हाथ से फिसलती ज़मीन... तेजेन्द्र शर्मा [हिंदी कहानी] Haath se fisalti zamin - Tejinder Sharma [Hindi Kahani]

हाथ से फिसलती ज़मीन...

तेजेन्द्र शर्मा


“ग्रैण्डपा, आपके हाथ इतने काले क्यों हैं?... आपका रंग मेरे जैसा सफ़ेद क्यों नहीं है?... आप मुझ से इतने अलग क्यों दिखते हैं?” एंजेला के ये शब्द उसके दादा जी के दिल को जैसे छील गये।

क्या इतिहास फिर अपने आपको दोहराने जा रहा है? नरेन भारत छोड़ कर ब्रिटेन इसी चक्कर में तो आकर बस गया था कि अपने मुल्क़ में उसकी ज़ात तरक्क़ी के आड़े आ रही थी। उसमें हिम्मत नहीं थी कि सवर्णों और पिछड़ों की लड़ाई का मोहरा बन सके। बी.ए. में स्वर्ण पदक जीत कर भी उसे सवर्णों के साथ बैठने का हक़ नहीं मिला था। लड़कियां भी उसके साथ तब तक ही बात करतीं थीं जब तक उन्हें किसी विषय के बारे में जानकारी चाहिये होती थी। लंच टाइम उसके लिये दहशत से भरा होता।  नरेन अचानक अपने आप को अकेला पाता । कोई उसके साथ खाना बांट कर नहीं खाता था। उसके लिये होती थी मां के हाथ की बनी मोटी रोटी के साथ सूखी सब्ज़ी!... बिल्कुल अकेला!

अब तक नरेन इसे मज़ाक में ही ले रहा था। मगर आज अचानक उसके भीतर कुछ टूट सा गया था। जैकी कहा करती थी कि अंग्रेज़ मर्द और औरतें गर्मियों के मौसम में नंगे पंगे हो कर बदन पर सन-टैन लोशन लगा कर समुद्र के किनारे जा कर सूर्य की धूप में लेटे रहते हैं ताकि नरेन जैसा रंग बना सकें। यीशु ने नरेन को कितनी ख़ूबसूरत त्वचा दी है। आज यीशु भी पाला बदल गये। 

अकेला तो वह आज भी है। भला स्थिति कहां बदली है! वैसे कहने को उसकी पत्नी है, एक पुत्र तथा एक पुत्री है एक पौत्र, एक पौत्री।... दो जुड़वां दोहते भी हैं नरेन के; किन्तु उसके कमरे में उसका साथी उसका अकेलापन ही है। 

रिटायरमेंट के बाद से उसका हर दिन एक सा होता है और हर रात समान। घड़ी की सुइयां भी कभी कभी नरेन के टाइम टेबल के हिसाब से अपना समय ठीक कर लेती हैं। अपने कमरे में अकेला सोता है। सुबह साढ़े पांच उठता है। सबसे पहले अपने लिये एक कप चाय बनाता है। कभी कभी तो इंग्लिश चाय बनाता है सीधे सीधे टी-बैग वाली। मगर कभी कभी नया प्रयोग करता है। कप में दो टी-बैग रखता है और उसपर दूध डाल देता है। उसमें थोड़ा सा चाय मसाला छिड़क देता है। फिर उसे क़रीब पैंतालीस सेकण्ड तक माइक्रोवेव में गरम करता है। उतने में ही दूध अच्छी तरह से गर्म हो जाता है। कप बाहर निकाल कर टी-बैग को चम्मच से अच्छी तरह हिला लेता है।  दूसरी तरफ़ केतली में पानी उबलने के लिये रख देता है। पानी उबलने के बाद, उसे आहिस्ता आहिस्ता कप में डालना शुरू करता है। चाय अच्छी तरह ब्रू हो जाती है। एक बार फिर टी-बैग थोड़ी देर के लिये अच्छी तरह हिलाता है, और अंततः उन्हें निकाल कर फेंक देता है।  अतिरिक्‍त पत्ती और अतिरिक्‍त दूध वाली बिना चीनी की उसकी चाय तैयार हो जाती है। इत्‍मीनान से बैठ कर चाय का मज़ा लेता है। जैकी, उसकी पत्नी, सुबह आठ बजे उठती है। 

चाय की पहली प्याली ख़त्म करने के बाद ही उसके दिन की शुरूआत होती है। आजकल उसे विचित्र सा शौक़ लग गया है। अब वह बी.बी.सी., स्काई या आई टी.वी. नहीं देखता। उसका भारत के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है। उसके साथी अब एन.डी.टी.वी., स्टार न्यूज़ और आज तक का समाचार चैनल बन गये हैं। 

दिल्ली से, एक समाचार बन कर, जान बचा कर भागा था। कितने वर्षों तक मुड़ कर न दिल्ली के बारे में सोचा और न घर के बारे में। करोल बाग़ के रैगरपुरा का रहने वाला। जात- पांत को कभी नहीं मानता था। मगर नहीं जानता था कि बेरवा तो बेरवा ही रहेगा। वह क्षत्रिय नहीं बन सकता। उसे हक़ नहीं कि मीना चोपड़ा से इश्क करे। जब मीना चोपड़ा के भाई उसकी हड्डियों का हिसाब कर रहे थे, तो कोई बचाने नहीं आया था। पुलिस के दो कांस्टेबल उनके साथ थे। पूरे मुहल्ले में किसी की हिम्मत नहीं थी जो उसके साथ खड़ा हो सके। 

उसकी मां चिल्लाए जा रही थी; कहे जा रही थी कि भगवान के लिये उसके बेटे को न मारें, छोड़ दें। अब भगवानजी की भी अपनी समस्या थी, क्योंकि वे नरेन के चक्कर में कन्फ़्यूज़्ड थे। नरेन अपने आपको छोटी जाति का मानता नहीं था। हमेशा कहता, “अरे भैया यह जात पांत भला क्या भगवान जी ने बनाई है?” इसलिये वह कभी छोटी जाति के मंदिरों में भी नहीं जाता था। उसे रविदास मंदिर जाने में कोई रुचि नहीं होती थी। एक ही बात कहता, “भगवान कैसे अलग हो सकता है? जो मीना का भगवान, वही मेरा भगवान। जब हम एक दूसरे को प्यार कर सकते हैं तो भला हमारे भगवान एक क्यों नहीं हो सकते।” 

भगवानों की परेशानी को समझना कौन सा आसान काम था। सोचने की बात यह कि मीना के भगवान तो सवर्णों के भगवान थे। वे भला नरेन को मीना के भाइयों की मार से बचाने क्यों धरती पर आते और रविदास को तो वह अपना भगवान मानता ही नहीं था, उन्हें क्या पड़ी थी। बस, उस पर गालियों, जूतों और डण्डों की बरसात होती रही, “साले रैगर, अपनी औकात में रह। अब अगर हमारी बहन की तरफ़ देखा भी न तो ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ देंगे।” बस वही संवाद जो वह न जाने कितनी फ़िल्मों में सुन चुका था। 

राजकपूर की बॉबी देखने तो दोनों फ़रीदाबाद गये थे। दिल्ली के वितरकों ने फ़िल्म रिलीज़ नहीं की थी। हरियाणा में रिलीज़ हो गई थी। लोग-बाग फ़रीदाबाद, रोहतक और चण्डीगढ़ तक जा रहे थे फ़िल्म देखने।

मगर नरेन की फ़िल्म का पटाक्षेप हो गया था। उसके इश्क का भूत इतनी मार खाने के बाद ऐसा सरपट भागा कि मुड़ कर देखने का नाम नहीं लिया। किन्तु यह भूत नरेन के दिमाग़ पर एक इबारत लिख गया... रैगरपुरा में ज़िन्दगी ख़राब नहीं करना है। चाहे उसकी मोटर साइकल के पीछे उसकी बॉबी बैठे या न बैठे... उसे यात्रा पर निकल पड़ना है... और यात्रा समाप्त हुई लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे के टर्मिनल तीन पर। 

यहां की समस्या दूसरी किस्म की थी। साउथहॉल में रहना नहीं चाहता था। पंजाबियों से पिटाई करवाकर आया था, फिर भला पंजाबियों के मुहल्ले में कैसे रहने की सोच पाता। मन में एक विचित्र सी खींचतान मची थी। एकदम अन्जान इलाके में गोरों या कालों के बीच रहना भी तो आसान नहीं था... अपने पराए लग रहे थे और पराए तो थे ही पराए...  विडम्बना गहरी थी... 

