गीताश्री की कहानी 'दमनक जहानाबादी की विफल-गाथा' में एक कथाकार का परिश्रम और हिम्मत दोनों हर दृश्य में मौजूद हैं।
वरिष्ठ साहित्यकार मृदुला गर्ग ने इसपर कहा -
प्रिय गीता, तुम्हारी कहानी “दमनक.... “ वनमाली कथा में पढ़ी। कैसा असहायता का रुलाता भाव मन में छोड़ जाती है। और आज का एकदम सही यथार्थ। इससे छुटकारा कैसे मिलेगा? मुझे नहीं लगता मिलेगा।

दमनक जहानाबादी की विफल-गाथा
लेखिका: गीताश्री
दुबला -पतला छरहरा, सांवले रंग का दमनक जहानाबादी अपनी स्कूटी की चाबी घुमाते हुए बात करता है। आंखें बहुत चमकती हैं। टी-शर्ट और जींस पहने, बातें करते हुए पैर के एक अंगूठे से ज़मीन की मिट्टी खोदते रहना उसकी आदत है। शायद जब बहुत तनाव में होता होगा या अतीत कुरेद रहा हो कोई।
ऐसा नहीं था दमनक जैसा इन दिनों दिखाई देता है।
एक बच्चा जो अपने बाबा को कौव्वे उड़ाता देख कर अपने खेत में दिन भर बिजूका बन कर खड़ा रहने लगा था। खेत पर ने मचान पर बैठे बाबा उसे शाम को गोद में लेकर नीति कथाएं सुनाते। उन्हें लगता कि एक ईमानदार और साहसी बच्चा उनके घर में पैदा हुआ है। आगे चल कर कुछ कमाल कर देगा। बाबा ने कहा था - "दमनक की तरह साहसी बनेगा मेरा पोता, राजा से आंख मिला कर बातें करेगा। कुछ हो जाए, राजसेवा मत करना। हमारी पुरखों की हड्डी गल गई, तुम मत करना।" तब बच्चे को ये बात समझ में नहीं आई थी, तब उसने बाबा से पूछा भी नहीं कि ये दमनक कौन है और उसके नाम पर उसका नाम क्यों रखा। उसे तो अपना नाम दामो ही पसंद है। मेला में जादू देखने जाने के लिए कपड़ा फाड़ रुदन किया था, तभी अम्मा बोली कि इसका नाम जादूगर कर दो। वो दुनिया पर जादू करने का स्वप्न देखना चाहता था, लेकिन सपने कब मनवांछित आते हैं। सपने फरमाइशी होते तो बच्चा अपने लिए सपने चुनता। वो तो हर रात किसी बुरे स्वप्न से जग कर रोने लगता था। बिस्तर पर डर के मारे पेशाब कर देता था। सोने से पहले अम्मा इसी डर से पेशाब करा कर सुनातीं थी लेकिन इतने बुरे सपने देखता कि नींद में ही सब कांड कर डालता। नींद में बौखलाये पिता उसे लात मार देते। अम्मा उठ कर कपड़े बदलतीं। वह चौतरफा भय और शर्म से घिर कर दुबक जाता। बुरे स्वप्न तो अब भी देखता था, लेकिन उसके अर्थ तलाशने लगता। उन्हें याद रखता और दोस्तों से चर्चा करता। अम्मा ने कहा था, बुरे सपने का प्रभाव कम होता है, किसी से बता दो तो।
ग्रेटर नोयडा में बसने के बाद भी एक रात उसने देखा - गांव का वही पुराना बरगद का पेड़, जिसके पास रात में जाने से लोग डरते हैं। लोग बताते हैं कि उस पर भूतों का बसेरा है। रात में भूत वहां फुसफुसाते हैं, वहां नर पिशाच रहते हैं। सपने में उस बरगद के नीचे उसका चार साल का बेटा नींद में है, उसकी छाती पर पैर रख कर नर पिशाच खड़ा है...। बेटा नींद में ही बड़बड़ा रहा है - "भागो...भागो...।" नर पिशाच उससे कुछ कह रहा है...वो सुनाई नहीं दे रहा। दमनक जादूगर बन कर वहां पहुंचता है, नर पिशाच से भिड़ जाता है।
"मैं तुझे भगा कर रहूंगा...देखना...ये वृक्ष हमारा है...तुम भूतों का डेरा नहीं...खाली करो इसे...छोड़ो...मेरे बेटे को...।"
बड़बड़ाते हुए उसकी नींद खुली, पत्नी को मानो आदत है, पिता-पुत्र की बड़बड़ाहट की। अभी बाप बड़बड़ा रहा है, थोड़ी देर में चार साल का बच्चा भी कुछ इसी तरह से बड़ब़ड़ाएगा, रोएगा, चीखेगा। जादूगर बड़े धैर्य से उठ कर बेटे को सीने से चिपका लेगा। डर के मारे कभी-कभी पेशाब कर दे तो पत्नी को नहीं जगाता, खुद ही उसके कपड़े बदल देता है। अपने पिता से लात खाया हुआ बेटा जब पिता बना तो वह परिवर्तित हो चुका था। वह अपने बेटे को बता देना चाहता था कि उसका बाप सचमुच का जादूगर है। एक दिन साबित करके रहेगा।
सबसे पहले अपने बेटे के सपने बदलना है। हर रात वो बड़बड़ाते हुए जागता है, रोता-बिलखता है, उस पर काबू पाना है। बच्चा अपने सपने भी ठीक से नहीं बता पाता। उसके दुःस्वप्न का अनुमान उसकी बड़बड़ाहट से पता लगा लेता है- बागो...बागो...कमती आई...कमती आई...।
आधी रात को बेटे को सीने से चिपकाए दमनक का कलेजा चाक हो जाता। उसका वश चलता तो बेटे के सपने में घुस कर सारा मंज़र बदल देता। वह सिर्फ़ अनुमान लगा सकता था कि बेटे ने क्या देखा होगा। वही मंज़र जो हक़ीक़त में आए दिन देखता है और उसे देखते ही बेटा हाथ में अपने खिलौने लेकर दौड़ पड़ता है, बागो बागो कमती आई...कमती आई...। उसकी तोतली जुबान कांपती रहती है, नन्हें पैरों से दौड़ता है, मां को इशारे करता है, सामान उठाओ...भागो...।
नन्हीं-सी जान उस मंज़र को कैसे देखता है। दमनक याद करता है-
एक आवाज हांक देती है सबको-
"कमेटी आई, कमेटी आई, कमेटी आई..." एक शोर! धूल का बड़ा-सा गुबार… एक सजा-धजा बाज़ार!
