नारे विकास के हों, सपने भविष्य के हों, बातें सुशासन की हों, दावे कड़क कप्तानी के हों, तेवर टनाटन ओज के हों, और टीका हिन्दुत्व का हो, तो फिर और क्या चाहिए?
बहुत बाजा-गाजा है. बहुत धूम-धड़ाका है. बहुत शोर है. कानफाड़ू ज़हरीला शोर! मौसम आम के पेड़ों पर बौर आने का है, लेकिन इस बार इस आम चुनाव में सब बौरा रहे हैं! वही हो रहा है, जो नहीं होना चाहिए! वैसे जो हो रहा है, वह न होता तो शायद बड़ी हैरानी होती! ऐसा होगा, ऐसी धकपुक तो महीनों पहले से लगी थी! आख़िर यह कोई मामूली चुनाव नहीं है. यह बीस चौदह का चुनाव है! ऐसा चुनाव जो शायद फिर कभी न आये! नमो के लिए भी और आरएसएस के लिए भी! अजीब बात है. एक चुनाव है, क़िस्मत की दो चाबियाँ हैं! एक नमो के लिए, एक आरएसएस के लिए! निरंकुश आत्मसत्ता के सिंहासन पर आरूढ़, आकंठ आत्ममद में मदहोश, एक आत्मकेन्द्रित, आत्ममुग्ध व्यक्ति की चरम महत्त्वाकांक्षाएँ इस चुनाव में दाँव पर हैं! नमो आ सके तो आ गये, वरना फिर उनके लिए दोबारा कोई दरवाज़ा नहीं खुलेगा! और उधर दूसरी तरफ़ है, एक षड्यंत्रकारी सनक, एक पुरातनपंथी, फासीवादी विचारधारा, हिन्दू राष्ट्र की कार्ययोजना! आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी लगता है कि 1998-99 के बाद शायद यह दूसरा सुनहरा अवसर है, जो उसे दिल्ली की गद्दी पर क़ाबिज़ करा सकता है और वह हिन्दू राष्ट्र के अपने सपने को फिर कुछ नयी साँसें दे सकता है! संघ को लगता है कि इस बार तो नमो रथ की सवारी उसके मनोरथ को दिल्ली में मज़बूती से स्थापित कर सकती है! अबकी बार मोदी सरकार बन गयी तो हिन्दू राष्ट्र ज़्यादा दूर नहीं!
सब कुछ सामने है. दिख रहा है. लेकिन नहीं भी दिख रहा है! जब कुछ असुविधाजनक न देखना हो या डर के मारे कोई कुछ न देखना चाहे, तो आँखें बन्द कर लेना सबसे सुविधाजनक रास्ता होता है!
और अब जो हो रहा है, उसमें कुछ भी छिपा हुआ नहीं है! सब कुछ सामने है. दिख रहा है. लेकिन नहीं भी दिख रहा है! जब कुछ असुविधाजनक न देखना हो या डर के मारे कोई कुछ न देखना चाहे, तो आँखें बन्द कर लेना सबसे सुविधाजनक रास्ता होता है! कभी-कभी मदहोशी में, बेहोशी में, बौरायी हुई हालत में भी आँखें नहीं खुलतीं. कभी-कभी भक्ति में, तल्लीनता में, प्रेम के आनन्द में भी अकसर आँखें नहीं खुलतीं! और कभी-कभी तो तन्मयता की ऐसी स्थिति आती है कि आँखें खुली हों, तब भी कुछ नहीं दिखता. आदमी सोचता है, महसूस करता है कि वह सब देख रहा है, लेकिन आँखें कहीं और देख रही होती हैं और वह नहीं दिख पाता जो दिखना चाहिए था! सो बहुतेरी ऐसी स्थितियाँ हैं, जब जागती-खुली-सी लगनेवाली आँखें या तो सो जाती हैं या वे अपनी कल्पना के सुहाने दृश्य गढ़ कर आदमी के दिल-दिमाग़ को बहकाये रखती हैं!
अभी कोबरापोस्ट ने एक बड़ा स्टिंग आपरेशन कर दावा किया कि बाबरी मसजिद अचानक भारी भीड़ के उन्माद से नहीं ढही थी, बल्कि इसके लिए लम्बी तैयारी की गयी थी, कारसेवकों को अलग-अलग काम के लिए महीनों पहले से गहन ट्रेनिंग दी गयी थी और यह संघ की पूर्व नियोजित कार्रवाई थी! दावा यह भी किया गया कि उस समय के काँग्रेसी प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव को भी इसकी पूर्व जानकारी थी! वैसे इसमें हैरानी की कोई बात नहीं. संघ ख़ुद ही दावा करता है कि हर पार्टी में, यहाँ तक कि साम्यवादियों में भी उसके कार्यकर्ता घुसे पड़े हैं!
ज़ाहिर है कि संघ को अब मंज़िल बहुत निकट दिख रही है. और अगर इस चुनाव में संघ की कार्ययोजना के मुताबिक़ नतीजे आ गये तो विकास धुन गाते-गाते लोग मोहन भागवत की भविष्यवाणी के कुछ क़दम और क़रीब पहुँच जायेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं!
(लोकमत समाचार, 5 अप्रैल 2014)
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