![]()
पेशे से पत्रकार युवा कवियत्री डिम्पल सिंह चौधरी का जन्म स्थान हाथरस (यू.पी.) में हुआ है. दिल्ली में रहने वाली डिम्पल वर्तमान में श्री न्यूज़ में कार्यरत हैं. इनकी कवितायेँ व नज्में ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक जागरण’. कल्पतरु एक्सप्रेस, स्थानीय पत्रिका ‘दूर तक’, ‘आईना बोलता है’, ‘मेरठ दर्पण’ व ‘जनपथ’ आदि में प्रकाशित होती रही हैं.आइये शब्दांकन में इनका स्वागत करें
अरज
सुनो...

बहुत तन्हा हूं
सुना है
खुद से बातें करने वाले
ऐसे तन्हा लोग
अक्सर
पागल हो जाया करते हैं
सपनों की बोली
सूरज की तपन का पहला स्पर्श

जब पलकों की कोर पर पड़ा
तो होश की चट्टानों ने
दबा दिया नींद का शहर
और बैठ गई मैं
याद करने
वो गुज़री रात का सपना
सपना...
मगर सपने आते ही कहां हैं अब
उम्मीदों के,
ख़्वाहिशों के,
राजकुमार या राजकुमारियों के,
सुनहरे कल
या
ख़ूबसूरती से लिपटी सुकून की नींदों के...
वर्तमान में लौटी तो
ख़ुद को समझाना पड़ा
कि खाली पेट
ऐसे क़ीमती सपने
कहां आते हैं
बोली लगती है सपनों की
ख़रीदे जाते हैं सुकून और ख़ुशी के सपने
कल रात
सोयी थी खाली पेट मैं
अब समझ आया
कि आख़िर कैसे
सरक जाते हैं मुफ़िलिसी की नींदों से
ग़रीब के सपने...
कैसी होगी वो
सोच की धूप में

सच की अग्नि में
लपट-लपट तपती
अपने हाथों पर से
मेरे नाम की मेंहदी मिटाती
हकीकत के बरक से मुझे धो कर
किसी और को सुखाती
वो...
जो कहती है
कि जी नहीं सकेगी मेरे बिना
वो...
जो कहती है खुद को अधूरा मेरे बिना
वो...
जिसकी नब्ज़ में मेरी ज़िंदगी धड़कती है
वो...
जो छिपा कर खुद में मेरी सांसें रखती है
वो...
जो इंतेहा की हद पर खड़ी
तका करती है आज भी मेरी राहें
वो...
जो कहती कुछ नहीं
बस हर दर्द चुपके सहती है...
कैसे कहूं उसे कि सब ठीक हो जाएगा
कैसे समझाऊं कि नया सूरज फिर आएगा
वो
‘जिसे दुनिया अब किसी और की सुहागन कहती है....’
तुम्हारे शहर में शाम नहीं होती...
जहां देखो वहां खुलूस है तेरी जुदाई का

दरख्तों पर वही मौसम अब भी मुस्कराते तो हैं
मगर वो घोंसले, वो पंक्षी अब लौट कर नहीं आते
मेरी आंखों में अब भी तेरे ख्वाब हंसते तो हैं
मगर सांसों में जिंदगी की मोहर लगाने नहीं आते
लगता है तुम्हारे शहर में हिज्र की शाम अब नहीं होती
मेरी उजड़ी शामों में अब तुम साथ रोने नहीं आते
ये जो तेरी सांस मेरे सीने में चलती है, जाने कितनी हैं
दिल के नक़्श पर इनके बाकी निशा तुम बताने नहीं आते
तेरे ख़तों से हर रोज़ बीमारी-ए-पागल बयां करता हूं
होंठों से लगाता हूं घूंट-घूंट मगर मर्ज़ नहीं बताते
मेरी चाहत, मेरी निगाहें तुझे ढूंढती है रेजा-रेजा
उन्ही कदमों पर वापस आओ कि अब ये निशां सम्हाले नहीं जाते
आज़ादी का ख़ौफ़...
ज़ज्बात जो ख़ाली थे

मेरी पीड़ा कि गिरह में
सांसों का बंधन
क्यूं मामूली नहीं लगता
कि जब चाहो
होना आज़ाद इनसे
तो तिलमिला जाती हैं
सांसें,
और
त्याग देती है विचार
आज़ादी का...
सांसों का कैनवास...
खाली है तहज़ीब

हर कोई निशब्द
सासों में रेंगते लहू से भरा
हर ज़र्रा
सांसों की ही रोड़ियों पर
जीने की ख़्वाहिश चुभती हुई
भींच लेता है आकर वो
मेरी ज़िंदगी के अक्षरों से
सांसों की मात्राएं सभी
और
लेकर चाबुक हालातों के
उन्हीं मात्राओं से करता है आग्रह
फ़िर से बन जाओ वही अक्षर
जिसे फ़िर उसी निर्मता से
भींचू मैं
टटोलूं मैं
तोड़ दूं बंधन
अक्षरों से मात्राओं का
और सिसके ज़िंदगी
अपना आस्तित्व पाने को
मगर तोड़ दूंगा
हर तार मैं
ज़िंदगी के सितार का
और कर दूंगा लहूलुहान सब
होश-ओ-हवास के कैनवास पर
रेंगता लाल लिबाज़
किसी दिलकश रंग के
सच से महरूम
तू और तेरा आसमां...
आज... मेरे हिस्से की ज़मीं भी बिक गई..
संपर्क
डिम्पल सिंह चौधरी
मकान नं० 41/42
ब्लाक - सी
न्यू अशोक नगर
नई दिल्ली 110 096
ईमेल: dimplechaudhary1607@gmail.com
1 टिप्पणियाँ
sunder aur bhaavpoorn kavitaon k liye badhai.
जवाब देंहटाएं