कुछ मिनटों के बाद नीरव शांति। गुबार छंटा तो किचमिचाती आँखों के सामने एक अलहदा मंज़र था।
किसी बच्चे की नई नीली चप्पल, कुछ संतरे और सेब, केले की आधी पलटी हुई एक रेहड़ी, बालों के बैंड का एक बंडल, यकायक ही मैले हो गये कई नए कपड़े.. ऐसा लग रहा था जैसे विनाश का एक अंधड़ सजे-धजे बाज़ार को अपने पैरों तले रौंद निकल गया था। इसी विनाश की काट खोजने में दमनक का कलेजा कट रहा है। उसका जादू, हाथ की सफाई कुछ भी काम नहीं कर रहा है। जब से वह इस पटरी बाज़ार में दूकान लगाने लगा है, हर महीने एक बार सबके नाम से पर्ची आती है, तो कभी कमेटी नाम की आंधी आती है और पूरे बाज़ार को सूना कर जाती है। एक शोर-सा उठता है और देखते ही देखते पूरा मंज़र बदल जाता है।
उसकी बंगाली बीवी अपने तीन साल के बेटे को लेकर ऐसे भागती है, मानो उससे कोई उसका बच्चा छीनने आ रहा हो। इस समय चुपचाप बाज़ार की दूसरी तरफ फुटपाथ पर बैठा दमनक मार्केट कॉम्पलेक्स को देख रहा है, जो पटरी बाज़ार के सूना होते ही रौनक से भर उठे। उनके यहां गहमागहमी बढ़ गई है। उनके स्टाफ बाहर आकर पटरी की तरफ झांक रहे हैं। रेडीमेड कपड़ों की दूकान का मोटा भाई कुछ ज़्यादा ही प्रसन्न हैं और पान चबाता हुआ थूकने के लिए बाहर आवाजाही कर रहा है। दमनक उन सभी दुकानदारों की खुशी महसूस कर पा रहा है। उनकी राह के रोड़े थे ये पटरी वाले, जो उनके ग्राहकों को उन तक जाने से पहले रोक लेते थे।
दमनक को याद आया अपना इलाका जहां उसने सड़क निर्माण योजना में बेईमानी करते, फलते-फूलते ठेकेदारों को देखा तो उसका विश्वास पक्का हो गया कि बिना बेईमानी के जीना मुश्किल है इस दुनिया में। और तो और, अपने गांव की नदी पर बने पुलिया को पार करते समय जब उसे भरभरा कर ढहते देखा तो उसका ईमान से हमेशा के लिए विश्वास उठ गया। वो एकमात्र पुलिया थी जो गांव को शहर से जोड़ती थी। दियारा में बसे गांवों की यही विडम्बना है कि या तो नाव की सवारी करें या उस नव-निर्मित पुलिया से गुजरें।
उस दिन टूटी हुई पुलिया पर खड़े होकर उसने प्रण किया था कि आगे वो ईमानदार बन कर जिएगा। अब कोई कांड नहीं करेगा, नयी जगह में नये रुप में, नयी छवि के साथ खड़ा होगा। जैसे ही ये संकल्प किया, उसे भीतर तक महसूस हुआ कि वो तो हमेशा से ईमानदार बनना चाहता था और उसके मन में तत्काल यह भी विचार आए कि बिना भ्रष्ट हुए कोई भी सिस्टम चल ही नहीं सकता। इसी द्वंद्व में उलझा हुआ, उस रोज नाव से नदी पार करते हुए उसने ईमानदारी और बेईमानी की मिली जुली कई दीर्घकालीन योजनाएं बनाईं। नयी जगह पर आकर उसने ईमानदारी का फार्मूला अपनाया और उसे छोटी-मोटी सफलता मिलने लगी थी। वो इससे खुश और परम संतुष्ट हो सकता था लेकिन कैसे होता। किसी के सुधरने या बदलने से हालात कहां बदलते हैं। हालात ने एक बार फिर उसे महाभ्रष्ट बनने के कगार पर खड़ा कर दिया था। ईमानदारी से यह उसका पहला विद्रोह था, क्रांति नहीं। उसके भीतर मानो जादू जग रहा था। उसके भीतर भ्रष्टाचार के सुप्त लावे फूट-फूट कर बाहर निकलने लगे थे।
लावे के ताप से दहकता हुआ दमनक माथे पर हाथ रख कर सोच में डूब गया। उसे लड़ाई का कारण मिल गया था। उसे अपने बेटे को बुरे स्वप्न से बचाना होगा। उसे पटरी बाज़ार बचाने की भी चिंता हुई। बेटा उसका निमित्त बनेगा। कमिटी नामक टंटे को खत्म करने का उपाय जल्द से जल्द ढूंढना ही होगा।
उसकी आंखों के सामने बेटे का मासूम, डरा हुआ चेहरा घूमने लगा था। अपने जैसा बचपन नहीं देना चाहता था उसे। उसकी भावनाओं से जुड़ कर उसे समझना चाहता था। उसके सामने कोई मुल्क नहीं, कोई बाज़ार नहीं, उसका बेटा ही उसका संसार था। अपने संसार को बचाने के लिए वो किसी भी हद तक जा सकता है।
कभी-कभी खुद पर खीझ होती कि स्वार्थी की तरह सोच रहा है। पटरी वाले दोस्तों का एहसान कैसे भूल सकता है। गांव से जब कांड करके भागा था तब शहर में इन्हीं दोस्तों ने पनाह दी थी। यहां आकर वो दमनक महतो से दमनक जहानाबादी हो गया था।
नोएडा में पहले से मौजूद साथियों ने उसे पनाह दी, रास्ता दिखाया और उसे पटरी बाज़ार में छोटी-सी जगह दिला दी। जगह क्या कहिये, बमुश्किल एक चौकी लगाई जा सकती थी। लगभग सत्तर विक्रेताओं में एक दमनक भी था। उसके ठीक बगल में एक बंगाली बाबू राजमा-चावल, कढ़ी-चावल, मैगी वगैरह का ठेला लगाते थे। उनके यहां बहुत भीड़ उमड़ती थी। लंच के समय आसपास के ऑफिस के लोग, मजदूर, राहगीर सब आते थे। उसे पटरी बाज़ार की सबसे अच्छी जगह मिली थी। एक घना वृक्ष था, उसके नीचे छांव रहती थी। कुछ ईंटें जोड़ कर उसके ऊपर लकड़ी का पटरा बिछा दिया था, जो बेंच जैसा बन गया था। उसकी बिक्री जब बढ़ने लगी तो उसने कुछ प्लास्टिक की कुर्सियां भी डाल दीं। उसके काम में उसकी बीवी मोनाली और युवा बहन मिष्टी भी हाथ बंटाते थे। दमनक ने रेडीमेड टी शर्ट और जींस बेचना शुरु कर दिया था। उसका काम भी चल निकला। वह रम गया अपने काम में। उसका मन लगने की वजह थी, मिष्टी से उसकी पहले दोस्ती हुई, फिर प्यार हुआ और बंगाली बाबू ने दोनों का विवाह करा दिया। एक ही शर्त पर कि उसकी बहन गांव नहीं जाएगी, यहीं पटरी पर दूकान संभालेगी। या तो उसको अलग से दूकान खोल कर देना पड़ेगा। दमनक कुछ भी करने को तैयार था। बड़ी मुश्किल से तीस साल की उम्र में उसका घर बस रहा था, उम्र में बहुत छोटी किंतु कामकाजी लड़की मिल रही थी, इस उपनगर में आराम से ज़िंदगी चला लेगा। रोटी की कमी नहीं पड़ेगी।
मिष्टी ने उसका बड़ा साथ दिया। जिन दिनों वो नयी दूकान बनाने के लिए कर्ज में डूब गया था तब मिष्टी रात दिन मेहनत करके उसे हौसला और ताना दोनों देती थी। दमनक कई बार हताश होकर माथा पकड़ लेता तो मिष्टी ही संभालती थी।
"मैं तुझे सुखी ज़िंदगी नहीं दे सका मिष्टी..."
ऐसा कहते हुए माथे पर जोर से मुक्का मारता।
"हमारी चिंता मत करो, यहां हाथ पर हाथ रख कर बैठने से घर नहीं चलेगा। पैसा तो चाहिए न! पैसा गांव भेजने के लिए चाहिए, कल हमारा परिवार बड़ा होगा,घर बनाना होगा। कौन देगा? कहां से आएगा? जो पैसे थे, सब खर्च हो गए, ऊपर से कर्ज और चढ़ रहा है, चाहे जैसे हो, पैसे का इंतजाम करना ही होगा?"
"सही कह रही हो...कर्ज या तो कमाना सीखा देता है या भगाना। हमदोनों कर रहे हैं...।"
मिष्टी का हाथ थामते हुए उसने भरोसा दिया। मिष्टी का चेहरा सख्त, तना हुआ था।
तब से वह भाग ही रहा है...कमाने के तरीके ही ढूंढ रहा है। अब उसे कुछ और भी ढूंढना है। अपने बचाव का तरीका, चाहे जिस रास्ते मिल जाए।
कमेटी के डर से भागते-छिपते थक चुका है। बड़े दुकानदारों की झिड़की सुन कर आजिज़ आ चुका है। मिष्टी की अपेक्षाएं उसकी आत्मा को छलनी कर चुकी हैं। और तो और, तीन बरस का बेटा उसकी आंखों के सामने जिस तरह तड़पता है, वो असहनीय हो चला है। उसके बच्चे को एक नया रोग लग गया था। वह रोग जिसका कारण और निदान दोनों उस पटरी बाज़ार में थे। जहां वह अपना भविष्य देखता था। वह अपने बेटे को ऐसी विरासत नहीं सौंपेगा जहां वो हर महीने इसी तरह नींद से उठ कर भागता फिरे। उसके दिमाग़ से ये ख़ौफ़ निकालना होगा। कुछ करना पड़ेगा। अपने नेता वाले दिमाग का इस्तेमाल करना होगा। वह नींद से उठ कर भागते हुए अपने बेटे को देख कर तड़प उठा था। मिष्टी उसे बांहों में भर कर ले गई थी, उसकी आंखें भी भरी हुई थीं। और किसी ने नहीं देखा, सब अपने सामान समेटने में लगे थे। कमेटी की ख़ौफ़ज़दा आंधी में देखते ही देखते वह इलाका, वह बाज़ार सूना हो गया था। हर आंधी अपने निशान छोड़ जाती है, कभी बाहर, कभी भीतर। इस बार भीतर गहरी चोट कर गई है। उसे रह रह कर बच्चे की उनींदी, भयग्रस्त आंखें और मिष्टी की लबालब भरी आंखें याद आ रही थी। सब चले गए थे अपने सामान के साथ।
अकेले बैठे दमनक ने रोहित बाबू को फोन करने की सोची। उनका ख़याल आते ही दिल में एक ढाढ़स बंधा। वे ज़्यादा पढ़े लिखे साब हैं, कोई रास्ता सुझाएंगे। वे इतने पैसे और रसूख वाले होकर भी उनके बीच आकर बैठते हैं, समय गुजारते हैं, सुबह की चाय और अख़बार के साथी हैं। वे आते हैं तो मजमा लग जाता है। सबका हाल पूछते हैं, सबसे बाते करते हैं, देश दुनिया की। रिटायरमेंट के बाद वे यहीं आकर बस गए थे। वे रोज आते, वहां टूटी हुई बेंचें, गंदी कुर्सियां, पत्थर के मोढ़े जैसे कुछ पड़े होते, वहां वे आराम से पैर फैला कर बैठ जाते। ये जगह उन्हें साफ़़ सुथरे सोफे से भी ज़्यादा साफ़़ लगती जहां वे बेहिचक बैठ जाते। जबकि बंगाली बाबू या उसकी बीवी उसे साफ़़ करने आते। वे उन्हें रोक देते। कभी अपने रुमाल से झाड़ लेते या कभी अख़बार घर से लेते आते, उसका विज्ञापन वाला पन्ना या कोई ख़बरहीन पन्ना फाड़ कर साफ़़ कर लेते।
जिस दिन न आते, दमनक समेत कई दुकानदारों को लगता कि सुबह सूनी है। कोई न कोई उन्हें फोन करके पूछ लेता। जाड़ा, गर्मी, बरसात हर मौसम में वे आते थे। उनके सामने कभी कमेटी नहीं आई। वे सुबह आते थे। कमेटी का शोर हमेशा दोपहर में या शाम में उठता जब दूकान लगाने का वक्त होता या ग्राहकों के आने का वक्त होता, तभी कमेटी का कहर टूटता। उनके ग्राहक भी हैरान, परेशान हो कर लौट जाते।
दमनक ने उन्हें फोन मिलाया।
"बाबू साब, मेरी मां कहती थी, बेटा अच्छा कर्म करो, मौत अच्छी मिलेगी। लेकिन ये संभव नहीं लगता। अच्छी मौत की फिक्र में ज़िंदगी खराब जिएं। अब तक सोचते थे, कोई गलत काम नहीं करेंगे। गलत रास्ते पर नहीं चलेंगे...सीधा रास्ता चुनें, ईमानदारी से दूकान लगाएं, कमाने लगे।"
रोहित बाबू ने उसके कंधे पर हौले से हाथ रखा।
"हालात पहले जैसे नहीं रहे। देखते नहीं हो, माहौल कितना बदल गया है...। फिर भी कोई रास्ता निकलेगा, इतने हताश मत हो...। "
दमनक अपनी ही रौ में था। जैसे उसे अपनी ज़िंदगी का सारा दुख बहा देना है। किसी प्रिय से बता देने पर दुख आधा होता है।
"हर समय ख़ौफ़... जिस तरह हमको बीवी बच्चा देखता है न, बाबू साब...बस मत पूछिए...हम बदल गए हैं। अब आप देखिएगा...हम कैसे रास्ता निकालते हैं...बस आप आथोरिटी में किसी अफसर को जानते हैं तो हमारी पैरवी कर दीजिए, किसी तरह से ई बाज़ार बचा लीजिए...अकेले हमारा ही नहीं, सत्तर लोगो को परिवार पलता है...बड़ी मेहरबानी होगी...हम लोगो से जो बनेगा, हम सब आपके लिए करेंगे..."
दमनक उनके सामने गिड़गिड़ा पड़ा। रोहित बाबू ने बड़ी बेबस़ी से उसे देखा-
"कुछ नहीं हो पाएगा ऐसे समय में। सबकी औकात दो कौड़ी की कर दी गई है। किसी अफसर की औकात नहीं रह गई है कि खुद से कुछ करे। जो भी थोड़ा अलग सोचते हैं, उन्हें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ना पड़ रहा है। तुम्हें क्या पता कि उन लोगो के साथ क्या हो रहा है। हर समय ख़ौफ़ में रहते हैं, जाने मुसीबत किस रुप में दबोच ले। अंधा युग है अंधा युग...जहां असहमति की आवाजें दबाई जाती हैं...।"
दमनक ने उन्हें हैरत से देखा। रोज हंसते-बोलते, बतियाते रोहित बाबू भी इतनी बड़ी बात बोल गए। हो सकता है, खुद भी कहीं परेशान हों। ऊपर से तो लगता नहीं। उसके दिल को जरा-सी तसल्ल्ली ये हुई कि सिर्फ़़ वही परेशान नहीं है, उसके जैसे तमाम लोग अलग-अलग तरह के दुख झेल रहे हैं, बस वे अपने दुख को बाहर ज़ाहिर नहीं होने देते हैं।
कुछ दुख भीतर ही रहे तो बेहतर। अनावृत होकर वे और दुख देते हैं।
"तुम एक काम करो...शायद हालात बेहतर हों। सत्तर दुकानदारों का एक एसोसिएशन बनाओ। फिर ऑथोरिटी से बात करो। वे अलग जगह अलॉट कर सकते हैं या फिर यहीं पर बने रहने दें...। एकजुट हो जाओ। भागने के बजाय समूह में सामना करो...और तुम्हें नीचे से ऊपर तक मैनेज करना होगा। कमर कस लो...सफलता मिलेगी।"
"हमलोगो की बात अफसर सुनेगा कहां, भगा देगा। आपकी पहुंच है ऊपर तक। आप ही मिलवा देते तो..."
