तमंचे की नोक पर स्त्री लेखन और हाशिए उलांघती औरत - गीताश्री | Geetashree on Ramnika Foundation's Punjabi Kahani

तमंचे की नोक पर स्त्री लेखन और हाशिए उलांघती औरत 

- गीताश्री

समय बदला, तकनीक बदली, दुनिया की शक्लो सूरत बदल गई, रहन सहन बदल गए, जीवन शैली बदल गई, खान पान बदला... नहीं बदली तो स्त्री के प्रति भारतीय समाज की मानसिकता


 क्या साहित्य का काम सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय की बात करने का है ? इस आधार पर हमें धारा 377 की वकालत नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह समुदाय अल्पसंख्यक है और सामान्य भाषा में कहें तो गैरप्राकृतिक भी।
रमणिका फाउंडेशन परियोजना के तहत प्रकाशित कहानी ऋंखला “हाशिए उलांघती औरत-“ में पंजाबी कहानियों को संकलन है। इसमें कुल 18 कहानियों है जिसमें पंजाबी भाषा की सभी पीढ़ी की महिला कहानीकार शामिल हैं। आजादी से पहले, आजादी के बाद और समकालीन पीढ़ी की कहानियों से एक-साथ गुजरना मेरे लिए यातनादायक अनुभव रहा। अब तक हिंदी पट्टी के मर्म को समझती थी और उससे जूझती थी। अब ये एक और तकलीफ का सिरा मुझसे आ जुड़ा। एक स्त्री होने नाते ये कहानियों मुझे बहुत बेचैन करती रहीं। बेचैनी की बड़ी वजह, कहानियों में व्यक्त स्त्री की यातना और तकलीफें ही नहीं रही बल्कि उल्लेखनीय बात ये रही कि समय बदला, तकनीक बदली, दुनिया की शक्लो सूरत बदल गई, रहन सहन बदल गए, जीवन शैली बदल गई, खान पान बदला... नहीं बदली तो स्त्री के प्रति भारतीय समाज की मानसिकता जो आज भी औरतो को औरत बनाए रखने की हिमायती है। आज भी जुल्मों गारत जारी है। आज भी स्त्री को लेकर वही रवैया दिखाई पड़ता है जो आजादी के समय या उसके बाद के समाज में था। हैरानी की बात है कि बदलते समय के साथ रवैये में फर्क नहीं पड़ा। फिर हम किस बदलाव की बात करते हैं। हम क्यों खुश होते हैं कि समाज बदल गया। स्त्रियों के प्रति समाज बहुत उदार हो गया है। आगे हम एक एक कर कहानियों पर बात करेंगे और बहुत से सवाल उठाए जाएंगे।
 जिस मानसिकता का विरोध 19 वीं शताब्दी में हुआ, क्या उसमें आज हम कोई बदलाव देखते हैं ? क्या कोई बदलाव हुआ है? समाज या साहित्य कही भी? 
          हम एक बार पंजाब के समाज पर भी नजर डालें। कुछ रमणिका जी के संपादकीय को पढ़ कर तो कुछ अपने घुमंतु अनुभवो से जाना कि पंजाबी समाज भी पितृसत्तात्मक समाज है। वही स्त्री को स्त्री बनाए रखने की कवायद, बेमेल शादियां, पुत्रमोह में औरतो पर जुल्म, औरतो की खरीद फरोख्त, यौनिक हिंसा और भ्रूण हत्याएं और यौन शुचिता के प्रति वहीं आग्रह।

          ऊपरी तौर पर हमारा इंप्रेशन थोड़ा अलग रहा है कि पंजाबी समाज में खुलापन बहुत है, वहां स्त्रियां बहुत खुली होती हैं। खासकर पिछड़े इलाके से आने वाले भारतीयों के मन में पंजाबी समाज की छवि एकदम खुले समाज की है जिन्हें लगता है कि यहां की लड़कियां “इजीली एवेलेबल” होती है और पंकज दूबे के उपन्यास “लूजर कहीं का” के नायक की तरह गैर पंजाबी लड़के पंजाबी लड़कियों के साथ सोने के सपने लेकर आते हैं।

          जब वे विफल होते हैं, तो पंजाबी लड़की को चरित्रहीन होने का सर्टिफिकेट थमा जाते हैं। “लूजर कहीं का” उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा ही लिजलिजा अहसास होता है। पंजाबी लड़कियों के प्रति इतनी अभद्र छवि बनाने में  मर्दवादी साहित्य का भी बड़ा योगदान रहा है।

          लेकिन हमें जरा सुनी सुनाई लोक-छवियों से ऊपर उठ कर पंजाबी समाज और उनकी स्त्रियों के बारे में सोचने की जरूरत है कि क्या सचमुच वहां स्त्रियां अन्य समाजों की तुलना में बहुत खुशहाल और आजाद हैं। या अब तक हम मनगढ़ंत लोक छवियों पर ही आंख बंद करके विश्वास करते रहे हैं। किसी भी समय और समाज के सच को जानना हो तो उस देश, उस काल खंड का साहित्य पढ़ लीजिए।

          इस संकलन की कहानियों को पढ़ते हुए अब तक मेरे दिमाग में बनाई गई सारी छवियां ध्वस्त हो गई।
अपने संपादकीय में रमणिका जी लिखती है—“पंजाबी साहित्य में स्त्री विमर्श और प्रतिरोध की शुरुआत काफी पहले हो चुकी थी। इसमें एक उल्लेखनीय नाम पीरो प्रेमन का है। उनका जन्म 1830 में हुआ था । वे उस जमाने में अपनी कविताओं के माध्यम से पुरुष सत्ता का विरोध करती थीं और महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठाती थीं। 19 वीं शताब्दी में नारी के लिए पुरुषों के समान हक की मांग करना उस समय के समाज के लिए एक दुस्साहस की बात थी।“

हाशिए उलांघती औरत
पाँच खंड: तेलुगु, प्रवासी, पंजाबी, मराठी व गुजराती
मूल्य Rs.200/- (प्रति खंड)
संपर्क: sampadak@shabdankan.com

          मैं रमणिका जी की इस स्थापना से सहमत हूं, लेकिन उसके साथ कई सवाल भी जुड़े हैं। जिस मानसिकता का विरोध 19 वीं शताब्दी में हुआ, क्या उसमें आज हम कोई बदलाव देखते हैं ? क्या कोई बदलाव हुआ है? समाज या साहित्य कही भी? इन कहानियों को पढ़ते हुए सिर्फ विरोध का स्वर सुनाई देता है, बदलाव नहीं। कहीं बदलाव दिखता भी है तो वह चोरी चोरी हासिल किया हुआ बदलाव है, समाज-स्वीकृत बदलाव नहीं है। यानी समाज अब भी वैसा ही, सदी बदलने के बाद भी। विरोध के स्वर सदियों से एक से हैं। वो समकालीन कहानी में भी वैसा ही है जैसा पुरानी कहानियों में। किसी किसी कहानी में विरोध का स्वर इतना धीमा है कि कोफ्त होती है। संकलन का नाम हाशिए उलांघती औरत है लेकिन कुछ कहानियों में स्त्री हाशिए पर ही पड़ी दिखाई दे रही है। वह ना आवाज उठा पाती है न दहलीज लांघ पाती है। पंजाबी समाज को मध्ययुगीन परंपराओं में जकड़े हुए देखना, निसंदेह एक तकलीफ देह अनुभव है।

          हम अलग अलग खंड की कहानियों पर बात करेंगे। अमृता प्रीतम से लेकर परेवज संधु और प्रीतम कौर तक की कहानियों पर बात करेंगे। हम सवाल उठाएंगे कि क्या सचमुच समाज एकदम नहीं बदला या हमने उसे बदलते हुए देखा नहीं या देख कर भी कहानियों में स्वीकारने का साहस उस तरह से नहीं उठाया जैसा हिंदी कहानियां उठा रही हैं। हिंदी कहानियां चाहे जितनी लताड़ी जाए, दुरदुराई जाएं, कम से कम उनमें सच को कहने का और उससे भिड़ने का साहस तो है। यहां हम तुलना करके किसी को कमतरी का अहसास नहीं दिलाना चाहते बल्कि हम उकसा रहे हैं कि भूमंडलीकरण के बाद सारे समाज में एक साथ बदलाव आए, हमें उन्हें स्वीकारने और चिन्हित करने की जरुरत है। हम क्यों आज भी वही कहानी लिखें जिसमें कूटती पिटती स्त्री, पुरुष के आगे गिड़गिड़ाती रहे। हम क्यों न एक सीमा के बाद उसमें हाशिए उलांघने का साहस भरे। हमारे हाथ में जो है वो हम करें।

