गीताश्री: कहानी - भूत-खेली | Hindi Kahani 'Bhoot-Kheli' by GeetaShree

जब वे दुनिया से विदा हुईं तो खिलाड़ी बाबू वर्ल्ड टूर थे। आ नहीं पाए। जब छुट्टी में आए तो उनका दहाड़ मार कर रोना गांव कई दिन तक याद करता रहा। दुलारी बाबू तो क्या, सारा गांव जानता था कि खिलाड़ी बाबू अपनी दीदी के कितने दुलारे थे। - गीताश्री: कहानी - भूत-खेली
मैं, निर्भय निर्गुण गाने वाली गीताश्री, पत्रकारिता के जरिए दुनिया में ताक-झांक कर लेती हूं। ब्लाग से लेकर फेसबुक तक आवाजाही करती हूं। सपने देखती हूं, सपने बुनती हूं, छोटी छोटी बातो पर खुश रहने की आदत सी है। साहित्य की दुनिया में भी घुसपैठ बना रही हूं। सकारात्मक विचारो के उजाले से भरी गठरी साथ लिए चलती हूं... बैर किसी से ठानती नहीं, दोस्ती किसी से तोड़ती नहीं. "फैमिली फर्स्ट" फार्मूले पर चलते हुए जिंदगी का सफर जारी है...

भूत-खेली

गीताश्री

जब वे दुनिया से विदा हुईं तो खिलाड़ी बाबू वर्ल्ड टूर थे। आ नहीं पाए। जब छुट्टी में आए तो उनका दहाड़ मार कर रोना गांव कई दिन तक याद करता रहा। दुलारी बाबू तो क्या, सारा गांव जानता था कि खिलाड़ी बाबू अपनी दीदी के कितने दुलारे थे। गाछी अगोरते अगोरते आंखें दुखने लगी हैं घूरना की और और टांगे भी। कौन चोर छौरा- छौरी के पीछे भागे। मुस्किल है मुसहर टोला के छौरा सबसे टिकोला बचा लेना। घूरना सबके पीछे चिचियाता हुआ भागता है तो छौरा सब मुंह चिढाता है.."आम के लकड़ी कराकरी..घूरना पादे भराभरी...ईईई..।" खटिया पर लेटने का मौका ही नहीं मिलता। जैसे ही दोनो हाथ पीछे करके लेटता है कि ढेला फेंकने की आवाजें उसे बेदम कर देती हैं। भाग भाग के, हांफ-हांफ के उसे किसी चीज की याद आती। एक-एक आम गिन के तो आखं फूट ही जाएगी। कहां से मुसीबत पेड़ पर फर गई है। ओह...इहां से मुक्ति मिले तो ठीहे पर जाउं और एक बोतल ताड़ी चढाऊं, पोठिया मछली के चीखना के साथ...आहा..लार टपका जिस घूरना ने गिरने ना दिया। संभाल लिया..सामने दुलारी बाबु गाते हुए भरी दुपहरी में चले आ रहे हैं.."फरे आम फरे आम..आम आम फरे फरे..."

        इस बार मालदह आम झूम कर फरा है... दो साल से गाछी सून पड़ी थी। सारे पेड़ जैसे बांझ हो गए हों। खरीद कर आम खाया तो बाबू साहेब को अखर गया। फीरी का गाछी है..खाए जाओ। बांटने का नाम पर तो दरिदर है। क्या मजाल कि दस आम भी किसी को बएना में भिजवाएं। कभी टोको तो कहेंगे..काहे रे..कउन अपनी गाछी का आम हमको देता है। याद नहीं है कि दो साल से गाछी वीरान पड़ी थी..कुत्ता भी झांका.. "स्साला तू भी तो ताड़ी पीकर डकारता फिरता था..मुफ्त के पैसे खा खा कर.." दुलारी बाबू के मुंह से आशीर्वचन सुनकर घूरना का पेट भर जाता। वह जानता था कि ये आदमी आम को पेड़ पर कभी पकने नहीं देगा। खानदान भर को बुलाएगा..सब बोरा भर-भर के कच्चे आम तोड़ ले जाएंगे..चाहे दवाई डाल-डाल के पकाए..पेड़ पर पकने वहीं देंगे। वहीं मुखिया जी हैं..उनकी गाछी पीली हो जाती है, गांव का बच्चा सब डोल-पाती खेलते-खेलते दबा के आम चूस जाता है। उनको कोई फरक नहीं पड़ता..और ये, कंजूस खानदान का..। घूरना दांत पीस रहा था।

         “ फरे आम फरे आम...” आम को देख लहालोट हुए जा रहे हैं। इहा खटिया पर लग्गी लिए कब तक चोर को भगाएंगे..। बिहुपुर वाली खेत की तरफ जाते हुए दांत निपोर कर टिकोला मांगती है तो मना करते हुए घूरना का कलेजा मसक जाता है। मन करता है दुलारी बाबू का गला दबा दे..एक आम दे भी देगा तो पेड़ को क्या फरक..पता भी नही चलेगा..कई बार सोचा पर हिम्मत जवाब दे गई..ये दुलारी बाबू कभी भी प्रकट हो सकते थे। बेटा किसी काम का नहीं। शहर में रह कर आया और पगला गया। ना वहां ठौर ठिकाना मिला ना खेती में मन रमा। दुलारी बाबू अपने बड़े भाई की संपत्ति के मालिक बने बैठे है। कौन सा वे हिसाब लेने आ रहे हैं..। परिवार समेत लंदन में बस गए हैं। साल में एक बार आते हैं और शहर से ही होकर वापस लौट जाते हैं। सुना है, भारत कभी लौटेंगे ही नहीं। गांव और शहर का मकान भी दुलारी बाबू को दे जाएंगे। घूरना को ये सब कैसे पता..दुलारी बाबू हमेशा इतनी मस्ती में रहते हैं कि समूचा गांव जान गया है, मामला क्या है। निखट्टू बेटा भी जिस बाप को न चुभे, तो लोग सोचेंगे ना। बड़ा भाई आता है तो पटना-हाजीपुर का चक्कर लगा आते हैं।

