिए। लेकिन क्या बिना राम, कृष्ण और बुद्ध की सांस्कृतिक विरासत लिए निजामुद्दीन औलिया का सूफियाना कलाम कोई रूहानी सुकून दे पाता?

इतिहास से लेकर वर्तमान में प्रतीकों और तस्वीरों का अपना महत्त्व है। विवाद उठने के बाद भी अगर आप नोआखली वाले गांधी के बरक्स जिन्ना की तस्वीर टांगने की जिद मचाए रखते हैं तो अपना ही नुकसान करते हैं। देश के कमजोर तबके के मुसलमानों से बात कर लीजिए। आज के दौर में वे जिन्ना के बारे में नहीं गांधी के बारे में ही जानते हैं। लेकिन विश्वविद्यालयों में जिन्ना के महिमामांडन के जो व्याख्यान शुरू हो चुके हैं वह हमें किस तरफ ले जाएंगे। जिन्ना ने भगत सिंह का केस लड़ा था, बहुत सेकुलर थे, उनकी तस्वीर यहां भी, वहां भी तो यहां क्यों नहीं इन तर्कों के सहारे उन्हें नायकत्व देने की ही कोशिश की जा रही है।

विभाजन के बाद भारत ने क्या खोया और पाकिस्तान ने क्या पाया इस पर उर्दू की मकबूल अफसानानिगार कुर्रुतुल ऐन हैदर की ‘आग का दरिया’ से बेहतर कुछ नहीं हो सकता। निदा फाजली ने इस किताब के बारे में कहा है, ‘मोहम्मद अली जिन्ना ने हिंदुस्तान के साढ़े चार हजार सालों की तारीख में से मुसलमानों के 1200 सालों को अलग कर पाकिस्तान बनाया था। कुर्रुतुल ऐन हैदर ने आग का दरिया लिख उन 1200 सालों को हिंदुस्तान में जोड़ कर उसे फिर से एक कर दिया।’ जिन्ना ने हिंदुस्तान के सिर्फ 1200 सालों को चुना एक नया मुल्क बनाने के लिए। लेकिन क्या बिना राम, कृष्ण और बुद्ध की सांस्कृतिक विरासत लिए निजामुद्दीन औलिया का सूफियाना कलाम कोई रूहानी सुकून दे पाता?



आजादी को करीब देख कर द्विराष्ट्र का जो सिद्धांत लाया गया वह सत्ता हथियाने का औजार ही था। आप इसमें सावरकर और हिंदूवादी संगठनों को ला सकते हैं लेकिन इसके प्रतीक जिन्ना ही बने एक नए देश पाकिस्तान के प्रमुख के रूप में। सत्ता की उनकी इस महत्त्वाकांक्षा और संकीर्ण मजहबी दृष्टिकोण के कारण ही बांग्लादेश का भी जन्म हुआ। भारत में जो 1200 सालों का इतिहास था, पाकिस्तान में वह और संकीर्ण हो जाता है भाषा और जाति को लेकर। और, इसी संकीर्णता के प्रतीक के रूप में जिन्ना न भारत के नायक बन सकते हैं और न बांग्लादेश के। रवींद्रनाथ टैगोर का लिखा गीत बांग्लादेश का राष्ट्रगान है लेकिन उस राष्ट्रगान को गाते समय पीछे जिन्ना की तस्वीर नहीं हो सकती है। तस्लीमा नसरीन अपनी लेखनी के लिए बांग्लादेश से बेदखल हैं और भारत की पनाह में। मजहबी संकीर्णता और सत्ता लोलुपता ने जो पाकिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक का सफर तय किया है उसे देखते हुए क्या जिन्ना की तस्वीर और प्रतीक किसी प्रगतिशील दिशा में जा सकती है खास कर जब हमारे पास गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर की तस्वीर हो।

गांधी और टैगोर अनेकता में एकता वाली राष्ट्रीयता का स्वरूप हैं। गांधी की राजनैतिक लड़ाई सत्ता हथियाने की नहीं बल्कि इंसानों के बीच भेदभाव के खिलाफ थी। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने ईसा मसीह के प्रेम के संदेशों के सफल प्रयोगकर्ता के रूप में गांधी को देखा था। प्रेम की नीति व्यक्तिगत ही नहीं सामाजिक और राजनीतिक रिश्तों में भी प्रभावी होती है। किंग जूनियर को यह समझ गांधी से ही मिली थी।

