राकेश कुमार सिंह की कविता "पत्थर भी पहचान लिया करती थी"
सुनो, एक बात सुनो
सोच रहा हूं
बहुत लिपटे हैं तुमसे
मैं भी लिपट जाऊँ एक बार
घुलकर कुछ नीलापन मुझमें भी समा जाएगा
तुम्हारा वाला नीलापन
मुझे अपनी ओर खींचता है
इसलिए कि
तुम्हारे नीलेपन में कई रंगों के गंध मिले हैं
सबसे ज़्यादा काला
उसकी महक अलग से पहचानी जाती है
फिर भूरा, कत्थई, सलेटी और जामुनी
हरे, पीले और लाल के तो हज़ारों शेड्स हैं तुम्हारे वाले नीले में
रंगों के इतने शेड्स देखकर
मैं आम तौर पर रोमांचित हो उठता हूं.
तुम्हारा नीलापन देखकर इसीलिए रोमांचित हुआ
पुलकित भी
इसलिए भी हुआ कि
ये निर्पेक्ष है
निर्मल है
निश्छल है
निर्मम भी है
नियति इसकी भी बिल्कुल मां की निर्ममता सी है
प्रवृत्ति भी उन जैसी ही है
प्रैक्टिस तो है ही हु-ब-हू मां जैसी
समय पर और काम भर
असल में, तुम्हारा नीलापन
व्हाइट के सबसे उजले शेड से भी ज़्यादा सफे़द है
झकाझक चमकाऊ
एक-आध बार देर तक नज़र टिकी रह गई
आंखें चुंधियाईं
पर जलन नहीं, सुकून मिला
इसलिए भी,
उसमें घुल कर मैं
अपना रंग भूल जाना चाहता हूं
यार समन्द र मैं तुमसे एक बार गले लग जाना चाहता हूं
चाहता हूं तुम्हारे झागदार लहरों के करतब निहारते रहना
जब गूंजता है अल्लाह रखा का तबला
अलवर वाले पप्पू की डुगडुगी
पप्पू लाहौरी की ढोल
झंझटिया बाबा का चिमटा
मंगरुआ नाच पार्टी का नगाड़ा
श्रीलंकन नेटली की गिटार
हैदराबाद युनिवर्सिटी के सौरभ की खंजड़ी
जूना अखाड़े के मुकेश गिरी की बांसुरी
स्टालिन के. का मोरचंग
सोमन राम की शहनाई का राग विहाग
आंखें बंद कर मुस्कुरा उठता हूं
देर तक मुस्कुराता रहता हूं
‘नाचे मन मोरा मगन धीगधा धीगि-धीगि’ के साथ तालमेल बनने लगता है
ऐ समन्दर जानते हो न,
तुम्हारी पलछिन लहरों में
भरतनट्यम, संबलपुरी और कुच्चीपुड़ी की मुद्राएं झलकती हैं
अचानक लहरों के बीच शांतिबाई चेलक आती दिखीं
उसी अम्बालिका वाले सीन में
दोनों हाथों को कंधों पर उठाए
ख़ास ढंग से उलझाए हुए
कभी-कभी सिर से टोपी उछालकर खास अपनी अदा में
माइकल जैक्सन ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ पर पैरों को ससराते नज़र आते हैं
ध्यान से देखने पर
कभी-कभी तुम्हारी लहरों में
’चोलिया में मीटर लगवा दीं राजाजी’ पर खेसारीलाल छड़पते मिलते हैं
पिट सिगर के ’वी शैल ओवरकम’ पर लोगों का झूमना आश्वस्त करता है
ये तुम्हारी लहरों का ही कमाल है समन्दर
‘आई एम गोनअS स्मोकS गांजा अनटिल आई गो ब्लाइंड
यु नॉ आई समोकS दी गांजा ऑल द डे टाइम’
बॉब मारले की ये स्वरलहरियां
जिगर पर छाती चली जाती हैं
तब अध्यात्म की ऊँचाई पर पाता हूं
रूह से गूंथी जा रही आत्मविश्वास की लडियों का अहसास
अनजाने जोश से सराबोर कर देती है
समझ रहे हो न समंदर
ये बातें इसलिए शेयर कर रहा हूं
कि बुलबुला बन कर लहरों के साथ मैं भी उछलूं
और शांत होने से पहले
तुम्हारे साथ ही छोड़ आऊं पाट पर
एक सीप चुपके से
और वो मोती भी गुड़का आऊं हल्के से
जिसे सहेजे-सहेजे न जाने कितने मील तय कर लिए
बस तुम एक काम करना
समय मिलते ही कहलवा भेजना उसे
अपना सीप ले जाए
और हां, ध्यान से देखे
मोती भी आसपास ही लुढकी मिलेगी
उसका उजलापन थोड़ मद्धम होगा
वो पहचान जाएगी
पत्थर भी पहचान लिया करती थी
नर्मदा के पत्थर
पार्वती के पत्थर
तीर्थन के पत्थर भी
वैसे भी, वो कहा करती थी
जिन भी चीज़ पर तुम्हारा हाथ पड़ जाता है
उनमें से हरएक तुम जैसा दिखने लगता है
1 टिप्पणियाँ
कविता बहुत बडी हो गई
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