लमही औपन्यासिक बनाम उपन्यास विशेषांक - विजय राय | Lamahi Novelistic Vs Novel Issue - Vijay Rai


युवा से युवतर होते रचनाकारों के उपन्यास का आकार भी छोटा होता जा रहा है जबकि इसके विपरीत कहानियों का औसत आकार बढ़ रहा है । कहानी का आकार क्यों बढ़ रहा है ? यह विचार करने योग्य प्रश्न है

आज हमारे समाज और साहित्य में बहुत कुछ ऐसा घट रहा है या विगत वर्षों में घटा है, जिसके कारण समाज और साहित्य की समझ में परिवर्तन होना लाज़िमी है । सन् 1991 में भारत की सरकार ने मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था को अपनाया । इससे भारत में संचार क्रांति का सूत्रपात हुआ । इस संचार क्रांति और मुक्त बाजार ने भारतीय जीवन को अनेक कोणों से प्रभावित किया । इससे बाजार में प्रोड्क्ट्स की उपलब्धता बढ़ी, एक सामान के कई विकल्प हो गए । विकल्पों की बाढ़ और वस्तुओं की उपलब्धता ने केवल नागरिकों की जीवन शैली में ही परिवर्तन उपस्थित नहीं किया, इसने विचारों में भी बदलाव किया । बाजार के साथ विज्ञापनी संस्कृति का भी प्रचार–प्रसार काफी बढ़ा । बाद में उसमें आक्रामकता भी बढ़ी । इस आक्रामक विज्ञापनी संस्कृति ने विचार और व्यवहार को काफी बदला है । इन बदलावों के साथ संचार माध्यमों के प्रसार ने बदली जीवन प्रणाली को तीव्रता से भर दिया । तीव्रता ने पुन: जीवन और समाज में पनप रही प्रवृतियों में परिवर्तन की गति को और भी ज्यादा परिवर्तनशील बना दिया । गति की इस तीव्रता ने सामाजिक प्रवृतियों, निर्मितियों में परिवर्तन की गति को भी तीव्रतम कर दिया । समाज में बदलाव दस पाँच वर्षों के अंतराल पर भी महसूस किया जाने लगा । जबकि पहले एक प्रवृत्ति काफी वर्षों तक हमारे समाज में जीवित रहती थी । वैश्विक स्तर पर रूस के विघटन ने भी स्थितियों के बदलाव पर आक्रामक असर डाला है । संयुक्त रूस के विघटन ने दुनिया भर में पूँजीवाद के उन्मुक्त विकास को अत्यंत संभावनाशील बना दिया । रूस की समाजवादी सत्ता पूँजीवाद के लिए एक प्रतिरोधी सत्ता का काम कर रही थी । इस प्रतिरोधी सत्ता के समाप्त होते ही दुनिया के अन्य अनेक देशों में भी समाजवादी सत्ता का विघटन प्रारम्भ हुआ । जो समाजवादी देश सत्ता के रूप में समाजवादी रह भी गए उन्हें भी पूँजीवाद ने विभिन्न रूपों में अपने कब्जे में किया । इस तरह रूस का विघटन और चीन में समाजवादी सत्ता के संरचनागत परिवर्तन ने दुनिया भर में वैश्विक मुक्त बाजारवादी अर्थव्यवस्था और उसके सहयोगी संस्थाओं का वर्चस्व स्थापित कर दिया ।

महत्वपूर्ण उपन्यास वह होता है जो हमारी दुनिया और मनुष्यों के बारे में उसके आस–पड़ोस, वातावरण, समाज अथवा मानव जीवन के बुनियादी सिद्धांतों पर कुछ बुनियादी प्रश्न उठाए
           इन परिवर्तनों ने समाज के साथ–साथ साहित्य के स्वरूप में भी व्यापक परिवर्तन उपस्थित किया है । कथा साहित्य वर्तमान समय में साहित्य की केन्द्रीय प्रवृत्ति है । मात्रात्मक और गुणात्मक दृष्टि से इस विधा में ही सबसे ज्यादा साहित्य रचा जाता है । समय के बदलाव के कारण मानवीय प्रवृत्ति, जिज्ञासा और ज्ञान के रूप में परिवर्तन आया । इस परिवर्तन ने उपन्यास की आंतरिक संरचना में व्यापक बदलाव उपस्थित किया है ।

           उपन्यास और कहानी कथा साहित्य के दो अंगं माने जाते हैं। परन्तु इस बदलते युग में इनकी दूरियाँ काफी कम हुई हैं । आज यह देखने में आ रहा है कि युवा से युवतर होते रचनाकारों के उपन्यास का आकार भी छोटा होता जा रहा है जबकि इसके विपरीत कहानियों का औसत आकार बढ़ रहा है । कहानी का आकार क्यों बढ़ रहा है ? यह विचार करने योग्य प्रश्न है । हम इस बात को समझ रहे हैं, इसी कारण हम इस विशेषांक को उपन्यास विशेषांक न कहकर औपन्यासिक कह रहे हैं । इस संदर्भ में इस अंक के सम्पादक डॉ– ओम निश्चल और अमिताभ राय में से अमिताभ राय ने एक लेख लिखकर सबका ध्यान आकृष्ट किया था और इसी कारण हमने श्री वैभव सिंह से यह लिखने के लिए निवेदन किया था ।

           साथ ही आज की कहानियों और उपन्यासों को गौर से देखने पर हम पाते हैं कि उनमें सूचनाओं और घटनाओं का विशाल भंडार है । क्या इन सूचनाओं का हमारे संवेदनात्मक स्फुरण में कोई स्थान है ? अगर यह मान लिया जाए कि नहीं है, तब तो आलोचकों के आलोचना कर्म की इति हो गयी । कोई समस्या या तनाव उत्पन्न नहीं होगा– इसे दोष मानकर खारिज कर दीजिए । परन्तु तब समस्या यह उत्पन्न होगी कि आज का, 2000 के बाद का लिखा जाने वाला अधिकांश महत्वपूर्ण साहित्य नकार दिया जाएगा, क्योंकि घटनाओं अथवा सूचनाओं की बहुतायता का प्रश्न अधिकांश लेखकों को साहित्य के बाहर धकेल देगा । तुर्रा तो यह रहेगा ही कि अधिकांश वरिष्ठ आलोचक इसे साहित्य मानने से इनकार न कर दें! असगर वजाहत का उपन्यास ‘बरखा रचाई’ हो या प्रदीप सौरभ का उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ हो या अल्पना मिश्र की कहानियाँ हों या पंकज सुबीर, नीरजा माधव, मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियाँ हों या आज की अन्य कहानियाँ हों । उपर्युक्त समस्या अगर सिर्फ साहित्य की होती तो उस पर विचार करने की बहुत ज्यादा जरूरत भी नहीं पड़ती । इस पर विचार करने की जरूरत ही इस कारण है क्योंकि साहित्य के साथ–साथ यह समाज की भी वैश्विक घटना है ।

           हमारे समय में महत्वपूर्ण उपन्यास की पहचान क्या हो सकती है ? महत्वपूर्ण का अर्थ विशिष्ट भी है और उत्कृष्ट भी है । क्या काशीनाथ सिंह का ‘काशी का अस्सी’ जिन मूल्यों पर उत्कृष्ट है, उन्हीं कसौटियों पर ‘मुझे चाँद चाहिए’ को भी उत्कृष्ट या विशिष्ट कहा जा सकता है ।

           फिर उपन्यास की कौन सी ऐसी परिभाषा निर्मित की जाए जो अनेक प्रकार के उपन्यासों पर समान रूप से लागू किया जा सके । जीवन जितना विविधतापूर्ण और आक्रामक हो गया है उपन्यास का विषय भी उतना ही विविधतापरक हो गया है । यह मसला सिर्फ शैली या कहने के अंदाज का नहीं है कि ‘गालिब का अंदाजे़बयाँ कुछ और’ कहकर हम संतुष्ट हो जाएँ । मेरे विचार से महत्वपूर्ण उपन्यास वह होता है जो हमारी दुनिया और मनुष्यों के बारे में उसके आस–पड़ोस, वातावरण, समाज अथवा मानव जीवन के बुनियादी सिद्धांतों पर कुछ बुनियादी प्रश्न उठाए । यह जरूरी नहीं कि वह उठाए गए प्रश्न का उत्तर दे और अगर वह कोई उत्तर देता है तो वह हमें संतुष्ट ही कर दे । प्रेमचंद ने सारे प्रश्नों के उत्तर दिए, पर क्या वे हमें संतुष्ट कर पाते हैं । प्रश्नाकुलता और जीवन के ढर्रे में हस्तक्षेप ही उपन्यास का बुनियादी व्यवहार है – अब उपन्यास चाहे बड़े आकार का हो या छोटे आकार का । इस अंक में भी अगर एक ओर ‘कालकथा’, ‘मुझे चाँद चाहिए’, ‘इन्हीं हथियारों से’ आदि वृहदाकार उपन्यासों को चुना गया है तो दूसरी ओर ‘ग्लोबल गाँव के देवता’, ‘अन्वेषण’ आदि छोटे उपन्यासों का भी चयन किया गया है । इन उपन्यासों के चुनाव के पीछे मानवता के प्रति, मानवीय समाज के प्रति और मनुष्यों के प्रति उनके ट्रीटमेंट को महत्व दिया गया है ।

           यह विशेषांक हमारे समय और उसके सारे सरोकारों, प्रवृत्तियों, घटनाओं–दुर्घटनाओं के साथ इस विधा के अंतर्गुम्फन को रेखांकित करने का प्रयास है । वास्तविकता यह है कि भूमंडलीकरण ने हमें वैश्विक स्तर पर पक्ष और विपक्ष में अनेक रूपों में प्रभावित किया है । इससे अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह उपन्यास की संरचना, शैली, विषय, चुने गए विषयों के प्रति लेखकों के ट्रीटमेंट में आज पर्यापत अंतर आया है । यह अंतर आज कितना प्रभावी है इसका अंदाजा इस विशेषांक में मौजूदू विभिन्न आलेखों से लगाया जा सकता है । ‘मुन्नी मोबाइल’ पर लिखा गया आलेख इसका प्रमाण है कि उपन्यास का परम्परागत ढ़ाँचा टूटा है । कथा साहित्य की आरंभिक आलोचना पुस्तकों को देखने से हमें ज्ञात होता है कि वह कथा साहित्य को छ: तत्वों में बाँटकर देखती थी । बाद में संवेदना और शिल्प दो तत्वों के आधार पर ही कथा साहित्य का विवेचन होने लगा । परन्तु अब हम इन्हें दो तत्व मानकर भी रचना के साथ न्याय नहीं कर सकते । हम इन दोनों को पृथक न मानकर सहित भाव का मानते हैं । भूमंडलीकृत विश्व में विभिन्न कारणों से आए परिवर्तनों के कारण, बदली जीवन पद्धति के कारण इधर के उपन्यासों में संवेदनात्मक स्फुरण अथवा रचनात्मक आवेग का स्थान घटनाएँ लेती हैं । इसी कारण घटनाओं के बाढ़ के बावजूद ‘मुन्नी मोबाइल’ हमारी नजर में 21 सदी के सर्वप्रमुख उपन्यासों में से एक है ।

(ADVT)
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           सन् 1989–90 के बाद के साहित्य को ध्यान से देखने और विचार करने के लिए रचनाकारों को दो वर्गों में विभक्त करके देखना होगा । जो रचनाकार इस अवधि के पहले से लिख रहे हैं और इसके बाद भी लिखते रहे हैं जिनके साहित्यिक विवेक का निर्माण इसके पहले हो चुका है और वे रचनाकार जो इसी कालावधि की उपज हैं । जो लोग 1990 के पूर्व अपना साहित्यिक विवेक अर्जित कर चुके थे उनमें सूचनाएँ अपना प्रभाव दिखाती हैं परन्तु उनके पूर्ववर्ती संस्कारों के कारण वह कम प्रभावी है । परन्तु जो साहित्य में 1990 के तीन–चार वर्षों के बाद से आ रहे हैं उनमें सूचनाएँ ज्यादा प्रभावी भूमिका निभाने लगती है । जैसे–जैसे आगे बढ़ते समय के साथ नये रचनाकारों का आगमन होता है वैसे––वैसे यह प्रक्रिया भी प्रभावी होने लगती है । 2000 के बाद आए रचनाकारों में और 1990 के बाद आए रचनाकारों से सूचनाओं का आतंककारी रूप ज्यादा है ।

           एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि आखिरकार इस विशेषांक में हमने किस आधार पर उपन्यासों का चयन किया है । जैसा कि ऊपर मैंने बताया कि विभिन्न घटनाओं का हमारे जीवन पर प्रभाव पड़ा है । एक देश के रूप में हम अलगाववाद, क्षेत्रीयतावाद, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता, बेरोजगारी, वृद्धावस्था, विस्थापन, मूल्यगत विस्थापन आदि अनेक समस्याओं से जूझ रहे हैं । विभिन्न रचनाकार अन्यान्य साहित्यिक विधाओं के माध्यम से इन समस्याओं को रेखांकित करते हैं । रचनात्मक उत्कृष्टता के साथ उपन्यासों के चयन में हमने विभिन्न समस्याओं को ध्यान में रखा । उत्तर–पूर्व और कश्मीर समस्या को केन्द्र में रखकर लिखे गए उपन्यासों को हमने इसीलिए अलग से एड्रेस करने की जरूरत महसूस की । यही कारण है कि समलैंगिकता को भी हमने अलग से सम्मिलित करना आवश्यक समझा । सुधीर चंद्र जी ने हमारे आग्रह और युग की जरूरत का मान रखते हुए इस विषय पर लिखा । विषयगत अथवा विभिन्न समस्याओं को ध्यान में रखने के बावजूद रचनात्मक उत्कृष्टता से हमने कोई समझौता नहीं किया । चयन का पहला आधार उसकी रचनात्मक उत्कृष्टता ही है । एक सम्पादकीय टीम के रूप में विचार–विमर्श तथा सुधी विद्वानों का सहयोग लेकर हमने यह चयन किया है । इसके बावजूद हम समझते है कि यह चयन आखिरी और आत्यंतिक नहीं है । अनेक विद्वान और पाठक अपनी समझ और पसंद के अनुसार विभिन्न रचनाओं को इसमें छूटा हुआ पाएँगे । इसके बावजूद हमने एक संतुलित चयन का यथा संभव प्रयास किया है । भारत में खुले बाजार की नीति 1991 ई में अपनायी गयी थी । इसी के साथ नए युग का सूत्रपात हुआ । हम पहले 1991 ई– के बाद के उपन्यासों को इस विशेषांक में रखना चाहते थे । परन्तु विचार–विमर्श के बाद हमने पाया (और इसका ऊपर जिक्र भी किया जा चुका है) कि रूस के विघटन का वैश्विक असर हुआ । इसी कारण हमने यहाँ शामिल उपन्यासों की कालावधि को दो वर्ष पीछे खिसका दिया । केवल एक उपन्यास इस अवधि की सीमा के भी बाहर का है । भीष्म साहनी के उपन्यास ‘मय्यादास की माड़ी’ का प्रकाशन सन् 1988 में हुआ था । अन्यथा सारे उपन्यास इसी कालावधि के हैं । प्रस्तुत उपन्यासों के साथ ही हम कुछ अन्य उपन्यासों से भी संवाद स्थापित करना चाहते थे । इसमें ‘विश्रामपुर का संत’, ‘काला पादरी’ आदि कुछ अन्य रचनाएँ हैं । परन्तु इन्हें जिन सुधी आलोचकों के सुपुर्द किया गया था वे अन्यान्य कारणों से इन उपन्यासों पर लिख नहीं पाएँ । हम इसकी कमी महसूस कर रहे हैं । इसके साथ प्रथम खंड में हम उपन्यासों के बदले भाषा और संरचना पर भी अलग से लेख चाहते थे परन्तु यह भी नहीं प्राप्त हो सका । खैर जो नहीं प्राप्त हो सका, अब उसका कुछ किया भी तो नहीं जा सकता । शायद हमारे आग्रह कुछ कम पड़ गए । कुछ आलोचकों की निजी समस्याएँ भी रही होंगी । हमें इसका भी भान है । इसके बावजूद यह अंक जरा भी सार्थक बन पाया हो तो यह हमारे लिए हर्ष और संतोष की बात होगी । तेजिन्दर का उपन्यास ‘काला पादरी’ पिछले लगभग 25 वर्षों में प्रकाशित उपन्यासों में महत्वपूर्ण उपन्यास है । यह उपन्यास हिन्दी को पहली बार इस रूप में आदिवासी क्षेत्रों में ले जाता है । तेजिन्दर जी ने बाहरी दुनिया से कटे समाज को अत्यंत सजीवता के साथ प्रत्यक्ष कर दिया है । इस आख्यान के ऊपरी सतह से उतर कर जब हम उसके केन्द्र में जाते है तो धर्म, उसके प्रतीक संकेतात्मकता के साथ ज्यादा प्रभावी रूप ग्रहण करने लगते हैं । यह उपन्यास हमें बेचैन कर देता है । हमारे सामने आधुनिक जीवन की त्रासदियों को रेखांकित कर देता है ।

विजय राय
(प्रधान संपादक)
लमही
vijairai.lamahi@gmail.com
लमही जनवरी-मार्च 2014

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