ना वे
रथवान रहे,
ना वे
बूढ़े प्रहरी,
कहती
टूटी दीवट,
सुन री
उखड़ी देहरी!
माँ: दिन-दिन
उपराम हुआ
रोगी-कातर सुगना,
खाली
सुबरन पिंजरा
गुमसुम-गुमसुम अंगना,
सुन रे ओ
महानगर
अब मैं अंधी-बहरी!
पुत्र: हवा नहीं
धूप नहीं
पेंचदार गलियारा
अगले
पिछले कुछ ऋण
फिरता मारा-मारा,
ना वे
मन-प्राण रहे,
ना वह
तृष्णा गहरी,
सुन री
पंखा झलती
पीपल की दोपहरी !
प्रेम शर्मा
('कादम्बिनी', जून, १९७१)
रथवान रहे,
ना वे
बूढ़े प्रहरी,
कहती
टूटी दीवट,
सुन री
उखड़ी देहरी!
माँ: दिन-दिन
उपराम हुआ
रोगी-कातर सुगना,
खाली
सुबरन पिंजरा
गुमसुम-गुमसुम अंगना,
सुन रे ओ
महानगर
अब मैं अंधी-बहरी!
पुत्र: हवा नहीं
धूप नहीं
पेंचदार गलियारा
अगले
पिछले कुछ ऋण
फिरता मारा-मारा,
ना वे
मन-प्राण रहे,
ना वह
तृष्णा गहरी,
सुन री
पंखा झलती
पीपल की दोपहरी !
प्रेम शर्मा
('कादम्बिनी', जून, १९७१)
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