चुनाव तो हो चुका है
रवीश की रपट
लोगों के बीच घूमने से पता चलता है कि हवा का रुख़ क्या है । अब लगभग यह स्थापित होता जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में रूकावट नहीं है ।
लोगों के बीच घूमने से पता चलता है कि हवा का रुख़ क्या है । अब लगभग यह स्थापित होता जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में रूकावट नहीं है । जिन लोगों ने फ़ैसला कर लिया है वे चुप हो गए हैं । उन्हें बार बार बोलने की ज़रूरत नहीं कि नरेंद्र मोदी को वोट देंगे क्योंकि ये बीजेपी के लोग नहीं है । आख़िर कोई तो बात होगी कि जहाज़ से लेकर ट्रेन, पहचान और दुकानों में मुझे एक आदमी नहीं मिला जिसने यह कहा हो कि वो कांग्रेस को वोट देगा । मैं नहीं कहता कि पूरे भारत के लोगों से मिल आया हूँ ।
लोग मुस्लिम मतदाता की बात करते हैं । १९९८ में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी तो उसमें मुस्लिम वोट का कितना योगदान था ।
यह चुनाव दम तोड़ चुका है । दम तोड़ने से मतलब मोदी के ख़िलाफ़ विश्वसनीय लड़ाई नहीं है । वाम हो या राजद हो या सपा बसपा या तृणमूल ये सब तदर्थ रूप से बीजेपी से लड़ रहे हैं । सबका दुश्मन नंबर एक कांग्रेस है मगर ख़िलाफ़ बीजेपी के लड़ रहे हैं । इन दोनों पंक्तियों को ग़ौर करेंगे तो अंतर समझ आ जाएगा । इन दलों की मजबूरी ये है कि बिना कांग्रेस को दुश्मन बताये जनता के बीच नहीं जा सकते क्योंकि जनता कांग्रेस से नाराज़ है बीजेपी से नहीं । बीजेपी से ये राजनीतिक दल वैचारिक आधार पर नाराज़ हैं मगर वो नाराज़गी महज़ औपचारिकता और अकादमिक है । कहने के लिए कह रहे हैं ।
लोग मुस्लिम मतदाता की बात करते हैं । १९९८ में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी तो उसमें मुस्लिम वोट का कितना योगदान था । चंद्राबाबू नायडू जैसे एकाध दल या नेताओं को छोड़ कर । क्या ये सभी अपने दुश्मन नंबर एक कांग्रेस के ख़िलाफ़ एनडीए में नहीं गए । एनडीए में जाने की सज़ा किसी को नहीं मिली । चंद्राबाबू नायडू जैसे अपवादों को छोड़ कर जो अपने आप में विवादास्पद ज़्यादा है तथ्यात्मक कम बाक़ी दल अपने अपने कारणों से हारे और जीते । क्या ममता को बंगाल में मुसलमानों ने वोट नहीं किया । तो यही इस बार होगा ।
मुस्लिम वोट बैंक एक मिथक है । मुसलमान किसी एक दल को वोट नहीं करते । अगर ये देखें कि मुसलमान कितने दलों को वोट करते हैं तो कोई समाज या सामूदायिक समूह उनके मुक़ाबले नहीं ठहरेगा । वे कांग्रेस बीजेपी सपा बसपा, एनसीपी, राजद, जदयू, तृणमूल कांग्रेस आदि आदि कई दलों को वोट करते हैं । इधर कई मुस्लिम दल भी वजूद में आए हैं । असम से लेकर यूपी और केरल तक । ये छोटी संख्या में सीटें जीतते भी हैं और मुस्लिम मतदाताओं के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ाने का काम तो करते ही है । भले संसदीय क्षेत्र के स्तर पर रणनीतिक वोट करते हैं मगर देश के स्तर पर यह पचासों दलों में बिखरे हैं । उनके इस लोकतांत्रिक विवेक को तुष्टीकरण के चश्मे से देखना भी सांप्रदायिक रणनीति है । क्योंकि यह अकेली क़ौम है जो अपने पिछड़ने की क़ीमत पर भी धर्मनिरपेक्षता को महत्व देती है । इस क़ौम की इसी प्राथमिकता के कारण कई दल धर्मनिरपेक्षता की आलोचना करते हुए भी धर्मनिरपेक्ष कहते हैं । ऐसा नहीं है कि बाक़ी समाज या तबके के लोग साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ नहीं है । कहने का मतलब यह है कि उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मसला 'अलावे' हैं । मतलब जातीय और वैचारिक निष्ठा के 'अलावे' । मुसलमानों के लिए यह 'अलावे' नहीं है । लेकिन वहाँ भी बदलाव है । राजस्थान में मुसलमानों ने बीजेपी को वोट किया है । यह साफ़ दिखता है ।
ख़ैर माइग्रेशन के कारण किसी दल से जातीय अंतरसंबंध टूटे हैं । वे दूसरे शहरों में जाकर शहरी हो रहे हैं । उनके लिए यादव होकर लालू या अखिलेश से ही जुड़ कर देखना एकमात्र विकल्प नहीं है । इसका सबसे बड़ा कारण है कि उन पार्टियों में नया वैचारिक आधार नहीं है जो पिछड़ी या दलित जातियों की वैचारिक राजनैतिक चेतना को मुखर कर सके । लिहाज़ा एकमात्र आख़िरी डोर है जबकि उन जातियों का स्थान बदला है । जो बाहर गए हैं वे लौट कर अपना वजूद यादव होने में या अति पिछड़ा होने में कम ढूँढते हैं । ये प्रक्रिया नई है । इसके बावजूद कि सीएसडीएस का एक दो तीन साल पुराना अध्ययन कहता है कि यूपी में यादव और जाटव का अस्सी फ़ीसदी हिस्सा सपा और बसपा को वोट करता है । मगर दिल्ली में बसपा का आधार क्यों टूट गया ।
सही है कि जातीय पहचान हर जगह या पूरी तरह नहीं बदली है इसीलिए मोदी खुद को पिछड़ा बताते हैं और केरल जाकर अपने साथ हुए राजनीतिक भेदभाव को जातीय भेदभाव में बदल कर दलित हो जाते हैं । खुद मोदी यह चुनाव उस पहचान के सहारे लड़ रहे हैं जिसमें गुजरात का मुख्यमंत्री होना तीसरे नंबर पर है, दूसरे पर पिछड़ा और पहले पर चाय वाला है । इन पहचानों को उभारना दो बातें कहता है । मोदी या तो जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हैं या वे कोई चांस नहीं लेना चाहते । इसलिए यह चुनाव भी जात-पात पर ही हो रहा है और मोदी भी वही कर रहे हैं जो मुलायम या लालू पर करने के आरोप लगाते हैं । एक भारत की बात करने वाला पिछड़ा-पिछड़ा क्यों करता है । फिर बाक़ी के पिछड़ा और इनके पिछड़ावाद में क्या अंतर है ।
आम आदमी पार्टी के अलावा कोई मोदी से सीधे नहीं लड़ रहा । सब गुजरात दंगों की सीमित बात कर लड़ने की औपचारिकता पूरी कर रहे हैं ।
क्या मोदी मुलायम या लालू का विकल्प बन रहे हैं । नीतीश अखिलेश या माया सबने अपनी जातीय पहचान को पीछे कर सवर्णों को मिलाया है । अब नीतीश मुलायम या लालू भी पिछड़ा-पिछड़ा नहीं करते हैं । क्या मोदी को ये लग रहा है कि उनके लिए सबसे मुखर सवर्ण तबक़ा ( ख़ासकर बिहार यूपी में) नारे तो लगा रहा है मगर जीत नहीं दिला रहा है । मोदी ने उनकी चिन्ता छोड़ दी है कि पिछड़ा-पिछड़ा करने से ब्राह्मण भूमिहार राजपूत क्या कहेंगे ।
मुझे मोदी की इस रणनीति पर हैरानी हुई है । आख़िर उन्होंने जात पात से ऊपर उठकर राजनीति करने का विश्वास क्यों छोड़ दिया । तब जब लोग उन्हें इससे पार जाकर चुनना चाहते हैं । क्योंकि दिल्ली का प्रयोग बता रहा है कि पहचान मायने नहीं रखता । भारत में अब कई दिल्ली है जहाँ दिल्ली की तरह नए सिरे से प्रवासी मज़दूर या लोग काम करने गए हैं । रमन सिंह और शिवराज सिंह ने भी अपनी पहचान को नहीं उभारा । वे भी जीते हैं ।
आम आदमी का विस्तार इसीलिए हो रहा है कि जातीय, दलीय और इलाकाई निष्ठाएँ टूट रही हैं । माइग्रेशन की इसमें बड़ी भूमिका है । यही कारण है कि यूपी बिहार के राजनीतिक दल राज्यों में सरकार बना लेने के बाद भी दिल्ली के रास्ते में बीजेपी के सामने विश्वसनीय और स्पष्ट विकल्प नहीं दे पा रहे हैं और मुस्लिम वोट इन्हीं दलों के सहारे हैं । नतीजा इस बार यह भी होगा कि मुस्लिम वोट का ख़ास मायने नहीं रह जाएगा । मुस्लिम वोट कभी भी बैंड पोलिटिक्स या गवर्नेंस करने वालों के साथ नहीं जाएगा । ये उसकी धर्मनिरपेक्षता के अलावे दूसरी राजनीतिक पहचान का सवाल है । आम आदमी पार्टी के साथ जा सकता है मगर वहीं जाएगा जहाँ आप खुद एक मज़बूत विकल्प होगी । जिससे जुड़ कर वो एक और विकल्प चुन सकता है ।
जब तक यह नहीं होता और अब होता नहीं लगता है, तब तक नरेंद्र मोदी फ़िनिशिंग लाइन पार कर चुके होंगे बल्कि पार कर चुके हैं । दो सौ सीटों से लेकर दो सौ बहत्तर सीटें सरकार बनाने के लिए काफी है । हारी हुई कांग्रेस के पास यह साहस नहीं होगा कि वो अपेक्षित रूप से बड़े जनादेश के ख़िलाफ़ किसी गठबंधन को सपोर्ट करे । कांग्रेस विपक्ष में ही बैठेगी क्योंकि लेफ़्ट सपा बसपा तृणमूल सब कांग्रेस के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं । दिल्ली की तरह कांग्रेस हर बार उससे मिलकर सरकार नहीं बनाएगी जिससे हारी हो । पिछले तीन चुनावों में गठबंधन के भीतर बड़ी पार्टी की संख्या बढ़ी है। मोदी कांग्रेस के 206 सीटों से भी आगे जायेंगे । हो सकता है कि मिशन 272 में कामयाब हो जाएँ । अकेले । मुझे यह होता लग रहा है । आम आदमी पार्टी के अलावा कोई मोदी से सीधे नहीं लड़ रहा । सब गुजरात दंगों की सीमित बात कर लड़ने की औपचारिकता पूरी कर रहे हैं । जो भी हो रहा है सब मोदी के लिए हो रहा है । अब यह तभी नहीं होगा जब मोदी की क़िस्मत में ही प्रधानमंत्री नहीं लिखा हो ।