कहानी : प्रेम भारद्वाज : था मैं नहीं (भाग 2)

इस कहानी के तमाम पात्र वास्तविक है। इनका कल्पना से कोई लेना‒देना नहीं है। अगर कोई इस कहानी में कोई खुद को ढूंढ ले तो वह संयोग नहीं होगा। : प्रेम भारद्वाज


‘फि़र क्या सोचूं’

    ‘यही कि हम मंदी की महामारी के शिकार हो बेरोजगार हो गए हैं। नौकरी छुट गयी‒ नई मिल नहीं रही। छह महीने हो गए, क्या करें? ...कहां जाएं ...?

‘क्या करे?’

    ‘इस सवाल का जवाब तेरे सेकेंड खोपड़ी में तो आने से रहा ...मुझे ही अपनी शातिर दिमाग से कोई रास्ता, कोई आईडिया निकालना होगा, चिंता मत कर‒ मैं सोचता हूं।’


    दोनों मिल कर सोचने लगे। सोचने के क्रम में पीने की रफ्तार बढ़ गई। कमरे में रखे बहुत पुराने टीवी में न्यूज चैनल लगा है। खबरे आ रही हैं। सहसा एक समाचार ने प्रवीण के कान खड़े कर दिए। उसने टीवी की ओर चेहरा घूमाया ...आवाज तेज की। प्रभाकर समझ नहीं पाया कि प्रवीण को अचानक ये हो क्या गया? उसकी दिलचस्पी न्यूज में कैसे हो गयी। उसने भी देखा। ब्रेकिंग न्यूज में रेल मंत्री घोषणा कर रही हैं रेल दुर्घटना में मरे ड्राइवर ... ।

‘‘मिल गया’’ उछल गया प्रवीण।

‘क्या ...।’

‘आईडिया’

‘किस चीज का’

‘नौकरी पाने का’

‘लेकिन बैठे‒बैठे, बिना मेहनत, वो भी शराब पीते हुए मिल गया ...कमाल है भाई’

    ‘टाइम बदल गया है घोंचू‒ अब मेहनत से कुछ नहीं मिलता‒ रोटी मिलती है वो भी बिना दाल के, सूखी‒ अच्छी चीजें तो ऐसे ही शराब पीते हुए हासिल होती हैं ...तभी तो बड़े लोग शराब पीते हैं और देश‒दुनिया चलाते हैं।’

‘सिर्फ़ तूझे ही क्यों मिली यार ...शराब तो मैं भी पी रहा हूं।’

    ‘तू केवल शराब पी रहा है सोच नहीं रहा ...चिंतन नहीं कर रहा। मैं पीने के साथ‒साथ चिंतन भी कर रहा हूं बड़े लोगों और खुशवंत सिंह जैसे नामी लेखकों की तरह‒’

‘तू शराब पीकर लेखक बन गया?’

‘नहीं,मेरा दिमाग क्रियटिव हो गया है ...मैंने कुछ खोजा है ...’

‘क्या’

‘मंदी के दौर में एक अदद सरकारी नौकरी’

‘लेकिन नौकरी है कहां?’

‘एक कदम दूर ...’

    प्रभाकर उठकर खड़ा हो गया। वह बंद दरवाजे की ओर देखा। अगल बगल नजरें दौड़ायी। कहीं कुछ भी नहीं दिखाई दिया उसे।

‘दोस्त ...कुछ दिखाई तो नहीं दे रहा’

उसके इस प्रश्न में पूरी तरह से मासूमियत थी

‘दरअसल, नौकरी नैतिकता के गहरे धुंध में छिपी है, हमें उस धुंध को किसी भी तरह हटाना होगा।’

‘वो कैसे?’

‘रोशनी कर के ...’

‘नहीं अंधेरा बढ़ाकर ...’ प्रवीण के दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था।
पेज़ ३



‘तुमने धुंध कुछ ज्यादा बढ़ा दी ...सीधे शब्दों में बताओ नौकरी कैसे मिलेगी?’

‘हत्या करनी होगी।’

‘शब्दांकन शब्दांकन शब्दांकन शब्दांकन

‘नौकरी के लिए हत्या‒’ प्रभाकर आश्चर्य में पूछा।

‘नौकरी नहीं, नैतिकता के धुंध को हटाने के लिए हत्या।’

‘क्या यह जायज होगा‒’

    ‘विकासवाद के सिद्धांत सिद्धांत के अनुसार इस दुनिया में जो सक्षम है, वही सरवाईव करेगा‒कभी‒कभी खुद को जीवित रखने के लिए कुछ अप्रिय कदम भी उठाने पड़ते हैं उसमें मेरी समझ से कुछ बुरा नहीं है।‒’

‘मामला अप्रिय का नहीं, हत्या का है ...किसी के जीवन का अंत।’

    ‘हर जीवन का अंत तय है‒जंगल में कई जीव खुद को जीवित रखने के लिए दूसरे जीव को मारते है‒यह एक चक्र है‒काल‒चक्र’

‘वो जंगल का जीवन है‒जंगलीपन है‒’

     ‘आज हम जिस दौर में पहुंच गए हैं वो जंगल और जंगलीपन से ज्यादा भयावह है‒जंगल के दरख्त भले ही सिमटकर बालकनी के गमलों में आ गए है‒सभ्यता का विकास भी हुआ है‒ मगर मन के भीतर का जंगलीपन कबिलाई युग का है‒’
‘हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं‒’

    ‘यह सिर्फ़ तकनीकी और तिथिगत मामला है‒इतिहास का एक पड़ाव है‒मोटी बात यह है कि वो चाहे कबिलाई युग हो या इक्कीसवीं सदी‒ हमें इस दुनिया में जीने का अधिकार है‒कैसे भी’

‘खुद के जीने के लिए दूसरे के जीवन का अंत’

‘विध्वंस के बाद ही निर्माण होता है‒ ...’

‘हत्या किसकी करनी होगी?’

‘हत्या नहीं, हत्याएं ... हम दोनों अपने‒अपने पिताओं की हत्या करेंगे और उसे एक दुर्घटना का रूप देंगे।’

    ‘साले, तू पागल हो गया है‒’ गुस्से में प्रभाकर ने प्रवीन का कालर पकड़ लिया‒ ‘या फि़र शराब ने तेरा दिमाग खराब कर दिया है’

    गुस्से में गिलास में बची शराब को प्रभाकर ने प्रवीण के चेहरे पर फ़ेंक दिया।


    प्रवीण ने कोई प्रतिकार नहीं किया। वह शांत रहा। मौन। चेहरे पर चिर शांति का भाव। वह कुरुक्षेत्र में खड़े महा‒भारतकालीन कृष्ण की तरह मंद‒मंद मुस्कराते हुए उपदेश देने के अंदाज में बोला‒‘गीता में कृष्ण ने कहा है‒ इस पृथ्वी पर अपना पराया कोई नहीं‒रिश्तों की माया है। हम सब मनुष्य मात्र है। जीत अगर अपनों की लाश से गुजर कर मिलती हो तो यह पुण्य‒पथ है। यही महाभारत का सच था‒आज भारत में भी है। हमारी जीत हमारी नौकरी है‒ समझे वत्स, यही इस दौर का सच है। जीना है अपने लिए। कैसे भी।’

प्रवीण समझता तो क्या?
पेज़ ४


 दृश्य‒तीन 
रमेश आज सुबह उठते ही परेशान हो गया‒ रात को सपने में पिता आए थे। वहीं उदास चेहरा। कुछ लोगों का जीवन उदासी के वृत्त से बाहर नहीं निकल पाता। पिता उन्हीं कुछ लोगों में शुमार थे। हैं नहीं, थे। मर चुके हैं। मर कर भी उदासी। इसी उदासी से मुक्ति के लिए तो उन्होंने मौत का वरण किया था। बगैर इस बात की परवाह किये कि उनके पीछे छुट गए उन लोगों का क्या होगा जिसे परिवार कहते हैं‒ पत्नी, बच्चे, मां, बहन।

    रमेश अपने पिता को उस नायकत्व वाले नजरिये से नहीं देखता जैसा कि आमतौर पर भारतीय पुत्र देखने के आदी होते हैं। उसके पिता आदर्श न कल थे, न आज हैं। हो भी नहीं सकते। उसकी नजरों में वे एक कायर और खुदगर्ज इंसान रहे।

    वह अक्सर सोचता है‒ उसके पिता की खुदकुशी, क्या खुदगर्जी का ही नया नाम नहीं है। एक नया रूप। खुद को खत्म करने का स्वार्थ से भरा फ़ैसला। विषम स्थितियों से घबड़ाकर उससे मुक्ति का एक भ्रम भरा रास्ता ......।
वह दो साल बाद भी अपने पिता को माफ़ नहीं कर सका है‒ कर भी नहीं पाएगा।

     दो साल पहले पिता ने आत्महत्या कर लिया था। किसान थे। हर साल सूखा पड़ता जा रहा था। काश्तकार से कर्ज लिया‒ सोचा तो यही होगा कि अगले साल अच्छी फ़सल होने पर कर्ज चुका देंगे। सूखा अगले साल, और उसके अगले साल भी जारी रहा। कर्ज बढ़ता गया। हजारों का कर्ज लाखों में पहुंच गया। काश्तकार का दबाव बढ़ता जा रहा था। एक रात पिता नहीं लौटे। हमने उन्हें ढूंढा। वो नहीं मिले। अगली सुबह खेत में उनकी लाश मिली। उस खेत में जिसकी छाती फ़ाड़कर वो सालों‒फ़सल उगाते रहे थे। पता नहीं पिता ने मरने की जगह घर के बजाय खेत को ही क्यों चुना? क्या कोई संदेश देना चाहते थे‒रमेश आज तक नहीं समझ सका है।

     पर रमेश जरा भी दुखी नहीं हुआ था। अलबत्ता गुस्सा आया था। मन में नफ़रत उमड़ पड़ा था। कोई व्यक्ति इतना कायर भी हो सकता है‒ इससे तो बेहतर होता कि वो कर्ज का तगादा करने वाले काश्तकार का गला काट देते‒इस देश के प्रधानमंत्री की हत्या कर देते। उस मंदिर को ध्वस्त कर देते जिसमें स्थापित देवता की मूर्ति पर उन्हें अटूट भरोसा था।
रमेश ने खेत बेचकर कर्ज चुकाया। होरी से गोबर बन गया। उस खेत का क्या काम जो जीवन को पालने ही बजाय उसका अंत करने लगे‒ उस पर गेहूं‒धान की जगह मौत की फ़सल लहराए। उसके गांव के अधिकतर युवाओं ने शहर की ओर रूख किया। किसानी में जान देने की आत्मघाती रास्ते पर न चलकर, शहर जाकर मजदूर बनना स्वीकारा। वह भी मजदूर बनने शहर चला आया।

     को छोड़ते वक्त आंखों में जीवन को बेहतर बनाने का सपना था। तब इस बात का जरा भी इल्म नहीं था कि शहर में नौकरी पाना कितना कठिन है। गांव से विदा के वक्त मां के आंसुओं को पोछते वक्त भरोसा दिलाया था‒ ‘मत रो मां‒मैं कब्रिस्तान को छोड़कर जीवन की तलाश में जा रहा हूं ...इस गांव में मौत है। अपनी बारी का इंतजार नहीं करना है मुझे ...पिता की तरह कायर नहीं हूं ...मरने की स्थितियों में भी मैं कईयों को मार कर ही मरूंगा‒ मुझे खुद के लिए जीना है‒।’

    मां रमेश की ऊंची‒ऊंची बातों को सुनते हुए भी जैसे नहीं सुन रही थी। वो बस एक ही बात जानती थी‒पहले पति ने हमेशा के लिए साथ छोड़ा। अब इकलौता बेटा भी दूर जा रहा है। उसे अकेला छोड़कर। बोली कुछ नहीं। आंसुओं के बहने की रफ्तार तेज हो गयी।

    शहर में आए रमेश को महीना से ज्यादा हो गया। अभी तक नौकरी नहीं मिली। लेकिन आज सपने में पिता क्यों आए? उसने तो पिता के संबंध में सोचना ही छोड़ दिया। आए भी तो उसी मनहूसियत वाले अंदाज में‒उदासी का खंडहर बनी सपने में भी भाषण पिला गए‒ बेटा, जीवन में संवेदना बहुत जरूरी है‒।
झल्ला गया वह। जिस संवेदना ने उनके लिए आत्महत्या का मार्ग प्रशस्त किया। उससे मरकर भी पीछा नहीं छुटा। और हसरत है कि उनकी आने वाली पीढ़ियां भी आईस वर्ग से टकरा चुकी संवेदना की टाईटैनिक में सवारी करे जिसका समंदर में डूबना तय है। नहीं करनी उसे संवेदना के टाईटैनिक की सवारी। वह स्वार्थ की डेंगी से ही खुद को किनारे पहुंचाएगा।
पिता की बेकार की यादों को झटक कर वह ग्यारह बजे एक कंपनी के दफ्तर पहुंचा जहां मात्र एक ही पद रिक्त था‒ इसके बारे में आज के ही अखबार में विज्ञापन पढ़ा था उसने।


    वह सीधे मैनेजर से मिला‒ ‘‘सर, आपके यहां सुपरवाइजर की जगह है। ये है मेरा बायोडाटा।’’‒

‘सॉरी‒’ मैनेजर ने उसका बायोडाटा लेने से मना कर दिया‒।

‘क्यों, क्या हुआ?’

‘ये जो बगल में बैठे हैं कि मि. पटेल इनको हमने अप्वाइंट कर लिया‒ आप थोड़े लेट हो गए‒’

‘थैंक्स‒’ वह निराश हो गया। वह जब मैनेजर के केबिन से निकला तो दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था‒
पेज़ ५



 दृश्य‒चार 

‘हां तो साक्षी जी, मैं एक करोड़ के लिए अंतिम सवाल पूछता हूं‒आप तैयार तो हैं’

‘जी‒बिल्कुल।’

    ‘एक करोड़ का सवाल। बहुत बड़ी राशि होती है यह। ये रुपये आपका जीवन बदल सकते हैं‒ क्या करेंगी इन रुपयों का‒’

    ‘कई प्लान हैं‒ मकान, गाड़ी, लक्ज़िरिय्स लाइफ़ ...पहले मिडिल क्लास की घुटनदार माहौल से निकलें तो‒’ साक्षी की आंखों में सपना तैर रहा था‒शानदार जीवन का सपना।

    ‘मेरी शुभकामनाएं आपके साथ है‒ आप एक करोड़ रुपये यहां से लेकर जाएं। बाकी की जिंदगी मौज‒मस्ती से काटें‒हां, तो एक करोड़ का प्रश्न है कि ये जो सामने आपका बेटा अमन है‒ वो क्या कुछ सचमुच ही आपके पति से है या आपके किसी प्रेमी के साथ जिस्मानी रिश्तों का नतीजा है।’



     बिजली के 440 वोल्ट का झटका लगा साक्षी को। हिल उठी वह। अप्रत्याशित प्रश्न। लेकिन इसे अप्रत्याशित भी नहीं कहा जा सकता। पति वेदांत समेत तमाम रिश्तेदारों का चेहरा फ़क्क। बेटा अमन इतना समझदार हो गया है कि जिस्मानी रिश्तों का अर्थ समझ सके। वह विस्फ़ारित नजरों से अपनी मां साक्षी को देखने लगा। इसका जवाब जो सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी के वजूद से जुड़ा है और जो उसके जीवन में अब जलजला ला सकता है। सच भी क्या ऐसे होते हैं? पर्दे के पीछे के सच? क्या सच का सामना ऐसा होता है? क्या रिश्तों की इमारत इस किस्म के सच की नींव पर खड़ी होती है? मासूम अमन सवालों के सर्प से लिपटता चला गया।

    टीवी पर इस बेहद चर्चित धारावाहिक को देख रहे लाखों दर्शक की नजरें साक्षी पर टिकी थी। उन्हें उसके जवाब का इंतजार है। उत्सुकता चरम पर। एक अलग किस्म का थ्रिल। रोमांच। साक्षी, अमन वेदांत के दिमाग में क्या चल रहा था, इसे केवल वहीं जानते‒समझते थे।

    ‘सोचिए साक्षी जी‒ खूब सोचिए‒सवाल एक करोड़ का है‒ लाइफ़ बदल जाएगी। जीने का स्टाइल बदल जाएगा। इतने पैसे तो आपने कभी देखे भी नहीं होंगे। बेशक इस सवाल का जवाब रिश्तों का समीकरण गड़बड़ा सकता है‒ कुछ लोग आपकी आलोचना भी करेंगे। लेकिन लोगों का काम है कहना। समय बदल गया है‒आज के जमाने में पैसा ही सब कुछ है। वह प्रतिष्ठा दिलाता है‒रिश्तेदारों को फ़ेविकोल के जोड़ की तरह चिपकाए रखता हैं। सोचिये, हिम्मत कीजिए। एक जवाब, एक करोड़। आगे की लाइफ़ चकमक‒चकमक। गलत जवाब से फि़र वही मिडिल क्लास का दलदल। न पैसा, न प्रतिष्ठा। केवल टेंशन। मरी हुई इच्छाओं के ढेर पर वही पुरानी जिंदगी। लाइफ़ में ऐसा चांस बहुत कम मिलता है साक्षी जी‒ अवसर आपके आगे बाहें फ़ैलाए खड़ा है। बस, उठकर आपको उसे गले लगाना है।’
पेज़ ६


 दृश्य‒पांच 


     रेलवे केबिन के सामने पटरी पर दो लाशे पड़ी हैं। रात का वक्त। सूनसान इलाका। ये लाशें प्रभाकर और प्रवीण के पिताओं की है। अनुशंसा पर नौकरी पाने के लिए यह जरूरी था कि उनके पिता ड्यूटी के दौरान मारे जाएं। वहां से जाने के पूर्व दोनों केबिन के बाहर पटरी पर लाशों को देखते हैं। स्वार्थ के लहू में लथपथ रिश्तों की लाश।

    ‘हमने अच्छा नहीं किया प्रवीण‒ नौकरी पाने के लिए पिता की हत्या।’

    ‘हम किसी की हत्या करने वाले कौन होते हैं वत्स‒?’ प्रवीण का अंदाज फि़र वही गीता का उपदेश देने वाले कृष्ण सरीखा था‒’ ईश्वर की मर्जी के बगैर इस सृष्टि में कोई पत्ता भी नहीं हिलता‒ जो कुछ अभी यहां घटित हुआ उसमें ऊपर वाले की मर्जी है। हम तो एक माध्यम भर है‒।

    ‘तेरे चक्कर में मैं भी मारा जाऊंगा‒’

    ‘हमें मरना नहीं, मारना है, जीतना है‒महाभारत जीतने के लिए लाखों लोग मारे गये‒भाई ने भाई को मारा, शिष्य ने गुरु की हत्या की। गीता में कृष्ण ने संदेश दिया था‒ माया‒मोह त्याग कर युध करते हुए जीत हासिल करो।‒’

    ‘पिता को मारकर जीत‒’

    ‘यह एक महज इत्तफ़ेाक है कि वो हमारे पिता थे‒ यह भी संयोग है कि उनका अंत हमारे हाथों हुआ। वैसे देह नष्ट होता है आत्मा अजर अमर है। हमें पूरी उम्मीद है और हमारी प्रार्थना भी कि हमारे इन जन्मदाताओं की आत्मा को कोई भी कोई शानो‒शौकत वाला अगला जन्म मिले‒ नए देह में नया जीवन। गहरी अंधेरी रात के बाद सुबह की तरह। हमने इनको लाइन मैन की बोरिंग नौकरी से मुक्त कर दिया। पच्चीस साल से ट्रैक बदलते रहे। ट्रेनों को सही रास्ते पर डालते रहे कि वो मंजिल तक पहुंच सके‒ खुद की जिंदगी का ट्रैक नहीं बदल सके‒नहीं पा सके मंजिल‒’

    ‘मुझे घबराहट हो रही प्रवीण‒ तेरे उपदेश को सुनने के बाद भी।’

    ‘चल दारू पीते हैं, सारी घबराहट दूर हो जाएगी‒। रोना तो है ही कल सुबह इन लाशों से लिपटकर, जैसे हमारा सबकुछ लूट गया हो‒’

    ‘तू इमोशनलेस हो गया है‒’

    ‘जीने की राह यहीं से होकर गुजरती है‒ भावनाओं को स्वार्थ के रथ से रौंदकर ही महाभारत का युध लड़ा गया। लाखों लाशें बिछाई गई। वह सब कुछ सत्य के लिए नहीं हुआ था‒सत्ता के लिए किया गया था जो स्वार्थ का ही दूसरा नाम है। वह चाहे सत्ता हो या स्वार्थ‒क्रूर ही होता है।’

     प्रवीण ने जेब से पौव्वा निकाला। दो घूंट खुद पीने के बाद बोतल प्रभाकर की ओर बढ़ा दिया। वह गुनगुनाने लगा‒मुझको यारों माफ़ करना,‒मैं नशे में हूं।
पेज़ ७



 दृश्य‒छह 

    रमेश पूरी शक्ति के साथ दौड़ रहा है। आज वह लेट नहीं होगा‒किसी भी सूरत में नहीं। वह उस ऑफि़स की ओर दौड़ रहा था जहां कुछ दिन पहले उसे नौकरी यह कहकर नहीं मिली थी कि वह लेट हो गया‒ उसकी जगह पटेल को नौकरी दे दी गयी।

    कुछ ही पल बाद वह मैनेजर के केबिन में धड़धड़ता हुआ दाखिल हुआ। वहां एक महिला बेहद उदास बैठी थी। मैनेजर समझ नहीं पाया कि इस आमदी को हुआ क्या है? इसमें पहले कि मैनेजर कोई सख्त टिप्पणी करता, रमेश ने हाफ़ंते‒हाफ़ंते कहा‒ सर, आज मैं लेट नहीं हूं‒ मुझे वो नौकरी दे दीजिए जो कुछ दिन पहले आपने पटेल को दी थी‒ पटेल की एक दुर्घटना में मौत हो गई है‒ मैं उसकी लाश देखकर भागा‒भागा आया हूं।’

    ‘वो नौकरी तुम्हें नहीं मिल सकती’

    ‘क्यों’



    ‘मि. पटेल को नौकरी से निकाल दिया गया था‒ दरअसल उस पोस्ट को ही मंदी के दौर में खत्म कर दिया गया है शायद नौकरी जाने के गम में ही उसने आत्महत्या कर ली होगी।’

    दुर्घटनाग्रस्त पटेल‒पिता की उदासी, खेत में पड़ा उनका शव‒ मां के आंसू, एक‒एक कर सब रमेश की आंखों के सामने आने लगे।
पेज़ ८



 दृश्य‒सात 

    ‘दुविधा‒ द्वंद्व‒भय‒रिश्तों का शीरजा बिखरने का डर। वह डर जो आदमी को सच बोलने से रोकता है‒बहुत ज्यादा सयम ले रही हैं साक्षी जी‒’

     ही ऐसा है‒’

     का संबंध सच से है‒सच तो सच ही होता है‒मैं एक बार फि़र सवाल दोहराता हूं। आपका बेटा अमन क्या आपके किसी प्रेमी के साथ जिस्मानी रिश्तों का नतीजा तो नहीं।’

     मेरे पति से ही है’ मन को मजबूत कर जवाब दिया साक्षी ने।

     के पिता आपके पति यानी वेदांत जी का ही है‒ चलिए, इन पोलीग्राफ़ जी से पूछते हैं कि क्या यह सही जवाब है‒’
‘यह गलत जवाब है‒’ पोलीग्राफ़ की टिप्पणी।

    साक्षी ने अपना माथा पीट लिया। वहां मौजूद रिश्तेदारों में सबसे बुरी स्थिति अमन की थी? उसके वजूद पर सवालिया निशान लग गया। मां ने झूठ बोला। सच यह है कि वो एक नाजायज औलाद है‒। मां के विवाहेत्तर जिस्मानी रिश्तों का नतीजा। अमन की आंखे नम हो गईं। उसने टीवी पर महाभारत देखा था। कर्ण का चेहरा उसे याद आया। साक्षी का चेहरा अचानक कुंती में तब्दील हो गया। अगर उसके पास दो करोड़ रुपये होते तो वह अपनी मां से अगला सवाल पूछता‒ ‘अब एक और‒सच बोल दीजिए मम्मी जी बदले में दो करोड़ दूंगा। मेरा असली पिता कौन है?’
पेज़ ९



    और अंत में

    ये थीं कुछ असल जिंदगियां ...कुछ हादसे ...कहानी की शक्ल लिए हकीकत की कुछ बदरंग सूरतें। महाभारत नहीं वर्तमान इंडिया के कुछ पात्र है। ऊपर लिखी गई कहानी में तमाम पात्र वास्तविक हैं जिनके बारे में मेरे दोस्त ने बताया।
कहानी के तमाम पात्र मेरे दोस्त के साथ ही जेल में बंद थे‒ एक ही वार्ड में। सब पर हत्या का आरोप। इन हत्यारों में मेरा दोस्त कौन था, इसे राज रहने दीजिए।

    क्या हर घटना के लिए वजह अनिवार्य तत्व है? क्या जो जीवन हम जीते हैं वह किसी कारण से होता है? बहुत कुछ यूं ही‒ बेसबब नहीं होता। लेकिन दूसरी तरफ़ कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि इस जीवन में कुछ भी अकारण नहीं होता। रियल्टी शो में जाने से पहले वेदांत और साक्षी में एक सहमति बनी थी कि वो एक करोड़ हासिल करने के लिए केवल सच ही बोलेगी‒ चाहे वो सच वेदांत के लिए कितना भी क्यों न कष्टप्रद हो। वह बुरा नहीं मानेगा। मंदी के दौर में नौकरी गंवा चुके वेदांत को एक करोड़ चाहिए था‒ एनीहाऊ, एंड एनी कंडीशन। तय हुआ था वेदांत साक्षी के देह‒संबंधों के सच को भी सहन कर जाएगा। साक्षी को तब नहीं मालूम था वो एक करोड़ रुपया हासिल करने के वास्ते पति की योजना का एक माध्यम बनने जा रही है। शोषण का नया तरीका। लेकिन इसका क्या किया जाए कि न साक्षी अंतिम सच बोलने का साहस दिखा पायी, न उस सच का सामना वेदांत ही कर पाया। न सनम मिला, न विसाले यार।

पेज़ १०

    न जाने मुझे यह क्यों लगता है कि इस कहानी के जो पात्र हत्या कर जेल पहुंचे है वो एक निमित्त मात्र है‒एक माध्यम, एक यंत्र है, महाभारतकालीन पात्र जो स्वार्थ और सत्ता में लिपटे अपने स्वार्थ के लिए लड़ रहे हैं। ये असली अपराधी नहीं है ...जेल में जो पात्र पहुंचे है उनके भीतर अंधायुग उतर आया ...उन्होंने किसी मर्यादा‒नैतिकता का उल्लंघन नहीं किया, क्योंकि उनकी अपनी कोई मर्यादा थी ही नहीं। वो तो शतरंज पर बिछे मोहरे भर हैं। चाल तो कोई और चल रहा है। वास्तविक अपराधी कोई और है जो जेल से बाहर है ...तय जानिए वह कृष्ण के ‘गीता’ की कोई नियति या ईश्वरीय‒सत्ता नहीं। वह हमारे बीच का कोई व्यक्ति अथवा सत्ता है। उसे ढूंढना होगा‒आप उसे ढूंढे ...मैं भी उनकी खोज में हूं। अगर आपको पहले मिल जाएं तो मुझे सूचित करें‒
                                       
प्रेम भारद्वाज
बी‒82, प्रथम तल
जीडी कालोनी
मयूर विहार फ़ेज – 3
दिल्ली‒96

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2 टिप्पणियाँ

  1. इस कहानी को पहली बार मैं घर जाते वक्त "पुनर्नवा" में पढ़ रहा था और ऐसा महसूस रहा था कि यह कहानी नहीं, मेरी जिन्दगी है- मसलन मेरे पिता भी किसान मैं कैरियर की तलाश में पलायनवादी पुत्र। अरे मेरी ही नहीं उसकी भी जिन्दगी जो मेरे साथ दिल्ली में रहता है। और कौन? ....... इस कौन के जवाब में सारे के सारे अपने-अपने गाँव के पलायनवादी मेरी नज़रों में इस कहानी के अन्दर वैसे ही दिख रहे थे जैसे कभी अर्जुन को कृष्ण के विराट रूप में सारा हाहाकार दिख रहा था।
    वाकई प्रेमजी की इस कहानी ने अन्दर तक छुआ। एक बार पुनः इस कहानी से साक्षत्कार कराने के लिए "शब्दांकन" को धन्यवाद।

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