युग संध्या (एक शोक गीत)
वहीकुहाँसा,
वही अँधेरा,
वही
दिशाहारा-सा जीवन,
इतिहासों की
अंध शक्तियां,
जाने हमें
कहाँ ले जाएँ.
***
अट्टहास
करता समुद्र है
जमुहाई लेते पहाड़ हैं,
एक भयावह
जल-प्रवाह में
समाधिस्थ होते कगार हैं,
दुविधाग्रस्त,
मनास्थितियाँ हैं,
विपर्य्यस्त है जीवन-दर्शन,
एक घुमते
हुए वृत्त पर
ऊंघ रही अनथक यात्राएं .
***
चन्दन-केसर,
कमल-नारियल,
शायद अब निर्वश रहेंगे,
गूंगी होंगी
सभी ऋचाएं,
अधरों पर विष-दंश रहेंगे,
रोंदे हुए
भोजपत्रों पर
सिसक रहे सन्दर्भ पुरातन ,
बूढ़े
बोधिवृक्ष के नीचे
रूधिरासिक्त हैं परम्पराएं.
***
अन्धकार में
डूब चुकी हैं
सूर्य-वंशजा अभिलाषाएं,
हम सबके
शापित ललाट पर
खिंची हुई हैं मृत रेखाएं ,
मरणासन्न
किसी रोगी-सा
अस्तोन्मुख सांस्कृतिक जागरण
ठहर गयी हैं
खुली पुतलियाँ
जड़ीभूत हैं रक्त-शिराएं.
प्रेम शर्मा
('साप्ताहिक हिंदुस्तान', १८ अप्रैल, १९६५)
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