संसद का बदलता स्वरूप - श्वेता यादव | Changing Nature of Parliament - Sweta Yadav

संसद का बदलता स्वरूप: बहस के प्रति उदासीनता

 श्वेता यादव

 “किसी कार्यशील एवं जीवंत लोकतान्त्रिक समाज में सूखा पड़ सकता है, पर दुर्भिक्ष नहीं पड़ता। लोग भूख से नहीं मरते क्योंकि वहां प्रतिरक्षी राजनीतिक शक्ति और स्वतंत्र प्रेस के चलते सत्य –तथ्य लगातार उद्घाटित होते हैं और सरकार-शासकीय एजेंसियों पर लोगों को बचाने का दबाव होता है। ” 
अस्सी- नब्बे के दशक में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपनी दो पुस्तकों ‘पावर्टी एंड फेमिन ‘ और ‘डेवलपमेंट एंड फ्रीडम’ के जरिये इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया था। किसी भी लोकतान्त्रिक देश के परिपेक्ष्य में यह तथ्य जरुरी भी है और सत्य भी।

       किन्तु संसदीय प्रणाली वाले देश भारत में विगत कुछ वर्षों में संसद के क्रियाकलापों का स्वरुप जिस तरह से बदला है वह ना सिर्फ चिंता का विषय है अपितु यह भी सोचने पर विवश करता है कि जिन्हें चुन कर हम संसद में भेजते हैं क्या वह सच में हमारे हितों को लेकर सचेत हैं या फिर नहीं ?

       संसद देश का सर्वोच्च स्थान, लोकतंत्र का प्रतीक किसी भी लोकतान्त्रिक देश के लिए सबसे बड़ी संवैधानिक संस्था। जहाँ पर जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि आते हैं और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से जनता के हितों की सुरक्षा का जिम्मा लेते हैं| विश्व में लोकतंत्र के क्रियाकलापों के लिए दो तरह की प्रणालियाँ प्रचलित हैं , एक संसदीय प्रणाली और दूसरी अध्यक्षीय प्रणाली दोनों ही प्रणालियों में मूलभूत अंतर यह है कि अध्यक्षीय प्रणाली में स्थायित्व होता है जिसका मतलब यह है कि जो भी पार्टी पांच या छ साल के लिए चुन ली जाती है वह अपने निर्धारित कार्यकाल को बिना बाधा पूरा करती है। कार्यकाल की अवधि में उसके स्थगन का कोई प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता जब तक की कोई विकट परिस्थिति देश के समक्ष ना हो, ऐसी प्रणाली अमेरिका जैसे देशों में लागू है। दूसरी प्रणाली है संसदीय प्रणाली जिसका प्रमुख गुण है जवाबदेही (एकाउंटबिलिटी ) सरकार जनता के प्रति, विपक्षी दलों के प्रति जवाबदेह होती है। और यदि किसी मुद्दे पर निर्वाचित सरकार इस जवाबदेही को सुनिश्चित नहीं कर पाती तो उसे निश्चित समय से पहले भी स्थगित किया जा सकता है। और भारत में संसदीय प्रणाली है।

       संविधान निर्माताओं ने भारत की विविधताओं को देखते हुए दोनों प्रणालियों में से संसदीय प्रणाली को इसलिए चुना था कि लोकतंत्र की बहाली में किसी भी प्रकार की कोई भी समस्या ना हो और यह सुचारू रूप से चलती रहे। देश में 1952 से लोकसभा चल रही है ,और पिछले साल ही लोकसभा ने अपने गठन के साठ वर्ष पूरे किये। पर जैसे-जैसे दौर बदला, राजनीतिक परिदृश्य बदला वैसे-वैसे संसद का स्वरुप और स्वभाव भी बदला।

