बहुवचन की प्रति प्रेषित करने के साथ ही संपादक अशोक मिश्र ने मुझे अपनी निष्पक्ष राय देने का आदेश भी दिया... अब कहाँ उनके जैसा वरिष्ठ अनुभवी संपादक और कहाँ मैं ! बहरहाल उस दिन की डाक में एक भारी लिफ़ाफ़ा भी था, उसने अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित कराया - जैसे कह रहा हो "मुझ से बच कर कहाँ जाओगे !" ... अन्दर से तीन रंगों के पंखों सी सजी बहुवचन निकली - मेरे अन्दर का डिज़ाइनर ये देख कर खुश हुआ कि आवरण पर भीड़ नहीं है और स्तर - प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय फ्लैट प्रारूप का है. बधाई !
अगले पृष्ठ पर सम्पादक जी की मेरे लिए लिखी पंक्ति को कई बार पढ़ने के बाद जब अनुक्रम देखा तो पाया - कथाकारों की सूची, अंक के नाम "कहानी का दूसरा समय" को प्रमाणित कर रही है। आज के समय के ज्यादातर कथाकारों को एक साथ देख कर लगा कि जैसे कहानीकारों के किसी जमावड़े में मुझे भी आमंत्रित करा गया है - कि आयें और कहानियाँ सुने !
खैर उसके बाद सम्पादकीय "दूसरे समय की कहानी" पढ़ने पर अहसास हुआ कि ये जमावड़ा करने के लिए संपादक को खासी मसक्कत करनी पड़ी होगी (अशोक जी आपको ज़रूर ही बेटी की शादी करने जैसा ही कुछ-कुछ लगा होगा ?) । सम्पादकीय अपने में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है और मैंने पढ़ने के साथ ही सोचा कि संभव हुआ तो इसे "शब्दांकनगण" तक ज़रूर लाऊंगा, ख़ुशी है कि आज ये संभव हो सका और आप तक ला पाया. इसके लिए अशोक जी का आभारी हूँ।
बहरहाल पहली कहानी मैंने पढ़ी, अपने प्रिय कहानीकार प्रेम भारद्वाज की "प्लीज़ किल मी मम्मी" और हमेशा की तरह प्रेम जी फ़िर कमाल का लिखे ही मिले... उन्हें फ़ोन कर उनसे कहानी माँगी और आप तक पहुंचाई जिसे आपने पसंद भी करा। बाकी की कहानियाँ एक-एक कर पढ़ रहा हूँ, यहाँ ये बता दूं कि ज्यादातर अच्छी लग रही हैं और वक़्त के साथ उनको आप तक पहुँचाने का प्रयास करूँगा।
पत्रिका में, वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता द्वारा लिया गया सुश्री अर्चन वर्मा का साक्षात्कार, हिंदी साहित्य के लिए एक धरोहर है।
एक-दो बातें और - अशोक जी आवरण अच्छा है, लेकिन अभी और बेहतर होने की गुंजाईश है, आशा है कि अगले अंक का आवरण एक मानक होगा और हिंदी साहित्य की पुस्तक के आवरण पर पायी जाने वाली अनावश्यक भीड़ को कैसे कम करा जाए, ये सिखाएगा. पत्रिका में पद्य की कमी खली - ऐसा ना करें भाई ! कहानियों के बीच में कविता, गज़लें पढ़ने का भी अपना एक लुत्फ़ है, हम पाठको को उससे ना वंचित करें.
अंत में एक बार फ़िर आपको अशेष बधाईयां .
