नहीं .......अब नहीं कोसना तुम्हें
- वंदना गुप्तानहीं .......अब नहीं कोसना तुम्हें![]()
बहुत हो चुका
आखिर कब तक
एक ही बात बार - बार दोहराऊँ
जानती हूँ
नहीं फर्क पड़ेगा तुम्हें
तो कहकर क्यों जुबान को तकलीफ दूं
वैसे भी तुम अकेले तो जिम्मेदार नहीं ना
कहीं ना कहीं इसमें
मेरी भी गलती है
हाँ .......स्वीकारती हूँ
मेरी भी गलती है
आँख मूँद विश्वास किया तुम पर
तो आखिर उसकी सजा तो भुगतनी होगी ना
कब तक सिर्फ तुम्हें ही
कटघरे में खड़ा करती रहूँ
आज समझी हूँ ..........
सिर्फ कानून बनाने वाला ही नहीं होता दोषी
जब तक उसे मानने वाला उसका प्रतिकार ना करे
अब जब तुम्हारी हर बात को
अक्षरक्ष: मानती रही
सिर झुकाए
तो आज सिर्फ तुम पर
दोष कैसे मढ़ सकती हूँ
मैं भी तो बराबर की दोषी हूँ ना
क्यों नहीं मैंने माना
कि भावनाएं सिर्फ दिखावा होती हैं
असलियत में तो ज़िन्दगी की हकीकतें होती हैं
जैसे तुम्हारे लिए हकीकत और भावनाओं में
हमेशा हकीकत ने ही हर बार जंग जीती
भावनाएं तो हर मोड़ पर कुचली मसली गयीं
वैसा ही मुझे भी बनना चाहिए था
सीखना चाहिए था मुझे तुमसे
सच्चाइयों के धरातल पर भावनाओं की
फसलें नहीं लहलहाती हैं
बस एक यही फर्क रहा तुम में और मुझमे
तुम्हारी और मेरी सोच में
और ना जाने कितने युग बीत गए
हमें यूँ ही लड़ते
अपने वजूदों को साबित करते
हाँ................ मैं हूँ स्त्री
जान गयी हूँ हकीकत के धरातल को
अब नहीं कोसूंगी ओ पुरुष तुम्हें
नहीं हो सिर्फ तुम ही अकेले दोषी
बस सिर्फ इतना कहना है मुझे
अब अगर कभी तुम्हारी हकीकतें
मेरी हकीकतों से टकराएं
तो ना आ जाना तुम अपनी
भावनाओं की दुहाई देते
आज से कोरा कर लिया है मैंने भी कागज़ को
अब नहीं लिखा जायेगा कोई प्रेमग्रंथ
अब तो होंगी सिर्फ
भारी शिलाएं जिन पर
लिखी जाएँगी इबारतें
आज की नारी की
कैसे मुक्त किया खुद को पुरुषवादी सोच से
कैसे दिया खुद को एक धरातल सम स्तर का
ओ पुरुष ! आज से देख तुझे कोसना मैंने बंद किया
बस याद रखना कहीं तू ना मेरा पथ अपना लेना!!!
कठपुतली से खुद को स्वयं सिद्धा साबित करने का जज़्बा
- वंदना गुप्ता
युग पर युग बदलते रहे। हर युग की अपनी उपलब्धियाँ रहीं तो कुछ कमजोरियां भी और यही मानव जीवन है जो कमजोरी और उब्लब्धियों दोनों में सामंजस्य बैठाता चलता जाता है। हर देश, काल और समाज की अपनी कुछ मान्यताएं रहीं, कुछ विडम्बनायें रहीं, सही गलत के अपने मापदंड रहे जो अगली पीढी तक पहुँचते रहे मगर साथ ही साथ उनमें वक्त के अनुसार बदलाव भी आते रहे - कभी सुखद तो कभी दुखद। उन्हीं बदलावों और धारणाओं में से एक धारणा स्त्री के प्रति समाज के नज़रिये की रही।आदिकाल से स्त्री को ओजस्विनी, तेजस्विनी, जननी, विदुषी ना जाने कितने रूपों में देखा गया, माना गया और स्त्री अपने स्वरूप में खुश होती रही। बात चाहे सतयुग की ही क्यों ना हो उस वक्त भी स्त्री को सिर्फ़ दुर्गा, शक्ति आदि नामों से नवाज़ा गया लेकिन उस काल में भी कुछ वजहों से स्त्री को भोग्या भी माना गया शायद किसी संदर्भ में कुछ पल को वो सही हो मगर क्या स्त्री सिर्फ़ भोग्या ही है? क्या स्त्री इससे इतर एक समूचा वजूद नहीं ? क्या उसके होने में उसकी सम्पूर्णता नहीं ? तो फिर क्यों उस काल में भी स्त्री को सम्पत्ति माना गया और जिसके साथ चाहे बाँध दिया गया बिना उसकी मर्ज़ी जाने। उदाहरण के लिये जनक ने सीता का स्वंयवर ये देख रचा कि उनकी बेटी ने शिव के धनुष को एक हाथ से उठा लिया जिसे आज तक कोई तिल भर भी ना हिला सका और रख दिया स्वंयवर मगर बेटी की इच्छा नहीं पूछी, नहीं जानना चाहा आखिर वो चाहती क्या है जबकि ये उसका जन्मसिद्ध अधिकार था फिर चाहे किन्ही कारणों वश सुयोग्य वर राम से उनका विवाह हो गया मगर यदि ना होता तो ? तो क्या उसकी इच्छा जाननी चाही होती ………कभी नहीं, क्योंकि उस काल मे पिता जो करें उसे सहर्ष स्वीकारना ही स्त्री को सिखाया जाता था, वो हमेशा किसी ना किसी के आधीन रहती थी। पहले पिता के, फिर पति के और उसके बाद पुत्रों के। ओह ! कैसे बंधक की सी स्थिति से गुजरती थी मगर उसमें ही खुश रहा करती थी अपना भाग्य मान। बाद के युगों में भी परम्परानुसार ये सब चलता रहा फिर चाहे भीष्म द्वारा भरी सभा के स्वंयवर से अम्बा, अम्बिका या अम्बालिका का ही अपहरण क्यों ना हो और वो बेचारी बेजुबान जानवर सी रंभाती हुयी चली आयीं मगर उनके सम्मान के लिये किसी ने आवाज़ नहीं उठायी, किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुयी क्योंकि डर काबिज़ था सब पर और सारे राजा आधीन थे उनके ……कितनी भयावह स्थिति रही होंगी उस समय भी जब स्त्री की कितनी दुर्दशा थी जो आज के वक्त से भिन्न कहाँ है? कहाँ है आज भी स्त्री सुरक्षित ना घर में ना बाहर तो ऐसे में प्रश्न उठता है क्यों स्त्री को हर युग में हर काल में सिर्फ़ भोग्या के रूप में ही देखा गया ? क्यों नहीं उसकी दशा में सुधार आया ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने होंगे।

इन प्रश्नों के उत्तर खोजने से पहले ये जानना भी जरूरी है कि उसकी दशा बद से बदतर कैसे होती चली गयी। यूँ तो हमारा समाज आदिकाल से ही पितृसत्तात्मक रहा है जिसे हमने स्वीकारा और हमारी यही स्वीकार्यता ही स्त्री के लिये दोजख का कारण बनी। वो हमेशा मानती रही निर्विरोध स्वीकारती रही हर सही गलत को और यही स्वीकार्यता पीढी दर पीढी और रूढि बनकर उभरती रही। शायद आदिकाल की कुछ स्त्रियों को फिर भी कुछ हद तक स्वतंत्रता थी भी मगर आज स्त्री की स्वीकार्यता, उसके पैर की जंजीर बन गयी और ऐसी जंजीर जिसे खोलने के लिये कुछ समाज सुधारकों ने प्रयास किये जब उसकी दुर्दशा देखी और महसूसी और जब उन्होंने समझा कि ये भी आखिर इंसान हैं, इन्हें भी औरों की तरह जीने का पूरा हक है तो उन्होने आन्दोलन किये, उन्हें जागृत किया उनके अधिकारों के प्रति और इस जन जागरण से बेशक उनकी दशा बदली मगर पूरी तरह नहीं। आखिर इसका कारण क्या है ये किसी ने नही जानना चाहा।
....सबसे बडा कारण स्त्री खुद है। उसने कभी अपने जीवन के ढंग को बदलने या अपने होने के औचित्य को समझा ही नहीं। बस प्रेम, समर्पण और मर्यादा की मिसाल बनी रहने में ही जीवन की सार्थकता समझी जबकि एक पुरुष से चार गुना कार्य करने की उसमें क्षमता होती है और वो करती भी है मगर खुद से लापरवाह होकर। बस इसी का फ़ायदा ये समाज उठाता रहा और स्त्री को अपने मान अपमान के तराजू पर तोलता रहा फिर चाहे उसे दाव पर ही क्यों ना लगाया गया, मगर भरे समाज में किसी को कहने की हिम्मत नहीं हुयी कि ये गलत है, सब मूक दर्शक बन देखते रहे क्योंकि कमज़ोरी कहीं ना कहीं स्त्री में ही थी वो प्रतिकार नहीं कर सकी, वो मर्यादा के अवलम्बनों को नहीं तोड सकी और अपने संस्कारों की बेडियों में बँधी लहूलुहान होती रही फिर चाहे उस वजह से कितना ही कत्ले आम हुआ कौन सोचता है।....इस पर मगर आज जब जन चेतना का जागरण हुआ और स्त्री शिक्षित हुयी और उसे अपने महत्त्व का भान हुआ तो जब उसने बाहर कदम बढाया तो उसका भी प्रतिकार हुआ। आज स्त्री पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलती है और अपने लिये भी एक राह चुनती है। आहा ! देखने सुनने में कितना अच्छा लगता है ना ! वाह वाह स्त्री ने अपनी दशा बदल ली मगर क्या वास्तव में ऐसा हुआ है ? और यदि हुआ है तो कितने प्रतिशत ? कौन जानना चाहता है बस एक झुनझुना हाथ में पकडा दिया गया उसके और वो उसे ही सत्य समझ बैठी बिना सोचे समझे या जाने कि आज भी वो एक प्रोडक्ट के सिवा कुछ नहीं है, एक ऐसा विज्ञापन जो आज आया और कल बदल गया मगर उसकी दशा में कोई खास बदलाव नहीं आया ये नहीं जान पायी और इसे जानने के लिये जरूरी है अपनी सोच को बदलना, खुद को जड सोच से मुक्त करना वरना देखा जाये तो स्थिति में कोई खास फ़र्क नहीं है। पहले भी भोग्या थी आज भी है वो भी सिर्फ़ इसलिये कि उसने चंद शब्दों को सिर्फ़ सुना और कहा मगर अपने जीवन में नही उतारा, नारे बनाये और लगाये मगर अमल में नही लाये तो कैसे फ़र्क आ सकता है जब तक कि हम उस गहराई को ना समझें और जीवन मे ना उतारें। वस्तु कल भी थी आज भी है बस इतना ही फ़र्क है कल उसपर ये सब जबरन थोप दिया जाता था और उसके पास मानने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं था मगर आज उसकी सोच पर चकाचौंध के ओलों की वृष्टि कर दी गयी जिसके पार उसे दिख ही नही रहा कि कैसे उसका नारी मुक्ति के नाम पर शोषण हो रहा है, कैसे आज भी वो एक वस्तु की तरह ही प्रयोग की जा रही है। जब तक वो इस बात को नहीं समझेगी उसके जीवन मे बदलाव आना संभव नहीं और उसका इसी तरह दुरुपयोग होता रहेगा और समाज एक गहरे गर्त में जा धंसेगा जहाँ से बाहर आना संभव नहीं होगा यदि समय रहते ना चेता गया, यदि समय रहते स्त्री ने ये नही समझा कि स्वतंत्रता या मुक्ति का अर्थ सोच की जड मे पडे मट्ठे से खुद को मुक्त करना है और फिर सही दिशा में अपने जीवन को क्रियान्वित करना है क्योंकि ....
आज भी वो (स्त्री) दोहरी मार झेलती है स्त्री मुक्ति के नाम पर पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलती है मगर घर परिवार की जिम्मेदारियाँ उसी तरह से निभाती है जैसे पहले निभाती थी तो कैसे और कितना झेल सकती है?


वक्त आ गया है स्त्री सवाल बनकर न रहे बल्कि खुद एक जवाब बन कर सामने आये और इस दिशा में कदम तो बेशक उठ चुके हैं बस जरूरी है तो सिर्फ इतना की अंगद की तरह मजबूती से पैर को टिकाये रखना और सही गलत के फर्क को खुद समझ कर निर्णय लेना और फिर उसे अपने जीवन में क्रियान्वित करना तभी संभव होगा उसका कठपुतली से खुद को स्वयं सिद्धा साबित करने का जज़्बा। जरूरत है खुद का जागृत रखने का, विकास या मुक्ति के नाम पर फिर से कठपुतली ना बनने का, स्त्री को उसका स्वर्णिम देने का जहाँ वो खुल कर, खिलखिलाकर हँस सके, जी सके, आगे बढ़ सके।
- वंदना गुप्ता
वन्दना गुप्ता
स्नातक कामर्स ( दिल्ली यूनिवर्सिटी)
D-19 , राणा प्रताप रोड, आदर्श नगर , दिल्ली---110033
प्रकाशित साझा काव्य संग्रह : 1) टूटते सितारों की उडान 2) स्त्री होकर सवाल करती है 3) ह्रदय तारों का स्पंदन 4) शब्दों के अरण्य मे 5) प्रतिभाओं की कमी नहीं 6) कस्तूरी 7) सरस्वती सुमन 8) नारी विमर्श के अर्थ 9) शब्दों की चहलकदमी 10) त्रिसुगन्धि काव्य संकलन 11) बालार्क
प्रकाशित साझा पुस्तकें : 1) हिन्दी ब्लोगिंग : अभिव्यक्ति की नई क्रांति 2)हिन्दी ब्लॉगिंग : स्वरुप, व्याप्ति और संभावनाएं
पत्रिकाओं मे प्रकाशित रचनायें : ब्लोग इन मीडिया, गजरौला टाइम्स ,उदंती छत्तीसगढ़ रायपुर , स्वाभिमान टाइम्स, हमारा मेट्रो, सप्तरंगी प्रेम. हिंदी साहित्य शिल्पी, वटवृक्ष मधेपुरा टाइम्स, नव्या ,नयी गज़ल ,OBO पत्रिका, लोकसत्य , “इंटरनैशनल न्यूज़ एंड व्यूज़ डाट काम “, गर्भनाल, कादंबिनी, बिंदिया ,विभिन्न इ-मैगज़ीन , सृजक पत्रिका और प्रवासी दुनिया वैब पोर्टल, अविराम साहित्यिकी , साहित्य समीर , सिम्पली जयपुर पत्रिका आदि। (आल इंडिया रेडियो पर काव्य पाठ)
संप्रति : सृजक पत्रिका मे उप संपादिका / सम्मान : शोभना काव्य सृजन सम्मान –2012
ब्लोगस ज़िन्दगी ………एक खामोश सफ़र (http://vandana-zindagi.blogspot.com) ज़ख्म …………जो फ़ूलों ने दिये (http://redrose-vandana.blogspot.com) 3) एक प्रयास (http://ekprayas-vandana.blogspot.com)
मेल: rosered8flower@gmail.com
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मुझे शब्दांकन पर स्थान देने के लिये आभार भरत तिवारी जी
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट कविता .... सशक्त आलेख
जवाब देंहटाएंसमस्या में या परिस्थिति में स्वयं को सम्मिलित मानकर ही निदान मिलता है।
जवाब देंहटाएंBAHUT BADHIYA
जवाब देंहटाएंसशक्त
जवाब देंहटाएंसराहनीय रचना। समाज में जागरूकता जरुरी है जो आ भी रही है पर अभी रफ़्तार बहुत धीमी है। हमें बच्चों में शुरू से भेदभाव समाप्त करना पड़ेगा तब जाकर समाज की सोच में बदलाव आएगा। शिक्षा की कमी भी इस दिशा में एक गंभीर रुकावट है क्योंकि एक बड़ा वर्ग अभी भी मुख्यधारा से दूर है विशेष रूप से गावों में । इस प्रस्तुतिके लिए आपको बधाई
जवाब देंहटाएंसराहनीय रचना। समाज में जागरूकता जरुरी है जो आ भी रही है पर अभी रफ़्तार बहुत धीमी है। हमें बच्चों में शुरू से भेदभाव समाप्त करना पड़ेगा तब जाकर समाज की सोच में बदलाव आएगा। शिक्षा की कमी भी इस दिशा में एक गंभीर रुकावट है क्योंकि एक बड़ा वर्ग अभी भी मुख्यधारा से दूर है विशेष रूप से गावों में । इस प्रस्तुतिके लिए आपको बधाई
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