शब्द भर जीवन उर्फ दास्तान-ए-नगमानिगार - प्रेम भारद्वाज | Shabd bhar jivan... Kahani - Prem Bhardwaj

शब्द भर जीवन उर्फ दास्तान-ए-नगमानिगार

प्रेम भारद्वाज

‘नाटक का अभिनेता उसे ही सच मानता है जो हो रहा है। लेकिन जीवन में जो हो रहा है उसे नाटक समझना चाहिए। ...जीवन कोई नाटक नहीं जिसे खेला जाए बार-बार।’
झुर्रीदार चेहरा, झुकी कमर, घनी पकी-सफेद दाढ़ी और बेतरतीब बालों वाला वहां कोई बूढ़ा नहीं था... बैकड्राप में कोई खंडहर, सूनी हवेली, उजाड़ आदत में शुमार हो चुका था।

          उस कमरे में था क्या, जरा इस पर भी एक नजर डाली ली जाए। तंग कमरे में कंप्यूटर, टेबल, पुराना लैंप और लकड़ी का सस्ता पुराना सोफा। जमीन पर बुक शेल्फ के साथ लगा गद्देदार बिस्तर, दीवारों पर चित्रों के शक्ल में टंगे फैज, नामवर सिंह, प्रभाष जोशी। ढेर सारी किताबें, कागज, कलम, फाइलें... बुझी सिगरेट के टुकड़े, राख, माचिस...। छोटा सा रेडियो, टीवी..., पत्रिकाएं... और कुछ पांडुलिपियां। इसी माहौल में मुझे सहसा उस शख्स की बेतहाशा याद आ रही है जो अपनी कविताओं में रची शब्दों की दुनिया की चौहद्दी को तोड़कर एक पात्र बन गया। 18 फरवरी का सर्द दिन। मंडी हाउस के कमानी ऑडीटोरियम में साहित्य अकादमी पुरस्कार बांटे जा रहे थे। मुझे भी जाना था, कुछ सोचकर नहीं गया। गिने-चुने वही चेहरे... मिलने-जुलने का वही बेजान अंदाज... रस्म-ओ-रिवाज की घेरेबंदी में छटपटाते संबंध, सभ्यता, शालीनता, बौद्धिकता के महानगरीय चिनार। रोशनी, उत्साह, स्वीकृति, मान्यता और इतिहास में दर्ज करने को बांटे जा रहे प्रमाण पत्र, प्रशस्तियां, तालियां, गर्व, दर्प। सब कुछ उजला, साफ-शफ्फाक और इधर यहां बेजार कमरे में धुआं-धुआं सा। छत पर लटका रहा उदास पंखा खामोश है। खिड़कियां, दरवाजे बंद है। ऐसा नीचे सड़क से गुजरने वाले वाहनों के शोर को कम करने के लिए किया गया है। और सर्द हवाओं के प्रभाव को कम करने के लिए भी। वैसे भी यह महानगरीय सलीका है कि घरों के दरवाजे-खिड़की बंद ही रखे जाएं। यह सुरक्षा और शऊर से ज्यादा छीजते संवेदना-सरोकार और सामाजिकता का मामला है जहां जिंदगी एक प्राइवेसी से प्रारंभ होकर दूसरी प्राइवेसी पर खत्म हो जाती है।

          सहसा कंपन महसूस हुआ। भूडोल का एहसास। हवाएं तेज हो गईं। बवंडर चलने लगा। पुस्तकें भर-भराकर शेल्फ से जमीन पर गिर पड़ीं। कमाल तो यह हुआ कि पन्नों में ठिकाना पाए शब्दों को भी जैसे वहां से देश निकाला मिल गया... वे विस्थापित हो गए। जिस पांडुलिपि पर लिखा था - ‘इस नाउम्मीदी की कायनात में’ उसके पन्ने सबसे ज्यादा फड़फड़ा रहे थे। शब्द, उनमें छिपी संवेदनाएं, दर्शन, स्मृति, संघर्ष, इतिहास, आवेग, आकांक्षा, उम्मीद, जिजीविषा सक कुछ कमरे में तैर रहे थे।

          मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब हो क्या रहा है। अपनी सांसें रोककर आगे क्या होने वाला है, उसका इंतजार करने लगा।

          टीवी ऑन किया। सबसे तेज चैनल चल रहा था... वहां भी भूकंप की खबर ब्रेकिंग न्यूज के तौर पर चल रही थी। एंकर ने इतनी देर में किसी भूकंप विशेषज्ञ को भी बुला लिया था। खबर थी राजधानी में एक खास तरह का भूकंप और तूफान। यमुना का सबसे बड़ा पुल ध्वस्त हो गया है... बाकी भवन सुरक्षित हैं। यह अजीब भूकंप है, सिर्फ पुल टूट रहे हैं। अभी खास खबर आई है कि यमुना पर खड़े तीन और पुल भी टूट गए। लोग रेंगते हुए आगे बढ़ रहे हैं।

          विशेषज्ञ की टिप्पणी-‘लोगों से निवेदन है कि वे घरों, अपने कमरों से बाहर न निकलें... इमारतों को कोई खतरा नहीं है... इस भूकंप में सिर्फ पुल टूट रहे हैं... इस तरह का भूकंप पहले कभी नहीं आया। फिलहाल इसे हम समझने की कोशिश कर रहे हैं।’

          एंकर के चेहरे पर सहसा और अधिक उत्तेजना के भाव उभर आए-‘अभी-अभी एक खास तरह की खबर मिली है जिसे सबसे पहले हम ही आप तक पहुंचा रहे हैं... वह यह कि राजधानी के चौराहों पर लगी और मंदिरों में रखी मूर्तियां टूट रही हैं... दीपक बुझ गए हैं... फूल सूख गए हैं... यह एक चमत्कारिक घटना है... बहुत जल्द ही हम कोशिश करेंगे कि हम उन टूटी हुई मूर्तियों को आपको दिखाएं... ज्योतिषाचार्य बता रहे हैं यह प्रलय नहीं, एक ईश्वरीय चेतावनी है।

          पुलों और मूर्तियों के टूटने से राजधानी में हाहाकार मच गया। लोग सड़कों पर भाग रहे थे... जो यमुना पार थे वे अपने घरों में कैसे लौटें? जो यमुना पार आ गए, वे वापस केंद्रीय दिल्ली कैसे लौटें। आरती का समय हो रहा था और मंदिरों में मूर्तियां औंधे मुंह गिरी पड़ी थीं, क्या करें भक्तगण?

          एंकर के चेहरे पर उत्तेजना बढ़ी-‘दर्शकगण ध्यान दें अभी-अभी खबर मिली है कि पुस्तकालयों में रखी पुस्तकें गिर रही हैं... उनके पन्ने बहुत तेजी के साथ फड़फड़ा रहे हैं... हम अब अपने विशेषज्ञ से जानने की कोशिश करेंगे जो बहुत बड़े वैज्ञानिक हैं... यह क्या हो रहा है?’’

          जो कुछ हो रहा है, वह मेरी समझ से परे है ...मैं कोई भी राय नहीं बना पा रहा हूं... मुझे माफ करें। शायद कोई अनिष्ट हुआ है। प्रकृति और ईश्वर उसका बदला ले रहा है या ईश्वर कोई जादू कर रहे हैं। जादूगर किसी का नुकसान नहीं करता मगर अपनी कला-कौशल का पता दे देता है कि जो तुम्हारी समझ और ज्ञान की हद है वह नाकाफी है... मुझे माफ करें मैं जा रहा हूं।’

          विशेषज्ञ जा चुके थे। एंकर लगातार खबरें दे रहा है। हालात असमान्य है।

          इस माहौल और इस खास क्षण में उस कवि का जीवन याद आ रहा है-जिसके अंतिम अध्याय का एक हिस्सा रहा हूं मैं। वे कौन?...

          संकल्पनाओं के टूटने और प्राथमिकताओं के बदलने के दौर में वह आदमी जैसे ही कुछ थे। मेट्रो के विस्तार और गाड़ियों की संख्या में बढ़ोतरी के बरक्स विकल्प बहुत तेजी से सिमटकर खत्म होने के कगार पर पहुंच गए थे। वे मेरे अग्रज और दोस्त, दोनों थे। उनमें न परंपरा की गांठें थीं, न इतिहास की उलझनें। नई सत्ताओं और गठजोड़ के बनने-बिगड़ने के क्रम में रौंदी जा रही संवेदना से दुःखी होकर वह अपने भीतर के वीराने में किसी खरगोश की तरह दुबके रहते। मगर रहते बेचैन ही। राजधानी में आने से पहले आदमी थे, यहां आते ही आदमी जैसे कुछ हो गए। उनकी आत्मा पर जम रही गर्द की सतह दिन-ब-दिन मोटी होती चली गई।

          उनका नाम वसंत कुमार था। उनकी कई खासियतें थीं जिसके कारण समय-समाज के प्रचलित खांचे में वे फिट नहीं बैठते थे। वे सबसे कम खुद पर बोलते थे और सबसे अधिक विसंगतियों पर। कुछ था ऐसा उनमें जो कहीं और नहीं था। वे जिद्दी नहीं थे मगर फैसले जल्दी लेते थे। और उन पर डटे भी रहते। उनके ही लिए गए फैसलों ने उन्हें जिंदगी में तनहा कर दिया। एक दिन उन्होंने कहा था-‘मेरा एक सपना है मैं कविता की तरह ही जिंदगी रचना चाहता हूं।’

          ‘जिंदगी जी जाती है।’ - मैंने प्रतिवाद किया?