आपका
भरत तिवारी
नए वर्ष की शुरुआत के साथ ही मुझे लगा कि क्यों न आज के हिंदी कहानी परिदृश्य का अवलोकन करने के लिए बहुवचन का एक भरा पूरा कहानी विशेषांक निकाला जाए और यह पड़ताल करने की कोशिश की जाए कि वर्ष 2001 से लेखन का आरंभ करने वाले नए कथाकारों ने कौन से नए मूल्य जोड़़ें हैं, कहानी की दुनिया में कितना फेरबदल किया है और क्या कुछ छोड़ा है। हिंदी कहानी किन नए रास्तों पर आगे बढ़ी है और पहले से चली आ रही परंपरा को कितना समृद्ध कर रही है। सवाल बहुत से हैं। बहरहाल इस दिशा में कदमताल करते हुए हमने करीब सौ से अधिक नए पुराने कहानीकारों को बिना किसी भेदभाव के पत्र भेजे। हमारे पत्र का अधिकतर कहानीकारों ने ठीक-ठीक संज्ञान लिया जबकि युवा पीढ़ी के कुछेक अति चर्चित रचनाकार इससे कन्नी काटते भी नजर आए।
आज की हिंदी कहानी की परंपरा कोई 112 साल पुरानी है। हालांकि इस विषय पर हमारे यहां आलोचकों के मध्य पूर्ण मतैक्य नहीं है। हमारे कई आलोचकगण हिंदी कहानी का प्रस्थान बिंदु भारतेंदु काल को मानते हैं और कुछ उससे भी आगे बढ़कर द्विवेदी युग को। इसके आगे हम देखते हैं कि अधिकतर आलोचकों ने हिंदी की पहली कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ (माधवराव सप्रे) को स्वीकार किया है। हिंदी कहानी पर बात करते हुए हम आज दावे के साथ कह सकते हैं कि साठोत्तरी पीढ़ी से लेकर बाद की कई पीढियां एक साथ सृजनरत हैं, जिनमें एकदम युवतर चेहरे भी हैं। यह हिंदी कहानी का विधागत आकर्षण ही है कि वह सभी को अपनी ओर खींच ही लेती है। अगर हम कहानी आलोचना की बात करें तो पाते हैं कि इस दिशा में शुरुआती पहली पुस्तक 1956 में प्रकाशित जगन्नाथ प्रसाद शर्मा की ‘कहानी का रचना विधान’ मानी जाती है। इसके बाद आगे चलकर वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह की पुस्तक ‘कहानी नयी कहानी’ न सिर्फ नयी कहानी आंदोलन की पड़ताल करती है बल्कि उस दौरान के नयी कहानी आंदोलन से उभरे कई कथाकारों की रचना प्रवृत्तियों पर एक नए दृष्टिकोण के साथ बात करती है। इस बीच आठवें, नौवें और शताब्दी के अंतिम दशक के दौरान कथा आलोचना का काम सुस्ती और छिटपुट रूप से चलता रहा। इस बीच आए कहानीकारों का मूल्यांकन ही नहीं हुआ। इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में कथा आलोचना की कमान युवा आलोचकों ने संभाली है और अब इस दिशा में तेजी से काम हो रहा है। वर्ष 1991 में सोवियत समाजवाद का पतन और इसी के साथ भारत में उदारवाद की शुरुआत हुई। इसी के साथ भारत में सांप्रदायिकता का उभार विशेषकर मंदिर और मंडल आंदोलन एक साथ चले, जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज जातियों में और भी बंट गया। इसकी परिणति बाबरी मस्जिद के ध्वंस के रूप में सामने आई। जाहिर है यहीं से साहित्य की दुनिया में भी बदलाव की प्रक्रिया तेजी से शुरू हुई। हिंदी के कहानीकारों को मंच देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका हंस संपादक राजेंद्र यादव की है जिन्होंने 1986 के बाद से लगातार संभावनाशील कहानीकारों को हंस में प्रकाशित किया।
