थोड़ा-सा सुख
अनामिका अनु
स्त्री के मन में उसकी तरह ही कोमल, ढँकी हुई, कुछ अनचीन्ही चाहतें भी होती हैं। अनामिका अनु की ‘थोड़ा-सा सुख’ ऐसी ही कुछ पलों से महकती, हल्की-सी गंध लिए कहानी है, जो रोज़मर्रा की भागदौड़ के बीच भीतर के संगीत को छू जाती है।
~ भरत तिवारी, संपादक, शब्दांकन

“तुम पांचालीमेडू गई हो मालविका?”
“नहीं!”
“पांचालीमेडू के तालाब में द्रौपदी नहाती थी।”
“अच्छा।”
यह कहकर मालविका बाथरूम की तरफ़ भागी। उसने जल्दी से स्नान किया और लगभग भागती हुई बस स्टॉप पर पहुँची। आठ बजे की बस छूट गई तो वह ऑफिस में लेट हो जाएगी।
उसे सुबह-सुबह बॉस की फटकार खाने का बिलकुल मन नहीं है।
वह भागते हुए बस स्टॉप पर पहुँची। उसकी दाएँ पाँव का चप्पल टूट गई है। वह सड़क के दूसरी तरफ़ देखती है।
नीम पेड़ के नीचे अभी-अभी एक मोची आकर बैठा है। वह चप्पल हाथ में पकड़े तेजी से सड़क की दूसरी तरफ भागती है।
मोची चप्पल सिल रहा है। वह उसे चप्पल सिलता हुआ देख रही है। मन में बच्चों की परीक्षा, सास की दवा, पति का शुगर लेवल घूम रहा है। तभी अचानक एक खुशबू उसके आस-पास तैर गई। उसके भीतर कई कोमल कलियाँ अचानक से चटक उठी। उसने सिर उठाया। एक अधेड़ उम्र का आदमी बगल की लेन से गुज़र रहा था। उसने जाते हुए उसकी पीठ और उसका कद देखा।
तभी जोर से किसी ने आवाज़ लगायी। कोई पीछे से जोर-जोर से चिल्ला रहा था: राघवन …राघवन। वह अधेड़ आदमी मुड़ा और धीरे से मुस्कराया।
मालविका उसे देखती रह गई।
तभी मोची ने आवाज लगाई,
“हो गया, मैडम।“
मालविका ने चप्पल पहनी, मोची को रुपया थमाया और सड़क की दूसरी तरफ भागी। उसकी बस आ गई थी।
वह झट से बस में आकर बैठ गई और खिड़की से उस व्यक्ति को देखने की कोशिश करने लगी जो बस स्टॉप के सामने की लेन में टहल रहा था। उसे वह वहाँ नहीं दिखा। बस झटके के साथ आगे बढ़ गई।
हर दिन का यही रूटीन। बस के झटके, तरह-तरह के पसीने की गंध। शाम में यह गंध और तेज हो जाती है, फल-सब्जी, माँस-मछली और पसीने की गंध आपस में घुल-मिल जाती है। पसीने में नहाए स्कूल और कॉलेज के बच्चे। पसीने में नहाए कर्मचारी, पसीने में नहाए मजदूर,पसीने में नहाई छोटी बड़ी जगहों पर काम करती स्त्रियाँ।
उस शाम पसीने की गंध में लिपटी बस में जैसे ही मालविका बैठी उसके भीतर उस अधेड़ आदमी की खुशबू फैल गई। अब बस की गंध उसे बेचैन कर रही थी।
उसने कितनी बार अपने पति को कहा कि वह अच्छे डियो या सेंट का इस्तेमाल करे मगर उसे यह फ़िजूलख़र्ची लगती रही है।
वह अधेड़ था मगर उसने कितने सलीके से कपड़ा पहन रखा था। उसकी सुगंध, उसका कद, उसका चेहरा और उसकी हँसी।
उसके भीतर वह अधेड़ एकदम से हलचल मचाने लगा।
हर सुबह जब काम पर जाने के लिए मालविका बस पर बैठती तो खिड़की के पास की सीट के लिए अतिरिक्त फुर्ती दिखाती। उस आदमी को टहलता हुआ देखती और गहरी सुकून भरी साँस लेती मानो उसके देह की गंध को भीतर उतार रही हो।
तीन महीने बीत गये। जिस दिन भी वह व्यक्ति मालविका को नहीं दिखता, उस दिन उसका मन बेहद उदास हो जाता था। उसके मन में तरह-तरह के विचार आते …
‘कहीं वह बीमार तो नहीं हो गया। कहीं वह दूसरे पार्क में टहलने न लगा हो।‘
एक बार वह अधेड़ एक हफ़्ते तक मालविका को नहीं दिखा। वह बहुत उदास हुई।
अगले हफ़्ते उसका मन किया कि वह ऑफिस न जाए और जॉगर्स पार्क की बेंच पर जाकर बैठ जाए। जब तक वह न आए तब तक वहीं बैठी रहे। लोगों से पूछे की वह आदमी जिसका नाम राघवन था। जो रोज सुबह आठ बजे यहाँ टहलता था, वह कहाँ है? पर वह ऑफिस और घर में क्या जवाब देगी। यह सोचकर उसने ऐसा नहीं करने की ठानी और बस पकड़कर बैंक आ गई।
महीने दिन के बाद बैंक में अतिरिक्त कामों को निपटाकर जब वह बस स्टॉप पहुँची तो साढ़े पाँच की बस निकल चुकी थी। वह साढ़े छह बजे की बस पकड़कर जब घर के पास वाले बस स्टॉप पर पहुँची तो उसने क्या देखा कि वह आदमी पार्क की सड़क पर टहल रहा है।
वह बस से उतरते ही लगभग भागते हुए पार्क पहुंची और पार्क की बेंच पर जाकर बैठ गई, मालविका बेंच पर बैठकर उस आदमी को बड़ी देर तक निहारती रही। उस आदमी ने चालीस मिनट में सड़क के सात चक्कर लगाएं।
मालविका उसे अनवरत देखती रही। हर बार जब वह पास से गुजरा तो उसके शरीर की सुगंध मालविका के चारों तरफ़ तैर उठी।
मालविका का फ़ोन लगातार बजता रहा। मगर वह सबकुछ से बेख़बर उसी में खोई रही।
वह आदमी टहलने के बाद उसके बगल में बैठकर थोड़ी देर सुस्ताया फिर उठकर अपनी कार की तरफ़ बढ़ गया।
उसकी कार पश्चिम की तरफ बढ़ गई।
उस आदमी के जाते ही मालविका झटकते पाँव के साथ पूरब की तरफ भागी।
फिर फ़ोन आया।
उसका पति चीख रहा था:
‘कहाँ रह गई? दस बार फ़ोन लगाया। उठा क्यों नहीं रही थी।‘
शाम बीत चुकी है। रात ढलने को आई है।
मालविका ने फुटपाथ पर से गजरा मोला। जूड़े में सजाया। मीठी मुसकान के साथ घर लौट आई।
बच्चे, पति, सास सब उसके चेहरे पर फैली रौनक से विस्मित हैं।
मालविका के भीतर मीठा संगीत बज रहा है।
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लेखिका परिचय:
डाॅ. अनामिका अनु का जन्म 1 जनवरी 1982 को मुज़फ़्फ़रपुर में हुआ और वे वर्तमान में केरल में रहती हैं। उन्हें भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (2020), राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक पुरस्कार (2021), रज़ा फेलोशिप (2022), महेश अंजुम युवा कविता सम्मान (2023) और प्रतिभा सम्मान (2025) जैसे कई सम्मान मिल चुके हैं।
उनके प्रकाशित काव्य संग्रह ‘इंजीकरी’ (वाणी प्रकाशन) और कथा संग्रह ‘येनपक कथा और अन्य कहानियाँ’ (मंजुल प्रकाशन) हैं। उन्होंने ‘यारेख: प्रेमपत्रों का संकलन’ (पेंगुइन रैंडम हाउस) और ‘केरल के कवि और उनकी कविताएँ’ का सम्पादन किया है।
उनकी कृति ‘सिद्धार्थ और गिलहरी’ (राजकमल प्रकाशन) में के. सच्चिदानंदन की इक्यावन कविताओं का अनुवाद है। उनके लेखन का अनुवाद कई भारतीय भाषाओं में हो चुका है।
ईमेल: anuanamika18779@gmail.com
फ़ोन: 8075845170
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