          अशोक वाजपेयी ने कहा था कि "हम जानते हैं कि हमारे लिखने से कुछ नहीं बदलता लेकिन हमें उसी तरह लिखऩा है कि हमारे लिखने से समाज बदल जाएगा।"

          मैं लेखन को इसी तरह के बदलाव का माध्यम मानती हूं इसलिए प्रीतम कौर की कहानी में पिटती कूटती कराहती स्त्री की दयनीय हालत को पढ़ कर बौखला उठती हूं।

          नए दौर की कहानीकार प्रीतम कौर की कहानी है –“मंदा किस नूं आखिए।“

          मैं इस दौर में कम से कम इस तरह की लाचार कहानी की उम्मीद नहीं कर सकती। मैं कहानी के शिल्प पर कोई बात नहीं करेंगी पर कहानी का कंटेट बहुत मायने रखता है हमारे लिए।

          एक कहानी है वरिष्ठ कथाकार अनवंत कौर की-“चंद्र ग्रहण।“

          दोनों कहानियां लंबे अंतराल पर लिखी गई हैं। दोनों का समाज बहुत मिलता जुलता है। उनमें सिर्फ समय बदला है, चरित्र नहीं। वह जुल्मी लोग साठ साल पहले भी स्त्रियों पर जुल्म ढा रहे थे, आज भी दूसरे रुप में मौजूद हैं। आततायियों को अमरता का वरदान प्राप्त होता है। वे हर देशकाल में अपनी बबर्रता के साथ मौजूद रहते हैं। प्रीतम कौर की कहानी में नायिका सालों तक पति और सास की बर्बरता का शिकार होती है, उसकी नवजात बेटी तक की हत्या कर दी जाती है उसकी आंखो के सामने, फिर भी उसी घर में घुटती रहती है, इस इंतजार में कि कोई उसके मायके से आए, उसे आजाद कराए। ये मसीहा का इंतजार करने वाली नायिकाएं हम आज के वक्त में क्यों गढ़ रहे हैं। हमें नायिका का पुरजोर विरोधी स्वर क्यों सुनाई नहीं पड़ता। क्यों वह बिलखती रहती है, गिड़गिड़ाती हुई दिन काटती है। क्यों स्त्रियां पूरी जिंदगी उस पुरुष के साथ बिता देती हैं जिसे वे प्यार नहीं करती या जो उनका चयन नहीं है। कहानियों में इन पर बात जरुर होनी चाहिए। हम सिर्फ स्त्रियों की लाचारी की बात करके अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं।

क्या हम कहानीकार के लिए “मनुस्मृति” की तर्ज पर कोई “साहित्य-स्मृति” तैयार करने के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं?
          “चंद्र-गहण” कहानी में उपेक्षित नायिका को भी बार बार कोसा जाता है। यह नायिका प्रीतम कौर की नायिका से चार कदम आगे पढ़ने का साहस रखती है, आगे बढ़ती भी और अपनी दैहिक जरुरतो के लिए सीमा रेखा भी लांघती है। पर वह अन्य टिपिकल औरतो की तरह अपने यौन शुचिता की ग्रंथि से बाहर नहीं निकल पाती है। यौन शुचिता का आग्रह भारतीय स्त्रियों की नस नस में समाया हुआ है। यह मर्दवादी सत्ता का पढाया हुआ ऐसा पाठ है जिससे उनकी मुक्ति कभी संभव नहीं जान पड़ती है।

          यौन शुचिता के मामले में औरतो के दिमाग की इतनी कंडीशनिंग की गयी है कि अब औरते ही पहरेदार की भूमिका में आ गई हैं। वे अपनी पहरेदार खुद हैं। उनकी देह खास है, तिजोरी में रखा खजाना है, पंडित की रसोई है, उन्हें संभाल कर रखना ही उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा लक्ष्य करार दे दिया गया है। इसके लिए अपनी पीठा थपथपाने वाली औरतो की कमी नहीं है।

          यौन शुचिता का ऐसा आग्रह नहीं होता तो काना सिंह की कहानी “मारिया” की नायिका अपना सारा ध्यान अपने शुचिता और कौमार्य की सुरक्षा में ही न लगा देती। नायिका अपने पिता को वचन देती है कि वह इनकी रक्षा करेगी। देखिए, कैसे स्त्री की दैहिक कामनाओं पर पितृसत्ता का कब्जा है जिसे खुद स्त्री ही ढो रही है। उसके जीवन में कई युवक आते हैं, वह बिदकती रहती है। वह एक सामान्य स्त्री की तरह भी अपनी कामनाओं को जी नहीं पाती। अंत में वह साथी चुनती है, अपने पहले प्रेमी को अपने जीवन में वापस लाती है। प्रेम शायद नैतिकता का सबसे बड़ा आवरण है यहां जिसे ओढ़ कर कथित गुनाह को पुण्य में बदला जा सकता है।

          भारतीय समाज में शुचिता का आग्रह इस हद तक है कि अपनी देह को लेकर स्त्री कभी सामान्य जीवन नहीं जी पाती। चाहे आप महिला कहानीकारों की कहानियों देख लें... भय इतना कि कहानियों में भी भाषा की ओट लेना पड़ती है। जिसने परदा हटाया, वो घिनौनी आलोचना का शिकार हुई। दुख तो तब होता है जब मर्दवादी भाषा स्त्री की कलम से निकले और स्त्री की पूरी अस्मिता को चीरती हुई पार हो जाए। यह भी आलोचना का मर्दवादी पाठ है।

          यहां इस संकलन की एक कहानी इसी तरह की मानसिकता के विरुद्द उठ खड़ी होती है। रश्मिंदर रश्म की कहानी “आदि कुंवारी।“ बचपन में बलात्कार की शिकार एक लड़की को कभी सामान्य नहीं होने दिया जाता। नायिका जीवित देवी बना दी जाती है। दिन में देवी और रात में पर पुरुष की बांहो में गुजारती है। जिस तरह पुरुष परस्त्री-गमन गौरव के साथ करते रहे हैं, कुछ कुछ उसी तरह कहानी की नायिका करती है। रात गुजारने के बाद उस अपने जीवन से निकाल फेंकती है, ठीक वैसे ही जैसे अब तक पुरुष सत्ता करती रही है। रात गई, बात गई की तर्ज पर।

          यहां एक स्त्री को हाशिया उलांघते देख रही हूं। पर जानती हूं कि पंजाबी समाज क्या, समूचा भारतीय समाज ऐसी दुस्साहसी स्त्री को स्वीकारने को तैयार नहीं है। ये कहानी कई “सो कॉल्ड बोल्ड” कहानियों पर भारी है, अब चाहे आप इस पर कितनी भी गोलियां दागते रहें, बंधु, तमंचे पर कहानियां लिखने का दौर क्यों लाने पर आमादा हैं आप लोग ?

          हो सकता है, कुछ लोग सवाल उठाएं कि समाज में ऐसा नहीं होता। यह मनगढ़ंत कहानी है। या लोग कहे कि यह समाज के 98 प्रतिशत हिस्से का सच नहीं है।

          मैं यहां दो सवाल पूछना चाहती हूं, जिसे मेरा जवाब भी माना जा सकता है— कि क्या साहित्य का काम सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय की बात करने का है ? इस आधार पर हमें धारा 377 की वकालत नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह समुदाय अल्पसंख्यक है और सामान्य भाषा में कहें तो गैरप्राकृतिक भी। सवाल ये नहीं कि आप इसके पक्ष में खड़े हैं लेकिन सवाल ये है कि आप उनके विरुध्द भी क्यों हो? यहां आप अदालत की भाषा में बात करेंगे तो आपकी उदारता कहां गई? क्या समाज के 2 प्रतिशत का सुख साहित्य के लिए मायने नहीं रखता? आखिर वे भी आपके समाज का हिस्सा है और ये प्रवृतियां समाज के दोगले रवैये की वजह से उभरी हैं। हमें इन पर बात क्यों नहीं करनी चाहिए ? क्या सच से परदा उठने से आपको तकलीफ है, आंख मिलाने के साहस का अभाव है या सुख का कोई सिरा हाथ से छूट जाने का अफसोस? सोचिएगा इस पर। कोई तो बात है कि ऐसी कहानियों चुभती हैं आंखों को और जो करते हुए नहीं हुआ, वो पढ़ते हुए आपका जी “कैसा कैसा तो” हो जाता है।

          यहां सवाल यह भी है कि कहानी क्या सिर्फ यथार्थ का चित्रण है, लेखक को छूट लेने की आजादी नहीं होनी चाहिए? वह बंधे बंधाए फ्रेम में ही काम करता रहे? वह पुरखो द्वारा तैयार आचार संहिता का पाठ पढ़ कर कहानी लिखे? क्या हम कहानीकार के लिए “मनुस्मृति” की तर्ज पर कोई “साहित्य-स्मृति” तैयार करने के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं?

          मित्रो, जैसे आवाज एक दिगंबर परिकल्पना है, वैसे ही कहानी भी एक दिगंबर परिकल्पना है।

          बहरहाल,

          इस संकलन में अनेक कहानियां हैं जिन पर विस्तार से बात हो सकती है। फिलहाल कुछ उल्लेखनीय कहानियां जो इस ऋंखला को सार्थक साबित करती है उनमें मैं नाम लेना चाहूंगी— परवेज कौर संधु की कहानी “सौतन,” वंचित कौर की कहानी “विषधर”, कुलबीर बडेसरो की कहानी “कब आओगी-“ और जागीर कौर संधु की कहानी “अब मैं तेरी बीबी नहीं हूं”..का।

          ये तीनो ही कहानियां स्त्री प्रतिरोध की कहानियां हैं, जिनमें उनका विरोधी स्वर मुखर होता है, उनके बयानो में भी और उनकी करनी में भी। यहां अपनी शर्तो पर जिंदगी जीने वाली साहसी औरतें हैं। उनमें देह के प्रति लालसा है तो देह को औजार न बनने देना का माद्दा भी है। यहां भी मर्द साथी की तलाश में भटकती रुहे हैं और प्यार मे डूबने को आतुर आत्माएं भी। पुरुष सत्ता को जूते की नोंक पर रखते हुए अपनी मरजी से जीवन जीने का साहस भी है, तो बकौल जसविंदर कौर (संपादकीय) घर के लिए ललकती, तरसती अत्यंत संवेदनशील, भावुक स्त्रियों का संसार भी।

          कहानी आखिर परनिष्ठ होती है। इसके जरिए हम दूसरो को जानते हैं। कोई भी कहानी बेमतलब नहीं होती। कहानी के जन्म के साथ कोई न कोई विश्वास जरुर जुड़ा रहता है। इस विश्वास को बचाना जरुरी है और उसके लिए बेखौफ होकर लिखने की जरुरत है। जाहिर है, ऐसा करते हुए बहुत कुछ टूटेगा, फूटेगा..

          विवेकानंद को याद करते हुए अपनी बात खत्म करुंगी। जीवन के उद्देश्य के बारे में उन्होंने था कि...”हम यहां किलसिए आए हैं। हम यहां मुक्ति के लिए, ज्ञान प्राप्त करने के लिए,  आए हैं। हम अपने को मुक्त करने के लिए ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, प्रकृति चारो ओर से हमें दमित करने का प्रयत्न कर रही है। और हमारी आत्मा अपने आपको अभिव्यक्त करना चाहती है। मुक्ति के लिए इस संघर्ष में बहुत सी वस्तुएं कुचल जाएंगी और टूट जाएंगी।“

          लेखन में हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए।


- गीताश्री

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा