तेज़ाब हमलों के खिलाफ़ सुलच्‍छन चच्‍चा की साइकिल यात्रा | Rakesh Kumar Singh : War Against Acid Attacks

तेज़ाब हमलों के खिलाफ़ सुलच्‍छन चच्‍चा की साइकिल यात्रा


बम संकर टन गनेस के लेखक राकेश कुमार सिंह उन विलक्षण इंसानों में से एक है जो ज़मीन से जुड़े दर्द को ना सिर्फ़ देख पाते हैं बल्कि उन्हें दूर करने के लिए किसी भी हद्द तक जाने को तत्पर रहते हैं. लड़कियों पर होने वाले तेजाब हमले (acid attack) और उसके बाद की भयावह स्थिति ने राकेश को कितना बेचैन किया होगा इसका अंदाज़ा हम इस बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने इसके खिलाफ़ जन-जागरण का फ़ैसला कर लिया और अब 26 जनवरी से वे 'साइकिल-यात्रा' पर निकल रहे हैं.

इंसान होने के नाते, हम-सब को उनकी इस मुहीम में उनका साथ देना चाहिए और महिलाओं पर होने वाले एसिड अटैक को रोकने की उनकी इस साइकिल-यात्रा को सफ़ल बनाने के लिए आगे आना चाहिए.

इस नोट के अंत में राकेश के बैंक अकाउंट का ब्‍यौरा साझा किया जा रहा है ताकि यात्रा आरंभ करने में आप सुविधानुसार अपना वित्‍तीय योगदान दे सकें. यह एक अभियान है. आपकी भागीदारी का बड़ा महत्‍त्‍व है. सहमत हैं तो आगे आकर मदद करें.


सीवान, बिहार की है तूबा. उम्र 16 साल. चिप्पियों ने चेहरे की रंगत बदल डाली. एक आंख नहीं रही. जुबान चली गई. सांस के लिए नाक में नली लगी है. काफी मशक्‍कत के बाद डॉक्‍टर भोजन में सिर्फ़ तरल की गुंजाइश बना पाए. दुपट्टा और पिता हमेशा साथ रहते हैं.
रुपा 21 साल की है. बाजुओं से काट कर साटे गये मांस से भी चेहरा गढा नहीं जा सका. फरीदाबाद में चाचा-चाची के साथ रहती है. दुपट्टा दोस्‍त बन चुका है.
31 साल की नसरीन दिल्‍ली में रहती हैं. गर्दन, कंधा और चेहरे का एक हिस्‍सा पहले की तरह नहीं रहे. दुपट्टा ज़रूरत बन गई.  
24-25 बरस की हैं शाहीन. इन दिनों दिल्‍ली में रहती हैं. आधा चेहरा और गर्दन बुरी तरह नष्‍ट हो चुका है. एक आंख जल चुकी है. डॉक्‍टर दूसरे की रोशनी बचाने की जद्दोजहद में जुटे हैं. दुपट्टे से चेहरा ढक कर चलना बहुत साहसी क़दम है उनके लिए.
अशोकनगर, दिल्‍ली में रहती हैं रेणू. उम्र 30-35 बरस. दोनों आंखों की रोशनी समाप्‍त हो चुकी है. गर्दन और सूरत के नाम जो बचा है, उसे दुपट्टे से ढके बिना चलने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाती हैं.
निशा गाजियाबाद में रहती हैं. उम्र 25-26 साल से ज्‍़यादा नहीं होगी. कान, गर्दन, सीना और पैर समेत धड़ का एक धड़ा दूसरे से मेल नहीं खाता अब. जख्‍म हरे हैं. डॉक्‍टरों का कहना है भरने में समय लगेगा. चेहरे और गर्दन के बीच दुपट्टा लिपटा होता है.
सपना 21 बरस की हैं. रहती हैं नन्‍दनगरी, दिल्‍ली में. चेहरा अब वैसा नहीं रहा जैसा चार महीने पहले था. दायें गाल, कान और बाजू पर पट्टियां अभी बदली जाती रहेंगी. सबसे क़रीबी साथी फिलहाल दुपट्टा है.
22-24 बरस की प्रीति राठी जीवन-मरण से महीने भर की लड़ाई के बाद अस्‍पताल में ही शांत हो गई. दुपट्टी की नौबत तक न रही.

       लम्‍बी हो रही फेहरिस्‍त रोकते हुए जान लें कि ये वो औरतों हैं, जिन पर ‘प्रेमियों’ ने लाद दिए दर्द, तड़प, जलन, गलन, सड़न, बेगानगी और बेबसी. ख़ुश फिर भी नहीं हो पाए ज़माने के मजनूं. वे अपनी ‘लैलाओं’ को सदा के लिए सुला देने के ख़्वाहिशमंद थे. लोरियों से नहीं, ‘गोल्‍डेन लिक्विड’ याने तेज़ाब के शॉवर से. ‘’ सुनना उन्‍हें गवारा नहीं था. लड़कियां बिना सोचे-समझे, जबरन हामी भरने को तैयार नहीं थी. इनकार कर दिया. प्रेम संबंध से इनकार. शादी से इनकार. शारीरिक संबंध से इनकार. दोस्‍तों को ख़ुश करने से इनकार. पुनर्वापसी से इंकार. आप और हम भी यही करते हैं न! जो बात पसंद नहीं होती, उसे सुनने से बचते हैं. जो चीज़ नापसंद होती है, उस ओर देखते नहीं. जो व्‍यवहार नहीं जचता, उससे बचते हैं. जो जगह भाती नहीं, वहां जाने से कतराते हैं. जो व्‍यक्ति पसंद नहीं, उससे कटते हैं. ऐसे में इन लड़कियों का इनकार कब और कैसे गुनाह हो गया?

       आस-पड़ोस पर नज़र डालते ही समझ में आने लगता है कि लड़कियों ने गुनाह नहीं किया. वे एक ख़ास तरह की मानसिकता का शिकार हुईं. परवरिश, परिवेश और रिवाज़ों से तैयार मानसिकता का. जो यह बताती है कि स्‍त्री जन्‍मजात कमज़ोर होती हैं. गु़लाम होती हैं. फै़सला लेना औरताना काम नहीं होता. स्‍त्री हर हाल में ‘हां’ कहने के लिए होती हैं. इस धारणा को पुष्‍ट करने के लिए भांति-भांति के तर्क गढे जाते हैं. फिर एक ऐसी सत्‍ता-संरचना की रचना होती चली जाती है जिसमें ‘मर्द’ स्‍वयं को सर्वशक्तिमान मानने लगता है. यही वो सत्‍ता है जो औरत की नकार नहीं बर्दाश्‍त कर पाता. उसके लिए औरत का वज़ूद उत्‍पाद से ज्‍़यादा कुछ नहीं रह जाता है. येण-केण-प्रकारेण वह औरत पर आधिपत्‍य स्‍थापित करना चाहता है. नाकामयाबी या किसी प्रकार की चुनौती आते देख तिलमिला उठता है. हिंसक हो जाता है. दरिंदगी और हैवानियत पर उतार आता है. तू-तू मैं-मैं, गाली-गलौच, छींटाकशी, फब्‍ती, छेड़खानी और मार-पीट से लेकर हत्‍या, बलात्‍कार और तेज़ाबी हमले इसी वहशीपन की उपज है.

       सच है कि न पूरा समाज दरिंदा है, न दरिंदगी के साथ है. ये है कि साथ न होते हुए भी बहुत बड़ा तबक़ा ख़ामोश है. यह कोई नयी बात भी नहीं है. नयी बात बस इतनी है कि बीते डेढ-दो दहाई में व्‍यक्तिवाद एक दर्शन की तरह हावी हुआ है. परिवार से लेकर पाठशाला और कार्यस्‍थल तक, व्‍यक्तिवाद का पाठ सीखने-सिखाने की प्रणाली विकसित हुई है. बस मैं, मेरा करियार, मेरी पसंद, मेरी जिन्‍दगी, मेरा परिवार, मेरी बीवी, मेरे बच्‍चे जैसे भाव बड़ी सहजता से हमारे अंदर घर कर गए हैं. हमारा दायरा धीरे-धीरे सिमटता जा रहा है. ‘मैं’ और ‘मेरा’पन ने हमारे व्‍यक्तित्‍व को इस क़दर इकहरा कर दिया है कि दूसरों पर भरोसा करना, जोखिम लगने लगा है. शासन और राजनीतिक व्‍यवस्‍था ने भी जाने-अनजाने इस धारणा को पुष्‍ट किया है. ‘एकला चलो’ के इस दर्शन को बाज़ार ने भी खुल कर सह दिया है. ऐसे में हमारे परिचितों का दायरा घटा है. वैसे रिश्‍तेदारों और मित्रों की गिनती तेज़ी से गिरी है जिनसे सिर्फ़ हालचाल जानने के लिए फोन पर बात होती है या मुलाक़ात होती है. यारी-दोस्‍ती और रिश्‍तेदारी सोशल मीडिया पर आकर अटक गई है. होली, दीवाली, ईद, गुड फ्राइडे, बुद्ध पूर्णिमा, नानक या महावीर जयंती जैसे अवसरों पर हमारे बीच चंद रेडिमेड शुभकामना संदेशों की अदला-बदली इस इकहरेपन के आलम को और साफ़ कर देती है.

       यही वजह है कि जो लोग स्त्रियों के साथ बढते दुर्व्‍यवहार की घटनाओं के प्रति संवेदनशील हैं भी, वे इसका स्‍थायी हल ढूंढने के बजाय छोटे रास्‍ते की खोज में लगे दिखते हैं. जबकि इतिहास लौट-लौट कर बताता रहा है कि शॉर्ट कट छोटी अवधि के लिए तो कारगर हो सकता है, मगर किसी समस्‍या का स्‍थायी समाधान नहीं. जब चारों ओर स्‍त्री विरोधी माहौल व्‍याप्‍त है, चारदीवारी चंद फीट और ऊंची करके, सुरक्षाकर्मी तैनात करके, या स्‍वयं बहन-बीवी-बेटी के साथ साया की तरह चिपक कर स्‍त्री सापेक्ष माहौल की चेष्‍टा वैसा ही प्रतीत होता है जैसे दो-चार लीटर बिसलेरी के भरोसे किसी महासागर की सैर का सपना. हमें अपने नितांत निजी जीवन को थोड़ा खोलना होगा. ज़रा उदार होना होगा. दो-चार रत्‍ती सार्वजनिक होना होगा. ज़माने और आसपास के प्रति सजगता और अपनी संवेदनशीलता मुखर बनानी होगी.

       ऐसा होने तक तूबा, सपना, रुपा, नसरीन, रेणू, शाहीन, अर्चना, निशा जैसी लड़कियां तेज़ाब से झुलसाई जाती रहेंगी. प्रीति की तरह दम तोड़ती रहेंगी. हमने कभी न कभी रसोई में चाय बनाते समय या तवे पर रोटी पलटते हुए छोटे-मोटे जलन का अहसास किया ही है. ज़रा तेज़ाब हमले की किसी शिकार से मिल कर देखिए न, अहसास नहीं तो कम से कम उनकी जलन का अनुमान ज़रूर लग जाएगा.

       औरतों के साथ तेज़ाबी हिंसा के खिलाफ़, व्‍यापक एकजुटता का संदेश लेकर राकेश कुमार सिंह साइकिल से भारत यात्रा पर निकल रहे हैं. गली-नुक्‍कड़, चौक-चौराहों, टोलों-मोहल्‍लों, चौपालों पर कठपुतली के खेल, फोटो प्रदर्शनी और फिल्‍मों के माध्‍यम से वे लोगों से संवाद स्‍थापित करेंगे. मौक़ा मिलने पर स्‍कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों से भी गपशप करेंगे. जहां रात होगी वहीं तंबू डाल लेंगे. अगली सुबह फिर पैडल मारते अगले मुकाम की ओर रवाना हो लेंगे.

        यात्रा का पहला चरण जनवरी 2014 के तीसरे सप्‍ताह में केरल से आरंभ होगा. जेंडर निरपेक्षता के पक्षधर, देश-दुनिया के इंसाफ़पसंद लोग इस सफ़र में कभी भी और कहीं भी जुड़ने के लिए आमंत्रित हैं. लंबे हमसफ़र राकेश की हौसलाअफ़जाई तो करेंगे ही, इस अभियान को मजबूती भी प्रदान करेंगे. प्रस्‍तावित भारत यात्रा के दौरान राकेश विभिन्‍न माध्‍यमों के ज़रिए संबंधित अपडेट्स साझा करते रहेंगे.

आपका सहयोग 

       यात्रा के लिए विडियो पॉजेक्‍टर, साइकिल, फ़्लैट रिपेयर किट, जैकेट, बरसाती, बैक-पैक, स्‍लीपिंग बैग, अतिरिक्‍त चार्जर, सोलर लाइट, डोंगल, कैमरा, कैनोपी, संवाद-सामग्री, कठपुतली, फोटो प्रदर्शनी, इत्‍यादि सामान की ज़रूरत है. अभियान के दौरान ही यात्रा-ख़र्च जुटाने का लक्ष्‍य है. फिर भी शुरुआती दो-तीन महीनों के लिए कुछ ले कर चला जाए तो सुविधा ही होगी. इस लॉजिस्टिक्‍स के लिए आपके वित्‍तीय मदद की दरकार होगी.
 
आप अन्‍य किसी भी प्रकार से इस यात्रा से जुड़ना चाहें तो राकेश से rakeshjee@gmail.com पर संपर्क साध सकते हैं. ये वाला ई मेल भी उपयोग में हैं contact@stopacidattacks.org.
+91 9811 972872 पर राकेश से बात भी हो सकती है.  
अकाउंट का ब्‍यौरा
Account holder’s name: Rakesh Kumar Singh
Saving Account No. : 1447 0150 1100
Bank : ICICI Bank Ltd
IIFSC Code : ICIC0001447
MICR Code : 484 229 001
Branch Code : 001447
City : Shahdol
State: Madhya Pradesh, India
राकेश से संपर्क ना हो पाने की स्तिथि में आप चाहें तो हम से sampadak@shabdankan.com पर संपर्क कर सकते हैं... भरत तिवारी (संपादक)

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