          ‘मैं रची हुई जिंदगी को जीना चाहता हूं।’

          ‘उम्मीद करता हूं... आप ऐसा कर लेंगे।’

          ‘उम्मीद शायद सही शब्द नहीं है।’

          ‘जानता हूं। लेकिन इस शब्द का विकल्प नहीं है... और ‘शायद’ भी सही शब्द नहीं है।

          ‘शायद।’

          उन्होंने आगे कोई बहस नहीं की। वे एक साथ बहुत सारी बातें सोचते थे। मैं एक वक्त में एक ही बात पर केंद्रित होकर सोच पाता था। मैं उनको जानता कम, समझता ज्यादा था। जानने और समझने के अलावा भी एक जरूरी चीज होती है मिलना, जिसका सिर्फ तिथिगत महत्व ही होता है। लेकिन उनसे मिलने से पहले मैं नहीं जानता था कि इस ब्रह्माण्ड, वृहत्त तथा अपरिमित सृष्टि में अपने पिता के वीर्य से भ्रूण में कब बदले। कब उनकी माता ने उनको जन्मा... उनकी पहली भूख, पहली प्यास... पहला दुःख और पहली खुशी से अनभिज्ञ था मैं। अभावों के उस संत्रस से भी नावाकिफ था जिसमें सांस लेते हुए वे पहले रेंगे, फिर घुटनों के बल चले और एक दिन दौड़ना सीख गए। लेकिन यह भी खूब विडंबना रही कि वे अपाहिज न होते हुए भी ताउम्र रेंगते रहे... दौड़ नहीं पाए। कहीं भी जल्दी न पहुंच पाने की पिछड़ी चेतना ने उनकी गति छीन ली।

          वे खुद से अजनबी थे। स्वयं से बहुत दूर छिटके हुए। सामाजिक रूप से भी अलग-थलग... हाशिए पर। एक दिन उन्हें बुखार था जब मैं मिलने गया, मेरा हाथ पकड़कर बोले-‘न जाने क्यों तुमसे यह कहने को जी चाह रहा है कि मैं स्वयं के भीतर अपने को एक मुर्दा सा महसूस करता हूं... एक अंधेरे बंद कमरे में धकेल दिया गया हूं। कोई है जो मुझे पीट रहा है... मैं दर्द से बेहाल हूं... मगर पीटने वाले शख्स के चेहरों को नहीं देख पा रहा... मुझे अपनी सांसों में अनगिनत मुर्दों की बदबू महसूस होती है मनीष भाई।’ जब वे बहुत भावुक हो जाते थे तो मेरे नाम के आगे भाई शब्द जोड़ देते। उनकी बातें सुनकर मुझे ‘डार्क कार्नर’ और दिलीप कुमार की ‘फुटपाथ’ दोनों फिल्मों के नायक और उनके संवाद याद आ गए।

          एक दिन हम साथ खाना खा रहे थे। खाना उन्होंने ही बनाया था। थाली सामने रखी थी और वे शून्य में नजरें टिकाए कुछ सोच रहे थे। कोई सवाल करना मैंने मुनासिब नहीं समझा। थाली में रखी रोटियों को छू कर बोले-‘इस रोटी की मुझसे ज्यादा दूसरों की जरूरत है... न जाने इस रात कितने लोग होंगे जो भूखे सो गए होंगे और यहां रोटी के साथ दो सब्जी, खीर भी है...।’

          उस रात हमने खाना नहीं खाया। भूखे सोने चले गए। हम रात भर एक दूसरे के करीब सोते और करवट बदलते हुए भूख की बेसब्री को महसूसते रहे।

          जब मैं उनसे मिला और उनके भीतर उतरा तब जाना कि वे कई मोर्चों पर लड़ते हुए अकेले पड़ चुके थे। प्रेम उनकी नसों में जहर बनकर उनके भीतर फैल चुका है...। मोहभंग मौन था। प्रतिबद्धता को पेशाब बनाकर वे टॉयलेट में रोज थोड़ा-थोड़ा बहा रहे थे। वे बोलते कम, चलते ज्यादा और पहुंचते कहीं नहीं थे।

          समय के रंगमंच पर बेहद संक्षिप्त भूमिका थी उनकी, मगर थी बहुत असरदार। इतना कि दर्शक तालियां बजाना भूल जाते... घर लौटने पर वह पात्र सपनों में आता। नींद खुलने पर सपना टूटता और आंखें नम हो जातीं। सिरहाने का तकिया भीगता चला जाता... सुबह अपना बिस्तर सजी हुई चिता का भ्रम पैदा करता।

          वे आदमी जैसे ही कुछ थे जो पुस्तकें पढ़ने को खाना खाने से ज्यादा जरूरी समझते थे। राजधानी दिल्ली में वे हर महीने अपनी प्रिय पुस्तकें खरीदने प्रकाशक के पास पहुंच जाते। चुप्पा की तरह। बोलते कुछ भी नहीं, पुस्तकों की सूची सौंपते... पुस्तकें लेते... पैसा चुकाकर वापस लौट जाते।

          एक दिन प्रकाशक के मित्र, जो एक प्रमुख साहित्यिक पत्रिका के संपादक थे, ने टोका -

          ‘तुम रिसर्च कर रहे हो।’

          ‘नहीं।’

          ‘किसी विश्वविद्यालय में एम०ए० की पढ़ाई कर रहे होगे।’

          ‘नहीं।’

          ‘क्या करते हो फिर?’

          ‘दसवीं पास हूं, एक दुकान पर ग्राहकों को पानी पिलाता हूं।’

          ‘वेतन कितना मिलता है।’

          ‘तीन हजार।’

          ‘दिल्ली में जीना हो जाता है, भर जाता है पेट।’

          ‘अन्न से नहीं भरता तो शब्दों से भरता हूं।’

          ‘खाने से पढ़ना ज्यादा जरूरी है सर जी।’

          ‘लगता है साहित्य में बहुत रुचि है।

          ‘वह मेरी आत्मा में समाया हुआ है।

          ‘लिखते हो।’

          ‘जिन शब्दों को गढ़ता हूं वे कविता के करीब है।’

          ‘नाम’

          ‘वसंत कुमार।’

          ‘मेरा ऑफिस दरियागंज में है, मिलना कभी।’

          उनका पता नोट कर लिया। यह जानते हुए भी कि इस महानगर में रोशनी का अर्थ अंधेरा है और चलने का मतलब जड़ हो जाना। इच्छाएं भूख की तरह बेसब्र हैं। इस ऐतिहासिक-पौराणिक नगर में पुराने किलों खंडहरों से कहीं ज्यादा ध्वस्त हुए महत्वाकांक्षाओं के मजार हैं। असंख्य डरावनी रातों के सिलसिले में भय सांप के किसी खोह में दुबका पड़ा है। हर शख्स की उम्र पर वक्त का विषैला बिच्छू रेंग रहा है। दिशाएं चाल चल रही है। चमत्कार बेअसर, मृतप्राय हो गए हैं। ऐसे में वह ग्लोब को धीरे-धीरे घुमाते, दुनिया के बड़े से नक्शे को अपने तंग कमरे में फैलाकर अपने संसार का मानचित्र बनाते रहते इस जिद के साथ कि वह एक दिन आकाश का अनंत जरूर जीत लेंगे।

          शायद यही उन्होंने गलती कर दी। समय की हथेली पर खिंची जटिल रेखाओं की भाषा नहीं पढ़ पाए। सवालों-शंकाओं के अरण्य में भटकते वह मनुष्यता की पगडंडी को ढूंढ़ने में लगे रहे। तारीखों की गठरी में भविष्य तलाशते रहे। लेकिन गठरी की गांठ इतनी सख्त थी कि वह खुली ही नहीं।

          सब कुछ उस इतिहास में दर्ज होने जा रहा था जो कभी नहीं लिखा जाने वाला था। उनसे मेरी पहली मुलाकात का वाकया लोगों को सामान्य लगने वाली एक बात हो सकती है। लेकिन मेरे लिए वह घटना अहम थी।

          अप्रकाशित तथ्यों के बीच छिपे रहने की मेरी युवा सोच ने करवट बदली। खुद को प्रकाशित करवाने की इच्छा एक सुबह महत्वकांक्षा में ढल गई। हिंदी अकादमी का विज्ञापन उस सुबह मुझे अखबार में दिख गया जिसके बगल में चलती कार में युवती से बलात्कार की खबर छपी थी। विज्ञापन का लब्बो-लुआब इतना भर था कि जो युवा अपनी पांडुलिपि को प्रकाशित करवाना चाहते हैं उनको हिंदी अकादमी इस काम में आर्थिक मदद करेगी।

          कई बसें बदलने, मोड़ मुड़ने, पैदल चलने और कई लोगों से पता पूछकर... मैं जब हिंदी अकादमी पहुंचा तो उस सर्दी के महीने में भी पसीने से तर हो गया था। जब खुद को प्रकाशित करवाने की अपनी इच्छा से वहां के किसी कर्मचारी को अवगत कराया तो उसने वसंत कुमार से मिलने को कहा। ‘वे कहां मिलेंगे’ पूछने पर जवाब मिला-‘बाहर कुर्सी में बैठे धूप सेंक रहे होंगे।’

          अगले पल मैं उनके सामने था। वे छोटे से लॉन में कुर्सी लगाकर बड़े सुकून से धूप सेंक रहे थे। मैं उनके सामने खड़ा रहा। दूसरी कुर्सी वहां थी ही नहीं।

          ‘तो तुम अपनी कविताओं की पुस्तक प्रकाशित करवाना चाहते हो।’

          ‘जी।’

          ‘पांडुलिपि साथ में लाए हो।’

          ‘एक डायरी है जिसमें लिखता हूं।’

          ‘मैं उन्हें पढ़ना चाहूंगा, अगर तुम चाहो।’

          मैंने डायरी सौंप दी। दस-पंद्रह मिनट तक वे पन्ने पलटते रहे। कुछ कविताओं को पढ़ा भी।

          ‘तुममें संभावनाएं हैं’ ‘डायरी लौटाते हुए कहा था उन्होंने।

          ‘मतलब पुस्तक प्रकाशित हो जाएगी।’

          ‘हो जाएगी। मगर ऐसा करो मत।’

          ‘क्यों?’

          ‘कविता के साथ अभी और पको। अभी और जियो इसे। साहित्य फर्राटा नहीं, मैराथन दौड़ है... इंतजार करो।’

          ‘उस इंतजार को आपके साथ काटना चाहूंगा।’

          ‘जैसी तुम्हारी इच्छा, लेकिन तुमने चुना भी तो किसे?’

          वहां न कोई मठ था, न वे कोई महंत। कोई पावर सेंटर भी नहीं। उनसे मिलकर जाना कि जर्जर शोकमय शरीर में जिजीविषा कैसी धड़कती है, हर सांस के साथ युगलबंदी करते हुए। आदमी का होना सवालों का होना भी होता है। यह भी कि सोचने वाला आदमी अक्सर तनहा पड़ जाता है... कि प्वाइंट जीरो पर युद्ध ही जीने का एकमात्र तरीका है... कि खुद को जिंदा महसूस करने के लिए जीवन में प्रतिरोध का होना जरूरी होता है... कि उपभोक्ता संस्कृति में दामन पर शहादत भी विज्ञापन है।

          मैं उनसे मिलने लगा। पहले महीने में एक बार, फिर दो बार, फिर हर हफ्रते... और उसके बाद...। जब भी मैं उधर से गुजरता उनके पास चला जाता। संबंधों की टूट और बन रही जमीन न अनायास थी, न सायास। शायद बीच की कोई चीज होती होगी... और शायद नहीं भी। जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं वह खुद पर बहुत कम बोलते थे विसंगतियाें पर बहुत अधिक। इन बेसब्र मुलाकातों के जरिए मैं उनको समझा रहा था और वे मुझे। दोनों मिलकर उस समय को जानने की कोशिश कर रहे थे जिसके गर्भनाल से जुड़े थे हम। हम बातचीत का विषय रखते... उस पर बहसें करते... और अंत में किसी निष्कर्ष तक पहुंचने की कोशिश करते। रात भर की मुलाकातों-बातों-बहसों से हम इस नतीजे पर पहुंचे कि मौजूदा दौर में न जीवन राजनीति निरपेक्ष है, न लेखन।

          एक दिन जाने क्या सूझा उन्हें कि सहसा बोल पड़े-‘चलो... आज सवाल-जवाब खेलते हैं... पहले मैं सवाल पूछता हूं तुम जवाब देना, फिर तुम पूछना, मैं दूंगा जवाब...?’

          मैं चुप रहा। जो वे कर रहे थे, वह उनका स्वभाव नहीं था। शायद बचपन लौट आया था उनके भीतर।

          मुझे खामोश देखकर खुद ही बोल पड़े-‘सवाल पूछने से पहले सवाल का स्वभाव बता दूं... हर सवाल अस्वीकार या जिज्ञासा से उपजता है... किसी भी तरह की सत्ता को सवाल पसंद नहीं... और खास बात यह कि अक्सर सवाल जवाब पाने के लिए नहीं पूछा जाता है... सवाल पूछने वाले को जवाब मालूम होता है...। खैर, मैं पहला सवाल करता हूं... सिनेमा और साहित्य में मूल अंतर क्या है... मूल से मतलब मौलिकता से है।’

          ‘जवाब तो आपको मालूम है।’

          ‘वह मेरा जवाब है... तुम बोलो।’

          ‘सिनेमा सामूहिक रचना है... साहित्य व्यक्तिगत।’

          ‘सही तो है मगर उतना नहीं।’

          ‘आप ही बता दीजिए।’

          ‘सिनेमा का भाग्यविधाता दर्शक होता है... वही करोड़ों रुपए से बनी फिल्म का मुस्तकबिल तय करता है। साहित्य में ऐसा नहीं है...। वहां कोई खूसट बूढ़ा प्रोफेसर तमाम तरह के समीकरणों से गुजरने के बाद किसी रचना का भाग्य तय करता है, कम से कम इन दिनों तो यही है।’

          ‘अब तुम पूछो।’

          ‘जीवन और नाटक में फर्क क्या है।’

          ‘नाटक का अभिनेता उसे ही सच मानता है जो हो रहा है। लेकिन जीवन में जो हो रहा है उसे नाटक समझना चाहिए। ...जीवन कोई नाटक नहीं जिसे खेला जाए बार-बार।’

          ‘और प्रेम।’

          ‘नसों में घुलते लोहे का नाम है प्रेम।’

          ‘और प्रेमिका।’

          ‘एक ऐसा चेहरा जिसके सहारे काटे जा सकते हैं कई-कई जन्म।’

          ‘मृत्यु क्या है?’

          ‘एक नामालूम यात्र पर निकल जाना।’

          वे यात्रा पर थे। जीवन की यात्र पर। सड़क कब मुड़ जाए पता नहीं। बहुत जल्द एक मोड़ आ ही गया... उसे आना ही था। प्रेम घटित हो गया उनके जीवन में। एक तरफा प्रेम। बीते जमाने का अंदाज-ए-बयां लिए हुए, भावुकता भरा। इक्कीसवीं सदी में वह प्यार पिछली सदी के तरीके से कर रहे थे...। मैं समझ नहीं पाया जब वह साहित्य में अपडेट थे तो प्रेम में क्यों पिछड़ गए? महीनों उस लड़की का पीछा कर उन्होंने बहुत सी जानकारियां जुटा लीं। उसको देखना ही उन्हें अच्छा लगता। उसकी हर अदा उनके दिल में गहरे उतरते चली गई... लड़की ने इसे नोटिस किया। मगर वह आदतन बेपरवाह बनी रही। इस बीच उसका घर पता किया, कॉलेज और उसके नाम का भी...। राशि नाम था उसका।

          प्रेम की वजहें होती होंगी। होनी भी चाहिए। कोई एक या इससे भी ज्यादा, दो-तीन आगे की संख्या में कोई हो सकती है।’ लेकिन उनके प्रेम की नहीं थी। अगर पोस्टमार्टम कर मौत की वजहों की तर्ज पर पता लगाया भी जाए तो एक ही वजह का महीन सिरा हाथ लगता है- वह यह कि बचपन से उनके सपनों में एक आकृति उभरती थी-- एक लड़की आती थी...जब वे कविता लिखने लगे तब भी उस परछाई ने पीछा नहीं छोड़ा। वह परछाई जब एक दिन राजधानी दिल्ली के पटेल चौक पर खूबसूरत शक्ल में दिखाई दी तो जैसे उनका अस्तित्व ही डोल गया। यही वह थी...वह कौन? इस सवाल का सवाल ठीक-ठाक जवाब उनके पास था भी नहीं। इसलिए प्लीज उनके उसी लड़की से प्रेम करने की वजह न ढूंढ़े... जिंदगी में बहुत सी चीजाें की तरह कई दफा किसी से प्रेम भी...बेसबब होता है... बिल्कुल बेवजह...। कारण ढूंढने में उसकी सुंदरता नष्ट होती है- मार्के वाली बात यह है कि क्या प्यार उस तरह भी होता है जैसा उन्होंने किया या करने की कोशिश का रहे थे। अलबत्ता यह कहना ज्यादा बेहतर होगा कि उनके जीवन में जो प्रेम के नाम पर घटित हुआ उसे प्रेम कहा भी जा सकता है अथवा नहीं।

          एक दिन उन्होंने फिल्मी स्टाइल में लड़की का रास्ता रोक लिया। बोले-‘मुझे आपसे कुछ बात करनी है।’ लड़की नाराज हो गई-‘क्या’

          ‘हम चलें तो साया तक न साथ दे, आप चले तो जमीं चले आसमां चले।’- लगा प्यासा के गुरुदत्त की आत्मा उतर आयी उनके भीतर?

          ‘तुम हो कौन...?’

          ‘मैं कोई भी हूं। बस, इतना जान लीजिए कि आपसे बेइंतहा प्यार करता हूं।’

          ‘कितना?’ लड़की को शरारत सूझी।

          ‘समंदर की भी हद है और आसमान की भी, लेकिन मेरे इश्क की नहीं।’-लुगदी साहित्य का डॉयलाग।

          ‘क्या कर सकते हो मेरे लिए?’

          ‘जान दे सकता हूं।’

          ‘तो दे दो...।’

          ‘यकीन जानिए... मैं खुद को अभी इसी वक्त खत्म कर लूंगा...’

          ‘कर लो न, रोका किसने है...’

          ‘ठीक है... कल इसी, जगह इसी वक्त, मेरी लाश मिलेगी...’ कहकर वे मुड़े और तेजी से आगे बढ़ गए।

          सहेलियों ने राशि के कान में कुछ कहा, शायद यही कि अगर इसने कुछ कर लिया तो तू नाहक फंस जाएगी। राशि ने आवाज लगाई-‘सुनो’

          वे रुक गए। पीछे से आने वाली आवाज का जैसे इंतजार ही कर रहे थे वे।

          इशारे से उन्हें करीब बुलाया। वे आ गए। पल भर की खामोशी। लड़की उन्हें घूर रही थी... आंखों से आखों का संभाषण। जैसे सारी कायनात सिमट आई थी लड़की की आंखों में, एक साथ प्रेम, घृणा, दर्द, नफरत, हिंसा, सादगी, सियासत, मासूमियत, चालाकी। वह कुछ समझ रहे थे, बहुत कुछ नहीं भी।

          ‘एक झटके में जान देना तो बहुत आसान है। प्यार में ताउम्र मेरे लिए रोज-रोज मरकर दिखाओ तो जानूं...’

          ‘ऐसा ही होगा। रोज-रोज तो क्या, हर सांस में तुम्हें याद करते हुए मरूंगा। मैं हर सांस के साथ थोड़ा मरूंगा हर सांस में तुम्हें जिऊंगा। न मैं मर पाऊंगा न जी पाऊंगा।’

          ‘मुझे बहुत जीना है... देखूंगी तुम्हारे इस प्यार के जुनून को।’

          ‘मुझे तो बस तुमको जीना है...’ वे आवेग में आ गए और लंबे-लंबे डग भरते हुए भीड़ में खो गए।

          उन्हें जाते हुए देखती रही बहुत देर तक राशि। उसकी सहेली ने पूछा-‘तेरे संगदिल में हमदर्दी का कोई कतरा तो नहीं ठहर गया।’

          ‘नहीं रे... डर गई थी पल भर के लिए... बहुत जुनूनी मालूम होता है। जुनूनी लोग कुछ भी कर लेते हैं... फकीर की तरह हद-बेहद दोनों टप जाते हैं... हद टपे सो औलिया, बेहद टपे सो पीर, हद बेहद दोनों टपे सो कहलाए फकीर, यह फकीर मालूम होता है कोई...’