       “सरकार..बहुत सुन्नर सुर लगाते हैं आप। कोई खास बात है का..

       घूरना की खैनी से घिसी दांत चमकी।

       “ हां रे..बड़का भईया आ रहे हैं। अबकि हमें नहीं जाना पड़ेगा सहर..वो ही आएंगे गांव। फुल्ल एंड फाइनल...

       “अछा...बाह..तब तअ सरकार..

        “आम का सुनकर बहुत खुस हैं भईया..कह रहे थे, आम को लंदन भी ले जाएंगे बुक करके। बिदेसी बहू के परिवार को खिलाएंगे कि देखो, हमारे गांव में क्या आम फरता है..आ रहे हैं..आम को तोर ले और कारबाइट डाल के पकाने का इंतजाम कर..

       घूरना की पीठ पर दुलारी बाबू का खुरदुरा हाथ थप-थप पर रहा था। “चल रे, एक चुटकी बीबीसी दे, बूझा कि नहीं रे...माने बुद्दि बर्धक चूर्ण (खइनी) बना..। अउर हां..आम सब बचाना है, समझा..भईया सालो बाद आ रहे हैं..देख के उनको खुस हो जाना चाहिए..समझा। इनाम-सिनाम मिलेगा तुझे..भईया है राजा दिल के..।

       “ जी सरकार...

       मूरख नहीं है वो, समझ रहा है, कि सरकार एतना खुस काहे हैं।
       ......

       खिलाड़ी बाबू का परिवार गांव आ रहा है, ये खबर बिजली की तरह गांव में फैल गई थी। बरसो बाद उनका गांव आना खबर ही तो है। दुलारी बाबू का एकक्षत्र राज कहीं खत्म ना हो जाए, ये चर्चा गरम है। कहीं बंटवारा न हो जाए दोनों भाई में। पट्टिदार लल्लन सिंह के कान खड़े हैं। दोनों भाईयो का तमाशा हम भी देखेंगे। बड़ा अंग्रेज बना फिरता था। गांव की सुध आ ही गई, जमीन-जत्था का लालच ही ऐसा होता है। अपना हिस्सा बेच के चल देगा तब पता चलेगा। ये दुलारी बाबू समझते ही नहीं हैं कि बड़ा भाई गांव कोई तीरथ करने थोड़े ना आ रहा है कि खुस हुए फिर रहे हैं। हमसे राय विचार करते तो उनका यहां आना टलवा देते। आने दो, कच्ची रोड पर. बिना बिजली वाले गांव में दो दिन भी नहीं टिकेगा अंग्रेजो का और परिवार..देखते हैं...सोचते-सोचते लल्लन सिंह ने सफेद कमीज की बांह ऊपर चढाई बथान से बाहर झांका। दुलारी बाबू धूल उड़ाते चले आ रहे थे।

       “का भईया...हवाई काहे उड़ा हुआ है ? कोई परेसानी है क्या..? बताइए, कुछ कर सके हम।“ लल्लन सिंह ने अपनी राजनीति चमकाई। दुलारी बाबू के होठ बिना खैनी के भी फूले होते हैं, आज तो और भी फूली लग रही है। ललन समझ गया। बाबू साहब का मुंह ही फूला हुआ है।

       “क्या बताएं...पता चला है कि भइया अपनी हाइवे से पास वाली जमीन किसी पार्टी को लाइन होटल खोलने के लिए बेचना चाहते हैं।

       “अच्छा...आपको कइसे मालूम..बड़के भया का फोन आया था क्या..?

       “यही तो दुख है रे ललन...हमको फोन नहीं किए, ऊ पार्टी खुद ही जमीन पर मंडरा रही थी। हम आज गए थे, देखने, वहां कुछ लोग घूम रहे थे। पूछा तो पता चला सब खिस्सा।

        दुलारी बाबू की चिंता आकाश-तोड़ थी। ललन समझ गया। इनके दुख का इलाज करना पड़ेगा। दुलारी बाबू हैं तो गांव में उसका भी रुतबा है। बड़ा सा दालान, बथान और किसके पास है। शहर से नेता लोग आते हैं तो दुलारी बाबू बिछे जाते हैं। ललन उनका सहारा और वे ललन के। शहर से ललन ही तो उनको जोड़ कर रखता है। कुछ भी मंगवाना हो, खाद-पानी, बीज सब ललन बाबू करेंगे। दोनों के बीच अघोषित कार्य-कारण का रिश्ता सा था। नेतागिरी में मस्त ललन का गांव में अधिकांश समय दुलारी बाबू के साथ ही कटता था।

       “तुम ही कोई रास्ता निकालो..भइया काहे ऐसे कर रहे हैं। हम बेवकूफ हैं का कि इतने साल से खेत के लिए जान दिए जा रहे हैं। आज उनके गहकी(ग्राहक) मिल गया तो हमको पूछे भी नहीं-

       दुलारी बाबू का दुख पसीना बन कर टपटप सफेद सूती गंजी के ऊपर टपक रहा था। गमछा से उसको पोछने का भी होश नहीं थी। दुख पछाड़े खा रहा था। उनको अपना साम्राज्य लूटता दिखाई दे रहा था। भाई के विदेश से गांव आने की खुशी काफूर हो चुकी थी। स्वागत में अब आम का पत्ता बथान पर नहीं लटकाएंगे। घूरना को कहेंगे कि सब आम लूटवा दे..मत अगोर। गाछी पर भी आफत है। क्या-क्या जाएगा, क्या-क्या बचेगा, क्या पता। जब हिसाब होगा तब दुलारी बाबू का जलवा गरदा-गरदा हो जाएगा। “घूरना रे घूरना...” दुलारी बाबू ने आवाज लगाई। आवाज में पहले जैसा दम नहीं था।

        “सुनिए, भय्या...पसीना पोछिए। हर प्रोबलम का रास्ता निकलता है। हम हैं न अभी। मर थोड़े ना गए हैं। हम पर बिसवास रखिए। कुछ न कुछ करेंगे जरुर।

       बोलते हुए ललन ने कंधे पर धरा गमछा उठाया और उनके हाथ में पकड़ा दिया। अनमनेपन से दुलारी बाबू ने गमछा लेकर पसीना पोछा, ललन ने दुलारी बाबू के कान में कुछ कहा और गाछी की रखवाली छोड़ कर खरचा पानी लेने आते हुए दूर से घूरना ने देखा-ललन सिंह की आंखें आखेट पर निकले बनैले पशु की तरह चमक रही थी।

       .....

       पूरा मजमा लगा है। दुलारी बाबू के घर पर सुबह से तांता लगा है। केपी सिंह लंदन से विदेशी बहू के साथ गांव पधारे हैं। ललन सबसे ज्यादा सक्रिय है। अंग्रेजी के कुछ शब्द प्रैक्टीस करके सीख ही गया है। पहली बार कम पढने-लिखने का अफसोस हो रहा है। बोरा वाला स्कूल में पढेंगे तो ये ही ना होगा। अरे, हमको कौन सा लंबा बात करना है, बस हैलो बोलेंगे, हाथ मिलाएंगे और हाउ डूयू डू कहेंगे..आय फाइन बस हो गया काम...बाकी में दांत निपोर देंगे। अंग्रेजी समझना अब कौनो मुश्किल थोड़े ना रह गया है। बस बोल नहीं पाएंगे।

       सुन तो लेंगे। का कह रही है ये तो पता चलेगा। बाकी भतीजा सब किस दिन काम आएगा। संभाल लेगा ना मामला। ललन सिंह मन ही मन सोच रहे हैं और बिदेशी बहू से हाथ मिलाने के लिए मन को पिजा रहे हैं। दुलारी बाबू थोड़े कम उत्साहित हैं। केपी सिंह यानी खिलाड़ी बाबू द्वार पर चौकी पर पलथी मार कर बैठ गए हैं। जो भी मिल रहा हो, मिल कर प्रसन्न है और थोड़ा दुखी भी। अब खिलाड़ी बाबू का गांव से रिश्ता नहीं रहेगा। अपना हिस्सा बेच कर वापस लंदन में बस जाएंगे। इकलौता बेटा है। इंडिया वापस नहीं आना चाहता। गांव की  संपत्ति भी हाथ से नहीं जाने देना चाहता। मजेदार बात ये कि अंतिम बार भी गांव नहीं आया। खिलाड़ी बाबू अपनी पत्नी और बिदेशी बहू के साथ गांव आए हैं। एक बार दुलारी बाबू की पत्नी ने धीरे से कहा-“ भाई जी, आप और बहिनजी गांव में ही रह जाइए। दुल्हिन और बउआ वहीं रहें।

       खिलाड़ी बाबू को यह गुहार बहुत फन्नी लगा। जेपी को कौन समझाए। उनकी दुनिया बदल गई है। उनके लोग बदल गए हैं। गांव आकर रहने की सलाह देने वाले मूर्खो पर उन्हें हंसने का मन कर रहा था। कैसे समझाएं कि वे उस देश में रहते हैं जहां बूढो की कद्र वहां की सरकार करती है। हर सुविधा है। निजता का सम्मान होता है। क्यों लौटे वे देश। गंवई भावुकता से वे सालो पहले निकल चुके थे। क्या रखा है यहां। इनको ये सब बातें कहां से समझ में आएगी। छोड़ो..मन की बात मन में रखी।

       “अरे भाई...इकलौता बेटा है। कैसे अकेले छोड़ दें। हम कैसे रह पाएंगे उसके बिना..। आप लोग रामजी और भोलाजी से दूर रह पाएंगे का..बताइए...फिर बड़की दीदी भी नहीं बचीं। हमारी पीढी तो खतमे है ना...

        दुलारी बाबू समझ रहे थे कि भइया सब सत्यानाश करके जाएंगे। बड़की दीदीया होती तो जरुर भइया को रोकती। तब शायद भइया इतनी जल्दी ये सब नहीं करते। दीदीया की तो बात ही ना पूछो। भइया पर उनका हुक्म चलता था। राम दियरी गांव से आने में कितना टाइम लगता। दीदीया भइया के पहुंचने से पहले यहां पहुंची रहती थीं। घर का सारा कमान बड़की दीदीया के हाथ। भइया जैसे साक्षात देवता धरती पर उतर आए हों। दुलारी बाबू को हमेशा लगा कि दीदीया भेदभाव करती रही हैं भाईयों में। इंग्लैंड का धौंस था उन पर। दीदीया वहां जाने के सपने देखती रह गईं। सपने तो पूरा खानदान देख रहा था। पर खिलाड़ी बाबू को क्या... देखते रहो, हमारी बला से। किसको किसको घुमाते, किसको छोड़ते। दीदीया को जरुर कहते- “तुम्हे ले जाऊंगा एक दिन, बंकिंघम पैलेस घुमाऊंगा। लंदन आई में घुमाऊंगा...वहां के रिक्शा पर बिठाऊंगा...दीदीया अचंभित होती—हे रे..ऊहां रिक्सो होइछई...बुझहू त...लंदनो में रिक्सा...”

       ना दीदी को भईया ले गए ना ही वे रिक्शा कभी देख पाईं। जब वे दुनिया से विदा हुईं तो खिलाड़ी बाबू वर्ल्ड टूर थे। आ नहीं पाए। जब छुट्टी में आए तो उनका दहाड़ मार कर रोना गांव कई दिन तक याद करता रहा। दुलारी बाबू तो क्या, सारा गांव जानता था कि खिलाड़ी बाबू अपनी दीदी के कितने दुलारे थे।

       वे ही भइया को समझा सकती थीं...दुलारी बाबू सोचते सोचते परेशान हो उठे। “दुररर...जे समझ में आए, करिए..हमको का है...” बड़बड़ाते हुए उन्हें ललन सिंह की बात याद आई जो उन्होंने कान में कहा था। क्यों तमाशा कर ही दिया जाए। दुलारी बाबू बिना सांकल खटखटाए आंगन में धड़धड़ाते हुए घुस गए। खटिया पर बैठी दोनों गोतनी (जेठानी-देवरानी) और विदेशी बहू यानी मिशेल बातों में मशगूल थीं। मिशेल हिंदी थोड़ी-थोड़ी समझ लेती थी। बोलने की कोशिश करती तो सबको सुन कर मजा आता। अभी वह सिर्फ सुन रही थी। दुलारी बाबू की पत्नी हड़बड़ा कर उठी। सलवार सूट पहनी, चुन्नी को सिर पर धरे, मिशेल आराम से बैठी रही। हाथ जोड़ कर नमस्ते कहा। जब से आई है, मिशेल का समय घर में ही बीत रहा है। दो दिन किसी तरह कट गए। अब वह दिल्ली जाने को बेचैन है। चार दिन के लिए गांव की यात्रा, उसने जिस रोमांटिसिज्म में सोच कर स्वीकारी थी, वह तो यहां दूर दूर तक नहीं थी।

       गांव की गरमी ने तो जैसे जान ही निकाल दी। जिस नदी की इतनी बढा-चढा कर उसका पति वर्णन करता था, वो सूख कर आधी हो चुकी थी। बिजली कभी-कभार मेहमान की तरह आती और झलक दिखा कर गायब हो जाती थी। दिन भर हथपंखा झलते रहो। रात आंगन में सोते कटती। रातें ठंडी हो जाती थी, इसलिए खुले तारो के बीच सोने का पहला सुख उसे रोमांचित कर रहा था। यहां आने से पहले उसने कितनी ट्रैवेल किताबें पढ डाली, गूगल पर सर्च कर लिया। गांव का नाम नहीं दिखा, अलबत्ता जिले के बारे में जरुर हल्की जानकारी मिली। शादी से पहले वह शिमला के दौरे पर तब आई थी, जब उसके पापा वहां के भूतो की दंत कथाओं पर किताब लिख रहे थे, वे जगहें तलाश रहे थे। पिता के साथ उन अंधेरी पहाड़ी पगडंडियों और झाड़-झंखाड़ से लदे निर्जन भवनो में भटकते हुए उसे मजा आया, डर कभी नहीं लगा। उसे दिलचस्प लगी थी कहानियां। भारत को लेकर तभी से उसके मन में जबरदस्त आकर्षण था। शादी के बाद पहली बार ससुराल के गांव पति के बिना आ गई। सबने मना किया पर वह न मानी। पहली बार आई थी इसलिए तमाम कुलदेवता-देवियों की पूजाओं का सामना करना पड़ा। पूजा के दौरान लोकगीतो को सुन कर उसे मजा आया।

       “झकाझूमर खेले अइली ब्रह्म रुउरे अंगना...” सुन कर तो वह झूमने लगी थी। रंग बिंरगी साड़ियां पहन कर, सज संवर कर कभी ब्रह्मपूज्जी में जा रहे हैं तो कभी पट्टीदारो के यहां गिफ्ट के साथ-साथ मेहमानी खा रहे हैं। मौजा ही मौजा। लेकिन दाल भात खा-खा कर वह पक चुकी है। यह बात खिलाड़ी बाबू और उनकी पत्नी समझ रहे हैं। बस दो दिन की और बात है, हमेशा के लिए निकल जाएंगे इस दुनिया से। इतनी तसल्ली मिशेल के लिए काफी थी।

       दुलारी बाबू जब आंगन में घुसे तो अपनी पत्नी की अंतिम वाक्य जो सुना वो ये था- “दीदीया जी अंतिम समय में भाईजी को बहुत याद करती थीं। भाईजी को उनके घर से हो आना चाहिए। उनकी आत्मा को शांति मिल जाएगी...भटक रही होंगी..सपना में बहुत आती हैं..सच कहते हैं बहिन जी, हमको तो लगता है कभी-कभी कि दीदीया जी यहीं हैं कहीं.. अगर यहीं कहीं होंगी तो देख रही होंगी कि...”

       दुलारी बाबू को लगा, काम हो गया। बिना कुछ कहे वे वापस लौट गए।

        ......

       खिलाड़ी बाबू का सारा वक्त संपत्ति के खरीदारो से उलझने में चला जा रहा था। तीसरे दिन बात कुछ बनती नजर आ रही थी। उनकी पत्नी ने दीदीया की याद दिलाई थी। दीदीया नहीं हैं तो क्या हुआ, परिवार के लोग तो हैं। फर्ज बनता ही है। दुनिया से जाने वाले कितना संताप अपने पीछे छोड़ जाते हैं, इसका अहसास उससे जुड़े लोग ही महसूस कर सकते हैं। खिलाड़ी बाबू जाने से थोड़ा हिचकिचा रहे थे। एक तो गांव की प्रचंड गर्मी, लू चल रही है। धूल-धक्कड़ से वैसे ही उन्हें एलर्जी है। इतना विकास जिले का हुआ, लेकिन अपना गांव वहीं का वहीं रहा। खरंजा सड़क पर हिचकोले खाती गाड़ी चलती तो खिलाड़ी बाबू को लंदन की सड़के याद आ जाती। दांत पीस कर वे राज्य सरकार को गाली देते...”मादर...लूट रहा है सब मिलके।

       उन्हें खयाल आया, उनसे बेइंतहा स्नेह करने वाली दीदीया के घर वालो से मिलने के लिए इन्हीं उबड़ खाबड़ सड़को पर चलना होगा। कौन सा अब फिर आना है। निकल चलने का वक्त तो आ ही गया। उन्हें अपने फैसले पर गुरुर हो आया। उन्होंने ललन सिंह को कह कर भाड़ा पर एयर कंडीशन गाड़ी मंगवाई और अकेले ही, भतीजे भोलाजी को लेकर राम दियरी रवाना हो गए। दो-तीन घंटे में लौट आने की बात थी। तब तक दुलारी बाबू को बोल गए थे कि जमीन का सब कागज पत्तर तैयार रखना। बंटइया वालो का हिसाब भी लगा कर रखना।

       कल जाना ही। बाकी काम दिल्ली में बैठकर कर लेंगे। जमीन लेने वाली पार्टी पैसा एकाउंट में ट्रासंफर कर देगी। घर में अपना हिस्सा दुलारी बाबू के नाम कर दिया। गाछी में भी बंटवारा हो गया। गांव के अंत वाला गाछी दुलारी बाबू का और शुरु वाला गाछी, जहां साप्ताहित पेंठिया(हाट) लगता है, वो खिलाड़ी बाबू के हिस्से। दुलारी बाबू दूर तक भईया को जाते देखते रहे। उन आंखों में कुछ था। खिलाड़ी बाबू देख नहीं पाए थे। अपनी जड़ से कटने की पीड़ा हल्की-सी सुई की मानिंद चुभी थी जिस पर लंदन की याद ने फाहा डाल दिया।

       हकासे प्यासे, थके हारे खिलाड़ी बाबू जल्दी लौट आए थे। बदन ठंडा था। एसी गाड़ी से उतरते हुए कितना मलाल हुआ था। पर यहां जब देखा कि मस्त-मलंग, बनियान पहने हुए, गमछा डाले, लुंगी ऊपर चढाए, बाहरी दालान में, चौकी पर ही जमे हुए हैं। कोई खेत से चला आ रहा है तो कोई पेंठिया जाने से पहले आ गया तो कई शाम की बतकहियों के लिए भठ्ठा चौक पर जाना है। रमेसरा को तो “मधुबन” में जाना है, भोर का ताड़ी अब “नशेमन” में बदल गया होगा। नरकलियां देवी तो चिखना बनाने में एक्सपर्ट है। शाम को पोठिया मछली भूनती है तो कुछ ज्यादा ही नशा चढता है रमेसरा को।

       गरम शाम थी। हवा के मिजाज में भी तल्खी थी। पत्ते हौले हौले हिल रहे थे मानो बिना इजाजत जोर से हिलना मना हो। कल विदाई की खबर सुन कर कई लोग मिलने आ गए थे। खबर आग की तरह फैल गई थी। घूरना वहीं चटाई पर बैठा हुआ था। लग्गी हमेशा की तरह हाथ में। बड़े साहब जा रहे हैं तो जो इनाम-सिनाम लेना है, अभी ही मौका है। खिलाड़ी बाबू भी सबके साथ बाहर ही जम गए। अभी बैठे ही थे कि आंगन से जोर की चीख सुनाई दी। स्त्री-चीख थी। सब उठकर अंदर की तरफ भागे। किसी का गमछा गिरा, किसी की लुंगी फंसी तो किसी का कुरता अधखुले किवाड़ की हैंडिल में लग कर चरर्रर से फटा..चीख सब पर भारी थी। एक नहीं कई स्त्रियों की चीखें थीं। खिलाड़ी बाबू रास्ता बनाते हुए पहले पहुंचे। उनका जी धक्क से रह गया। जाने से पहले ये कौन सी मुसीबत गले आ पड़ी। दुलारी बाबू की चाल धीमी थी। ललन सिंह ने नोटिस किया।

       हें..ये क्या...जमीन पर गिरी हुई दुलारी बाबू की पत्नी लोट रही थीं। साड़ी घुटनो तक चढ गई थी। आंखें अधखुली, खून की ललाई जैसे फूट पड़ेगी। होठो के किनारे से सफेद झाग निकल रहा था। कंठ से गों गों की आवाजें..

       आंगन की औरतें, मिशेल और मिसेज खिलाड़ी बाबू यानी केपीसिंह..डर से चीख रही थीं। आंगन की औरतों की आंखें डर से फटी हुई थीं। जैसे कोई भयानक जानवर देख लिया हो। लुट्टन बाबू की मां चीखीं...”खिलाड़ी बाबूउउउ...दीदीया...ईहां...

       “ क्या..??

       उनकी श्रीमति जी कलपीं...”क्या हो रहा है ये सब...मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है..लगता है अटैक पड़ा है, होस्पीटल ले चलते हैं..जल्दी इलाज करवाओ..

       मिशेल कंपकंपाई...”  ओ माई गौड...ओ माई गौड...आई कांट बिलिव दिस...आई हैव नेवर सीन...
उसका गोरा चेहरा तमतमाया हुआ था। आंखें जैसे हैरानी से फटी पड़ी थीं। दोनों हाथों से अपने गाल पकड़ रखा था।

       खिलाड़ी बाबू चिल्लाए, “ललनवा गाड़ी मंगवाओ रे..फोन कर उसको...”

       लुट्टन की मां चीखीं...”होस्पीटल जाकर क्या करेगी...बीमारी नहीं है..देख नहीं रहे हैं का हाल हो गया है..सुनिए तो का बकथोथी कर रही है...आवाज पहचानिए..

       दुलारी बाबू की पत्नी, यानी खटरी देवी को इस हालत में देखकर सब दहल गए। इससे पहले किसी ने इस आंगन में ऐसा नजारा नहीं देखा था। गांव में ऐसे किस्से खूब थे। पर इस आंगन में नहीं।

       ललनसिंह के मुंह से निकला- “भूत...आतमा आई है इनके ऊपर..होस्पीटल जाने से कुछ नहीं होगा..ये डाक्टर का मामला नहीं है भईया..

       “व्हाट ???

       मिशेल भूत शब्द जानती थी। उसकी आंखें फट पड़ी। उसे पिता की यात्राओं का अनुभव था पर ऐसे दृश्यों को नहीं।

       “क्या फालतू बात कर रहा है रे...पगला गया है का..गाड़ी मंगवा, दुलारी..कहां है..? ले चल इसको..तुम गांव वाले हमेशा रहोगे वही..यहां इसकी तबियत खराब हो रही है और तुम लोगो को भूत-प्रेत दिखाई दे रहा है। चलो, हटो, भीड़ कम करो...उठाओ इसको..जमीन पर से...

       लुट्टन की मां आंगन में सबसे बड़ी थीं। उन्होंने हिम्मत करते खटरी देवी को उठाना चाहा। श्रीमति केपी सिंह तो थरथर कांप रही थीं। उनकी हिम्मत कहां हो। उनके चेहरे पर जो भाव थे, उसे कोई उस भीड़ में पढ रहा था। दुलारी बाबू को घूरना ने पीछे से खैनी दिया, उन्होंने होठो में दबाया और ललन सिंह की तरफ देखे।

       “भईया..हड़बड़ाइए मत..कुछ नहीं हुआ है...हम विमल बाबू को बुला लाते हैं...गांव के सबसे पुराने ओझा हैं...झाड़ देंगे, पांच मिनट में। सब ठीक हो जाएगा। चिंता मत करिए..हम लेकर आते है उनको...

       ललन सिंह के चेहरे पर इत्मीनान सा था। जैसे कुछ हुआ ही न हो। दुलारी बाबू सकपकाए से खड़े थे। खिलाड़ी बाबू कुछ बोलते कि इसके पहले ही एक आवाज ने उनके होश उड़ा दिए...

       “छोड़ हमरा...हट..दूरर्ररर..अभागल बस, हट..हमर भाई आया है..हमको उससे बात करना है...बुलाओ उसको...

       खटरी देवी के कंठ में ये किसकी आवाज है। खिलाड़ी बाबू भौचक्के।

       “दीदीया...?

       वे भरभरा कर गिर गए, वहीं जमीन पर..

       खटरी देवी आसन मार कर जमीन पर बैठ गई थीं. आंखें चढी हुईं..सिर से आंचल ढलका हुआ..ऊंगलियां टेढी मेढी..बाल छितराए हुए। उनके आसपास से लोग डर कर छिटक चुके थे।

       सबकी नजरें आपसे में मिली और एक स्वर में सब चीखे...

       ” बाप रे...दीदीया आई हैं...भाई जी के परेम में..देखो तो...आप गांव से मिल कर आए, उनके परिवार से..दीदीया यहां आ गईं..

       श्रीमति खिलाड़ी बाबू के मुंह से निकला—

       “दीदी जी...यहां..इनकी देह में..?

       मिशेल चीखी..”यूअर सिस्टर इन लौ..ओ माई गौड..कांट विलिव दीस..

       खटरी देवी के मुंह से आवाज निकल रही थी..दीदीया की आवाज, मोटी और भर्राई हुई आवाज।

       “मैं कैसे मान लूं...आप दीदीया की आत्मा हो...सब फ्राड है...

       खिलाड़ी बाबू आसानी से मानने को तैयार नहीं थे। आज के जमाने में भूत प्रेत..। कैसे संभव। अब तक दीदीया की आत्मा नहीं आई, आज क्यों..वो भी इस तरह।

       “खेलू...भूल गया...रे..याद है, हम तुम पोखरी में... खेल... रहे थे। तुम डूब गए थे न। हमही.. तुमको... बचाए...। तुम.. कादो... में.. धंस.. गए थे..कौन खींच कर निकाला था।

       आवाज में वही स्नेहिल छाया पर घोंघियाती हुई। अस्पष्ट। वे हाथ चमका रही थीं।

       उन्हें याद आया...ये दोनों घटनाएं जब घटी थी तब घर का कोई नहीं था और दीदीया ने किसी को बताया भी नहीं था। खटरी देवी को कैसे पता। ओह..!!

       “दीदीया...!!

       “खेलू...तू गांव क्यों छोड़ कर क्यों जा रहा है रे...?

       “दीदीया..अब तुम भी तो नहीं हो...क्या करुंगा यहां आकर...क्या बच गया। माई बाबूजी के बाद आप थीं...दीदीया..आप कैसे इनकी देह पर....यहां कैसे आईं..?”.

       “हम तोरा गाड़ी पर चढ के अइली...हम उंहे रहइछी..पेड़ पर...हमर आत्मा भटक रहल” है...तुम जाओगे तो और भटकेगी...सब बेच दोगे तो और भटकेगी..पुरखा के निशानी नहीं बेचते रे...

       खटरी देवी की आंखों से जैसे खून निकल आएगा। स्तब्धता छा गई थी। सब चुप थे। भाई-बहन संवाद चल रहा था।

       “हम ओझा बोला कर लाए का...?

       खिलाड़ी बाबू ने ललन को रोक दिया।

       “नहीं...रहने दो...हम बात कर रहे हैं न...

       “दीदीया...आप दुल्हिन को छोड़ दीजिए..   तोरा हमर किरिया..

       “नहीं....मै इसको लेकर जाऊंगी...”बोलते हुए खटरी हवा में उछली। धड़ाम से गिरी..सिर फूट गया..खून की हल्की धारा बह निकली।

       घूरना चिल्लाया...”मलकिनी...

       खिलाड़ी बाबू चिल्लाए..”सब बाहर निकलो...ये हमारे परिवार का मामला है...बाहर जाओ सब। गांव में हल्ला करने की जरुरत नहीं है। कोई ओझा गुनी नहीं आएगा...समझे..निकलो सब बाहर...दुलारी इधर आओ, पकड़ो इसको। संभालो...” खिलाड़ी बाबू कसमसा कर रह गए। वे दीदीया से लिपटना चाह रहे थे। उनकी मौत का गम उन्हें किस हद तक था, बताना चाह रहे थे। वे उस घर की अंतिम कड़ी थीं। वे नहीं रहीं तो क्या करेंगे यहां आकर. पर वे खटरी देवी को कैसे पकड़े, कैसे छूएं। आत्मा भले दीदीया की है लेकिन देह तो उनकी भाभो की है। वे जेठ हैं और जेठ की परछाई तक से बचती थीं खटरी देवी। बात करती थीं पर थोड़ी दूरी रख कर। खिलाड़ी बाबू परदाप्रथा नहीं मानते थे पर निर्वाह करते थे।

       “दीदीया...क्या कर रही हैं आप...दुल्हिन को काहे सता रही हो...देख नहीं रही हो..पूरा परिवार डर रहा है...क्या चाहती हो दीदीया..?” खिलाड़ी बाबू कराहे। हथियार डालने के बाद की आवाज हमेशा इतनी ही ढीली होती है। ललन सिंह को छोड़ कर सब फुसफुसाते हुए बाहर निकल गए।

       “क्या चाहिए आपको...क्यों ऐसा कर रही है...?

       “हम ना जाएब...हूंहूं....गुर्राती हुई आवाज...

       “क्या चाहिए...बोलिए तो...हम तो कल जा रहे हैं..खिस्सा खतम..”.

       “खेलू...तू खेत मत बेच...गाछी मत बेच..

       “सौदा हो गया दीदीया...

       खटरी देवी फिर चिल्लाई...”मरेगी ये..मरेगी...सब मरेंगे..

       “कुछ और मांग लो दीदीया...