दमनक गिड़गिड़ाने लगा था।
"दमनक...तुम तो थोड़े पढ़े लिखे हो, राजनीतिक कार्यकर्ता भी रहे हो अपने सूबे में। तुम देख रहे हो न, देश के हालात बदल गए हैं। पहले तुम लोग दारोगा, इंजीनियर लेबल पर मैनेज कर लेते थे, अब सबकुछ डिजिटल इंडिया के तरीके से चलेगा। तुम भ्रष्टाचार का डीएनए समझो...पहले भी था, जरा अलग तरीके से। अब व्यवस्थित हो गया है।"
"हम समझे नहीं रोहित बाबू...हमको ई टंटा हमेशा के लिए खत्म करना है। सपने में भी हम डर जाते हैं। नींद में बड़बड़ाते हैं। मेरी बड़बड़ाहट सुन कर मेरा बच्चा जाग जाता है, उठ कर अंधेरे में ही भागने लगता है। हमसे देखा नहीं जा रहा है...कलेजा फटता है।"
दमनक रोने-रोने को हो आया। उसकी आंखों के सामने बच्चे का डर कर उठ जाना, भागने लगना...तुतली जुबान में चिल्लाना...भागो...भागो...कमति आई...।
वही बैठे-बैठे उसने कलेजा मसोस लिया। अपने बेटे को विरासत में पटरी दूकान नहीं सौंपेगा। चाहे इसके लिए किसी गलत रास्ते पर चलना पड़े। रोहित बाबू ने उम्मीद बढ़ा दी थी।
"दमनक...सुन रहे हो...मैं तुम्हें बताना नहीं चाहता था, देश का माहौल बदल गया है। सरकारी कामकाज भी एक ख़ास संगठन के कब्जे में चला गया है। हर जगह उनके लोग तैनात हैं।"
"हम सिर्फ़़ सुझाव दे सकते हैं,, आगे तुमको हैंडल करना है। बेहतर हो, पहले तुम अपना समूह तैयार करो, ये लोग समूह की ताकत भी परखते हैं, तुम लोग इंसान नहीं, वोट बैंक में जमा सिक्के हो।"
रोहित बाबू उठ कर टहलने लगे थे। दमनक उनके पीछे-पीछे। पहली बार उनको इतनी गंभीरता से बात करते देख रहा था। अब तक वे आते, अख़बार पढ़ते, चाय पीते, सबका हाल-चाल लेते और चले जाते।
बेचैनी से टहलते हुए रोहित बाबू बोले जा रहे थे- "सत्ता पक्ष के पास डराने के कई रास्ते हैं। विरोधी पक्ष का नेता नींद में भी डर कर उठ जाता है। काली छायाएं मंडराती रहती हैं।"
रोहित बाबू के होंठों पर तिक्त मुस्कान थी। दमनक उन्हें घूरता रहा। उसे झकझोर कर तेजी से निकल गए अपनी सोसायटी की तरफ।
कुछ देर वह सन्नाटे में डूबा खड़ा रहा।
कुछ दिनों तक वह रोहित बाबू की बातों पर मंथन करता रहा। उसे ग्रुप बनाने की ज़रूरत समझ में आई। बिना एकजुटता के कुछ संभव नहीं। बहुत मंथन, सोच-विचार के बाद उसके भीतर से एक नया मनुष्य बाहर निकला जो रोहित बाबू के बताए उन सारे रास्ते पर चलने लगा, जिनसे बाज़ार बचाया जा सकता हो। दमनक के पास अपनी पुरानी नेतागिरी का अनुभव था। जिला से लेकर, ब्लॉक, थाना स्तर तक की अचूक नीतियां और दांवपेच उसे मालूम थीं। इस बार उसका पाला अलग ही तौर तरीके से पड़ा था।
लेकिन इससे पहले कि वह कोई कदम उठाए, सिर पर पुरानी बला आ कर खड़ी हो गई।
"सर जी, आप अपनी नौकरी बचा रहे हैं, हम अपना पेट बचा रहे हैं। थोड़ा तो साथ दीजिए।"
ऑथोरिटी के इंजीनियर से बात करते हुए दमनक बुरी तरह झल्लाया हुआ था।
थोड़ी देर पहले एक पार्टी का छुटभैया नेता उससे सौदा करने आया था। वो सीधा-सीधा बोल कर गया कि एक साल बाद चुनाव होने वाले हैं। उसका बाज़ार बचा लेगा, अगर वो बाज़ार के प्रवेश पर उसकी पार्टी का झंडा लगाने दे। उसके संरक्षण में रहेगा तो सुरक्षित रहेगा। राज्य में सरकार उसी पार्टी की है, आगे भी पार्टी वापसी करेगी। बस वो उनका साथ दे। दमनक से तो उसने पार्टी कार्यकर्ता बनने को कहा। उसके दिल में चुभा तीर निकले तब तो कोई फूल खिले। वह चुप ही रहा। उससे अलग रास्ता ढूंढने लगा।
इंजीनियर ने उससे सिर्फ़़ उससे इतना वादा किया कि वह कमेटी के आने से दो घंटे पहले बता देगा, ताकि वे लोग अपनी दूकान समेट सकें।
"कमेटी तो आएगी...उसे रोकना हमारे हाथ में नहीं है। ये ससुरी हमारी नौकरी का हिस्सा है, ऊपर तक रिपोर्ट देना होता है न जी।"
दो इंजीनियर एक साथ आए थे...एक युवा था, दूसरा एक तोंदियल अधेड़। बाल लाल-काले। मेंहदी से बालों की ऐसी ही हालत होती है। उसने बंगाली सरहज के ऐसे खिचड़ी बाल देखे थे। वो बार-बार अपनी पैंट ऊपर की तरफ खींच रहा था। छींटदार शर्ट-जीन्स पहने छरहरा युवा चुपचाप था, किंतु कुछ कहने के लिए कसमसा रहा था। अपने सीनियर के आगे कुछ कह नहीं पा रहा था। दमनक को दोनों कुटिल लग रहे थे और उनका चेहरा देख कर लग रहा था कि ये दोनों मिल कर उसका गला दबा देंगे। उसने डर से बहस नहीं की। जो उम्मीद थी, वो भी न छीन जाए।
जैसे ही सीनियर इंजीनियर जाने को मुड़ा, युवा इंजीनियर उसके सामने से फुसफुसाता हुआ निकला- "रिपोर्ट नहीं, कमाई।" उसने उंगली बड़ी दुकानों की तरफ उठाई। सामने के मार्केट कॉम्प्लेक्स की तरफ।
भक्क से जैसे हज़ारों बल्ब जल उठे हों। अपने भीतर के अंधेरों से झटके से बाहर निकला। कितना नादान था। अब तक ये समझ ही नहीं पा रहा था कि कमाई के रास्ते और भी हो सकते हैं। अब तक उसे लगता था कि फुटपाथ बाज़ार से ही पैसे झटकने आते हैं ये कमेटी वाले। यहां तो बड़ा झोल है। हर तरफ कुछ गड़बड़ है। उसे समझ नहीं आ रहा था कि किससे खुल कर बात करे। सत्तर दुकानदार उसके पीछे खड़े थे। बंगाली बाबू उसे समझा रहा था कि हमलोग इंजीनियर और पुलिस वाले का महीना बांध देते हैं। टंटा खत्म। ऐसे पुलिस चौकी वाले कभी मुफ्त में खा जाते हैं, कभी खाना मंगवा लेते हैं। चाय हमेशा मुफ्त में पीते हैं। लगभग हर दुकानदार से उनको कुछ न कुछ मुफ्त में झटकने की आदत पड़ी है। बंगाली बाबू दमनक को समझा रहा था कि महीने का पैसा तय कर लेते हैं। लेकिन यहां तो एक तीसरा कोण भी था जिसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं था। ये बात बंगाली बाबू नहीं समझ रहा था और कहे तो भी समझेगा नहीं। उनमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे सामने बड़ी, चमचमाती दुकानों में जाकर सेठों से, सेल्समैन, या फिर मालिकों से बात करें।
दमनक ने अपनी दूकान के सामने वाली दूकान पर नज़र डाली। वो रेडीमेड कपड़ों की दूकान थी। जहां सारे बड़े ब्रांड के कपड़े मिलते थे। बाहर ही उन ब्रांडों के नाम लिखे हुए थे। दिन भर वहां उस क्लास के लोग शॉपिंग करने आते थे जो कभी पटरी बाज़ार की तरफ नज़र भी नहीं डालते थे। लेकिन शाम को जो रौनक पटरी बाज़ार में होती थी, वो उनकी दुकानों में नहीं दिखती थी। उस क्लास के लोग भी तफरीह करने इधर आ जाते थे, स्वाद ले ले कर स्ट्रीट फूड खाते, अपने सेवकों के लिए कुछ खरीदारी कर लेते। कुछ युवा चाय पीने के बहाने गप्प मारते... कुछ अपनी जेबों से छोटी-सी बोतल निकालते...बंगाली बाबू से लिम्का और नमकीन के छोटे पैकेट लेकर वहीं कहीं बैठ जाते। उनके हल्ले-गुल्ले से माहौल और जीवंत हो जाता था। शाम की रौनक, ऊंची दुकानों की रौनक को फीका कर देती थी। उनके नेम प्लेट चमकते, दमकते, शीशे के भीतर से बाहर तक सेल्समैन की बेचैनियां झांकती थी। पटरी बाज़ार वाले अपनी बिक्री में मस्त रहते।
दमनक को भी बातें समझ में आने लगी थीं। उसने भी ठान लिया कि बिल्ली के गले में घंटी वही बांधेगा। उसके साथ सत्तर लोगो का विश्वास है। सब उसे उम्मीद से देख रहे हैं। उसके भीतर का नेता जागा, अपने साथ लालच का पट्टा लेकर जो वो समूचे सिस्टम को पहनाने वाला था।
बंगाली बाबू हैरान- "तुम उनसे बात करेगा...क्या फ़ायदा होगा...वो तो चाहते हैं कि हम यहां से हट जाएं। तुमको मालूम नहीं कि उनके दबाव में पटरी बाज़ार को शिफ्ट किया जा रहा है...वो बिल्डिंग के बगल वाली गैरमजरुआ ज़मीन पर हमारा बाज़ार चला जाएगा।"
"आप हम पर छोड़ दो दादा...हम कुछ करेगा...ठोस करेगा...ये बाज़ार भी रहेगा, वो बाज़ार भी बसेगा...हम एक जगह नहीं, दो-दो जगह राज करेगा..."