          और ठीक उस दिन से उन्होंने अपना नाम बदल दिया। कविता की पांडुलिपि के ऊपर शीर्षक ‘इस नाउम्मीद के कायनात में’ ठीक नीचे अपना नाम वसंत कुमार काटकर राशि कुमार राशि लिख दिया। पत्र-पत्रिकाओं में भी अब वे इसी नाम से कविताएं भेजते। अगर कोई जानने वाला उनके पुराने नाम से पुकारता तो नाराज हो जाते।

          प्रेम की मामूली इच्छाओं का वह नामालूम सा संसार था जिसके बाशिंदे को देश निकाला मिल गया था... बाशिंदे को चाहिए भी क्या था। बित्ता भर इच्छाएं, अंजुरी भर सुकून... शब्द भर जगह... बूंद जितना अकेलापन। और सांसों के आने-जाने के बीच के खोह में उम्मीद की नर्म नाजुक दूब।

          कराहती परछाइयों की आपाधापी के बीच वह प्रेम को जी रहे थे जबकि सरकार के कारिंदे शहर में बढ़ रहे प्रदूषण को कम करने की जुगत में अपनी तोंद का आकार बढ़ाने में जुटे थे।

          एक सुबह वे उठे तो उस दिन तीन घटनाएं घटित हुईं। रेडियो पर फिल्म सो ‘दो बदन’ का गीत बजा-‘रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क का सितारा, कभी डगमगाई कश्ती, कभी खो गया किनारा।’ उसी सुबह पता चला कि जिस लड़की से वह प्रेम को जी रहे थे, उसकी शादी तय हो गई। उसी सुबह उन्होंने कविता लिखी-

          धीरे-धीरे मैं एक घुटन तैयार करता हूं

          जैसे कुम्हार

          दीया तैयार करता है मिट्टी का

          जैसे राख में कोई

          समय तैयार करता हूं

          मैं खुद को तैयार करता हूं

          इसी तरह मैं

          अपनी बनाई घुटन में

          धीरे-धीरे मरता हूं...

          लड़की ने शादी में उन्हें नहीं बुलाया जो अप्रत्याशित नहीं था। उन्होंने तय किया कि वे जाएंगे भी नहीं। अपनी मोहब्बत का जनाजा देखना आसान होता है क्या? उन दिनों वे एक तरफ पाब्लो नेरूदा की प्रेम कविताएं पढ़ रहे थे तो साथ ही फराज को भी मेंहदी हसन के जरिए-‘रंजिश ही सही, दिल को दुखाने के लिए आ’ सुन लेते थे... शाम होते-होते बेचैनी बढ़ने लगी... चलो... एक बार उसे दूर से देख लिया जाए। रूमानियत का पुराना अंदाज। दुल्हन के रूप में कैसी दिखती होगी...। एक द्वंद्व को वे जीतते और हारते रहे। कभी इस पार, कभी उस पार। उदास चेहरे पर बेचैनी गहरी होती गई। वे खुद को रोक नहीं पाए। कानों में पड़ती बैंड-बाजे की आवाज, मंगल गीत, शोर-शराबा। खुद को रोक नहीं पाए।

          वे बारात की भीड़ को चीरते शादी के मंडप में पहुंच गए। बैंड बाजे और डीजे का तेज शोर। सामने स्टेज पर दुल्हन बनी उनकी प्रेमिका पहचान में नहीं आ रही थी। लगा सब कुछ राख हो रहा है। चारों तरफ धुआं है... इच्छाएं... सपने... खुशी... सुकून...। मगर प्रेम नहीं... वह महफूज था प्रतिबद्धताओं की कवच पहने? जयमाल हुआ, सबने तालियां बजाईं। वे नहीं बजा सके। उनके होंठों से दर्द भरी कराह रेंगने लगी। आंसू लरज पड़े आंख से। उन्हें पोंछते हुए वे घर लौट गए जो एक कमरे का ठिकाना यानी यातना शिविर था उनके लिए।

          कुछ दिन यूं ही सरक गए। जैसे ढलान से पानी उतरता है। चिता पर लेटे शव से कफन सरकता है... आंखों से शर्म... कंधे से दुपट्टा... जैसे सिहांसन से राजा को उतारकर सींखचों के भीतर कैद कर दिया जाता है। उनकी आंखों में दर्द था... दिल में लपटें। आग और फाग एक साथ। खुद को जिंदा महसूस करने के लिए वे तरह-तरह के तरीके आजमाते रहे। प्रेम का नया भाष्य रचते-रचते वे बीमार पड़ गए तो अकेलेपन को पहली बार शिद्दत के महसूसा कि दवा लाने या एक गिलास पानी देने वाला भी कोई नहीं। अकेलेपन के स्याह बियाबान में एक खयाल बिजली की तरह चमका कि शादी कर लेनी चाहिए।

          किसी फिल्म का डायलाग याद आया-दिल टूटने की आवाज नहीं होती मगर जलजला आ जाता है ताबाही का तूफान बहुत कुछ नष्ट कर देता है। जिंदगी और दुनिया को देखने का नजरिया वही नहीं रहा जाता जो अब तक था अगर पीड़ित भावुक हुआ तो खतरे का प्रतिशत बहुत बढ़ जाता है। शायद वो दौर ही उनके लिए खराब था-। सब कुछ उनके खिलाफ ही हो रहा था। कविताएं-पत्र पत्रिकाओं से लौट आती। प्रकाशक को पांडुलिपि दी तो सालों तक उसने उन्हें उलट-पुलट कर देखा तक नहीं। एक प्रकाशक ने तो अपमानजनक ढंग से टिप्पणी की- बुरा मत मानिये, मगर न तो आप शक्ल से, न ही अक्ल से कवि लगते है- क्या श्मशानी कविताएं लिखते हो कि पढ़कर आदमी डर जाए...- तुम कवि हो कि श्मशान के औघड।’

          ‘आप भी बुरा मत मानिये। मगर आपको देखकर मैं भी भ्रम में पड़ जाता हूं कि आप प्रकाशक है या कामुक्ता के इन्द्रदेव...-

          ‘देखिये’ प्रकाशक चीखा।’

          ‘गुस्सा आ रहा न, आना ही चाहिए...- दरअसल गलती आपकी नहीं, मेरी ही है कि मैं मादा नहीं हूं। शोषण होता मगर कुछ फायदे भी मिल जाते।’

          प्रेमिका की शादी होते ही उदासी बेचैनी में बदल गई। महीना बीतते ही उसको देखने की तीव्रता बढ़ गयी। मिलने की तरकीब ढूंढ़ने लगे। पुराने जमाने के प्रेमी थे। प्रेमिका को रास्ते में खड़े हो जाते इस उम्मीद में कि उसकी नजर पड़ जाए तो धन्य हो जाएं। उनकी बदहाली को देखकर हमदर्दी का कोई भाव तो उठेगा। फिर उन्होंने लैड लाइन फोन का नंबर भी पता कर लिया-। फोन लगाते, उधर से कोई और उठाता तो काट देते, अगर प्रेमिका ने उठाया तब भी सिर्फ उसकी हेलो, हेलो की आवाज सुनकर ही जैसे तृप्त हो जाते। बोलते कुछ भी नहीं। एक दिन प्रेमिका इनके ही रास्ते में खड़ी थी। वे खुश हो गए। लेकिन अगले ही पल वे सकते में आ गए।

          प्रेमिका बहुत गुस्से में थी। बिफर पड़ी- आप मेरे पीछे क्यों पड़े है...मुझे आपसे डर लगने लगा है। फोन की हर घंटी मेरे दिल की धड़कनें बढ़ा देती है कि वह आप ही होंगे ...।़ देखी है मैंने कविताएं आपकी, वही टीस, उदासी, दर्द, मौत, हत्या, आत्महत्या है। जैसे दुनिया और जिंदगी में सब कुछ खत्म हो गया है। मैंने सपने में देखा कि आपने मेरी ओर मेरे पूरे परिवार की हत्या कर दी है। प्लीज। आप दूर चले जाइये मैं खुशी और सुकून से जीना चाहती हूं- मुझे न आपमें कोई दिलचस्पी है, न आपके में जो कमीनगी से भरी भी है।

          ‘प्रेम करता हूं आपको’

          ‘नहीं चाहिए मुझे आपका प्रेम। मैं बहुत मामूली इंसान हूं-मुझे आप। ढंग से जीने दीजिए- आपके साथ तो मैं आठ मिनट नहीं रह पाऊंगी... सिर्फ और सिर्फ नेगेटिव है आप न जाने क्या समझते हैं? बार-बार एक ही बात, वो भी आदेश के अंदाज में -मुझे प्रेम करो। अरे क्यों करे प्रेम? गुलाम हैं आपके, दासी हैं-’

          ‘आप मुझे समझ नहीं पा रही हैं-’

          ‘मुझे समझना भी नहीं। किसी लाश को कफन ओढ़ाया जाता है, चिता पर लेटाया जाता है उसमें समझाने जैसा कुछ नहीं होता।’

          जीवन में दर्द का सैलाब आया था और महागनर में वे सारे कंधे बर्फ की मानिंद पिघल चुके थे जिन पर सिर रखकर रोने या तसल्ली पाने का सुनहरा सपना सजाया था उन्होंने। वे बिल्कुल अकेले थे। तनहा। तब मै भी नहीं था उनके जीवन में। वे एक साथ कई मोर्चों पर लड़ रहे थे...बिखर रहे थे। पराजित हो रहे थे। लोगों की भीड़ में एक ऐसा चेहरा ढूंढ़ रहे थे जो अपनापे से भरा हो। जिसे वे अपना कह सके। बहुत भटके। कोई नहीं मिला। बेताबी और अकेलेपन के इन क्षणों में उन्होंने कोठे की सीढ़ियां चढ़ीं। यह जानते हुए कि यहां आदमी गिरता है। वहां क्षण भर का प्यार ढूंढने गए थे। -वहां जाते हुए शरतचंद याद आए थे और उनका देवदास। क्या पता पारो ही डूबते दिल को सहारा दे। वे भूल गए कि शरत, देवदास, चंद्रमुखी, पारो ओर उनके बीच दशकों का फासला था। वक्त का दरिया अपने साथ बहुत कुछ बहा ले जाता है... ़संवेदना, संबंध और सोच-सब कुछ। देवदास को चंद्रमुखी तो मिली नहीं, पारों भी वक्त के बहाव में बहकर बदल गयी है। उसका प्यार, प्यार का अंदाज भी। जज्बाती नहीं, सब कुछ जिस्मानी हो गया है। पारो जो कभी एक जज्बा थी अब जिस्म में ढल गयी थी...-एक खास क्षण में जिस्म तो रंगने और फिसलने के लिए होते है। वे वेश्याएं उन्हें महानगर की औरतों से बेहतर लगतीं जो पैसे लेकर प्यार तो दे तो रही थीं...। जब पहली बार कोठे पर गए थे। अपने बदन के कपड़े उतारने के पहले उसने सवाल किया- ‘मेरी सवारी करने से पहले मेरा नाम नहीं पूछोगे।’

          ‘दुनिया की तमाम वेश्याओं का एक ही नाम होता है...वह नाम मुझे मालूम है, बाकी सब झूठ है।’

          ‘क्या नाम है’

          ‘मजबूरी... अब इस शब्द के बहुत से पर्यायवादी है जिसे शायद तुम नहीं समझ पाओगे...-हम तुम इस दुनिया के तमाम सितमगर लोग किसी न किसी शब्द का पर्यावादी ही ढूंढ रहे है।’

          ‘सच कहते हो साहेब...हम मजबूरी जानते हैं...मजा देना जानते हैं... पल-पल मरना जानते है।’

          ‘और जीना?’

          ‘नहीं जानते...’

          ‘इसीलिए पल-पल मरते हैं... लेकिन बिस्तर की सलवटें मजा और तड़प, लुत्फ और दर्द से निकली सिसकियों, प्यार और खेल का फर्क अच्छी तरह जानती हैं, इसलिए खेल खत्म हो जाने के बाद सबसे पहले चादर के बिस्तर की सिलवटों को ठीक किया जाता है। चादर की सिलवटें ठीक हो जाती है लेकिन जो मन की चादर है वह -वहां रोज-ब-रोज सिलवटें बढ़ती जाती है।’

          ‘तुम कौन सी भाषा बोल रहे हो साहेब... यहां जाने वालों ऐसे बातें नहीं करते...’

          ‘मैं ऐसी ही बात करता हूं’

          ‘दिल टूटा है क्या साहब...लेकिन यह जिस्मफरोसी का जहन्नुम है, यहां कोई दिल ढूंढ़ने नहीं आता’’

          ‘दिल ढूंढने नहीं आया हूं... मुझे मालूम है इस जन्नत की हकीकत...मगर क्या करें दिल को बहलाने के लिए ...-शायद ठीक तरह से नहीं जानता क्यों आया हूं मैं यहां...’

          ‘मुझे पता है... आगे सब मुझ पर छोड़ दो...भूखे हो तो रोटी खाओ तबे की ताप के बारे में मत सोचो जिस पर रोटी पकती है... भूख को रोटी से हमदर्दी ठीक नहीं। हम भूख मिटाने वास्ते रोटियां है जिनके नाम- नीलम, राधा, जोहरा, रुखसाना कुछ भी हो सकते है,’’ उसने बसंत कुमार को अपने आगोश में ले लिया। कोई बर्फ पिघलने लगी, कोई आग दहकने लगी।

          वह बारिश का एक दिन था जब लगभग भींगा हुआ मैं उनके घर गया। वे अखबार में कुछ पढ़ रहे थे...। एक ही खबर को कई बार पढ़ चुके थे... एक बार, दो बार, बार-बार।

          ‘क्या पढ़ रहे हैं।’

          ‘लो तुम भी पढ़ो।’ उन्होंने अखबार मुझे दे दिया। अखबार में मार्क किया था। पटना से किसी रिपोर्टर की रिपोर्ट थी-‘बस में एक विवाहिता के साथ बलात्कार... पूर्णिया में बस ड्राइवर और खलासी ने उस युवती के साथ बलात्कार किया जिसके साथ उसका बेटा भी था... पति ने उसे यह कहकर घर से निकाल दिया कि औरत बदचलन है और यह बच्चा उसका नहीं, किसी गैर मर्द का है...। बच्चे को गोद में लिए वह युवती मायके गई। वहां अभाव के दलदल में धंसे बाप और भाई ने भी किनारा कर लिया। कहां जाती वह? अनिश्चय की स्थिति में एक बस में बैठ गई। बस अपनी जगह से चलकर और छह घंटे बाद गंतव्य पर पहुंचकर ठहर गई। सब यात्री उतर गए। युवती को अपना गंतव्य नहीं मालूम था। वह जाती तो कहां... रात के सन्नाटे में खाली बस में ड्राइवर और खलासी ने उसके साथ बारी-बारी दुष्कर्म किया। बच्चा मां को देख रोता रहा...। बच्चे को देख मां भी बिलखती रही...। शर्मसार होता रहा। सुबह पुलिस ने युवती और उसके बच्चे को बेहोश पाया। दुखियारी ने सारी कहानी बताई मगर न बस का नंबर बता पाई, न बलात्कारी का नाम पता। अब वह पटना के एक महिला आश्रम में अपनी बदनसीबी पर सिसक रही है।

          ‘ऐसी घटनाएं तो आए दिन घटती हैं... हमारे सभ्य समाज के दाग हैं ये।’

          ‘मैं इस दाग को अपनी जिंदगी के दामन पर लेना चाहता हूं।’

          ‘मतलब।’

          ‘शादी करना चाहता हूं इस युवती से।’

          ‘उसके साथ बलात्कार हुआ है।’

          ‘इसमें उसकी क्या गलती।’

          ‘उसके साथ एक बच्चा भी है।’

          ‘मैं उसको समग्रता में अपनाऊंगा...।’

          ‘शायद मैं इस मामले में सही सलाह नहीं दे पाऊंगा..., मगर आप इस बाबत कोई भी कदम उठाने से पहले कुछ समझदार लोगों की सलाह ले लीजिए।’ उन्होंने ऐसा ही किया। वे सलाह लेने गए तो...

          एक संपादक ने सिगार पीते हुए खनकदार आवाज में कहा-‘ये औरत तुम्हें बर्बाद कर देगी। अगर ऐसी ही औरतों से शादी करने का उच्च और विराट विचार है तो इसी दिल्ली में ढेरों औरतें दिला सकता हूं...’

          एक कवि ने सुझाया-‘कविता के विषय को जिंदगी का हिस्सा बना खुद को घायल मत कीजिए कविवर।’

          नाटककार ने नाटकीय अंदाज में कहा-‘जंजाल में मत फंसिए... कहीं के नहीं रह पाएंगे... शादी ही करना है तो दम धरिए... हम लोग आपके लिए एक ठीक-ठाक लड़की की व्यवस्था कर देंगे... आखिर आप एक सरकारी मुलाजिम हैं... लड़कियों की लाइन लगा देंगे हम।’

          एक पत्रकार मित्र भड़क गया-‘यह आत्मघाती कदम है... दया स्थाई भाव नहीं होता...’

          न उनको किसी की सलाह माननी थी, न उन्होंने मानी। पटना का टिकट कटाया और पहुंच गए आश्रम। वह किसी दबंग का आश्रम था। उसकी हेड निर्मला सिंह ने कहा-‘बहुत पेंचीदा मामला है... आपको पचास हजार लाख देने होंगे... दे पाएंगे आप...।’

          ‘मुझे दो हफ्रते का समय दीजिए...।’

          उन्होंने सूद पर कर्जा लिया। युवती को दिल्ली ले आए। राजधानी के एक कथाकार ने कन्यादान किया। राजधानी की कई साहित्यिक हस्तियां इस शादी में शरीक हुई।

          शादी उनकी जिंदगी का कोई मुकाम नहीं था जो वे उसे पाकर निहाल हो जाते। अलबत्ता यह उनकी जिंदगी का एक टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ जो उनको निढाल करती चली गई। देश में भूमंडलीकरण दस साल पहले आया था, उनके जीवन में देर से पहुंचा। एक कवि जो भूमंडलीकरण के खिलाफ था... सुविधाओं के संजाल में फंसने के विरुद्ध था... वह उनके साथ क्यों खड़ा हो गया, यह मैं समझ कर भी कायदे से समझा नहीं पा रहा था। हैरानी से उनके भीतर आ रहे बदलाव को बस खामोशी से देखता रहा।

          पत्नी ने उन्हें बदलना शुरू किया। उनकी माली हालत खराब होने लगी...। वेतन का एक बड़ा हिस्सा कर्ज चुकाने में चला जाता। बाकी वेतन पत्नी ले लेती। रोज के हिसाब से इनको पैसे मिलते। इतना कम कि दोस्तों को चाय पिलाने लायक भी नहीं बचते।

          उनके घर जाने का मेरा सिलासिला जारी रहा। मैं नोटिस कर रहा था। वहां किताबें कम हो रही हैं। शब्दों का संसार सिमट रहा है... किताबों की जगह भौतिक वस्तुओं ने घेरनी शुरू कर दी... यह अजीब किस्म की परिवर्तनश्ाीलता थी जो न सयानी थी, न संयत ही। कोई अनदेखा घाव था जो रिस रहा था... धीरे-धीरे, हौले-हौले। अंतःकरण में बसा अवसाद शब्द की शक्ल में ढलने के पहले ही भावनाओं के ज्वार से पिघलकर फना हो जा रहे थे, वे मौन थे। बेबस थे...। अपने निविड़ शून्य में जैसे ब्रह्मांड सिसक रहा हो। जिसने लिखा था-‘हमें अपने घर में क्या चाहिए रुखी-सूखी रोटी और नमक ...थोड़ी सी जिंदगी और बहुत सी जिजीविषा... बहुत सी किताबें, थोड़ी सी मजबूरियां, थोड़ी सी खामोशी, थोड़ी सी राख। उन्होंने ही एक दिन फोन पर मुझे कहा-‘जल्दी से घर आ जाओ, मैं किताबें कबाड़ी को बेचने जा रहा हूं।’

          ‘क्यों?’

          ‘सवाल बहुत करते हो... इससे पहले कि किताबें सात रुपए किलो के हिसाब से कबाड़ी वाले के बोरे में बंद हो जाएं, अपने मतलब की किताबें छांट लो।’

          कहीं ऐसा तो नहीं कि साहित्य होने का मतलब उनके लिए जर्जर खंडहर सा ढह रहा है, इसी आशंका के साथ मैं घंटे भर के भीतर उनके सामने था।

          कमरे में किताबों का ढेर था। ये वे किताबें थी जिन्हें भूखे रहकर उन्होंने खरीदा था...। जिनका फलसफा था-‘खाने से, पढ़ना ज्यादा जरूरी है।’ वे बेहद उदास थे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अलबत्ता यह कहना बेहतर होगा कि वे परेशान, बेचैन, उद्विग्न थे... मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ के पात्रें की तरह।

          ‘इनके ढेर में अपने मतलब की किताबें छांट लो’ आवाज में उदासी भरती चली गयी थी।

          ‘क्यों बेच रहे हैं?’

          ‘बच्चे को दूध चाहिए... पैसे नहीं हैं।’

          निरुत्तर हो गया मैं। मुझे अपने सवाल का जवाब ही नहीं मिला, एक कील जैसे दिल में चुभ गई। बेबसी के आसमान का क्षेत्रफल देखकर डर गया...। समय की हथेली पर फैली जटिल रेखाओं को न वे पढ़ पा रहे थे, न मैं ही समझ पाने में समर्थ था। उन्होंने गहरी सांसें छोड़ी मानों वह सांस नहीं ढेरों आहों का सैलाब हो-‘सोचो मत... तुम सोचते बहुत हो।’

          ‘जब जिंदगी के मैदान-ए-जंग में जंग ही जीने का तरीका और महफूजियत का सलीका बन जाए तो सोचना पड़ता है...।’

          ‘जिंदगी कविता से बड़ी होती है... जिंदगी से बड़े हालात... और हालात की चक्की में पिसते हम क्या, तुम क्या... एक नीच ट्रेजडी सी कमीनगी भरी हैसियत है हमारी।’

          ‘इन किताबों को दरियागंज में बेच देते तो बेहतर होता... वहां किसी पुस्तक प्रेमी के हाथ लग जातीं। ये कबाड़ी वाला तो इनका कवर फाड़कर अलग करेगा और बोरे में भर लेगा तौलने के बाद’ मैं किताबें छांट रहा था... मुक्तिबोध, नागार्जुन, धर्मवीर भारती, मार्क्स, लेनिन, पाश... मीमांसा... लेख। बच्चे को दूध चाहिए, दूध के लिए पैसा, पैसों की खातिर पुस्तकें कबाड़ी के भाव किताबें अनमोल होती हैं, इस सत्य की हत्या हो रही थी यहां।

          एक नियम सा था। जब भी मैं उनके घर जाता वे नीचे ले जाकर चाय पिलाते साथ में समोसा भी होता। इस बार नहीं उठे...।

          ‘चलिए चाय पीते...’ मैंने पहल की।

          ‘मैंने चाय पीनी कम कर दी है...’ वे झूठ बोल रहे थे।

          ‘मेरे पास पैसे हैं चाय के।’

          ‘मेरे पास नहीं है...’

          मैंने उनकी आंखों में पल भर देखा। वहां साहित्य के प्रति प्रेम चमगादड़ की तरह उल्टा लटका था।

          ‘चलिये चाय पीते हैं...कुछ जरूरी बातें करनी है-’ वे इंकार नहीं कर सके तो इसके मूल में मेरे प्रति उनका प्यार ही था। हम दोनों ही खामोश थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था जो पूछना है, कैसे पूछूं? वे शायद इस इंतजार में थे कि बात क्या करनी है? चाय जब समाप्त होने को हुयी तो बिना उनकी चेहरे की और देखे मैंने कहा ये ‘ठीक नहीं है।’

          ‘क्या’

          ‘जो आप रहे है वो और जिसके लिए कर रहे है- भी दोनों ही’

          ‘तुम्हारी जगह कोई भी होगा तो यही सोचेगा जो तुम इस वक्त सोच रहे हो’

          ‘तो आप क्या सोचते हैं...’

          ‘किस बात’

          ‘अपनी पत्नी के बारे में’

          ‘उसका इंसानियत से भरोसा उठ गया है...दुनिया में कोई एक व्यक्ति भी अच्छा होगा...किसी दूसरे के बारे में भला सोच या कर सकता वह नहीं मानती उसकी नजर में हर पुरुष बलात्कारी है हर कोई स्वार्थी है जो उससे दया के बदले भी कुछ हासिल करना चाहता है... यह ठीक नहीं है दोस्त यह एक लड़की की बदनसीबी या उसके बेरूखीपन का सवाल नहीं, दरअसल यह मानवता के उपर गहराता संकट का प्रश्न है, तीन महीना पहले एक दिन उसने मुझसे पूछा-आपने जो दया मुझ पर की उसके एवज में अभी तक कुछ वसूला नहीं, मैं हैरान हूं आपके सब्र पर। आपकी दया पर और अपने बदलते भाग्य पर, कोई आपकी तरह हो सकता है, मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा। शायद आप अपनी दया के बदले कोई बड़ी कीमत वसूलने के फिराक में हैं।’

          ‘तो ... रास्ता कहां से निकलता है-और निकलता भी है या नहीं...’

          ‘उसी रास्ते पर चल रहा हूं...’

          ‘साहित्य से नफरत करके, किताबें बेचकर’

          ‘जीवन और मानवता साहित्य से बड़ा है मेरे छोटे-भाई ...तुम्हे लगा हेगा कि मैं ये क्या पागलप कर रहा हूं। उसकी सुविधाओं के लिए साहित्य को छोड़ रहा हूं। पुस्तक बेच रहा हूं। दरअसल मैं खुद को निचोड़ कर कुछ भरोसा उसके भीतर डालने की कोशिश कर रहा हूं। ताकि फिर से इंसानियत पर उसका भरोसा जाग सके...और मैं जानता हूं मेरे इस कोशिश को पागलपन का नाम दिया जाएगा। लेकिन दुनिया चाहे जो कुछ कह मैं अपने अभिशप्त जीवन को अंश मात्र भी जो शुभ है वह उसके भीतर भरना चाहता जो है इस काम में मैं अपना सर्वस्व झोक रहा हूं।’

          ‘आपके भीतर का कवि का क्या होगा’

          जीवन कविता से बड़ा होता है, दोनों से बड़ी मानवता। मैं चुप हो गया था। और वे उदास। दोनों अपने-अपने द्वंद के साथ घरों को लौट गए।

          कुछ दिन यूं सरक गए। दो-तीन महीने। वह तथाकथित जादुई समय था। मार्क्वेज के प्रभाव में कुछ युवा कथाकार जादुई यथार्थ की कहानियां रचकर हास्यास्पद हो रहे थे। मगर वह होने के खिलाफ हो रहे थे... हवाओं के नाखून उभर आए थे। जहां जो कुछ भी था, उसमें से भी उनका कुछ अपना नहीं था। हर रोज जीने-मरने की कठिन प्रक्रिया में उनका बहुत कुछ नष्ट होता जा रहा था। भीतर ही भीतर जल रहे थे वे। एक तरफ सृजन दूसरी तरफ हत्या। ...वह इस निष्कर्ष वह पहुंच चुके थे कि जिंदगी से पलायन के बाद कुछ भी नहीं बचा आदमी के पास। यहां तक कि उसका आदमी होना भी गुम हो जाता है समुद्र की बूंद की तरह। संघर्ष से ऊर्जा के बाद खत्म हो जाती हैं अमिट हो पाने की संभावनाएं। कुल मिलाकर यह कि सदियों से हिलगी हताश प्रार्थनाएं अपाहिजों सी हालात की वैशाखियों पर झूलते उस मंदिर के प्रांगण में भटकती रहती जहां किसी ईश्वर की प्रतिमा नहीं थी... कोई दरगाह नहीं... कोई धर्म ध्वज नहीं।

          वे जब सोते थे तो एक ही सपना बार-बार आता। अलग-अलग मंचों से सम्मान, पुरस्कार। आमंत्रण। तालियां पीटते श्रोता। टीवी पर दिखता चेहरा। विदेश यात्रएं। कविताओं के दूसरी भाषाओं में अनुवाद की अनुमति। रायल्टी का चेक देते प्रकाशक। रचनाए मांगते संपादक-। किताब मांगते प्रकाशक। लेकिन नींद कितनी भी गहरी क्यों न हो वह टूटती जरूर है- सपने का सच जीवन का सच बन जाए यह कोई जरूरी तो नहीं। उनके यहां तो मामला बिल्कुल उलट था। रात के ये हसीन सपने दिन के उजाले में गुटबाजी, मठ महंत, संपादकों के ढंग-प्रकाशकों की चालाकियाें में तब्दील हो जाने। बिना ‘मूल्य’ के वे अपनी रचनाओं को मूल्य बनाने को तैयार नहीं थे। ‘मूल्य’ और ‘मूल्यों’ की जंग में उनका जीवन ही कुरूक्षेत्र बन गया। अभिमन्यु की चक्रव्यूह में हत्या की गयी। द्रोण के साथ छल हुआ। द्रौपदी का चीरहण। जीत के लिए शिखंडी तक का सहारा लिया गया। ऐसे में अश्वत्थामा सा अमरत्व का वरदान हासिल करना अभिशप्तता में कैसे बदल जाता है इसे वे जान ही नहीं, झेल भी रहे थे।

          उनका उस साहित्य से मोहभंग हो रहा था जो उनके फेफड़ों के लिए आक्सीजन हुआ करता था। शब्द विस्थापित हो रहे थे, विचार को देश निकाला मिल गया था। बौद्धिकता बोझ बन गई थी, पुस्तकें जगह घेरने लगी थी... वह पागल हो चले थे या समय ने ही अपनी संवेदना खो दी थी।

          उनकी जिंदगी में हर कुछ 80 डिग्री का कोण लिए था। प्रेम चाहा, नफरत मिली। कविताएं रची और वे कही नहीं है। दुनिया भर का साहित्य पढ़ा न जीने का संबल मिला, न रास्ता। चलने का हौसला कहां से लाते। भूख सब्र पर भरी थी। पत्नी और बच्चों के साथ अभावों की पंगडंडिया पर चलते हुए पहली बार लगा परिवार की जरूरतों का आकार रचना के संसार से बड़ा होता है। जिन शब्दों को पढ़ने-रचने से न रोटी मिले, न सुकून उन शब्दों क्या क्या मतलब? शब्द उन्हें काटने लगे। नुकीली सूई की तरह चुभने लगे हर पल। न अब वह लिखते थे। न पढ़ते थे।

          पुस्तकों के लिए मैं उन पर ही निर्भर था। अगर कोई पसंद की पुस्तक नहीं मिलती तो मैं उनके नाम लिखकर उन्हें सौंप देता। हफ्रते भर के भीतर वे कहीं न कहीं से मंगवा लेने पर मुझे फोन करते-‘किताबें आ गई हैं... आओ, ले जाओ।’ मैं जाता पुस्तकें ले लेता और हर बार कोशिश के बावजूद उसको पैसा देने में नाकाम रहता। इस बार उनको पुस्तकों का नाम दिए महीना भर हो गया। कोई फोन, कोई सूचना नहीं। एक दिन मैं दिलशाद गार्डन पहुंचा तो उन्हें फोन किया, इस खयाल में कि अगर पुस्तकें आ गई होंगी तो उन्हें ले लूंगा।

          फोन उनकी पत्नी ने उठाया। संक्षिप्त सा उत्तर दिया-‘वे नहीं हैं?’

