उषा राजे सक्सेना
19वीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के आरंभ में ब्रिटेन में हिंदी पर अधिकांश कार्य अँग्रेज़ विद्वानों जैसे डॉ. ग्रियर्सन, मिस्टर पिंकॉट, सर रॉल्फ़ टर्नर , एफ़. ई. की., एच. एच. हार्ले, चार्ल्स नैपियर, डॉ. प्रैंक रैमण्ड आलचिन एवं कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. स्टुअर्ट मैग्रेगर, द्वारा भाषा विज्ञान (व्याकरण और शब्दशास्त्र संबंधी), शब्दकोशों के रचना, हिंदी से अँग्रेज़ी के अनुवाद एवं शोध आदि पर हुआ जो एक अलग विषय है.
उन्हीं दिनों 1928 में भारत से डॉक्टरी की उच्च पढ़ाई करने डॉक्टर धनीराम प्रेम ब्रिटेन आए. उपाधि लेकर वे भारत वापस लौटें किंतु उचित नौकरी न मिलने के कारण 1938 में वे फिर ब्रिटेन वापस आ गए और 1978 तक वे ब्रिटेन में रहें. डॉक्टर धनीराम प्रेम एक मेडिकल डॉक्टर होने के साथ साहित्य प्रेमी भी थें. बाद में उनकी रुचि राजनीति में ऐसी बढ़ी कि उनका साहित्य से नाता छूट सा गया. डॉ. धनीराम का जन्म 1904 में अलीगढ़ उत्तर प्रदेश में हुआ था और उनकी मृत्यु 11 नवंबर 1979 में 75 वर्ष की आयु में एक सड़क दुर्घटना में भारत में हुई थी.
धनीराम ब्रिटेन के एशियन कम्यूनिटी में एक सोशल एक्टिविस्ट की तरह जाने जाते थें. उन्हें अपने पेशे के साथ-साथ जनसेवा और राजनीति में भी रुचि थी. वे दरमियाने कद के, साँवले, दुबले-पतले खुशमिज़ाज व्यक्ति थे. वे सहृदय न्याय प्रिय और कर्मयोगी थे. जीवन के अँतिम क्षणों तक वे अन्याय के विरुद्ध लड़ते रहें.
राजनीति और साहित्य में रुचि रखनेवाले धनीराम प्रेम 1960-70 में एशियन कम्यूनिटी रेडियो और टेलिविज़न बोर्ड के अध्यक्ष थें. वे रेसरिलेशन वोर्ड आफ़ बर्मिंघम सिटी के स्पोक्समैन भी थें. ब्रिटेन के नस्ली राजनीतिज्ञ इनॉक पॉवेल को कई बार उन्होंने करारा जवाब दिया था. इंटरनेट पर उनकी एक कहानी ‘चलता पुर्ज़ा और कुछ अन्य पुस्तकें ‘इंजेक्शन थेरेपी’- 1937 ‘कलर ऐंड ब्रिटिश पॉलिटिक्स’- 1965, ‘द पार्लियामेंट्री लेपर’- 1965 ब्रिटिश लाइब्रेरी में हैं,
वे उपन्यास सम्राट प्रेमचँद के समकालीन थें. 1931 से 1936 तक उनका पत्रव्यौहार मुंशी प्रेमचँद के साथ चलता रहा. दिसंबर 1931 के एक पत्र में मुँशी प्रेमचँद उन्हें लिखते है ‘...अरे मैं नहीं जानता था कि अपना धनीराम ही डॉ. धनीराम ‘प्रेम’ लन्दन है. तुम्हारी कहानियाँ पढ़ कर कुछ खिंचाव होता था, लेकिन यह नहीं समझता था कि इसका कारण यह है.’ एक अन्य पत्र में वे लिखते है, ‘जनाब मैंने तो समझा था कि आप फ़ारग-उलबाल होकर अदब की ज़्यादा खि़दमत कर सकेंगे, मगर मेरा ख़याल ग़लत निकला. अब महीनों गुज़र जाते हैं, आपका कोई क़िस्सा अखबार में नज़र नहीं आता...इससे तो तंगदस्ती ही बेहतर थी, जो आपसे थोड़ा बहुत लिखवा लेती थी.’ प्रेमचँद शब्दकोश भाग-2. पृ.326-27- डॉ. कमल किशोर गोयंका. मुँशी प्रेमचँद द्वारा जनवरी 1936 में लिखे एक अन्य पत्र से यह पता चलता है कि उनकी कहानियों की पाँडुलिपि तैयार थी किंतु पैसों की राजनीति के कारण वह पाँडुलिपि धनीराम जी ने वापस मँगा ली थी. ‘...इस देरी में मेरा कोई अपराध नहीं था. बात यह है कि मैं प्रबंध में बहुत कच्चा हूँ और दुर्भाग्य से इस कारण मेरे अपनों को ही दुःख अधिक पहुँचा है. प्रेस में से लोग रुपया खा गए हैं.....’
धनीराम प्रेम एक अच्छे कहानीकार, कवि, गीतकार और आलोचक भी थें. पत्रिका हंस के संपादक राजेन्द्र यादव को वे एक कहानीकार के रूप में याद है. धनीराम प्रेम की कहानियाँ एवं एकांकी नाटक हंस, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सरस्वती, जागरण आदि में छपती रही थीं. उनकी कहानियाँ- ‘प्राणेश्वरी’, ‘वीरांगना पन्ना’, ‘वल्लरी’, ‘देवी’, ‘जॉन’, ‘चलता-पुर्जा’, ‘बहन’ ‘लाल जूता’, ‘ह्रदय की आँखें’ आदि अपने समय में बारहसैनी, चाँद, सरस्वती आदि पत्रिका में छपती रहीं. कहानियों के नाम से पता चलता है कि डॉ. धनीराम प्रेम की अधिकांश कहानियों की भावभूमि भारत ही रही. उनकी अंतिम कहानियाँ बारहसैनी मासिक पत्रिका में जून 1977 और 1979 में प्रकाशित हुई थी. डॉ. धनीराम प्रेम ही ब्रिटेन के पहले कहानीकार थें.
चलता पुर्जा- कहानी डॉ. धनी राम प्रेम.
‘चलता पुर्जा’ कहानी जैसा कि नाम से ही पता चलता है एक ऐसे स्मार्ट शातिर ठग की है जो ज़रूरतमँदों के मनोविज्ञान को बड़ी जल्दी पढ़ लेता है. कहानी का नायक, पीलीभीत के एक कॉलेज का गणित का प्रोफेसर गुप्ता बन कर कमज़ोर छात्रों के अभिवावकों को बड़े प्यार से ऐसा चूना लगा जाता है कि जब तक वे संभलते हैं उनके हज़ारो रुपए और गहने उसको भेट चढ़ चुके होते हैं.
कहानी के आरंभ में अलीगढ़ से राजघाट पर आए 10 पात्रों का सजीव चरित्र-चित्रण है. उसमें से चार विद्यार्थी है दो मैट्रिक के और दो एफ.ए. के. चारों बालक परीक्षा के ‘अखाड़े के पुराने खिलाड़ी है’ ‘चार-पाँच कुश्तियाँ हार चुके हैं’, ‘काफी अनुभवी है.’ इनके पिता भी इनके साथ हैं एक के पिता वकील हैं जिनकी वकालत नहीं चलती है इसलिए चुपके-चुपके नौकरी खोज रहे है और दूसरे के पिता किसी कंपनी में एजेंट है जिनकी रोज़ी-रोटी भी मुश्किल से चलती है पर दिखाते यूँ हैं कि वे अच्छे ख़ासे तीस मार खाँ है. यद्यपि आर्थिक रूप से दोनों तंगदस्त है. कहानी का हर पात्र अपनी अपनी तरह से ‘चलता पुर्जा’ है. मुहावरेदार भाषा में लिखी यह कहानी एक व्यंग्य है सटायर है जो समाज को आइना दिखाती चलती है. इस कहानी को एक ऐसी समकालीन कहानी कही जानी चाहिए जो सार्वभौमिक और कालजयी है.
लंबी, लच्छेदार, चाक-चौबंद कहानी ‘चलता-पुर्जा’ पाठक को अपनी गिरफ्त में रखती है. कहानी का शीर्षक कहानी का प्रतीक है. तो भी कहानी में मुर्गा कौन है और कैसे हलाल होता हैं की कारीगरी पाठक की रुचि को अँत तक बनाए रखती है. लेखक बड़ी चतुराई से पाठक को एक से दूसरे क्लाइमैक्स पर ले जाता है. कहानी की सरल भाषा उसमें आए मुहावरे, कथानक, चरित्र-चित्रण, पात्रों के नाम (रामलाल, दुलारे, काशी, परमानन्द) विषय वस्तु का निर्वाह आदि 1930-40 के परिवेश को ताज़ा कर देती है.
1950-90 देशांतरगमन (इंडियन माइग्रेशन)
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात 1950 में ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के साथ सिख समुदाय का बृहत माइग्रेशन ब्रिटेन में हुआ. ब्रिटिश सरकार को महसूस हुआ कि श्रमिक वर्ग इस देश की बोली-भाषा-संस्कृति, रख-रखाव और नियम-कानून न जानने के कारण शोषित हो रहे हैं अतः 70 और 80 के दशक में एक बड़ी संख्या में भारत से वर्क वाउचर लेकर शिक्षक, डॉक्टर वैज्ञानिक और इंजीनियर आदि ने ब्रिटेन में प्रवेश लिया.इनमें से जो संवेदनशील लोग थें, वे अपनी आंतरिक व्यथा को डायरी या कागज़ के टुकड़ों पर अभिव्यक्त कर कहीं रखकर भूल जातें. परिष्कृत कर किसी पत्रिका आदि में भेजने का न तो उनका मनोबल बन पाता ना ही उनके पास उस समय कोई साधन था। प्रमाण मिलता है कुछ हिंदी प्रेमी (हिंदी प्रेमियों की संख्या जो संपूर्ण माइग्रैंट समुदाय की तुलना में सदा न्यूनतम रही.) रचनाकारों जैसे 1954-56 में पानी के जहाज से ब्रिटेन आए कवि डॉ. वेद प्रकाश वटुक की कविता संग्रह ‘त्रिविधा’1957 में छपी. यह युग विशेषरूप से कविता का युग रहा. कविताएँ लिखी जाती मित्रों को सुनाई जातीं और डायरियों में बंद कर दी जातीं.
इसी काल में दामोदर प्रसाद सिंघल और उनकी पत्नि देवहुति के लेख भारत की पत्र-पत्रिकाओं में छपें. इतिहासकार डॉ. बी.एन. पाण्डेय का उपन्यास ‘शहरों के कुत्ते’ का प्रकाशन उन्हीं दिनों हुआ. उन्हीं दिनों कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. रेमंड आर्चिन ने तुलसी के कवितावली और गीतावली का हिंदी अनुवाद किया.
1958 में ब्रिटेन आए कवि डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, और 1965 में आए ‘सुराही’ के रचनाकार ग़ज़लकार प्राण शर्मा की रचनाएँ भारत की पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही. डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव ब्रिटेन साहित्यकारों में से है, जो 22-23 वर्ष की आयु में ही ब्रिटेन आ गए थें. वे नियमित हिंदी एवं अँग्रेज़ी में लिखते रहें तथा साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग आदि में कन्हैयालाल नंदन और धर्मभारती के संपादन में छपते रहें. अब तक वे लगभग 18 पुस्तकें लिख चुके है. उनकी कविता ‘सर विंस्टन चर्चिल मेरी माँ को जानते थे’, ‘टेम्स में गंगा की धार’- ब्रिटिश भारतीयों की संघर्ष गाथा ‘बेगम समरू’ - नाटक, ‘कंधों पर इंद्रधनुष’ - यात्रा डायरी आदि हिंदी साहित्य की धरोहर कृतियाँ हैं.
सत्येन्द्र जी के समकालीन वेद प्रकाश वटुक (अब अमेरिका में) एक पत्र में लिखते हैं, ‘1951 में ब्रिटेन में अध्ययन के लिए आए डॉ. हरिवंशराय बच्चन की प्रेरणा से ‘हिंदी परिषद - लंदन’ की स्थापना लंदन में की गई. जिसमें सुनियोजित ढंग से कहानी, कविता और लेख आदि पढ़े जाते थे. विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह युग विशेषरूप से कविता का युग रहा, जिसका मुख्य स्वर नॉस्टैल्जिया, देश-प्रेम के साथ प्रवास की पीड़ा, नस्ल और रंग भेद आदि रहा. आपसी जुड़ाव और नेटवर्किंग न होने के कारण बहुत कुछ संग्रहीत नहीं हो सका.
इस बीच एक और संस्था ‘हिंदी प्रचार संस्था’ का गठन हुआ. इसके साथ कुछ पत्रिकाएँ भी निकलीं जैसे ‘नैवेद’, ‘अमर दीप’, ‘चेतक’ आदि. 1969 में भारत से आए वेद मित्र मोहला की गद्य की पुस्तक ‘संसार के अनोखे पुल’ 1972 नेशनल पब्लिशिंग हाउस की मिली. पत्रिका ‘चेतक’ की कुछ प्रतियाँ चेतक के संपादक नरेश भारतीय जी ने अपने पास सुरक्षित रखी हुई हैं.
इसी तरह अस्सी के दशक में मिडलैंड में रहनेवाली स्वर्गीय विजया मायर के चार उपन्यास ‘रिश्तों के बंधन’ सन् 1988 - विवेक प्रकाशन, 7 यू.ए जवाहर नगर- दिल्ली, ‘टूटते दायरे’ सन् 1989 - विवेक प्रकाशन-7 यू.ए जवाहर नगर- दिल्ली, ‘तूफ़ान से पहले’- 1994, ‘तपस्या’ – 1995; ये सभी उपन्यास भारत में स्त्रियों की दुर्दशा, अँधविश्वास, सामाजिक संकीर्णता और छूआछात आदि विषयों को लेकर लिखी गए हैं.
इसी बीच 1960 में ब्रिटेन आईं पंजाबी की प्रसिद्ध लेखिका कैलाशपुरी का पंजाबी में लिखा उपन्यास ‘सूज़ी’ हिंदी में अनुवादित होकर आया. यह मार्मिक उपन्यास पचासवें दशक में पंजाब से आए कामगरों के संघर्षपूर्ण जीवन, समस्याओं और सामाजिकता पर आधारित है. इसी तरह मिडलैंड में रहनेवाले वूल्वर हैम्पटन के डॉ. स्वर्ण चँदन का प्रसिद्ध उपन्यास ‘कँचका’ और कहानी संग्रह ‘फ्री सोसाइटी’ नब्बे के दशक में अनुदीत होकर हिंदी में आया जो साठ और सत्तर के दशक के पंजाब से आए श्रमजीवियों के संघर्षमय जीवन के नस्ल और रंग-भेद के साथ उनकी समाजिकता को गहनता के साथ अभिव्यक्त करता है.
सन् 1977 में स्व. डॉ. ओंकार श्रीवास्तव, श्रीमती कीर्ति चौधरी (तीसरा सप्तक) की कविताएँ ‘दूरबाग में शोंधी मिट्टी’ में छपीं. सन् 1982 में बी.बी.सी. लंदन प्रसारण से संबद्ध होकर आए स्व. डॉ. गौतम सचदेव की कई कृतियाँ भारत में प्रकाशित हो चुकी थीं किंतु 1995 से पूर्व ब्रिटेन से उनकी कोई रचना प्रकाश में नहीं आई. बाद में गौतम जी साहित्य के विभिन्न विधाओं में प्रभावशाली और प्रचुर लेखन किया. अबतक ‘साढ़े सात दर्जन पिंजरे’, ‘अटका हुआ पानी’ ‘अधर का पुल ’ जैसे अनेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. इसी तरह सन् 1987 में लंदन आई ‘बर्दाश्त बाहर’ और ‘सूखा हुआ समुद्र’ जैसे श्रेष्ठ और चर्चित कहानी संग्रह की लेखिका अचला शर्मा के रेडियो नाटक बी.बी.सी. रेडियो पर प्रसारित होते रहें किंतु इस बीच उन्होंने एक-दो कहानियाँ ही लिखीं. अब अवकाश प्राप्ति के बाद अचला जी की लेखनी ने तेज़ गति पकड़ी है. उनकी कहानियाँ,‘चौथी ऋतु’ ‘दिल में एक कस्बा है’ और ‘दुर्गंध’ आजकल साहित्य जगत में चर्चित हैं.
लेखन में रुचि रखती हुई 1968 में आई मैं (उषा राजे सक्सेना) स्वयं ब्रिटेन के स्कूलों में शिक्षण कार्य करते हुए घर गृहस्थी और बच्चों के पालनपोषण में व्यस्त रही. बाद में 1985 में फिर से कलम पकड़ी. सन् 1985 में ब्रिटेन आईं दिव्या माथुर जिनकी कहानियाँ नवभारत टाइम्स, कादंबिनी आदि में छपती रही थीं. ब्रिटेन आने के 90 के दशक में उन्होने फिर से कलम पकड़ी. इस दशक में मौलिक साहित्यिक सृजन (विशेषकर गद्य) की ज़मीन में कुछ (वेद प्रकाश वटुक, बी.एन पाण्डेय, देव मुरारका, सतीश भटनागर, नारायण स्वरूप शर्मा, ओंकार सिंह ‘निर्भय,’ धर्मेंद्र गौतम, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, प्राण शर्मा आदि) अंकुर फूटे तो किंतु उन अंकुरों को पनपने के लिए ऐसा खाद और पानी नहीं मिला कि वे स्थापित हो सकें.
ब्रिटिश भूमि में हिंदी के लेखकों को उर्वर भूमि एक लंबे अर्से तक नहीं मिली. कारण कुछ भी हो सकता है. पचास के दशक में अशिक्षित श्रमिकों का बसाव, मीडिया में भारतीयों की बिगड़ती छवि, समाज में उपेक्षा, अजनबी परिवेश, समय का अभाव, सांस्कृतिक दबाव, प्रकाशकों-संपादकों की उदासीनता आदि.
1990- 2010- भारतीय उच्चायोग डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी का ब्रिटेन आगमन और हिंदी कहानी लेखन
समय ने करवट ली, परिवेश में बदलाव आया, भारत एक स्वतंत्र विकासशील भारत से विश्व के मानचित्र पर एक शक्तिशाली भारत के रूप में उभरने लगा. 1990-91 में डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी भारतीय उच्चायोग में उच्चायुक्त बन कर आएँ और उनके प्रश्रय में ब्रिटेन में हिंदी और हिंदी संस्कृति का परचम लहराने लगा. डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ब्रिटेन में हिंदी के इतिहास के युग प्रवर्ता पुरुष है.महामहिम डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी और उनकी पत्नी ने ब्रिटेन आते ही अपने घर पर अनौपचारिक साहित्यिक गोष्ठियों और चर्चाओं के द्वारा सुस्त, अवरुद्ध लेखनियों को गतिशील और पत्थर होती संवेदनाओं को जलसिंचित किया. भारतीयों का मनोबल बढ़ा. उनकी कुंठित जिह्वा और लेखनी मुखरित होने लगीं. कई राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल के कारण ब्रिटिश समाज भी चैतन्य हो उठा. एकल भाषा और एकल संस्कृति वाला ब्रिटेन बहुसांस्कृतिक और बहुभाषीय घोषित हुआ. यू.के हिंदी समिति, लंदन- 1991 और गीतांजलि बहुभाषीय समुदाय बर्मिंघम- 1995 ने एक बड़ी संख्या में हिंदी प्रेमीयों को जोड़ा. लेखकों का नेटवर्क बना. हिंदी के लेखकीय संसार का पनपना आरंभ हो गया. लेखन के क्षेत्र में ‘सृजनात्मक विस्फोट हुआ’ इस दशक में काव्य विधा के साथ प्रचुर गद्य लेखन भी हुआ. डॉ. पद्मेश गुप्त ने भारत के स्वाधीनता दिवस की पचासवीं वर्षगाँठ पर काव्य संकलन ‘दूर बाग में सोंधी मिट्टी’ प्रकाशित की जिसमें ब्रिटेन के 25 कवि संकलित थें.
तदंतर 1997 में साहित्यिक पत्रिका ‘पुरवाई’ के प्रकाशन ने तनावग्रस्त लेखकों और कहानीकारों को संबल दिया. गद्य की अनेक विधाओं में रचनाकारों की लेखनी सक्रिय हो उठी.
यदि ब्रिटेन के हिंदी कथा संसार पर खोजपूर्ण दृष्टि डाली जाए तो भारत की स्वतंत्रता के बाद हमें जो पहली हिंदी कहानी किसी ब्रिटिश हिंदी लेखक की ब्रिटिश भावभूमि पर मिलती है तो वह है प्राण शर्मा की कहानी ‘पराया देश’ जो सन् 1982 अगस्त कादंबिनी में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार से सम्मानित हुई.पराया देश एक ऐसे इमिग्रैंट बस ड्राइवर की कहानी है जो सिर्फ़ पाँच वर्षो में ‘खूब धन कमाकर भारत लौट जाउँगा’ की ठान कर आता है किंतु वह लौटने की घड़ी कभी नहीं आती है. ब्रिटेन में बरसों बरस रहते हुए लौट जाने की द्वंद्वात्मक दुविधा में फंसे बस ड्राइवर की एक दिन ‘एक सभ्य सी दिखनेवाली गोरी महिला यात्री’ से झड़प हो जाती है. बहुत अनुनय-विनय करने और ‘सॉरी’ कहने पर भी वह महिला उसे क्षमा नहीं करती है और अंत में उसे फटकारते हुए ‘ब्लैक बास्टर्ड’ और ‘पाकी’ जैसी नस्ली गाली देते हुए उसका नाम और बस का नम्बर लेकर धमकाते हुए चली जाती है. डरा हुआ भीरू, बस ड्राइवर अपमानित और पीड़ित महसूस करता है. लंच टाइम में वह अपनी पीड़ा ट्रांसपोर्ट में काम करने वाले मित्रों से कहता है. सब उस पर हँस पड़ते हैं कि यह तो साधारण सी बात है. ड्राइवर उस महिला के अभद्र व्यवहार से ‘असंख्य सुइयों की चुभन’ अपने कलेजे पर महसूस करता है. अनमना, दुखी वह शाम को अपनी पत्नी और बच्चों को ब्रिटिन की बुराइयाँ बताता देश का गुण-गान करता, उपरोक्त घटना का उल्लेख करता है और वापस भारत लौटने की पेशकश करता है किंतु पत्नी और बच्चे उसकी खिल्ली उड़ाते हुए, ‘आप तो ज़रा-ज़रा सी बात को दिल से लगा लेते हैं.’कह कर उसकी पीड़ा का उपहास करते हैं. विडंबना यह है कि क्षुब्ध बस ड्राइवर अपने ही परिवार के बीच अकेला और तन्हा महसूस करता है. उसे ब्रिटेन की कोई भी सुख-सुविधा और धन-धान्य सुकून नहीं देते. वह भारत के अभावों, तनावों, रंग-भेद, वर्ग-भेद, प्रांतीयता, आदि को अनदेखा कर उसे ही स्वर्ग ठहराता है. बात बढ़ती है वह पत्नी और बच्चों को धिक्कारता है कि जिस ब्रिटेन ने भारत देश को दो सौ साल तक गुलाम बनाए रखा वे उसी ब्रिटेन के सुख-सुविधाओं के गुलाम हो गए है. अंत में पत्नी सुषमा उसे शांत करने के लिए कहती है, ‘अगर आप इस देश से इतना तंग आ गए है तो एक दिन हम यहाँ से चले जाएँगे. बस बच्चों की शिक्षा पूरी हो जाने दो और उनको अपने पैरों पर खड़ा हो जाने दो.’ वह सोचता है सुषमा बातें बनाकर उसे बहलाने में कितनी होशियार है.
कहानी नॉस्टैल्जिक होते हुए भी यथार्थ की भावभूमि पर खड़ी है। मानसिक द्वंद्व और आंतरिक संघर्ष को व्यक्त करते हुए जीवन के दोनों पक्षों के दिखाने में सक्षम कहानी पाठक को सोचने के लिए मजबूर करती है कि ऐसे नए परिवेश के साथ समझौता सही है या पलायन. भाषा और शैली की दृष्टि से कहानी 80 के दशक के भारतीय लेखकों के समकक्ष ठहरती है।
सन् 1999 से पूर्व ब्रिटेन के कहानीकारों का उल्लेख हिंदी साहित्य कहीं भी देखने को नहीं मिलता है.
सन् 1997-98 में इस आलेख की लेखिका ने ब्रिटेन के कहानीकारों का एक नेटवर्क बनाया और सन् 1999 में आयोजित ‘छठें विश्व हिंदी सम्मेलन’ के अवसर पर ‘मिट्टी की सुगंध’ राधाकृष्ण प्रकाशन- नई दिल्ली, द्वारा ब्रिटेन के कहानीकारों को मुख्यधारा के अजस्र धारा में प्रविष्ठ कराया. देखा जाए तो 'मिट्टी की सुगंध' ब्रिटेन के हिंदी साहित्य के अध्ययन में नींव का पत्थर है.
ब्रिटिश हिंदी कहानियों के विषय में डॉ. राम दरश मिश्र उपरोक्त संकलन के प्रस्तावना में लिखते हैं, ‘किसी स्थान विशेष के लेखकों की रचनाएँ होने मात्र से उन्हें वैशिष्ठ्य प्राप्त नहीं होता, उन्हें वैशिष्ठय इसलिए प्राप्त होता है कि वे स्थान विशेष (क्षेत्र, प्रदेश, देश) के जीवन के अपने रंग को उभारती हैं और इस तरह वे उस भाषा में लिखे जा रहे साहित्य के अनुभव को नए आयाम प्रदान करती हैं......विदेश में रह रहे भारतीय मूल के लोगो में देश की यादें बची रहती हैं, रह-रह कर उभरती हैं और परेशान करती हैं. अपना देश बुलाता है किंतु देश की जिन असुविधाओं से घबराकर विदेश गएँ वे सामने आ जाती हैं और विदेश की सुविधाएँ भी उन्हें कहाँ छोड़ती हैं जिनसे खिंचकर वे विदेश गएँ. इसी द्वंद्व की मानसिकता में उनकी रचनाएँ फूटतीं रहती हैं.’
उपरोक्त संकलन के अतिरिक्त बाद में कुछ और कहानी संकलन आएँ, उनमें से मुख्य हैं मुंबई निवासी सूरज प्रकाश द्वारा संकलित ‘कथा दशक’- सन् 2001 जिसमें कथा यू.के की गोष्ठियों में पढ़ी गई दस कहानियाँ श्रोताओं की टिप्पणियों के साथ संकलित हैं. दूसरा है उषा वर्मा की ‘साँझी कथा यात्रा’ सन् 2003 वाणी प्रकाशन दिल्ली, जिसमें हिंदी-उर्दू की बारह महिला कथाकार सम्मिलित हैं. तीसरा संकलन है ‘प्रवास में पहली कहानी’ सन् 2008 वाणी प्रकाशन. जिसमें 18 हिंदी-उर्दू की मात्र महिला कथाकार सम्मिलित हैं.
सन् 1998 में ब्रिटेन में नए आए तेजेन्द्र शर्मा दो कहानी संग्रह अपने साथ लेकर आए. 1999 में उनका कहानी संग्रह ‘देह की क़ीमत’- 1999, वाणी प्रकाशन- दिल्ली अब तक उनके दर्जनो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं
इस बीच ‘पुरवाई’ पत्रिका का प्रकाशन,‘यू.के हिंदी समिति’ द्वारा पाँडुलिपि चयन, ‘कथा यू.के.’द्वारा कहानी गोष्ठियों का आयोजन, ‘अँतर्राष्ट्रीय इंदुशर्मा कथा सम्मान’ ‘पद्मानंद साहित्य सम्मान’ हिंदी सम्मेलन आदि ने ब्रिटेन में लिखे जा रहे साहित्य को देश विदेश में पहचान दिलाने की प्रक्रिया में सहयोग दिया. ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाली पहली साहित्यिक पत्रिका पुरवाई है और उसमें छपने वाली पहली कहानियाँ हैं, दिव्या माथुर की ‘मणि’ और उषा राजे की ‘एक मुलाक़ात’.
सन् 1985 में ब्रिटेन आई दिव्या माथुर का कहानी संग्रह ‘आक्रोश’-2000 हिंदी बुक सेंटर- दिल्ली से प्रकाश से आई. दिव्या बताती हैं कि ये सभी कहानियाँ भारत में लिखी गई थीं. कहानियों की पृष्ठ-भूमि और समस्याएँ भारत की हैं तथा कहानियों की अंतर्धारा स्त्री विमर्श है.
सन् 1967 में ब्रिटेन आई उषा राजे सक्सेना का संग्रह ‘प्रवास में’- 2002 प्रभात प्रकाशन (ज्ञान गंगा)- दिल्ली संकलन की सभी कहानियाँ ब्रिटेन में लिखी गई तथा कहानियों की भाव-भूमि, समस्याएँ और परिवेश ब्रिटेन की हैं. संस्कृति समन्वय और स्त्री विमर्श इन कहानियों की अंतर्धारा है. अब तक ब्रिटेन के लेखकों की लगभग 708 पुस्तकों की कैटलॉगिंग हो चुकी है जिनमें 24 उपन्यास, 70 कहानी संग्रह, 212 काव्य संग्रह, 12 एकांगी.नाटक एवं अन्य विधाओं में लिखी पुस्तकें शामिल है.
उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रिटेन के लेखन का इतिहास मात्र दो दशकों का नहीं लगभग आठ-नौ दशक का है. साथ ही यह भी सच है कि ब्रिटेन का लेखन संसार अभी भी रचनात्मक स्थिति में ही है. उसे समृद्ध होने और मुख्य-धारा में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाने में अभी समय लगेगा. यद्यपि मुख्यधारा के मनीषियों, भारत की पत्र-पत्रिकाओं, इंटरनेट मैगज़ीन, ब्लागों और प्रकाशकों ने ब्रिटेन के हिंदी साहित्य की उपस्थिति तेज़ी से दर्ज़ करनी शुरू कर दी है.
एक समय था जब कि हिंदी कहानी ने प्रयोगवादी कहानी, प्रतीकात्क कहानी, अकहानी, सहज कहानी, सचेतन कहानी जैसे आंदोलन चलाएँ. चूँकि संसार विकासशील है इसलिए कहानी एक आंदोलन पर नहीं टिकी. आज हिंदी कहानी चाहे भारत में लिखी जा रही हो या इंग्लैण्ड, अमेरिका में, आज कोई ऐसा आंदोलन नहीं चल रहा है जो रेखांकित किया जा सके. विभिन्न प्रकार के विमर्श (स्त्री विमर्श, दलित विमर्श) अवश्य चल रहे हैं. पिछले दस-ग्यारह वर्षों में ब्रिटेन के कई लेखकों ने नॉस्टैलजिया से बाहर निकल कर नई ज़मीन तोड़ी हैं. यद्यपि अभी भी ब्रिटेन में लिखी जा रही अधिकांश कहानियाँ कुछ सीमा तक भारतीय मूल्यों से ही संचालित होती हैं. परिस्थितियों के बदलने से अवधारणा बदलती है. समाज में बदलाव आता है. संसार में हर चीज़ बदलती है. खान-पान, रहन-सहन आदि आदि. व्यक्ति समाज में रहता है. समाज से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं है.. व्यक्ति और समाज की बदलती परिस्थितियाँ ही संवेदनशील रचनाकार को सृजन के लिए उद्वेलित करती हैं. मानी हुई बात है परिस्थितियों के बिना कहानियाँ रूपाकार नहीं हो सकती हैं. 60-70 के दशक का नस्ली, रंग-भेदवाला (उड़ने से पेश्तर और दूसरी तरफ- महेन्द्र भल्ला, पराया देश- प्राण शर्मा, कंचकें, फ्री सोसाइटी- स्वर्ण चँदन) ब्रिटेन 90 के दशक में आते-आते बहुसांस्कृतिक और बहुभाषीय हो गया. ब्रिटेन का समाज बदला तो ब्रिटेन की हिंदी कहानी भी बदली. आज ब्रिटेन की हिंदी कहानियों में यहाँ के सुख-स्मृद्धि के साथ सामाजिक सरोकार, बदलते परिवेश, लोकेल और संस्कृति समन्वय का सजीव चित्रण, वर्णन और अभिव्यक्ति मिलती है.
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ब्रिटेन के लेखक किसी वाद विशेष के तहत नहीं लिखते हैं. हाँ, यदि लिखने के बाद वह किसी वाद विशेष के अंतर्गत आ जाए तो वह दूसरी बात है. वे अपनी कहानियों में भिन्न भिन्न देशी-विदेशी परिवेश और परिस्थतियों के प्लॉट और चरित्र लाते हैं और उसके सही निर्वाह का प्रयास भी करते हैं. एक कथाकार की संवेदनाएँ समय की धड़कन को अपने में समों लेती हैं. यह समोना कोई सचेत प्रक्रिया नहीं होती है जिसमें लेखक सचेत रूप से अपने समय के कालबोध को पाठक तक पहुँचाने के लिए कहानी के माध्यम का प्रयोग करे.
संक्षेप में आज के हिंदी कहानी के क्षेत्र में प्रौद्यौगिकी से सम्पन्न औद्यौगिकी समाज में जो क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं उससे कहानी का पारंपरिक ढांचा टूटा है. कहानी लेखन में नए नए प्रयोग हुए हैं. आज की अधिकांश कहानियाँ विमर्श प्रधान हैं, जिसमें इमिग्रैंट्स (राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय) के यथार्थ जीवन का चित्रण विवरण के साथ प्रस्तुत होता है. वस्तुतः वर्तमान में हिंदी कहानी विधा को परिभाषाओं के ढांचे में नहीं बाँधा जा सकता है. आज के हिंदी साहित्य जगत में अनेक ऐसे लेखक हैं जो साहित्यिक लेखन को मात्र निजी व्यवहार मानते हैं. वे रचना, अपने मानसिक दबावों, अंतर्द्वंद्वों अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए करते है. अतः यह कहना अनुचित न होगा कि देश-विदेश में जो नए विषयों पर कहानियाँ लिखी जा रही हैं वे संकीर्णता से मुक्त स्वानुभव की संवेदनशील कहानियाँ होने के साथ वैचारिक भी हैं. इन कहानियों में बौधिकता के सम्यक संतुलन के साथ निजता भी है साथ ही कथ्य, शैली और शिल्प भारत की परंपारिक लेखन से काफ़ी कुछ हट कर है. इनमें परमिस्सिव सोसाइटी (मुक्त समाज) में रहने के कारण नज़रिए का अंतर भी अपनी पूरी सच्चाइयों, विद्रूपताओं और विषमताओं के साथ चित्रित हुआ है.
‘मिट्टी की सुगंध’ (ब्रिटिश कहानीकारों का प्रथम कहानी संकलन) ‘प्रवास में’,‘वाकिंग पार्टनर’ और ‘वह रात और अन्य कहानियाँ’ के माध्यम से साहित्य जगत में प्रविष्ट होनेवाली उषा राजे सक्सेना की हर सांस वक़्त के साथ मुठभेंड़ करने, अपने को पहचान कर जीवन के अर्थ को गुनने और व्यक्ति-समाज के अंतर्संबंधों के जटिल संजाल की बारीकियों की पड़ताल करने में संलग्न है.
हिंदी संस्थान - उत्तर प्रदेश एवं भारतीय उच्चायोग, लंदन द्वारा संम्मानित एवं पुरस्कृत.
ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित.
सह संपादक ‘पुरवाई’.
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