नयी सदी के प्रयोगधर्मी फिल्मकार- सुनील मिश्र
नयी सदी के सिनेमा में बाजारू सिनेमा के समानान्तर एक धारा और विकसित होते हम देख रहे हैं। हमारे सामने ऐसे युवा फिल्मकारों का काम पिछले लगभग एक पूरे दशक में उभरकर आया है जिन्होंने अपनी फिल्मों में समय और समयसापेक्ष चुनौतियों को प्रमुख मुद्दा बनाया है। उनके सिनेमा में कथ्य सशक्त है, उसका निर्वाह स्वतंत्रता लेकर साहस के साथ किया गया है और ऐसे पक्षों का समावेश किया गया है जो कहीं न कहीं हमें गहरे भीतर कुरेदते हैं। ऐसे फिल्मकारों में हम विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, टिग्मांशु धूलिया, मधुर भण्डाकर और राजकुमार हीरानी की अहम भूमिका सिनेमा के नवाचार में देखते हैं।
प्रतिबद्धता के साथ बनाया गया सिनेमा कुछ कठिन और किसी हद तक तनाव देने वाले विषयों का चयन करता है। यह इन फिल्मकारों की खूबी है कि ये अपने काम में व्यापक होकर प्रयोग करते हैं और आधुनिक होते समाज के सामने चुनौतियों और विचार की सम्भावनाएँ बनाते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि ऐसे फिल्मकारों को लम्बा संघर्ष करना पड़ा है मगर यह भी सच है कि आज यही फिल्मकार सिनेमा की भाषा में कहा जाये तो लाइम लाइट में हैं और अग्रणी पंक्ति में दर्शकों के भरोसे के साथ खड़े हैं।
प्रतिबद्धता के साथ बनाया गया सिनेमा कुछ कठिन और किसी हद तक तनाव देने वाले विषयों का चयन करता है। यह इन फिल्मकारों की खूबी है कि ये अपने काम में व्यापक होकर प्रयोग करते हैं और आधुनिक होते समाज के सामने चुनौतियों और विचार की सम्भावनाएँ बनाते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि ऐसे फिल्मकारों को लम्बा संघर्ष करना पड़ा है मगर यह भी सच है कि आज यही फिल्मकार सिनेमा की भाषा में कहा जाये तो लाइम लाइट में हैं और अग्रणी पंक्ति में दर्शकों के भरोसे के साथ खड़े हैं।
विशाल भारद्वाज एक संगीत कम्पोजर और संगीतकार के रूप में हमसे परिचित हुए थे और वह भी गुलजार के सान्निध्य में लेकिन जब उन्होंने सिनेमा बनाना शुरू किया तो मकड़ी और ब्ल्यू अम्ब्रेला जैसी अहम बाल फिल्मों के साथ मकबूल, ओमकारा, कमीने और ‘सात खून माफ’ फिल्में बनायीं। इन फिल्मों ने उनकी पहचान दुनिया में प्रसिद्ध उपन्यासकारों की कामयाब कृतियों पर काम करने की चुनौती उठाने वाले फिल्मकार के रूप समृद्ध की। उनका सिनेमा हमेशा चर्चा में रहता है, बनते हुए, बनकर सामने आने पर और कुछ दिन बाद तक भी। उनकी पिछली फिल्म मटरू की बिजली का मन डोला एक दिलचस्प फिल्म थी जिसमें हम पंकज कपूर को एक और प्रभावी किरदार में देखते हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वे एक जटिल और संवेदनशील कलाकार हैं मगर विशाल के साथ उन्होंने मकबूल, ब्ल्यू अम्ब्रेला फिल्में भी की हैं, ये सभी फिल्में अपने आपमें बड़ी महत्वपूर्ण हैं।
अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग ऑफ वासेपुर उनकी क्षमताओं का चरम है जैसे। अपनी फिल्म ब्लैक फ्रायडे से ध्यान आकृष्ट करने वाला यह फिल्मकार बहुत सारी सशक्त मगर न चल पाने वाली विचारोत्तेजक फिल्मों के कारण लगातार चर्चा में बना रहा है। इस बीच नो स्मोकिंग, देव-डी, गुलाल, मुम्बई कटिंग, दैट गर्ल इन यलो बूट्स आदि फिल्मों ने अनुराग कश्यप की सिने-दृष्टि को दर्शकों के सामने रखा। दर्शकों को अपने पक्ष में करने में अनुराग कश्यप को वक्त लगा है मगर इस समय में न खारिज किए जा सकने वाले सिनेमा और खासतौर पर सिनेमा की सशक्त धारा के एक बड़े पैरोकार बनकर सामने आये हैं। अनुराग कश्यप सिनेमा माध्यम को अर्थवान बनाने का एक अलग सा काम कर रहे हैं। उनका सिनेमा विचार के धरातल पर हमारे सामने अनेक प्रश्र खड़े करता है। वह हमको झकझोरता भी है और यही उसकी खूबी भी है क्योंकि आज झकझोरने वाला सिनेमा, विचलित करने वाला सिनेमा बनता ही कितना है? गैंग ऑफ वासेपुर की व्यापक सफलता ने उनको मजबूत किया है, उनकी अपनी रचनाधर्मिता और इरादों के साथ।
टिग्मांशु धूलिया ने अन्तत: पान सिंह तोमर बनाकर कमाल किया है। एक पूरे के पूरे उस असर की फिल्म जो हमें सीधे एक बड़ी पिछली फिल्म बैण्डिट क्वीन से जोड़ती है जिसे शेखर कपूर ने निर्देशित किया था। टिग्मांशु की फिल्म के साथ बैण्डिट क्वीन की बात इसलिए की जा रही है क्योंकि वे उस वक्त शेखर की फिल्म का हिस्सा थे और चम्बल के बीहड़ों का उन्होंने एक तरह से शोध सा कर लिया था। यही कारण है कि उनके कैमरे के साथ, उनकी दृष्टि के साथ हमें फिर उन जगहों पर एक कहानी के साथ जाना रोमांचित करता है। यों टिग्मांशु ने हासिल से लेकर चरस, शागिर्द, साहब बीवी और गैंगस्टर तक चार-पाँच महत्वपूर्ण फिल्में बनायी हैं और पाँच और महत्वपूर्ण फिल्मों पर काम कर रहे हैं। एक अभिनेता के रूप में उन्होंने अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग ऑफ वासेपुर में जान डाल दी है, यह एक अलग आयाम सामने आया है। अभिनेता टिग्मांशु हमारे लिए एक नयी उपलब्धि हैं। वे भी अपनी फिल्मों के दूसरे भाग बनाने में रुचि लेते हैं। साहब बीवी और गैंगस्टर का दूसरा भाग बनाकर और उसमें आलोचकों के साथ-साथ बाजार का भी समर्थन हासिल करके उन्होंने अपना महत्व रेखांकित किया है।
मधुर भण्डाकर की पहुँच हमारे समाज और दर्शकों में अलग ढंग से है। उनकी फिल्म चांदनी बार ने बार गर्ल की दुनिया को नजदीक और यथार्थ के साथ देखा था। सही मायनों में यह मधुर की अपनी दृष्टि फिल्म थी। मधुर व्यावसायिक सिनेमा में अपने सिनेमा के साथ सफल हुए तो उन्होंने फिर कार्पोरेट, पेज थ्री, ट्रैफिक सिग्रल, फैशन, जेल, सत्ता, हीरोइन आदि फिल्में बनायीं हैं। मधुर की खासियत यह है कि वे अपने काम के साथ सुर्खियों में रहने के गुर खूब जानते हैं और ऐसे खास निर्देशक हैं जिनकी अपनी सितारा हैसियत और विवादप्रियता हमेशा चर्चा का विषय बनी है। उनका सिनेमा हमें आकृष्ट करता है। मधुर की फिल्म को लेकर एक जिज्ञासा और कौतुहल जो दर्शकों का बन गया है, वह फिलहाल तो स्थायी है।