मन में कुछ प्रश्न भी उठे... क्या इस धर्म को छोड़ ही दे जिसने उसे अछूत क़रार कर दिया है?... तो फिर कौन सा धर्म अपनाए। अगर सिख धर्म अपना ले तो कुछ ख़ास करना भी नहीं पड़ेगा। हिन्दू भगवानों को मान कर भी सिख बना रह सकता है। उसके बाद तो साउथहॉल में आसानी से खप भी जाएगा। मगर ऐसा क्यों करे? बुराई तो उसके अपने मज़हब में है; छुआछूत की समस्या से भाग कर जाएगा कहां? उसे बदलाव के लिये लड़ना चाहिये। 
बदलाव लाना क्या इतना ही आसान होता है? सदियों की परम्पराएं, रूढ़ियां क्या इतनी आसानी से हमारा पीछा छोड़ सकती हैं? नये देश के नये शहर में एक सीलन भरा कमरा वैम्बले के इलाक़े में किराये पर मिला था। कुछ भी नहीं बदला था। शायद लंदन के रैगरपुरे में ही पहुंच गया था। एक घर में सात कमरे थे और सातों में अलग अलग किरायेदार। सभी भारतवासी थे। 

उसका संघर्ष अब शुरू हुआ था। साठ पैंसठ जगह अर्ज़ियां भेजने के बाद भी कोई दफ़्तरी नौकरी नहीं मिली।  दिमाग़ का इस्तेमाल किया। एक रेस्टॉरेण्ट में नौकरी कर ली। रेस्टॉरेण्ट का सबसे बड़ा लाभ होता है कि खाना मुफ़्त मिल जाता है। घर में बनाने का कोई चक्कर ही नहीं। वेटर के काम का कोई अनुभव तो नहीं था। मगर बातें बनाने में शुरू से ही तेज़ था। जल्दी ही ग्राहकों में लोकप्रिय होने लगा। वहीं इलियास से मुलाक़ात हुई थी – रेलवे में ड्राइवर। 

इलियास से दोस्ती ने नरेन को बहुत कुछ सिखाया। औरंगाबाद का इलियास लंदन में जैसे नरेन का एकमात्र सगा था। दोनों एक दूसरे को प्यार से ‘बाऊजी’ कह कर बुलाते।  हैरानी तो नरेन को तब हुई जब इलियास ने नरेन के रेस्टॉरेण्ट में आना बन्द कर दिया - “बाऊजी, आपके रेस्टॉरेण्ट का खाना तो अच्छा लगता है, पर यार अपने रेस्टॉरेण्ट में तुम हमारे साथ बैठ कर खाना नहीं खा सकते। अब मेरे परिवार को लगता है कि तुम हम में से ही एक हो।  ऐसा करते हैं कि जिस दिन तुम्हारी छुट्टी होगी तभी हम सब किसी और रेस्टॉरेण्ट में जा कर ऐश किया करेंगे।”

इलियास की तलाक़शुदा बहन रेहाना नरेन को विशेष निगाहों से देखने लगी थी। नरेन को भी लगने लगा था कि “ज़रा सा कुछ हुआ तो है!” फिर याद आई मीना के भाईयों के हाथ हुई पिटाई की। रेहाना तो दोस्त की बहन है। मन ही मन धर्म परिवर्तन के लिये भी तैयार हो गया। इस्लाम का भारत में सबसे बड़ा फ़ायदा यह भी तो है कि वहां का हर मुसलमान धर्म परिवर्तन करके ही तो मुसलमान बना है। सब के सब पहले तो हिन्दू ही थे। अगर एक और हिन्दू अपना मज़हब बदल कर मुसलमान बन जाएगा तो कौन सा आकाश टूट पड़ेगा?

इलियास ने अपनी दोस्ती का फ़र्ज़ निभा दिया और नरेन को रेल्वे में गार्ड की नौकरी दिलवा दी। नरेन का रुतबा बढ़ा... अब रहने के लिये बेहतर जगह के बारे में सोचने लगा। फिर दिल ने यह भी कहा कि रेहाना को साथ में रखना है तो कम से कम दो बेडरूम का घर तो ख़रीदना ही पड़ेगा। 

उसने अपने जीवन की एक और अहम ग़लती कर दी। इलियास से दो हज़ार पाउण्ड उधार मांग बैठा, “इलियास भाई, एक घर देखा है; दो बैडरूम का है; वैम्बले में ही है। अगर आप दो हज़ार पाउण्ड उधार दे दें तो मैं डिपॉज़िट जमा करवा दूंगा। बाक़ी तो मॉर्गेज मिल ही जाएगी। घर अपना हो जाएगा।” इलियास ने उसे जीवन की सबसे बड़ी सीख दे दी, “देखो नरेन, तुम्हें मुझसे पैसे नहीं मांगने चाहिये थे। इससे हमारी दोस्ती में फ़र्क पड़ जाएगा। अगर मैं तुम्हें पैसे दे दूं और तुम पैसे वापिस नहीं कर सके तो हमारी दोस्ती टूट जाएगी और अगर मैं तुम्हें पैसे देने से मना कर दूं तो तुम्हारा दिल टूट जाएगा और हमारी दोस्ती टूट जाएगी। अगर दोस्ती टूटनी ही है तो कम से कम मेरे पैसे तो मेरे पास ही रहने चाहिये। मुझ से पैसे मांग कर तुमने अपनी दोस्ती का गला घोंट दिया है। पैसा हमेशा रिश्तों के लिये घातक सिद्ध होता है।”

इलियास ने उसे मुसलमान होने से बचा लिया था। रेहाना बिना उसकी बने ही पराई हो गई थी। वह दिन रात एक ही बात सोचता - “क्या रेहाना भी मुझे प्यार करती थी?” जीवन में जो कभी अपने से होते हैं, कितनी जल्दी ‘थे’ में परिवर्तित हो जाते हैं। 

पुरानी बातें याद आती हैं, दर्द का अहसास करवाती हैं... दर्द मीठे से शुरू हो कर गहराई तक असर करने लगता है। लंदन में अकेलापन हर मोर्चे पर तंग करता था। रेडियो के नाम पर इल-लीगल चैनल थे।  हिन्दी फ़िल्में केवल साउथहॉल के सिनेमा हालों में दिखाई जाती थीं। टिकटें बहुत महंगी होती थीं। कार अभी थी नहीं। हेडस्टोन लेन स्टेशन के निकट कार्मेलाइट रोड पर घर ख़रीद लिया था। स्टेशन से क़रीब आधा मील दूर। लंदन अंडरग्राउण्ड की बेकरलू लाईन उन दिनों वॉटफ़र्ड जंक्शन तक जाया करती थी। फिर उन्नीस सौ बयासी में बन्द हो कर हैरो एण्ड वील्डस्टोन तक सिमट गई। जीवन के सभी परिवर्तन उसके अनुभवों को पुख़्ता बना रहे थे। 

वैसे रेल्वे के जिस हिस्से में वह काम कर रहा था उसमें इलियास के अतिरिक्त कोई भारतीय मूल का ड्राइवर नहीं दिखाई दिया। बस दो अश्वेत ड्राइवर और थे। बाक़ी सब श्वेत ही थे। उसे अपने रंग का अहसास होने लगा था। आज उसकी पोती ने उसे फिर याद दिला दिया था कि उसका रंग काला है और वह इस समाज का हिस्सा नहीं बन सकता।  

वर्षों पहले जैकी ने नरेन के हाथ को हाथों में लेकर कहा था, “नरेन, तुम्हारे बदन का रंग कितना ख़ूबसूरत है! तुम इंडियन्स की स्किन कितनी ख़ूबसूरत होती है! हम तो पूरे साल गर्मियों का इंतज़ार करते रहते हैं। फिर समुद्र किनारे टैन लोशन लगा कर अपने शरीर के रंग को बदलने के लिये मेहनत करते फिरते हैं। उसके बावजूद तुम जैसा रंग नहीं बना पाते। आइ लव यू एण्ड युअर बॉडी!” अब तो बस उन दिनों की बातें ही याद आती हैं....

नरेन जब जैकी से मिला था तो ब्रिटिश रेल में गार्ड के रूप में स्थापित हो चुका था। वह हैरान भी होता था कि दिल्ली विश्वविद्यालय का स्नातक – विज्ञान स्नातक - और लंदन में कोई भी कम्पनी उसे नौकरी देने को तैयार नहीं थी। उसे जल्दी ही समझ आ गया था कि उसे कोई ऑफ़िस टाइप का काम नहीं मिलने वाला। जब इलियास ने उसे रेल्वे में गार्ड की नौकरी दिलवाने की बात की तो उसने लपक कर ले ली थी।

जैकी भी दौड़ते हुए लपक कर गाड़ी पकड़ने का प्रयास कर रही थी। तब तक नरेन रेलगाड़ी के दरवाज़े बन्द कर चुका था। जैकी ने लगभग मुनव्वल करते हुए नरेन की ओर देखा था। उन आंखों में जो भाव नरेन ने पढ़े उन्होंने उसे जैकी को अपनी ‘कैब’ के दरवाज़े से रेलगाड़ी के भीतर आने को मजबूर कर दिया। वैसे यह रेल्वे नियमों के विरुद्ध था। मगर बहुत से नियम काग़ज़ों में लिखे रहते हैं और समय आने पर हालात के अनुसार निर्णय लिये जा सकते हैं। 

