चौं रे चम्पू
यादों के खट्टे-मीठे फल
अशोक चक्रधर
हिन्दी हमारे देश में बैकफुट पर रहती है, कभी अपने आपको बलपूर्वक आगे खड़ा नहीं करती।
चौं रे चम्पू! तेरौ साउथ अफरीका कौ प्रवास कैसौ रह्यौ?
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बहुत अच्छा! पता ही नहीं चला कि आठ-नौ दिन कैसे बीत गए। सुबह से लेकर रात तक व्यस्तता बनी रहती थी। दक्षिण अफ़्रीकी जनजीवन और भारतवंशियों की संस्थाओं से परिचित होने का मौका मिला।
डरबन के रेल्वे स्टेसन की तौ बताई हती, और बता!
जैसे हमारे देश में कहा जाता है कि यहां अनेकता में एकता है, वैसे ही वहां का राष्ट्र-वाक्य है, ’इके क़र्रा के’। यानी, विविधता में एकता। लगभग पांच करोड़ की आबादी का देश है और दस लाख से ज़्यादा भारतवंशी वहां रहते हैं। हिन्दू भारतवंशियों के लिए आर्यसमाजियों ने बहुत काम किया और आज भी कर रहे हैं।
जैसै कौन से काम?
’हिन्दी शिक्षा संघ’ के माध्यम से हिन्दी का प्रचार-प्रसार तो कर ही रहे हैं, पर मुझे सबसे ज़्यादा अच्छा लगा अनाथाश्रम और वृद्धाश्रम ‘आर्यन बेनेवोलेंट होम’। । इसकी स्थापना एक मई उन्नीस सौ इक्कीस में हुई थी। तब इसका नाम ’आर्य्य अनाथ आश्रम’ था। साठ साल बाद सन इक्यासी में जीर्णोद्धार हुआ। ऐसा साफ़सुथरा और सेवाभावना से ओतप्रोत स्थान मैंने भारत में भी नहीं देखा, चचा। वृद्धजन की देखरेख मात्र दिखावे के लिए नहीं थी। चेहरे देखकर पता चलता था कि उनको सचमुच का आदर और प्रेम दिया जा रहा था।
सिरफ हिन्दू ई ऐं का ब्रिद्धास्रम में?
नहीं, वहां हर धर्म-वर्ण के लोग हैं। दक्षिण अफ्रीका के स्वाधीनता संग्राम सेनानी किस्टेन मूनसमी से मिलकर खुशी मिली। उन्होंने चौदह साल नेल्सन मंडेला के साथ जेल मे बिताए थे। अब बीमार हैं। उम्र पिचासी से ऊपर होगी। मंडेला का नाम सुनते ही कुछ बुदबुदाते हैं और खुश होते हैं। पता लगा कि उनकी संतानों ने उन्हें छोड़ दिया था क्योंकि साधनसम्पन्न नहीं थे। वहां एक वृद्धा थीं जो अपने यौवन का चित्र दिखाती थीं, सुन्दर तो वे अभी भी थीं। वहां डॉक्टरों-नर्सों का बढ़िया इंतज़ाम और वृद्धों के प्रति आदरभाव है। अनाथाश्रम भव्य है। एक दिन से लेकर एक साल तक के बच्चों को ये लोग कभी सड़क से, कभी किसी चर्च के सामने से, कभी कचरे के ढेर से उठा लाते है। श्वेत-सुंदर पालनों की कतार को देखकर मैं बड़ा रोमांचित हुआ। नर्सों-परिचारिकाओं का ममत्व अविस्मरणीय है चचा।
और बता।
भारत सन सैंतालीस में आज़ाद हो गया था और ये देश अब से बीस साल पहले ही आज़ाद हुआ है। इसका मतलब ये कि जब हम अपने देश में आज़ाद थे तब सुदूर दक्षिण अफ्रीका में भारतवासी आज़ाद नहीं थे। ग़ुलामी झेल रहे थे। रंगभेद के कारण गोरों के अत्याचार सह रहे थे। भारतीयों का रंग भी तो कालेपन की ओर ही होता है न! कभी यहां से खदेड़ा. कभी वहां से खदेड़ा, कितनी बार निर्वासित हुए, कितनी बार विस्थापित कर दिए गए, लेकिन वे यह मानते हैं कि हिन्दी भाषा और पूर्वजों द्वारा लाई हुई संस्कृति ने हर बार मज़बूत बनाया और पुनर्वास किया। ‘हिन्दी शिक्षा संघ’ के लोगो में लिखा हुआ है, ‘हिन्दी भाषा अमर रहे।’ ऐसा नारा आप भारत में व्यवहार में नहीं ला सकते। सीसैट के प्रश्नपत्र के लिए हिन्दी का अनुरोध करने वाले छात्रों के साथ क्या हो रहा है, देख ही रहे हैं आप। हिन्दी हमारे देश में बैकफुट पर रहती है, कभी अपने आपको बलपूर्वक आगे खड़ा नहीं करती। लेकिन साउथ अफ्रीका में हिन्दी ने हमारे भारतवंशियों को ताक़त दी और एकजुट रहने का हौसला दिया। ये बात यहां समझ में नहीं आ सकती।
कैसी हिन्दी बोलें व्हां?
टूटी-फूटी ही बोल पाते हैं। मातृभाषा तो अंग्रेज़ी ही है। वहां के भारतवंशी युवाओं में ’हिंदवाणी’ रेडियो स्टेशन के माध्यम से हिन्दी गीतों के प्रति दिलचस्पी बढ़ रही है। गांधीजी से जुड़ी संस्थाएं तो स्मारक भर हैं। फीनिक्स में गांधी आश्रम और गांधीजी द्वारा 1903 में संस्थापित ’इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस’ की इमारतें तो खड़ी हैं पर उनके इर्दगिर्द विकास नहीं हुआ। अश्वेतों की झुग्गी-बस्तियां हैं। अर्धपोषित या कुपोषित बच्चे, सामने के मैदान में किलोल करते रहते हैं। गांधी टॉल्सटॉय फार्म में भी वीरानी है। कभी वहां एक हजार एक सौ एकड़ की भूमि पर फलदार वृक्ष थे। सत्याग्रहियों का स्वावलंबी जीवन था। 1913 के आंदोलन में बस्ती को उजाड़ दिया गया। अब भारत के सहयोग से वहां गांधी टॉलस्टॉय रिमेम्ब्रेंस पार्क बनाया जा रहा है। फिर से पेड़ उगाए जाएंगे, फिर से लगेंगे, यादों के खट्टे-मीठे फल।
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