       “नहीं..पहले सौदा रद्द कर...दुलारिया को गाड़ी खरीद कर दे, इतना कमाया है बिदेस में...सब पैसा अपने ऊपर ही खरच करेगा का..घर परिवार के लिए कुछ नहीं करना चाहिए का..कभी कुछ किया है आज तक.. बाबूजी माई सब नाराज हैं...मुझे भेजा है..तू मेरी बात कभी नहीं टालता था न...

       पहली बार आवाज मुलायम जान पड़ी। आंखें वैसे ही उल्टी हुई। खिलाड़ी बाबू रो रहे थे। दुलारी बाबू हतप्रभ। बाकी सबको सांप सूंघ गया था।

       “दीदीया...सब छोड़ देंगे...आप जो कहेंगी...पर आप इसकी देह को छोड़ दीजिए..कष्ट मत दीजिए..आप मेरे ऊपर आ जाती..इस निरीह के ऊपर क्यों...?

       खटरी देवी की हालत पर उन्हें रोना आ रहा था। वे सोच भी नहीं सकते थे कि इस तरह का नजारा देखने को मिलेगा। बचपन में बहुत भूतखेली देखी थी। उनकी चाची के देह पर कई बार दादी आती थीं और बच्चों को प्यार करके, कुछ खा पी कर चली जाती थीं। वे सताती नहीं थीं। इतनी खतरनाक भी नहीं दिखती थीं। एक शंका जरुर मन में रही कि ये कभी मेरी वाचाल और अपने जमाने की फैशनेबल माई के ऊपर क्यों नहीं आईं। अल्पभाषी चाची की देह ही क्यों चुनती थीं। क्या चाची ज्यादा सीधी और कमजोर इच्छा शक्ति की औरत थीं इसलिए। दादी छोटी-छोटी चीजें मांगती थी..एक बार का याद है..उन्होंने कहा था बाबूजी को कि चाची को सोने के कर्णफूल और सिल्क की साड़ी लाकर दे। बाबूजी ने जब तक ये मांग पूरी नहीं की, वे चाची की देह से उतरी नहीं थी। अब एक बार फिर वही तमाशा...। बचपन की विस्मृत यादें फिर ताजा। इतनी अतृप्त आत्माएं उन्हीं के खानदान में क्यों होती हैं...

       अपने परिवार में भूतखेली देखने से पहले उन्हें लगता था कि ये भूत प्रेत, आत्मा-वात्मा सब फरेब है। बीमारी है, दस जूते मारो सब ठीक हो जाएंगे। इतने नजदीक से देखने के बाद उन्हें यकीन हो गया था कि आत्मा जैसी चीज होती है जो अतृप्त रहने पर बखेड़ा करती है। गांव में तो रहते हुए खूब भूतखेली देखी है। विमल बाबू कैसे धुलाई करते थे। आह...पर बाबूजी ने अपने घर में कभी ओझा गुनी नहीं आने दिया। मैं भी नहीं आने दूंगा..चाहे जो करना पड़े...जाते जाते, कलंक क्यों लेना...मन में अपराधी होने का भाव जगा। क्या कर रहा था मैं...क्या कमी है मुझे। छोटा भाई ही तो है..सब ले लेगा तो क्या हुआ. कौन-सा उनका बेटा लौट कर यहां आएगा। रख ले दुलारी..सब रख ले..गाड़ी भी ले ले..जो चाहिए...बस मैं इस जंजाल से निकलना चाहता हूं...

डैड...जस्ट लीव एवरीथिंग..वी विल गो बैक...वी डौंट वांट एनीथिंग फ्राम हेयर..वी हैव एनफ...जो चाहिए, इन्हें दे दीजिए...चलिए यहां से।

       खिलाड़ी बाबू, खटरी देवी के पास से चुपचाप उठे..ललन को इशारा किया। दुलारी बाबू भी पीछे पीछे। श्रीमति खिलाड़ी बाबू भी पीछे पीछे। उनके चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थीं। जैसे किसी जुए में सबकुछ हार कर वापसी कर रहे हों।

       दीदीया का तांडव जारी थी। दीदीया अब खौफनाक अट्टाहास कर रही थीं।

       आंगन की सारी औरतें उन्हें घेर कर बैठ गईं। सबके होठों पर अलग अलग प्रार्थनाएं थीं।

       इन सबसे बेखबर शाम आंगन में उतर रही थी, हल्का अंधेरा साथ लिए...।

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1 टिप्पणियाँ

  1. गीताश्री की भूतखेली आज के समाज की सोच पर एक तमाचा है कम से कम उन लोगों की जो आज भी सिर्फ खुद के सुख के लिए किसी पर भी कुठाराघात करने से नहीं हिचकते फिर चाहे वो उनका कोई सगा सम्बन्धी ही क्यों न हो और ऐसे लोगों को सही राह पर लाने के लिए जरूरी हो जाता है जैसे को तैसा वाली कहावत को सही सिद्ध करना फिर उसके लिए चाहे थोडा बहुत झूठ का साथ ही क्यों न लिया जाए या उन्ही की तरह के हथकंडे ही क्यों न अपनाये जाए क्योंकि कहा गया है कि किसी सच को बचने के लिए सौ झूठ भी बोले जाएँ तो कम होते हैं और लेखिका ने उसी परम्परा का निर्वाह करते हुए अपने लेखन को सिद्ध किया है।

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