कवितायेँ: मीना चोपड़ा | Poetry : Meena Chopra



कवितायेँ: मीना चोपड़ा


आनन्द मठ

हाथों की वो छुअन और गरमाहटें
बन्द है मुट्ठी में अब तक                           
 ज्योतिर्मय हो चली हैं
हथेली में रक्खी रेखाएँ।
         लाखों जुगनू हवाओं में भर गए हैं
         तक़दीरें उड़ चली हैं आसमानों में
            सर्दियों की कोसी धूप
                 छिटक रही है दहलीज़ तक,

और तुम – कहीं दूर –
मेरी रूह में अंकित
आकाश-रेखा पर चलते हुए –
  एक बिंदु में ओझल होते चले गए।

 डूब चुके हो
 जहाँ नियति –
 सागर की बूँदों में तैरती है।
       
     मेरी मुट्ठी में बंधी रेखाएँ
         ज्योतिर्मय हो चुकी हैं।
             तुम्हारी धूप
       मुझमें आ रुकी है।
 
 

एक सीप, एक मोती

बूँदें!
  आँखों से टपकें
मिट्टी हो जाएँ।
 आग से गुज़रें 
  आग की नज़र हो जाएँ।
      रगों में उतरें तो
       लहू हो जाएँ!
        या कालचक्र से निकलकर
समय की साँसों पर चलती हुई
मन की सीप में उतरें
    और
मोती हो जाएँ|

अवशेष

वक्त खण्डित था, युगों में !
    टूटती रस्सियों में बंध चुका था  
अँधेरे इन रस्सियों को निगल रहे थे।
तब !
      जीवन तरंग में अविरत मैं
          तुम्हारे कदमों में झुकी हुई
             तुम्हीं में प्रवाहित
                तुम्हीं में मिट रही थी
                   तुम्हीं में बन रही थी|
   तुम्हीं से अस्त और उदित मैं
      तुम्हीं में जल रही थी
         तुम्हीं में बुझ रही थी!
    कुछ खाँचे बच गए थे
       कई कहानियाँ तैर रही थीं जिनमें
उन्ही मे हमारी कहानी भी
अपना किनारा ढूँढती थी!
एक अंत ! जिसका आरम्भ,
दृष्टि और दृश्य से ओझल
    भविष्य और भूत की धुन्ध में लिपटा
      मद्धम सा दिखाई देता था।
    अविरल ! 
 शायद एक स्वप्न लोक !
और तब आँख खुल गई
 हम अपनी तकदीरों में जग गए।
टुकड़े - टुकड़े
ज़मीं पर बिखर गए।

मीना चोपड़ा 

चित्रकार
लेखक,
शिक्षक

टोरंटो, कनाडा संपर्क: meenachopra17@gmail.com

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ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل