कितनी कमज़ोर थी हमारी तैयारी, और आगे और भी कमज़ोर है
अशोक गुप्ता
दुनिया में मौत से बड़ा सच और कोई नहीं है. अगर अकाल मृत्यु की बात छोड़ दें, तो उम्र का बढ़ता जाना मौत के पास आने का सहज सामान्य लक्षण है. इस नाते, हमारे सामने राजेन्द्र जी के लिये यह सच बहुत साफ़ साफ़ महीनों से आ कर खड़ा हो गया था. लगभग, वह अब-तब की स्थिति से गुजर ही रहे थे, और हम सब उनसे जुड़े हुए लोग खुद को इस आघात का सामना करने के लिये तैयार कर रहे थे.
28th अक्टूबर 2013 की रात, बिना किसी आशंका के, सब सोने की तैयारी कर रहे थे लेकिन मौत राजेंद्र जी के सिरहाने आ कर खड़ी हो चुकी थी. अगली सुबह सिर्फ हाहाकार था. मैं पहले से ही अस्वस्थ था, प्रेम भारद्वाज की त्रासदी ने मुझको कुछ ज्यादा हलकान कर रखा था. 29th की सुबह अर्चना वर्मा जी का फोन आया और खबर मिली. मैंने तुरंत भरत तिवारी को फोन मिलाया. खबर की पुष्टि हुई और पता चला कि रात को ही उन्होंने मुझे एस एम एस पर सूचना दी थी. मैं भाग निकलने को तैयार ही था... लेकिन कैसा है यह शख्स, भरत तिवारी, उसने फोन पर दो बार कहा, “आप अपना ख्याल रखियेगा..” दो बार, जबकि मैंने न तो अपनी शारीरिक अस्वस्थता का ज़िक्र उससे किया था न उठ खड़े हुए मानसिक उद्वेलन का, जो अर्चना जी के फोन से उठ खड़ा हुआ था. और मुझे लगने लगा था कि इस समाचार को झेलने की महीनों से चल रही मेरी तैयारी बेहद कच्ची रही है, लगभग न के बराबर, और मैं खुद को निकल पड़ने की स्थिति में नहीं ला पाया. खैर, यह तो राजेंद्र जी के चल बसने के मुझ पर असर का प्रसंग हुआ, लेकिन यह प्रश्न बहुत छोटा है.
राजेन्द्र जी चले गये क्योंकि एक न एक दिन सबको जाना होता है. उम्र के लिहाज़ से वह असमय नहीं गये, भले ही उन पर यह फब्ती हमेशा कसी जाती रही कि वह अपनी उम्र की मांग के व्याकरण को ठेंगे पर रखते हैं. यहां असली प्रश्न कुछ और है, जिसका सामना करने की तैयारी किसी ने बिल्कुल भी नहीं की, (मैं यहां उन षड्यंत्रकारी ख़ुफ़िया तैयारियों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो कि बहरहाल जोर शोर से चल ही रहीं थीं.)
राजेंद्र जी ने अपनी उम्र के सत्तर वर्ष में साहित्य नहीं रचा, बल्कि उन्होने खुद को जन जीवन के विविध यथार्थों में विलय किया और उनको अपनी चेतना में स्थान दिया. इस तरह हर स्तर की व्यवस्था में उन्हें बहुत कुछ ऐसा नज़र आया जो न मानवीय कहा जा सकता था और न तर्कसंगत. राजेंद्र जी ने अपने भीतर उन सब का एक कैटलॉग तैयार किया, उसकी गहराई में उतरते हुए उनके संधान की अपनी वरीयताएँ तय कीं और अपना काम शुरू कर दिया. इस क्रम में उनका अध्ययन और स्वाध्याय देश विदेश के साहित्य, मिथकीय पौराणिक ग्रन्थ, इतिहास और मानविकी से भी चलता रहा और जन जीवन में विलय रहने का उनका चस्का भी निभता रहा. क्या यह बात विस्मित नहीं करती कि इतने अध्यवसाय ने उन्हें प्रबुद्धीय गाम्भीर्य से ओतप्रोत, आइवरी टॉवर पर बैठा विद्वान नहीं बनाया, बल्कि वह और भी जनोन्मुख होते गये. स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, अल्पसंख्यकों की दारुण स्थिति और उन सब सन्दर्भों का वाम पंथ से नाता उनके वैचारिक तंत्र में जगह बनाता ज़रूर गया, लेकिन वह केवल यही दो चार गठरियां अपनी लाठी पर लटकाये चलने वाले राही नहीं थे. उनका सरोकार बहुत बड़ा था. मैं, बतौर कथाकार ‘हंस’ से लगभग शुरू से अंत तक जुड़ा रहा.. और इस बीच राजेंद्र जी ने मेरी, ‘ठहाका’, ‘अपना उत्सव’ और ‘लाल बूटा’ जैसी कहानियां भी छापीं, जिनके सरोकार इन विमर्शों से अलग थे.

वह किंचित अमानवीय भी हैं.व्यक्ति के भीतर बसी तमाम वर्जनाएं इन्हीं ग्रंथियों का रूप हैं. इस नाते, साहित्य में गहरे उतरा, ईमानदार जनोन्मुख व्यक्ति उतना ही पारदर्शी हो जाता है जितने राजेन्द्र जी थे. उन पर अपनी इस पारदर्शिता के कारण उन ‘अनाधिकार चेष्टाओं’ के आरोप लगते रहे हैं, जो सामाजिक प्रतिबंधों की उपज हैं. राजेंद्र जी ने इन्हीं अमानवीय वर्जनाओं और सामाजिक प्रतिबंधों के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ी. इस संघर्ष में उन्होंने वामपंथी विचारों का साथ लिया, लेकिन वाम पंथी होने का टैग अपने गले नहीं लटकाया. बहुत बारीक सी बात है कि वामपंथी होने और वाम पंथी विचारों को ग्रहण कर लेने में अंतर होता है. इस अंतर को वह लोग नहीं समझ पाये, जिन्होंने अपने ज्ञान और अपने स्वाध्याय को अपने ऊपर एक कवच की तरह पहन भर लिया था,, आत्मसात नहीं किया था. यह अंतर एकदम वही है, जो शिक्षित व्यक्ति और डिग्री होल्डर के बीच होता है.
यहां एक बारीक सी बात में कहना चाहूँगा. व्यक्ति जब साहित्य को ईमानदारी से अपने भीतर उतार कर, उसके हाथों अपने आचरण और व्यवहार की बागडोर सौंप देता है, तो वह अपने भीतर की उन ग्रंथियों को खुलता हुआ पाने लगता है, जो केवल पारंपरिक है, और तार्किकता से उनका कोई संबंध नहीं है.
इस तरह, राजेंद्र जी का अवसान उनके पार्थिव्य का अवसान भर है. उनके द्वारा स्थापित धाराएं हमारे सामने हैं , जिन्हें आगे ले जाना है. उनकी वैचारिकता अभी बहुत आगे ले जाये जाने की मांग करती है. ‘हंस’ उसका एक माध्यम है, लेकिन अकेला माध्यम नहीं. वह जितना रचनात्मक साहित्य रच कर छोड़ गये हैं, उससे ज्यादा उनके वैचारिक प्रबंध हमारे सामने हैं. उसके समुचित प्रसार और सार्थक विकास की बहुत ज़रूरत है. एक ट्रस्ट बन जाये, जो इसका संरक्षण संभाले, और इसे लूटपाट से बचाए. हंस तो उड़ गया, लेकिन आकाश में सफ़ेद चील कौवे भी मंडरा रहे हैं. इस संदर्भ में तो हमारी तैयारी और भी कमज़ोर है.
0 टिप्पणियाँ