स्वर्गवासी राजेन्द्र यादव से संवाद
प्रेम भारद्वाज
यह एक अजीब सी जगह है। न रोशनी है, न अंधेरा। दिन है या रात, यह पता नहीं चल पा रहा है। धरती, आकाश और पाताल से इतर कोई चीज है। न घर, न मैदान। न शहर, न जंगल। ऐसी जगह जिंदगी में पहली बार देख रहा हूं, न कहीं पुस्तक में पढ़ा था और न किसी फिल्म में देखा। कल्पना करता भी तो कैसे? अच्छा और बुरा की तर्ज पर कहें तो यह भी नहीं जान पा रहा हूं कि न वह स्वर्ग है, न नरक जैसा कि हमारे धर्मशास्त्रों में उल्लेख है और जो बचपन से ही अवचेतन में किसी अदृश्य खरगोश की मानिंद दुबका पड़ा है।
‘आप यहां क्या कर रहे हैं?’
‘तुमको पता नहीं, मैं मर गया हूं’
‘आप मर भी सकते हैं क्या?’
‘मरना पड़ता है’
‘कैसा लग रहा है’
‘जख्म पर नमक मत छिड़को... साला पीने को पानी-छोड़कर कुछ भी नहीं मिल रहा।’
‘नरक ही होगा वहीं ऐसी चीजें नहीं मिलतीं, न सुरा न सुंदरी।’
‘अभी आपने दुनिया छोड़ी है, ऐसी बात कर रहे हैं। वहां सब आपके बिना हाहाकार मचा रहे है और आप यहां भी सुरा और सुंदरी के लिए बेताब हैं।’
‘... मैं देख रहा हूं, क्या हो रहा है यह सब श्रद्धांजलि देने के लिए मरे जा रहे हैं। कई श्रद्धांजलि सभाएं। श्रद्धांजलि सच नहीं होती... सब नाटक है... आदमी को देवता बनाकर रखने की सड़ी गली प्रथा मर जाने से कोई महान नहीं हो जाता’
‘मतलब’
‘हिप्पोक्रेसी की भारतीय संस्कृति में मृत्यु ऐसा मूल्य है जो हर पाप और अपराध को धो-पोंछकर स्वच्छ निर्मित कर देता है। बड़ा से बड़ा हत्यारा, स्मगलर, राक्षस मरते ही ‘महान आत्मा’ और ‘देश रत्न’ ‘भारत रत्न’ हो जाता है। जो नहीं रहा उसके बारे में क्यों बुरा कहें की उदार क्षमाशीलता हमारा अपना समाधि लेख भी तय कर देती है। जिंदगी में कुछ भी करते रहो मरके तो देवता बनना ही है।’
‘लेकिन आपको तो आपको जिंदा रहते ‘खलनायक’, ‘डॉन,’ तक कहा गया... कहा तो और भी बहुत कुछ गया।’
‘क्या-क्या कहा गया, रुक क्यों गए।’
‘आप मर चुके हैं, इसलिए।’
‘तुमने तो जिंदा रहते भी कौन-सा लिहाज किया, ‘इंद्र’, ‘बूढ़ा बाघ’ पता नहीं क्या-क्या लिखा और लिखवाया।’
‘आपने ही सिखाया था कि लेखन में लिहाज नहीं करना चाहिए और यह भी कि कोई देवता नहीं होता।’
‘अपनी बात पर मैं आज भी कायम हूं।’
‘एक बार डेमोक्रेटिक होने का मुखौटा ओढ़ लेने के बाद आपके पास कोई चारा भी नहीं है।’
‘फिर तुम अपनी पर उतर आए-देखो, बात ऐसी है कि कोई भी लेखक सिर्फ अपनी मेज पर या अकेले कमरे में ही होता है... बाकी समय वह एक साधारण इंसान है। जब लोग अक्सर कहते थे कि मैं अपनी व्यवहार या बातचीत में कहीं भी लेखक नहीं लगता तो अपने प्रयास की सफलता पर संतोष होता है।’
‘है नहीं था। आप भूल गए है कि मर चुके है...।’
‘बड़ी मेहरबानी कि तुमने याद दिलाया।’
देखिए जिंदा रहते तो आपने खूब झूठ बोले हैं, फरेब रचा है, बहुरुपिया बन तरह-तरह के वेश धरे, अब मरने के बाद झूठ मत बोलना।’
