जब भी खाने को दौड़ी है तन्हाइयाँ
मेरी इमदाद को दौड़ी आती ग़ज़ल
मेरी इमदाद को दौड़ी आती ग़ज़ल

गुदगुदा कर है मुझको हँसाती ग़ज़ल
जुगनुओं से उसे रोशनी मिल गई
तीरगी में भी है झिलमिलाती ग़ज़ल
धूप में, छांव में, बारिशों में कभी
तो कभी चांदनी में नहाती ग़ज़ल
कैसी ख़ुश्बू है ये उसकी गुफ़्तार में
रंगों-बू को चमन में लजाती ग़ज़ल
जब भी खाने को दौड़ी है तन्हाइयाँ
मेरी इमदाद को दौड़ी आती ग़ज़ल
उससे हट के कभी पढ़ के देखो ज़रा
कैसे फिर देखना रूठ जाती ग़ज़ल
दोनों कागज़ , क़लम कैसे ख़ामोश हैं
जब मेरी सोच को थपथपाती ग़ज़ल
मैले हाथों से छूना न ‘ देवी ’ इसे
मैली होने से बचती- बचाती ग़ज़ल
*
इक नुमाइश की तरह ही बस टंगा रहता हूँ मैं
सच पे पर्दा हूँ कि हरदम ही गिरा रहता हूँ मैं
क्या मुक़द्दर में लिखा है यूं ही मुझको डूबना ?
ऊंची-ऊंची उठती मौजों से घिरा रहता हूँ मैं
मेरे बचपन के खिलौने लग रहे हथियार बंद
खेलता था जिनसे कल तक अब डरा रहता हूँ मैं
किस क़दर बिगड़ी हवाएँ आजकल यारां मेरे
ख़ैरियत अब तो सभी की मांगता रहता हूँ मैं
छटपटाहट मेरे तन की क़ैद में कैसी है ये
उसकी पीड़ा से सदा बेचैन सा रहता हूँ मैं
ग़लतफ़हमी आंसुओं को देख कर मत पालिए!
रास्ता बहने से ‘ देवी ’ रोकता रहता हूँ मैं
9-डी॰ कॉर्नर व्यू सोसाइटी, 1/33 रोड, बांद्रा , मुंबई फ़ोन: 9987938358