हम अपने दौर का समाज दिखा रहे हैं - महुआ माजी


वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने जनसत्ता में प्रकाशित अपने लेख "स्त्री विमर्श और आत्मालोचन" में नयी पीढी की महिला कहानीकारो के लेखन पर कई सवाल उठाए, जिसे हमने शब्दंकान पर प्रकाशित भी किया था। उनके इस लेख पर गंभीर प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।
कुछ लोगो ने यह कहा कि उन्हें, बिना पढे पूरी पीढ़ी को खारिज नहीं करना चाहिए था। कुछ ने कहा कि नयी पीढ़ी पर मैत्रेयी पुष्पा का गहरा प्रभाव है। जो विमर्श उन्होंने शुरु किया था, नयी पीढ़ी उसी को आगे बढ़ा रही है। मैत्रेयी जी के लेख के विरोध में कई स्वर उठे। यहां तक कि उनके समर्थन में उनकी ही पीढ़ी की लेखिकाएं भी नहीं आईं।
महिलाओं की मासिक पत्रिका बिंदिया का जुड़ाव साहित्य से लगातार बढ़ता ही दिख रहा है, आपने शब्दांकन पर पहले भी पत्रिका की संपादिका गीताश्री के लेखों को पढ़ा है। अब बिंदिया ने इस मुद्दे को गंभीरता से उठाया है और हिंदी की कुछ वरिष्ठ और नयी पीढी की लेखिकाओं से इस मुद्दे पर बात की और उनकी प्रतिक्रियाओं को छापा।
उनमें से महुआ माजी,  रजनी गुप्त और मणिका मोहिनी की प्रतिक्रियाएं यहां शब्दांकन पर आपके लिए ...
आपका
 



 हम अपने दौर का समाज दिखा रहे हैं 


- महुआ माजी  

समाज में समय के साथ खुलापन आया हैँ। पिछली पीढ़ी की तुलना में बहुत खुलापन है। समाज की मान्यताएं भी बदली हैं। ऐसे में नई लेखिकाओं पर ये आरोप लगाना कि उनकी लेखनी में खुलापन आया है या उनके विषय बोल्ड हो गए हैं, इतनी बोल्डनेस की जरूरत नहीं है, ये कहीं न कही मैत्रेयी जी की अपनी सोच की दिक्कत है। जब आस-पास माहौल बदला है, उन तमाम चीजों को दिखलाना, उस बदलाव को दिखाना लेखिकाओं का कर्तव्य है। जो कही जा रहीं हैं दिखाई जा रही हैं वो समकालीन बाते हैँ। पूरानी पीढ़ी भी तो समकालीन तथ्यों को ही दिखलाती थीं, उनके दौर में जो समाज था उन्होंने वो समाज दिखाया हमें जो समाज मिल रहा है, हम उस समाज को दिखलाएंगे। अब जयन्ती ने लिव इन पर लिखा तो हम ये कहें कि ये बोल्ड विषय है, समाज में लिव इन है इसलिए लिव इन दिखाया जा रहा है। आज की दौर की लेखिकाओं का नजरिया, रहन सहन, वेषभूषा तो आज के दौर के अनुकूल होगा । अब हम कहें कि मैत्रेयी जी महादेवी जैसी सीधे पल्ले की साडी क्यों नहीं पहनती हैं, या उनकी तरह उन्होंने सोच या व्यवहार क्यों नही अपनाए, जैसी उम्मीद वह हमसे कर रहीं हैं। 

आज के दौर की लेखिकाएं स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श कर रही हैं ये कथन सभी लेखिकाओं पर लागू नहीं होता। मेरे दोनो उपन्यास गंभीर विषयों पर है। “मैं बोरिशाइल्ला” बांग्लादेश की मुक्ति-गाथा पर केंद्रित है, जिसमें संप्रदायिकता के असर की भी बात की गई है। दूसरा उपन्यास "मरंगगोड़ा" नीलकंठ में यूरेनियम रेडिएशन के दुष्प्रभाव की चित्रण किया गया है। इस तरह के प्रसंग आए भी हैं तो वो जरूरत के हिसाब से रखे गए हैं वो उस कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। बेवजह नहीं डाले गए हैं। वैसे ही अन्य लेखिकाओं ने भी जरूरत के हिसाब से उसे डाला है। केवल उसी के लिए कहानी का ताना बाना नहीं बुना गया। ये कोई अछूता विषय तो है नही, कि कहानी की जरूरत है फिर भी बच कर चल रहे हैं। जहां तक उनकी ये बात कि आज के दौर की लेखिकाओं द्वारा किया जा रहा स्त्री विमर्श पुरुष विरोधी है तो उसकी शुरुआत तो मैत्रेयी जी ने ही की है। सभी लेखिकाएं ऐसा नहीं करती। कहानी की मांग के अनुसार तथ्यों को रखा जाता है। आप उसे जो भी मानें।