गांधी की तस्वीर घृणा के प्रतिरोध की तस्वीर है। इसके साथ ही हिंदुस्तान के पास आंबेडकर भी हैं जो आजाद भारत में सामाजिक बराबरी लाने का संविधान रच जाते हैं। गांधी, टैगोर और आंबेडकर की तस्वीरों वाले भारत में जिन्ना की तस्वीर इतिहास का ही हिस्सा रहनी चाहिए। जिन्ना की तस्वीर पर तकरार कर हम महज 1200 सालों तक ही खुद को सीमित रख लेंगे। भारत के पास उससे पहले, मध्य और बाद का साझा इतिहास है। तारीख में तारीखी वही होता है जो मानवता की राह पर चलता है, खलनायकों का कोना जड़ ही रहने देना चाहिए, उनके लिए जीवंत समाज में जगह नहीं होनी चाहिए।


(साभार जनसत्ता)
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Ghazal: उलझ रहा हूं, सुलझ रहा हूं #प्रतापसोमवंशी ulajh raha hūñ @PratapSomvanshi



प्रताप सोमवंशी की ग़ज़ल

Pratap Somvanshi Ki Ghazal


उलझ  रहा हूं,  सुलझ  रहा हूं,  उजड़  रहा  हूं,  संवर   रहा   हूं
जितना  खुद  में  डूब  रहा   हूं,  उतना   ही   मैं   उबर  रहा    हूं

ये  ख्वाहिशें भी  वो सीढ़ियां हैं जो ख़त्म होती  नहीं  कभी  भी
समझ  गया  हूं  मैं  चढ़ते - चढ़ते, कई बरस से  उतर  रहा  हूं

सफ़र में जिनको बहुत थी जल्दी, कभी न वो मंज़िलों  पे पहुंचे
मैं  अपने  पांवों  की सुन रहा हूं,  ठिठक रहा  हूं  ठहर  रहा  हूं

नदी,  समंदर  से  बादलों से  कुछ इस तरह  मैं जुड़ा  हुआ  हूं
वहां  से  लेकर  उधार  पानी, मैं  खेत तक  इक सफ़र रहा हूं

ये  बात  सच  है  कि आज  बच्चे  बहुत जियादा  बदल  गए हैं
मगर   मैं  सोचूं   कहां  गलत  है,  मैं   भी तो  बेअसर  रहा   हूं



ulajh raha hūñ, sulajh raha hūñ, ujad raha hūñ, sañvar raha hūñ
jitna khud meiñ dūb raha hūñ, utna hī maiñ ubar raha hūñ

ye khvāhisheñ bhī vo sīdhiyāñ hain jo khatm hotī nahiñ kabhī bhī
samajh gaya hūñ main chadhte - chadhte, kaī baras se utar raha hūñ

safar meiñ jinko bahut thī jaldī, kabhī na vo mañziloñ pe pahuñche
maiñ apne pāñvoñ kī sun raha hūñ, thithak raha hūñ thahar raha hūñ

nadī, samandar se bādaloñ se kuchh is tarah maiñ juda hua hūñ
vahāñ se lekar udhār pānī, maiñ khet tak ik safar raha hūñ

ye bāt sach hai ki āj bachche bahut jiyāda badal gae haiñ
magar maiñ sochūñ kahāñ galat hai, maiñ bhī to beasar rahā hūñ


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कृष्णा सोबती की 2 मिनट की झंकझोरती कहानी - पितृ हत्या


Photo (c) Krishna Sobti

कृष्णा सोबतीजी की "मार्फ़त दिल्ली" पढ़ रहा हूँ. मैं, साहित्य आदतन तोड़ा धीरे-धीरे ही पढ़ता हूँ. और तब तो ठहर-ही जाता हूँ जब कुछ पढ़े जा रहे से कोई विचलन पैदा हो जाती है. कल रात 'पितृ हत्या' पढ़ते हुए ऐसा ही हुआ. रुक गया  अब कृष्णाजी से बात हो, तब बात बढ़े. देर रात थी, इसलिएउनसे बात नहीं हो सकती थी, अब दोपहर हुई तब बात हुई. और कृष्णाजी ने बताया 

" यार, 

  पाकिस्तान बना तो 

  वहाँ वाले भी बापू को अपना ही मानते थे,

  उन्हें भी यह था कि

  इसकी हत्या क्यों की..."

राजकमल प्रकाशन से छपी इस बेहतरीन किताब पर लिखुंगा ज़रूर...अभी तो वह पढ़िए जिसे पढ़ते कल रात मैं रुक गया था.




पितृ हत्या

— कृष्णा सोबती



खिड़की के कांच पर हल्की खटखटाहट―

―कौन?

―चौकीदार, साहिब।

अन्दर से माँ ने झाँका―

―क्या बात है चौकीदार―आज इतनी जल्दी

―खिड़की-दरवाजे बंद कर लीजिए। मेहमानों को बाहर न निकलने दीजिए―शहर में बड़ा हल्ला है। क्या साहिब ऑफिस से आ गए?

―नहीं, पर यह तो बताओ हुआ क्या?

―साहिब, बापू गांधी को गोली मार दी गई है।

―हाय रब्बा! अभी यह बाकी था। अंधेर साई का—अरे किसने यह कुकर्म किया?

―साहिब अभी कुछ मालूम नहीं। कोई कहता है―शरणार्थी था, कोई मुसलमान बताता है―

घर में आए लुटे-पिटे उखड़े की भीड़ बरामदों में जुटी।


―अरे अब क्या कहर बरपा?

माँ ने हाथ से इशारा किया—चुप्प! यहाँ नहीं, आप लोग अन्दर चलें―

बापू गांधी को किसी हत्यारे ने गोली मार दी है।

सयानियाँ माथे पीटने लगी। हाय-हाय यह अनर्थ―अरे यह पाप किसने कमाया?

बाहर से अखबारी खबर वालों का शोर दिलों से टकराने लगा।
बापू को बिड़ला हाउस की प्रार्थना सभा में गोली मार दी गई।

बड़े-बूढे शरणार्थी धिक्कारने लगे―अरे अब डरने का क्या काम?

बाहर जाकर पूछो तो सही हत्यारा कौन था?

कुछ देर में साइकल पर आवाजें मद्धम हो दूर हो गईं कि शोर का नया रेला उभरा―

―महात्मा गांधी को गोली मारनेवाला न शरणार्थी था, न मुसलमान वह हिन्दु था। हिन्दू―

लानतें-लानतें―अरे हत्यारों ! लोग वैरियों, दुश्मनों को मारते हैं और तुम पितृ-हत्या करने चल पड़े। तुम्हारे कुल-खानदान हमेशा को नष्ट-भ्रष्ट हों―उनके अंग-संग कभी न दुबारा जगे―नालायकों अपनों को बचा न सके तो सन्त-महात्मा को मार गिराया। ऐसे पुरोधा को जिसने सयानफ से अंग्रेज को मुल्क से बाहर किया।

हाय ओ रब्बा-क्या तुम गहरी नींद सोए हुए थे।

नानी माँ जो दो दिन पहले ही बापू की प्रार्थना सभा में होकर आई थीं छाती पर हाथ मार-मार दोहराती रहीं―अरे पतित पावन उस घड़ी आप कहाँ जा छिपे थे। आपको तो बापू उम्र भर पुकारते रहे―

    रघुपति राघव राजाराम
    पतित पावन
    सीताराम।

राजाराम आप कहाँ गुम हो गए। यहाँ आपकी दुनिया बँट गई―बेटे कत्ल हो गए। आप गहरी निद्रा में सिंहासन पर विराजते रहे।

घर की पूरी भीड़―

रेडियो से शोक-ध्वनि सुनकर कलेजा मुँह को आया। बज रहा है―यह साज खून से लथपथ गांधी के लिए। हत्या-हत्यारा मुल्क दो हो गए।

पर―

हम लाहौर रेडियो से बोल रहे हैं―
रुँधे गले से अनाउंसमेंट।
हमारे महात्मा गांधी...

ऐमनाबाद से आई हमारी दादी माँ रह-रह आँखें पोंछने । सयानों की भर्राई आवाज में कहा―जो भी कहो―हजार मार-काट हुई हो पर हमारी गमी में पाकिस्तानियों ने हमसायों की-सी रोल निभाई है। ऐसे बापू को याद कर रहे हैं जैसे गांधी महात्मा उनका भी कुछ लगता था।

कमरे में सिसकियाँ तैरने लगीं।




मार्फत दिल्ली — कृष्णा सोबती
पेज: 136 | वर्ष: 2018,
पेपरबैक Rs 150 | हार्डबाउंड Rs 295
भाषा: हिंदी
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन

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