राजकुमार हीरानी एक मौलिक फिल्मकार हैं। हीरानी वास्तव में ऐसे निर्देशक हैं जिनकी फिल्म में कथा, पटकथा, दृश्य और संवादों को आप मुकम्मल तैयारियों के साथ प्रस्तुत हुआ पाते हैं। हीरानी ऐसे निर्देशक हैं जो सम्प्रेषण की गहरी कला को जानते हैं और अगर अतिश्योक्ति न माना जाये तो प्रत्येक दर्शक के लिए फिल्म बनाते हैं। ऐसी कला में दूसरे निर्देशक माहिर नहीं हैं। व्यंग्य को अपनी रचनात्मकता का इतना प्रभावी, इतना सफल और इतनी गहरी मार करने वाला औजार बनाकर उन्होंने काम किया है वह अनूठा है। थ्री ईडियट्स उनके सृजन का चरम प्रतीत होती है। लगता है कि यह उनकी क्षमताओं का सन्तुष्टिकरण है और उनके जीवन का सबसे बड़ा सृजनात्मक उपक्रम। मुन्ना भाई एम बी बी एस और लगे रहो मुन्ना भाई के बाद यह फिल्म साबित कर देती है कि अपने जीवन का सबसे बड़ा काम राजकुमार हीरानी कर चुके हैं।
ये फिल्मकार निश्चित रूप से अपने श्रेष्ठ काम से प्रतिष्ठित हुए हैं। यों देखा जाये तो इनकी फिल्मों को प्रदर्शित किए जाने के पहले किसी बहुत बड़े प्रोपेगण्डा का सहारा नहीं लेना होता। इन फिल्मकारों की फिल्में ज्यों-ज्यों बनती हैं, त्यों-त्यों चर्चा और सुर्खियों में आती जाती हैं। किसी भी फिल्म की सफलता का ऐसा स्वाभाविक रास्ता क्या बुरा है?
10/21 साउथ टी.टी. नगर, भोपाल-3, मध्यप्रदेश
राजकुमार हीरानी एक मौलिक फिल्मकार हैं। हीरानी वास्तव में ऐसे निर्देशक हैं जिनकी फिल्म में कथा, पटकथा, दृश्य और संवादों को आप मुकम्मल तैयारियों के साथ प्रस्तुत हुआ पाते हैं। हीरानी ऐसे निर्देशक हैं जो सम्प्रेषण की गहरी कला को जानते हैं और अगर अतिश्योक्ति न माना जाये तो प्रत्येक दर्शक के लिए फिल्म बनाते हैं। ऐसी कला में दूसरे निर्देशक माहिर नहीं हैं। व्यंग्य को अपनी रचनात्मकता का इतना प्रभावी, इतना सफल और इतनी गहरी मार करने वाला औजार बनाकर उन्होंने काम किया है वह अनूठा है। थ्री ईडियट्स उनके सृजन का चरम प्रतीत होती है। लगता है कि यह उनकी क्षमताओं का सन्तुष्टिकरण है और उनके जीवन का सबसे बड़ा सृजनात्मक उपक्रम। मुन्ना भाई एम बी बी एस और लगे रहो मुन्ना भाई के बाद यह फिल्म साबित कर देती है कि अपने जीवन का सबसे बड़ा काम राजकुमार हीरानी कर चुके हैं।
ये फिल्मकार निश्चित रूप से अपने श्रेष्ठ काम से प्रतिष्ठित हुए हैं। यों देखा जाये तो इनकी फिल्मों को प्रदर्शित किए जाने के पहले किसी बहुत बड़े प्रोपेगण्डा का सहारा नहीं लेना होता। इन फिल्मकारों की फिल्में ज्यों-ज्यों बनती हैं, त्यों-त्यों चर्चा और सुर्खियों में आती जाती हैं। किसी भी फिल्म की सफलता का ऐसा स्वाभाविक रास्ता क्या बुरा है?
10/21 साउथ टी.टी. नगर, भोपाल-3, मध्यप्रदेश
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