इसके बाद कहानी विधा में नए कहानीकारों का प्रवेश बहुत तेजी से नए दशक की शुरुआत के साथ होता है। यही वह महत्वपूर्ण मोड़ है जहां रवीन्द्र कालिया के संपादन में प्रकाशित ‘वागर्थ’ के नवलेखन विशेषांक (2004) और बाद में नया ज्ञानोदय के विशेषांकों ने हिंदी में कहानीकारों की एक नयी युवतर पीढ़ी को प्रकाशित कर सामने लाने में महती भूमिका का निर्वाह किया। जाहिर है बिना शक इसका पूरा श्रेय नया ज्ञानोदय के भविष्योन्मुखी संपादक रवीन्द्र कालिया को ही है। इसी कड़ी में हम देखते हैं कथाक्रम, वसुधा, परिकथा, लमही के कहानी अंकों ने कहानी विधा की परंपरा को आगे बढ़ाने में अपने- अपने तरीके से योगदान दिया।
कहानी के परिदृश्य पर बात करते समय हमें ध्यान रखना होगा कि इक्कीसवीं सदी के पिछले तेरह सालों में हमारा समाज पूरी तरह से बदल चुका है। उदारीकरण के बाद हमारी सरकारों ने जिस तरह निजीकरण को बढ़ावा दिया है और बहुत से सार्वजनिक रहे आए क्षेत्रों को जिस तरह से मुक्त अर्थव्यवस्था के लिए खोला है उसने हमारे शहरों का यथार्थ बदला है। बहुत सारे नए रोजगार युवाओं के सामने आए हैं तो बहुत सारे अधेड़ लोगों ने अपनी नौकरियां बड़ी तादाद में बंद हुई फैक्ट्रियों की वजह से गंवाई भी हैं। बदले हुए समाज को देखने के लिए किसी शहर के रात में जगमगाते शॉपिंग माल की सैर करना काफी नहीं है बल्कि महानगरों में फ्लाईओवर के नीचे भयंकर ठंड में रात गुजार रहे लोगों को देखना किसी कड़ुवे सच से रूबरू होने के समान है। ठीक इसी तरह गांवों का यथार्थ भी पहले जैसा नहीं रहा है। जाहिर है आज खेती ट्रैक्टर से होती है, उपज को सही दाम नहीं मिलते किसान हताशा में है। खेती दिनोंदिन घाटे का सौदा बनती जा रही है। जाहिर है कि हमारा समय बेहद जटिल और चुनौतियों से भरा है। आज हमारे चारों ओर संचार क्रांति का शोर है, चमक-दमक है, टीवी पर सेक्स परोसते कार्यक्रम हैं; अखबार राजनीतिक बयानबाजियों, पेज थ्री पार्टियों, फैशन शो से भरे पड़े हैं; जबकि इसके ठीक उलट किसानों और बेरोजगारों की आत्महत्या की खबरें अखबार के कोनों में दम तोड़ रही हैं। समय के भयावह यथार्थ की जो अनुगूंजें आज समाज को मथ रही हैं। जाहिर है कि यह सब कहानी में दर्ज हो रहा है लेकिन बहुत मद्धम स्वर में। यदि हम आज की कहानी की बात करें तो हमें स्वीकार करना होगा कि आज कहानियां सोवियत रूस के विखंडन और भूमंडलीकरण के बाद लिखी जा रही हैं। कहानी और समाज दोनों की बात करें तो साफ दिखता है कि वर्ष 1991 से लेकर 2010 तक का समय पूरी दुनिया और भारतीय समाज व जनमानस में भारी उलट पुलट करने वाला रहा है। इस बीच न सिर्फ हमारा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ढांचा बदला है बल्कि साहित्य और संस्कृति की दुनिया भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पायी है। निजीकरण और उदारीकरण की आंधी ने न सिर्फ जीवन का यथार्थ बदलकर रख दिया बल्कि उसे देखने का नजरिया भी बदल दिया है। पहले हमारे अधिकतर साहित्यकार दुनिया को बेहतर बनाने की बात करते थे और रचनाओं का संदेश भी कुल मिलाकर यही होता था। इसके बरक्स आज यह सच स्वीकार कर लिया गया है कि दुनिया जैसी बननी थी वह बन चुकी है। अब तो सिर्फ अपना जीवन बेहतर बनाने की होड़ है। भारतीय संस्कृति, कृषि संस्कृति रही है, जिसे हमेशा श्रम स्ंस्कृति कहा जाता रहा है, जिसकी बुनियाद सामूहिकता, सहिष्णुता, सहकार और सह अस्तित्व की भावना रही है। आज वैश्वीकरण के इस दौर में सब कुछ विखंडन का शिकार हो चुका है। भूमंडलीकरण और बुद्धू बक्से ने समाज को इस तरह बदला कि सामूहिकता की भावना समाप्त हो गई और हम आज अपने घर परिवार की खोल में सिमटकर रह गए हैं। जाहिर है कि इस सारे बदलाव को हिंदी कहानी के नए और पुराने दोनों ही कथाकार बारीकी के साथ दर्ज कर रहे हैं। शुरू से ही हिंदी कहानी में शहरी मध्यवर्ग और ग्रामीण चेतना की धारा साथ-साथ चलती रही है। कहानी में गांव केंद्रित कहानियां और प्रतिरोध के स्वर इन दिनों कुछ काफी हद तक मद्धम हैं लेकिन एकदम सिरे से गायब हों ऐसा नहीं है । मुझे विशेषांक का संपादन करते हुए यह जरूर लगा कि इन दिनों गांव की पृष्ठभूमि और सामाजिक चेतना से लैस कम कहानीकार आ रहे हैं शायद यह भी एक वजह हो।
हरेक संपादक का स्वप्न होता है कि उसके संपादन में ऐसी रचनाएं प्रकाशित हों जो रचनात्मक उत्कृष्टता की मिसाल बनकर रह जाएं लेकिन यह एक ऐसा सपना है, जिस तक पहुंचना कई बार असंभव बनकर रह जाता है। विशेषांक का नामकरण `कहानी का दूसरा समय` क्यों रखा उस पर मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि कहानी का पहला समय अगर वर्ष 2000 तक है तो इससे आगे का समय निश्चित रूप से दूसरे समय के रूप में दर्ज हो रहा है इसीलिए अंक के केंद्र में कहानी का दूसरा समय है। प्रस्तुत कहानी विशेषांक में पच्चीस कहानियां हैं। अंक में युवतर पीढ़ी के साथ-साथ पुराने प्रतिष्ठित कथाकार भी हैं। दूसरी ओर आज के कहानी लेखन की पड़ताल के क्रम में चार प्रमुख आलोचकों के लेख हैं। एक और प्रसन्नता का विषय है कि दुनिया की आधी आबादी कहानी विशेषांक में अपने पूरे संख्या बल के साथ उपस्थित है। इसी क्रम में हिंदी कहानी की अध्येता अर्चना वर्मा से कथाकार अशोक गुप्ता द्वारा की गयी बातचीत दी जा रही है। बहुवचन द्वारा आयोजित एक परिचर्चा भी है जिसके लिए मनोज मोहन ने काफी श्रमपूर्वक हिंदी कहानी पर कहानी से जुड़े संपादकों और अध्येताओं से विचार एकत्रित किए हैं। हमने अपने स्तर पर कोशिश की है कि विशेषांक में हर तरह की रचनात्मकता और कहानीकारों को स्थान मिले और यह विशेषांक सिर्फ दिल्ली केंद्रित बनकर न रह जाए। अंक के लिए विजयमोहन सिंह को भी लिखना था लेकिन वे कहकर भी नहीं लिख पाए। अंक के लिए स्वीकृत की गई कुछ कहानियां हमें रोकनी पड़ रही हैं और कई रचनाकारों ने अंतिम समय में शामिल होने की इच्छा जताई, उनसे सिर्फ इतना कि यह मौका फिर कभी। बहरहाल जो भी, जैसा भी बन पड़ा बहुवचन का कहानी विशेषांक पाठकों के आस्वाद के लिए प्रस्तुत है। यह अंक कैसा लगा आप हमें मेल कर या चिट्ठी भेजकर या एसएमएस कर जरूर बताएं।
अगले पृष्ठ पर सम्पादक जी की मेरे लिए लिखी पंक्ति को कई बार पढ़ने के बाद जब अनुक्रम देखा तो पाया - कथाकारों की सूची, अंक के नाम "कहानी का दूसरा समय" को प्रमाणित कर रही है। आज के समय के ज्यादातर कथाकारों को एक साथ देख कर लगा कि जैसे कहानीकारों के किसी जमावड़े में मुझे भी आमंत्रित करा गया है - कि आयें और कहानियाँ सुने !
खैर उसके बाद सम्पादकीय "दूसरे समय की कहानी" पढ़ने पर अहसास हुआ कि ये जमावड़ा करने के लिए संपादक को खासी मसक्कत करनी पड़ी होगी (अशोक जी आपको ज़रूर ही बेटी की शादी करने जैसा ही कुछ-कुछ लगा होगा ?) । सम्पादकीय अपने में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है और मैंने पढ़ने के साथ ही सोचा कि संभव हुआ तो इसे "शब्दांकनगण" तक ज़रूर लाऊंगा, ख़ुशी है कि आज ये संभव हो सका और आप तक ला पाया. इसके लिए अशोक जी का आभारी हूँ।
बहरहाल पहली कहानी मैंने पढ़ी, अपने प्रिय कहानीकार प्रेम भारद्वाज की "प्लीज़ किल मी मम्मी" और हमेशा की तरह प्रेम जी फ़िर कमाल का लिखे ही मिले... उन्हें फ़ोन कर उनसे कहानी माँगी और आप तक पहुंचाई जिसे आपने पसंद भी करा। बाकी की कहानियाँ एक-एक कर पढ़ रहा हूँ, यहाँ ये बता दूं कि ज्यादातर अच्छी लग रही हैं और वक़्त के साथ उनको आप तक पहुँचाने का प्रयास करूँगा।
पत्रिका में, वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता द्वारा लिया गया सुश्री अर्चन वर्मा का साक्षात्कार, हिंदी साहित्य के लिए एक धरोहर है।
एक-दो बातें और - अशोक जी आवरण अच्छा है, लेकिन अभी और बेहतर होने की गुंजाईश है, आशा है कि अगले अंक का आवरण एक मानक होगा और हिंदी साहित्य की पुस्तक के आवरण पर पायी जाने वाली अनावश्यक भीड़ को कैसे कम करा जाए, ये सिखाएगा. पत्रिका में पद्य की कमी खली - ऐसा ना करें भाई ! कहानियों के बीच में कविता, गज़लें पढ़ने का भी अपना एक लुत्फ़ है, हम पाठको को उससे ना वंचित करें.
अंत में एक बार फ़िर आपको अशेष बधाईयां .
आपका
भरत तिवारी
दूसरे समय में कहानी - अशोक मिश्र


कहानी के परिदृश्य पर बात करते समय हमें ध्यान रखना होगा कि इक्कीसवीं सदी के पिछले तेरह सालों में हमारा समाज पूरी तरह से बदल चुका है। उदारीकरण के बाद हमारी सरकारों ने जिस तरह निजीकरण को बढ़ावा दिया है और बहुत से सार्वजनिक रहे आए क्षेत्रों को जिस तरह से मुक्त अर्थव्यवस्था के लिए खोला है उसने हमारे शहरों का यथार्थ बदला है। बहुत सारे नए रोजगार युवाओं के सामने आए हैं तो बहुत सारे अधेड़ लोगों ने अपनी नौकरियां बड़ी तादाद में बंद हुई फैक्ट्रियों की वजह से गंवाई भी हैं। बदले हुए समाज को देखने के लिए किसी शहर के रात में जगमगाते शॉपिंग माल की सैर करना काफी नहीं है बल्कि महानगरों में फ्लाईओवर के नीचे भयंकर ठंड में रात गुजार रहे लोगों को देखना किसी कड़ुवे सच से रूबरू होने के समान है। ठीक इसी तरह गांवों का यथार्थ भी पहले जैसा नहीं रहा है। जाहिर है आज खेती ट्रैक्टर से होती है, उपज को सही दाम नहीं मिलते किसान हताशा में है। खेती दिनोंदिन घाटे का सौदा बनती जा रही है। जाहिर है कि हमारा समय बेहद जटिल और चुनौतियों से भरा है। आज हमारे चारों ओर संचार क्रांति का शोर है, चमक-दमक है, टीवी पर सेक्स परोसते