दमनक उत्साह में था।
"तुमी किछु जानी ना दादा...आपनी खूब सोजा मानुष। देखते जाओ...अगर सब ठीक न कर दिया तो मेरे नाम पर कुत्ता पाल लेना..."
बंगाली बाबू उसका उत्साह देख कर दंग थे, बल्कि मन ही मन खुश भी थे कि इतने संकट में भी ये संकट मोचन की तरह अडिग खड़ा है। सबको हिम्मत दे रहा है। सबको उम्मीदें बंधायी हैं। सबको दूकान उजाड़ कर भागने से छुटकारा मिलेगा। बंगाली बाबू को एक दिन की कमाई न होना अखर जाता है। उनके नियमित ग्राहक भी परेशान होते हैं। इससे ग्राहक टूट कर कहीं और चले जाते हैं। नुकसान ही नुकसान है।
"चलो, एक टा चाह खिलाओ दादा...अदरक वाली...। चाह को खूब खौलाना दादा...।"
दमनक लगातार बड़ी दुकानों की तरफ देख रहा था। उसकी आंखें वैसे चमक रही थीं जैसे रात में दुकानों के टयूब लाइटस। कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि मन के राज सिर्फ़़ आंखों से ही झाकंते हैं और खुलते भी हैं।
"दादा...मेरी माता जी कहती थीं, समझदारी शांत रहना सीखाती है, नासमझी मनुष्य को वाचाल बना देती है। बूझे न। कहा कम, समझना जादा (ज़्यादा) आप...।"
दादा चाय बनाने में मगन थे।

दमनक समझ गया था कि उसका पाला बड़ी ताकतवर लॉबी से पड़ा है। उसकी राह आसान नहीं। जो वो सोच रहा है, जिस रास्ते पर चलने का सुझाव मिला है, वो बहुत आसान नहीं है। उसके एक साथ दो ध्रुव साधने की चुनौती खड़ी थी। उसे बड़ी दुकानों के मालिकों से भी डील करना है और प्रशासन से भी सौदेबाजी करनी है। सबमें पैसा जुड़ा हुआ है। कल तक सिपाही मुंह उठाए चला आता तो उसकी जेब में सौ रुपये रख देता। वो चुपचाप आगे बढ़ जाता। कभी कोई चला आता, अपनी जेब गरम करता, चला जाता। जब कमाई अच्छी होती तो उन्हें पैसा देने में अखरता न था। कुछ दुकानदार कम कमाते थे। वे घूस देते हुए कलप उठते थे। दमनक सबका नेता बनता था। सब उसके आगे कलपने आते। वो क्या करता, खुद भी कई मोर्चे पर लड़ रहा था। हर मोर्चे पर फेल हो रहा था। गांव में भी घरवालों को आर्थिक सुख न दे सका, यहां भी पत्नी, बेटे को घर पर रख कर रोटी न खिला सका। बेटा कुछ दिन में स्कूल जाएगा तो मिष्टी को उसके साथ लगना होगा। दूकान में कहां समय दे पाएगी। वो एक और दूकान के सपने देखने लगा था। उसे पूरी तरह मिष्टी को सौंप देना चाहता था। उसके सपने में रंग-बिरंगे टंगे हुए कपड़े नज़र आते थे। तरह-तरह के सलोगन लिखे टी-शर्ट की मांग बढ़ गई थी। वो अपनी दूकान पर एक कलाकार को रख कर ये काम करवाना चाहता था और बड़ी दुकानों की तुलना में सस्ती दरों पर बेच कर युवा ग्राहकों को लुभाना चाहता था। बहुत तरह के सपने देखता था। रातों की नींद उड़ा दी थी सपनों ने। मिष्टी ने बताया था - "तुम बहुत बड़बड़ाते हो। तुम रातों को कमेटी का नाम लेते हो...कई बार इतने जोर से बोलते हो कि ननकू बाबू डर कर उठ जाता है। अंधेरे में ही सामान टटोलने लगता है, उन्हें उठा कर भागना चाहता है। खूब भाय...। एटा छोटा शिशुर मोने एमोन भीषोण भया थाका ठीक नय।"
दमनक इतना तो समझता था कि बड़ों की चिंताएं और भय भी बच्चों तक पहुंचते हैं। ननकू ज़्यादा ही प्रभावित हो रहा है और यही भय उसे खाए जा रहा है। उसके सामने अपने बच्चे को भयरहित करने की चुनौती भी थी और समूचे पटरी समुदाय को बेफिक्र और भयरहित बाज़ार देना था। उसके सामने बड़े दुकानदारों की ताकतवर लॉबी थी जो उन्हें उखाड़ फेंकने पर आमादा था। उसे बस उनके लालच का पता करना था, जिससे वो नियंत्रण में आ सकें। बाज़ार में बैठा है तो कोई न कोई मूल्य होगा इन सबका। बस उसी को मोल लेना है।
उसे एक स्थानीय नेता के बारे में पता चला, उस तक पहुंच हो जाए, काम बनते देर न लगेगी। दमनक को पता है, वह भीख मांगने नहीं जा रहा, बल्कि भीख देने की बात करेगा। बस भीख के लिए छीना झपटी न हो। नोंचा-नोंची न हो। सब सिस्टम से चले। वो भी दो पैसा लें, हमें भी दो पैसा कमाने दें। जिस सूबे से वो आया है वहां बिना पैसे के कोई काम होते देखा नहीं। बाबू से लेकर बड़ा बाबू तक सब दांत निपोड़े रहते हैं। उनकी आंखों में लाल डोरे नहीं, रक्त के कण तैर रहे होते हैं जो जरुरतमंदों के आर्थिक शोषण से बनते हैं।
बहुत विचार मंथन के बाद दमनक "मिशन कमेटी" में लग गया था। और कोई साथ दे न दे, वो अकेले इन मुश्किलों से निपटेगा। उसके भीतर के नेता को पुनर्जन्म मिल गया था गोया। पटरी बाज़ार के उसके साथी गौर कर रहे थे कि दमनक जो तीन दिनों से गायब है। रोहित बाबू भी नहीं आ रहे थे। दोनों की अनुपस्थिति से बाज़ार की सुबह बेरौनक हो गई थी। बंगाली बाबू को लगा कि दमनक कुछ न कुछ करके ही लौटेगा। धुनी आदमी है, हार नहीं मानेगा।
कई दिनों के बाद एक सुबह रोहित बाबू बंगाली बाबू की दूकान पर चाय पीने बैठे थे। उनके हाथों में अख़बार था। वो एक ख़बर दिखाने के लिए उतावले थे। दमनक दिखाई नहीं पड़ रहा था। उन्होंने बंगाली बाबू को कहा कि उसे फोन लगा कर बुलाए। मिष्टी बेटे को साथ लिए भाई की दूकान पर आई।
"कहां है दमनक...उनको बुलाओ, एक अच्छी और बुरी ख़बर है उनके लिए..."