जैकी के कपड़े और उसकी सांसों से आती अल्कोहल की ख़ुशबू ने नरेन को संदेश दिया था कि लड़की किसी पार्टी से वापिस आ रही है और इस विचार से ही घबरा गई है कि यदि यह गाड़ी छूट गई तो अगली गाड़ी एक घन्टे के बाद है। उसे अकेले लंदन यूस्टन स्टेशन पर बैठे रहना पड़ता। देर रात को गाड़ियों के चलने में वक़्फ़ा बढ़ जाता है। मेनलाइन की गाड़ियां तेज़ चलती हैं और पैंतीस चालीस मिनट में यूस्टन से हेमेल हेम्पस्टेड पहुंचा देती हैं। 
नरेन दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ा है। अंग्रेज़ी सेंट स्टीफन कॉलेज के विद्यार्थियों की तरह पटर पटर बोलता है, जिसे ब्रिटेन में क्वीन्स इंग्लिश कहा जाता है। जैकी भी हैरान थी कि यह ‘पाकी’ शक़्ल का लड़का इतनी बेहतरीन अंग्रेज़ी कैसे बोल रहा है। नियमों के अनुसार, होना तो यह चाहिये था कि नरेन गाड़ी के प्लेटफ़ॉर्म छोड़ते ही जैकी को अपनी ‘कैब’ से बाहर जाने को कहता और दरवाज़ा खोल कर उसे मुख्य कम्पार्टमेंट में भेज देता। मगर यह हो न सका और हेमेल हेम्पस्टेड आते आते दोनों अपना अपना फ़ोन नंबर एक दूसरे को दे चुके थे। नरेन के पास एक ही नंबर था जो उसके घर का था जबकि जैकी के पास घर और दफ़्तर दोनों के नंबर थे। यानि कि नंबर के लेन देन में भी नरेन को लाभ ही हुआ कि एक नंबर दे कर दो दो वापिस ले लिये। यह अभी मोबाइल युग नहीं था। 

रेलगाड़ी की यह यात्रा नरेन के दिलो-दिमाग़ पर आज भी अंकित है। लंदन से हैरो, बुशी, वॉटफ़र्ड जंक्‍शन, किंग्स लैंगली और ऐप्सली रुकती हुई रेलगाड़ी हेमेल हेम्पस्टेड पहुंची थी  और दोनों को महसूस हुआ कि तीस मिनट जैसे पंख लगा कर तीन मिनट में ही उड़ गये थे। हेमेल से नॉरथेंपटन तक के स्टेशनों पर नरेन यंत्रवत रेलगाड़ी के दरवाज़े खोलता रहा; यात्रियों को उतारता रहा और दरवाज़े बन्द करता रहा। शैम्पेन जैकी ने पी रखी थी और नशा वह दे गई थी नरेन को। 

दरअसल बातों का सिलसिला शाम की पार्टी से होते होते फ़िल्मों और नाटकों तक पहुंच गया। जैकी को बहुत अच्छा लग रहा था कि कोई रेल्वे का गार्ड फ़िल्मों और नाटकों के बारे में इतनी मैच्योर बातें कर रहा था और नरेन को समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या कह रहा है। जैकी के भूरे बाल, भूरी आंखें और आंखों में तैरते शैम्पैन के लाल डोरे सभी उस पर जादुई असर कर रहे थे।

जैकी की स्लीवलेस काली ड्रेस अपने आप में ग़ज़ब ढा रही थी। कहीं नरेन के मन में भी कुछ होने सा लगा था। जैकी की आवाज़ में शैम्पेन का सुरूर कुछ अधिक ही हस्कीपन ला रहा था। यदि नरेन इस समय ड्यूटी पर नहीं होता यानि कि यूनिफ़ॉर्म में नहीं होता तो हालात ही कुछ अलग से होते। मगर यह भी तो हो सकता है कि यदि वह यूनिफ़ॉर्म में न होता तो ये हालात होते ही नहीं। उसने संयम से काम लिया।  

हेमेल हैम्पस्टेड आते आते उसने जैकी से एक सवाल भी पूछ लिया, “जैकी क्या तुम्हें ठीक से थैंक्स करना आता है?” उत्तर में जैकी ने केवल मदहोश नज़रों की पलकों को आहिस्ता से झुका लिया। नरेन ने माइक उठाया और घोषणा करने लगा, “यात्रियों को सूचित किया जाता है कि अगला स्टेशन हेमेल हैम्पस्टेड है।” पिछले हर स्टेशन पर यह घोषणा करता आ रहा था किन्तु यहां अचानक उसे महसूस हुआ जैसे कि वह यात्रा में अकेला रह जाएगा। गाड़ी लगभग रेंगने लगी थी। अचानक जैकी ने कहा, “हां, मैं जानती हूं कि ढंग से थैंक्स कैसे किया जाता है।” और उसने कसकर नरेन के चेहरे को अपने हाथों में ले कर एक ज़ोरदार चुम्बन उसके होठों पर जड़ दिया। यह सब इतने अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि नरेन के लिये जैसे सब कुछ थम गया था।  

गाड़ी रुकी; उसने अपना लोकल दरवाज़ा खोला; बाहर देखा, बटन दबाया और यात्रियों के लिये दरवाज़े खोल दिये।  जैकी उतरी और जैसे नरेन के पास एक ख़लिश छोड़ गई। नरेन ने बेदिली से दरवाज़े बन्द किये और ड्राइवर के लिये दो घन्टियां बजा कर चलने का संकेत दे दिया। गाड़ी आहिस्ता आहिस्ता गति पकड़ने लगी। जैकी लैम्प पोस्ट के नीचे खड़ी नरेन को तब तक हाथ हिला कर बाय करती रही जब तक नरेन का चेहरा दिखाई देता रहा।  

नरेन ने नॉर्थेम्पटन तक बहुत से सपने देख डाले। भारतीय मानसिकता उसे पल भर में ही जैकी के साथ विवाहित जीवन के स्वप्न दिखाने लगी। वह सोच ही नहीं सकता था कि एक पुरुष और नारी केवल मित्र भी हो सकते हैं। जैकी का गहरा चुम्बन उसे बेचैन किये जा रहा था। संतोष यह था कि वह जैकी को अपना अगले दिन का रुटीन बता चुका था। अगले दिन वह तीन बार हेमेल हैम्पस्टेड से गुज़रने वाला था। एक उम्मीद की किरण मन में कहीं आशा जगा रही थी कि जैकी अगले दिन अवश्य ही हैमेल हैम्पस्टेड रेल्वे स्टेशन पर उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी।

आज तक उसे नींद में सपने आते थे। मगर आज की घटना उसे ऐसे सपने दिखा रही थी कि अब नींद आंखों से ग़ायब थी। क्या इसकी कोई दवा भी हो सकती है? वैसे दवा तो जैकी के पास ही होगी... क्योंकि जैकी केमिस्ट है और बूट्स कम्पनी में ही केमिस्ट का काम करती है। जी चाह रहा था कि काश! जैकी उसके दिल की हालत समझ कर अगले दिन कोई दवा अपने साथ ही लेती आए। 

रात कितनी लम्बी हो सकती है... और अगर अगली सुबह भी रात का ही हिस्सा बन जाए तो भला क़यामत क्या होती होगी।... नरेन की आज फिर दोपहर की शिफ़्ट थी। वह वॉटफ़र्ड डिपो से काम शुरू करता था। दोपहर को साढ़े बारह बजे काम शुरू करना था। आज वह आधा घन्टा पहले ही बुकिंग ऑन पाइण्ट पर पहुंच गया था। एस.डी.एम. ने उसे देखा, फिर अपनी घड़ी देखी, “क्या बात है बंधु, आज इतनी जल्दी? क्या रेल्वे से इश्क हो गया है?”

रेल्वे में अपने साथियों को ‘मेट’ कहने का रिवाज़ है। कुछ लोग इसे ‘मेइट’ कहते हैं तो कुछ अनर्थ करते हुए ‘माइट’ ही कह देते हैं। उसके एस.डी.एम. ‘माइट’ कहने वालों में से है। इन तीनों शब्दों का भावार्थ बंधु ही है। सभी साथियों के नाम याद रख पाना संभव नहीं हो पाता। शायद इसीलिये यह प्रथा शुरू की गई होगी। जब पहली बार उसे किसी ने ‘माइट’ कह कर पुकारा तो उसे लगा कि ‘माइक’ कह कर पुकारा जा रहा है। उसने भोलेपन से जवाब दिया, “माफ़ कीजियेगा मेरा नाम माइक नहीं, नरेन है।” 

सामने वाला कन्फ़्यूज़्ड सा खड़ा नरेन को देखता रह गया। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि नरेन किस ग्रह का निवासी है जो इतनी बेसिक बातें नहीं समझता। मगर एक बात नरेन को सही सही समझ आ चुकी थी कि जैकी कोई आम यात्री नहीं थी। वह उसके व्यक्तित्व पर इतना गहरा असर छोड़ गई है कि उसके व्यक्तित्व का ही एक हिस्सा बन गई है। 

उसका पहला ट्रिप वॉटफ़र्ड से ब्लैचली तक का था। रास्ते में हेमेल हैम्पस्टेड तो पड़ता ही है। किंग्स लैंगली और ऐपस्ली तक वह केवल प्रार्थना करता रहा कि हे प्रभू! हेमेल के प्लेटफ़ॉर्म पर जैकी खड़ी उसकी प्रतीक्षा कर रही हो। गाड़ी हेमेल पहुंची... नरेन ने रेलगाड़ी के दरवाज़े खोले... मगर उसकी निगाहें प्लेटफ़ॉर्म पर ही लगी हुई थीं। जैकी वहां नहीं खड़ी थी। रविवार को जैकी की छुट्टी होती है... उसने कल रात ही बता दिया था। ...आज सुबह भी जैकी का फ़ोन नहीं आया। यानि अभी तक जैकी पर उसके प्यार का रंग नहीं चढ़ा। उदास, थके कदमों से उसने अपने शरीर को अपनी कैब में चढ़ाया और गाड़ी आगे बढ़ा दी।

गाड़ी ब्लैचली से ही वापिस लंदन यूस्टन के लिये रवाना होनी थी। एक बार फिर उम्मीद की लौ ने दिल में जगह बनाई...। मगर सवाल यही दिमाग़ को मथे जा रहा था... क्या जैकी भी उसे याद कर रही होगी?... क्या उसकी ‘किस’ बस एक नशे में धुत लड़की की बेशरमी थी... और  कुछ नहीं? ट्रिंग से गाड़ी के निकलते निकलते उसके मन में कुछ ऐसे विचार भी आने लगे कि अगर नहीं मिलेगी तो क्या फ़र्क पड़ता है! मगर दिल को दबा पाना क्या इतना आसान होता है? 