कार्यक्रम हैं; अखबार राजनीतिक बयानबाजियों, पेज थ्री पार्टियों, फैशन शो से भरे पड़े हैं; जबकि इसके ठीक उलट किसानों और बेरोजगारों की आत्महत्या की खबरें अखबार के कोनों में दम तोड़ रही हैं। समय के भयावह यथार्थ की जो अनुगूंजें आज समाज को मथ रही हैं। जाहिर है कि यह सब कहानी में दर्ज हो रहा है लेकिन बहुत मद्धम स्वर में। यदि हम आज की कहानी की बात करें तो हमें स्वीकार करना होगा कि आज कहानियां सोवियत रूस के विखंडन और भूमंडलीकरण के बाद लिखी जा रही हैं। कहानी और समाज दोनों की बात करें तो साफ दिखता है कि वर्ष 1991 से लेकर 2010 तक का समय पूरी दुनिया और भारतीय समाज व जनमानस में भारी उलट पुलट करने वाला रहा है। इस बीच न सिर्फ हमारा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ढांचा बदला है बल्कि साहित्य और संस्कृति की दुनिया भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पायी है। निजीकरण और उदारीकरण की आंधी ने न सिर्फ जीवन का यथार्थ बदलकर रख दिया बल्कि उसे देखने का नजरिया भी बदल दिया है। पहले हमारे अधिकतर साहित्यकार दुनिया को बेहतर बनाने की बात करते थे और रचनाओं का संदेश भी कुल मिलाकर यही होता था। इसके बरक्स आज यह सच स्वीकार कर लिया गया है कि दुनिया जैसी बननी थी वह बन चुकी है। अब तो सिर्फ अपना जीवन बेहतर बनाने की होड़ है। भारतीय संस्कृति, कृषि संस्कृति रही है, जिसे हमेशा श्रम स्ंस्कृति कहा जाता रहा है, जिसकी बुनियाद सामूहिकता, सहिष्णुता, सहकार और सह अस्तित्व की भावना रही है। आज वैश्वीकरण के इस दौर में सब कुछ विखंडन का शिकार हो चुका है। भूमंडलीकरण और बुद्धू बक्से ने समाज को इस तरह बदला कि सामूहिकता की भावना समाप्त हो गई और हम आज अपने घर परिवार की खोल में सिमटकर रह गए हैं। जाहिर है कि इस सारे बदलाव को हिंदी कहानी के नए और पुराने दोनों ही कथाकार बारीकी के साथ दर्ज कर रहे हैं। शुरू से ही हिंदी कहानी में शहरी मध्यवर्ग और ग्रामीण चेतना की धारा साथ-साथ चलती रही है। कहानी में गांव केंद्रित कहानियां और प्रतिरोध के स्वर इन दिनों कुछ काफी हद तक मद्धम हैं लेकिन एकदम सिरे से गायब हों ऐसा नहीं है । मुझे विशेषांक का संपादन करते हुए यह जरूर लगा कि इन दिनों गांव की पृष्ठभूमि और सामाजिक चेतना से लैस कम कहानीकार आ रहे हैं शायद यह भी एक वजह हो।

1 टिप्पणियाँ
अशोक मिश्र के संपादन में यह एक बहुत सार्थक प्रयास सफल हुआ है. कहानियों और कहानी विधा से जुड़ी बहुत सी सामग्री विशेष रूप से कथाकारों के लिये बहुत उपयोगी है. कहानियों में विवेक मिश्र और प्रेम भारद्वाज ने मां को उसकी गहन अंतर्वृत्ति सहित पारंपरिक फ्रेम से निकाल कर नये आयाम में प्रस्तुत किया है. इसको कहते हैं विधा की रचनात्मकता का संधान...
जवाब देंहटाएंशब्दांकन का यह कदम सराहनीय है कि वह इस अंक का संदर्भ यहाँ लाये हैं.