          ‘अगर घर में नहीं हैं तो कहां हैं?’

          ‘अस्पताल में...’

          ‘क्या... अस्पताल में...’ हैरानी से पूछा...’ क्या हुआ है उन्हें’

          ‘पगला गए हैं... दौरा पड़ा था पागलपन का...’

          ‘किस अस्पताल में हैं...।’

          ‘अस्पताल का नाम मालूम नहीं...’

          ‘आप अस्पताल में नहीं हैं?’

          ‘नहीं...’

          ‘कहां हैं फिर?’

          ‘घर में...’

          ‘आपको उनके साथ होना चाहिए था’

          ‘घर में बच्चा है, उसे भी तो देखना है।

          ‘माफ कीजिए... मुझे अस्पताल का नाम बता दीजिए’

          ‘नाम नहीं मालूम’

          ‘अस्पताल है कहां...’

          ‘यहीं दिलशाद गार्डेन में है’

          मैंने अंदाज लगाया जब पागलपन का दौरा पड़ा है, दिलशाद गार्डेन में हैं तो जरूर इहबास में ही होंगे।

          इहबास में ही थे वह। मैंने पता लगाया। वे आइसीयू वार्ड में थे। बहुत निवेदन करने पर मुझे उनसे मिलने की डॉक्टर ने इजाजत दी। मैं जब उनके बेड के पास खड़ा हुआ तो वे मुझे पहचान गए... मेरा हाथ पकड़ लिया। आंखों में आंसू थे। उन्हें देखकर लगा। कि उनका बचना मुश्किल है...। मगर दिलासा दिया ताकि उसकी उंगलियों से वे खुद को सहला सके।

          ‘ये क्या कर लिया आपने?’

          ‘ये तो होना ही था मनीष भाई... रेल की सवारी थी... जनरल डिब्बा... पल भर के संगी-साथी। अपना स्टेशन आ गया भाई... गाड़ी आउटर सिग्नल पर रुकी है... मृत्यु का प्लेटफार्म आने ही वाला है...।’

          ‘कुछ नहीं होगा... आप स्वस्थ होकर निकलेंगे... अभी बहुत सी कविताएं लिखनी हैं... पुस्तकें प्रकाशित होनी है... उसकी समीक्षा मैं ही तो लिखूंगा...’ मैं उन्हें दिलासा दे रहा था जबकि मैं खुद जानता था मेरे दिलासे में उन्हें जिंदगी देने की शक्ति नहीं है।

          ‘आउटर सिग्नल पर ट्रेन बहुत देर तक नहीं रुका करती। बस, प्लेटफार्म खाली होने का इंतजार है। सिग्नल ग्रीन होगा... रेल मौत के प्लेटफार्म पर। मेरा स्टेशन, मेरा गंतव्य। अपने-अपने गंतव्य। मुझे बहुत दूर जाना भी नहीं था... छोटा आदमी, छोटा सफर, छोटी जिंदगी, छोटी इच्छाएं, मगर दर्द बहुत बड़ा मिल गया...।’ आंसू उनकी आंखों में थे। रो मैं भी रहा था।

          पहली बार ईश्वर (अगर वह है) तो उससे प्रार्थना की कि वे स्वस्थ हो जाएं। दो दिन बाद रात को दो बजे उनके भाई का फोन आया जो उनके साथ अस्पताल में था। मैंने नहीं उठाया। असल में अलसा गया। सोचा वे अस्पताल बुलाएंगे। इतनी रात को कैसे जाऊंगा? बस मिलेगी नहीं, ऑटो के लायक पैसे है नहीं। सुबह छह बजे कॉल बैक किया, जवाब मिला-‘आ जाइए... शमशान घाट चलना होगा।’

          घर पहुंचा। वह कवि जो कल तक शब्द रच रहा था। अब बेजान अर्थी पर पड़ा था। उसके साले मजाक कर रहे थे-‘मरने के बाद महाकवि की लाश हाथी जैसी भारी हो गई... अस्पताल से यहां तक कैसे लाए हैं इसे हम ही जानते हैं...।’

          पत्नी की आंखों में आंसू नहीं थे।

          निगमबोध घाट पहुंचा। वहां साहित्य समाज था। उससे ज्यादा अगले दिन एक पत्रिका के दफ्रतर में उनको श्रद्धांजलि में छोटी सी शोक सभा में लोग पहुंचे। उस शोक सभा में सब कुछ न कुछ बोल रहे थे। अंत में मुझे भी कहा गया बोलने के लिए। मैंने कुछ नहीं बोला। मैं भाव से भरा था। शब्द खो गए थे।

          उन्हें एड्स था।...यह बीमारी उनको पत्नी से नहीं...शायद कोठे से मिली हो सकती है।... जांच में पता चल इस बीमारी से पत्नी और बच्चा महफूज है। पत्नी ने ही बताया- शादी तो न जाने क्या सोचकर उन्होंने की? एक रात भी मेरे साथ नहीं सोचे। बारह महीने के साथ में हम जिस्मनी तौर पर अजनबी रहे हैं।

          मैं मेडिकल रिपोर्ट को भी गलत मानता हूं... मेरा दिल कहता है उनकी गहरी संवेदनशीलता, साहित्य के प्रति सनक और जमाने की उपेक्षा ने मारा है... मुझे बार-बार लगता है उनकी हत्या की गई है और इस हत्यारे समय के कोलाज में किसी एक चेहरे की शिनाख्त नामुमकिन है।

          उनकी मौत के बाद पत्नी शोक में नहीं डूबी। शायद उसकी प्राथमिकता शोक के शामियाने में विलाप करने या सिसकियों में डूबने की बजाए अनुकंपा के आधार पर सरकारी नौकरी पाकर खुद के जीवन के लिए सुरक्षा कवच तैयार कर लेना था। छह महीने भर के भीतर वह अपने मकसद में कामयाब हो गई। अब वह खुश थी... सुकून में थी। पहले से कहीं बहुत ज्यादा।

          साहित्य या उनकी लिखी कविताओं का पत्नी के लिए कोई मतलब नहीं था। वह जीना चाहती थी। एक सुरक्षित और सुकून भरी जिंदगी। एक दिन उनकी पत्नी का फोन आया। मुझे बुलाया। मैं उसके घर गया। वहां सब कुछ बदल गया था। घर में न कहीं अखबार, न पत्रिका, न कहीं कोई पुस्तक। अब वह किसी कवि या लेखक का घर नहीं था। मैं असहज हो रहा था...। मन के भीतर उदासी का कुहासा पसरा था।

          ‘घर का व्हाइट वॉश कराया तो कुछ किताबें मिलीं। सोचा तुम्हें इस कबाड़ से बहुत प्रेम है। उधर कोने में पड़ी हैं।’

          मैं लपका। वह रघुवीर सहाय रचनावली थी। मैंने साथ लाए झोले में उन्हें भरा। इससे पहले कि वे मुझे चाय के लिए कहतीं, मैं बोल पड़ा-‘एक पांडुलिपि थी उनकी कविताओं की...’

          ‘उस कोने में ढूंढ़ लो।’

          मैं पागलों की तरह उस ओर लपका। ढूंढ़ा। एक पांडुलिपि मिली उनके हाथ की लिखी-‘इस नाउम्मीदी की कायनात में।’

          चाय आ गई थी। साथ में नमकीन और बिस्किट। मैं चुपचाप चाय पी रहा था।

          ‘अब आप कैसी हैं...’ इतना पूछना मुझे जरूरी लगा।

          ‘ठीक हूं... बस एक ही चिंता है...’

          ‘वह क्या’

          ‘बेटे को लेकर’

          ‘क्या हुआ उसे...’

