हर चेहरा जलहीन नदी-सा... (शताब्दी-बोध)
इस रंगीन
शहर में मुझको
सब कुछ बेगाना लगता है ,
आकर्षक
चेहरे हैं लेकिन
हर चेहरा जलहीन नदी-सा .
*
दरवाजों तक
आते-आते
यहाँ रौशनी मार जाती है ,
यूं ही अंधे
गलियारे में
साड़ी उम्र गुज़र जाती है ,
थके-थके
बोझिल माथों पर
अंकित अस्त सूर्य की छाया
कैसे गीत
सुबह के गाऊँ
गायक हूँ मैं अंध सदी का .
**
हरियाली का
खून हो गया
आग लगी है चंदंबन मैं ,
भटक रहीं
नंगी आवाज़ें
कोलाहल्रत परिवर्तन में ,
देख रहा हूँ
खुली हथेली
आने वाले वर्तमान की,
कटी भुजाएं
टूटे पहिये
रेंग रही विकलांग सभ्यता.
***
अंतरिक्ष
यात्री-सा कोई
भेद रहा अज्ञात दिशायें,
भीतर चुभती
किरन नुकीली
सिमट रहीं फेली सीमाएं ,
धंसती हुई
परिस्थितियों से
ऊपर आना सहज नहीं है,
झुठलाए
आदिम सत्यों का
देनी होगी अग्नि परीक्षा .
प्रेम शर्मा
('ज्ञानोदय', फरवरी, १९६४)
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