 ऐसा लिखें, वैसा लिखें- गाइडलाइन्स कोई नहीं दे सकता 


- रजनी गुप्त 


रचनाकार वही लिखता है जो समय, समाज व हालातों का सच होता है । कोई भी साहित्‍यकार समय से न तो खुद को काट सकता है, न ही अपने समय से पीठ करके कुछ भी रचना प्रासंगिक या प्रभावी होगा। हम ऐसा लिखें या वैसा लिखें, ये गाइडलाइंस कोई भी, किसी को, कभी नहीं दे सकता। रचनाकार के नाते इतना अवश्‍य जानती महसूसती हूं कि हम पर समाज या परिवार की पित़ृसत्‍तात्‍मकता व्‍यवस्‍स्‍था द्वारा कई बार प्रत्‍यक्षत: तो कई बार अप्रत्‍यक्षत: जो दबाव, तकलीफें, अन्‍याय, अनाचार या मानसिक उत्‍पीड़न होता है, उसे हम पूरी ताकत से इसी समाज या परिवार व्‍यवस्‍था के सामने प्रश्‍नांकित करते हैं सो ऐसा कहना ठीक नही है कि समकालीन पीढ़ी बोल्‍ड विषयों पर ज्‍यादा लिख रही हैं जबकि हकीकत तो ये हैं किे जिस बोल्‍डनेस को ओर आज की नई पीढ़ी जी रही है या यंगस्‍टर्स के जो जीवन मूल्‍य हैं या जो लाइफ स्‍टायल है, वही जीवन तो स्‍वाभाविक रूप से साहित्‍य में आएगा ही, तो विषय बोल्‍ड है या नही, ये तय करना लेखक की प्राथमिकता होनी चाहिए। कोई भी रचनाकार जानबूझकर बोल्‍ड विषय नही उठाता, ऐसा मेरा मानना है।
उम्र को छिपाकर युवा लेखन में कोई जानबूझकर आना चाहता है, ऐसा है या नही, मैं नही कह सकती पर हां, एक बार मैंने महुआ माजी से खुद पूछा था, आपकी उम्र, तो वे तपाक से बोली थी, आप कयास लगाते रहिए। तो संभव है, कुछ रचनाकारों को जो अपवादस्‍वरूप ही होंगे, अपनी उम्र बताने से परहेज होगा। मगर अधिकांश रचनाकार उम्र नही छुपाते। उम्र छिपाने से आपको भला कैसे युवा रचनाकार मान लिया जाएगा। 

दरअसल ये सवाल ही ठीक नही, कुछ ऐसे रचनाकार भी होते हैं जो वयस्‍क होते हुए भी युवा मानसिकता पर बहुत बढिया लिख लेते हैं सो ये तो मनस्थिति पकड़ने वाली बात है, कौन कितना पकड़ पाता है युवाओं के मन, अनुभूतियों या अहसासों को, लेखक को खांचों में बांटना ठीक नही। समकालीन पीढ़ी का सारा लेखन कैसे कोई भी खारिज कर सकता है। ऐसा सोचना भी ठीक नही, मगर जिस तरह ये बात सही है कि वरिष्‍ठ लोग समकालीनो को नही पढते, वैसे ही ये भी सही है कि बहुतेरे समकालीन भी एक दूसरे को कतई नही पढते। 