वहां आसपास सारे दुकानदार चौकन्ने हो गए।
अच्छी ख़बर, बुरी कैसे हो सकती है।
"तुम लोगो को वो बिल्डिंग के बगल वाली ज़मीन ऑथोरिटी ने अलॉट कर दी है।"
"और बुरी खोबोर..."
बंगाली दादा ने जोर से पूछ लिया। वहां कई और दुकानदार जुट गए थे।
"बुरी ख़बर ये कि ये जगह खाली करनी पड़ेगी। अपनी-अपनी पटरी उठाओ, वहां जाकर जगह लो। शुक्र है कि दूर नहीं भेजा। मैं नहीं आ पाता... दमनक कहां है, उसे बताओ।"
"ओ..." कईयों के मुंह से एक साथ निकला।
"लेकिन क्यों...।"
"अगर तुम लोग यहां से शिफ्ट नहीं हुए तो कभी भी कोई बड़ी घटना हो सकती है। कल के अख़बार में ख़बर नहीं पढ़ी। मुझे पूरी आशंका है कि कहीं तुमलोग के साथ भी ऐसा न हो जाए।"
रोहित बाबू के आसपास जमा लोग ख़ौफ़ से उन्हें ताकने लगे।
"सीमापुरी के चाइल्ड नर्सिंग होम में आग लगी, पता है न कितने बच्चे थे उसमें। पांच बच्चों की जगह थी, बारह बच्चे भर्ती कर रखे थे। मैं उस ख़बर पर बात नहीं कर सकता, इतना दहल उठा हूं। आरोपियों की मिली भगत थी, तभी इतनी हिम्मत हुई। भ्रष्टाचार की इंतेहा है...वैसे भी उस प्रोपर्टी पर स्थानीय विधायक की बुरी नज़र पहले से थी।"
वहां मौजूद सबकी धड़कनें थम गई थीं। सुबह की हवा में मानों मासूम बच्चों की चीखें सुनाई देने लगी थी। कान बहरे होने लगे थे, जोर से आग की लपटों ने सबको घेर लिया था। सब से सब जैसे जड़ हो गए थे। रोहित बाबू की आवाज ने उन्हें लपटों से बाहर निकाला। उनकी रुकी धड़कनें चल पड़ीं। बंगाली दादा अदरक कूटने लगे जोर-जोर से। गैस चूल्हे पर एक तरफ राजमा चढ़ा दिया था उबलने के लिए। कूकर हल्की सीटी देने लगी थी। उनकी बीवी बेंच पर बैठी लहसुन-प्याज छील रही थी। भावहीन चेहरा, मानो हालात के आगे घुटने टेक बैठी हो। कहीं भी जाए, उसे यही काम करना है। हालात की मारी स्त्रियां बहुत जल्दी नियति को स्वीकार लेती हैं।
उस दिन रोहित बाबू अच्छी-बुरी ख़बर सुना कर लौट गए थे। दमनक का दिन भर कोई पता नहीं। उसकी पटरी वैसी ही सूनी पड़ी रही। पटरी पर कुछ सामान ढंका हुआ रखा था। बंगाली बाबू ने दो बार फोन मिलाया था। फिर मिष्टी को भी मिलाया। दमनक ने फोन नहीं उठाया। मिष्टी ने बताया कि सुबह से ही कहीं निकले हुए हैं। सीधे दूकान पर ही आएंगे, घर नहीं आएंगे।
दमनक के फोन न उठाने पर बंगाली बाबू चिंतित हुए। कुछ और दुकानदार उनके पास आकर चर्चा करने लगे। उन्हें पता था कि दमनक उनके लिए लड़ रहा है। लगातार भागदौड़ कर रहा है। बल्कि उसे पुलिस-चौकी में भी घुसते देखा गया था। कुछ अनजान लोगो के साथ भी सड़क से गुजरा था। कुछ दिनों से उसका ध्यान अपनी दूकान पर नहीं, नेतागिरी में ज़्यादा था। दूकान अकेली मिष्टी संभाल रही थी।
बंगाली बाबू ने उसे व्हाटसप मैसेज किया। दमनक ने उसे देखा था। ब्लू टिक आया था। जवाब नहीं दिया।
"अजीब मानुष है...कमसे कम ओके ही लिख देता...कोथाए? शोब ठीक आच्छे तो? एतना कहां बिजी चल रहा है..."
मिष्टी उनकी बेचैनी देख कर मुस्कुरा पड़ी। हाथों से इशारा कर आश्वस्त किया- "आसबे, आसबे (आ जाएगा)।"
वो जानती थी कि उसका जहानाबादी पति कुछ न कुछ जुगाड़ करके लौटेगा। वो सबकुछ गंवा सकता है, अपने बेटे की नींद और भविष्य नहीं।
..........
"यही जुगाड़ है तेरा, क्या करके आया है रे...ऐसा खेल कैसे कर दिया रे?"
मंटून और इदरिस दोनों खिलौने की दूकान चलाते थे। दोनों आजमगढ़ जिले के रहने वाले। लगभग साथ-साथ ही पटरी बाज़ार में इनका प्रवेश हुआ था। वे अभी तक अपना गंवई अंदाज नहीं छोड़ पाए थे। मंटून तो लाल रंग का गमछा अपने गले से कभी उतारता ही नहीं था। जाड़े में कान और माथा में लपेट लेता था, गर्मी में पसीना पोंछता था, बरसात में छतरी बना लेता था। एक गमछा अनेक काम। दमनक के ये दोनों ख़ास चेले थे। उन्हें अपने गुरु की नेतागिरी पर पूरा भरोसा था कि कोई न कोई रास्ता निकाल लाएगा। अपना राज्य में दूगो विधान सभा चुनाव जिताया है पार्टी को। खेल तो जानता ही होगा।
मंटून बोला- "है कि नहीं दादा...।"
इदरिस समेत सारे लोग दमनक की तरफ उम्मीद से देख रहे थे।
"सुन इदरिस, ग्रुप बना, सबको इकट्ठा कर। उनसे बात करेंगे। पहले जैसा अब न होगा। पहले कोई सिपाही आकर मनमाना पैसा झटक कर ले जाता था। ऑथोरिटी के इंजीनियर मनमाना पैसा वसूल करते थे। कभी कोई आ जाता था, कभी कोई...अब ये सब बंद।"
"अब पइसा नहीं झिटेगा (झटकेगा) का...? "मंटून बोल पड़ा।
"अब कमेटी हर महीने नहीं आएगी..."
"ये हू..." सबके मुख से खुशी की सिसकारी निकली।
"आयं...ये कैसे हुआ....खतरा हमेशा के लिए खत्म हो गया का...?"
"सबकुछ सिस्टेमेटिक हो गया है...बड़ा आफिसर ने सब छोटे को लगाम लगा दिया है। कोई वसूली करने नहीं जाएगा। जब देखो तब मुंह उठाए कमाई करने चले जाते थे। ऊपर तक पैसा नहीं रिपोर्ट पहुंचा आते थे। ये सब मरेंगे अब। हर महीने हमें सभी से पैसा जमा करके एक मुश्त बड़े साहब को देना होगा। बड़े साहब कह रहे थे कि तुम जो चढ़ावा देगा, पहले हमारे ऋषि-मुनियों के श्रीचरणों में जाएगा, वो तय करेंगे कि उनसे बचा हुआ उच्छिष्ट लग्गुओं भग्गुओं और भक्तों को कितना मिलेगा।"
"ई तो हद्दे है भाई..."
इदरिस चीख पड़ा।
"तू तो चुप्पे रह। तेरा बोलना उचित नहीं। तेरे बोलने से तो काम ही बिगड़ जाएगा। सबसे पहले तुम लोगो को ही उखाड़ फेंकने को कहेगा। कितना नफरत करता है, जानते हो न। तू फ्रंट पर मत खेल रे। हमलोग हैं न, सब संभाल लेंगे।"
मंटून ने उसे समझाया।
"लेकिन क्या...और हम काहे देंगे पैसा...जब हमारा ये बाज़ार ही छीन गया। हमें तो अलग ज़मीन मिला है न...यहां का दाना पानी तो खत्म..."
इदरिस कहां चुप रहने वाला था।
"इन बड़े दुकानदारों ने मिल कर हमें उजाड़ दिया है...हम इनका ग्राहक खींच लेते थे न..."
वहां आसपास जमा लोग इसी तरह की बातें बोल रहे थे। दमनक सबको चुप होकर सुन लिया। फिर हाथ जोड़ा- "हम आगे कुछ बोले कि आप ही लोग सब फरिया लीजिएगा...काम हम करके आए हैं, तो सुन लीजिए तब कुछ कहिएगा...गलत सही बाद में न तय होगा चचा..."
बुजुर्ग गोल गप्पे-चाट का ठेला लगाते थे, बलिया के रहने वाले थे और उम्र यही खप गई। वे ज़्यादा बेसब्र हो रहे थे।
"ये जगह नहीं जाएगी...हम यहां भी रहेंगे, और वहां भी...दो दो दूकाने लगाएंगे...बोलो है मंजूर...?"
"क्या...ये कैसे...???"
सबकी आंखें हैरानी से फैल गईं। मुंह खुला का खुला रह गया। ये क्या चक्कर चला कर आया है भाई।
दमनक के आस-पास अच्छी ख़ासी भीड़ जमा हो गई थी। बंगाली बाबू चाय बनाना भूल कर सबको सुनने में लगे थे।
"दादा, चाह बनाओ, मेरी तरफ से सबको पिलाओ...आज मेरी तरफ से चाय सबको..."
दमनक सुकून में था। चेहरे से मुर्दनी गायब थी। मानो कोई बड़ी जंग जीत कर आया हो।
"देखो, ऐसे हमसे पुलिस वाले, प्रशासन वाले मनमानी पैसा वसूलते थे। हर समय कमेटी का ख़ौफ़ दिखा कर लूटते भी थे, परेशान भी करते थे। अब रास्ता निकल आया है। जो हमारे सामने बड़ी दुकानें हैं, वे सब लुटेरे हैं। हमें तीन तरफ से लूटा जाएगा अब। कमर कस लो। और कोई रास्ता नहीं है...। "
कुछ देर रुका...गला खंखार कर बोलना शुरु किया..."देखो, तुम लोग मानने, न मानने के लिए फ्री हो...मैं तो करुंगा पालन। जिसकी दूकान के सामने जो बड़ी दूकान पड़ेगी, वो उसे महीना पहुंचाएगा। अब हमें तीन तरफ पैसा देना है...पुलिस, प्रशासन और ये बड़े दुकानदार।"
"ये क्या कर आए तुम...? कहां से देंगे हम सबको पैसा? इतनी कमाई भी तो होनी चाहिए...तुम ही देना, हम तो चले उधर वाली ज़मीन पर...हम न रहेंगे यहां..."
बुजुर्गवार बौखला उठे थे।
"हम गरीबों को लूट कर क्या मिलेगा इन्हें...हम सारी कमाई इन्हें ही दे देंगे तो हमारे लिए क्या बचेगा...हम कैसे जिएंगे...तुम लोग समझ रहे हो...ये दमनक क्या कमाल कर आया है...और सपोर्ट करो इसको..."
"चचा, मेरी बात ध्यान से सुनो...सामने वाली बड़ी दुकानों से मिल कर चलोगे तो कमाई दोगुनी होगी। वे हमारी कम्पलेन नहीं करेंगे। वे हमें बदले में बिजली देंगे। ये जो तुम रात में बैट्री लाइट जलाते हो, वो छोड़ो, अब वे लोग हमें बिजली का कनेक्शन देंगे। उनके एसोसिएसन से बात हो गई है। मेरे सामने वाली दूकान को हम 15000 देंगे। हम एकदम सामने हैं, जो दूर है, वो बिजली लेगा तो उसका पैसा कम होगा। अभी सब हिसाब होगा। सोचो न रात को हमारा बाज़ार जगमग करेगा। ग्राहक ज़्यादा आएंगे। उनको क्या है, वे ब्रांड लेकर बैठे है, बिके न बिके, उतना फ़र्क नहीं पड़ता, ज़िंदगी तो हमारा फंसा हुआ है न..."
"और पुलिस-प्रशासन को कितना पैसा देना होगा...?"
"प्रति दूकान से पांच सौ, हजार। सबसे वसूली करेगा मंटून और इदरिस और पुलिस चौकी में दे आएगा। प्रशासन में देने हम जाएंगे। एक ही नेता जी हैं जो डील करेगा। उसके बाद उसका काम कि वो कैसे अपने अथोरिटी को कंट्रोल करता है। नेता जी परेशान हैं कि पटरी बाज़ार से वसूली करके सारा पैसा नीचे वाले साहब लोग हजम कर जाते हैं। ऊपर तक कुछ पहुंचता ही नहीं। ई जो सरकार है न, सब विभाग को टाइट कर दिया है।"
"तुम लोगो को क्या लगता है, एक हम ही लोग हैं जिनका खून चूसा जा रहा है? वो जो सामने बलबीर सिंह का ग्रीन चिक है न, चिकन बेचता है, उससे पूछो...मंगलवार को मजाल है कि दूकान खोल ले। खोलता तो एक्स्ट्रा पैसा देना पड़ता है...या तो पैसा दे या दूकान बंद कर। दीन-धर्म से कोई लेना देना नहीं। धर्म के नाम पर लूट रहे...अरे भाई, क्या मंगल क्या सोम...। हमारे जहानाबाद में बिफे (वृहस्पतिवार) को नहीं खाते चिकन लेकिन दूकान थोड़े बंद करवा देगा कोई। ईहा आकर ई सब नौटंकी देख रहे हैं...।"
वहां शांति छा गई थी। ऐसा लगा, मानो सबको बात समझ में आ गई थी। अधिकांश के मुंह लटके हुए थे। कुछ सहमत थे, कुछ असहमत। कुछ को दो दो दूकान की बात ललचा रही थी। दो दुकानों से कमाई बढ़ेगी।
"आप लोग सोच लीजिए...मुझे बताइएगा...दूकान कहीं लगाइए, पुलिस-प्रशासन को महीना तो पहुंचाना ही पड़ेगा। बस ये कॉमप्लेक्स वाले दुकानदारों को महीना देने की बात आप लोगो को अखर रही होगी...ठंडे दिमाग से सोचिएगा..."