ब्लैचली से गाड़ी चल पड़ी वापिस लंदन के लिये। चेडिंगटन, ट्रिंग और लेटन बज़र्ड आते आते नरेन ने तय कर लिया था कि अब वह जैकी के बारे में नहीं सोचेगा। अगर उसमें अकड़ है तो मुझे क्या फ़र्क पड़ता है। फिर अचानक जैकी के न आने के कारण खोजने लगा। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि आख़िर वह इतना परेशान क्यों है। अगला स्टेशन फिर से हेमेल हैम्पस्टेड है। क्या अबकी बार.... ?

गाड़ी धीमे धीमे हेमेल हैम्पसेटेड के प्लैटफ़ॉर्म पर रुकी। नरेन ने अपने केबिन का दरवाज़ा खोला मगर प्लेटफ़ॉर्म पर आठ दस लोग ही दिखाई दिये। एक यात्री गाड़ी पर चढ़ने में अतिरिक्त समय ले रहा था। नरेन ने मुंह में सीटी डाली और बजा दी। यात्री दरअसल किसी को छोड़ने आया था। उसे रेलगाड़ी में चढ़ना ही नहीं था। नरेन ने दरवाज़े बंद किये। कुछ पलों के लिये वह यह भी भूल गया था कि वह हेमेल हैम्पस्टेड स्टेशन पर खड़ा है और उसे जैकी को ढूंढना भी है। उसने दरवाज़े बन्द करने का बटन दबाया और गाड़ी चलाने के लिये दो घंटियों का सिग्नल दिया। वह वापिस अपनी कैब में चढ़ने ही वाला था कि पीछे से आवाज़ सुनाई दी, “क्या मुझे लंदन ले चलेंगे?”

जैकी को सामने देख कर नरेन गड़बड़ा गया। जल्दबाज़ी में उसे अन्दर खींचा। और गाड़ी चल पड़ी। “तुम कहां छिपी खड़ी थीं?... मुझे लगा कि तुम आओगी ही नहीं।”

“तुम मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे?... सच?”

“मुझे तो अपने पहले ही ट्रिप पर उम्मीद थी कि यहां दिखाई दे जाओगी।... वैसे आज कहां जाने का इरादा है?”

“सच सच बता दूं?”

“सच तो बताना ही पड़ेगा। अब हम दोनों के बीच झूठ के लिये तो कोई स्थान ही नहीं।”

“तो नरेन साहब, सच तो यह है कि मैं आपके साथ लंदन जाऊंगी और वापिस आप ही की गाड़ी से लौट भी आऊंगी। मैं केवल आपसे मिलने आई हूं। आप चाहेंगे तो बातचीत भी हो जाएगी।... फिर मुझे लगा कि यदि कल रात थैंक्स करने में कोई कमी रह गई हो तो... आज.... !” शरारत जैकी की आंखों से टपक टपक कर जैसे नरेन के दिल पर गिर रही थी। उसने आगे बढ़ कर नरेन के हाथ को अपने हाथ में ले लिया। नरेन ने देखा कि जैकी के गोरे हाथ के सामने उसका अपना हाथ ख़ासा गहरे रंग का लग रहा था।

.... आज एंजेला ने भी तो यही याद दिलाया था कि वह अपने परिवार से अलग दिखता है। वैसे तो उसकी अपनी बेटी शीला ने भी बचपन में यही सवाल पूछा था। मगर उस समय यह सब लाड़ का एक हिस्सा लगता था। नासूर नहीं बना था। आज वह घर के अकेले कमरे में अपने आपसे बातें करता रहता है। उसके मित्रों का घर में स्वागत नहीं है। जैकी, शीला और जै तीनों की जैसे एक टीम बन गई है... 

मगर उन दिनों जैकी का प्यार इतना शिद्दत से भरा था कि नरेन को चर्च की सीढ़ियां चढ़नी ही पड़ीं। उसने अपने माता पिता को विवाह पर नहीं बुलाया था। मन ही मन चाह भी रहा था कि अपने मां बाप को और पूरे रैगरपुरे को बता सके कि देखो आख़िर मैंने अपनी जात से मुक्ति पा ली है। आज मुझ से कोई नहीं पूछता कि मेरी ज़ात क्या है। मेरे महान भारत के रहने वालो, अपनी संस्कृति और मूल्यों की दुहाई देने वालो देखो – तुम्हारे देश में प्यार करने पर पिटाई हुई थी और यहां गोरों के देश में प्यार के बदले में स्वर्ग की अप्सरा सी सफ़ेद; रुई के फाहे से अधिक मुलायम पत्नी मिलती है। नरेन के विद्रोही स्वभाव और जैकी के प्यार के जादू के बाद भला कैसे हो सकता था कि विवाह न हो... बस हो गया। हनीमून के लिये दोनों कहीं बाहर नहीं गये। लेक डिस्ट्रिक्ट में एक सप्ताह बिता कर अपने विवाहित जीवन की यात्रा की शुरूआत की थी। 

“नरेन, मुझे लगता है कि ये दिन बस यूं ही चलते रहें। हमारा हनीमून कभी ख़त्म न हो... यह कोई ख़्वाब है या हक़ीकत...! सामने देखते हो... यह वर्ड्सवर्थ का घर है। उसका कहना था कि जो यहां रह कर कवि नहीं बना, वह जीवन में कभी भी कवि नहीं बन सकता।”

“बचपन से सुनते आए थे कि ज़मीन पर अगर कहीं जन्नत है तो कश्मीर में है। मगर यहां आकर लगता है कि जन्नत की ब्रांचें कई जगह खुली हुई हैं।”

“तुम इतने रोमांटिक माहौल में भी मज़ाक कर लेते हो... ! कमाल हो तुम भी।”

“देखो अब तो तुम्हें अपनी सारी ज़िन्दगी इस जोकर के साथ ही बितानी है। जोकर का सिर पत्थर का बना है – हेडस्टोन... !”

जैकी भी नरेन के साथ रहने के लिये उसके हेडस्टोन लेन वाले घर में आ गई थी। वहां से उसका बूट्स का स्टोर भी बहुत दूर नहीं था – बस तीन ही स्टेशन दूर - वॉटफ़र्ड हाई स्ट्रीट। वहां से करीब छः से सात मिनट का पैदल रास्ता। 

जैकी को पियानो बजाने का शौक़ था और वह अपने साथ अपना पियानो भी नरेन के घर ले आई थी, “तुम्हें एक बात बताऊं नरेन; तुम भारतीय बहुत ज़िम्मेदार किस्म के लोग होते हो। तुम्हारी उम्र में अधिकतर ब्रिटिश बच्चे तो भटक रहे होते हैं और तुमने दो बेडरूम का घर भी बना लिया है! मुझे तुमसे रश्क होता है... प्यार भी बहुत आता है।”

शर्माने की बारी नरेन की थी। फिर अचानक जैकी के पियानो को देख कर बोला, “जैकी क्या तुम इस पर हिन्दी गानों की धुनें भी बजा सकती हो?... हिन्दी गाने सुने बहुत दिन हो जाते हैं।... वैसे इसे हारमोनियम की तरह भी बजा सकते हैं क्या? मुझे हारमोनियम पर कुछ पुराने गाने बजाने आते हैं। आधा अधूरा सा सीखा हूं।”

“बजा कर दिखाओ न। यह ठीक से हारमोनियम का आनंद तो नहीं देगा मगर तुम काफ़ी हद तक हिन्दी गाना बजाने का सुख ले सकते हो।”

नरेन ने सबसे पहले नागिन की बीन बजाने का प्रयास किया और बीन बज भी गई। उसका हौसला बढ़ा। उसने तलत महमूद और सलिल चौधरी  का गाना निकाला – इतना ना मुझ से तू प्यार बढ़ा, कि मैं इक बादल आवारा...। चौंक पड़ी जैकी, “तुम यह कैसे जानते हो?”

