तू न जिया
न मरा,
ज्यों कांटे
पर मछली,
प्राणों में
दर्द पिरा.
*
सहजन की
डाल कटी ,
ताल पर
जमी काई,
कथा अब
नहीं कहता
मंदिर वाला
साईं,
दुःख में
सब एक वचन
कोई नहीं दूसरा.
**
औषधि
जल
तुलसीदल
सिरहाने
बिगलाया,
ईंधन कर दी
अपनी उत्फुल काया,
धरती पर
देह-धरम
आजीवन हुक-भरा.
***
माथे पर
गंगाराज,
हाथों में
इक्तारा,
बोला
चलती बिरियाँ
जनमजला
बंजारा,
वैष्णव जन
ही जाने
वैष्णव जन का
दुखड़ा!
प्रेम शर्मा
('धर्मयुग', १५ फरवरी, १९७०)
न मरा,
ज्यों कांटे
पर मछली,
प्राणों में
दर्द पिरा.
*
सहजन की
डाल कटी ,
ताल पर
जमी काई,
कथा अब
नहीं कहता
मंदिर वाला
साईं,
दुःख में
सब एक वचन
कोई नहीं दूसरा.
**
औषधि
जल
तुलसीदल
सिरहाने
बिगलाया,
ईंधन कर दी
अपनी उत्फुल काया,
धरती पर
देह-धरम
आजीवन हुक-भरा.
***
माथे पर
गंगाराज,
हाथों में
इक्तारा,
बोला
चलती बिरियाँ
जनमजला
बंजारा,
वैष्णव जन
ही जाने
वैष्णव जन का
दुखड़ा!
प्रेम शर्मा
('धर्मयुग', १५ फरवरी, १९७०)
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