मैं महाकवि निराला जी से मुखातिब हुआ था - प्राण शर्मा
बाऊ जी ने कहा - " देख बेटे , हिंदी रत्न की परीक्षा तूने अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर ली है अब लगे हाथों प्रभाकर भी कर ले। ये ले सौ रूपये और नालंदा कॉलेज के प्रिंसिपल राम लाल जी से पूछ कर सभी पुस्तकें खरीद ले। हिंदी की अच्छी शिक्षा पायेगा तो विद्वान बनेगा। महात्मा गांधी जी ने कभी कहा था - ` भारत के वे लोग असली शत्रु हैं जो भारतीय होते हुए भी व्यवहारिकता में अँगरेज़ हैं। " सच ही कहा था उन्होंने। उन लोगों की ` कृपा ` से आज समूचा भारतीय समाज अंग्रेज़ी की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ नज़र आ रहा है। नगर - नगर में अब अंग्रेज़ी के पब्लिक स्कूलों की भरमार हो रही है। उनका जाल फ़ैल रहा है। सरकारी दफ्तरों और संस्थाओं में अंग्रेज़ी का ही बोलबाला हो रहा है। हर पढ़ा लिखा अंग्रेज़ी के अखबार और पत्रिकाएँ अपनी बगल में दबाये घूम रहा है। ऐसे भी लोग हैं जिन्हें अपनी - अपनी भाषा की चिंता है। तुझे प्रभाकर और हिंदी में एम ए कर के ऐसे निष्ठावान , कर्मठ , प्रतिबद्ध और समर्पित लोगों का अनुसरण करना है , उनके कन्धों से कंधा तुझे मिला कर चलना है। बेटे , तेरी पहचान हिंदी से है। अगर उसे खो दिया तो समझ ले कि तूने सब कुछ खो दिया। बेटे , अपनी भाषा माँ के समान होती है तभी तो वह मातृभाषा कहलाती है। तुझे व्यवहारिकता में भारतीय बनना है , अँगरेज़ नहीं। अँगरेज़ तो चले गए लेकिन अपनी ज़बान अंग्रेज़ी छोड़ गए हैं , अँगरेज़ परास्त लोगों के संरक्षण में फलने - फूलने के लिए। "
बाऊ जी की बातें मुझ पर असर कर गयीं। वे हिंदी , संस्कृत और अंग्रेज़ी के विद्वान थे। आवश्यकता पड़ने पर ही वे अंग्रेज़ी में बोलते थे। पंजाबी थे , पंजाबी में तो बोलते ही थे लेकिन जब हिंदी में बोलते थे तो लगता था कि जैसे कोई बनारसी पंडित बोल रहा रहा था. उनकी बड़ी अभिलाषा थी कि उनके चार बेटों में कोई तो उन जैसा हिन्दी का विद्वान बने। उन्होंने कुछ इस अंदाज़ से उपदेश दिया कि उनके मुँह से निकला हुआ एक - एक शब्द शब्द गुलाब की पाँखुरी जैसा कोमल लगा। यूँ तो वे कोमल ह्रदय के थे लेकिन कभी - कभी उनको किसी नाज़ायज बात पर गुस्सा भी आ जाता था और उनका वह गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच जाता था। मेरे एक मित्र थे - महेंद्र कुमार। उनके पिता जी भी नरम तबीयत के थे , वे भी नाज़ायज़ बात को सहन नहीं कर पाते थे और उनका गुस्सा भी सातवें आसमान पर पहुँच जाता था। मैं सोचता था कि क्या सभी विद्वान ऐसे ही होते हैं ?
खैर , बाऊ जी की बातों से मैं इतना प्रभावित हुआ कि एक सौ रूपये मैंने अपनी जेब में डाले और दुसरे दिन सुबह सब से पहला काम मैंने नालंदा कॉलेज में प्रवेश पाने का किया। प्रिंसिपल राम लाल जी से प्रभाकर की पुस्तकें की सूची ली और लाजपत नगर की मार्केट के पुस्तक विक्रेता के पास पहुँच गया। सभी पुस्तकें खरीदने में देर नहीं लगी। उनका भारी - भरकम थैला उठाये मैं घर पहुँचा।
बाऊ जी अति प्रसन्न थे क्योंकि उनकी आज्ञा का पालन मैं बखूबी कर रहा था। घर में उत्सव जैसा वातावरण हो गया था। नयी दिल्ली का एक इलाक़ा है - सुन्दर नगर। वाक़ई सुन्दर इलाक़ा है अब भी। उसकी मार्किट से ढेर सारे रसगुल्ले मँगवाये गए। बाऊ जी , बी जी , छोटे भाई , छोटी बहन और मैंने सबने ख़ूब खाये। बहुत सारे रसगुल्ले बच गए थे। बाऊ जी ने मुझ से पूछा - " कितने हैं तेरे मित्र ? "
" जी , पाँच - छै हैं। "
" इन्हें ले जा और खिला अपने मित्रों को। "
प्रभाकर में प्रवेश पाने से सब से अधिक लाभ मुझे यह हुआ कि मुझको छंद शास्त्र का ज्ञान हुआ। दोहा, चौपाई, रोला, पीयूष वर्ष, सोरठा इत्यादि कई सरल छंद मेरे मस्तिष्क में समा गए थे। जब कभी मैं उन में कोई पंक्ति लिखता तो उसे गाते-गुनगुनाते हुए मुझे अच्छा लगता था।
उन्हीं दिनों संयोग से नालंदा कॉलेज में कविवर उदय भानु हंस के दर्शन हुए। वह अतिथि अध्यापक के रूप में कुछ घंटों के लिए वहाँ आये थे। उनके नाम अनगिनत ग़ज़लें, रुबाइयाँ और कविताएँ हैं। उन को सामने पा कर बड़ा अच्छा लगा मुझे। उन के मुख से उनकी कई रुबाइयाँ सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी यह रुबाई तो आज तक मेरे मस्तिष्क में है -
मैं साधू से आलाप भी कर लेता हूँ
मंदिर में कभी जाप भी कर लेता हूँ
मानव से कहीं देव न बन जाऊँ मैं
यह सोच के कुछ पाप भी कर लेता हूँ
चूँकि मैं आम भाषा में लिखी कविताओं का मुरीद हूँ इसलिए प्रभाकर में लगे काव्य संकलन में कई सरल और ह्रदय स्पर्शी कविताएँ थीं जो मेरे मस्तिष्क में ही नहीं , मेरे मन भी अंकित हो गईं थीं। उन कविताओं की कुछ पंक्तियाँ यूँ हैं -
बुंदेले हरबोलों के मुँह हम ने सूनी कहानी थी
ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी
सुभद्रा कुमारी चौहान
मैं नीर भरी दुःख की बदली
मेरा परिचय , इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली
महादेवी वर्मा
इस पार प्रिय तुम हो मधु है
उस पार न जाने क्या होगा
हरिवंश राय बच्चन
मैं ढूँढता तुझे था जब कुञ्ज और वन में
तू खोजता मुझे था तब दीं के वतन में
तू आह बन किसी की मुझ को पुकारता था
मैं था तुझे बुलाता संगीत के भजन में
राम नरेश त्रिपाठी
वह आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता
पथ पर आता
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिस से उथल - पुथल मच जाए
एक हिलोर इधर से जाए
एक हिलोर उधर से आये
जग में त्राहि - त्राहि मच जाए
बाल कृष्ण शर्मा नवीन
सदियों से ठंडी - बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह , समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
रामधारी सिंह दिनकर
चाह नहीं , मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊँ
चाह नहीं , प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ
मुझे तोड़ लेना वन माली उस पथ देना तुम फैंक
मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जावें वीर अनेक
माखन लाल चतुर्वेदी
मेरा मन उन पंक्तियों में ऐसा रमा रहता कि उन्हें मैं बार-बार पढ़ता , उनका बार-बार रस लेता। एक दिन बाऊ जी महाकवि निराला जी की क्लिष्ट कविता ` राम की शक्ति पूजा ` कहीं से ले आये , मेरा शब्द-सामर्थ्य बढ़ाने के लिए। कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ थीं -
आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर, वेग-प्रखर
शतशेल सम्वरणशील, नील नभ-गर्जित-स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह - भेद-कौशल-समूह
राक्षस-विरुईद्ध-प्रत्यूह, - क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह,
शतशेल सम्वरणशील, नील नभ-गर्जित-स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह - भेद-कौशल-समूह
राक्षस-विरुईद्ध-प्रत्यूह, - क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह,
उन को पढ़ते ही मेरा अपरिपक्व मस्तिष्क चक्कर खा गया , मेरे पसीने छूट गए। मैंने बाऊ जी से विनम्रता से कहा - " अभी मैं इतना समर्थ नहीं हूँ कि ऐसे क्लिष्ट शब्दों को आत्मसात कर सकूँ।" वह नहीं मानें क्योंकि उन्हें मुझे विद्वान बनाना था। वे जबरन मुझे अपने पास बिठा लेते और `राम की शक्ति पूजा` की पंक्तियों के क्लिष्ट शब्दों के अर्थ समझाने लगते। उन के बार - बार समझाने पर भी मेरी अल्प बुद्धि उन्हें पचा नहीं पाती। मैं दूसरी पंक्तियों के शब्दों के अर्थ समझता और उन की पहली पंक्तियों के शब्दों के अर्थ भूल जाता। हमेशा वैसा ही होता। वे बार - बार समझाते रहे।
एक दिन मैं `विद्धांग` शब्द का अर्थ भूल गया। बाऊ जी ने समझाया लेकिन दूसरे दिन फिर भूल गया। उन के धैर्य का बाँध टूट गया। देखते ही देखते वे लाल - पीले हो गए। सिंहनाद कर उठे - " तेरा ध्यान कहाँ रहता है ? " उन के धमाकेदार तमाचें शुरू हो गए। कभी मेरी एक गाल पर और कभी मेरी दूसरी गाल पर। मेरी आँखों में आँसुओं की झड़ी लग गई। मुझे बुरी तरह पिटता देख कर बी जी कराह उठीं। छोटा भाई और छोटी बहन डर के मारे उन की पीठ के पीछे लुक गए। पड़ोस वाली मेरी हमउम्र निशि जो साग और मक्की की रोटियाँ देने आयी थी, उस कारुणिक दृश्य से सुबक उठी और अपनी गीली आँखों को दुपट्टे के कोने से छिपा कर अपने घर भाग गई।
बाऊ जी के प्रति मेरे मन में कोई रोष नहीं था। उन्होंने मेरे भले के लिए ही मुझे पीटा था। आज पीटा है तो कल वे अपनी छाती से भी लगाएँगे। लेकिन मन दुखी था , उन की मार की पीड़ा के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी। बड़ी मुश्किल से आँख लगी। आँख लगते ही सपना आ गया। सपना में निराला जी थे। पूछने लगे - " इतना उदास क्यों है ? "
मेरी आँखों से आँसू टपकने शुरू हो गए। दोनों हाथों से उन्हें पोंछते हुए मैं उन से मुखातिब हुआ - " निराला जी , आप तो राम की शक्ति पूजा लिख कर क्लासिकल पोएट बन गए हैं लेकिन आपकी उस कविता के एक ही शब्द ` विद्धांग ` ने मेरा अंग - अंग ढीला करवा दिया है , उस ने मेरी कितनी दुर्गति करवाई है , आप क्या जानें ? देखिये मेरे गालों की सूजन। "
महाकवि निराला जी ने सहलाने के लिए मेरा दाहिना गाल छुआ ही था कि मेरा सपना टूट गया।
प्राण शर्मा
3 Crackston Close, Coventry, CV2 5EB, UK
14 टिप्पणियाँ
रंजक संस्मरण. पूरा पढ़ा. आनंद आ गया. आपकी शैली के कारण और अधिक रसर्जित हुआ
जवाब देंहटाएंआगे भी तो लिखना था …………बेहद उम्दा संस्मरण
जवाब देंहटाएंप्रिय भाई प्राण शर्मा जी आपका महाकवि निराला जी से सपने में हुई छोटी सी मुलाकात से पहले का हिंदी साहित्य से आदरणीय पिता जी के द्वारा जुड़ने की प्रक्रिया को जिस तरह आपने अपने संस्मरण के माध्यम से प्रस्तुत किया है वह काबिले तारीफ है,आपका यह संस्मरण पाठक को पूरे समय बाँधने में सक्षम तथा दिशा देता हुआ महसूस हुआ है.अति सुन्दर है जिसके लिए मैं आपको बधाई देता हूँ.
जवाब देंहटाएंप्राण जी , नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी विशिष्ट शैली में लिखे गए लेख ने मानो हिंदी के प्रति मेरे प्रेम को और बढ़ावा दिया है . सच कहता हूँ सर , बहुत अच्छा लगता है . आपको पढना और विशेष रूप से ये संस्मरण . कितनी के कवियों की कितनी सारे कविताओं का भी संस्मरण हो गया !
आपका आभार और धन्यवाद
विजय
प्राण जी , नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी विशिष्ट शैली में लिखे गए लेख ने मानो हिंदी के प्रति मेरे प्रेम को और बढ़ावा दिया है . सच कहता हूँ सर , बहुत अच्छा लगता है . आपको पढना और विशेष रूप से ये संस्मरण . कितनी के कवियों की कितनी सारे कविताओं का भी संस्मरण हो गया !
आपका आभार और धन्यवाद
विजय
बहुत सुन्दर संस्मरण. पिता जी की उस पिटाई का प्रभाव कहना होगा कि आप एक बड़े साहित्यकार बन गए.
जवाब देंहटाएंरूपसिंह चन्देल
बहुत सुन्दर संस्मरण. पिता जी की उस पिटाई का प्रभाव कहना होगा कि आप एक बड़े साहित्यकार बन गए.
जवाब देंहटाएंरूपसिंह चन्देल
आपकी साहित्य यात्रा की झलकियाँ बहुत पसन्द आईं
जवाब देंहटाएंआपकी साहित्य यात्रा की झलकियाँ बहुत पसन्द आईं
जवाब देंहटाएंबाबूजी की पिटाई का पढ़ कर कष्ट हुआ लेकिन उनके आशीर्वाद से ही आज आप जन जन के प्रिय और हम सब के गुरु हैं -- बहुत रोचक संस्मरण -- अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा
जवाब देंहटाएंनीरज
संस्मरण के भीतर एक कहानी और कहानी की गतिशिलता। बहुत अच्छा लगा कि सपना साहित्यकार का आता है। आज मैंने पहली बार पढा कि किसी को साहित्यकार सपने में आकर बोलता है। विवेकी राय का एक उपन्यास है 'नमामि ग्रामम्' उसमें गांव लेखक के सपने में आकर अपनी दुर्गत का बखान कर रहा है। ऐसे ही लेखकों ने कई सपनों का आधार लेकर बडी-बडी रचनाएं लिखी है। सपना कल्पना का प्रतिरूप है पर असल में कोई रचनाकर सपने में आकर बतियाएं अत्यंत रोमांचकारक है। शुरूआत में अंग्रेजीयत पर किया हुआ आघात, तथा हिंदी की पढाई के दौरान पढे कवियों का जिक्र आपकी लगन और प्रतिबद्धता को दिखाता है।
जवाब देंहटाएंआपकी साहित्यिक यात्रा बहुत ही रोचक है ... बाबू जी की पिटाई का असर ही है जो आज आप जाने माने गज़लकार हैं ... निराला जी का सपने में आना भी किसी आशीर्वाद से कम नहीं ...
जवाब देंहटाएंसंस्मरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा. उस पिटाई का नतीजा आपकी लेखनी में दिखता है. सपने में सही निराला जी के दर्शन तो हुए. वैसे मैंने भी बहुत कोशिश की कि निराला जी की इन पंक्तियों को समझ पाऊँ, समझ नहीं आया. रोचक संस्मरण के लिए बधाई.
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम. मैंने विद्धांग के अर्थ की खोज मे ही आपका यह लेख padha. रोचक है आपकी यात्रा.
जवाब देंहटाएंअनुरोध यह है की अब आप मुझे भी इस शब्द का अर्थ बता दीजिए ताकि मै भी मर से बच जाऊ.