नारी सशक्तिकरण: नया विमर्श - श्वेता यादव  | Woman Empowerment: New Discourse - Sweta Yadav शब्दांकन Shabdankan        ऐसा नहीं की संसद में हंगामे आज से पहले नहीं हुए हैं अगर आप को ऐसा लगता है तो आपको हरिशंकर परसाई जी के व्यंगों को जरूर पढना चाहिए उसमें भी विशेषकर “संसद और मंत्री की मूंछ। व्यंग की शुरुआत ही परसाई जी ने बड़े जोरदार तरीके से की है कुछ लाइने देखें ‘संसद की कार्यवाही को लेकर बार बार यह बात उठाई जाती है कि प्रति दिन संसद पर कितना खर्चा आता है ? प्रति मिनट कितने रुपये लग जाते हैं ? हर प्रश्न पर कितना खर्च होता है ? ये सवाल यों बेमानी है संसद किसी से पैसा माँगने नहीं जाती। वह खुद बजट पास करती है। जो बजट पास करे उसे चाहे जितना खर्च करने का हक़ है’। गौरतलब है की संसद की एक दिन की कार्यवाही पर लगभग 8 करोड़ रुपये का खर्च आता है| संसद के दोनों सदनों राज्यसभा और लोकसभा के लिए इस समय आवंटित बजट लगभग 550 करोड़ का है। ये तो सिर्फ वह धनराशि है जो संसद को सुचारू रूप से चलने के लिए दी जाती है इसके अलावा संसद में जो समितियां बनती हैं जिनकी अध्यक्षता यही माननीय सांसद लोग ही करते है इनके “अध्ययन यात्रा “ पर भी अरबों रुपये बर्बाद किये जाते हैं। ये अध्ययन यात्राएँ इसलिए होती हैं कि वे अपने विषय से सम्बंधित जानकारी हासिल करें और उनका प्रयोग नियम बनाते वक्त करें , अब ये निति निर्माता क्या बनाते है और वह लागू कैसे होता है ये हम सब बेहतर जानते है।

       संसद की गरिमा उसकी उपयोगिता को लेकर सांसद कितने गंभीर हैं यह आये दिन संसद में होने वाली कारगुजारियों से स्पष्ट होता है। दलीय राजनीति संसद की कार्यवाही पर भारी पड़ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में देखें तो संसद के तीनों ही सत्र लगातार हंगामें की भेंट चढ़ते आ रहे हैं। ना ही किसी बात पर कोई तार्किक सवाल जवाब और ना ही किसी बिल को लेकर कोई सार्थक बहस, संसद में पिछले कुछ सालों में इसकी भारी कमी देखने को मिली। २००९ में लोकसभा के शीतकालीन सत्र में प्रश्नकाल के लिए 28 सांसदों के तारांकित सवाल सूचीबद्ध थे और प्रश्नकाल के समय इनमें से किसी भी सदस्य ने उपस्थित रहना जरूरी नहीं समझा। 
देश की सर्वोच्च संस्था की हालत आज किसी सिनेमा हाल जैसी हो गई है जहाँ लोग आते हैं थोड़ी देर मूवी देखते हैं हो हल्ला और मस्ती करते हैं फिर अपने-अपने घरों को चल देते हैं। 

...हमारे राज नेता अब तो अपनी राजनीतिक गरिमा को भी खोते जा रहे हैं, जवाबदेही को कौन कहे अब तो आये दिन संसद में जूतमपैजार देखने को मिल जाता है।

       विपक्षी पार्टियाँ जिन मुद्दों को जवलंत कह कर लोकसभा में उठा रही हैं वो मुद्दे शायद इतना जल रहे हैं कि हर दिन सदन के स्थगन की नौबत आ जा रही है जबकि यह सभी जानते है की सदन में जिन भी मुद्दों पर चर्चा होनी रहती है उस पर पहले ही अध्यक्ष के सामने बात हो जाती है अगर सबकी सहमती बनती है तभी उस मुद्दे को चर्चा के लिए सदन में लाया जाता है।

       जब यह बात पहले ही पता होती है की आज इस मुद्दे पर चर्चा करना या कराना है तो उस पर इतना हो हल्ला क्यों मचता है क्यों सदन में बात रखने पर पक्ष या विपक्ष मुकर जाता है और सदन में हंगामा बरपा देता है तथा संसद को चलने नहीं देता।

       इसमें दो बाते हैं एक तो यह पक्ष या विपक्ष जानबूझ कर संसद के सत्र को चलने नहीं देता दूसरी बात यह की अध्यक्ष सारी बातों को जानते हुए उस पर कोई कदम नहीं उठाते जबकि अध्यक्ष को संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए बहुत सारे अधिकार मिले हुए हैं जिनका उपयोग वह कर सकता है लेकिन अभी तो संसद के दोनों सदनों के अध्यक्ष महोदय को लगता है सिर्फ एक ही नियम याद रह गया है और वो है स्थगन। एक समय ऐसा था जब यही संसद अपने कार्यकाल को लेकर हमेशा चर्चा में रही ज्योति बासु, जार्ज फर्नाडिस आदि कुछ ऐसे नेता थे जो संसद में प्रश्नकाल, शून्यकाल आदि समय में बहस करने प्रश्नों को रखने के लिए मशहूर थे। अब तो ऐसा कोई भी दिखाई नहीं पड़ता 2009 में जब बहुत सारे युवा नेता संसद में आये तो उनसे एक उम्मीद बनी की शायद ये संसद की इस चलती हुई परिपाटी को बदलेंगे और एक नया दौर शुरू होगा, लेकिन अफ़सोस इन्होंने पुरानी पीढ़ी से सबक ना लेकर वर्तमान नेताओं के कदमताल पर चलना ज्यादा उचित समझा।

       संसद का काम बाधित होने की वजह से नए पुराने 104 विधेयक लटके पड़े हैं इनमें से कई विधेयक आम जनता, देश के आर्थिक, सामाजिक, और सुरक्षा से जुड़े विषयों से सम्बंधित हैं। इतने महत्वपूर्ण मुद्दों से जुड़े विधेयकों का सिर्फ हंगामे की वजह से रुके रहना सांसदों की अस्थिरता को ही दर्शाता है। शुरूआती दशकों में औसतन प्रति वर्ष 70-80 विधेयक पारित होते थे अब घटकर औसतन 40 रह गए हैं .१९७६ में संसद ने रिकार्ड 118 विधेयक पारित किये और 2004 में मात्र 18 विधेयक पारित हुए। हैरत की बात तो यह है की कुछ विधेयक तो महज दो से चार मिनट में पारित हो गए जब की एक-एक विधेयक पर बहस करने के लिए उसे प्रभावी बनाने के लिए कम से कम दो से तीन दिन का समय मिलता है। रेलवे और सामन्य बजट की अनुदानों की अनुपूरक मांगों से सम्बंधित चार विधेयक दोनों सदनों में हंगामे के बीच बिना बहस के महज चार और सात मिनट में पारित हो गए। 

       संसदीय बहस को मजबूत करने के लिए काम करने वाली संस्था “बी आर एस लेजिस्लेटिव रिकार्ड “ के अध्ययन के मुताबिक 14वीं लोकसभा के अंतिम दिन केवल 17 मिनट के दौरान आठ विधेयक पारित किये गए। संसद में सांसदों की उपस्थिति भी एक बड़ा मुद्दा है 80 के दशक से पहले देखे तो सदन का सत्र शुरू होने पर संसद भरी होती थी सांसद आते थे और सदन की पूरी कार्यवाही में हिस्सा लेते थे पर अभी तो उपस्थिति भी एक बड़ा सवाल हो गई है आधे से अधिक सांसद तो आते ही नहीं और जो आते भी हैं वे या तो सोते हुए पाए जाते है या फिर उंघते हुए।

       प्रश्नकाल हो चाहे शून्यकाल , धारा 185 या फिर 184, विहिप यह कुछ ऐसे नियम हैं जिनका इस्तेमाल करके सत्ताधारी पार्टी पर लगाम लगाया जा सकता है अर्थात अगर सरकार के क्रियाकलाप जनता के हित में ना हो तो उन पर प्रश्नचिंह लगाया जा सकता है और सरकार की बर्खास्तगी की मांग की जा सकती है। किन्तु इन नियमों का इस्तेमाल तभी किया जा सकता है जब की संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले वह स्थगन या हंगामें रूपी बुखार से बची रहे तभी इन नियमों के तहत काम संभव है।

       सदन के अध्यक्ष के पास इस बात का पूरा अधिकार होता है कि वह सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए कड़े कदम उठा सकता है। किन्तु संसद के दोनों सदनों के अध्यक्षों की लाचारी देखते बनती है, इन्हें देख कर तो कभी कभी ऐसा लगता है की इन्हें शपथ ही दो शब्द कहने के लिए दिलाया जाता है , बैठ जाइए ,शांत हो जाइए जैसे शब्द ऐसा लगता है की इसके अलावा ये कुछ करना ही नहीं चाहते इससे ज्यादा कुछ करने पर उतरते हैं तो सीधे स्थगन बीच के सारे नियम भूल चुके हैं ये लोग।


     बार-बार का स्थगन, हंगामा यह हमारी राजनितिक असफलता को दर्शाता है पिछले तीन सालों का रिकार्ड उठा कर अगर देखें तो 100 दिन तक भी संसद नहीं चली है। लोकसभा में 127 दिन औसतन काम होता था जो अब घटकर 70 दिन हो गया है और इसमें भी लगातार कमी ही हो रही है। संसद की हालत देखकर लगता है की संसद नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली तर्ज पर चल रही है। पिछले साल संसद में ७३ दिन यानी सिर्फ 800 घंटे काम हुआ उसमें भी लगभग 30 फीसदी हंगामें की भेंट चढ़ गया। संसद में हंगामें की वजह से बर्बाद हुए समय को अगर देखे तो इसमें लगातार वृद्धि हुई है जैसे 11 वीं लोकसभा में यह 5 फीसदी ,१२ वीं लोकसभा में 10 फीसदी, 13 वीं लोकसभा में 20 फीसदी , 14 वीं लोकसभा में 38 फीसदी और 15 वीं लोकसभा में हालात और बदतर होते जा रहे हैं। इससे राजनीति का और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का एक वीभत्स रूप उभर कर हमारे सामने आता है।

       लोकतंत्र का स्वर्णयुग अगर लाना है तो सभी राजनीतिक दलों को इस पर विचार करना होगा कि भारत जैसे बड़े देश में संसद की गरिमा को बनाये रखना सबसे अहम है। स्वस्थ्य राजनीति किसी भी मुल्क की आधारशिला होती है। अगर आधारशिला में ही दीमक लग जाए तो महल को धराशायी होने से कोई नहीं रोक सकता। अतैव जरुरी है कि संसद सदस्यों के साथ साथ स्पीकर भी अपनी जिम्मेदारियों को समझे और जरुरत पड़ने पर अपने अधिकारों का प्रयोग करे जिससे की लोकतंत्र की गरिमा और लोगों की लोकतंत्र पर आस्था को कोई चोट ना पहुंचे।

 - श्वेता यादव
जन्‍म -17 अप्रैल 1987। मूलत: आजमगढ़, उत्तर प्रदेश की रहनेवाली।
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय से जनसंचार विषय में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्‍त।
वर्तमान में स्वयंसेवी संस्था जनसेवाश्रम में जन संपर्क अधिकारी के पद पर कार्यरत और स्वतंत्र लेखन।
संपर्क: swetayadav2009@gmail.com 

       

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3 टिप्पणियाँ

  1. यह लेख हमें बहुत कुछ सोचने को विवश करता है. सांसद का काम हंगामा करना नहीं हैं बहस करना है. स्वेता किरण उभरती हुई सामाजिक चिन्तक हैं. इनके हर लेखो में लगातार नई चिंतन और गहराई देखने को मिलता हैं.

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  2. एक गंभीर मुद्दे पर सार्थक चिंतन प्रस्तुत करता आलेख।


    सादर

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  3. जब देशहित सर्वोपरि हो जायेगा, दलगत राजनीति विदा होने लगेगी।

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