‘प्रवचन नहीं, सवाल करो, सिर्फ सच बोलूंगा’
‘अब जबकि आप मरने के अनुभव से गुजर चुके हैं, मृत्यु को किस रूप में देखते हैं।’
‘हम न मरहिं, मरिहै संसार’ मैं सिर्फ दैहिक रूप से तुम्हारी दुनिया में गैर मौजूद हो गया हूं... मगर मैं हूं... रहूंगा...। सच तो यह है कि मृत्यु एक सच्चाई है दुनिया की। इसने जीवन को हर बार नए सिरे से परिभाषित किया है। होने की अनिवार्यता और न होने के शून्य ने न जाने कितनों को जीवित रहने की प्रेरणा और प्रतिबद्धता दी भी है...। रचनाकार अपनी हर रचना के साथ मरता है...ताकि वह खुद जीवित रह सके।’
‘बात मृत्यु पर ही...मरते समय आपको पहला ख्याल क्या आया।’
‘जिंदगी के बारे में... मरते समय जिंदगी का ही ख्याल आता है। लगा कि अरे। इतनी जल्दी कहानी खत्म! अभी तो इसके कई किस्तें बाकी थीं..कई अध्याय लिखे जाने थे।’
‘ऐसे में आपको अपने प्रिय कथाकार चेखव की ‘तीन बहनें’ याद आयी होगी कि काश! इस जिंदगी का यह रफ ड्राफ होता और इसका फेयर करने का एक मौका मिल जाता।’
‘तुम दुष्ट हो गए, हद हो गई... मेरे मुंह से मेरे शब्द छीन कर गूंगा बनाने पर तुले हो’
‘यह सुन-सुनकर पक गया हूं... खैर, मेरा सवाल यह है कि अगर फेयर करने का मौका मिलता तो क्या करते। क्या जोड़ते और क्या सुधार लेते...।’
‘बचपन और किशोर के 18 साल हटा दूंगा।’ सीधे जवानी में प्रवेश... बीच में शादी को डिलीट। जिंदगी और हंस के अंतिम दस साल को भी डिलीट कर दूंगा।
‘जोड़ेंगे क्या?’
‘अपने दौर की दुनिया की तमाम सुंदरियों से दोस्ती’
‘दैहिक’
‘बिना देह के दोस्ती नहीं होती, मैं किसी निर्गुण परंपरा में यकीन नहीं करता, जहां सामने वाला अमूर्त हो।’ ‘मरते समय कोई पछतावा, किसी तरह का मलाल।’
‘मैं बहुत सी नावों के सहारे जिंदगी की नदी पार कर मृत्यु तक पहुंचा। नई नावों को पकड़ता रहा, पुरानी छोड़ता रहा...। अज्ञेय की तर्ज पर ‘बहुत सी नावों में बहुत बार...।’ मैं स्वीकार करता हूं कि अपने भीतर चलते द्वंद्व, संघर्ष और नाटकीयताओ ने ही मुझे इतना बांधे रखा कि मैं अपने लिए स्वयं अपना केंद्र बना रहा। इस केंद्रि ने न मुझे अच्छा पति रहने दिया, न पिता, न प्रेमी शायद मैं सिर्फ दोस्त ही अच्छा हूं। कारण कि दोस्ती किस्तों में निभाए जाने वाली जिम्मेदारी है। चौबीस घंटे या पूरी जिदंगी की नहीं। पूरी जिंदगी तो मैंने कहीं और दे रखी थी।
‘आप लगातार कहते रहे कि आपने तीन औरतों के साथ न्याय नहीं किया...।’
‘उनकी संख्या ज्यादा है... अब मर ही गया तो झूठ बोलकर क्या?’
‘आप इतने शरीफ क्यों बन रहे हैं जो आप हैं नहीं...। याद रखिए कि आप मरे हैं, मिटे नहीं हैं?
‘शरीफ-वरीफ नहीं यार...दरअसल मैं अब और ज्यादा बोल्ड हो गया हूं।’
‘तो बताइए... आपकी नजरों में नैतिकता क्या है?’
‘एक काल्पनिक शब्द है-जो जितना ज्यादा ढोंगी है, भयभीत है, वह उतना ही बड़ा नैतिक है।’
‘...और अश्लीलता?’