“यह एक हिन्दी फ़िल्म का गीत है।”

“अरे नहीं! यह तो बीटोव्हिन की चालीसवीं सिम्फ़नी है।... रुको मैं तुम्हें पूरी सुनाती हूं।” जैकी बैडरूम में गई और वहां से अपने म्यूज़िक्ल नोट्स की डायरी उठा कर लाई। उसने कुछ पन्ने पल्टे और बैठ गई पियानो के सामने रखे स्टूल पर। कुछ ही पलों में नरेन के सामने उसके प्रिय संगीतकार सलिल चौधरी की पोल खुलने लगी। मगर उसे जैकी का पियानो बजाना बहुत पसन्द आ रहा था। लगता था जैसे कि पियानो नरेन को रिझाने की कोशिश कर रहा हो।  

ऐसे ही ख़ूबसूरत पलों का नतीजा थे शीला और जै का जन्म। बच्चों के नाम भी कुछ सोच विचार के बाद ऐसे रखे गये कि वे दोनों संस्कृतियों के लग सकें। शीला नाम अंग्रेज़ लड़कियों का भी होता है तो जै भारतीय लड़कों का भी। जैकी और नरेन भी नहीं चाहते थे कि बच्चों के नाम रखने में कोई अड़चनें पैदा हों। जैकी और उसकी मां कभी यह बर्दाश्त नहीं कर पाते कि बच्चों के नाम भारतीय हों और वहीं नरेन को भी डर था कि उसके पहले से नाराज़ माता पिता कहीं बच्चों के अंग्रेज़ी नाम सुन कर पूरी तरह से रिश्ता ही न तोड़ लें।

“देखो नरेन मैं तुम्हारी दिक्क़त समझ सकती हूं। तुम सोचते होगे कि तुम्हारे माता पिता बच्चों के नामों को लेकर क्या महसूस करेंगे। मेरे पास उसका हल है। मैं तुम्हें एक किताब ख़रीद कर ला देती हूं जिसमें अंग्रेज़ बच्चों के नाम दिये होंगे। जो नाम तुम्हें ऐसे लगें कि दोनों मज़हबों में समान हैं, तुम बता दो।  मुझे वे नाम रखने में कोई दिक्क़त नहीं होगी।” जैकी की बात सुन कर नरेन को उस पर बहुत प्यार आया। कितनी समझदार है जैकी। उसके पास हर मर्ज़ की दवा मौजूद है। उसका कितना ख़्याल रखती है।

मगर आज जीवन कैसा बदल गया है। वह बुढ़ा गया है। उसके कमरे का बल्ब फ़्यूज़ हो गया है। तीन दिन से बल्ब नहीं बदला जा सका। सोचता है आज स्वयं ही बदल ले। जीवन के भीतर तो अंधेरा है ही, मगर बिना बल्ब के जीवन बाहर से भी अंधेरा हो रहा है। कभी कभी सोचता है कि अभी तो इस घर की मल्कीयत में उसका नाम भी है। दरअसल पहला नाम उसी का है। जैकी का नाम तो दूसरे नंबर पर है। मगर उसे कभी महसूस नहीं हो पाता कि यह घर उसका भी है। उसकी गाड़ी पटरी से ऐसी उतरी की पटरी के साथ साथ घिसटती चली गई। अब तो पटरी भी क्षतिग्रस्त हो चुकी है।  

क्षतिग्रस्त तो नरेन का सारा जीवन हो चुका है। वह समझ नहीं पा रहा कि ग़लती कहां हो गई। जैकी और उसमें जो आपसी समझ थी वह कहां खो गई। जैकी प्रोटेस्टेण्ट क्रिश्चियन है। रूढि़वादी भी नहीं है। सिर पर दुपट्टा ओढ़कर नरेन के साथ मंदिर भी जाती थी। फिर अचानक सब कैसे बदल गया? जैकी की पहली प्रेगनेन्सी में भी दोनों ने कितनी समझदारी से एक दूसरे का साथ दिया था। जचगी के दौरान नरेन हमेशा जैकी के आराम के बारे में ही सोचता था। मदर केअर और जॉन्सन अण्ड जॉन्सन के बच्चे और जच्चा के सभी प्रकार के कपड़े लत्ते और अन्य सामान ख़रीदे थे नरेन ने।  

अपनी मां की ही तरह रुई के फाहे सा सफ़ेद जै जब पैदा हुआ तो नरेन की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।  पिता बनने का अहसास जैसे उसके जीवन को संपूर्ण कर रहा था। जैकी की आंखों में ख़ुशी की चमक थी। उसने नरेन की तरफ़ देखा। उसकी आंखें जैसे कह रही थीं कि देखो मैंने तुम्हें जीवन का सर्वश्रेष्ठ तोहफ़ा दे दिया है। बिना बोले नरेन की आंखों ने जैकी की आंखों की भाषा में ही उसे उत्तर भी दे दिया था।

अभी जै पांच महीने का ही था, “सुनो नरेन, मैं सोच रही थी कि या तो हम बस एक ही बच्चे से ख़ुश हो जाएं और अधिक बच्चों के बारे में सोचें ही नहीं। लेकिन अगर हमें एक या दो बच्चे और चाहिये तो हमें जल्दी जल्दी बच्चे करने होंगे।” जैकी ने अपने दिल की बात नरेन के सामने रख दी।

“मगर क्यों?... अगर हम बच्चों में स्पेस रखेंगे तो बच्चे पालने में आसानी होगी।” नरेन ने अपनी राय सामने रखी। 

“लुक नरेन, मैं अब तक काम से छुट्टी पर हूं। अगर हम दूसरा बच्चा भी जल्दी कर लें तो मैं अपनी छुट्टी जारी रखूंगी और दोनों बच्चे साथ साथ पल जाएंगे। जब ये दोनों क्रेश में रहने लायक हो जाएंगे, मैं दोबारा काम शुरू कर दूंगी। इस तरह ब्रेक के बाद हमारा जीवन एक बार फिर पटरी पर लौट आएगा।” जैकी ने अपना हिसाब किताब पहले से ही पूरा कर रखा था। 

नरेन के पास जैकी की बात मानने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था। वैसे भी तो इसका अर्थ यही था कि जैकी के साथ निर्बाध प्यार के पल। न कोई डर न कोई सुरक्षा कवच। वैसे नरेन एक बात नोट कर रहा था कि जैकी जब रात को उसके पास सोने आती तो इतनी थकी होती कि बिना कुछ ख़ास बातचीत के हल्के हल्के ख़र्राटे लेने लगती। नरेन बस उसे निहारता रहता। अगर वह उससे लिपट कर सोने का प्रयास करता तो वह करवट बदल कर दूसरी ओर को हो कर सो रहती।

एक बात और थी कि जै की तबीयत हल्की सी भी ख़राब होती तो जैकी सीधी अपनी मां के घर पहुंच जाती। लगता था जैसे जैकी का परिवार नरेन के घर से कहीं दूर बसता जा रहा था। नरेन को अकेलापन चुभने लगा था। वह अपनी शिफ़्ट से वापिस आते हुए टेक-अवे खाना ले आता या फिर फ़्रोज़न खाने को ओवन में गर्म करके खा लेता। कई कई दिन बीतने लगे कि दोनों मियां बीवी इकट्ठे समय बिता पाते। नरेन ज़ाहिर तौर पर सोचने पर मजबूर हो गया था कि क्या उसे दूसरा बच्चा पैदा करना चाहिये। 

किन्तु सवाल यह है कि क्या यह उसके बस में था? जैकी का दो पल प्यार से बात करना काफ़ी था और वह दोबारा प्रेगनेंट हो गई। नरेन के लिये फिर वही मॉर्निंग सिकनेस के नज़ारे। जैक के जन्म से पहले जैकी को उल्टी होने से नरेन के मन में भिन्न भिन्न विचार आते थे। कुछ उसके दिल को छू जाते तो कुछ उसे परेशान करते। वह जैकी के साथ हो रहे प्रत्येक अनुभव को स्वयं अनुभव करना चाहता था। उसे अपनी पत्नी में हमेशा अपनी प्रेमिका दिखाई देती थी। उसने तय कर लिया था कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आने वाली दिक्कतों को कभी भी अपने रिश्तों पर हावी नहीं होने देगा। 

क्या ऐसा हो सकता है? आप जिन हालात से बचना चाहते हैं, वे साये की तरह आपके पीछे लग जाते हैं। इन सायों को देखा नहीं जा सकता, बस महसूस किया जा सकता है। नरेन की मां ने भारत से देसी घी, गोंद, और मेवे डाल कर बहू के लिये पंजीरी बना कर भेजी। अब नरेन के परिवार की यही परम्परा रही है कि कम से कम चालीस दिन तक जच्चा इस पंजीरी का सेवन करती है। मगर जैकी के परिवार की परम्परा भला नरेन के परिवार की परम्परा के आगे कैसे घुटने टेकती। नरेन की हर बात का जवाब एक ही होता, “नरेन, मेरी मां है न! उसे जीवन का अनुभव है। वह संभाल लेगी पूरी स्थिति को। तुम चिन्ता मत करो।” 

जैकी की मां ने स्थिति को कुछ ऐसा संभाला कि जैकी और जै दोनों उसके जीवन से कुछ कटते से गये और उस पर अब दूसरी प्रेगनेन्सी हो गई। कुछ आवाज़ें नरेन को सुनाई देतीं और जैकी अपनी मां के घर पहुंच जाती...  