 जो हैं ही लेखिका, उन्हें आप लेखिका कह कर अहसान नहीं कर रहे 


- मणिका मोहिनी 


मैत्रेयी पुष्पा के लेख का शीर्षक सिर्फ 'स्त्री विमर्श' नहीं है, बल्कि 'स्त्री विमर्श और आत्मालोचन' है। उन्होंने स्त्री-विमर्श की समर्थक लेखिकाओं को अपने भीतर झाँकने की सलाह दी है, लेकिन उन्होंने स्वयं अपने आत्म का कितना अवलोकन किया है, यह बात देखने योग्य है। वे लेख के पूर्वार्ध में संतुलित तरीके से बात कहती हैं लेकिन लेख के उत्तरार्ध में उनका संतुलन बिगड़ गया लगता है। उनका गुस्सा युवा लेखिकाओं पर क्यों निकला, इसकी वजह वही जानती हैं। वह तो उन्हें लेखिका तक कहने को तैयार नहीं। मैत्रेयी का यह कथन..  "उन रचनाकारों को सचेत होना पड़ेगा जिनको हम लेखिका कहते हैं." आपत्तिजनक है. जो हैं ही लेखिका, उन्हें आप लेखिका कह कर अहसान नहीं कर रहे. इस कथन से यह ध्वनित होता है कि मैत्रेयी अपने अतिरिक्त अन्य किसी को लेखिका कहा जाना पसंद नहीं करतीं।

दूसरा आपत्तिजनक कथन है, "वे (युवा लेखिकाएं) लेखन के हल्केपन की परवाह नहीं करती, जवानी को संजोए रखने की फ़िक्र में हैं." और अपनी असली उम्र नहीं बतातीं। अरे मैत्रेयी जी, हमारी-आपकी जवानी जा रही है, तो इसका यह मतलब नहीं कि दूसरों की जवानी से जलें। यह विचारणीय प्रश्न है कि युवा लेखन कैसे निर्धारित हो? क्या लेखक की उम्र से या लेखन की उम्र से? जिन लेखक/लेखिकाओं ने चालीस वर्ष की उम्र के बाद लेखन की दुनिया में प्रवेश किया, वे अपनी किस उम्र तक या अपनी लिखी कितनी पुस्तकों तक युवा कहलाएंगे? स्त्री विमर्श की चर्चा करते समय लेखिकाओं को इन शब्दों में ललकारना निन्दास्पद है एवं विषयांतर भी।

मैत्रेयी का तीसरा प्रश्न जो स्त्री विमर्श से जुड़ा है वह है, "आज की रचनाओं में लिव इन रिलेशनशिप, अफेअर, मैरिज, डाइवोर्स, और कितने-कितने लोगों से यौन सुख का रिफ्रेशमेंट उफ़ ! यह स्त्री विमर्श? स्त्री का मनुष्य रूप केवल यही है? उसने अपने हक़-हकूक केवल इसी स्थिति के लिए लेने चाहे थे?" लेकिन बाद में उन्होंने मान भी लिया कि यह सही है, इस विषय पर रचनाएं आनी चाहिए। विज्ञापनों में स्त्री-देह को माध्यम बनाने का विरोध सही है लेकिन मैत्रेयी को विवाह के मौके पर स्त्री का साज-श्रृंगार करना भी नहीं सोहता। क्या विमर्श के नाम पर स्त्री अपनी इयत्ता को खो दे?

मैत्रेयी को क्यों है युवा लेखिकाओं पर इतना क्रोध? क्यों है युवा लेखिकाओं से इतनी ईर्ष्या? क्या इसलिए कि उन्हें अपना युवा वक़्त ख़त्म होता हुआ लग रहा है?

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. एक लेखिका हैं, जिन्होंने अपने दौर का समाज ही नहीं बल्कि अपने जन्म से पूर्व या छह वर्ष की उम्र में ही उस देश के भूगोल का आखों देखा हाल लिख दिया जिस देश में उनका कभी जाना ही नहीं हुआ...उनको दंभ इस बात का भी है कि वे आदिवासी की हित रक्षक हैं और इतने हित रक्षक कि यह हित रक्षण उनको देश हित से या राष्ट्र हित से बढ़ कर लगता है...आदिवासी(एस,टी.) के नाम पर बहुत से लेखक व्यवसाय करते हैं...जिनमें आदिवासी भी शामिल हैं और गैर आदिवासी भी...लेकिन, उनकी दशा दिशा को राह दिखलाने वाला साहित्य लिखने की जगह वह विदेशी चिंतन को अग्रसर करती हैं, आदिवासी के नाम की ओट में नोट बनाने के लिए...एक लेखिका हैं, जिनको एक मठाधीश ने अपनी किताब में 'कुतिया' कह कर संबोधित कर दिया और वह मस्त हैं इस उपाधि को पा कर...पुष्पा जी ने ऐसी ही लेखिकाओं को अपने लेख में समावेशित कर बहुत नेक काम किया है....

    जवाब देंहटाएं

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा