Ghazal: उलझ रहा हूं, सुलझ रहा हूं #प्रतापसोमवंशी ulajh raha hūñ @PratapSomvanshi



प्रताप सोमवंशी की ग़ज़ल

Pratap Somvanshi Ki Ghazal


उलझ  रहा हूं,  सुलझ  रहा हूं,  उजड़  रहा  हूं,  संवर   रहा   हूं
जितना  खुद  में  डूब  रहा   हूं,  उतना   ही   मैं   उबर  रहा    हूं

ये  ख्वाहिशें भी  वो सीढ़ियां हैं जो ख़त्म होती  नहीं  कभी  भी
समझ  गया  हूं  मैं  चढ़ते - चढ़ते, कई बरस से  उतर  रहा  हूं

सफ़र में जिनको बहुत थी जल्दी, कभी न वो मंज़िलों  पे पहुंचे
मैं  अपने  पांवों  की सुन रहा हूं,  ठिठक रहा  हूं  ठहर  रहा  हूं

नदी,  समंदर  से  बादलों से  कुछ इस तरह  मैं जुड़ा  हुआ  हूं
वहां  से  लेकर  उधार  पानी, मैं  खेत तक  इक सफ़र रहा हूं

ये  बात  सच  है  कि आज  बच्चे  बहुत जियादा  बदल  गए हैं
मगर   मैं  सोचूं   कहां  गलत  है,  मैं   भी तो  बेअसर  रहा   हूं



ulajh raha hūñ, sulajh raha hūñ, ujad raha hūñ, sañvar raha hūñ
jitna khud meiñ dūb raha hūñ, utna hī maiñ ubar raha hūñ

ye khvāhisheñ bhī vo sīdhiyāñ hain jo khatm hotī nahiñ kabhī bhī
samajh gaya hūñ main chadhte - chadhte, kaī baras se utar raha hūñ

safar meiñ jinko bahut thī jaldī, kabhī na vo mañziloñ pe pahuñche
maiñ apne pāñvoñ kī sun raha hūñ, thithak raha hūñ thahar raha hūñ

nadī, samandar se bādaloñ se kuchh is tarah maiñ juda hua hūñ
vahāñ se lekar udhār pānī, maiñ khet tak ik safar raha hūñ

ye bāt sach hai ki āj bachche bahut jiyāda badal gae haiñ
magar maiñ sochūñ kahāñ galat hai, maiñ bhī to beasar rahā hūñ


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