“अबकी बार मेरी तबीयत कुछ ज़्यादा ही ख़राब रहने लगी है।”

“.....मैं जी.पी. की सर्जरी से सीधे ममी के घर चली जाऊंगी।”

“तुम समझ सकते हो कि इस हालत में ममी से बेहतर मेरा ख़्याल और कौन रख सकता है।”

नरेन को अपने पुत्र के साथ संबंधों का कोमल तंतु जोड़ने का अवसर ही नहीं मिलता था। जै अपने पिता की ओर सहमी नज़रों से देखा करता कि यह अजनबी सा चेहरा मेरे जीवन में क्यों और कहां से आ जाता है। इस में कुछ दोष नरेन की दाढ़ी का भी रहा होगा। हुआ कुछ यूं कि उसके चेहरे पर कुछ फुंसियां निकल आईं। शेव करने से कट लग जाने का डर रहता। बस सोचा कि कुछ दिनों के लिये शेव करना बन्द कर दिया जाए। सांवला रंग - ऊपर से दाढ़ी ! भला जै उससे कैसे न डरता। 

उसकी त्वचा के रंग को देख कर जैकी अक्सर कहा करती थी, “नरेन, किताबों में पढ़ा करती थी टॉल, डार्क एण्ड हैण्डसम। कितनी भाग्यशाली हूं मैं। किताब का हीरो जैसे पन्नों से निकल कर मेरे जीवन में प्रवेश कर गया है।” मगर आज टॉल और हैण्डसम कहीं खो गये थे। अपने परिवार के लिये वह केवल डार्क बन कर रह गया था।

जै ने कुछ झिझकते हुए अपनी मां से कहा होगा, या फिर शायद सीधे सीधे कह दिया होगा। नई पीढ़ी में पुराने लिहाज़ भला कहां बचे हैं। नई पीढ़ी और वह भी पश्चिमी परवरिश में पलने वाली... अवश्य ही सीधे सरल ढंग से कहा होगा... झिझक तो जैकी की आवाज़ में थी, “नरेन, एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगे?”

नरेन जानता है कि जब कभी कोई व्यक्ति ऐसा सवाल पूछे और ख़ास तौर पर जैकी पूछे तो बात बुरा मानने वाली ही होती है। मगर बुरा मानने से होगा क्या? बहस में जीतना तो जैकी को ही है। इसलिये बेहतर है कि उसे अपनी बात कर लेने दी जाए। “कहो। ” एक सपाट सी आवाज़ उभरी।

“मैनें तुम्हें परसों की छुट्टी लेने को कहा था न; क्योंकि जै की रिपोर्ट लेने स्कूल जाना है। मुझे लगता है कि तुम अपनी छुट्टी कैंसिल कर दो। मैं अकेली ही जा आऊंगी।” 

“मगर तुम... यार, मैं भी तो जैक की टीचर से बात करना चाहता हूं। जैक के दोस्तों से मिलूंगा ; उनके मां बाप से मिलूंगा। यही तो एक मौक़ा होता है एक परिवार की तरह स्कूल जाने का।”

“तुम समझने की कोशिश करो न। जै को परेशानी होती है।”

“किस बात की परेशानी होती है। क्या मेरे स्कूल जाने से परेशानी होती है? वह तो पढ़ाई में अच्छा भला है और टीचर भी उसकी तारीफ़ करती है... फिर परेशानी काहे की?“

“प्लीज़ तुम ख़ुद ही समझ जाओ न...!”

“कमाल करती हो जैकी। कैसे समझ जाऊं। तुम मुझसे कह रही हो कि मेरे स्कूल जाने से जै को परेशानी होती है और चाहती हो कि समझ भी जाऊं।”

“देखो मेरे कहने से रुक जाओ न। क्यों अपना मूड ख़राब करते हो?”

“मुझे पता तो होना चाहिये न कि आख़िर हुआ क्या है। मेरे बेटे को मेरा उसके स्कूल आना क्यों गवारा नहीं है।”

“वो क्या है कि उसके स्कूल में अधिकतर बच्चे गोरे मूल के हैं। जब तुम स्कूल जाते हो तो बाद में बच्चे जै का मज़ाक उड़ाते हैं।... आई एम सॉरी, मैं कहना नहीं चाहती थी।... मगर तुम समझ ही नहीं रहे थे।”

“किस चीज़ का मज़ाक उड़ाते हैं बच्चे?... मेरे रंग का?...”

अब तक नरेन इसे मज़ाक में ही ले रहा था। मगर आज अचानक उसके भीतर कुछ टूट सा गया था। जैकी कहा करती थी कि अंग्रेज़ मर्द और औरतें गर्मियों के मौसम में नंगे पंगे हो कर बदन पर सन-टैन लोशन लगा कर समुद्र के किनारे जा कर सूर्य की धूप में लेटे रहते हैं ताकि नरेन जैसा रंग बना सकें। यीशु ने नरेन को कितनी ख़ूबसूरत त्वचा दी है। आज यीशु भी पाला बदल गये। 

नरेन को कभी भी शेक्सपीयर का चरित्र ‘ओथेलो’ समझ नहीं आया था। वह दिल खोल कर उसकी बुराई करता और शेक्सपीयर की भी। उसकी आलोचना की सीमा तय नहीं थी। वह इस नाटक को नाटक ही नहीं मानता था। अब उसे धीरे धीरे ओथेलो का दर्द समझ आने लगा। अन्जान गोरे लोगों के बीच अनाम जीवन जीने का मर्म समझ में आने लगा। कहते हैं न कि महायुद्ध करके सबको पछाड़ते हुए विवाह करना तो आसान है मगर रोज़ रोज़ घटने वाली छोटी छोटी लड़ाइयों से पार पाना बहुत कठिन होता है। 

कठिनाइयां बढ़ रही थीं नरेन के लिये। जैकी का परिवार एक शत्रु शिविर की तरह उभर कर सामने आ रहा था। वह चाह कर भी उस शिविर के भीतर नहीं जा सकता था। उन्हें शत्रु कहना भी उचित नहीं होगा... दरअसल वह उस शिविर में अजनबी था – अन्जान। 

नरेन इसे आतंकवाद समझ बैठा। पारिवारिक आतंकवाद! अपने ही परिवार से दूरी बढ़ने लगी।  अकेलापन उसका मित्र बनता जा रहा था। अचानक दिमाग़ में बात आई कि चलो अपने परिवार को भारत ले चलता हूं। वहां माता-पिता से जैकी और बच्चे मिलेंगे तो उनके प्यार से कुछ न कुछ बदलाव अवश्य ही आएगा। जैकी से बात की....

“नरेन मैं तुम्हारी बात समझ सकती हूं। लेकिन इसका उल्टा असर भी हो सकता है। देखो बच्चे तुम्हारे माता पिता से पहली बार मिलेंगे। उन्हें भारत की गर्मी रास नहीं आने वाली। अगर वे वहां बीमार हो गये या उनको मलेरिया हो गया, तो उनके दिमाग़ में हमेशा के  लिये वहां की एक निगेटिव इमेज बन जाएगी।... आगे जो तुम्हारी मर्ज़ी।”

“जैकी, तुम अपनी मां से करीब करीब रोज़ाना मिलने जाती हो। क्या मैंने तुम्हें कभी रोका है?”

“नहीं तो।”

“क्या मेरा इतना भी हक़ नहीं बनता कि मैं अपने बच्चों को अपने मां बाप से मिलवाने ले जा सकूं। क्या इनको नहीं पता चलना चाहिये कि इनके दादा दादी भी हैं, बुआ और चाचा भी हैं?“

नरेन की आंखों का दर्द जैकी को समझ में आ गया था। उसने भारत के बारे में इतनी  बातें अपनी सहेलियों से सुन रखी थीं कि वह किसी भी तरह इस ट्रिप से बचना चाह रही थी। वहां की गर्मी, मच्छर, मलेरिया, धूल-मिट्टी, इनमें से बहुत सी चीज़ों के बारे में तो नरेन से ही सुना करती थी। मगर पहली बार अपने पति के सामने निरुत्तर हुई थी। फिर भी उसने एक विचार पति के सामने रखा, “देखो नरेन, यदि हम सब तुम्हारे गांव जाने की बजाए तुम्हारे माता पिता को यहां बुला लिया जाए, तो हमें बस दो ही टिकट ख़रीदने पड़ेंगे। हम ऐसा करते हैं कि उन्हें यहां बुला लेते हैं और यहां उनकी सेवा करेंगे।”

“जैकी, मेरी बहन भी है और भाई भी। मैं उन सबसे नहीं मिला। एक लम्बे अर्से से मैं अपने वतन नहीं गया। अपने परिवार के साथ जाने, वहां अपने परिवार को अपनों से मिलवाने का एक सुख होता है। मैं चाहता हूं कि सब देखें मेरी कितनी सुन्दर पत्नी है, कितने प्यारे से बच्चे हैं। मैं स्वयं भी चाहता हूं कि जा कर देखूं वहां सब कैसे हैं। फिर हमारे बच्चों को भी पता चले कि उनका कोई ददिहाल भी है।”

अब जैकी क्या जवाब दे? नरेन ज़िद न करने के लिये मशहूर है। जैकी जैसा कहती है, वैसा होने देता है – अपनी पसन्द नापसन्द ज़ाहिर नहीं होने देता। उसने एक नया शौक़ पैदा कर लिया है - पढ़ने का शौक़। हिन्दी के उपन्यास पढ़ने लगा है। आजकल रामकथा पर आधारित उपन्यास पढ़ रहा है। जहां कहीं से पता चलता है कि अमुक लेखक ने रामकथा पर कुछ लिखा है, बस मंगवा लेता है अपने मित्रों से। दरअसल उसके इलाक़े की लायब्रेरी में हिन्दी की किताबें उपलब्ध नहीं हैं। सारा अंग्रेज़ी इलाका है। वह हैरो की लायब्रेरी का भी मेम्बर बन गया है। वहां हिन्दी के उपन्यास हैं मगर न जाने क्यों वहां स्तरीय उपन्यास नहीं दिखाई देते। वहां पेपरबैक टाइप नॉवल मिलते हैं जो कि रेल्वे स्टेशनों और बस अड्डों पर मिलते हैं। वैसे कहानियां भी पढ़ता है। उसे भीष्म साहनी, यशपाल, मंटो, इस्मत चुगतई, बेदी, और प्रेमचंद पढ़ने में आनन्द आता है। उसका मानना है कि उपन्यास केवल एक बार नहीं पढ़ा जाता। पहली बार में केवल कौतूहल शांत होता है। यदि उपन्यास को समझना हो तो कम से कम दो या तीन बार पढ़ना ही चाहिये। जैकी तो अंग्रेज़ी बैस्टसेलर पढ़ कर ख़ुश हो लेती है। 

ख़ुशी कैसे उड़नछू हो सकती है, नरेन को जल्दी ही समझ में आ गया। पूरी तैयारी हो गई थी। टिकटें ख़रीद ली गई थीं। सभी के लिये उपहार ले लिये गये थे। बच्चों के काम की सभी वस्तुएं भी ली गई थीं। हीथ्रो हवाई अड्डे के टर्मिनल तीन पर पहुंच भी गए थे। वहां पहुंच कर पता चला कि रात को बेमौसमी बर्फ़ पड़ने के कारण हवाई अड्डा ही बन्द पड़ा है। अभी कुछ ही घन्टे हुए होंगे कि अचानक उद्घोषणा सुनाई दे गई कि हवाई अड्डे की कर्मचारी यूनियन हड़ताल पर चली गई है। दो दो बच्चों को संभालते नरेन और जैकी को समझ ही नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए। एअरलाइन के अधिकारियों से बात करने का प्रयास हो रहा था। उन्हें बताया गया कि पास के एक होटल में उन्हें रखने का प्रबन्ध किया जा रहा है। जब हड़ताल ख़त्म होगी और बर्फ़बारी रुकेगी, तब तय होगा कि वे कब भारत जा सकते हैं।

एअरपोर्ट की अफ़रा तफ़री और ख़राब मौसम ने रंग दिखाया और जै को बुख़ार हो गया। जैकी ने अपने पर्स में से थर्मामीटर निकाला और जै की बग़ल में लगा दिया। नरेन और जैकी दोनों के चेहरों पर तनाव साफ़ दिखाई दे रहा था। बग़ल में थर्मामीटर मुंह के मुक़ाबले थोड़े लम्बे अर्से तक रखा जाता है। क़रीब दो मिनट तक लगाए रखा। देखा एक सौ दो डिग्री बुख़ार, “अगर बग़ल में एक सौ दो है तो सही तौर पर तो एक सौ तीन बुख़ार होगा।” जैकी की परेशानी स्पष्ट रूप से ज़ाहिर हो रही थी। - “अब क्या किया जाए?”

“चलो वापिस घर चलते हैं। इस हालत में जै का विमान की यात्रा करना ठीक नहीं रहेगा। रास्ते में कुछ हो गया, तो क्या करेंगे।” और पूरा परिवार वापिस घर की ओर चल दिया। भारत दूर था, दूर ही बना रहा; दूरियां बढ़ती रहीं। इस बीच मां चल बसी।... वह फिर भी नहीं जा सका। वह जानता था कि पिता ने सबके सामने क्या कहा होगा, “अरे ऐसी औलाद का होना न होना बराबर है। जो मां के मरने पर न आया, वो बेटा काहे का?.. इन ससुरे पंजाबियों ने हमारे बेटे को हमसे छीन लिया। जो मार देते तो हम तसल्ली कर लेते कि मर खप गया। यह तो ऐसी कील है जो रोजाना मन में चुभे है।”

यह कील हर पल नरेन के अपने दिल में भी चुभती रहती है। इस बुढ़ापे में सोचता रहता है। पुरानी कहावतें जिन्हें वह हमेशा बेकार की बक़वास कह कर उड़ा दिया करता था, आज सच्ची लगने लगी हैं। कहावत पुरानी होते हुए भी आजतक सटीक है -  बोए पेड़ बबूल का.... जब उसने स्वयं ही अपने मां बाप का साथ नहीं दिया तो अपने बच्चों से कैसे उम्मीद कर सकता है कि उसके साथ खड़े हो जाएं। 

हमेशा पैसे वह स्वयं कमाता था मगर उसका हिसाब किताब जैकी ही रखती थी। बच्चे भी मां से ही पैसे मांगते थे। सच तो यह है कि उसे अपने ही बच्चों का उच्चारण समझ नहीं आता था। बच्चे किस स्कूल में जाएंगे, किस कॉलेज में पढ़ेंगे सब मां ही तो तय करती थी। उसके हिस्से में एक बहुत अज़ीम काम आता था – कुढ़ना। वह अकेले बैठ कर कुढ़ता रहता था। वैसे जब जब बच्चे तरक्की करते दिखाई देते तो मन ही मन ख़ुश भी हो लेता। मगर वह जानता था कि इन बच्चों की परवरिश में उसका अपना कोई हाथ नहीं है। बस वह एक बैंक है जिसमें इकतरफ़ा कार्रवाही होती है यानि कि वहां से केवल पैसा निकाला जाता है कभी जमा नहीं करवाया जाता। न तो धन ही जमा होता है और न ही भावनाएं। 

अब उसे गायत्री मंत्र में रुचि होने लगी थी। बच्चे कब चर्च जाने लगे कुछ ख़बर ही नहीं हुई। जैकी तो उसके साथ मंदिर भी चली जाया करती थी। मगर अब तो उन बातों को भी बीते एक अर्सा हो गया है। इस सबके बावजूद उसके मन में कभी नहीं आया कि वह जैकी को छोड़ दे। वह जानता था कि जैकी उसे प्यार करती है। शायद वह और कुछ मानना ही नहीं चाहता था। 

जै के जन्म के समय उसके मन में तीव्र इच्छा ने जन्म लिया था कि उसका गोरा चिट्टा पुत्र हिन्दी बोले। सोच कर ही रोमांच हो उठता था। उसने जैक को बुला कर अपने पास बिठाया, “देखो बेटा, आपके दादा दादी जो भाषा बोलते हैं उसे हिन्दी कहते हैं। कल को तुम अपनी दादी से मिलोगे तो बात करने के लिये हिन्दी आना ज़रूरी है।... आओ तुम्हें...”

“दादा-दादी क्या होता है?” नरेन को ज़ोर का झटका लगा था।

“बेटा पापा के पापा को कहते हैं दादा और पापा की ममी को कहते हैं दादी यानि कि ग्रैण्डमां।”

“मगर मेरी तो ग्रैण्डमां है ना। ममी की ममी मेरी ग्रैनी है ना।”

नरेन जानता था कि वह हारने वाला है। मगर उसने हिम्मत नहीं छोड़ी। चेहरे पर ग़ुस्सा नहीं आने दिया, “बेटा हर बच्चे के दो दो ग्रैण्ड-पेरेन्ट्स होते हैं। दादा-दादी होते हैं पापा की तरफ़ से और नाना-नानी होते हैं ममी की तरफ़ से। आप अपनी नानी से मिले हो। हम दादी की बात कर रहे हैं। दादी हिन्दी बोलती है। आओ तुम्हें हिन्दी सिखाता हूं।”

जैकी के कान खड़े हो गये, “अरे नरेन जै के खाने का टाइम हो गया है। वह अब अपना चिकन पास्ता खाएगा। तुम फिर कभी हिन्दी पढ़ा लेना। अभी तो जै बहुत छोटा है।”

अपमानित नरेन एक बार फिर बिना लड़ाई लड़े ही हार गया था। रात को वह एक और प्रयास करने के बारे में सोचने लगा, “जैकी, तुम्हें नहीं लगता कि मेरे और जै के बीच कोई रिश्ता नहीं पनप पा रहा?”

“देखो नरेन, तुम अभी भी पास्ट में जी रहे हो। तुम अब ब्रिटेन में रहते हो। तुम्हें यहीं के बारे में ही सोचना चाहिये। क्या तुम्हारा रिश्ता जै से तभी बन पाएगा अगर जै हिन्दी सीखे तो?”

“तुम्हें कभी महसूस होता है जैकी, कि मेरा भी कोई कल्चर है, कोई मज़हब है?” 

“तुम उसी कल्चर और मज़हब से भाग कर इस मुल्क़ में आए थे, नरेन। बच्चों को अगर दूसरी भाषा सीखनी ही है तो फ़्रेंच या जर्मन सीखेंगे। उनके लिये नौकरी के नये आयाम खुलेंगे। हिन्दी केवल भावनात्मक फ़ण्डा है। इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं।”

“ऐसा तुम कह रही हो जैकी? तुमने तो मुझे प्यार किया है!”

“याद रखो नरेन, बच्चों का भविष्य भावनाओं से नहीं सच्चाई का सामना करके होता है।”

सच्चाई का सामना तो कर रहा था नरेन। उसके सामने जैकी के व्यक्तित्व की नई नई परतें खुल रही थीं। 

जैसे जैसे बच्चे बड़े होते जा रहे थे, जैकी की मसरूफ़ियत बढ़ती जा रही थी। एक ही छत के नीचे रहते हुए भी पति पत्नी में कभी आत्मीय बातचीत नहीं हो पाती थी। बच्चों के जन्मदिन भी तभी मना लिये जाते जब वह अपनी नौकरी पर गया होता। घर वापिस आकर पता चलता कि वह पुत्री के जन्मदिन का केक खा रहा है।

बचपन में कभी कभी केक खाया करता था। मगर चॉकलेट केक वह कभी नहीं खा पाता। जै और शीला तो चॉकलेट केक ही पसन्द करते हैं। भारत में जब कॉलेज में पढ़ता था तो लंदन के हैरो  स्कूल और कॉलेजों के बारे में सुन सुन कर गौरवान्वित महसूस करता था। सोचता कि नेहरू जी जब वहां पढ़ते होंगे तो कैसा माहौल रहता होगा। बच्चों के कॉलेज जाने का समय आया तो बहुत उत्साहित था नरेन। बहुत लाड़ से बोला, “जैकी, हम जै को हैरो वील्ड कॉलेज में ही भेजेंगे। मुझे इस नाम से एक अपनेपन का रिश्ता सा लगता है।”

“नरेन, आपको यहां के एजुकेशन सिस्टम के बारे में कुछ पता तो है नहीं। यह काम मुझ पर छोड़ दीजिये। मेरी कोशिश होगी कि जै को सेंट डॉमिनिक्स में हैरो ऑन दि हिल पर एडमिशन मिल जाए। हमारे इलाक़े का बेस्ट कॉलेज है।... हां एक बात और... यह कॉलेज आपके नेहरू जी के स्कूल के बहुत क़रीब है। सिर्फ़ कॉलेज के नाम में हैरो नहीं है। मगर हैरो ऑन दि हिल पर ही है।”

एक बार फिर बेवक़ूफ़ बना। बच्चे ना तो उसे कुछ बताते हैं और ना ही कुछ पूछते ही हैं। टेनिस खेलने जाना हो तो जैकी; पियानो सीखना हो तो जैकी; ट्यूशन टीचर के लिये भी जैकी। उस पल को कोसने लगा जब अपनी पगार के लिये जॉयंट अकाउण्ट का नम्बर अपने दफ़्तर को दिया था। अगर उसका अकाउण्ट अलग से होता तो कम से कम पैसे मांगने के बहाने ही बच्चे और जैकी उससे अदब से बात करते। जैकी के सामने एक बार बिछना शुरू किया तो बस बिछता ही गया। अब क़दम वापिस लेने की कोई गुंजाइश नहीं थी। 

बच्चे बड़े हो कर अपने अपने घरों में बस गए। घर में केवल पति पत्नी ही रह गये मगर दोनों के बीच का अजनबीपन गहराता गया।

उसे हैरानी नहीं हुई जब उसे अपने ही बच्चों के विवाह में एक मेहमान की तरह बुलाया गया। लड़की पसन्द करने जैसा तो कोई मौक़ा ही नहीं मिलने वाला था। बच्चों ने अपने होने वाले जीवन साथियों को बस मां से मिला दिया और हो गई हां। उसने सोचा भी कि क्या विवाह में उसके बदन का रंग आड़े नहीं आएगा। अब तो ब्रिटेन में रंगभेद ख़त्म होने की कगार पर है। शायद सबको आदत हो गई थी। उसे महसूस हुआ कि अंग्रेज़ों के मन में एक अपराध बोध बस गया था। उन्होंने सदियों तक पूरे विश्व में राज किया था। आज वे अपने तथाकथित गुनाहों का हर्जाना भर रहे थे। पूरी दुनियां के शरणार्थी जैसे इसी मुल्क़ में आकर बसना चाहते थे। देश के नाम पर एक छोटा सा द्वीप, कितनी आसानी से इतने लोगों को नया घर प्रदान कर देता है। यहां हर मज़हब के मानने वाले अपना अपना पूजा-स्थल बना सकते हैं। काश यह सब विश्व के तमाम देशों में संभव हो पाता। फिर भला ऐसे देश में उसके परिवार ने उसे अकेला क्यों छोड़ दिया है। 

आज के अकेलेपन में मुकेश, रफ़ी, किशोर कुमार के गीतों का ही सहारा था। पुराने जीवन के बारे में सोचता है तो पारसमणि फ़िल्म का एक गीत दिमाग़ को मथने लगता है - ‘वो जब याद आए, बहुत याद आए / ग़म-ए-ज़िन्दगी के अन्धेरे में हम ने / चराग़-ए-मुहब्बत, जलाए बुझाए।’ एक दिन सोचने लगा आख़िर यह गीत लिखा किसने होगा। उसे ले दे कर पांच छः गीतकारों के नाम याद थे। कई दिनों तक उलझता रहा और सोचता रहा। दो तीन मित्रों को दिल्ली में फ़ोन करके पूछा। भला किसके पास समय था ऐसे बेवक़ूफ़ी भरे सवाल के लिये। एक मित्र ने सुझाया कि भाई मेरा तो एक नया दोस्त बना है; उसका नाम है मिस्टर गूगल! बस तुम भी गूगल और फ़ेसबुक से जुड़ जाओ। परिवार की याद ही नहीं आएगी। 

फ़ारूख़ कैसर का नाम जानने के लिये लैपटॉप ख़रीदा। इंटरनेट से दोस्ती की और अपने लिये एक काल्पनिक दुनियां का निर्माण कर लिया। अब पत्नी और बच्चों के चेहरों की याद भी नहीं आती थी क्योंकि फ़ेसबुक के चेहरे ही उसका परिवार बन गए। सुबह, दोपहर और शाम के अलग अलग मित्र। बिना एक दूसरे को जानते हुए भी अपने अपने दुःख सुख साझा कर लेते थे। उसके भीतर का कवि जो कि लेक डिस्ट्रिक्ट में रह कर भी सक्रिय नहीं हो पाया, वह अचानक फ़ेसबुक के मित्रों के बीच अपने मन की बात कहने लगा। उसने कुछ ग़ज़लें भी कह लीं। फ़ेसबुक ने उसे नया जीवन प्रदान कर दिया था।

यू-ट्यूब पर पुराने गाने न केवल सुन ही सकता था बल्कि देख भी सकता था। जो फ़िल्में वह जीवन में नहीं देख पाया, अब उन सभी फ़िल्मों का आनन्द अपने लैपटॉप पर उठाता। कभी कभी सोचता भी था कि वह क्यों अपनी पत्नी के साथ रह रहा है? उसे हासिल क्या होता है? मगर फिर जल्दी ही अपने आप को समझाने लगता। अपने पिता की कही हुई बात उसके कानों में गूंजने लगती - “जीवन साथी का कोई विकल्प नहीं होता। विवाह का अर्थ है निभाना।” जब पिता ऐसी औरत के साथ निभा सकते थे जिससे विवाह से पहले कभी कोई मुलाक़ात तक नहीं हुई थी, उसने तो जैकी के साथ प्रेमविवाह किया था। 

यह भी सच है कि उसे जैकी से कोई शिकायत नहीं है... वह स्वयं ही तो पीछे हटता चला गया। उसने कोई प्रयास ही नहीं किया कि बच्चों के साथ जुड़ सके। उसके भीतर के रैगरपुरिये ने कभी उसे यह हिम्मत ही नहीं करने दी। वह बस सोचता रहा, सोचता रहा और पीछे हटता रहा। उसके हाथों से उसकी ज़मीन फिसलती जा रही थी। वह अपने गोरे चिकने बच्चों के सामने हीन महसूस करता रहा। उनके स्कूल जाने से बचता रहा। उनके मित्रों के सामने कभी नहीं आया। क्या पूरे का पूरा दोष उसकी पत्नी और बच्चों का ही है?

उसकी सोच उसके अकेलेपन के बहुत काम आती है। वह पीछे मुड़ कर अपने जीवन की समीक्षा करता है। सोचता है 'परिवार' रचने से पहले मनुष्य बर्बर, जंगली था । परिवार की संकल्पना ने ही उसे जानवर से इन्सान बनाया... समाज की रचना की... यदि मनुष्य से उसका परिवार ही छिन जायेगा तो फिर आख़िर कैसे जिएगा मनुष्य ? उसके पास अपनी पत्नी है; एक पुत्र है एक पुत्री है; पोता पोती और दोहते भी हैं; एक अच्छा भला घर भी है; फिर उसका परिवार कहां है?

तेजेन्द्र शर्मा

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