रवीश की रपट में फिल्म 'शाहिद' | Movie Review of 'Shahid' by Ravish Kumar

"वो लोग तुम्हें अतीत में जीने के लिए मजबूर करेंगे लेकिन तुमको आने वाले कल के लिए जीना होगा ।" शाहिद की ज़िंदगी से दूर जा चुकी मरियम ने ये बात शाहिद से नहीं हम सबसे कही । जिसे उस ख़ाली से महँगे हौल में शाहिद ने सुना न अपनी गर्लफ़्रेंड के कंधे से चिपके नौजवानों ने । तभी बगल की सीट पर वो लड़का जो ख़ुद को मेरा फ़ैन बताता रहा आख़िरी शाट के अगले पल मेरे साथ फोटू खींचाने के लिए इसरार करने लगा । मुझे झटकना ही पड़ा । इतनी सीरीयस फ़िल्म देखकर निकल रहे हो दस मिनट तो सोच लो । उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ा । न मुझे ।

       सात साल में सत्रह बेगुनाह लोगों को बाइज़्ज़त रिहा कराने वाला एक वक़ील मार दिया जाता है और उसकी कथा एक बेहतरीन फ़िल्म के बाद भी हमारे ज़हन में नहीं उतरती । मैं यह नहीं कहता कि आप शाहिद देखने ज़रूर जायें बल्कि हो सके तो न देखें क्योंकि यह फ़िल्म आपके अंदर झाँकने लगती है । आप शाहिद को नहीं देखते वो आपको देखने लगता है । यह फ़िल्म तकलीफ़ कम देती है हमारी सोच की चोरियाँ बहुत पकड़ती है ।

       आतंकवाद इस्लाम या हिन्दू की कोख से पैदा नहीं होता । इसे पैदा करती है राजनीति । जो हम सबको रोज़ उस बीते कल में धकेलती हैं जहाँ हम चौरासी बनाम दो हज़ार दो का खेल खेलते है । मज़हब के हिसाब से अपनी अपनी हिंसा के खेमे बाँट लेते हैं । शाहिद हमारी उसी सोच से पैदा होता है और उसी से मार दिया जाता है । मारने वाले का चेहरा नहीं दिखता पर वो होता तो इंसान ही है । शाहिद की हर दलील आज भी हमारी राजनीतिक खेमों की अदालत में गूँजती हैं । इसलिए कि हम अपने भीतर के शाहिद को चुपचाप मारते रहते हैं । बड़ी चालाकी से हर हत्या के बाद किसी दूसरे हत्यारे का नाम ले लेते हैं ।

       अगर आपके भीतर ज़रा भी सांप्रदायिकता है आप शाहिद देखने से बचियेगा क्योंकि आपको इन तमाम अतीतों को बचा कर रखना है जिसमें अभी कई शाहिद धकेले जाने वाले हैं । आप अगर अतीत को नहीं बचाकर रखेंगे तो राजनीति खुले में नंगा नहाएँगीं कैसे । आप राजनीति के किसी काम के नहीं रहेंगे । राजनीति में महान नेता पैदा कैसे होंगे । वे कैसे आपके भीतर जुनून पैदा करेंगे । अगर आप सांप्रदायिक नहीं हैं तो शाहिद ज़रूर देखियेगा । बहुत ज़रूरी है अपनी हार को देखना । शाहिद उन तमाम सेकुलर सोच वालों की हार की कहानी है जिन्होंने शाहिदी जुनून से सांप्रदायिकता और सिस्टम से नहीं लड़ा । जिनमें एक मैं भी हूँ ।

क्रेडिट लाइन -
       फ़िल्म में अपनी दोस्त शालिनी वत्स को देखकर फिर अच्छा लगा । वक़ील बनी है और अच्छा अभिनय किया है । राजकुमार को 'काई पो तो' में देखा था । बहुत अच्छा कलाकार है । प्रभलीन संधू को पहले कहाँ देखा याद नहीं पर सिनेमा हाल से निकलते एक सरदार जी नाम पढ़ कर उत्साहित हो गए । अपनी गर्लफ्रैंड को बताने लगे कि देख प्रभलीन कौर है । बस पीछे मुड़ कर थोड़ा सुधार कर दिया । कौर नहीं संधू है । निर्देशक हंसल मेहता और निर्माता अनुराग कश्यप के बारे में क्या कहा जाए । ये हैं तो बहुत कुछ हो जा रहा है ।

http://naisadak.blogspot.in/2013/10/blog-post_4845.html

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

काली-पीली सरसों | ज्योति श्रीवास्तव की हिंदी कहानी | Shabdankan
बारहमासा | लोक जीवन और ऋतु गीतों की कविताएं – डॉ. सोनी पाण्डेय
चित्तकोबरा क्या है? पढ़िए मृदुला गर्ग के उपन्यास का अंश - कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है | Chitkobra Upanyas - Mridula Garg
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
 प्रेमचंद के फटे जूते — हरिशंकर परसाई Premchand ke phate joote hindi premchand ki kahani
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
चतुर्भुज स्थान की सबसे सुंदर और महंगी बाई आई है