कहानी - एक और सजा ... डॅा. (सुश्री) शरद सिंह



एम. ए.(प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व) स्वर्ण पदक प्राप्त , एम. ए. (मध्यकालीन भारतीय इतिहास), पीएच. डी. (खजुराहो की मूर्तिकला का सौंदर्यात्मक अध्ययन) शिक्षित, सागर (मध्य प्रदेश) में रहने वाली विदुषी डॅा. (सुश्री) शरद सिंह का जन्म पन्ना में हुआ है.

उनकी प्रकाशित कृतियों मे शामिल है -  Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh डॅा. (सुश्री) शरद सिंह कहानी शब्दांकनउपन्यास - 'पिछले पन्ने की औरतें', कहानी संग्रह- 'बाबा फ़रीद अब नहीं आते', 'तीली-तीली आग', साक्षरता विषयक- दस कहानी संग्रह, मध्य प्रदेश की आदिवासी जनजातियों के जीवन पर दस पुस्तकें, शोध ग्रंथ- खजुराहो की मूर्तिकला के सौंदर्यात्मक तत्व, न्यायालयिक विज्ञान की नयी चुनौतियाँ, महामति प्राणनाथ: एक युगांतरकारी व्यक्तित्व। रेडियो नाटक संग्रह- 'आधी दुनिया पूरी धूप'। दो कविता संग्रह तथा अन्य कृतियाँ।

इसके अलावा उन्होंने कहानियों का पंजाबी, बुंदेली, उर्दू, गुजराती, उड़िया एवं मलयालम भाषाओं में अनुवाद भी करा है, साथ ही रेडियो, टेलीविजन एवं यूनीसेफ के लिए विभिन्न विषयों पर धारावाहिक एवं पटकथा लेखन। शैक्षणिक विषयों पर फ़िल्म हेतु पटकथा लेखन एवं फ़िल्म-संपादन।

उनको मिले पुरस्कार एवं सम्मानों में गृह मंत्रालय भारत सरकार का 'राष्ट्रीय गोवंद वल्लभ पंत पुरस्कार' पुस्तक 'न्यायालयिक विज्ञान की नयी चुनौतियों पर', श्रीमंत सेठ भगवानदास जैन स्मृति पुरस्कार एवं 'दाजी सम्मान' - साहित्य सेवा हेतु, कस्तुरीदेवी चतुर्वेदी स्मृति लोकभाषा सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण तथा 'लीडिंग लेडी ऑफ मध्यप्रदेश' सम्मान आदि शामिल हैं।
मध्य प्रदेश लेखक संघ एवं जिला पुरातत्व संघ की सदस्य डॅा. (सुश्री) शरद सिंह स्वतंत्र लेखन एवं दलित, शोषित स्त्रियों के पक्ष में कार्य से जुड़ी हैं।

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एक और सजा... - डॅा. (सुश्री) शरद सिंह

"हमारा कहानी समय" सुशील सिद्धार्थ के अतिथि संपादन में लमही (अप्रैल-सितम्बर '13) में प्रकाशित कथा
 
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Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकन     ये तुमने अच्छा किया बड़ी ठकुराइन कि फुग्गन को खूंटे से बांध दिया...अब कम से कम छुट्टे सांड़-सा तो नहीं घूमेगा।’ नववधू के रूप में जगतरानी का गृहप्रवेश कराते समय एक ठसकेदार औरत ने जगतरानी की सास से ये बात कही थी।
    ‘छुट्टे सांड़-सा’ जगतरानी चौंकी थी। वैसे उसे कुछ-कुछ भनक तो अपने मायके में विवाह के पूर्व ही लग गई थी कि उसका होने वाला पति फुग्गन सिंह दिलफेंक है।
    ‘अरे, ठाकुरों का बेटा दो-चार जगह मुंह न मारे तो वो ठाकुर का बेटा कैसे हुआ?’ फुग्गन का रिश्ता ले कर आई चाची जी ने अपनी हथेली पर खैनी मलते हुए कहा था,‘खासा बांका-सजीला है। फिलिम का हीरो-सा दिखता है। हमारी जगत और फुग्गन की जोड़ी राम-सीता जैसी खूब जमेगी।
    उस समय किसी को भी इस बात का अंदेशा नहीं था कि फुग्गन राम निकलेगा या रावण।
    विवाह धूम-धाम से हुआ। अपनी हैसियत के अनुसार भरपूर दान-दहेज दिया जगतरानी के पिता ने। विवाह की धूम ऐसी कि चार गाँव तक जगतरानी के विवाह की चर्चा गूंजती रही। किन्तु जगतरानी को ससुराल में क़दम रखते ही पता चल गया था कि उसका पति फुग्गन अव्वल दर्जे का लम्पट इंसान है। मगर विवाह हो जाने के बाद इस जानकारी का कोई महत्व नहीं था। फुग्गन जैसा भी था, उसका पति बन चुका था और जीवन भर उसके साथ निर्वाह करना ही जगतरानी की नियति थी।
    ‘तू तो बड़ी ठंडी-सी है...ज़रा लटके-झटके तो दिखा...चल ये ले...गिलास में डाल कर मुझे पिला।’ फुग्गन ने सुहागरात को ही भविष्य की सारी रूपरेखा दिखा दी थी जगतरानी को।
    ‘मैं ठकुराइन हूं...ये सब करना है तो कहीं और जाओ!’ भड़क कर कहा था जगतरानी ने। वह भी दबने को तैयार नहीं हुई। यद्यपि उसे लगा था कि उसका पति इस पलट उत्तर पर उसे मारेगा-पीटेगा। लेकिन हुआ इसके उलट। फुग्गन डर गया। उसे लगा कि यदि जगतरानी ने उसकी बात सबको बता दी तो अम्मा और पिताजी तो डांटेंगे ही, बड़े दाऊ तो शायद गोली से ही उड़ा दें।
    ‘मैं तो मज़ाक कर रहा था....आप तो बुरा मान गईं।’ ‘तुम’ से ‘आप’ पर आते हुए फुग्गन ने जगतरानी के आगे हथियार डाल दिए। लेकिन उसी रात यह भी सिद्ध हो गया कि फुग्गन और जगतरानी का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहेगा।
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Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकन     समय व्यतीत होने के साथ जगतरानी दो बेटों की माँ बनी लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि उसने दाम्पत्य सुख पाया हो। एक कत्र्तव्य की भांति वह संबंध को निभाती रही और फुगग्न भी। अन्तर था तो बस इतना कि जगतरानी के पास फुग्गन का और कोई विकल्प नहीं था जबकि फुग्गन के पास जगतरानी के विकल्प ही विकल्प थे। पैसेवाले पुरुषों के लिए विकल्प के सभी रास्ते खुले रहते हैं। फुग्गन इस सच्चाई को जानता था इसीलिए उसे जगतरानी को घर और कुल-खानदान की शोभा बनाए रखने में कोई कठिनाई महसूस नहीं होती थी। उसे जिस तरह की शारीरिक भूख थी, उसके लिए पैसा फेंक-तमाशा देख वाला मंत्र उसे आता था। विवाह के पहले से ही वह तो इस रास्ते पर चल रहा था। विवाह के बाद तो और भी कोई कठिनाई नहीं थी क्योंकि अम्मा, पिताजी और बड़े दाऊ को ठाकुर कुल की बहू और खानदान का नाम आगे बढ़ाने वाले पोते मिल गए थे। ऊपर से देखने में फुग्गन सिंह का परिवार सबसे सुखी परिवार था। धन, धान्य, संतान आदि सभी कुछ तो था।
    भीतर की सच्चाई कुछ और थी। फुग्गन सिंह के परिवार में सबसे दुखी और असंतुष्ट कोई थी तो जगतरानी। कहने को घर की छोटी मालकिन किन्तु दो बेटों के पैदा होने के बाद से फुग्गन सिंह ने उसे हाथ लगाना भी छोड़ दिया था। बाहर से भर पेट खा कर आने वाले को घर का भोजन भला कहां रुचता?
    जगतरानी सारे व्रत, उपवास रखती। वट-सावित्री और करवाचैथ का निर्जला व्रत भी रखती।
    ‘देखना अगले सात जनम भी फुग्गन ही तुझे पति के रूप में मिलेगा!’ जगतरानी की सास गद्गद् हो कर कहती।
    सात जनम ! हुंह! जगतरानी का वश चलता तो उल्टे सात फेरे लेकर फुग्गन के वैवाहिक बंधन से आजाद हो जाती। मगर सब कुछ सोचने से थोड़े ही मिल जाता है? वह जानती थी कि अगले सात जन्म में फुग्गन मिले या न मिले किन्तु इस जन्म में तो उसी के साथ निभाना पड़ेगा।
    फुग्गन सिंह के किस्से जगतरानी के कानों तक जा ही पहुंचते। कल तक फलां से उसके संबंध बने हुए थे और आजकल फलां से संबंध चल रहे हैं। जगतरानी को पता रहता था कि फुग्गन सिंह देर रात तक कहां-कहां मुंह मारते रहते हैं। फिर भी वह अनभिज्ञ होने का नाटक करती। मुंहलगी नौकरानी और अधिक कृपा पाने की लालच में फुग्गन की जासूसी करती और जगतरानी को बताती रहती। जगतरानी यूं तो ध्यान से सुनती किन्तु प्रत्यक्षतः यही जताती कि उसे ऐसी किसी जानकारी में तनिक भी रुचि नहीं है। नौकारानी भी जानती थी कि मालकिन को रुचि है लेकिन अरुचि होने का दिखावा करती है। यह सूचना का एक ऐसा आदान-प्रदान था जो पूरी उत्सुकता के साथ लिया-दिया जाता किन्तु निस्पृह होने का नाटक करते हुए।
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    सब कुछ हमेशा की तरह चल रहा था कि उस दिन नौकरानी बदहवास-सी भागी आई और हांफती हुई बोली, ‘छोटी ठकुराइन! ग़ज़ब हो गओ! .....रामधई ग़ज़ब हो गओ, छोटी ठकुराइन!’
    ‘क्या हुआ कुसुमा?’ जगतरानी चैंकी थी। इससे पहले उसने अपनी मुंहलगी नौकरानी कुसुमा को इस तरह बदहवास नहीं देखा था। जगतरानी का मन घबरा उठा।
    ‘ठीक नई भओ...छोटी ठकुराइन...ठीक नई भओ....’ कुसुमा हिचकियां लेने लगी। उसका गला रुंधने लगा। वह नाटक कर रही थी या सचमुच रो पड़ी थी, कहना कठिन था।
    ‘कुछ बोल भी, क्या हुआ?’ जगतरानी खीझ उठी थी। उसी समय उसकी सास दहाड़े मार कर रोती हुई उसके कमरे में आई।
    ‘तेरे तो भाग फूट गए, बिन्ना!’ सास ने प्रलाप करते हुए कहा। तब तक घर की और औरतें भी जगतरानी के कमरे में इकट्ठी होने लगीं। जगतरानी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है? क्या बड़े ठाकुर लुढ़क गए? नहीं, ऐसा होता तो अम्मा जी मेरे भाग फूटने की बात क्यों कहतीं?
    ‘हमाए मोड़ा को जीने खाओ है हम ऊकी जान ले लेबी!’ अम्मा अपने माथे पर हाथ मारती हुई फर्श पर बैठ गईं। तब जगतरानी को समझ में आया कि बड़े ठाकुर को नहीं बल्कि उसके पति फुग्गन को कुछ हो गया है।
    ‘क्या हुआ उन्हें?....अम्मा! क्या हुआ उन्हें...?’ जगतरानी हड़बड़ा कर पूछने लगी। उसका गला सूख गया। घबराहट के मारे माथे पर पसीना चुहचुहा गया। उसका रक्तचाप गड़बड़ाने लगा।
    ‘तुमाओ सुहाग नहीं रहो बिन्ना!’ अम्मा विलाप करती हुई बोलीं।
    यह सुन कर जगतरानी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। क्या ऐसा भी हो सकता है? अभी पांच-छः घंटे पहले तक तो फुग्गन सिंह घर पर थे और अब...अब इस दुनिया में नहीं हैं? ये कैसे हो सकता है?
    यह एक ऐसा सच था जिसे स्वीकार कर पाने में जगतरानी को कई घंटे लगे।
    पता चला कि गांव के ही किसी आदमी ने उसे कुल्हाड़ी मार दी जिससे घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई। फुग्गन को मारने के बाद वह आदमी खुद ही थाने में पहुंचा और उसने बताया कि वह फुग्गन सिंह को घायल कर के आ रहा है। शायद उसे तब तक पता नहीं था कि उसके एक वार ने फुग्गन सिंह का जीवन समाप्त कर दिया है। उस आदमी ने फुग्गन को क्यों मारा? जगतरानी जानना चाहती थी। उसे यही बताया गया कि जिस आदमी ने फुग्गन सिंह को मारा है उसका नाम कीरत है। कीरत ने फुग्गन से कर्ज लिया था। जब फुग्गन ने कर्ज की रकम वापस मांगी तो कीरत देने से मुकर गया। फुग्गन ने पैसे वसूल लेने की धमकी दी तो तैश में आ कर कीरत ने फुग्गन के सिर पर कुल्हाड़ी दे मारी।
    यही पुलिस डायरी में लिखा गया। यही कीरत ने स्वीकार किया और आजन्म कारावास की सज़ा का भागीदार बना। लेकिन यह कहानी जगतरानी को हजम नहीं हुई। उसे लगता था कि मामला सिर्फ़ पैसे का नहीं हो सकता है। उसका मन कहता था कि इस पूरे मामले में किसी औरत की उपस्थिति अवश्य होगी। वह जानती थी कि फुग्गन सिंह सूदखोर से कहीं अधिक औरतखोर था।
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    ‘कुसुमा!’
    ‘जी छोटी ठकुराइन!’
    ‘तुम्हारे छोटे ठाकुर क्यों मारे गए?’ उसने एक दिन कुसुमा से पूछ ही लिया। वह जानती थी कि कुसुमा को सच पता होगा।
    ‘वो रकम की लेन-देन....’
    ‘सच बताओ कुसुमा...ये झूठा किस्सा मुझे नहीं सुनना है।’ जगतरानी ने स्पष्ट शब्दों में कहा।
    ‘....’
    ‘बोलो!’
    ‘ठकुराइन अगर किसी को पता चल गया कि मैंने आपको बताया तो....’
    ‘तुम कहना क्या चाहती हो?’ जगतरानी की भृकुटी तन गई। कल तक जो कुसुमा उसके पति के किस्से उसे जानबूझ कर सुनाया करती थी, वही कुसुमा आज डरने का नाटक कर रही है? यानी सचमुच मामला कुछ और है।
    ‘देखो कुसुमा, सच्चाई तो मुझे पता चल ही जाएगी लेकिन तुम मुझे बताओगी तो मैं समझ जाऊंगी कि तुम आज भी मेरी वफ़ादार हो।’ जगतरानी ने जानबूझ कर रूखे ढंग से कहा।
    ‘आप नाराज़ मत हो छोटी ठकुराइन! मैं बताती हूं।’ कुसुमा ने वह सारी घटना कह सुनाई जो उसने सुखबाई से खोद-खोद कर जान ली थी।
    स्तब्ध रह गई जगतरानी। कोई पति अपनी पत्नी की इज्जत के लिए इस हद तक जा सकता है? वह भी एक ग़रीब पति? कहावत तो ये है कि ग़रीब की लुगाई, सबकी भौजाई.....कीरत ने अपनी पत्नी के लिए एक रसूखवाले की जान ले ली! क्या सचमुच यही हुआ है?
    जगतरानी को फुग्गन सिंह के रूप में जो पति मिला था उसकी तुलना में कीरत का चरित्र जगतरानी को कपोल कल्पित किस्से जैसा लगा। वह कीरत से मिलने को, उसे देखने को उत्सुक हो उठी। भले ही उसे पता था कि कीरत से मिल पाना किसी भी तरह संभव नहीं है। एक तो वह आजन्म कारावास भुगत रहा है और दूसरा वह उसके पति का हत्यारा है।
    सुखबाई कैसी दिखती है? बहुत सुन्दर होगी। तभी तो फुग्गन सिंह ने उसकी अस्मत पर डाका डालने की कोशिश की और उसका पति भी उस पर जान छिड़कता होगा। तभी तो वह फुग्गन की बदनीयती को सहन नहीं कर सका।
    कैसे मिले वह सुखबाई से? जगतरानी सुखबाई की एक झलक पाने को उत्सुक हो उठी। कुसुमा से कहे? मगर वह क्या सोचेगी? कुसुमा को कहीं यह न लगे कि मैं अपने पति के मरने पर खुश हूं। नहीं मैं इस मामले में कुसुमा की मदद नहीं ले सकती हूं। ईश्वर ने चाहा तो एक न एक दिन सुखबाई और कीरत दोनों को देख लूंगी। जगतरानी ने अपने आपको समझाया और सब कुछ समय पर छोड़ दिया।
    दूसरी ओर सुखबाई अपने ही दुख में डूबती-उतराती जीवन की धारा में बही जा रही थी।
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    पल भर में समय किस तरह मुंह फेरता है, यह सुखबाई से बेहतर भला कौन समझ सकता है ? लगने को तो यूं लगता है मानो कल की ही बात हो, मगर गिनती करने बैठो तो पूरे बारह बरस गुज़र चुके हैं तब से अब तक। कीरत को लगता है कि सुखबाई सब कुछ भूल गई है। वह क्या जाने की कि सुखबाई को उस मनहूस घड़ी का एक-एक क्षण अच्छी तरह से याद है । वह तो बारह बरस की एक-एक घड़ी को भी नहीं भूली है । कैसे हुलस के सोचा करती थी वो कि जिस दिन कीरत घर लौट कर आएगा उस दिन वो देवी मैया के मंदिर में जा कर प्रसाद चढ़ाएगी। कीरत के मन का खाना पकाएगी और अपने हाथों से उसे खिलाएगी। कीरत से विछोह के पूरे बारह बरस वह बारह पलों में मिटा देगी। वे दिन एक बार फिर लौट आएंगे जो मूरत, सूरत और दोनों बेटियों के पैदा होने के समय से भी पहले थे।
    सुखबाई को पहला झटका उस दिन लगा था, जिस दिन कीरत पहली बार जेल से घर आया था । दद्दा के क्रिया-कर्म के लिए कीरत को पेरोल पर छोड़ गया था।
    ‘दद्दा, कहाँ चले गए तुम! हाय रे !’ कीरत का यह बिलखना सुन कर सुखबाई को याद आया था कि उसने भी इसी तरह विलापा था, मन ही मन सही कि ‘हाय दद्दा! तुम उस दिन यहाँ क्यों नहीं थे!’
    काश ! उस दिन दद्दा रिश्तेदारी में दूसरे गांव न गए होते तो शायद वो अनहोनी होने से बच गई रहती। सुखबाई तो दद्दा की अनुपस्थिति के बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर पाई थी लेकिन खूब कोसा था दद्दा ने, सुखबाई को। सुखबाई की ननद ने तो सुखबाई को ‘डायन’ तक की उपाधि दे डाली थी, जो उसके भाई को खा गई थी। सबने अपने-अपने ढंग से अपने मन की भड़ास निकाली थी लेकिन उस समय किसी ने भी ये नहीं सोचा कि अब सुखबाई का जीवन कैसे कटेगा? एक तो चार बच्चों की जिम्मेदारी और उस पर भरी जवानी। यह जवानी ही तो उसकी दुश्मन बन गई थी।

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Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकन   जिस दिन फुग्गन ने उसे पहली बार बिना घूंघट के देखा था, बस तभी से उसकी लार टपकने लगी थी। औरत को मर्द की नीयत पहचानते देर नहीं लगती है, यह बात और है कि किसी मजबूरी के चलते वह सब कुछ अनदेखा कर दे। सुखबाई ने भी पहले-पहल अनदेखा ही किया। कीरत ने उसे बताया था कि फुग्गन रसूख वाला व्यक्ति है और जब-तब कीरत की मदद कर दिया करता है, पैसों के मामले में भी और धाक जमाने के मामले में भी। सुखबाई नहीं चाहती थी कि उसकी वज़ह से कीरत और फुग्गन के बीच कोई खाई पड़े। सुखबाई की इस सोच को स्वीकृति समझ कर फुग्गन ने अपनी क्रियाशीलता बढ़ा दी। वह हर दूसरे-तीसरे दिन घर आने लगा । कभी एक गिलास पानी का बहाना तो कभी चाय का बहाना, तो कभी नन्हीं भारती को उसकी गोद से अपनी गोद में लेने का बहाना, बस, वह सुखबाई को छूने का कोई न कोई बहाना खोज निकालता। सुखबाई को बड़ी घबराहट होती। अवसर मिलते ही फुग्गन छिछोरे हंसी-माज़ाक करने से नहीं चूकता। कहने को रिश्ता देवर-भाभी का बना रखा था उसने। इस रिश्ते की आड़ में अपने सौ गुनाह तो उसने माफ़ करवा ही लिए थे। बस, एक सौ एकवें की देर थी।
    टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन एक सौ एकवां गुनाह कर ही बैठा और उसके सिर फोड़ने की नौबत आ खड़ी हुई। हुआ ये कि कीरत की अनुपस्थिति में फुग्गन घर आ टपका ।
    ‘सुनो जी, मुझे ये फुग्गन के रंग-ढंग कुछ ठीक नहीं लगते हैं।’ आखिरकार एक दिन सुखबाई ने कीरत से कह ही दिया। उसे लगा कि अगर वह कीरत से नहीं कहेगी तो फुग्गन का हौसला तो बढ़ेगा ही, कीरत भी किसी दिन उसे ही दोषी ठहराएगा। मर्द की ज़ात औरत में पहले दोष देखती है, मर्द में बाद में।
    ‘हूं, लगता तो मुझे भी है! सुनो, तुम उसके सामने न आया करो, चाय-पानी ले कर भी नहीं! मुझे आवाज़ दे दिया करो, मैं रसोई में आ कर ले लिया करुंगा!’ सोच-विचार कर कीरत ने रास्ता सुझाया ।
Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकन     ‘उसका घर पे आना नहीं रोक सकते? मना कर दो न उसको !’ सुखबाई बोली ।
    ‘बुरा मान जाएगा वो। रसूखवालों का बैर और प्यार दोनों बराबर होते हैं, गले मिलो तो चाटेंगे, और झगड़ा करो तो बोटियाँ काटेंगे ! ऐसे ही चलने दो अभी तो, फिर देखते हैं कि आगे क्या होता है.... तुम सामने नहीं पड़ोगी तो चार दिन में ही किसी और दरवाज़े में झांकने लगेगा वो ।’
    कीरत की बात सुखबाई को समझ में आ गई, और यह भी कि फुग्गन से आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं है।
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    सुखबाई को अपने साथ-साथ अपनी दोनों बेटियों के लिए भी डर सताने लगा। भारती, यद्यपि गोद में थी और आरती घुटनों के बल रेंगती थी, मगर पापी फुग्गन का क्या भरोसा? एक बार उसके मायके के गाँव में एक साधू आया था, दो माह उस गाँव में रहा था, मगर उस दौरान उसने तीन-चार बरस की तीन-तीन बच्चियों की जि़न्दगी बरबाद कर डाली थी। वो तो गनीमत है कि उसका भेद खुल गया और गाँव वालों ने उसे मार-मार कर अधमरा कर डाला, नहीं तो और पता नहीं कितनी बच्चियों की जि़न्दगी बरबाद करता । पुलिसवालों ने भी उस अधमरे साधू को खूब जुतियाया था मगर उससे उन बच्चियों का जीवन पहले जैसा तो नहीं हो सकता था। वे अपने माथे पर एक दाग़ ले कर बड़ी होंगी, फिर कौन करेगा उनसे शादी, कैसे बसेगा उनका घर ?
    सुखबाई ने फुग्गन के सामने निकलना बंद कर दिया। फुग्गन के आने की आहट पा कर वो घर में ऐसे दुबक जाती जैसे बाज़ के डर से गौरैया दुबक जाती है। फुग्गन से भी यह परिवर्तन छिपा नहीं रह सका ।
    ‘का बात है, भौजी आजकल दिखती नहीं हैं! नाराज़ हैं का हमसे? कौनऊ गुस्ताख़ी हो गई है का हमसे?’ फुग्गन निर्लज्ज की भांति कीरत से पूछने लगता ।
    ‘अरे नहीं, ऐसे ही कुछ काम में लगी है !’ कीरत टालते हुए उत्तर देता, और फिर ऊंचे स्वर में सुखबाई को आवाज़ देता, ‘देखो, तुम्हारे देवर आए हैं, चाय बन जाए तो पुकार लइयो, तब तक मूरत से पानी तो भेजवा देओ !’
    यही सिलसिला चलता रहा, जब तक कि फुग्गन ने कीरत की पीठ पीछे घर में पांव नहीं रखा । वह दिन, वह घड़ी सुखबाई कभी भूल नहीं सकी। दद्दा रिश्तेदारी में गए हुए थे, मूरत और सूरत बाहर खेल रहे थे, आरती खाट पर और मालती झूले में सो रही थी, कीरत भी घर पर नहीं था । उस दिन फुग्गन ने दरवाज़े की कुण्डी भी नहीं खटकाई, उसे पता था कि कीरत घर पर नहीं है । लगभग सूने घर में अकेली सुखबाई, फुग्गन के लिए इससे अच्छा अवसर और भला क्या हो सकता था ? सुखबाई को आहट तो मिली थी, मगर कुण्डी खटकाने की आवाज़ के अभाव में उसने समझा कि बच्चे होंगे। जब तक सुखबाई कुछ समझ पाती, तब तक फुग्गन ने पीछे से उसे दबोच लिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण से हड़बड़ा कर सुखबाई ऐसी छटपटाई कि पहली पकड़ के बाद ही फुग्गन के बंधन से छूट खड़ी हुई। फुग्गन ने फिर प्रयास किया । सुखबाई बिल्ली के पंजे के समान अपनी उंगलियों से फुग्गन पर प्रहार करने लगी । कुछ देर की छीना-झपटी के बाद सुखबाई को समझ में आ गया कि फुग्गन उस पर भारी है, सुखबाई ने चींखना-चिल्लना शुरू कर दिया । जाने उसकी चींख में दम नहीं थी या घर के आस-पास कोई था ही नहीं, उसकी चींख सुन कल कोई नहीं आया। यद्यपि, फुग्गन डर गया कि कहीं कोई आ न जाए, वह भाग खड़ा हुआ।
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    फुग्गन के जाते ही सुखबाई धम्म से वहीं ज़मीन पर गई । अस्मत तो उसने बचा ली थी मगर अब साहस जवाब दे गया था। फटे कपड़ों में, अपने घुटनों में सिर दिए, बैठी-बैठी वह आंसू बहाती रही। दद्दा से पहले कीरत आया, काश ! दद्दा पहले आए होते । कीरत ने सुखबाई की दशा देखी तो वह सकते में आ गया, क्या हुआ ? ये रो क्यों रही है ? कहीं दद्दा को तो कुछ नहीं हो गया ?
    ‘क्या हुआ सुक्खू ? तू रो क्यों रही है ? बता न क्या हुआ ?’ कीरत ने घबरा कर सुखबाई को कंधे से पकड़ कर झकझोर दिया, तभी उसे अहसास हुआ कि सुखबाई के कपड़े फटे हुए हैं ।
    ‘कौन आया था ?’ दूसरा प्रश्न यही था कीरत का ।
 
    कीरत को जेल की सज़ा होने के बाद कई रातें सुखबाई ने रो-रो रल काटीं । उसके आगे की कई रातें करवट बदल-बदल कर काटीं । उसका कोमल मन इस बात को ले कर और अधिक द्रवित हो उठता कि जेल में कीरत की रातें कितनी कठिनाई से कट रही होंगी । कभी-कभी सुखबाई को स्वयं पल क्रोध आता कि वह उस दिन अपने-आप पर नियंत्रण रख पाई होती तो कीरत को जेल न जाना पड़ता । सचमुच ये सब उसी के कारण तो हुआ, सुखबाई का मन टीसता रहता । सुखबाई की उस दिन बड़ी विचित्र मनोदशा थी जिस दिन कीरत को पहली बार पेरोल पर घर आना था। चचिया देवर कीरत को लेने गया था । आंगन में दद्दा का शव रखा हुआ था । नाते-रिश्तेदार जुड़ गए थे । सभी को कीरत की प्रतीक्षा थी । दद्दा की चिता को आग, कीरत को ही देनी थी । पूरे घर में रोना-पीटना मचा हुआ था । सुखबाई की ननद खबर पाते ही अपनी ससुराल से दौड़ी चली आई थी । नंदेऊ भी साथ आया था, और बड़ा लड़का भी । ननद बुक्का फाड़ कर और छाती पीट-पीट कल रो रही थी । माना कि बाप के मरने का दुख बेटी को होना ही था, मगर उसके रोने में दुख कम और प्रदर्शन अधिक था । वह ऐसे संवेदनशील समय में भी सुखबाई को कोसना नहीं भूली । उसने गरियाते हुए कहा था, ‘जे ससुरी हमाई भौजी नई, डायन है, डायन! पैले भैया को जेल भेजवा दओ, औ अब दद्दा को खा गई । अब जुड़ा गई छाती ? अब मिरहे छुट्टा ऐश करबे के लाने .....’
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    क्या कहती सुखबाई ? खून का घूंट पी कर रह गई थी । जी में तो आया कि साफ -साफ कह दे कि उसने नहीं कहा था कीरत को कि वो फुग्गन का सिर फोड़ दे, उसकी जान ले ले । लेकिन सुखबाई जानती थी कि कोई लाभ नहीं है मुंह खोलने से। सब उसे ही कोसेंगे, जलील करेंगे । जब से कीरत जेल गया था तब से उसे धिक्कार और प्रताड़ना के अलावा मिला ही क्या था । गाँव, रिश्तेदारी में सब उसे हत्यारे की बीवी कहते हैं, कभी प्रत्यक्ष में तो कभी परोक्ष में । वह मूंड़ औंधाए जि़न्दगी काट रही है, और करे भी तो क्या?
    कीरत ने घर में पांव रखा तो सुखबाई का कलेजा मुंह को आ गया । पहले से आधा शरीर रह गया था कीरत का । चेहरे पर दाढ़ी बढ़ी हुई थी जिसके कारण उसे देख कर ऐसा लग रहा था मानो वह जेल से नहीं बल्कि किसी लम्बी बीमारी के बाद अस्पताल से छूट कर आ रहा हो । घर का माहौल ऐसा था कि सुखबाई और कीरत की आपस में नज़र भी न मिल पाई । कीरत ने जैसे ही दद्दा के शव को देखा तो बिलखता हुआ शव से लिपट गया ।
    ‘दद्दा, कहां चले गए तुम, हाय रे !’ विलाप कर उठा था कीरत ।
    सुखबाई से कीरत का बिलखना देखा नहीं गया । उसने कीरत को कभी रोते हुए भी नहीं देखा था। कीरत का विलाप सुन कर सुखबाई को चक्कर आ गया और वह गश खा कल गिर गई । जब उसे होश आया तो उसने खुद को औरतों के बीच एक कमरे में पाया । होश आते ही उसके मन में जो पहली बात कौंधी वह थी कि कीरत कहां गया ? वह हड़बड़ा कर उठी और आंगन की और लपकी । एक औरत ने उसे थाम लिया और धीरज बंधाने लगी ।
    ‘दद्दा कहां गए?’ उसने कीरत को न पूछ कर दद्दा के बारे में पूछा । यह उसका सहज संकोच था, कोई सोचा-समझा प्रश्न नहीं था ।
    ‘ठठरी उठ गई, बिन्ना ! अब दद्दा कभऊं न आहें !’ एक बूढ़ी औरत ने कहा । दद्दा की अर्थी ले जाई जा चुकी थी । कीरत भी साथ में चला गया था । आग भी तो उसी को देना था, वह भला कैसे रुकता?
    कीरत को पेरोल पर तीन दिन के लिए छोड़ा गया था। दद्दा की तेरहवीं के लिए आ पाएगा या नहीं , यह निश्चित नहीं था । सुखबाई के मन में बस एक ही चाह कुलबुला रही थी कि कम से कम दो पल के लिए ही सही कीरत उसके पास आ जाए । वह कीरत को जी भर कर देख ले। मगर उसे भय था कि उसकी ये चाह पूरी नहीं हो पाएगी । ग़मी वाला घर था। रिश्तेदारों की भरमार थी। शोक का वातावरण था। कीरत को ढाढस बंधाने वालों का तांता लगा हुआ था। वैसे सच्चाई तो ये थी कि ढाढस बंधाने से कहीं अधिक उत्सुकता थी कीरत के रूप में सज़ा काट रहे हत्यारे को निकट से देखने की।
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    रात को सुखबाई अपने कमरे में आ गई थी । बच्चे सो चुके थे । सुखबाई ठंडी दीवार से पीठ सटा कर ,घुटने पर सिर रख कर बैठ गई थी । उसके मन में कीरत का चेहरा उमड़-घुमड़ रहा था । बैठे-बैठे, सोचते-सोचते जाने कब नींद लग गई । जब किसी ने अपने मज़बूत पंजे में उसकी बांह दबोची तब वह अचकचा कर जाग गई । सामने कीरत था । अपने सामने कीरत को पा कर उसे खुश होना चाहिए था किन्तु पहली बार उसके मन में सिहरन दौड़ गई । उसे लगा मानो उसके सामने कीरत न हो बल्कि कोई अपरिचित चेहरा हो, मर चुके फुग्गन का या फिर उसे मारने वारे हत्यारे कीरत का । उस क्षण पहली बार सुखबाई के मस्तिष्क में यह विचार आया था कि कीरत एक इंसान की हत्या कर चुका है । वह हत्यारा है । वह किसी की भी हत्या कर सकता है । इससे आगे उसे सोचने का समय ही नहीं मिल था । कीरत ने उसे सोचने का अवसर ही नहीं दिया । फिर भी सुखबाई उसे समय वहां हो कर भी नहीं थी । उसके मानस पटल पर वे दृश्य घूमने लगे थे जो कीरत के कालावास के लिए उत्तरदायी थे।
    ग़रीबी थी मगर वह समय ऐसा बुला नहीं था। बुरा समय शायद वहीं से शुरू हुआ जब से कीरत और फुग्गन में दोस्ती आरम्भ हुई। सुखबाई की हालत देख कर कीरत आपे से बाहर हो गया और उसी समय चल पड़ा फुग्गन को खोजने। सुखबाई ने उसे रोकने का प्रयास किया था लेकिन वह प्रयास आग में घी का काम कल गया ।
    सुखबाई को बाद में खुद कीरत ने बताया था कि जब वह फुग्गन को ढूंढते पहुंचा तो फुग्गन अपने एक लंगोटिया के यहां बैठ कर दारूखोरी कल रहा था। कीरत ने फुग्गन को देखा तो उसका खून खौल उठा । उसने आव देखा न ताव और पास में पड़ी कुल्हाड़ी उठा कल फुग्गन के सिर पर दे मारी । उस क्षण उसने सोचा भी नहीं था कि उसके हाथों एक हत्या होने जा रही है । उसने तो यह भी नहीं देखा था कि कुल्हाड़ी की धार किधर है। संयोगवश कुल्हाड़ी उल्टी थी मगर उल्टी कुल्हाड़ी का वार पड़ते ही फुग्गन धराशयी हो गया । उसने तत्काल दम तोड़ दिया । यद्यपि, कीरत को बहुत देर बाद थाने में पता चला था कि फुग्गन ने उसी समय दम तोड़ दिया था। सुखबाई को इस घटना का पता उस समय चल जब गाँव का ही एक आदमी दौड़ा-दौड़ा आया और उसने हांफते-हांफते बताया कि कीरत पुलिस चौंकी में है क्योंकि उसने फुग्गन को मार डाला है। यह सुन कर सिहर गई थी सुखबाई। हे भगवान! ये क्या कर डाला कीरत ने! वह एक बार फिर थरथर कांपने लगी थी ।
    कीरत का मुकद्दमा बना उधार के लेन-देन के कारण हुई हत्या का। फुग्गन के परिवार वालों के वकील ने कहा कि कीरत ने फुग्गन ने बड़ी रकम उधार ली थी। जब फुग्गन ने वह रकम वापस मांगी तो कीरत ने उसकी हत्या कर दी । फुग्गन के रिश्तेदार नहीं चाहते थे कि फुग्गन की मौत के बाद उसकी बदचलनी खुलेआम चर्चा का विषय बने, इससे उनकी साहूकारी-साख को धक्का लगता। कीरत ने भी सुखबाई वाले मामले को दबा रहने दिया। आखिर जोरू की इज्जत घर की इज्जत होती है। लोग तो यही मान बैठेंगे कि सुखबाई अपनी इज्जत नहीं बचा पाई । इससे बेटे-बेटियों का भविष्य भी चौपट हो जाएगा । न कोई बहू देगा और न कोई बेटी लेगा । कीरत ने अदालत में सज़ा सुनाए जाने से पहले ज़ेल में सुखबाई को समझाया था कि फुग्गन ने तुम्हारे साथ क्या किया, इस पर पर्दा पड़े रहने देना । मन न होते हुए भी सुखबाई ने कीरत की बात मान ली थी और अपना मुंह बंद रखा था । फिर भी उंगली उठाने वालों की कहीं कोई कमी होती है भला ? लोगों ने यहां तक कह डाला कि कीरत ने कर्ज न चुकाना पड़े इसके लिए फुग्गन से सुखबाई का सौदा भी करना चाहा था मगर फुग्गन न माना और बात बिगड़ गई ।
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    सुखबाई सब कुछ चुपचाप झेलती-सहती रही । इसके अलवा उसके पास और कोई चारा भी न था । कीरत के जेल चले जाने से दद्दा टूट गए । वे बीमार रहने लगे। दद्दा ने सुखबाई से बोलना बंद कर दिया था । जो भी बात कहनी होती वे बच्चों के माध्यम से कहते । दद्दा भी सुखबाई को उस अपराध की सज़ा दे रहे थे जो उसने किया ही नहीं था। मगर दद्दा की दृष्टि में सुखबाई का औरत होना ही सबसे बड़ा अपराध था। किसी मेल-मुलाकात करने वाले के घर आने पर वे सुखबाई को सुना-सुना कर कहते, ‘मरद के लिए जोरू सबसे बड़ी अभिशाप होती है, जोरू न होए तो मरद को कोई कष्ट न होए...जोरू खुद तो हरियाती है पर मरद को सुखा-सुखा कर ठूंठ कर देती है.... ।’
    दद्दा की जले-कटे उद्गार सुन कर सुखबाई का जी करता कि वह भी तमक कर पूछे कि तुम्हारी जोरू न होती तो कीरत कहां से पैदा होता? और, जो मैं न होती तो तुम्हारे वंश का नामलेवा कहां से आता ? मगर वह चुप रहती, यह सोच कर कि इस बूढ़े बाप ने जवान बेटे को जि़न्दगी भर के लिए जेल जाते देखा है, कहीं, किसी पर तो भड़ास निकालेगा ही। फिर भी, इस तनाव भले वातारण में सुखबाई के भीतर की औरत तिल-तिल कल के मल रही थी, भावनाओं के स्रोत सूखते जा रहे थे और जीवन बस, जीने के लिए जीना पड़ रहा था ।
    यही गनीमत थी कि सुखबाई के एक भाई ने उसका साथ दिया और बीच -बीच में आ कर देख-भाल करने लगा । इसलिए स्थिति दयनीय होने से बच गई । धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया और बच्चे बड़े होते गए। लेकिन जेल से पहले पेरोल पर घर आए कीरत की छवि सुखबाई को इतनी अपरिचित लगी कि उसका मन तय ही नहीं कर पाया कि वह किस तरह अपना पत्नीधर्म निभाए । कीरत झुंझला उठा था उसकी उत्साहहीनता पर। जबकि सुखबाई ये सोच कर हतप्रभ थी कि शाम को दद्दा की चिता फूंक कर आए कीरत का मन कैसे हो रहा है कुछ भी करने का ? माना कि कीरत को दो दिन बाद वापस जेल लौट जाना था मगर शाम को ही तो दद्दा की... ।
    वे कुल तीन रातें बड़े कष्ट से बीती थीं । कुछ भी तो अच्छा नहीं लग रहा था सुखबाई को । शरीर भी साथ नहीं दे रहा था, सब कुछ पत्थर हो चुका था । सारा उत्साह, सारी ललक और उत्तेजना चूल्हे की उस राख की तरह ठंडी पड़ चुकी थी जिसमें अंगारे का एक नन्हा-सा टुकड़ा भी शेष न बचा हो, एकदम ठंडी राख ।
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    यही हाल रहा, जब-जब कीरत परोल पर घर आया। मूरत के विवाह के समय कीरत ने अवसर पाते ही सुखबाई को ढेर सारा उलाहना दे डाला था।
    ‘मेरे जेल जाते ही मेरी तरफ से मन फेर लिया न, सुक्खू ! तुम औरतजात ऐसी ही होती हो, तुम्हें तो रोज-रोज मिलने वाल मरद चाहिए, है न !’ कीरत ने जले-भुने स्वर में कहा था।
    ‘राम-राम! कैसी बातें करते हो, लाज नहीं आती ? जब से तुम जेल में जा के बैठे, मेरा तो मन ही मर गया है। अब तो जी ही नहीं करता है।’ अकुला कर बोली थी सुखबाई।
    ‘मुझे देख कर भी ? अपने पास पा कर भी ?’ तनिक नरम पड़ा था कीरत।
    ‘हां !’ स्वीकार करते ही सुखबाई ने इतना और जोड़ दिया था,’मगर तुम जो चाहो करो, मुझे मना नहीं है।’
    वह कहना तो यह चाहती थी कि तुम आते हो तो किसी साहूकार की तरह अपना अधिकार वसूलते हो और फिर महीनों के लिए अकेली छोड़ कर चले जाते हो। भूख-प्यास तो तुम्हारे जाने के बाद भी लगती है, कैसे जीती हूं मैं, ये भी तो सोचो !
    उसके बाद न तो कीरत ने उससे कुछ कहा, सुना और न सुखबाई ने। बड़े हो चले बच्चे सुखबाई को उपेक्षा का शिकार बनाने लगे थे । उन्हें भी लगने लगा था कि जीवन की इस गड़बड़ में अगर बाप दोषी है तो मां भी दोषी है, सज़ा उसे भी मिलनी चाहिए थी।
    ‘इससे तो अच्छा था कि तुम भी जेल जा बैठतीं, कम से कम कहने को तो रहता कि हम अनाथ है....’ किसी बात पर भड़क कर सूरत ने उसे ताना मारा था ।
    ‘हमारे पीछे तो कोई नहीं आता है, तुम्हारे पीछे फुग्गन क्यों पड़ा था....’ बेटी आरती ने अपनी सच्चरित्रता तो स्थापित करते हुए सुखबाई पल कीचड़ उछाल दिया।
    जेल से छूटे उसे दो सप्ताह हो चले हैं मगर इन कुल चौहद दिनों में उसके और सुखबाई के संबंधों में वह जीवन्तता नहीं आ सकी, जैसी कि उसके जेल जाने से पहले हुआ करती थी । शायद उम्र बढ़ चली है? नहीं, सुखबाई को कीरत के निकट जाने में भी हिचक होती। यदि पत्नी धर्म निभाना उसकी विवशता न होती तो वह कीरत से कह ही देती कि चलो हम दोनों भाई-बहन की तरह रहें। हमारे बीच पति-पत्नी जैसा कुछ भी न रहे । मगर यह कह पाना संभव नहीं था । जबकि उतना ही दरूह था अपने भीतर पहले जैसी कल-कल करती नदी को ढूंढ पाना । पहली रात, दूसरी रात, तीसरी रात...बस, कीरत के धैर्य का बांध टूट गया। उसने सुखबाई से कह ही दिया-‘ऐसा लगता है कि तुम बदल गई हो ! मुझसे घिन आती है तुम्हें ?’
    ‘नहीं तो ?’ सुखबाई ने सिर झुका कर कहा ।
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    ‘तो फिर ?’कीरत ने पूछा ।
    ‘फिर क्या ?’ नासमझ की तरह बोली थी सुखबाई ।
    ‘तुम हमसे दूर-दूर काहे भागती हो?’ झुंझला कर बोला था कीरत,‘तुम यही सोचती हो न कि एक हत्यारे के साथ कैसे रहा जाए?’
    ‘नहीं-नहीं, कैसी बातें करते हो ?....वो तो अब मन नहीं करता...बहुत साल गुज़र गए न !...अब हम नाती-पोते वाले हो चुके हैं...बहू बातें बनाएगी...पराए घर की लड़की है....’ सुखबाई ने झिझकते हुए कहा था। सुखबाई का कथन कुछ प्रतिशत सच था लेकिन उससे बड़ा सच था कि अब सुखबाई को संसर्ग में रुचि ही नहीं रह गई थी। संसर्ग के मामले में बारह बरस का लगभग बैरागी जीवन बिताने के बाद तन-मन की सूखी बेल भला कैसे हरिया पाती।
    सुखबाई की बात सुन कल कीरत को बड़ी ठेस पहुंची थी । उसके लिये तो मानो उसके घर का समय बारह साल से जहां के तहां ठहरा हुआ था, मगर नहीं, सुखबाई ने उसे याद दिला दिया कि समय बहुत दूर निकल चुका है । बीती हुई उम्र लौट कर नहीं आएगी । स्रोत सूख चुके हैं, मौसम हमेशा के लिए बदल चुका है, अब नदी-ताल फिर कभी नहीं भरेंगे । संकेत में ही सही लेकिन सुखबाई ने जता दिया था कि अब तो शेष जीवन सूखा और बंजर ही झेलना है । उफ ! यह सज़ा भी उसके हिस्से में लिखी हुई थी, कीरत फफक-फफक कर रोता रहा था ।
    ‘तुमने हमें जेल में ही क्यों नहीं बताया कि हम बुढ़ा गए हैं ...हम अपनी रिहाई ठुकरा देते और कह देते कि हमें जेल में ही रहना है!’ कलपते हुए बोल उठा था कीरत ।
    सुखबाई उसका रोना देख कर रूंआसी हो उठी थी। सज़ा वह भी तो भोग रही थी।
    एक-दूसरे के प्रति पछतावे और सहानुभूति के बाद भी संबंधों में ठंडक बनी रही ।
    सुखबाई ने एक बात और भी ध्यान दी थी कि जेल से लौटने के बाद कीरत बड़ी-बड़ी बातें करने लगा था, कुछ-कुछ संतो-महात्माओं जैसी। वैसे कीरत ने बताया था कि कीरत को ये ज्ञान रामसिंह लोधी ने दिया था । रामसिंह लोधी कीरत के समान जेल में सज़ा काट रहा था। सब उसे लोधी दादा कह कर पुकारते थे । वह ऐसे ही ज्ञान-ध्यान की बातें करता था । जबकि लोधी दादा को पता था कि वह खुद कभी जेल से आज़ाद नहीं हो पाएगा। उसे कोई बीमारी लग चुकी थी। कौन-सी बीमारी ? यह कोई नहीं जानता था। वह एक मामूली तबके का अपराधी था, कीरत के समान । वह न तो राजनीति से जुड़ा हुआ था और न किसी बड़े अपराधी दल से । उसकी खैर-ख़बर लेने वाला कोई नहीं था। उसे तो ऐडि़यां रगड़ते हुए जेल में ही दम तोड़ना था । कीरत उसके लिए चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था । वह खुद ही लाचार था ।
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    क्या नहीं सहा कीरत ने जेल में ? उसने सिपाहियों की गालियां सुनी, बिना बात के उनसे लात-जूते खाए, दादा-टाईप कैदियों के लिए गुलाम जैसे काम किए । यहां तक कि उसने उनकी देह पिपासा शांत करने के लिए औरत की भूमिका भी निभाई। अपने पौरूष के विरूद्ध जब उसने पहली बार यह पीड़ा झेली तो उसके मन ने उससे देर तक पूछा था कि क्या यह सज़ा भी उसके आजन्म कारावास की सज़ा में शामिल है? सज़ा का काग़ज़ लिखते समय क्या इसे भी जज साहब ने उसके नाम दर्ज कर दिया था ? क्या उसे फुग्गन का सिर उल्टी कुल्हाड़ी से फोड़ते समय इस बात का अहसास था कि जेल में उसे क्या-क्या भुगतना होगा? कदापि नहीं! लेकिन अगर उसे इन सब सज़ाओं का ज़रा-सा भी अहसास होता तो क्या वो फुग्गन का सिर नहीं फोड़ता? ज़रूर फोड़ता। इस तरह की ढेरों बातें करता, बताता रहता कीरत । सुखबाई उसकी भोगी हुई कठिनाइयों को महसूस करने का प्रयत्न करती और सिहर-सिहर जाती ।
    कीरत और सुखबाई के भाग्य में एक सज़ा और लिखी हुई थी जिसका उन्हें अनुमान भी नहीं था । यह सज़ा सुनाई उनके अपने बेटे सूरत ने ।
    ‘अम्मा, बापू से कह दइयो के वे कहूं चले जाएं। काए से के हमाए ससुर साब ने मूरत के लाने एक लड़की देखी है ...और हमाए ससुर साब जे नई चाहत हैं के ब्याओ की बेला में बापू इते रहें ।’ सूरत ने दो टूक शब्दों में सुखबाई से कह दिया था ।
    ‘पर बेटा....’
    ‘नई अम्मा, तुम कछु न बोले ! हमाए खयाल से भी जेई ठीक रैहे । अखीर बापू हत्या के जुर्म में जेल काट के आए हैं।’ सूरत ने कहा और सुखबाई को कुछ बोलने का अवसर दिए बिना ही वहां से चला गया।
    सुखबाई ही जानती थी कि सूरत उसे किस मुसीबत में फंसा गया है । आखिर जिस इंसान ने उसकी अस्मत का मान रखने के लिए हत्या की और बारह बरस की लम्बी अवधि जेल में तिल-तिल कर काटी उससे कैसे कह दे वह कि तुम फिर कहीं चले जाओ क्योंकि तुम्हारे बेटे का ब्याह होने वाला है । क्या कहे ? कैसे कहे ? उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया अतः उसने दो-तीन दिन चुप रह कर व्यतीत कर दिए । इधर सूरत ने देखा तो वह सुखबाई पर बिगड़ उठा । उसने साफ-साफ कह दिया कि वह अपने हत्यारे बाप के लिए अपने निर्दोष भाई की जि़न्दगी बरबाद नहीं कर सकता है । इस पर सुखबाई ने वादा किया कि वह कीरत से इस बारे में बात करेगी।
    ‘सूरत कह रहा था कि उसके ससुर ने मूरत के लिए लड़की देखी है....’
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    ‘अरे वाह ! ये तो अच्छी बात है ।’ कीरत ने खुश हो कर कहा ।
    ‘मगर...लड़की वाले ब्याह में हिचक रहे हैं ....’
    ‘क्यों ?’
    ‘वे सोचते हैं कि तुम अब घर में ही रहोगे तो...’ इसके आगे सुखबाई ने बात अधूरी छोड़ दी। पूरा कहने को कुछ था भी नहीं। बिना कहे भी कीरत बात समझ गया। लड़की वाले भला उस घर में अपनी बेटी को भेजने में हिचकेंगे ही जहां एक हत्यारा रह रहा हो ।
    कुछ देर चुप रहा कीरत। सुखबाई भी चुप रही। वह कीरत के उत्तर की प्रतीक्षा करती रही। कीरत ने अप्रत्याशित-सा प्रश्न किया-‘कितने दिनों के लिए जाना होगा मुझे ?’
    ‘तुम्हें ?’ सुखबाई हिचकिचाई ।
    ‘हां, शादी वाले घर में औरतों के लिए ज्यादा काम रहता है । तुम्हारा यहीं रहना ठीक होगा ! ’ कीरत ने कहा ।
    ‘नहीं, मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगी । मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी ।’ सुखबाई ने आग्रह किया । उसका ये आग्रह दिखावा नहीं था । वह कीरत का साथ देना चाहती थी । मगर उन दायित्वों ने उसके स्वर को कमज़ोर बना दिया जो वह पिछले बारह वर्ष से वहन कर रही थी ।
    ‘नहीं, मां-बाप में से किसी एक को तो घर पर रहना ही चाहिए । बच्चों को अनाथ थोड़े ही छोड़ देंगे । मैं ही तीरथ हो आता हूं ।’ कीरत ने बुझे मन से कहा ।
    सुखबाई ने कुछ नहीं कहा । कहने को इस बार भी कुछ नहीं था ।
 
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Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकन     मूरत को जब पता चला कि उसके बाप कीरत की सज़ा कम हो गई है, सरकार उसे जेल से जरा जल्दी छोड़ रही है तो उसे कोई खुशी नहीं हुई । उसने अपनी मां सुखबाई से पूछा, ‘दद्दा जेल से आने के बाद कहां रहेंगे ?’
    ‘अपने घर में यहां, और कहां ?’ सुखबाई आश्चर्य से बोली ।
    ‘यहां, हमारे साथ ? इसी घर में ?’ मूरत ने एक बार फिर पूछा ।
    ‘हां-हां, यहीं ! वे यहां नहीं रहेंगे तो कहां जाएंगे ?’ सुखबाई को मूरत का इस तरह पूछना अच्छा नहीं लगा । सुखबाई के अनुसार, मूरत को तो खुशी से नाचने लगना चाहिए था कि उसका बाप बारह बरस बाद घर लौट रहा है, सदा के लिए । मगर यह बौड़म खुश होने के बजाए सवाल पर सवाल किए जा रहा है, मानो अपने बाप को अपने साथ न रखना चाहता हो ।
    ‘दद्दा का यहां रहना ठीक न होगा !’ मूरत टका-सा बोला ।
    ‘अरे, क्यों ? क्यों ठीक न होगा ?’ सुखबाई को मूरत का यह रवैया समझ में नहीं आ रहा था ।
    ‘बस, ऐसे ही !’ इतना कह कर मूरत ने अपनी बात को वहीं विराम दे दिया । उसे याद आया कि उसे सतराम पंडित के घर जाना है ।
     मूरत उस समय छोटा था, जब वह घटना घटी । उस समय तो उसे पता ही नहीं था कि औरत की अस्मत का क्या अर्थ होता है, या हत्या किसे कहते हैं ? उसे बस, इतना समझ में आया था कि अकसर घर आने वाले फुग्गन चाचा ने अचानक आना बंद कर दिया और फिर कभी नहीं आए। वह तो उम्र बढ़ने के साथ-साथ समझ में आया कि फुग्गन चाचा की उसके दद्दा के हाथों हत्या हो गई थी । मूरत को उस छोटी-सी उम्र में इतना अवश्य समझ में आ गया था कि हत्या एक बुरा काम है और हत्या करने वाला हत्यारा कहलाता है । यह ज्ञान उसे अपने दोस्तों से मिला, जिनके साथ वह दिन भर गिल्ली-डंडा और कंचे खेला करता था या अपनी कमर से सरकती निकर को दोनों हाथों से सम्हालते हुए उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता था ।
    ‘जा, तू अब हमारे साथ नहीं खेल सकता है !’ बेलू ने मूरत को धक्का देते हुए रूखाई से कहा ।
     ‘क्यों ?’ मूरत ने पूछा ।
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     ‘क्यों कि तेरा बाप हत्यारा है, हम हत्यारे के बेटे को अपने साथ नहीं खिलाएंगे !’ बेलू के बदले मुन्ना ने उत्तर दिया ।
    ‘मैं तुम लोगों के बदले दाम दे दूंगा।’ मूरत ने खेल में शामिल होने के लिए दाम देने का प्रस्ताव भी रख दिया, मगर उसके दोस्तों ने उसका प्रस्ताव निष्ठुरता से ठुकरा दिया ।
    यह तो बहुत दिन बाद मूरत को समझ में आया कि उसके साथ के बच्चे भी हत्या के बारे में उतना ही जानते-समझते थे, जितना कि वह स्वयं । बाकी बच्चों को उनके मां-बाप ने शिक्षा दे रखी थी । जैसे बेलू था, जिसे उसके बाप ने कह रखा था कि ‘उस हत्यारे के बेटे के संगे न खेलियो, ने तो फुग्गन के घर वाले बुरा मान जेहें। उन औरन से बुराई मोल नई लेने है हमें !’
    अर्थात फुग्गन भले ही मर गया था लेकिन न तो उसके घर वाले मरे थे और न उसके घरवालों का रसूख मरा था । मूरत जैसे-जैसे बड़ा हुआ, उसके मन में यह बात घर करती चली गई कि उसके दद्दा ने फुग्गन को मार कर बहुत बुरा किया । अगर उसके दद्दा ने फुग्गन को न मारा होता तो उसके दोस्त उससे दूर नहीं भागते, उसे हत्यारे का बेटा कह कर चिढ़ाते नहीं, उसे घृणा की दृष्टि से नहीं देखते । मूरत को जहां अपनी दयनीय दशा पर रोना आता और दद्दा के प्रति अपार घृणा का भाव उपजता, वहीं उसे यह सोच-सोच कर आश्चर्य होता कि उसका बड़ा भाई सूरत इन सारी परिस्थितियों में कैसे निर्वाह कर लेता है ? शायद वह अधिक धैर्यवान है । मूरत का धैर्य तो छूट-छूट जाता, जब भी वह अपने दद्दा के बारे में सोचता।
 
    वह उस समय बहुत छोटा था जब दद्दा हत्या कर के जेल गए थे ।
    उस समय की दद्दा की छवि उसे याद भी नहीं है । हो सकता है वह उस समय घुटनों के बल चलता रहा हो, या फिर घुटनों के बाद, पांवों पर खड़े हो कर चलना सीखता रहा हो । उसे स्वयं कुछ भी याद नहीं है । उसे पिता के रूप में ‘दद्दा’ के अस्तित्व का न अनुभव था और न उनकी कमी खटकती थी । वह भी अपने पिता को दद्दा कहता था। मां को अवश्य मुंह छिपा-छिपा कर रोते देखा था । छुटपन में उसे समझ में नहीं आता था कि मां को न तो कोई मारता है और न कोई डांटता है, फिर बिना किसी कारण, मां रोती क्यों रहती हैं । मामा भी तो मां से प्यार से बोलते और प्यार से समझाते रहते । थोड़ा बड़े होने पर मूरत को जब यह समझ में आया कि मां उसके पिता यानी दद्दा की याद में रोती रहती हैं तो उसे यह समझ में नहीं आया कि मां उस आदमी के लिए क्यों रोती है जो घर या घरवालों की परवाह किए बिना फुग्गन को मार-मूर कल जेल में जा बैठा है । वह तो वहां मुफ़्त की सरकारी रोटियां तोड़ रहा है और यहां वे लोग कस्बे भर की घृणा सह रहे हैं। वह तो गनीमत है कि मामा ने सहारा दे दिया, उनके रूतबे के कारण वातावरण में परिवर्तन होता चला गया, वरना क्या पता उसे, उसकी मां और भाई बहनों को गाँव छोड़ कर ही चले जाना पड़ता, या फिर हो सकता है कि वे वहीं भीख का कटोरा ले कर घूमते । यह भी हो सकता था कि फुग्गन के घर का कोई आदमी बदला लेने के इरादे से उसे या उसके भाई-बहनों में से किसी को ठिकाने लगा देता । कुछ भी बुरा से बुरा हो सकता था, यदि मामा ने मदद न की होती।
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    मूरत को याद है जब सूरत की शादी के समय दद्दा पेरोल पर घर आए थे । उस समय तक मूरत समझदार हो चुका था । वह तो चकित था इस बात पर कि सूरत के विवाह के शुभ अवसर पर एक ऐसे आदमी को घर क्यों आने दिया जा रहा है जो घरवालों का जीवन तबाह कर चुका है, पिता के रूप में जीवित होते हुए भी अपने बच्चों को पितृविहीन कर चुका है । जहां तक बहनों की शादी का सवाल था तो ठीक है, लड़कियों के ‘कन्या दान’ के लिए समझौता किया जा सकता था, यद्यपि ‘कन्या दान’ मामा भी कर सकते थे, फिर भी दद्दा के आने को सही ठहराया जा सकता था । आखिर वैतरिणी दद्दा को भी पार करनी पड़ेगी, भले ही दद्दा को स्वर्ग के बदले नरक नसीब होगा । जो भी बहाना कह लें, लेकिन बेटियों की शादी में बाप का रहना तो चल सकता है पर बेटे की शादी में ? बेटे की शादी में कोई जरूरी नहीं है ! बहू का द्वारचार सास करती है, ससुर नहीं ! फिर दद्दा के आने का क्या काम ?
    सूरत की शादी को ले कर उसके मन में जो उत्साह था, घड़ों पानी पड़ गया था उस पर । क्या सोचेंगे सूरत के ससुराल वाले ? मूरत को लगा कि दद्दा को आने से रोक देना चाहिए । उसने मां और मामा के सामने अपना विरोध प्रकट भी कर दिया था, ‘दद्दा घर क्यों आ रहे हैं ? उनहें जेल में ही रहना चाहिए ।’
     ‘क्यों जेल में क्यों रहना चाहिए ? क्या अपने बेटे की शादी में भी नहीं आ सकते हैं ? वाह, खूब कही !’ मामा ने व्यंग से कहा ।
    ‘काए का ? फुग्गन को मारते समय न सूझा था कि बेटों का क्या होगा ? अब बेटे के लिए आ रहे हैं, हुंह !’ मूरत के शब्दों से ही नहीं, भाव-भंगिमा से भी घृणा के भाव फूट रहे थे ।
    ‘धत् ! ऐसा नहीं कहते...बाप कैसा भी हो, बाप आखिर बाप ही होता है । कीरत आएगा, और जरूर आएगा !’ मामा ने उसे समझाया ।
    ‘जो दद्दा आएंगे तो न मैं घर में रहूंगा और न बारात जाऊंगा ! दद्दा ही हो आएं बारात, नाच लें जी भर ! ’ मूरत कुढ़ कर बोला था ।
    ‘ठीक है, जो तुमाई मर्जी आए, सो करो ! मगर, कीरत तो आएगा ही, क्योंकि शादी ब्याह में बाप का होना जरूरी होता है, भाई का नहीं !’ मामा ने भी मानो अंतिम निर्णय सुना दिया ।
    ‘ठीक है, तो मैं जा रहा हूं...सूरत की शादी के बाद आऊंगा ! नहीं तो, बाद में भी दद्दा को ही घर पे रोके रखना, मेरी जरूरत ही क्या है इस घर में !’ सूरत भड़क कर बोल उठा ।
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    मूरत ने देखा, मां के आंखों से आंसू की धार बह रही थी । वह खीझ उठा, मां को रोने के सिवा और कुछ आता भी है या नहीं ? सुहागन हो कर, विधवा-सी अकेली जीवन गुज़ार रही है फिर भी कुछ बोलती नहीं है । लोग कहते हैं कि हत्या के मामले में मां का भी कोई चक्कर था, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि मां दद्दा के पक्ष में ही रोती रहे। हद है ये भी ! मूरत पांव पटकता हुआ घर से बाहर आ गया । आने को तो बाहर आ गया मगर अब जाए कहां ? उसके कहीं जाने के लिए एक मामा का घर ही तो है, और मामा उसका साथ नहीं दे रहे हैं ।
    दोपहर से शाम ढलने तक मूरत ठाकुर कक्का के खेत के कुए के पाट से टिक कर बैठा रहा। उसकी कमर दुखने लगी थी लेकिन उठने का जी नहीं कर रहा था । उठने से कोई लाभ नहीं था, उठ कर जाने को कोई जगह नहीं थी । चार दिन इस कुए के पाट के सहारे तो गुजारे नहीं जा सकते थे, बड़ा कठिन समय महसूस हुआ मूरत को। अचानक उसने अपने-आप को बहुत अकेला और असहाय अनुभव किया। उसे लगा कि शायद बेसहारा या अनाथ होना इसी को कहते हैं, उसके पास न घर है न घाट, धोबी के कुत्ते-सा जी भर कर भूंक आया है वो । मूरत अपने-आप पर खीझ उठा । क्या जरूरत थी उसे इतना पटर-पटर बोलने की ? शादी सूरत की है, जब उसे दद्दा के आने पर कोई आपत्ति नहीं है तो वह क्यों हेकड़ी दिखा रहा है ? जब उसकी अपनी शादी होगी तब कर लेगा अपने मन की ।
    कहते हैं न कि अगर खड़ी उड़द सूख जाए तो फिर हरियाती नहीं है, मूरत अपनी कही हुई बात से कैसे फिरे ? मामा के सामने उसे नीचा देखना पड़ेगा, मां भी पता नहीं क्या सोचे ? हो सकता है कि अब तक उन लोगों ने कुनबे भर को बता डाला हो ! नहीं, अब वह पीछे नहीं हट सकता है । अब चाहे यहीं कुए के पाट के सहारे चार दिन क्यों न काटने पड़ें, वह घर नहीं जाएगा, दद्दा का मूं नहीं देखेगा ।
    मूरत को अपनी दुर्दशा पर पूरे चार दिन आंसू बहाने पड़ते यदि सूरत उसे लिवाने नहीं आया होता । सूरत मामा के साथ उसे ढूंढता-खोजता ठाकुर कक्का के खेत के कुए तक आ पहुंचा, हो सकता है कि किसी ने मूरत को वहां बैठे देख लिया हो और बताया हो। सूरत आ कर मूरत के सामने उकड़ू-मुकुड़ू बैठ गया ।
    ‘ये क्या पागलपन है ? चल, घर चल ! ऐसा नहीं करते !’ सूरत ने लाड़ भरे स्वर में कहा ।
    ‘मैं नहीं जाउंगा !’ घर जाने को मरा जा रहा मूरत, अपनी चिरौरी होते देख कर अकड़ गया ।
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    ‘चल भैया ! तू क्या चाहता है कि मैं घोड़ी न चढूं ? ब्याह न करूं ?’ सूरत आगे बोला ।
    ‘मैंने ऐसा कब कहा ? मैं तो बस ये......’
    ‘घर-परिवार, समाज भी कोई चीज होता है, लोग क्या कहेंगे ? लड़की वालों की तरफ से बाप शामिल होगा और हम लड़के वालों की तरफ से नहीं, जबकि हमारा बाप जि़न्दा है ! नहीं, ऐसा नहीं करते ! चल, गुस्सा थूक !’ सूरत ने मूरत की बात काटते हुए उसे समझाने का प्रयास किया ।
    ‘मूं पर न थूकूं दद्दा !’ मूरत भड़क कर बोला ।
    सूरत ने अपने छोटे भाई की बात सुन कर असहाय दृष्टि से मामा की ओर देखा । मामा का चेहरा तमतमा उठा ।
    ‘देख मूरत, अब बहुत हो गई ! तेरा लड़कपन सोच कर मैंने तेरा कहा-सुना भुला दिया था पर अब नहीं सुनूंगा तेरी ! सीधे से चलना हो तो चल, वरना तू भी जा चूल्हे में ! तेरे से तो तेरा बाप लाख दर्जे अच्छा है, उसे घर-परिवार की इज़्जत का तो ख़याल रहा!’
    ‘हां-हां, तो दद्दा को ही परघाओ न, आरती उतारो उनकी, मेरे पास क्यों आए हो?’ मूरत का माथा फिर पलट गया ।
    इतना सुनना था कि सूरत उठ खड़ा हुआ ।
    ‘मामा, उन लोगों के यहां ख़बर भिजवा दो, मुझे नहीं करनी है शादी-वादी ! किसी को मेरे सुख की चिन्ता नहीं है, सब को अपनी-अपनी पड़ी है !’ सूरत बोल उठा, उसका स्वर भीगा हुआ था ।
    मूरत समझ गया कि ये ‘सब’ और कोई नहीं, वहीं है। उसे सूरत का हताश होना अच्छा नहीं लगा । फिर यह उचित अवसर था जब वह अपनी बात सम्मानपूर्वक वापस ले सकता था। उसने इस अवसर को अपने हाथ से जाने नहीं दिया। वह उठा और उसने लपक कर सूरत की बांह पकड़ ली ।
    ‘कैसे नहीं करोगे शादी ? तुम्हारी शादी होगी, जरूर होगी ! आने दो दद्दा को, मैं उनकी तरफ देखूंगा ही नहीं, मगर तुम्हारी बारात में आगे-आगे नाचूंगा !’
    मूरत की बात सुन कर मामा ने चैन की सांस ली और सूरत ने उसे अपने गले से लगा लिया ।
    उसके बाद जब कभी दद्दा पेरोल पर घर आए, मूरत ने उन्हें अनदेखी करने का रवैया अपनाया । वह मन ही मन में तय कर के बैठा था कि चाहे कुछ भी हो जाए मगर अपनी शादी में दद्दा को नहीं बुलाएगा ।
   
    सब कुछ सोचा हुआ ही हो, सदैव ऐसा नहीं होता है । मूरत ने सोचा कुछ था और हुआ कुछ । उसे जिस घड़ी पता चला कि दद्दा को जेल से छोड़ा जा रहा है, वे अब घर आ जाएंगे, भीतर ही भीतर फुंक कर रह गया था वह । उसे सरकार पर भी क्रोध आया था, जब आजन्म कारावास है तो मरते दम तक जेल में क्यों नहीं रखा जा रहा है दद्दा को, सरकार उन्हें छोड़ क्यों रही है ? अब आ जाएंगे छाती पे मूंग दलने ! ऐन उसके ब्याह के समय!
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    तय हो चुका था मूरत का ब्याह । उसने अपनी होने वाली बीवी को लुक-छिप कर देखा था, गोरी-चिट्टी, काली-काली आंखों वाली, भरे-भरे बदन वाली ! बहुत रोमांचित था वह अपने ब्याह को ले कर, मगर उसे क्या पता था कि उसके सपनों की हरी फसल को पाला मारने वाला है...यानी दद्दा घर आने वाले हैं !
    दद्दा घर आ ही गए। कौन रोकता उन्हें आने से? मां चाहती थी कि वे घर आएं, मामा चाहते थे कि वे घर आएं, सूरत को कोई आपत्ति नहीं थी उनके घर आने पर। कुल-मिला कर दद्दा घर आ गए ।
    एक सप्ताह हो गए दद्दा को घर आए, मगर मूरत ने उनसे सीधे मुंह बात नहीं की। क्या बात करना ऐसे इंसान से जिसने घर के लिए कुछ किया धरा तो नहीं, उल्टे आ गया घर की रोटियां तोड़ने! फिर भी सब के सब दद्दा के पक्ष में थे, भौजी को छोड़ कर। यूं तो बहनें भी दद्दा को पसंद नहीं करती थीं क्यों कि उन्हें दद्दा को ले कर अपनी-अपनी ससुराल में खरी-खोटी सुननी पड़ती थी, मगर वे रहती भी तो अपनी ससुराल में ही थीं, यहां थोड़े ही रहती थीं। यहां तो उसे एक मात्र समर्थन मिलता था तो भौजी से । उन्हें भी दद्दा का आना सुहा नहीं रहा था ।
    ‘तुम्हारे ब्याह के बाद आते तो ठीक रहता..’ भौजी ने अपनी राय प्रकट की।
    ‘हमाए-तुमाए सोच ने से क्या होगा, भौजी ? वे तो आ ही गए हैं!’ मूरत ने झुंझल कर कहा ।
    ‘हां, भैया ! औरों को तो कोई फिकर ही नहीं है ! दद्दा भी तो ऐसई हैं, उन्हें खुद सोच ना चाहिए, आखिर तुमाए भैया ब्याह के समय चार बातें हुई थीं कि नहीं !’ भौजी बोली ।
    ‘वो सब तो ठीक है, पर अब हो क्या सकता है ? दद्दा अब जाएंगे भी कहां ? मामा तो ऐसे समय उन्हें यहां से टालेंगे नहीं ! ’ मूरत हताश हो कर बोला ।
    ‘अब ऐसी है कि जाने को तो वे तीरथ को जा सकते हैं, उम्मर भी तीरथ करबे की है ।’ भौजी ने रास्ता सुझा ही दिया ।
    ‘हां, बात तो तुमने ठीक कही, भौजी ! दद्दा को तीरथ के लिए चले जाना चाहिए!’ मूरत का मुरझाया चेहरा खिल उठा । फिर अगले ही पल चिन्ता की लकीरें उसके माथे पल आ चढ़ीं, ‘मगर वे खुद तो जाने से रहे, उन्हें जाने को कहेगा कौन ?’
    ‘जो मैं बोलूं तो कहा जाएगा कि बहू को बूढ़े ससुर की सेवा भारी पड़ रही है, तुम्हारे भैया कहेंगे नहीं, मम्मा का आसरा नहीं है, तुम्हीं को कहना होगा!’ भौजी ने बात साफ़ की ।
    ‘मैं ? तुम तो जानती हो कि मैं दद्दा से बात नहीं कलता हूं , फिर मेरा बोलना भर है कि सब मेरे विरोध में खड़े हो जाएंगे !’ मूरत की चिन्ता मुंह बाए खड़ी थी ।
    ‘तो अम्मा को समझाओ कि दद्दा तीरथ जा के अपने पाप काट आएं !’ भौजी ने कहा ।
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    ‘हां, ये हो सकता है, मगर जो दद्दा ने कहा कि वे मेरे ब्याह के बाद जाएंगे तो?’ मूरत ने पूछा ।
    ‘तो ऐसी करो, अम्मा से बोल दो कि तुम्हारे होने वाले ससुर चाहते हैं कि तुमाए ब्याह के समय दद्दा यहां न रहें !’ भौजी के पास मानो हर सवाल का जवाब था ।
     मूरत को भौजी की बात जंच गई । उसने अम्मा से कह दिया कि उसके भावी ससुर चाहते हैं कि शादी के समय दद्दा यहां न रहें। अम्मा ने सुना तो वे हमेशा की तरह रोने लगीं। मूरत ने अम्मा के पांव पकड़ लिए, ‘जो तुमने दद्दा को तीरथ पे नहीं भेजा तो मेरा ब्याह न हो पाएगा ! ’
    अम्मा कुछ न बोलीं, उनका कुछ न बोलना ही इस बात का संकेत था कि वे मूरत का ब्याह नहीं रुकने देंगी । मूरत के दिल को ठंडक पहुंची ।
    मूरत को सुबह सो कल उठते ही भौजी ने ये अच्छी ख़बर सुना दी कि दद्दा तीर्थ-यात्रा पर जा रहे हैं । मूरत यह सुन कर खुश हुआ । ठीक है, यदि उसका पिता उसकी शादी में उसे आशीर्वाद नहीं देगा तो क्या हुआ ? इससे उसकी शादी टूट थोड़े ही जाएगी ? लेकिन क्या ये अच्छा नहीं होता कि उसका पिता भी औरों के पिता की तरह सामान्य जीवन जिया होता और उसकी बारात के आगे-आगे झूमता-नाचता, चलता ! उसे याद आया कि सूरत की शादी के पहले, जब मूरत रूठ कर ठाकुर कक्का के कुए के पास जा बैठा था और सूरत उसे मनाने आया था, तब लौटते में एक चाय के टपरे के बाहर चाय सुड़कते हुए मामा ने उसे बताया था कि दद्दा ने फुग्गन की हत्या यूं ही नहीं की थी। कोई उधार-वुधार का मामला भी नहीं था । वो तो फुग्गन ने उसकी अम्मा के साथ बुरी नीयत से छेड़खानी की थी, इसलिए उसके दद्दा को क्रोध आ गया था । उसके दद्दा फुग्गन के पास झगड़ने, उसे फटकारने गए थे, उसकी हत्या करने नहीं । फुग्गन दारू के नशे में उसकी अम्मा को ले कर कुछ आंय-बांय बकने लगा जिससे बात बढ़ी और उसके दद्दा ने पास पड़ी कुल्हाड़ी फुग्गन के सिर पर दे मारी थी ।
    ‘जो ये बात थी तो दद्दा को इतनी लम्बी सज़ा क्यों हुई ?’ मूरत ने संदेह भरे स्वर में पूछा था ।
    ‘तुम्हारे दद्दा या मेरे जैसे लोग फुग्गन जैसे रसूख वाले नहीं हैं कि हज़ार- हज़ार पाप कर के, बुरी मौत मर के भी पूजे जाएं !’ मामा ने समझाया था ।
    मामा की बात सुन कर मूरत कुछ नहीं बोला था लेकिन उसके मन में फिर भी यही विचार आया था कि दद्दा को झगड़े या हत्या करने से पहले कम से कम हम लोगों के बारे में तो सोचा होता।
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    मूरत इस बात को समझने को तैयार ही नहीं था कि एक बार फिर घर छोड़ते हुए उसके बाप कीरत की छाती फट जाएगी, लहू रिस जाएगा और निर्जीव-सी देह किसी तीर्थ के किसी घाट पर अपने उस पाप को धोने के लिए भटकेगी, जो पाप उसने किया ही नहीं है । मूरत इस बात को भी मानने को तैयार नहीं था कि कीरत के जाते ही उसकी मां सुखबाई एक बार फिर दुखों के कारागार में बंद हो कर छिप-छिप कर आंसू बहाएगी और खुद को दोष देती रहेगी।
    दद्दा के तीर्थ-यात्रा पर जाने की सूचना पा कर भी मूरत की नासमझी दूर नहीं हुई। इस नासमझी का बीज उसके मन में उसी समय पड़ गया रहा होगा जब उसके दद्दा यानी कीरत को आजन्म कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। बाप हो कर भी बिना बाप के जीवन की सज़ा मूरत के हिस्से आई, और मानो वह शापित था इसे भुगतने के लिए।
 