          ‘उसमें तुम्हारे महाकवि मित्र की आत्मा घुस गई है। अकेले में गुमसुम कुछ न कुछ सोचता रहता है। सबसे खतरनाक बात कि सात साल की उम्र में कविताएं लिखता है... अकेले में बोर हो जाता है। एक दिन बोला मेरे पापा कहां चले गए हैं... उन्हें जल्दी ले आओ... यह उस पिता को याद करता है जो असल में इसका पिता है ही नहीं...।’

          ‘कुछ लिखा है इसने।’

          ‘सामने उस कॉपी को उलटकर देखो, उसमें न जाने क्या लिखा है।’

          मेरी दिलचस्पी उसके लिखे को पढ़ने में थी। कोने में रखे टेबल पर उसकी कॉपी थी। कॉपी में कविताएं। मेरी नजर पहली कविता पर ही ठहर गई-

          पिता तुम चले गए कहां

          और क्यों लौटकर नहीं आते

          मुझे इंतजार है तुम्हारा

          लौट आओ कि

          मुझे लिखनी है कविता,

          मगर मुझे गुम नहीं होना है। तुम्हारी तरह।

          मैंने उनकी सारी कविताएं पढ़ी थीं। यह किसी कविता की नकल नहीं थी। सात साल का बच्चा ऐसी कविता लिख सकता है... ऐसी सोच रखता है... मुझे यकीन करना पड़ा... कविता क्या इस तरह भी उतरती है... बनाती है जगह अपने लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी। फिर एक कवि तैयार हो रहा था... फिर कोई संवेदना से भर रहा था। एक बच्चा, एक बीज... एक पौधा...। तय है हवाओं के नाखून पहले से तेज होंगे... दिशाओं की चाल और गहरी। मौसम साजिशें करेगा... दौर के दरवाजे बंद होंगे हर उसके लिए जिसकी दस्तक में मुलामियत होगी...।

          ‘मनीष जी,’ आप मेरे बारे में क्या सोचते है।’

          ‘मैं समझा नहीं’

          ‘क्या धारणा है मुझे लेकर’

          ‘सच आपको बर्दाश्त नहीं होगा, झूठ बोल नहीं पाऊंगा, इसलिए कुछ पूछिये मत-’

          ‘एक सच मैं भी आपको बताना चाहती हूं’

          ‘मैं सुनना चाहूंगा।

          ‘ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हूं महीन बातें नहीं जानती। कवि जी साथ रहकर ही एक साल में थोड़ा बोलना जान पाई अपनी तबाही का कहानी तो आपको नहीं सुनाऊंगी मगर उसका निष्कर्ष इतना है कि जब आदमी नदी में डूब रहा होता है तो जो उसके बचाने जाता है उसी को डूबोकर खुद बचाने की कोशिश करता है ऐसा मौत के भय और जीने की चाहत के कारण होता है-अगर जीना और अपने लिए स्थायी तथा सुरक्षित पनाहगाह हासिल करना अपराध है तो मैंने यह अपराध किया है। ...लेकिन मैं आपके कवि जी के नहीं रहने पर ही जान पायी कि मैंने खुद को जिंदा रखने के लिए अपने नाखुश को ही डूबा दिया। आप बेशक मुझे गलत समझ सकते है लेकिन कई बार कोई आदमी नहीं, हालात ही गलत होते है और हालत से क्या गिला, क्या शिकवा।’

          ‘गलत तो नहीं समझता आपको, हैरान जरूर हूं। जाता हूं। माफी नहीं मांगूगा। यह जानते हुए भी कि आपके दुखते दिल मैं और दुखा गया।’

          ‘फिर आइयेगा।’ एक सर्द आवाज जो डूबती चली गई। कमरे से बाहर मौसम की सख्त सर्द हवाए चल रही थीं। ‘इस नाउम्मीदी का कायनात में।’ के मैं पन्ने पलटने लगा। एक कविता पर नजर ठहर गई

          हर रोज जीने मरने की

          इस कठिन प्रक्रिया में

          मेरा बहुत कुछ नष्ट हो चुका है

          नहीं जानता जब एक दिन जब

          पूरी तरह नष्ट हो जाऊंगा मैं

          तब क्या बचा रह पाएगा?

          बादलों का वह सुनसान चक्रवात

          पाताल का वह अमर राक्षस

          या मेरे प्रतिदिन का हत्यारा

          उनकी ये कविताएं पुस्तक रूप में नहीं आ पाईं जिंदा रहते उन्होंने कई प्रकाशकों को दी... उन्होंने पढ़ने की जहमत उठाए बगैर ही सालों बाद लौटा दी... एक प्रकाशक ने कहा हम तो कविता छापते ही नहीं। एक की दलील थी हम अपने लोगों की किताब छापते हैं। एक युवा प्रकाशक ने कहा तीस हजार दो कुछ भी छपवा लो... बीस कापियां आपको दे दूंगा बाकी और सवाल नहीं करना।

          मैंने सिगरेट जला ली। चुपचाप सिगरेट से सिगरेट जलाता रहा। पूरा कमरा धुंए से भर गया। धुआं कुछ ज्यादा हो गया। पल भर के लिए कुछ सोचते हुए मेरी आंखें बंद हो गईं। जब खुली तो देखा उस धुएं में कई आकृतियां जानी पहचानी नजर आईं। जेल की सलाखों के भीतर फैज अपनी खनकदार आवाज में गरज रहे थे-‘माता-ए-लौह ओ कलम छिन गई तो क्या गम है कि खूने दिल में डूबो ली है उंगलियां मैंने’ बनारस की सर्द सुबह में फुटपाथ पर अकड़ी एक लाश। दुबला शरीर, बढ़ी दाढ़ी, टाट में लिपटा जिस्म। कोई पागल सा। कौन है यह पागल? एक बुर्जुग ने आशंका जाहिर की-‘कहीं ये ‘भेड़िये’ का लेखक भुवनेश्वर तो नहीं।’ इलाहाबाद के तंग कमरे में पड़े निराला आवाज देते हैं-‘दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूं आज जो नहीं कही।’

          मुक्तिबोध मृत्यु शैया पर पड़े हैं। बेसुध। बेहलचल। उनको तबके हिंदी समाज के कुछ लोग घेरे हुए हैं-‘उठिए, मुक्तिबोध जी, देखिए आपका पहला काव्य संग्रह आया है-‘चांद का मुंह टेढ़ा है’। मुक्तिबोध में कोई जुम्बिश नहीं। आसमां पर चांद पूरी बेशर्मी के साथ मुस्कुरा रहा है कवि की दुदर्शा पर जिसने उसके सौंदर्य का मजाक उड़ाया। कटघरे में खड़े मंटो कहते हैं-‘आपका समाज ही नाकाबिले-बर्दाश्त है-मैं रफूगर नहीं जो नंगे समाज के लिए कपड़े सिलूं।’ राजकमल चौधरी बीमार है और अस्पताल में हैं। वे अस्पताल में पड़े-पड़े कविताएं लिख रहे हैं-मुक्तिप्रसंग...

          टूटती नहीं है यह

          लोकतांत्रिक पद्धतियां

          बल्कि आदमी को धीरे-धीरे

          झुकने को मजबूर करती हैं।

          अकविता का दंश झेलते हुए धूमिल मंच से अपनी कविता पढ़ रहे हैं-

          इस देश का संविधान

          एक ऐसा घानी है

          जिसमें आधा तेल

          आधा पानी है।

          एक साठ साल का व्यक्ति सुनसान में गुमसुम चला जा रहा है ओवर कोट पहने, मैं स्वदेश दीपक हूं। मैं गुमशुदा हूं। लोग मुझे खोज रहे हैं। जिंदगी ने ही मेरा ‘कोर्ट मार्शल कर दिया। न किये कि सजा दे दी... मैं लौटना चाहता हूं, मगर किसके लिए... उनके लिए जिन्होंने मुझे पागल बना दिया।’

          एक दूसरे व्यक्ति मीट की दुकान पर गोश्त के टुकड़े-टुकड़े कर तौल रहा था-‘मैं कथाकार हूं। हिंदी का बड़ा कथाकार। मैंने होटलों में बर्तन मांजे... अब मीट की दुकान पर मीट काट रहा हूं... संघी बताकर मुझे भी पागल बना देने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई।’ आत्महत्या करने से पहले गोरख पाण्डे गा रहे है- ‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’

          धुएं में एक साथ कई आकृतियां। लगातार टहलती। घूमती। भटकती। बेबस। उदास... उदास-बेचैन लोगों को कोलाज।

          सामूहिक आवाज-‘हम दिल्ली नहीं हैं। दिल्ली में नहीं है...-हमारे भीतर दिल्ली नहीं है। हम शब्द भर जीवन... शब्द भर सम्मान, शब्द भर सुकून चाहते हैं... हम जो लेखक हैं और हाशिए पर है लेखक नहीं है। कोई बताए हम पागल क्यों हैं, कौन है जो हमें पागल बना रहा है, आत्महत्या करने को मजबूर कर रहा है, असाध्य बीमारियां दे रहा है? हम क्यों अश्वथामा की अभिशप्तता झेलने को विवश है? क्यों... क्यों... क्यों...’

          मैं घबरा उठा। सारे मसामों ने एक साथ पसीना उगल लिया। हम अंधेरे से निकलना चाहते थे- टीवी ऑन किया। बाहर बारिश होने लगी थी। टीवी का एंकर बदल गया था। मगर खबर परोसने का उसका अंदाज वही था। ‘आज की रात कयामत की रात है। एक से बढ़कर एक दिल को थर्रा देने वाली खबरें आ रही हैं... अपनी परंपरा को तोड़ते हुए स्टूडियो में एक गरीब बूढ़े को बुलाया गया था उसके पास समाधान था। उसने सलाह दी कि आप लोग घरों से बाहर निकल आपस में गले मिले। सुख-दुख बांटे तो पुल ठीक हो जाएंगे। नहीं तो पूरे देश के पुल टूटने लगेंगे। राजधानी से तमाम मंदिरों में भक्तगणों के भाव बदल गए हैं। उनकी हाथों में पूजा की थाली नहीं, फूल नहीं... धूप-अगरबत्ती, प्रसाद नहीं, मशालें है... जलती मशालें। मंदिर के भीतर खड़े लोग ईश्वर के आगे प्रार्थना की मुद्रा में नहीं बागी तेवर लिए खड़े हैं। लोग घरों से निकल आए हैं, गले मिलकर बतिया रहे हैं। अभी-अभी खबर आई है कि तेज बारिश शुरू हो गई है... पुल अब खुद-ब-खुद ठीक हो रहे हैं। लोग जो कुछ देर तक पहले तक कीड़े की तरह जमीन पर रेंग रहे थे। वे धीरे-धीरे खड़े होकर पुल पार कर रहे हैं... प्रशासन ने ऐलान किया है... अब इस पुल से गाड़ियां नहीं, आदमी गुजरेंगे। मशीनी गाड़ियाें के लिए अलग रास्ते बनाए जाएंगे।

          लोग पुल से बड़ी तादाद में गुजर रहे हैं। मैंने टीवी ऑफ कर दिया। भीतर से एक मुलायम उम्मीदों से लबरेज कोई खुशगवार आवाज उठी। भीतर कोई था जिसने आवाज दी- ‘चलो, बारिश में भीगा जाए... पुल पार किया जाए।’

प्रेम भारद्वाज
premeditor@gmail.com
093 50 54 4994

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