कहानी: डायरी, आकाश और चिड़ियां - गीताश्री

गीताश्री की कहानी 'डायरी, आकाश और चिड़िया'... विस्मयकारी ढंग से पाठक को बाँधती, सस्पेंस में रखती, स्त्री-विमर्श को बारीक-नई गुर्दबीन से देखती कहानी है। 
कल रात पढ़ी और 'रोली' और उसकी 'वीडा' की पीड़ा अबतक साथ हैं , समझ नहीं आ रहा दोषी कौन है, कहीं हम ही तो ....

भरत तिवारी 
८/२/२०१५, नई दिल्ली


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कहानी

डायरी, आकाश और चिड़ियां

गीताश्री


“ओ डायरी...  ओ माई फ्रेंड...  आई लव यू... ”

देखो... मेरे चारो तरफ रौशनी की तितलियां उड़ रही हैं। मेरे कंधे पर कौन बैठा है आकर। वह तब भी नहीं उड़ती जब मैं हाई हील पहन कर खटर पटर करती घूमती हूं घर भर में। तुम तो जानती हो, मुझे कितना लगाव है इन सबसे। मुझे अंधेरे में सोना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। अंधेरे में तुमसे बात नहीं कर पाती ना... । जानती हो, ब्लैक वाली ड्रेस मुझे हर हाल में चाहिए। प्लीज प्लीज... मम्मा को मनाओ ना... उसे पहन कर मैं औसम लगूंगी न। डिस्को भी जाऊंगी उसे पहन कर... पिक्स एफबी पर अपलोड करूंगी। 

अरे हां... एफबी से याद आया... आज कल मम्मा ने सख्ती कर दी है। रोज एक घंटे के लिए मैं उस पर बैठ सकती हूं। 

ओह... कितना धुप्प अंधेरा है यहां... कुछ सूझता नहीं. जिंदगी इतनी अंधेरों से क्यों घिर गई है, बताओ. क्या वजह है। जो चाहती हूं, मिलता नहीं, जो सोचती हूं, ठीक उसके उल्टा हो रहा है इन दिनों. मेरे दिन कब आएंगे... कुछ बता पाओगी... मैं चाहती हूं, तुम मुझे किसी ऐसी घाटी का पता दो, जहां मेरा अगला कदम वहां ही पड़े। फूल हो, झरने हो, तितलियां हो... बादलों के टुकड़े हों, नदी हो... मैं फूलो का बिस्तर बना कर सो जाना चाहती हूं... सूकून की नींद, कोई चीख, कोई गाली, कोई गूंज सुनाई न दे...  

वीडा... सुनो, इंटरेस्टिंग बात... 

“आज मैं मैनहट्टन घूमी, टाइम स्क्वायर देखा। ओलेक्जेंडर मेरा अच्छा जीवन साथी हो सकता है। वह इंडियन्स की तरह नहीं है। मेरा कितना ध्यान रखा उसने। उसने खूब पैम्पर किया मुझे। हैंडसम है ना. मुझे मैनहट्टन में उसके साथ रिक्शे की सवारी बहुत अच्छी लगी। देखो, इंडिया की तरह वहां भी फुटपाथ पर छोटी दुकानें हैं। आईसक्रीम खाते हुए अपना वैशाली मार्केट बहुत याद आया। छोड़ो, कल हम नासा की ओर निकल जाएंगे। मुझे डिज्नीलैंड भी जाना है। अब अमेरिका आई हूं तो सारा घूम लूं। यही तो यादें रह जाएंगी। मुझे हडसन नदी में क्रूज पर चढना है। हां, शायद कल मैं स्टैचू आफ लिबर्टी देखने जाऊं... तो क्रूज में ही जाना होगा ना। नदीं के बीचो बीच जो है। मुझे अमेरिका की हवा अच्छी लगती है। खास कर इसका मैसी स्टोर। सब कहते हैं, महंगा स्टोर है, यहां से मत खरीदो। पर मुझे यहां की ड्रेसेज बहुत पसंद है। मैं पहन कर बहुत क्यूट और सेक्सी लगती हूं ना। तुमने मुझे देखा है ना... मैंने अपने हेयर रिबांडिंग भी करा लिया है... खुले बाल हवा में लहराते हुए... ”

अच्छा, ये बताओ, मेरी फेस पेंटिंग कैसी लग रही है। मैंने डिज्नीलैंड में बनवाया। आह... क्या जगह है। सभी बच्चों को एक बार यहां जरुर जाना चाहिए। अलग ही दुनिया है। कल्पनालोक की तरह। सपनों की परियों को मैंने वहां घूमते देखा। कितनी सुंदर ड्रेस, हेयर स्टाइल। अरे पता है, कार्टून के सारे कैरेक्टर वहां शाम को फेरी लगाते हैं, मैंने हाथ मिलाया। और हां... यू कांट इमेजिन... मैंने वहां देखे, तरह तरह के भिखारी, कैसी वेश बनाए. अपने इंडिया के भिखारी कितने घटिया तरीके से रहते हैं। यहां के भिखारी भी गाते बजाते रहते हैं या अजीब अजीब सा वेश धरे... मैंने तो खूब फोटो खिचवाई... ”

ओह... पढते पढते रागिनी रुक गई। हथेलियों के बीच मरियल सी डायरी कमसमा रही थी। उसकी धड़कन रागिनी की नसों में महसूस हुई। कोई सांस जैसे तड़क कर टूट जाना चाहती हो। रागिनी ने अपना हाथ अपने सीने पर रखा। धड़कनो के कोरस में एक जिंदगी अपने पन्ने खोल रही थी। 

रागिनी को डायरी पढते हुए यकीन नहीं आ रहा था कि कोई 14 साल की लड़की, इस हद तक सोच सकती है। वो तो कल तक बच्ची थी सबकी नजर में। मां , मौसी और मामा सबकी नजर में। दबी-चुप चुप सी रहने वाली रोली, किसी ने घर में उसकी तेज आवाज नहीं सुनी होगी। लिखना पढना और टीवी देखना जैसे उसकी दुनिया थी। वैसे किसे फुरसत भी थी कि बड़ी होती रोली की हथेलियों को अपने हाथ मे लेकर पूछता कि तू इतनी शांत क्यों है रोली। आज चंद पन्ने पढने के बाद रागिनी का मन हो रहा है, रोली से पूछे... कई सवाल, जो आंधी की शक्ल में उठे हुए हैं।  

रोली तो कभी अमेरिका गई नहीं ? ओलेक्जेंडर से मिली नहीं? डिज्नीलैंड कभी गई नहीं। फेस पेंटिग कभी कराया नहीं। ऐसा कुछ नहीं किया जैसा उसने साफ साफ डायरी में दर्ज किया है। 

ओलेक्जेंडर तो बुआ की लड़की सोनाली का मंगेतर है। मंगनी के लिए सोनाली हाल ही में अमेरिका से होकर आई है। रागिनी अपने परिवार समेत उसकी मंगनी में गई थी। रागिनी की बड़ी बहन हिमानी नहीं जा पाई थी। अमेरिका की यात्रा कोई आसान भी तो नहीं। फिर क्या हुआ इसे। सारे विवरण ऐसे लिख रही है जैसे खुद वहां हो। सारी सटीक और सही। बिना वहां गए, कहां से आया ये अनुभव... सब सुनी सुनाई बातें, इतने विश्वसनीय ढंग से लिखा है। 

रागिनी ने दूसरा पन्ना पलटा। 

“माई वीडा... 

“शीला की जवानी” पर मैंने कल डांस किया... सबको बहुत पसंद आया। मौसी भी कितनी खुश थी। मैं डांसर भी बन सकती हूं... तुम क्या कहती हो। चलो, कोई बात नहीं... मैं अच्छी इंगलिश बोलती हूं... सब बहुत तारीफ करते हैं। पूछते हैं, कहां से आया अमेरिकन एक्सेंट... अरे भाई... मैं हूं ही अमेरिकन... इंडिया तो बस कुछ दिनों के लिए आई हूं। मुझे फिर वहां वापस चला जाना है ना... ”

आधा पन्ना पढते पढते रागिनी के हाथ कांप गए। ये लड़की किसकी बातें लिख रही हैं? 

“आज फेसबुक पर मुझे दोस्त मिला है। मेरी ही उम्र का है। वो सबसे अलग है। वो मेरा साथ देगा। उसने कहा है कि बस तुम घर से निकल जाओ। हमारे पैरेंटस अभी तक अपने सपने देखने और पूरा करने में लगे हैं। उन्हें हमारी क्या परवाह। चलो आओ... मैं तुम्हें दुनिया दिखाता हूं। मैं जाऊं उसके साथ ? तुम क्या कहती है... हमेशा की तरह मुझे सही जवाब देना... वीडा... ”


 पंकज सुबीर और गीताश्री की 'डायरी, आकाश और चिड़ियां'


पंकज सुबीर और गीताश्री की कहानी डायरी, आकाश और चिड़ियां
गीताश्री उन कहानीकारों में से हैं जिन्होंने कहानी के लिए एक नई भाषा गढ़ी है। हालाँकि इसका श्रेय कुछ दूसरे कहानीकारों तथा गीताश्री की ही समकालीन कुछ महिला कथाकारों को दिया जाता है लेकिन, सच यही है कि उस नई भाषा को गढ़ने में गीताश्री की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक सच और ये भी है कि गीताश्री को उनकी समकालीन महिला कथाकारों की तुलना में कभी उतना महत्त्व नहीं दिया गया जितना दिया जाना चाहिए था और दूसरी तरफ कुछ स्वप्रचारित नाम खूब चर्चाओं में बने रहे। गीताश्री की कहानियों ने पहले पहल उस प्रकार के चरित्रों की बात की जिन पर बाद में कई कहानीकारों ने काम किया। गीताश्री की कहानियों के उद्दंड और बिगड़ैल पात्र अपने रचाव और बनाव के कारण पाठकों ने खूब पसंद किए। गीताश्री की कहानियाँ एक अलग प्रकार की चमक लिए होती हैं। उनकी कहानियों में कुछ अजनबी सा माहौल और वातावरण होने के बाद भी ये कहानियाँ पठनीयता की दृष्टि से बहुत समृद्ध होती हैं। गीताश्री की कहानियों को मैं समय से कुछ आगे की कहानियाँ कहता हूँ। समय से आगे की कहानियाँ इसलिए कि ये कुछ पहले लिख दी गईं हैं। अभी इनके पाठक तैयार नहीं हुए हैं। इन कहानियों के पात्र समय से पूर्व गढ़ दिए गए हैं। लेकिन इसमें लेखक का कोई दोष नहीं होता। वो तो आने वाले समय की आहटों को वर्तमान में सुनता है, गुनता है और उससे अपनी कल्पना का भविष्य गढ़ देता है। कि.... लो ऐसा होगा तुम्हारा आने वाला समय। हम उसको नकारते हैं, उस पर हँसते हैं, और पूछते हैं कि ये कौन सी दुनिया है ? ये किस ग्रह से आए हुए पात्र हैं ? क्या मंगल ग्रह से उतारे गए हैं ? और फिर हम देखते हैं एक दिन कि वैसा हो गया है, वैसा हो रहा है। अपने ही जीवन में हम उस समय के भी साक्षी बनते हैं जिसको हम काल्पनिक समय कह रहे थे। गीताश्री की कहानियाँ समय से आगे जाकर पात्रों का चयन करती हैं। लेखक को यही तो करना चाहिए, समय से आगे और समय के पीछे जाए और वर्तमान में खड़ा रहे। उसे तीनों कालों को साधना होता है।   

कहानी को लेकर कहा जाता है कि कहानी तो सुनने की विधा है। कोई कहानी सुनाए और आप सुनें। कहानी का जा रस है जो उसका प्रवाह है वो उसी उत्सुकता में भी होता है कि आगे क्या हुआ? लेकिन यदि कहानी को पढ़ना हो तो बहुत ज़ाहिर सी बात है कि उस कहानी में फिर रस और प्रवाह दोनो हो और साथ में उत्सुकता भी हो कि अब आगे क्या होगा। गीताश्री की कहानियों में ये सब तत्त्व खूब होते हैं। अब जैसे इसी कहानी की बात की जाए ‘डायरी आकाश और चिड़ियाँ’। इस कहानी में गीताश्री ने डायरी के माध्यम से एक अलग ही संसार रचा है। हम सब के अंदर एक ‘एलिस’ होती है, जिसका अपना एक ‘वंडरलैंड’ होता है। और ये ‘एलिस’ हमेशा ही अपने ‘वंडरलैंड’ के बारे में और अधिक, और अधिक जानने को बेताब रहती है। हम सबके सपनों में कुछ सुनहरी तितलियाँ होती हैं जो अपने पँखों का तिलस्मी जादू जगा जगाकर हमें एक रहस्य लोक में बुलाती हैं। बचपन हमेशा हमारे अंदर होता है। हमेशा। एक ओर जहाँ बचपन की अपनी फंतासियाँ होती हैं तो दूसरी ओर अपनी पीड़ाएँ भी होती हैं। बचपन अक्सर पीड़ाओं से घबराकर फंतासियों की ओर भागना चाहता है। या मैं अपने वाक्य को ठीक करूँ  तो यूँ कहा जाए कि हम सब अपनी पीड़ाओं से घबराकर अपनी फंतासियों की ओर भागना चाहते हैं, भागते हैं । हम सब अपने अपने ‘रौरव’ से ‘वंडरलैंड’ की ओर भाग जाना चाहते हैं। हम भाग नहीं पाते लेकिन, बचपन भाग जाता है। क्योंकि बचपन के पास गुणा भाग अधिक नहीं होता है। बचपन सपनों को लेकर केलकुलेशन नहीं करता। बचपन और हममे फर्क बस यही होता है कि हम शतरंज की तरह जीवन जीते हैं। शतरंज की तरह मतलब ये कि इस चाल का अगली दस पन्द्रह चालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा उसका गुणा भाग करने के बाद ही अपनी वर्तमान चाल चलते हैं। जबकि बचपन जिस चाल को चल रहा है केवल उसी पर केन्द्रित होता है। यहाँ मैं बार बार बचपन शब्द का उपयोग कर रहा हूँ, जबकि गीताश्री की कहानी की पात्र चौदह साल की है। चौदह साल को किशोर उम्र कहा जाएगा, बचपन नहीं । और कम से कम आज के समय में तो बिल्कुल ही नहीं। लेकिन, कभी कभी ऐसा नहीं होता है। कभी कभी ये किशोर अवस्था आती ही नहीं है। या तो बचपन के बाद एकदम युवावस्था आ जाती है, जब जीवन की कठिन परिस्थितियाँ ऐसा कर देती हैं। या कभी ऐसा भी होता है कि जीवन बचपन में ही देर तक स्थगित सा खड़ा रह जाता है। आगे ही नहीं बढ़ता। क्योंकि आगे बढ़ने के लिए आवश्यक खाद पानी नहीं मिल पाता है। गीताश्री की इस कहानी की नायिका भी ऐसी है। बचपन में ही स्तब्ध और स्थगित सी।

‘आपका बंटी’ फिर-फिर कहानियों में लौटता है। उसे लौटना ही है। काया बदल कर, रूप बदल कर। कुछ पात्र देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण करने के लिए ही पैदा होते हैं। बंटी, यहाँ रोली की देह में कायांतरण करके लौटा है। वह सुधा ओम ढींगरा की एक कहानी जो पूरी तरह से अमेरिकी जीवन शैली पर आधारित कहानी थी ‘टारनेडो’, उसमें भी लौटा था, क्रिस्टी के रूप में। क्रिस्टी और रोली दरअसल बंटी का ही एक्स्टेंशन हैं। बंटी असल में कोई पात्र नहीं है। वह एक समस्या है, और जब तक समस्या रहेगी तब तक पात्र भी रहेगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका नाम क्या है। वो कहाँ है ? भारत में या अमेरिका में? उसका होना ही महत्त्वपूर्ण है। रोली की पीड़ा को गीताश्री ने डायरी के माध्यम से उजागर किया है। फंतासी से भरी हुई डायरी। सपनों से भरी हुई डायरी। घाटी, नदी, फूल, झरने, तितलियाँ और बादल, ये केवल रोली की डायरी नहीं है, ये हम सबकी डायरी है। हमारे सपनों में ये सब आना चाहते हैं, लेकिन इनके लिए अब हमारे सपनों में भी स्पेस नहीं है। हमारे सपने भी गणितीय समीकरणों से भरे हुए हैं। जहाँ गणित होता है वहाँ  घाटी, नदी, फूल, झरने, तितलियाँ और बादल, नहीं हो सकते बल्कि, वहाँ तो सपने भी नहीं हो सकते। गणित सबको पी जाता है। सारे रस को। जीवन में रस की हर अंतिम बूँद को गणित पी जाता है, और जीवन को नीरस कर देता है। गणित को रस पसंद नहीं, उसे खुश्की पसंद है, सूखापन पसंद है। रोली के जीवन के सारे रस को ये गणित धीरे धीरे चूस रहा है। रोली उसे देख रही है लेकिन कुछ कर नहीं पा रही।

रोली अपने सपनों में अपनी बुआ की लड़की के सपनों के बीज बो देती है। वो कायांतरण कर जाती है अपनी बुआ की लड़की सोनाली में। क्योंकि, सोनाली के जीवन में वह सब कुछ है जो रोली के सपनों में है। इसीलिए वह सोनाली बन कर डायरी लिखती है। बच्चों की दुनिया में कुछ भी जड़ नहीं होता। यही उस दुनिया की विशेषता होती है कि उस दुनिया में सब कुछ चेतन होता है। वहाँ डायरी भी जड़ वस्तु नहीं है। डायरी तो वैसे भी जड़ नहीं होती। मगर यहाँ तो उसका भी एक नाम है -‘वीडा’। बच्चे अपनी दुनिया में हर किसी को नाम से बुलाना चाहते हैं। नाम से पुकारना प्रतीक होता है सम्मान का। और हमारी दुनिया में तो हम उनको भी नाम से नहीं पुकारना चाहते जिनके बाकायदा नाम हैं। हम तो चाहते हैं कि उनको भी बिना नाम के पुकारे ही हमारा काम चल जाए। मतलब फलाना, ढिकाना, अमका, ढिमका कह कर। मगर रोली की दुनिया में उसकी डायरी का भी नाम है -‘वीडा’। ‘वीडा’ जो रोली के सबसे ज़्याद क़रीब है। जिससे वो अपनी हर बात, हर सपना शेयर करती है। जिन्हें वो अपनों से शेयर करना चाहती है। जब अपने मन की कहने के लिए कोई चेतन नहीं मिलता तो फिर जड़ का ही सहारा लिया जाता है। जैसा ये रोली कर रही है। वह दरअसल डायरी नहीं लिख रही, वह तो अपने मन की बात कह रही है। अभिलाषाएँ, कामनाएँ, जिनमें है फेसबुक, अमेरिका, यमुना एक्सप्रेस हाइवे और शीला की जवानी पर नाचना भी। सपने एक बिन्दु और विषय पर रुकना नहीं जानते, इसीलिए तो वे सपने होते हैं। सारे सपने ‘वीडा’ को बताए जा रहे हैं। ‘वीडा’ एक फ्रेंच शब्द होता है जिसका अर्थ होता है जीवन। रोली ने अपने लिए एक दूसरा जीवन बना लिया है। सोनाली के सपनों को अपने लिये ‘वीडा’ के द्वारा तलाश रही है वह।

अलग हो चुके माँ बाप के बच्चों के जीवन पर, उनकी मनोस्थिति पर कई कई कहानियाँ लिखी जा चुकी हैं और आगे भी लिखी जाती रहेंगीं। असफल दाम्पत्य बहुत कहानियों को जन्म देता है। असफल दाम्पत्य का दंश बच्चों को ही सहना होता है। और यदि बच्चे उस समय किशोरावस्था में हों तो और अधिक। तथा यदि लड़की हो तो और और अधिक। सुधा ओम ढींगरा की कहानी टारनेडो की तरह यहाँ भी लड़की अपनी माँ के नए प्रेमी की नज़रों से परेशान है। और भाग जाना चाहती है उनसे दूर। उन आँखों से दूर, जो आँखें देखते ही देखते हाथ बन जाती हैं, जिनकी उँगलियाँ निकल आती हैं और जो उसकी देह पर फिरने लगती हैं। गन्दी और काली छिपकलियों की तरह। पुरुष हमेशा स्त्री को तलाशता है, उम्र और देह की हर परिधि के पार। तलाश के क्रम में घूरता है वो हर स्त्री देह में संभावना। अपने पुरुष की संतुष्टि की संभावना। स्त्री इस तलाशे जाने को ठीक पहले ही सैकेंड में चीन्ह लेती है। लड़की भी उस घूरने से ही घिन्ना रही है। और उसीसे भाग रही है। एकाकीपन, भाग जाने का उतना बड़ा कारण नहीं होता है। एकाकीपन धीरे धीरे अपनी आदत डलवा देता है। हम उसमें रमने लगते हैं। भागने को लेकर हमेशा ही तात्कालिक कारण तलाशे जाते हैं। कि अभी क्या हुआ, क्या ऐसा जो भाग जाने का कारण बना। घर, दुनिया में सबसे अधिक सुकून देने वाला स्थान होता है, ऐसे में यदि कोई उस सबसे अधिक सुकून देने वाले स्थान को अपनी मर्जी से छोड़ कर चला जाता है (भाग जाता है) तो उसके गहरे कारण होते हैं। इतना आसान नहीं होता है घर को छोड़ देना।

वीडा के बाद जो दूसरा पात्र रोली को मिलता है वो है शोएब। पात्र का धर्म लेखिका ने जानबूझकर चयन किया है। दूसरे पात्र का नाम शोएब होना सोच समझ कर हुआ है। लेखिका ने रोली के एकाकीपन के बरअक्स कुछ दूसरे सवालों की भी पड़ताल की है। दूसरे सवाल जो इन दिनों हवाओं में बहुत गूँज रहे हैं। लेखिका ने उन सवालों की जड़ तक पहुँचने की कोशिश की है। दूसरे पक्ष के अंदर गहरे उतर कर। धर्म, समाज और परंपराओं ने हम सबके ‘वीडा’ (जीवन) की उन्मुक्तता को बाधित किया है। हमारे पंखों को कतरा है। हम क्यों वैसे नहीं रह सकते जैसा हम रहना चाहते हैं। क्यों हमें ये बताया जाता है कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। अच्छा या बुरा होना ग्लोबल कैसे हो सकता है, यूनिवर्सल कैसे हो सकता है। हर व्यक्ति का अच्छा बुरा उसके लिये अलग होगा। हम सब तो कितने अलग अलग हैं ? रोली का दूसरा ‘वीडा’ शोएब है। ग़लत है कि सही, इस पर लेखिका ने बहुत कुछ नहीं कहा है। रोली की दुनिया वीडा से लेकर शोएब तक फैली हुई है। शोएब उसे फेसबुक में मिला है। फेसबुक पर नहीं, फेसबुक में। क्योंकि फेसबुक एक दुनिया है। विरचुअल दुनिया। आभासी दुनिया। जब वास्तविक दुनिया हमें कष्टप्रद लगने लगती है तब ही तो हम आभासी दुनिया में अपने सुख तलाशने जाते हैं। 

कहानी दो स्तरों पर चलती है एक मनोवैज्ञानिक स्तर पर, जहाँ वह रोली के मन की परतों में गहरे उतरती जाती है, सूक्ष्म से सूक्ष्म की पड़ताल करते हुए। रोली के बहाने कई प्रश्नों का उत्तर तलाशते हुए। दूसरा स्तर घटनाक्रम के स्तर पर है। कहानी मनोवैज्ञानिक स्तर पर जितनी सशक्त है, घटनाक्रम के स्तर पर उतनी नहीं है। कोई भी मनोवैज्ञानिक कहानी अपने लिए घटनाक्रम के स्तर पर भी अलग शब्दावलि चाहती है। वहाँ सपाट बयानी से काम नहीं चलता है। इसीलिए अक्सर मनोवैज्ञानिक धरातल पर रची गई कहानियों में अक्सर लेखक घटनाक्रम को लाने से बचता है। या, अगर लाता भी है तो उसको इसी रंग में रँगकर लाता है। ये कहानी चूँकि केवल और केवल रोली की कहानी है इसलिए इसमें पाठक केवल रोली से ही जुड़ता है। उसे घटनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं है। घटनाएँ तो होती हैं। होती रहती हैं। उनके लिए पत्रकारिता है। इस कहानी में ‘वीडा’ और फेसबुक दोनों मिलकर जो दुनिया रच रहे हैं दरअसल कहानी वही है।  कहानी का दूसरा पक्ष कमजोर इसलिए भी है क्योंकि स्वयं लेखिका के लेखन का सशक्त पहलू भी मनोविज्ञान है। किशोरियों और युवतिओं का मनोविज्ञान। और इस कहानी में भी लेखिका ने अपने उस मजबूत पहलू को बहुत सुंदरता के साथ उभारा है। रोली की मनोदशा को वाक्य दर वाक्य, शब्द दर शब्द, सुंदरता के साथ चित्रित किया है। कुछ वाक्य तो इस प्रकार से गढ़े हैं कि वे लकड़ी के टुकड़े पर मारे गए धातु के टुकड़े की तरह वाइब्रेट होते हैं और होते ही रहते हैं। ‘मेरे चारों तरफ रौशनी की तितलियाँ उड़ती हैं’। ‘मैं फूलों का बिस्तर बना कर सोना चाहती हूँ’। और एक बहुत महत्त्वपूर्ण वाक्य -‘’हमारे पैरेंट्स अभी तक अपने सपने देखने और पूरा करने में लगे हैं’। यह वाक्य कहानी की धुरी है जिसके चारों तरफ कहानी घूम रही है। या इस प्रकार की कई कई कहानियाँ घूम रही हैं। अपने सपने, पैरेंट्स के अपने सपने। एक समय के बाद पैरेंट्स के सपने बच्चों के रास्ते में आने लगते हैं। रंग बदल कर, रूप बदल कर। ये सपने बच्चों की आँखों में चुभने लगते हैं। दरअसल समय के एक निश्चित अंतराल के बाद सपनों की परिभाषाएँ बदलती हैं। हर पीढ़ी के अपने सपने होते हैं। यदि सपने, समय के ग्लेशियर में जम जाएँ, फ्रीज़ हो जाएँ तो वो सपने नहीं रहते, सपनों की ममी बन जाते हैं। हर पीढ़ी अपने सपनों की ममी लेकर घूमती है और चाहती है कि उसके बाद की पीढ़ी इस ममी को अपने काँधे पर लेकर घूमे। यही होता आ रहा है और यही होता रहेगा।

रोली की एक और पीड़ा है, वो अभी माँ नहीं बनना चाहती। माँ....? अपने छोटे भाई की माँ। बंटी की माँ। जो उसे बना दिया गया है। जैसा कि वो शोएब के साथ फेसबुक पर चैटिंग करते समय कहती है ‘मैं अपने छोटे भाई बंटी की माँ बना दी गई हूँ। पापा घर से गायब हैं, मम्मी बंटी को मुझे थमा कर निकल जाती हैं। मैं बंटी की आया बन कर रह गई हूँ।’ रोली ने यहाँ पर अपने आप को पूरी तरह से खोल दिया है शोएब के सामने। शोएब जो पता नहीं क्या है। उसकी उम्र क्या है, वो करता क्या है, कुछ पता नहीं। विरचुअल दुनिया में सामने डिस्प्लै हो रहे शब्द महत्त्वपूर्ण होते हैं उसके अलावा कुछ भी नहीं। शोएब उसे कभी ‘बेबी’, कभी ‘डियर’ तो कभी ‘स्वीटी’ कह कर संबोधित कर रहा है। संबोधन जो वो सुनना चाहती है। सुनना चाहती है अपनों से। सदियों से यही तो होता आया है कि हम उसी चीज़ की तलाश में घर छोड़ कर निकल पड़ते हैं जो हमें घर में नहीं मिलता है। फिर चाहे वो रोली को मिलने वाले संबोधन हों चाहे बुद्ध को मिलने वाला सत्य हो। खोजना है तो निकलना ही पड़ेगा। बिना निकले खोज नहीं होती। शोएब का चरित्र लेखिका ने बिल्कुल नहीं उभारा है। शायद जानबूझ कर। कि, कोई फर्क नहीं पड़ता इससे कि वो कौन था ? बस ये कि हाँ कोई था। कहानी को सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो ये उस प्रश्न का भी उत्तर देती है जो इन दिनों हवा में खूब है। शोएब उसी प्रश्न के उत्तर का एक अंश है। जबकि, उत्तर का बड़ा हिस्सा रोली के घर में ही है। डायरी, आकाश और चिड़िया, ये नाम खूब सटीक रखा है लेखिका ने। यहाँ डायरी  ‘वीडा’ अर्थात जीवन का प्रतीक है और शोएब आकाश का। जिनको जी लेने के लिए चिड़िया उत्कंठित है।  इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो आकाश किस नाम का है शोएब नाम का या सुरेश नाम का।

ये कहानी गुलाब की पंखुरियों के जलते हुए तवे पर गिरने की कहानी है। यदि आपने गुलाब की पंखुरियों की कोमलता को छूकर महसूस नहीं किया है तो आप समझ नहीं पाएँगे कि गर्म तवा उनके लिए कितनी विपरीत परिस्थिति है। बाल मनोविज्ञान और किशोर मनोविज्ञान सबसे रहस्यमयी दुनिया है। जहाँ पहले से तय कुछ भी नहीं है। जहाँ समीकरण नहीं चलते । जहाँ दो और दो का जोड़ कभी भी चार नहीं होता। कभी भी नहीं। जो दो और दो को चार करने के विरोध में खड़ी हुई ही दुनिया है। गीताश्री ने इस दुनिया की कहानी को अपने ही अंदाज़ में रचा है। अपने विशिष्ट अंदाज़ में। बाहर की घटनाओं का विवरण एक और जहाँ कहानी का कमज़ोर पक्ष है तो वहीं मन के अंदर की घटनाओं का विवरण सशक्त पक्ष है। और इसलिए, कि कहानी तो वास्तव में वहीं की है अंदर की, मन के अंदर की, इस कहानी को महत्त्वपूर्ण कहानी कहा जाएगा। जाने पहचाने विषय में कुछ नया तलाशने की कोशिश है ये कहानी डायरी, आकाश और चिड़िया।  

पंकज सुबीर
पी. सी. लैब
सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट
बस स्टैंड के सामने
सीहोर 466001 मप्र
मोबाइल 9977855399
“देखो वीडा... मैं कल सारी रात डिस्को में नाचती रही। मजा आया। सब मुझे कैसे घूर रहे थे न. ब्लैक, चमचम ड्रेस मुझ पर अच्छी लगती है न. मैंने बीयर भी पी। खूब धमाल किया। मेरे दोस्तों ने मुझे पैम्पर किया। अहा... मजा आया। कितनी रौशनी थी न वहां... कोई बात नहीं... मैं तैयार हूं, इसी वीकेंड, उसी नियोन लाइट में ठुमकने के लिए... ”

“अरे वीडा... अभी अभी मैं लौंग ड्राइव पर गई थी। ओह... क्या बताऊं... कितना मजा आया। खुली हवा, सरसराते पेड़, सीटियां बजाते पेड़, झूम झूम कर नाचते पेड़, हल्का अंधेरा और हम और वो... ये मत पूछना कि कौन... बस हम साथ थे... दूर निकल गए थे। कोई शोर नहीं था। मुझे अच्छा लग रहा था... मैं सड़क पर उतर कर दौड़ रही थी... वह हौर्न बजा बजा कर परेशान और मैं... यमुना एक्सप्रेस वे पर मस्ती कर रही थी... , अमेरिका में मिस करुंगी न ये सब... ”

पढते पढते थरथरा गई रागिनी। 

यकीन नहीं आया कि यह डायरी रोली की है या सोनाली की, जिसकी जिंदगी डायरी में रोली दर्ज करती जा रही है। अपनी जिंदगी जीते जीते वह परकाया प्रवेश कर जाती है। 

पूरी डायरी रागिनी से पढी नहीं गई। आंखें डबडबा आईं। डायरी भरी हुई थी ऐसे अनगिन रोमांचक विवरणो से। पढना जरुरी था। शायद कोई क्लू मिल जाए। रागिनी की हथेलियों में सांसे लेती हुई डायरी थी, जिसमें अंधेरे और रौशनियों में डूबी हुई अनेक आवाजें आ रही थीं। समंदर पार से यहां तक की आवाजें। तरह तरह की कामनाएं, अभिलाषाएं और परकटी छटपटाती तितलियों का रंगीन संसार। इतनी किताबे पढीं होंगी रागिनी ने, किसी किताब ने इतना विचलित नहीं किया कभी। जिंदगी की किताबें शायद, ज्यादा बेचैन और कातर करती हैं। 

हर पन्ने पर लिखी थी रोली ने अपने दिल की दास्तान। अपने दुख, अपने सुख... वह डायरी से रोज बातें करती थी। लिख लिख कर उसे अपनी बातें कहती थी। और अंत में पूछती थी... ”बता मैं क्या करुं?” ढेर सारे सवालों के चिन्ह लगा देती थी। जवानी की दहलीज से चंद कदम दूर एक छोटी लड़की जिंदगी और रिश्तों के कितने सारे सवालों से जूझ रही थी और उसके माता पिता को इसका अहसास तक नहीं। रागिनी को उसकी डायरी से पहली बार पता चला कि हिमानी और उसके पिता रौशन में अक्सर झगड़े होते हैं और कुछ दिन पहले ही वह हमेशा के लिए घर छोड़ कर चला गया था। तब से रोली की उदासी बढ गई थी। 

आखिरी कुछ पन्नों में उसने लिखा था—

“मेरी दोस्त... अब पापा घर नहीं लौटेंगे। मुझे पता नहीं वे कहां होंगे। उन्होंने कभी मुझे फोन नहीं किया। उन्हें हमारी जरा भी परवाह नहीं। होती तो क्या वे फोन नहीं करते। चुपके से मिलने भी तो आते। मम्मी कौन सा दिन भर घर में रहती हैं। क्या वे हमें बिल्कुल प्यार नहीं करते। बताओ वीडा... ???”

एक पन्ने पर लिखा था... 

“आज मम्मी किसी से मोबाइल पर बात कर रही थीं कि मैं भी घर छोड़ कर कहीं चली जाऊंगी। उन्हें बता देना, फिर आएंगे बच्चों से मिलने। जब उन्हें परवाह नहीं तो मैं ही क्यों अपनी जिंदगी बच्चों के पीछे खराब करुं। वैसे भी मेरी कमाई से ये घर नहीं चल सकता। मैं इतने महंगे स्कूल में दोनों बच्चों को कैसे पढा पाऊंगी। रोली की पढाई छुड़ा दूंगी। काम पर लगा दूंगी... ”

“दोस्त... बताओ... क्यों न मैं खुद ही घर से चली जाऊं... कोई काम तलाश लूं। मैं अच्छी इंगलिश बोल लेती हूं, सुंदर हूं, स्मार्ट हूं, कहीं न कहीं काम मिल ही जाएगा। यहां से दूर, किसी शो रुम में रिशेप्निस्ट का काम कर लूंगी... लेकिन अब कभी यहां लौट कर नहीं आऊंगी... मै मम्मी पर बोझ नहीं बनना चाहती। क्या कहती हो दोस्त... माई वीडा... ”

रागिनी को “वीडा” शब्द परेशान कर रहा था। वह इतना तो समझ गई थी कि यह अंग्रेजी का शब्द नहीं है। किसी अन्य विदेशी भाषा का कोई शब्द है और जिसका जरुर कोई खास अर्थ होगा। 

उसने तुरंत सोनाली को फोन लगाया। सोलानी ने जो बताया, सुन कर रागिनी सन्न रह गई। “वीडा” एक फ्रेच शब्द है जिसका अर्थ होता है लाइफ-यानी जीवन। रोली ने अपनी डायरी को अपनी जिंदगी बना लिया था और उससे सारी बातें करती थीं। वह डायरी में अपनी नहीं, दूसरो की जिंदगी जी रही थी। खासकर सोनाली की जिंदगी। जब से सोनाली अमेरिका से लौटी है, उसकी तस्वीरें रिश्तेदारों में घूम रही हैं। सोनाली ने बताया कि उसका अल्बम रोली के पास काफी समय तक पड़ा रहा। एक एक तस्वीर के बारे में वह विस्तार से जानना चाहती थी। पूछती रहती थी। सुनते समय उसकी आंखें जुगनूओं की तरह चमकतीं। तब किसी ने इतना ध्यान नहीं दिया था कि रोली यब सब देखते सुनते सोनाली में तब्दील हो चुकी थी। वह अपनी देह में नहीं थी। 

अब तो वह सदेह गायब थी। 

पूरे घर में कोहराम मचा हुआ था। परिवार के हरेक सदस्य के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। ऐसी अनहोनी की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। जो नहीं होना चाहिए था, वो हो गया था। रोली घर से गायब थी। संकट की इस घड़ी में पूरा परिवार इकठ्टा हो गया था। सोसाइटी में अभी किसी को भनक नहीं लगी थी। रागिनी मौसी ने मना कर दिया था रोली की मां हिमानी को। किसी को कानोकान ये खबर न हो। रोली के मामा इस बात से चिंतित थे कि कहीं सोसाइटी में बात खुल गई तो कितनी बदनामी होगी। कई बार समाज का भय, मातम मनाने की इजाजत भी नहीं देता।

हिमानी भी कुछ कुछ इसी बात को लेकर परेशान थी। किशोर बेटी की चिंता के साथ साथ अपनी बदनामी का भी भय उन्हें खाए जा रहा था। कहां ढूंढे उसे। रोली का अपना मोबाइल हाल में उसके पिता ने गिफ्ट किया था जिसे वह टूयशन पढने समय साथ ले जाया करती थी, वह भी घर पर रखा था। उसकी किताबें, कपड़े, कुछ भी नहीं ले गई। सारा सामान यथावत धरा हुआ था। फिर गई कहां। क्या हुआ उसे... किसी की समझ में नहीं आ रहा था। 

रागिनी मौसी का दिमाग लगातार सोच में डूबा हुआ था। आखिर कोई लड़की स्कूल से सीधे कहां और क्यों गायब हो सकती है। 

रात घिर आई थी। काली स्याही में डूबी रात कुछ ज्यादा ही भयावह लग रही थी। हिमांशु मामा सिर पकड़े बार बार घड़ी देख रहे थे। बेचैनी से मोबाइल की तरफ देखते। शायद कहीं से कोई फोन आ जाए और लड़की का पता लग जाए। वे पुलिस को तुरत बताने के पक्ष में नहीं थे। वे चाहते थे, मामला परिवार के स्तर पर निपट जाए तो अच्छा है। वे बार बार हिमानी से पूछते कि रोली के साथ कहीं उसका कोई झगड़ा तो नहीं हुआ था। वह इनकार करती। रोली के पिता अब तक नहीं आए थे। उन्हें खबर तो दे दी गई थी। सुबह तक लड़की नहीं लौटती है तो पुलिस को खबर देनी होगी। उसके बाद खबर सब जगह फैल जाएगी। 

हिमानी के होठों पर प्रार्थनाएं और बददुआएं दोनों थीं। वह ईश्वर से दुआ भी कर रही थी और अपने पति रौशन का नाम लेकर कुछ बदबुदा भी रही थी। 

रागिनी ने नोटिस किया। उसे लगा कहीं कुछ गड़बड़ है जिसकी परदेदारी है। वह हिमानी से कैसे पूछे। बेटी के गायब होने से खुद ही अधमरी सी हो रही है। ज्यादा पूछने पर बिखर जाएगी। आंखें दिन से ही बरस रही हैं। रागिनी मौसी जल्दी धैर्य नहीं खोतीं और न ही जल्दी किसी बात पर रिएक्ट करती हैं। उनका दिमाग संकट की घड़ी में भी संयम से चलता है। तभी घर में सभी उन्हें सकंटमोचक भी कहते हैं। रोली के गायब होने की सबसे पहली सूचना हिमानी ने रागिनी को ही दी। रागिनी ने फिर भाई को खबर दी। रोली का छोटा भाई पूरे घर में दी दीदीईदीईदीईई करता घूम रहा है। कभी रोता है तो कभी मां का कुरता खींच कर पूछना चाहता है। किचन सूना पड़ा था। किसी का मन चाय तक बना कर पीने का नहीं हुआ। अनजाने भय ने सबको जकड़ लिया था। रागिनी भी भीतर से भयभीत थी। आए दिन शहर में इतनी घटनाएं हो रही हैं। अखबार घटनाओं से पटे रहते हैं। रोली तो नादान है, कमसिन है। इतनी छोटी लड़की खुद तो नहीं भाग सकती। इसके पीछे जरुर किसी का हाथ होगा... रागिनी ने सोचते सोचते रोली का सामान खंगालना शुरु किया। सबसे पहले उसका मोबाइल चेक किया। वह कंटैक्ट लिस्ट देख कर चौंक गई। सारे नाम और नंबर वह डिलीट कर गई थी। कोई मैसेज तक नहीं छोड़ा था। सारे डिलीट। इसका मतलब रोली ने सबकुछ प्लान ढंग से किया। 

“हिमानी... रोली को कोई भगा नहीं ले गया, वह खुद भागी है-“

रागिनी ने हिमानी को स्पष्ट कर दिया। 

“लेकिन क्यों... वह क्यों भागेगी... क्या कष्ट दिया था उसे ?”

हिमानी सुबक रही थी। 

हिमांशु चीखा-“मैं नहीं मान सकता। इतनी हिम्मत कहां से आई उस लड़की में... जरुर उसके बाप का हाथ होगा उसे भगाने में... देखना, आने दो उसे... अभी तक पहुंचा नहीं... कैसा बाप है, खबर सुनकर दौड़ा चला आता। उसे कोई क्या फर्क पड़ता है... तुम लोग मरो या जीओ... सेल्फिश मैन... ”

हिमांशु की पूरी देह गुस्से से कांप रही थी। उसका बस चलता तो रोली के पापा का गला दबा देता। 

रागिनी ने उसे टोक दिया। 

“भाई... इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ठीक नहीं है। हमें कुछ पता नहीं, एक्चुअली हुआ क्या है। कोई क्लू भी नहीं मिल रहा है। कल पुलिस को बताना तो पड़ेगा ही। पर मुझे हैंडल करने दो भाई... तुम शांत हो जाओ। ये वक्त आपस में झगड़ने का नहीं है। परिवार पर बहुत बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है। मुझे उस नन्हीं सी जान की चिंता है। रात इतनी हो गई है, कहां गई होगी, क्या कर रही होगी, उसके साथ क्या हो रहा होगा ?”

“हम हाथ पर हाथ धरे तो नहीं बैठ सकते न... ”

हिमानी सुबकते हुए चिल्लाई। “खोजो उसे... जाओ... पुलिस को बताओ... अब देर करोगे तो पता नहीं क्या होगा... ”

“प्लीज... डौंट क्रिएट पैनिक... ” रागिनी ने सबको टोका। 

उसके दिमाग में कुछ चल रहा था। वह उठी और रोली की बुक सेल्फ तलाशने लगी। सारी किताबें उलट पुलट डालीं। नोट बुक देखें। एक एक पन्ना चेक किया, शायद कुछ लिखा हो, कोई क्लू छोड़ा हो। कपड़े देख लिए, स्टडी टेबल पर भी कुछ नहीं मिला। अचानक रागिनी को कुछ ध्यान आया। 

हिमानी के रुम में झपटती हुई पहुंची। डायरी अब भी उसके हाथ में थी. 

मुझे रोली का फेसबुक चेक करना होगा। शायद वहां कुछ मिले। 

बोलते बोलते रागिनी ने कंप्यूटर आन कर दिया। वाई फाई बंद पड़ा था। औन किया फिर भी चारो लाइटें नहीं जलीं। दो लाइट जलीं और बाकी भुक भुक कर रही थीं। जब मुसीबत आती है तो चारो तरफ से आती है... भुनभुनाती हुई रागिनी ने अपना बैग टटोला। शायद डाया केबल, फोटोन मिल जाए तो उससे ही नेट कलेक्ट हो जाए। 

“सुनो... मोडम को दो चार बार और औफ करो... तब चलने लगे शायद। रोली ही इसका इलाज जानती थी... अक्सर गड़बड़ ही रहती है... ”

हिमानी की बेदम आवाज आई। 

कुछ देर की मशक्कत के बाद नेट चलने लगा। रागिनी ने राहत की सांस ली। कई बार जिंदगी तकनीक पर कितनी निर्भर हो जाती है... । फेसबुक खोलते ही जैसे ही रोली का नाम लौग इन किया, ईमेल अपने आप सामने आ गया। असली मुसीबत तो पासवर्ड की थी. 

“रोली का पासवर्ड किसी को पता है ?”

रागिनी के सवाल का किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। उसने सबकी तरफ सवालियां निगाह से देखा। 

“कैसी मां हो... ?? कमसेकम अपने बच्चों के बारे में पूरी नजर रख सकती हो या उसकी गतिविधियों के बारे में जानकारी रख सकती हो।“

रागिनी के स्वर में धिक्कार भाव को हिमानी ने समझा और सिर झुका लिया। वह मौन भाव से अपने तमाम अपराधो को स्वीकारने को तत्पर थी जैसे। 

“अपनी बेटी से इतना कन्सर्न रहता तो आज ये नौबत न आती... ” मन ही मन बुदबुदाती हुई रागिनी ने तरह तरह के पासवर्ड ट्राई करने शुरु किए। कभी हिमानी का नाम, पापा का नाम, छोटे भाई का नाम, सोनाली का नाम, फिर नामो से थक गई तो रागिनी ने टाईप किया... डायरी। नहीं खुला। फिर टाइप किया—माई लाइफ... , नहीं खुला... । डायरी आई लव यू टाइप किया, फिर भी नहीं खुला। रागिनी पूरी कोशिश करके थक गई। 

हिमानी असहाय आंखों से रागिनी को देखती रही। 

एक बार टाइप करके देख... ”मम्मा, आए लव यू... ” शायद खुल जाए। 

नहीं खुला... 

“पापा कम बैक टाइप” करके देख... 

फिर भी बात नहीं बनी... रागिनी सोच में डूब गई। पूरी कोशिश कर ली। आखिर इस लड़की ने क्या पासवर्ड रखा होगा। रोली का छोटा भाई, कबीर दौड़ता हुआ आया और टेबल पर पड़ी डायरी झपट्टा मार कर ले भागा। 

रागिनी उसे पीछे भागी। तब तक हिमानी ने डायरी देख ली। हल्की रौशनी में रागिनी ने “वीडा” शब्द देखा। भक्क से रौशनी जली। उसकी बांछे खिल गई। उसने “वीडा” टाइप किया... 

फेसबुक औन नहीं हुआ। 

ओह... 

अब सारी आशाएं धूमिल। फेसबुक से कोई क्लू मिलने की संभावनाएं खत्म-सी हो गईं। यूं ही अनमने ढंग से रागिनी ने टाइप किया... ”वीडामाईलाइफ”

और फेसबुक नहीं औन हुआ। रागिनी अब हताश होने लगी थी। कई तरह शब्द ट्राई कर चुकी थी। ये आखिरी कोशिश थी, ये भी सफल नहीं हुई। कई तरह के सवालों के बादल मन में उमड़ने लगे। क्यो रोली इतन चालाक हो सकती है कि पासवर्ड इतना कठिन रखे। 

पासवर्ड का अपना मनोविज्ञान होता है। लोग आमतौर पर आसानी से याद आने वाला, घर के लोगो के नाम, जन्म दिन, अपनी उम्र...  

रागिनी सोचते सोचते रुक गई। उंगलियां अपने आप टाइप करने लगीं... ”वीडामाईलाइफ14.”

रागिनी जोर से चिल्लाई... खुल गया खुल गया... ओ माईगौड... 

हिमांशु आवाज सुन कर भी अंदर नहीं आया। हिमानी भी अंदर नहीं आई। शायद वह फेसबुक पेज से खुलने वाले रहस्यों के सामना करने को तैयार नहीं हुई थी। 

रागिनी अधैर्य थी। उसने बिना किसी का इंतजार किए फेसबुक के वाल पर सर्च न करके सीधा इनबाक्स में खोजना शुरु किया। वह जानती थी कि फेसबुक वाल तो सावर्जनिक जगह है, सब कुछ दिखता है, इश्तिहार की तरह। जो भी राज होगा, वह इनबाक्स में होगा। 

और इनबाक्स जैसे अंटा पड़ा था। कई अनजान लड़को और लड़कियों से। जिनमें शुरुआत रोली की तरफ से की गई थी। 

हाय. हैलो के बाद... वह एक सवाल पूछती थी सबसे... व्हेर आर यू फ्राम ?

हैव यू वीन टू अमेरिका, हैव यू सीन इट ?

एक लडडके शोएब से सबसे ज्यादा लंबी चैट थी। बाकी से टुकड़ो टुकड़ो में बातचीत थी। शोएब से पूरी चैट पढते हुए रागिनी समझ गई कि वह शोएब से अपनी परेशानी शेयर करती थी। 

रोली के गायब होने वाले दिन या उससे ठीक पहले का चैट तलाशती हुई रागिनी की आंखें टिठक गईं।

किस रोमांचक  कथा-गाथा की तरह चीजें सामने खुली पड़ी थीं। 

रोली-“व्हाट टू डू, डूड ?”

“यू टेल मी... आए एम विद यू बेबी “

“मैं अपने घर में नहीं रहना चाहती, फीलिंग लोनली डूड ”

“अब क्या हुआ... ?”

“बहुत कुछ हो गया... अब तुम सुनो, जो मैं कहूं, वो करो... मैं कल स्कूल जाऊंगी, पर वापस घर नहीं आउंगी। मैं मोबाइल भी साथ नहीं ले जाऊंगी। मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे खोज ले। मुझे कभी घर वापस नहीं आना।“ 

“कहां जाओगी स्वीटी ?”

“कहीं भी...  तुम कहीं रख देना... कहीं काम दिलवा दो... मैं कहीं भी रह लूंगी... यहां से दूर... घर का माहौल बहुत खराब हो चुका है। मैं अपने छोटे भाई की मां बना दी गई हूं। पापा घर से गायब हैं, मम्मी बंटी को मुझे थमा कर निकल जाती हैं अपने काम पर। देर रात आती हैं। मैं न पढाई कर पाती हूं न कहीं निकल पाती हूं। मैं बंटी की आया बन कर रह गई हूं।“

“हम्म्म्... ये तो अच्छा नहीं हो रहा तेरे साथ” 

“मुझे अपनी जिंदगी जीनी है... यहां से आजाद... वैसे भी मम्मी हमेशा सुनाती रहती हैं... क्या क्या बताऊं... 

“बात क्या है... ये तो बता... कुछ और वजह तो नहीं ?”

शोएब... ”

“हां बोल... ”

“मेरी मम्मी का दोस्त सूरजपाल मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। मैंने मम्मी को बोला... आपको कोई और नहीं मिला था दोस्ती के लिए? आप किसी को भी अपना दोस्त बना लीजिए, इस लंपट को क्यों घर बुलाती हैं ? जब देखो तब ड्रिंक की बोतल लेकर धमक जाता है। उसके साथ कई बार अजीब अजीब लोग होते हैं... वे मुझे घूरते हैं, मुझे घिन्न आती है। मैं बंटी को लेकर कमरे में बंद हो जाती हूं... ”

“तूने मम्मी से बात की ?”

“कहा था... मम्मी ने कहा कि पापा की तरह बाते मत कर... ये लोग मुझे मेरी डिजाइन ड्रेसेज के एक्सपोर्ट इम्पोर्ट में हेल्प करते हैं। कभी कभार यहां आ जाते हैं... कुछ पल मैं भी हंस बोल लेती हूं तो तुझे भी अच्छा नहीं लगता... तू दूर रहा कर... ”

“ओह... वेरी बैड... ”

“चल कल मिलते हैं फिर बात करते हैं... ”

“पर रहेगी कहां, करेगी क्या... ? “ मैं इसी चिंता में हूं... मैं भी तो छोटा हूं... हम तो बच्चे हैं न... पकड़े गए तो जानती है हमारा क्या हाल होगा... मेरे मम्मी पापा भी मुझे मार डालेंगे... मैं तेरी मदद भी करना चाहता हूं... तेरी तकलीफ देखी नहीं जा रही “

“वेट वेट... मैं एक अटैचमेंट भेज रहा हूं... देखो... कल यहां ट्राई करेंगे, उसके बाद कुछ सोचेंगे “

“चल बाय... ”

“सी यू डियर... ”

रागिनी ने अचैटमेंट खोला। ओह... तो मैडम यहां मिलेंगी। हल्की राहत महसूस हुई। उसने शोएब का प्रोफाइल खोला। उम्र 16 साल, मोदी नगर निवासी, स्कूल का कोई जिक्र नहीं। मोबाइल नंबर जरुर चमक रहा था। रागिनी ने अपने मोबाइल में नं. सेव किया और फेसबुक लौगआउट कर दिया। 

रोली के प्रति अथाह स्नेह से भरी हुई रागिनी को सारा माजरा समझ में आ गया था। बहन होते हुए भी हिमानी ने इतनी बड़ी बात हम सबसे छिपाई। असली कारण तो अब समझ में आया। डायरी लिए हुए रागिनी कमरे से बाहर निकली। वहां पहले की तरह ही सब बैठे हुए थे। रागिनी कुछ कहती कि दरवाजे पर किसी ने बेल बजाई। हिमांशु उठ कर खोलने गया। रात के 12 बज गए थे। इतनी रात और कौन होगा। रौशन ही होगा। वही थे। बदहवास से खड़े। रागिनी को डर था कि कहीं दोनों एक दूसरे को देखकर चिल्लाने न लग पड़े। 

हिमांशु की आंखें क्रोध से लाल थीं और वह कुछ बोलना चाह रहा था। रौशन को देखते ही हिमानी दौड़ी, रौशन ने उसे थाम लिया। दोनों का विलाप देर तक कमरे में गूंजता रहा। उन आंसूओं में सारी शिकायतें, सारे विषाद, सारे झगड़े सब बह रहे थे। शब्द जैसे मौन थे। दोनों कुछ बोल नहीं पा रहे थे। रागिनी की आंखें बरस रही थीं। हिमांशु ने अपना चेहरा छिपा लिया था। रागिनी को लगा कि दुख सबको जोड़ता है। 

डायरी की बात सबको पता चल गई। तय किया गया कि सुबह तक का इंतजार करने के बजाए रात को ही खास खास जगहो पर खोजने निकला जाए। दो गाड़ियां निकलीं। रागिनी और हिमांशु एक साथ। हिमानी और रौशन एक गाड़ी में चले। रागिनी चाहती थी इस खोज में पुलिस का साथ ले। लेकिन उसकी लंबी प्रक्रिया से सब घबरा रहे थे। फिर भी रागिनी ने रोली की तस्वीर अल्बम से निकाल ली थी।  जरुरत पड़ने पर पुलिस को दे सकती थी। नोयडा की पुलिस वैसे भी दिल्ली पुलिस की तरह सक्रिय दिखाई नहीं देती। रागिनी के दिमाग में कुछ चल रहा था। शायद वह स्पष्ट थी कि खोज में कहा जाना है। रागिनी ने किसी को कुछ नहीं बताया। अलग अलग कारो में रागिनी और हिमांशु, हिमानी और रोशन बंटी  को लेकर घर से निकले। 

मोबाइल पर लगातार हिमानी रोती जाती और रौशन की आवाज डूबती जाती। हिमांशु का भाषण फिर से चालू था- “सब मां बाप का कसूर है। बच्चों को टाइम नहीं देते। उनके कलह का असर है ये सब. इस उम्र में बच्चे सबसे ज्यादा केयर चाहते हैं। उन्हें तन्हा छोड़ेगे तो यही होगा... ऐसे मां बाप को अपनी इगो ज्यादा प्यारी है... ”

रागिनी ने प्रतिवाद किया... ”भाई, रोली को भी क्या ऐसे करना चाहिए। कोई घर छोड़ कर जाता है भला। वह भी इस तरह। उसने कभी अपने मन की बात अपनी मां को बताई। मुझसे इतनी करीब थी। मुझसे कहती। किसी से भी कहती। घरेलू तनाव में कई बार बच्चे इगनोर हो जाते हैं। इसका ये मतलब तो नहीं कि घर छोड़ दें। घर तो बच्चों का भी होता है न। रोली बड़ी हो रही है, उसे अपने मां बाप की समस्याओं को भी समझना होगा, उसके साथ तालमेल बिठाना होगा। बुरे दिन हमेशा नहीं रहते। अच्छे दिन भी आते हैं। हमें बुरे दिन काटने होते हैं। साथ रह कर। जैसे सुख में साथ रहते हैं तो दुख में कैसे भाग सकते हैं अपने घरवालो को छोड़ कर। वह भी अपनी जान को जोखिम में डाल कर। समय कितना खराब है। कुछ हो जाएगा उसे तो... जिस जिंदगी को वह इतना प्यार करती थी, उसे खतरे में कैसे डाल सकती है वह ... ?”

बातें करते करते दोनों बहुत दूर निकल आए थे। डायरी का अंतिम पन्ना फड़फड़ाया... हल्की लाइट में कुछ अक्षर चमके- “यहां से कुछ दूर... काम की तलाश... ”

“भाई... गाड़ी हापुड़ हाइवे की तरफ ले चल।“ 

“क्यों ?”

“चल तो सही।“ 

“क्या है वहां ?”

‘चल तो... बताती हूं... ’ हिमांशु ने तेजी से गाड़ी बढाई। मोबाइल बज रहा था। 

रागिनी ने कहा- ‘मत उठा, अब रोली के साथ बात करेंगे।‘ 

हापुड़ हाइवे पर एक नया मौल बना था। गाड़ी सीधे वहीं खड़ी की। दोनों उतर कर गेट की तरफ भागे। गार्ड कुर्सी पर बैठा बैठा ऊंघ रहा था।  

गार्ड को जगाया। मोबाइल स्क्रीन पर रोली की फोटो दिखाई। उसने कुछ बहस की, कुछ पूछताछ की। 

जब गाड़ी वहां से मुड़ी तो सबके चेहरे पर हताशा थी। वहां कुछ पता नहीं चला। रागिनी ने शोएब का फोन कई बार मिलाया, हर बार स्वीच औफ आता रहा। रोली के मिलने का कोई ओर छोर नजर नहीं आ रहा था। रागिनी ने ऐलान किया... हम कल सुबह यहां फिर आएंगे। रात खराब करने के कोई फायदा नहीं। उसे इतनी तो तसल्ली थी कि रोली कहीं महफूज है। बस एक बार शोएब का फोन लग जाए या फोन औन हो जाए। पुलिस की सहायता ले तो रात भर में ही खोजना कोई मुश्किल न होता। पर हिमांशु और रौशन दोनों इस हंगामे के लिए तैयार नहीं थे। पुलिस तक मामला जाते ही सारे रिश्तेदारो में बात फैल जाती। रागिनी समझती थी कि इसका असर रोली की जिंदगी पर भी पड़ेगा और एक और खतरा जो उसे सताने लगा था, हल्के हल्के। हिमानी ने सुबकते हुए बोल ही दिया था-“रोली ने ये क्या किया... पूरे फेसबुक पर भागने के लिए उसे ये मुसलमान लड़का ही मिला था... क्या होगा... भगवान जाने... ”

रागिनी जानती थी कि कल तक रोली नहीं मिलती है तो बवाल तय है। उसके जैसी संतुलित स्त्री भी एक पल के लिए कंपकंपा गई। कुछ भी हो, उसे जी जान लगा कर रोली को खोजना ही होगा। आधी रात को मदद के लिए किसे पुकारे। इस रात की सुबह जरुरी थी। 

और रागिनी को जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिलता है वैसे ही सुभाष चौपड़ा की याद आई। ऊंची पहुंच वाला दोस्त। आधी रात को फोन करना उचित नहीं लगा लेकिन मुसीबत में पड़ा इनसान करे तो क्या करे। रागिनी ने फोन मिला दिया। कई बार रिंग जाने के बाद उधर से किसी ने फोन उठा ही लिया। 

लंबी बात हुई। सबने देखा, रागिनी का चेहरा खिल उठा था। जैसे केस सौल्व कर लिया हो। अब सबको सुबह का इंतजार करना था। 

नोएडा के ग्रेट इंडिया मौल के बाहर रोजमर्रा की चहल पहल शुरु हो चुकी थी। 11 बजे मौल खुल जाता है। सुबह सुबह वहां की हवा में सनसनी फैली हुई थी। सुभाष चौपड़ा और रागिनी, बैक साइड एक्जीट गेट के पास खड़े थे। अधछिपे से। मेन गेट के पास हिमानी और रोशन बेचैनी से टहल रहे थे। रात भर की जागी आंखें लाल हो रही थीं। कौलेज-स्कूल के स्टुडेंट आने शुरु हो गए थे। सस्ती टिकट पर सिनेमा देखने का चस्का उन्हें वीक डेज में मल्टीप्लेक्स में ले आता है। सुभाष चोपड़ा की निगाह हर आने जाने वाले पर जमी थी। उन्होंने रोली और शोएब की तस्वीर दिमाग में बिठा ली थी। इनके साथ दो लोग और थे जो लगातार मोबाइल पर कुछ निर्देश ले रहे थे। गेट का गार्ड शायद भरोसे में ले लिया गया था। वह भी इस चहल पहल को ऩजरअंदाज कर अपने काम में जुटा था। अचानक सुभाष चोपड़ा का मोबाइल बजा। रागिनी और सुभाष झपटते हुए अंदर भागे। सिंतबर की हल्की ठंड में चेहरा, माथा ढंके एक दुबली पतली लड़की, एक मंझोले कद के लड़के के साथ चुपचाप कब अंदर दाखिल हो गई थी, किसी ने देखा नहीं था। 

रागिनी ने लड़की को दबोच लिया और सुभाष के साथ के दो लोगो ने उस लड़के को अपनी गिरफ्त में लेकर वहां से दूर चले गए। सबकुछ इतना आनन फानन में हुआ कि आते जाते लोगो को कुछ समझ में नहीं आया। रोली मिल गई थी। शोएब का मोबाइल सुभाष चोपड़ा के कब्जे में था। शोएब का सुबह सुबह मोबाइल औन करना ही उस पर भारी पड़ा था। 

रोली की कलाई भिंचे हुए हिमानी को बस एक ही चिंता खाए जा रही थी आखिर लड़की रात को कहां रह कर आई ? कुछ किया तो नहीं ? रोशन लगातार शोएब को गालियां बकता जा रहा था... ”छोड़ूंगा नहीं साले को... उसके पूरे खानदान को अंदर करवाऊंगा... याद रखेगा कमीना... ।“ 

हिमानी ने रागिनी से कहा... ”पहले डाक्टर के पास चल।“

रोली ने रागिनी मौसी को देखा, वह ड्राइव कर रही थीं। चेहरे पर आंधी तुफान के चिन्ह मौजूद थे और पेशानी पर चिंता की लंबी लकीरें, दूर तक खींची हुई। बदहवास रोली ने मां को देखा, उसे लगा मां की आंखें एक्सरे मशीन में बदल चुकी हैं।
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गीताश्री

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