    जगतरानी के बेटों का विवाह भी धूम-धाम से हुआ। उसके बेटों के विवाह में कोई अड़चन नहीं आई। न तो बेटों की ओर से और न बेटों के ससुरालवालों की ओर से। कर्ज के पैसे के लेन-देन को ले कर हत्याएं होना आम बात है। उसके बेटों के ससुराल वालों को अपनी बेटियां देते हुए तनिक भी संकोच नहीं हुआ। मरना-मारना तो ठाकुरों में लगा ही रहता है। अगर कीरत फुग्गन सिंह को नहीं मारता तो कौन जाने फुग्गन सिंह के हाथों कीरत ही मारा जाता। हां, यह अवश्य होता कि कीरत को आजन्म कारावास हुआ किन्तु फुग्गन सिंह कोई न कोई दांव-पेंच लगा कर सजा पाने से बच निकलता। आखिर पैसे में बहुत ताक़त होती है।
    एक दिन कुसुमा ने ही बताया कि कीरत को समय से पहले माफी दे दी गई है और वह जेल से छूट गया है। उस दिन जगतरानी के मन में कीरत और सुखबाई को देखने की इच्छा एक बार पुनः बलवती हो उठी। उसने एक बार फिर सोचा कि उसे कुसुमा से मदद लेना चाहिए मगर फिर वही हिचक....कुसुमा क्या सोचेगी? एक बार फिर मन मसोस कर रह गई जगतरानी।
    पति के मरने के बाद वह सुहागिन से विधवा कहलाने लगी किन्तु उसे फुग्गन सिंह के न होने का कभी कोई दुख नहीं हुआ। जगतरानी के लिए फुग्गन सिंह का होना न होना महज सामाजिक अर्थ रखता था। उसके अपने निजी जीवन में फुग्गन सिंह था ही कहां? सुखबाई ने तो कीरत के जेल जाने के बाद अकेलापन झेला लेकिन जगतरानी ने तो फुग्गन सिंह के जीते जी अकेलापन भुगता था। अपितु फुग्गन सिंह की मृत्यु के बाद उसे शांति का अनुभव अवश्य हुआ था। कम से कम अब उसे अपने पति की आवारागर्दी के किस्से सुन-सुन कर खून के घूंट तो नहीं पीने पड़ेंगे। इस एक सोच ने जगतरानी को उन सभी औरतों की सामाजिक सोच से एकदम अलग खड़ा कर दिया जो यही मानती हैं कि ‘पति आखिर पति होता है, वह चाहे जैसा भी हो! .....या फिर, विधवा हो कर जीने से अच्छा है कि भले ही आवारा पति के साथ जीना पड़े।’
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    इस सामाजिक दर्शन पर जगतरानी भी लम्बा-चैड़ा भाषण दे सकती थी लेकिन अपने मन के आईने के सामने वह अपने सच को पूरी ईमानदारी के साथ स्वीकार करती थी कि उसे अपने पति के इस दुनिया में न होने का कोई दुख नहीं है। यदि अम्मा जी को जगतरानी के इस सच की कभी भनक भी लगी होती तो पूरे घर में कोहराम मचा देतीं। वे एक औरत हो कर भी जगतरानी का दुख-सुख नहीं समझ पातीं क्यों कि फुग्गन सिंह जैसा भी था, उनका बेटा था। जगतरानी अपने सीने में अपने सच को छिपाए हुए जी रही थी और दूसरी ओर सुखबाई अपने सच के साथ निरन्तर जूझ रही थी। जगतरानी के सच और सुखबाई के सच में जमीन-आसमान का अन्तर था।
    जगतरानी कीरत और सुखबाई को देखना चाहती थी, सिर्फ़ एक बार ही सही....किन्तु वर्षों व्यतीत होने पर उसे लगने लगा था कि उसकी यह इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकेगी।
 
    फिर एक दिन अचानक उसकी यह इच्छा भी पूरी हो गई। हुआ यह कि जगतरानी के छोटे भाई की सबसे छोटी बेटी का विवाह था। जगतरानी को उसका बड़ा बेटा गाँव से कार में बिठा कर बीना स्टेशन तक आया। साथ में कुसुमा भी थी। वह जगतरानी के साथ हमेशा हर जगह जाया करती थी। उस दिन भी साथ थी। रेल आने में समय था। जगतरानी के बेटे को उसका कोई परिचित मिल गया और वह उससे बतियाते हुए टहलने लगा। जगतरानी वहीं बेंच पर बैठ गई। कुसुमा सामानों के पास ज़मीन पर बैठ गई। वह जगतरानी के साथ बेंच पर बैठने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी। उसे अपनी मालकिन और अपने बीच की दूरी का ध्यान सदैव रहता।
    जगतरानी को रेल की प्रतीक्षा करते पन्द्रह-बीस मिनट ही हुए थे लेकिन वह ऊबने लगी थी। वह कुसुमा से कुछ कहने ही वाली थी कि अचानक कुसुमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और आंखों से संकेत करते हुए बोली, ‘छोटी ठकुराइन! वो...वो कीरत है...कीरत....और वो उसके साथ सुखबाई...’
    ‘कहां?’ जगतरानी को यह सुन कर मानो करंट छू गया। उसके शरीर में सिहरन दौड़ गई।
    ‘वो...वो...वो जो गठरी-सा थैला रखा है....हां..हां, वही है कीरत!’ कुसुमा ने इस बार उंगली से संकेत करते हुए बताया।
    ‘वो आदमी?’ चकित रह गई जगतरानी। बूढ़ा, थका हुआ था, इकहरे शरीर का आदमी ....क्या यही वो कीरत है जिसने हट्टे-कट्टे फुग्गन सिंह की जान ले ली थी?....और ये सुखबाई...ये भी कितनी कमजोर और थकी हुई लग रही है? इसी के लिए फुग्गन सिंह की जान गई?
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    ‘यहां क्या कर रहे हैं ये लोग?’ जगतरानी के मुंह से निकला।
    ‘अभी पता करती हूं।’ दूसरे ही पल कुसुमा उठ खड़ी हुई। जासूसी करना उसका मनपसन्द काम जो था। जगतरानी उसे रोक पाती कि इससे पहले कुसुमा सुखबाई के पास जा पहुंची। जगतरानी ने देखा कि सुखबाई और कुसुमा के बीच कुछ बात हुई फिर कुसुमा सुखबाई और कीरत को साथ ले कर उसकी ओर आने लगी।
    हे भगवान! ये कुसुमा क्या कर रही है? इन दोनों को मेरे पास क्यों ला रही है? क्या इसे पता है कि मैं इन दोनों को देखना चाहती थी, मैं इन दोनों से बात करना चाहती थी? कहीं मेरे बेटे ने इन दोनों से बात करते मुझे देख लिया तो? वह क्या सोचेगा? जगतरानी कुछ और सोच पाती कि इसके पहले सुखबाई और कीरत ने पास आ कर उसके पांव छू लिए।
    जगतरानी एक बार फिर सिहर उठी।
    ‘बाई साहब! हमाए कारण आपको कष्ट भओ है...हमें माफ कर दइयो!’ कीरत ने हाथ जोड़ कर जगतरानी से कहा। फिर आगे बोला,‘बाकी हमें अपने करे को पछतावो नइया!’
    जगतरानी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। सारे शब्द कहीं खो गए और स्वर मौन हो गया। सुखबाई ने भी कुछ नहीं कहा। वह जगतरानी की ओर देखती खड़ी रही।
    ‘चलो! गाड़ी आन चाहत है।’ कीरत ने कहा और वह सुखबाई के साथ जगतरानी से परे चल दिया।
    ‘तुम लोग कहां जा रहे हो?’ जगतरानी के शब्द मानो लौट आए और स्वर फूट पड़ा।
    ‘ये लोग तीरथ को जा रहे हैं।’ उत्तर दिया कुसुमा ने।
    ‘ओह, जेल से छूटने के बाद तीर्थयात्रा....’ जगतरानी के मुंह से निकला।
    ‘नहीं, कीरत का छोटा बेटा चाहता है कि उसकी शादी में उसका हत्यारा बाप शामिल न हो।’ कुसुमा ने बताया।
    ‘क्या???’ यह सुन कर चकित रह गई जगतरानी। सुखबाई और कीरत के जीवन के इस पक्ष के बारे में तो जगतरानी ने कभी सोचा ही नहीं था।
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    आवेश में घटी एक घटना कितनी दूर तक अपना असर छोड़ती है, इसका प्रमाण पहली बार देख रही थी जगतरानी। उस आवेश के जन्मने का कारण भी तो उसका पति फुग्गन सिंह ही था। जगतरानी उसके न होने का शोक भला कैसे मनाए?
    जगतरानी के इस मानसिक झंझावात से अनभिज्ञ सुखबाई इस तसल्ली के साथ रेल की प्रतीक्षा कर रही थी कि इस बार वह अपने पति के साथ है भले ही देह की नदी सूख गई है लेकिन मन का बिरवा तो अब हरियाएगा। फिर भी एक फांस सुखबाई के मन में चुभ रही थी। काश! मूरत ने यह सजा अपनी शादी के बाद सुनाई होती। कम से कम दूसरे बेटे को भी दूल्हा बनते तो देख लेती।
    ठीक यही सोच रहा था कीरत भी।
    जबकि इन सबसे परे जगतरानी दूर बैठी कनखियों से अपने मुक्तिदाता को देखे जा रही थी जो एक और सजा भुगतने जा रहा था।
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5 टिप्पणियाँ

  1. mai ne aap kikahani 'Ek aur sazaa' paRhi .... kahani ne shuroo se ant tak mujhe involve rakha jis se saabit hota hai ke is kahani mein 'kahani-pan' hai ... mai samajhta hoon ke kisi bhi khani ke liye 'kahani-pan' ka hona laazmi hai .... kahani mein ek flow hai jis ki wajah se is ki tawaalat giraa'n nahin guzarti ... lambi hone ke ba-wajood dichaspi bani rahti hai .... kahani do tabqe ki soch ka mano-vishleshan karti huyi aage baRhti hai aur agar ek jumle mein kaha jaye to 'Jagatrani'ke sach aur 'Sukhbai' ke sach ko hu-ba-hu saamne laa kar rakh dena hi is kahani ki safalta hai aur is ke liye lekhika ko meri taraf se mubarakbaad.

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  2. स्त्री के मर्म का बड़ा ही भावपूर्ण चित्रण है कहानी मे ॥

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  3. स्त्री के मर्म का बड़ा ही भावपूर्ण चित्रण किया है लेखिका ने ॥ बधाई स्वीकार करें ॥

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  4. Bahut hi jabardast kahani hai....Badhai sweekar karen....Stri ki manovyatha ke kai roop ek hi kahani me piro diye gaye hain...JagatRani, Sukhbai aur Moorat ki Bhabhi...aap ki kalpansheelta ka main kayal ho gaya hun..bahut hi bhavpurn rachna hai...

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