कुछ लोग वहां से बिना चाय पिए खिसक गए थे। बंगाली बाबू ने उतनी चाय बनाई भी नहीं थी। उन्होंने भीड़ खिसकते देखी तो चैन की सांस ली। इसके नेतागिरी का भूत किसी दिन हमको ही फ़कीर बना देगा। बहुत दिलदार बना फिरता है। सचमुच का नेता समझने लगा है ख़ुद को ...ऊंह...।
....
सुबह-सुबह रोहित बाबू बंगाली बाबू की ठेले के पास आकर बैठ गए। उनको देख कर लोग बाग जुटने लगे। सब उनसे बात करने को आतुर थे। रोहित बाबू दमनक से बात करने को बेचैन थे। और दमनक, अपने तीन साल के बेटे की उंगली पकड़े चला आ रहा था। मिष्टी दूकान पर नया माल रखवा रही थी। ज़्यादातर पटरी वाले आए नहीं थे। दोपहर से चहल-पहल शुरु होती है। सुबह कम ही लोग आते हैं। रोहित बाबू के पास आकर बैठ कर दमनक उन्हें सारी बातें तफ़्सील से बताने लगा था। बेटा वहीं कुछ खेल रहा था।
"सर, सबकुछ सिस्टमेटिक हो गया है, लेकिन पटरी वाले मान नहीं रहे हैं। अभी सबको पैसा दिखाई दे रहा है, भविष्य नहीं देख रहे। "
दमनक ने रोहित बाबू को सारी बातें विस्तार से बताईं और समाधान के नये रास्ते या किसी नये विकल्प के सुझाव के लिए उनका मुंह जोहने लगा। थोड़ी देर रोहित बाबू चुप रहे। दमनक की पीड़ा, परेशानी और समस्याएं मामूली न थीं।
"तुम्हारे सामने कोई विकल्प नहीं। सबको एकजुट करो।"
रोहित बाबू की निगाहें कहीं दूर देख रही थीं। उनके चेहरे पर विषाद की रेखाएं गहरा रही थीं। उन्हें इस पटरी बाज़ार से, पटरीवालों से अगाध अपनापन हो गया था। वे भी उन्हें खोना नहीं चाहते थे। वे असहाय थे, अपनी असहायता पर क़समसा कर रह गए। थोड़ी देर के लिए उनके बीच सन्नाटा खींच गया। दमनक उनकी बात समझने की कोशिश करने लगा। रोहित बाबू की बातें ठीक से समझ नहीं आई। उसे इतना संतोष हो रहा था कि वो उनकी सलाह मान कर आसन्न संकट का उपाय खोज लाया है और पटरी बाज़ार वाले साथ दें तो सब संकट टल जाएगा। पानी में रहना है तो मगरमच्छों से दोस्ती ही एकमात्र उपाय लगा था उसे। उसके चारों तरफ मगरमच्छ ही तैर रहे थे। पानी के तल में शैवाल के जाल बिछे हैं, उसमें फंसे तो दम घुट जाएगा। सतह पर आए तो ये मगरमच्छ लील जाएंगे। उसे तो कोई और विकल्प समझ नहीं आ रहा था। उसके समेत ये सत्तर लोग अपना परिवार लेकर कहां जाएंगे। गांव लौट कर जाना असंभव। वहां उसने अपना भौकाल बना रखा है। उसके समुदाय के लोग समझते हैं, दिल्ली में दमनक राज कर रहा है। हारे हुए जुआरी की तरह नहीं लौटेगा। ये बाज़ार उसके लिए जंग का मैदान है, यही लड़ेगा, यही खप जाएगा।
मन ही मन संकल्प ले रहा था दमनक। उसकी मुट्ठियां तन रही थीं। उसे अपने दादा का कथन याद आ रहा था, जब उन्होंने उसे उसके नाम दमनक की महत्ता बताई थी, तब कहा था। पंचतंत्र की कथाओं के रसिया उसके दादा ने कहा था- "बुद्धि के लिए कोई भी काम असाध्य नहीं है। शास्त्रों, हाथियों और पैदल सैनिकों से भी जो काम नहीं हो पाता, वह बुद्धि द्वारा आसानी से हो जाता है, हमेशा बुद्धि लगाना।" दादा की बातें ताकत दे रही हैं लेकिन यहां तो उसकी बुद्धि भी फेल हो गई है। वह अंधेरे भविष्य की तरफ बढ़ने को विवश है। और उसका बेटा भी। अपने दादा की तरह उसे कैसे सपने दिखाए या ऐसा जादू करे कि वह निर्भय हो जाए। दुःस्वप्न से मुक्त हो जाए।
रोहित बाबू और दमनक दोनों ऊपर ऊपर मौन थे। एक दूसरे के मन से अनभिज्ञ। दमनक ने देखा, रोहित बाबू का अख़बार नीचे गिरा पड़ा था। वे चिंतित मुद्रा में सूने आकाश को घूर रहे थे, जहां काली चीलें काफी देर से नीचे-ऊपर उड़ान भरती हुई चक्कर काट रही थी। घबरा कर वहां से नज़र हटाई। दमनक का बेटा अपने पिता के पास आकर उसे कुछ कहने की कोशिश कर रहा था।
चेन में बंधे चश्मे को आंखों पर चढ़ाया और सहज होने की कोशिश में बोल पड़े-
"ओ जहानाबादी नरेश, बच्चे को रोज दूकान पर साथ क्यों लाते हो, क्या बेटे को भी काम सिखाओगे? अभी से तैयार कर रहे हो...? "
"अरे नहीं सर, बेटा पर अभी से लाद देंगे तो गदहा बनेगा। फ्री छोड़ेंगे तो घोड़ा बनेगा। देखिए...ये घोड़ा बनेगा...घोड़ा।"
दमनक के चेहरे पर युद्ध के बादल छंटे नहीं थे, लेकिन उसकी आवाज में खनक थी। ननकू के साथ कोई खेल रहा था, ननकू दौड़ लगा रहा था।
इतनी ही देर में कहीं से एक आवाज आई - "भागो, कमेटी आई..कमेटी आई..."
ननकू खेल छोड़ कर सीधे दौड़ा अपनी दूकान की तरफ, वहां से कुछ सामान उठा कर बदहवास भागा। उसकी चप्पल कहीं पैरो से निकल कर कहीं छूट गई। धूल का एक बड़ा गुबार-सा उठा। उसकी नन्हीं-सी आंखों में ख़ौफ़ साफ़़ दिखाई दे रहा था। उसे पता नहीं था कि किधर भाग कर जाना है, बस जोर-जोर से तुतलाती हुई जुबान में चीखता हुआ वह वहां से दौड़ पड़ा था -
"बागो...बागो...कमती आई कमती आई...।"
दमनक अचकचा गया। ये क्या हो गया। उसके दुःस्वप्न को गेंद बना कर किसने उछाला।
उसने बौखलायी नजरों से बाज़ार को देखा। यह वही पटरी थी जो उसकी उम्मीद थी, उसका भविष्य भी। इसे ही बचाने के लिए वो भ्रष्टाचार को पंजीकृत कराने पर ढिठाई से तुला हुआ था। यहीं से उसके सपनों की मीनार खड़ी हो सकती थी। वही बाज़ार जो उसके बच्चे के जेहन में ख़ौफ़ भर रहा था। बच्चे की हालत देखकर लगा कि उसके बुरे सपनों में ऐसा विस्फोट हुआ है जिससे सपनों के चिथड़े उड़ गए। चिथड़े पटरियों पर बिखरे हुए थे। दिन में ही अंधेरा छाने लगा था। उस अंधियारे में दूर एक नेता चीखता हुआ दिखाई देने लगा था और अपना बच्चा अर्द्धरात्रि में चीख मार कर जागता हुआ दिखा। दोनों तरफ से चीखें आ रही थीं। उस गंधाते अंधेरे और सपनों के चिथड़ों के बीच दमनक अपने वर्तमान और भविष्य के मध्य खुद को और बेटे को तलाश रहा था। उसका जादू नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था।
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