‘नैतिकता की बेटी है... भूत की तरह इसका भी कोई वजूद नहीं है। मगर कुछ लोगों को दिखाई देती है। वे इससे डर जाते है... समाज परिवार के लिए भी इसे खतरा बताते हैं। भूत और अश्लीलता के मूल में भय ही है।’
‘वह चीज जो नहीं कर पाने का मरने के बाद मलाल रह गया है।’
‘रावण नहीं हूं मैं...जो हुआ नहीं उसका मलाल क्या।’
‘जो किया उसका कोई पछतावा।’
‘मुझे अपनी अंतिम किताब ‘स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार’ नहीं लिखनी या लिखवानी चाहिए थी।’
‘मरते वक्त किसका ख्याल आया।’
‘हंस’ का... अर्चना ने सही लिखा है ‘मुझे तोते की जान उसी में है। अब वह है, मैं नहीं।’
‘अब तो उसकी चिंता छोड़ दीजिए...’
‘कैसे छोड़ दूं...जिस ‘हंस’ में मुझे जिंदगी के 28 साल अतिरिक्त दिए। जीने का हौसला एक नई पहचान दी उसका मोह जाता नहीं... जिन लोगों के भरोसे उसे छोड़ आया हूं उन पर भरोसा तो है। लेकिन देख रहा हूं कि जिस ‘हंस’ में अपनी तारीफ के पत्र नहीं छापता था उसका पूरा वर्तमान अंक ही मुझ पर केन्द्रित है-सत्यानाश कर डाला सालों ने मुझे देवता और महान बनाकर।’
‘वह आपके प्रति श्रद्धांजलि है, यह जरूरी है।’
‘फिर वही श्रद्धांजलि, खैर तुम कहते हो तो मान लेता हूं।’
‘अच्छा एक चीज मेरे समझ में नहीं आई आपने दलितों पर एक भी कहानी नहीं लिखी मगर आप दलित विमर्श को खड़ा करने वाले मसीहा मान लिए गए। स्त्री को लेकर भी आपकी दृष्टि बहुत महान नहीं है-व्यक्तिगत जीवन में। मगर विडंबना यह कि स्त्री विमर्श के पुरोधा भी आप ही हैं क्या माया है?’
‘शंकराचार्य की मानो तो सब माया है...स्त्री विमर्श के लिए क्या औरत बन जाता और दलित पर बात करने करवाने के लिए दलित।’
‘यानी रचने के लिए सहानुभूति से भी काम चल जाएगा, स्वानभूति जरूरी नहीं।’
‘फंसाओ मत मुझे...उस्ताद से उस्तादी ठीक नहीं सहानुभूति का मैं विरोधी रहा हूं...अब भी हूं।’
‘जीवन के अंतिम दिनों में जिन रातों को आप सो नहीं पाए या सोते-सोते नींद खुल गई... सारी रात जागते रहे, तब उन बेचैनी भरी जागती रातों में क्या और किनके बारे में सोचा।’
‘किनके बारे में सोचा, यह मत पूछो नहीं तो फिर बवाल मच जाएगा...हां, क्या सोचा यह बता सकता हूं...सबसे ज्यादा जिंदगी में आए उन लोगों के बारे में जो मेरे साथ जुड़े ही नहीं मुझे गढ़ने-बनाने में उनकी अहम भूमिका रही...। ‘मेरा नाम जोकर’ के अंतिम दृश्य याद आया। बंद होती आंखों में कई चेहरे उभरे।’
‘जो चेहरा सबसे ज्यादा देर तक ठहरा या ज्यादा तड़प दे गया।’
‘निःसंदेह मीता का, जो मेरे जिंदगी की अंगूठी का नगीना थी।’
‘आपने जिंदगी में सबसे ज्यादा प्यार किसे किया।’
‘खुद को’
‘और नफरत’
‘अपनी कमजोरियों से’
‘झूठ’
‘नहीं आधा सच’
‘आपने वादा किया था-झूठ नहीं बोलेगे’
‘आदत इतनी जल्दी नहीं जाती यार, मर कर भी नहीं...सच है कि मुझे अपनी कमजोरियां मालूम थीं। उनसे नफरत भी करता था। मगर मेरी बेबसी यह रही कि मैं उनके बिना रह भी नहीं सकता था मुझे उनमें रस आता था उन्हें बेहद शिददत के साथ जीता था।’
‘जिंदगी में सबसे ज्यादा खुश कब हुए’
‘बार-बार, कई बार-जब भी दोस्तों के साथ-साथ दारू पी...’ जब भी विवादों में रहा...मेरी आलोचना हुई-और भी कुछ अवसरों पर जो मुझे मरने के बाद भी नहीं बताना चाहिए। क्योंकि मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा मगर उनका तुम लोग उनका जीना हराम कर दोगे जिनके नाम लूंगा।
‘सबसे ज्यादा दुःख कब हुआ’
‘मोहन राकेश के निधन पर...उसके मरने से पहले से हम दोनों में बातचीत बंद हो गई थी।’
‘विवादों में क्या मजा आता है’
‘क्योंकि इसके साथ मजा जुड़ा है, विवादों को मैं जीवंत मानता हूं।’
‘क्रांति स्वप्न है या सच’
‘वह तो ईश्वरीय अवतार है, जब-जब होइहिं धर्म की हानि’
‘आप ईश्वरवादी कब से हो गए’
‘जब से ईश्वरवादियों ने साहित्यिक कॅरियर के लिए जेब में मार्क्सवाद का लाल रूमाल रखना शुरू कर दिया।’
‘अब हिंदी साहित्य में रचे-बसे लोगों के क्या सपने है... धरती पर अंतिम सांस लेने से पहले आप का सपना क्या था-’
‘मेरा सुंदर सपना बीत गया...सपने पर व्यर्थता का बोझ हावी हो गया’
‘और विचारधारा’
‘वह सिर्फ बहसों रह गया है।’
‘संबंधों के बारे में आपकी विचारों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन हुआ है या वे जड़ और यथावत है।’
‘संबंधों के जंगल में भटकने...कई करवट लेने, बहुत से रंग देखने के बावजूद मेरे विचार वहीं है जो जवान होने पर पहली बार किसी जवान लड़की को देखकर भीतर उठा था’
‘इतनी भूमिका गढ़ने के बाद अब यूनिवर्सल टूथ है-सार्वश्रेष्ठक सत्य उवाच भी कर दीजिए’
‘यही कि प्राकृतिक रूप से संबंध तो स्त्री-पुरुष का ही है बाकी सब संबंध सामाजिक दबन के नतीजे है-’
‘लोग आपको बहुत डेमोक्रेटिक मानते है?’
‘लोगों की छोड़ो, इस बारे में तुम्हारी क्या महान राय है?’
‘रंगमहल के दस दरवाजे हैं।’
‘मतलब?’
‘मतलब यह कि आपके मन के दस दरवाजे है, पहला दरवाजा सबके लिए चौबीस घंटे सेवा के वास्ते हर वक्त खुला रहता है...दूसरा-तीसरा दरवाजा भी खुल जाता है दस्तक देने पर ...मगर उसके बाद के दरवाजे बंद रहते हैं... उन तमाम दरवाजों के पीछे आप है-अपने असली रूप रंग, सोच के साथ...आपकी चालाकियां है...आपको ‘स्व’ है-स्वार्थी कहना ठीक नहीं होगा।’
‘कह तो दिया ही...छोड़ो कहां..लिहाज तो पी गए हो मेरे न दिए गए गुरु मंत्र के साथ’
‘तो आप ही बता दीजिए आपका ‘डेमोक्रेटिक ड्रामे’ का सच क्या है।’
‘डेमोक्रेटिक होना पड़ता है...ताकि लोग जुड़े... उनसे जुड़े-संबंधों की संभावना तो तभी बनती है... पब्लिक फेस को लोकतांत्रिक होना ही चाहिए...बाकी सब माया है....लेकिन तुम भी गदर हो...तुमने मेरे सबसे तगड़े-तिलिस्म को भी तोड़ दिया’
‘जानता हूं इसी तिलिस्म प्रेम की वजह से देवकी नंदन खत्री आपको प्रिय।’, ‘सब जानते हो तो अब क्या जानना चाहते हो कि मर जाने के बाद भी यहां पहुंच गए।’
‘अपने पीछे जो धुंआ छोड़ आए है, उसे छांटने के लिए।’
‘आपकी जिंदगी के दो साल, खासकर दो अंतिम साल, दो महीने बहुत खास रहे।’
‘उतर आए अपनी नीचता पर...
‘उसके बारे में बेखौफ होकर सिर्फ सच बोले जैसा कि आपने वादा किया है।’
‘बुझंने के पहले चिराग चमकता है मामला यह है कि एक चिराग रोशन हुआ...उस रोशनी में मुझे सिर्फ एक ही चीज दिखाई थी... मैं उसे ही देखता रहा-चिराग को मैंने हाथ में लेने की कोशिश क्या कि हाथ ही जल गया जाहिर है दिल भी।’
‘आप क्या चाहते हैं, बाद मरने के आपको लोग किस रूप में याद करें।’
‘ये क्या तालिबानी तरीका है, साहिर लिख गए है कल कोई मुझको याद करे, क्यों कोई मुझको याद करे, मसरूफ जमाना मेरे लिए, क्यों वक्त अपना बर्बाद करे।
‘अगर अगला जीवन मिले तो क्या रचनाकार ही बनाना चाहेंगे।’
‘पहली बात तो यह कि मुझे जन्मों के बंधन पर भरोसा नहीं। मगर कुछ ऐसा होता है तो रचनाकार नहीं, हिंदी सिनेमा का अभिनेता राजकपूर बनना चाहूंगा या ‘मेरा नाम जोकर’ का ‘राजू’ या चार्ली चैप्लीन ताकि लोगों के भीतर एक गुदगुदी पैदा सकूं।’, ‘आपने 86 साल की जिंदगी जी! लोगों को कोई सीख देना चाहेंगे’
‘सीख यही है कि जिंदगी में कभी भी किसी दूसरे की दी हुई सीख काम नहीं आती आप हमेशा ही अकेले होते है एक स्तर के बाद रिश्ते क्या, विचार दर्शन और आपका शरीर भी साथ नहीं देता। मगर आदमी होता है अकेला ही। पूरा जीवन और जीने का तिकड़म घर, परिवार, रिश्ते, दोस्त, काम, महत्वाकांक्षा का। दौड़ उस अकेलेपन या खालीपन को भरने की क्या एक पागल कोशिश भर है। और शायद यही जीवन है।’
‘आपको बहुत-बहुत शुक्रिया... मैं यह मानकर चलता हूं कि आपने जो भी बोला वह सत्य वचन
है...।’
मैं उठकर आगे बढ़ जाता हूं। वे बिस्तर पर पड़े उसी तरह मुझे बाहर जाते हुए देखते है। फिर एक आवाज, उनकी पुकार मुझे रोकती है-‘सुनो, इधर आओ?’
मैं वापस मुड़ता हूं। वे इशारे से अपने करीब बुलाते हैं। मैं उनके बेहद करीब जाता हूं। वे मेरा हाथ अपने हाथों में ले लेते हैं, आत्मीयता से भरा यह छुअन मेरे भीतर बहुत गहरे उतर जाता है। निःशब्द।
वे भावुक और बेहद उदास हो जाते है। उनका कांपता हुआ स्वर मुझे बेचैन कर जाता है। ‘धरती पर जो भी लोग हैं जो मुझसे किसी न किसी वजह से नाराज हैं, उनसे कहना कि मैं अपनी फितरत का गुलाम था वरना मैं किसी को तकलीफ देना नहीं चाहता न किसी के भरोसे को तोड़ना मेरा मकसद था। माफ़ी तो नहीं मागूंगा मगर लोग मेरी फितरत को समझने की कोशिश करेंगे और मुझसे नाराजगी छोड़े तो शायद में यहां सुकून से रह सकूं।’
‘जी’
‘और हां अगली बार तुम किसी के हाथ दारू और सिगार भेज देना...यहां मिलती नहीं है...और हां माचिस जरूर भेज देना वरना मेरी हालत सरदारजी जैसी हो जाए।’ इतना बोलने के साथ वे खास तरह के अट्टहास लगते। उन अट्टहास से मेरी नींद खुलती है। कोई सपना था। सपने में सच क्या और झूठ क्या। क्या राजेन्द्र जी को उसी अंदाज में याद नहीं किया जाए जैसे भी थे। रोने और बिसुरने की मुखालफत करने वाले की याद में आंखें नम करना, और लरजते स्वर महान शब्दों के फूल अर्पित करना उनकी रूह पर शायद खरोंच डाल सकते हैं। यह सब यह परंपरा के विरुद्ध है। मगर वे थे तो परंपरा विरुद्ध ही।
प्रेम भारद्वाज
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